Tuesday, May 31, 2022

हिन्दी सेवा में लीन अनन्य राष्ट्रप्रेमी - गंगाशरण सिंह

 

विनोदी वृत्ति जिसके स्वभाव की प्रतिछाया बनकर मिलने वाले को सम्मोहित कर ले, वही हैं गंगा बाबू! 
प्रेरक प्राण उद्बोधनों के माध्यम से जो युवाओं में जोश भर दे, वही हैं गंगा बाबू! 
विचारों की स्पष्टता से जो लक्ष्य को सुगम बना दे, वही हैं गंगा बाबू!

पटना के खड़गपुर गाँव में जन्मे गंगाशरण सिंह अनन्य राष्ट्रप्रेमी की छवि के साथ प्रस्तुत होते हैं। अपने हिंदी प्रेम के कारण विख्यात इस कर्मयोगी से जब पूछा गया कि आप फोन उठाने पर "हैलो" के स्थान पर "जी" क्यों कहते हैं, तो वे गंभीर होकर बताते हैं, "मैं दूसरी ज़बान में क्यों उत्तर दूँ? मेरी अपनी भाषा है। मैं अपनी भाषा में उत्तर दूँगा। मान लो, किसी ने तुम्हारे दरवाज़े पर दस्तक दी। तुम द्वार खोलकर आगंतुक को देखोगे, फिर क्या कहोगे? यही न, कि "कहिए, किससे मिलना है?" फ़ोन की घंटी को मैं दरवाज़े पर हुई दस्तक मानता हूँ, इसीलिए फ़ोन उठाकर "जी हाँ, कहिए" कहता हूँ। हिंदी ही हमारी बोली-बानी है। हमारी सत्ता की संरचना में हिंदी की महत्वपूर्ण भूमