लंबे
समय बाद जब घर में बेटा पैदा हुआ तो माँ-बाप ने उसे धनपतराय कहकर बुलाया। ताऊ उसे
प्यार से नवाब कहते थे। घर के इस दुलारे का मन गुल्ली-डंडा खेलने, कनकौए
लड़ाने और रामलीला में भागीदारी करने के साथ-साथ जल्दी ही लिखने-पढ़ने की ओर
आकर्षित हो गया। वह देश-विदेश (मुख्यतः रूस) के साहित्य के अध्ययन में डूब गया।
शुरूआती झिझक के बाद इसने नवाब राय नाम से लिखना शुरू किया। इसका बचपन दरिद्रता
में बीता था, यौवन की दहलीज़ पर भी अवस्था कुछ वैसी ही थी।
जीवन में सतत् रही विवशता, अस्थिरता और जीविकोपार्जन के लिए
एक से दूसरे स्थान पर भटकते रहने ने इस उभरते लेखक को तीव्र और गहन अनुभूति दी।
इसकी रचनाओं में परिवेश और समय की समस्याएँ और चुनौतियाँ एक चित्र की तरह दिखने
लगीं और उसने ऐसे पात्रों के क़िस्सों को काग़ज़ पर उतारा जिनकी उसे प्रतीति थी। देश
तब ग़ुलामी की ज़ंजीरों में जकड़ा था। उसके शासकों ने जब यह पाया कि एक युवा अपनी
कहानियों से उनके अडि़ग-से शासन के लिए चुनौती बन सकता है तो हुक़्मनामा जारी कर
लेखक के पहले कहानी संग्रह ‘सोज़े वतन’ की सारी प्रतियाँ ज़ब्त करा लीं। तब तक यह नौजवान ब्रिटिश सरकार का मुलाज़िम
बन चुका था, यानी अब वह क़ानूनन अपने पुराने नाम से नहीं लिख
सकता था। लिखने की लौ पूरी तरह से उसमें जग चुकी थी और शासन के इस क़दम ने उसे हवा
देने का काम किया था। नाम की समस्या दोस्त मुंशी दयानारायण निगम ने जल्दी ही सुलझा
दी। उन्हीं ने ‘प्रेमचंद’ नाम सुझाया।
यह नाम कालांतर में हिंदी साहित्य के महानतम कहानीकार का हुआ और हिंदी-भाषियों तथा
समस्त संसार के लिए वह भारतीय-गल्प-साहित्य का पर्याय बना। हमें आज प्रेमचंद नाम
बिना मुंशी के अधूरा-सा लगता है। नाम में ‘मुंशी’ के साथ उनकी रचनाएँ कभी प्रकाशित नहीं हुईं। बात दरअसल यह है कि हंस पत्र
का संपादन प्रेमचंद और कन्हैयालाल मुंशी संयुक्त रूप से करते थे, पत्रिका पर अक्सर छपा रहता था, संपादक - मुंशी,
प्रेमचंद। पाठकों ने अल्पविराम पर जल्दी ही ध्यान देना बंद कर दिया
और प्रेमचंद को ही मुंशी प्रेमचंद बना दिया।
चुनौतियों की चट्टानें और अभावों के शुष्क पठार इस लेखक के जीवन में सदा बने रहे। वह उनसे विचलित हुए बिना सामान्य-सा जीवन बिताता गया; परंतु साहित्य को अपनी पैनी नज़र और प्रखर लेखनी से तराशता गया, उसे जीवन के अधिकाधिक समीप लाता गया। उसी के शब्दों में उसके जीवन की बयानी, “मेरा जीवन सपाट, समतल मैदान है, जिसमें कहीं-कहीं गड्ढे तो हैं, पर टीलों, पर्वतों, घने जंगलों, गहरी घाटियों और खंडहरों का स्थान नहीं है। जो सज्जन पहाड़ों की सैर के शौक़ीन हैं, उन्हें यहाँ निराशा होगी।” वह साहित्य सेवा को तपस्या मानता था और उसकी धारणा थी, “साहित्यकार मानवता, दिव्यता और भद्रता का बाना बाँधे होता है। जो दलित है, पीड़ित है, वंचित है - चाहे वह व्यक्ति हो या समूह, उसकी हिमायत और वकालत करना उसका फ़र्ज़ है। उसकी अदालत समाज है, इसी अदालत के सामने वह अपना इस्तग़ासा (दलील) पेश करता है।”
प्रेमचंद को जो साहित्य विरासत में मिला था, उसमें या तो शीरी-फरहाद जैसी प्रेम गाथाएँ थीं, या औत्सुक्यवर्धक घटनाओं से भरी हुई रचनाएँ, या फिर जासूसी या ऐयारी के क़िस्से। देशकालीन सामाजिक विशेषताओं और मानव की सहज वृत्तियों का अभाव इन उपन्यासों का सबसे बड़ा दोष था। प्रेमचंद ने पिछली सारी परम्पराओं को तोड़कर उपन्यास को एक नया धरातल और विकास की नयी दिशा दी। प्रेमचंद का काल राजनीतिक क्षेत्र में गाँधी के पदार्पण और नई राष्ट्रीय-चेतना के जागरण का काल था। वे साहित्य को सच्चे जीवन की सच्ची आलोचना और काल का प्रतिबिंब मानते थे। उनके बारे में डॉ. इन्द्रनाथ मदान का मत है - “प्रेमचंद इस संसार के सामाजिक दार्शनिक हैं और उनका प्राथमिक उद्देश्य उस समाज के क्रमिक विकास का प्रदर्शन करना है जो सामाजिक-आर्थिक विषमता और राजनैतिक दासता पर आधारित है।”
आमतौर पर इतिहास की किताबों के तथ्यों के आधार पर किसी काल की तस्वीर उकेरी जाती है। प्रेमचंद के साहित्य के क्रमिक विकास में देश में घट रही सभी मुख्य घटनाओं और देशवासियों की सभी ज्वलंत समस्याओं का सिलसिलेवार ब्यौरा मिलता है।उनके कथ्य उनके कर्मों से अलग नहीं थे। उनका पहला उपन्यास ‘प्रेमा’ है, जो पहले ‘हमखुर्मा व हमसवाब’ के नाम से उर्दू में सन् १९०४ में प्रकाशित हुआ था। यही रचना कुछ समय बाद परिवर्तित रूप में ‘प्रतिज्ञा’ के नाम से प्रकाश में आई। इस उपन्यास का आधार विधवा-समस्या है और उसके समाधान-रूप में विधवा-विवाह प्रस्तावित है। प्रेमचंद ने दूसरी शादी बाल-विधवा शिवरानी देवी से की थी, जो वास्तव में उनकी अद्भुत जीवन-संगिनी सिद्ध हुईं। ममता का हाथ प्रेमचंद के सिर से सात वर्ष की उम्र में उठ गया था। पिता ने दूसरी शादी कर ली थी, जो परिवार के लिए अधिक सुखद न निकली। प्रेमचंद ने विमाता के प्रति कर्तव्य-निर्वहन पत्नी शिवरानी के साथ संबंधों में कड़वाहट ला कर भी किया। घर-परिवार के प्रति उनकी कर्तव्य-निष्ठा का ज़िक्र करते हुए शिवरानी देवी ‘प्रेमचंद घर में’ पुस्तक में लिखती हैं कि प्रेमचंद घर के कामों में बराबरी से हाथ बँटाते थे और ज़रूरत होने पर बच्चों के लालन-पालन से लेकर अन्य सभी काम ख़ुद करते थे।
प्रेमचंद की कहानियों में गहरी दोस्ती का ज़िक्र कई बार आता है। पंच परमेश्वर के जुम्मन शेख़ और अलगू चौधरी तथा शतरंज के खिलाड़ी के मीर और मिर्ज़ा की दोस्ती किसको याद नहीं! प्रेमचंद भी ख़ूब यारबाश और मिलनसार आदमी थे। कानपुर की ‘ज़माना’ पत्रिका के संपादक मुंशी दयानारायण निगम उनकी कहानियों को छापने वाले पहले थे, सोज़े वतन की पॉंचों कहानियाँ पहले ‘ज़माना’ में छपी थीं। निगमजी ही वे व्यक्ति थे जिनसे प्रेमचंद राजनीतिक और सामजिक मुद्दों के साथ-साथ अपनी सभी निजी, पारिवारिक और घरेलु समस्याओं पर खुल कर चर्चा करते थे और निगम जी के सुझाव स्वीकार करते थे। ‘सरस्वती प्रेस’ का नाम भी निगमजी ने सुझाया था। साहित्य के क्षेत्र में जयशंकर प्रसाद, जैनेंद्र और ‘चकबस्त’ से भी उनकी घनिष्ठता थी। अपने परिवेश से जो प्रेरणाएँ पाईं, वे उनके सृजन के लिए वरदान बनीं। उनकी रचनाओं में निजी और सामाजिक जीवन के अनुभव यत्र-तत्र-सर्वत्र बिखरे मिलते हैं। वे अपनी कलम को समाज में वांछित परिवर्तन का साधन बनाना चाहते थे और यथासामर्थ्य उसमें लगे रहे।
प्रेमचंद की औपन्यासिक-यात्रा (वर्ष १९०४-१९३६) अपने काल का सामजिक-सांस्कृतिक दस्तावेज़ है। उनके उपन्यास दिखाते हैं कि उस दौर के समाजसुधार आंदोलनों, स्वाधीनता-संग्राम तथा प्रगतिवादी आंदोलनों से समाज कैसे प्रभावित हो रहा था। उनके शुरूआती उपन्यास ‘प्रेमा’, ‘वरदान’ और ‘सेवा-सदन’ तीनों नारी-समस्या पर आधारित हैं। ‘प्रेमा’ उनका पहला उपन्यास है और उसमें प्रेमचंद के अस्पष्ट रूप का आभास मिलता है, परंतु सेवा-सदन उन्हें पाठकों के सामने अधिक स्पष्ट और निखरे रूप में स्थापित करता है। सेवा-सदन ने उनको बतौर उपन्यासकार प्रतिष्ठित किया और वह उस समय का श्रेष्ठ उपन्यास माना गया। प्रेमचंद को जन साधारण के लेखक और समाज के चितेरे की संज्ञा दिलाने वाला उपन्यास ‘प्रेमाश्रम’ है। इसके आधार में किसान और ज़मींदार का सम्बन्ध है। इसमें लेखक ने किसानों का जीवन एकांगी रूप में प्रस्तुत न करके अन्य वर्गों के प्रतिनिधियों के साथ उनके संबंधों का चित्रण किया है। इसमें प्रेमचंद ने कारिंदा, मुख़्तार और चपरासी तक को अपने-अपने ढंग से किसान को निचोड़ते हुए दिखाया है।
‘रंगभूमि’ में उनका कथा-फलक विस्तृत हुआ और उसमें गाँधीजी के राजनीतिक सिद्धांतों की स्पष्ट झलक है। कहानी का नायक सूरदास मातृ-भूमि के उद्धार के लिए कृत संकल्प है। उसमें आत्मबल सहित अन्य गुण गाँधीजी के दीखते हैं। ‘काया-कल्प’ में प्रेमचंद ने भारतीय समाज की ज्वलंत समस्या हिन्दू-मुस्लिम वैमनस्य को रेखांकित किया है।
‘गबन’ उपन्यास बीसवीं सदी के आरम्भ में छपे छोटे
उपन्यास ‘किशना’ का परिमार्जित
और परिवर्द्धित रूप है। ‘गबन’ को विषय
के सुचारु विकास तथा मनुष्य की मानसिक वृत्तियों की उत्तम विवेचना के कारण
उत्कृष्ट उपन्यासों की श्रेणी में रखा जाता है। ‘कर्मभूमि’ में सत्याग्रह आंदोलन के वर्ष १९३३ में हुए पुनरारंभ से देश में उत्पन्न
हुई परिस्थिति का चित्रण है। ‘प्रेमाश्रम’, ‘रंगभूमि’, ‘काया-कल्प’ और
‘कर्मभूमि’ तात्कालिक भारतीय समाज का विशाल और
लगभग पूर्ण चित्र अंकित करते हैं। प्रेमचंद की रचनात्मक प्रतिभा का चरमोत्कर्ष
‘गोदान’ में मिलता है। इसमें वे जीवन
को व्यंजित करने वाली यथार्थवादी कला के राजपथ पर निकल पड़े दिखते हैं। भारत के
परस्पर बहुत कुछ असंबद्ध ग्रामीण और नागरीय जीवन के परिवेश से लिए आकर्षक पात्रों
के ज़रिए वे भारतीय जीवन के एक बड़े अंश को इस उपन्यास के माध्यम से सामने लाते हैं।
उपन्यासों में पूरी समग्रता और सजगता से देश और समाज को उकेरने वाले प्रेमचंद के बेटे अमृतराय उनके कहानीकार रूप को सबसे बड़ा मानते हैं। लगभग ३०० कहानियों से प्रेमचंद आज भी हमारे दिलों पर राज करते हैं। उनकी ईदगाह, नमक का दरोगा, पूस की रात, कफ़न, कज़ाकी, बड़े भाई साहब, मन्त्र, और लगभग सभी दूसरी कहानियाँ पाठकों को ऐसे-ऐसे अनुभव देती हैं जो ताज़िन्दगी उन्हें भावों से भिगोने, सहलाने और गुदगुदाने के साथ-साथ जीने का सबक़ और सबब देते रहते हैं। नन्हें हामिद और उसकी बूढ़ी दादी के जुड़ाव की कथा सुनाती ईदगाह कितना कुछ कह जाती है। कैसे सुबह से लेकर दोपहर तक ईदगाह के इर्द-गिर्द लोगों के मन में भावों के बवंडर चढ़ते-उतरते हैं, कैसे हर कोई परेशान होने के साथ-साथ ख़ुश भी है, कैसे हर किसी की ख़ुशी का पैमाना और मानी बिलकुल अलग हैं, कैसे गाँव का हर बाशिंदा अपनी ईद को अव्वल दर्जे की करना चाहता है, यह सब और बहुत कुछ। ऐसा लगता है जैसे कि इस ईदगाह में मैंने सैकड़ों चक्कर लगाए हों, किसी को कुर्ते में बटन टाँकने के लिए धागा दिया हो तो शायद किसी से घर पर खीर पकाने के लिए दूध लिया हो। हर साल ईद आती है। मुझे न नए कपड़ों की चमक-दमक याद रहती है, न कबाबों का ज़ायका, न खीर की मिठास और न ही ईद-मिलन समारोहों से उठने वाली ख़ुशबू। याद आता है बस यह जुमला - ‘रमज़ान के पूरे तीस रोज़ों के बाद आज ईद आयी है’ और हामिद तथा उसकी दादी का प्यार और त्याग। बचपन में पढ़ी इस कहानी ने मेरे मानस पर यह असर छोड़ा है। वैसे ही अपनी अना में डूबे किसी अमीर को जब किसी ग़रीब की मदद से इनकार करता देखती हूँ तो मंत्र के डॉक्टर चड्ढा साहब याद आ जाते हैं, साथ ही स्मृति में उभरता है बूढ़े भगत का उदार हृदय। बड़े भाई साहब कहानी के किरदार क्या हम रोज़ ही अपने आस-पास नहीं देखते और क्या हमें वे अनायास गुदगुदा नहीं जाते हैं? कफ़न के घीसू और माधव क्या इंसानियत और समाज-व्यवस्था पर सवालिया निशान नहीं? कैसे ज़िंदगी की मौलिक ज़रूरतें भूख आदि किसी को इतना मजबूर कर देती हैं कि वह इंसान नहीं रह जाते? पूस की रात में खेत के उजड़ने पर प्रसन्न-मुख हल्कू के शब्द -’रात की ठंड में यहाँ सोना तो न पड़ेगा।’ - क्या विवशता और हताशा की पराकाष्ठा नहीं? आदर्शोन्मुख यथार्थवाद के कठघरे में खड़ा कर प्रेमचंद की कृतियों पर उँगली उठाई जाती रही कि वे अंत में कोई समाधान पेश कर पाठकों के सामने खुला प्रश्न नहीं रह जाने देते। पर क्या उनकी हर कहानी हमें ख़ुद के और समाज के गिरेबान में ग़ौर से झाँकने के लिए प्रेरित नहीं करती, ज़िंदगी से सवाल नहीं पूछती?
प्रेमचंद का रचना संसार भी समय और उनके साथ परिपक्व और विकसित होता गया। उनकी रचनाएँ शिल्प और तकनीक की दृष्टि से परिमार्जित होती गईं। लेकिन एक चीज़ जो उनके यहाँ हमेशा क़ायम रही, वह है एक इंसान की नज़र से दूसरे इंसानों को देखना। प्रेमचंद अंत तक ज़मीन से जुड़े हुए इंसान रहे। उनकी रचनाओं में अगर सूखी-पड़ी ज़मीन की दरारें हैं तो बारिश के बाद मिट्टी से उठने वाली सौंधी ख़ुशबू भी। ज़िंदगी की आर्थिक ज़रूरतें उन्हें मायानगरी बम्बई भी ले गईं, वहाँ की आबोहवा और अंदाज़ उन्हें रास नहीं आए और वे अनुबंध पूरा किए बग़ैर बनारस लौट आए थे। यह और बात है कि बाद में उनकी कई रचनाओं पर कितनी ही फ़िल्में बनीं। कुछ तो स्थितियाँ कठिन रहीं और कुछ बदपरहेज़ी के कारण प्रेमचंद का स्वास्थ्य बहुत कम उम्र से ख़राब रहने लगा था। उन्होंने लखनऊ, गोरखपुर, बनारस तथा कई और जगह इलाज करवाया, पर फ़ौरी राहत के अलावा अधिक फ़ायदा न हुआ। सुधार उनकी आर्थिक स्थिति में भी अंत तक न आया। सन् १९३६ में जब उनकी बीमारी बहुत बिगड़ी, पत्रिका हंस एक बार फिर ज़मानत की मोहताज हुई। प्रेमचंद उस समय भी अपने अभिन्न मित्र मुंशी दयानारायण निगम को याद करते हैं, पत्र लिखकर उन्हें बुलवाते हैं। वे हंस पत्रिका को अपने स्मारक की संज्ञा देते हैं और निगमजी से उसकी ज़मानत करवाने की करबद्ध प्रार्थना करते हैं ।
प्रेमचंद की तुलना अक्सर महान रूसी लेखक गोर्की से की जाती है। गोर्की की रचनाओं ने भी अपने देश की व्यवस्था के ख़िलाफ़ हमेशा आवाज़ बुलंद की, शासकों के कोपभाजन का शिकार भी हुए। लेकिन उन्हें नाम और आर्थिक इनाम अपने जीते जी मिल गए थे; ग़रीबी की अंधेरी कोठियों से वे सम्मानपूर्ण घरों तक पहुँच गए थे। प्रेमचंद को तो आख़िरी दिनों तक अपनी रचनाओं के प्रकाशन के लिए पापड़ बेलने पड़े। उर्दू की बजाए हिंदी में लिखने का एक कारण यह भी था कि उन्हें उर्दू रचना-कर्म में और अधिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था। प्रेमचंद की ज़िंदगी एक आम आदमी की ज़िंदगी थी, कुछ इंसानी ग़लतियाँ उनसे भी हुई होंगी। लेकिन उन्होंने कभी देवता होने का दावा भी तो न किया था।
अपनी रचनाओं के खनकते सिक्कों से प्रेमचंद हमारी ज़िंदगी की गुल्लकों को समृद्ध कर गए हैं। आज भी जब हम ख़ुद को भावनात्मक स्तर पर निर्धन और कमज़ोर पाते हैं, तो उन गुल्लकों को उलटकर खनखनाते हैं। हर बार कोई ऐसा चमकता सिक्का निकल ही आता है जो हमारी दशा को सुधार जाता है, हमें राह दिखा जाता है। मुझे पूरा यक़ीन है कि ये जज़्बात अकेले मेरे नहीं हैं। जिस किसी ने भी मुंशी प्रेमचंद को पढ़ा होगा उसकी ज़िन्दगी के कुछ पल तो उनकी लेखनी के कर्ज़दार हो ही गए होंगे।
जीवन परिचय : उपन्यास-सम्राट मुंशी प्रेमचंद |
|
नाम |
पिता का दिया नाम धनपतराय, ताऊ का
दिया नाम नवाबराय |
जन्म |
३१ जुलाई, १८८०,
लमही गाँव, वाराणसी, उत्तर
प्रदेश |
मृत्यु |
८ अक्टूबर, १९३६,
वाराणसी, उत्तर प्रदेश |
पिता |
मुंशी अजायबलाल श्रीवास्तव |
माँ |
आनंदी देवी |
बड़ी बहन |
सुग्गी |
दूसरी पत्नी |
शिवरानी देवी (प्रेमचंद
की पहली शादी १५ साल की उम्र में कराई गयी थी, जो अनमेल और
असफल साबित हुई। उन्होंने वर्ष १९०६ में बाल-विधवा शिवरानी देवी से फाल्गुन
शिवरात्रि के दिन विवाह किया। ) |
संतानें |
बेटे - श्रीपत राय, अमृत राय;
बेटी - कमला देवी श्रीवास्तव |
शिक्षा |
लालपुर गाँव में मौलवी
साहब से उर्दू-फ़ारसी तालीम की वर्ष शुरूआत, १८८८ गोरखपुर के मिशन स्कूल से
आठवीं की परीक्षा,
१८९५ इंटरमीडिएट, १९१६ बी० ए०, इलाहाबाद
विश्वविद्यालय, १९१९ |
कर्मभूमि |
मुख्यतः गोरखपुर, लखनऊ,
बनारस |
कार्यक्षेत्र |
अध्यापन, लेखन,
पत्रकारिता, संपादन, सामाजिक
कार्यकर्ता |
लेखन की भाषाएँ |
उर्दू, हिंदी |
साहित्यिक रचनाएँ |
|
उपन्यास |
|
कुछ कहानी संग्रह |
प्रेमचंद ने लगभग तीन सौ
कहानियाँ लिखीं,
जो विभिन्न संख्याओं में और समय पर कहानी-संग्रहों में प्रकाशित
हुईं:
|
निबंध |
|
नाटक |
|
बाल साहित्य |
रामकथा, कुत्ते की
कहानी, दुर्गादास (उपन्यास) |
प्रेमचंद द्वारा लिखित
जीवनियाँ,
लेख तथा पत्र भी साहित्यिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं जिन्हें
उनकी मृत्योपरांत संकलित करके विभिन्न संग्रहों में प्रकाशित किया गया है। |
|
पत्रकारिता एवं सम्पादन |
|
अनुवाद |
|
कुछ महत्त्वपूर्ण और रोचक तथ्य |
|
कहानी के युग-निर्माता |
प्रेमचंद युग १९१८-१९३६ (भारतीय
गल्प-साहित्य के इतिहास की कोई भी बात बिना प्रेमचंद या उनके युग के हो ही नहीं
सकती) |
उपन्यास सम्राट कैसे कहलाए |
“हिन्दी
पुस्तक एजेन्सी का एक प्रेस कलकत्ता में था, जिसका नाम 'वणिक प्रेस' था। इसके मुद्रक थे 'महाबीर प्रसाद पोद्दार'। वे प्रेमचंद की रचनाएँ
बँगला के सुप्रसिद्ध उपन्यासकार शरत् बाबू को पढ़ने के लिए दिया करते थे। एक दिन
शरत् बाबू से मिलने के लिए पोद्दार जी उनके घर पर गए। उन्होंने देखा कि शरत्
बाबू, प्रेमचंद का कोई उपन्यास पढ़ रहे थे। जो बीच में
खुला हुआ था। कौतूहलवश पोद्दार जी ने उसे उठा कर देखा कि उपन्यास के एक पृष्ठ पर
शरत् बाबू ने 'उपन्यास सम्राट" लिख
रखा है। बस, यहीं से पोद्दार जी ने प्रेमचंद को 'उपन्यास सम्राट प्रेमचंद' लिखना प्रारम्भ कर दिया।
इस प्रकार धनपत राय से 'प्रेमचंद' तथा
'उपन्यास सम्राट प्रेमचंद' हुए।”
- डॉ जगदीश व्योम |
अध्यक्षता प्रगतिशील लेखक
सम्मलेन |
लखनऊ में हुए ‘प्रगतिशील
लेखक संघ’ के पहले अधिवेशन के लिए प्रेमचंद को सर्वसम्मति
से अध्यक्ष चुना गया। १० अप्रैल, १९३६ को उन्होंने अपना
लिखित भाषण ‘साहित्य का उद्देश्य’ पढ़ा। उनके उस भाषण की प्रासंगिकता आज भी ज्यों की त्यों बनी हुई है। |
मक्सिम गोर्की की शोक-सभा |
अजब इत्तिफ़ाक़ है कि जिन दो
साहित्यकारों (मक्सिम गोर्की, प्रेमचंद) के नाम अक्सर एक साथ याद
आते हैं, उन दोनों ने वर्ष १९३६ में इस फ़ानी दुनिया से
विदा ली। रूस के प्रसिद्ध लेखक मक्सिम गोर्की के देहांत की ख़बर १८ जून, १९३६ को भारत के अख़बारों में छपी। प्रेमचंद का स्वास्थ्य तब-तक काफ़ी
बिगड़ चुका था, परन्तु ख़बर से आहत प्रेमचंद दो-तीन दिन बाद
आयोजित शोक-सभा में शामिल हुए। शारीरिक कमज़ोरी के कारण वे अपना लिखित भाषण नहीं
पढ़ पाए थे, किसी दूसरे ने उस भाषण को सभा में पढ़ा। |
उपेन्द्रनाथ अश्क को पत्र
में लिखी महत्त्वाकांक्षाएँ |
मैं देहात में बसकर दो-चार
जानवर पालना और देहातियों की सेवा करना चाहता हूँ। (८ जुलाई, १९३६) |
प्रेमचंद के जन्मशती वर्ष
पर भारत सरकार ने डाक टिकट जारी किया |
|
- गगनांचल, प्रेमचंद जन्मशती अंक, १९८०,
भारतीय सांस्कृतिक सम्बन्ध परिषद्, नई
दिल्ली
- प्रेमचंद घर में, शिवरानी देवी
- कलम का सिपाही, अमृतराय
- कलम का मज़दूर, मदन गोपाल
- प्रेमचंद मुंशी कैसे बने- डॉ॰ जगदीश व्योम, सिटीज़न पावर, मासिक हिन्दी समाचार पत्रिका,
दिसम्बर २०११, पृष्ठ संख्या-०९
- प्रेमचंद की सम्पूर्ण कहानियाँ, दो खण्डों में,
लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद
- https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%87%E0%A4%AE%E0%A4%9A%E0%A4%82%E0%A4%A6
- https://www.csirs.org.in/uploads/paper_pdf/munshi-premchand-ke-katha-sahitya-mein-kisan-jamindaar.pdf
- https://hi.unionpedia.org/%E0%A4%B9%E0%A4%82%E0%A4%B8_%E0%A4%AA%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A4%BE
प्रगति टिपणीस पिछले तीन दशकों से मास्को, रूस में रह रही हैं। शिक्षा इन्होंने अभियांत्रिकी में प्राप्त की है। ये रूसी भाषा से हिंदी और अँग्रेज़ी में अनुवाद करती हैं। आजकल एक पाँच सदस्यीय दल के साथ हिंदी-रूसी मुहावरा कोश और हिंदी मुहावरा कोश पर काम कर रही हैं। हिंदी से प्यार करती हैं और मास्को में यथा संभव हिंदी के प्रचार-प्रसार का काम करती हैं।
आदरणीया प्रगति जी,
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर और सुस्पष्ट लेख बन पड़ा है। जैसे दीपा जी ने कहा इनपर लिख पाना मतलब सूर्य को दीया दिखाने जैसा है परंतु वह भी आपने बड़ी बखूबी निभाया है। उनके व्यक्तित्व और साहित्यिक कृतियों को कुछ सीमित शब्दों में समेट पाना तो नामुमकिन है। फिर भी इस आलेख के जरिये आपने मुंशी जी के जीवन को और प्रकाशमय कर दिया है। प्रभावशाली आलेख के लिए अनगिनत बधाई और अत्यंत शुभकामनाएं
What a beautifully composed comprehensive write-up. It is not easy to write about a big name. Your way of presentation is such that it motivates a reader like me to open a book of Munshi Premchand and start reading. Enriched with many important facts of Premchand. Thanks you for publishing another iconic article Pragati ji.
ReplyDeleteSantosh Mishra
प्रगति, प्रेमचंद पर एक बेहतरीन आलेख पढ़ाया है तुमने। उनके व्यक्तित्व के साथ बहुत समय गुजारने के बाद, बड़ी तन्मयता से यह आलेख लिखा होगा तुमने! सच, मस्तिष्क में प्रेमचंद के नाम के विचार मात्र से उनके प्रति सम्मान से सर झुक जाता है। इस श्रम साध्य कार्य के लिये तुम्हें धन्यवाद और बधाई।
ReplyDeleteउपन्यास सम्राट पर लिखने के लिए सम्राज्ञी वाला भाव ही होना चाहिए , जो आपमें है प्रगति जी, उदार मन की आपकी सोच ने इस उदारवादी लेखक के प्रति बड़ी उदारता से लिखवाया है आपसे साधुवाद
ReplyDeleteप्रगति जी नमस्ते। उपन्यास सम्राट प्रेमचंद जी पर आपने उत्तम लेख लिखा। आपकी मेहनत और प्रेमचंद के साहित्य से आपका जुड़ाव लेख में उभर कर आया है। आपने बहुत रोचक एवं समृद्घ रूप में लेख प्रस्तुत किया। आपको इस महत्वपूर्ण लेख के लिए हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteप्रगति जी। अत्यंत समृद्ध आलेख। बहुत बहुत बधाई ।
ReplyDeleteबहुत संतुलित, शोधपूर्ण आलेख है प्रेमचंद जी पर प्रगति टिपणीस जी का... मेरे लेख 'प्रेमचंद का मुंशी विशेषण' लेख का भी संदर्भ दिया है... आभार... यह लेख लिखते समय प्रेमचंद जी के पुत्र अमृतराय जी, सुधा चौहान जी से मेरा पत्र व्यवहार हुआ था...
ReplyDeleteप्रेमचंद पर प्रगति टिपणीस का लेख इसलिए भी और अधिक पठनीय हो जाता है क्योंकि प्रगति टिपणीस प्रेमचंद के देश में जन्मी और उनकी कर्मभूमि गोर्की का देश है... गोर्की और प्रेमचंद में अद्भुत समानताएँ हैं... जीवन में भी और उन दोनों के लेखन में भी...
पुनः प्रगति टिपणीस को लेख के लिए बधाई.
-डा० जगदीश व्योम
प्रगति जी,उपन्यास सम्राट् प्रेमचंद
ReplyDeleteप्रगति जी, आज सुबह आपका मुंशी प्रेमचंद पर लिखा आलेख पढ़ा। प्रसन्नता हुई। सबसे सुखद यह लगा कि आपने उनके यथार्थवादी , ज़मीन और इंसान से जुड़े लेखन पर ज़ोर दिया। बधाई।शुभकामना। 💐💐
ReplyDeleteप्रेमचंद बड़े लेखक माने जाते हैं, बहुत प्रसिद्ध हैं, यह विचार कभी मन में आता ही नहीं। सच पूछें तो मुझे इससे कोई सरोकार भी नहीं। ना ही उनके आलोचकों के किसी बौद्धिक विश्लेषण का कोई प्रभाव पड़ता है। मेरे लिए तो यह वह लेखक है जिसने बचपन से मुझे जीवन के अनेक पहलुओं का परिचय दिया।सीधी सरल कहानियों के सीधे-सच्चे पात्र दिए जिन्हें कभी भुलाया नहीं जा सकता। क्या किसी भी न्याय के प्रश्न पर जुम्मन मियाँ और अलगू चौधरी हमारी आँखों के सामने आकर खड़े नहीं हो जाते? जहाँ भी ईमानदारी का प्रश्न आ खड़ा हो, नामक का दारोग़ा विवेक के दरवाज़े पर दस्तक देने लगता है और पूछता है , कहीं हिल तो नहीं गए, मेरे भाई। होरी ने तो किसानों के प्रति ही नहीं, किसी भी मज़बूर व्यक्ति के प्रति रवैया हमेशा के लिए बदल दिया।लोभ मनुष्य को कैसे ग्रस लेता है, इसका पहला ज्ञान ग़बन से ही मिला। जब दुनिया की तरफ़ आँखें खुल रहीं थीं तब मिस्टर मेहता और मिस मालती के प्रणय प्रसंग से जाना कि दैहिक आकर्षण क्या होता है। प्रेम प्रसंग तो हज़ारों पढ़े लेकिन वह मिस्टर मेहता और मिस मालती के भ्रमण का चित्रण अनोखा है। कुल मिलाकर यह वह लेखक है जिसका कुछ भी लिखा हुआ ऐसा हाथ आ जाए जो मैंने नहीं पढ़ा ( मुश्किल है ऐसा मिलना) तो सब काम छोड़ कर पहले उसे पढ़ूँगा। मैं मुंशी प्रेमचंद के लेखन का विश्लेषण जगत के चिंतकों पर छोड़ता हूँ। मैं तो बस उन्हें पढ़ना चाहता हूँ ।
आपको धन्यवाद कि आपने उनकी बात सीधे लिखकर न जाने कितनी पुस्तकें, कितने चरित्र, कितने पुस्तकालय, कितने क़िस्से, मस्तिष्क की तिजोरी में से निकालकर सामने लाकर खड़े कर दिये। 💐💐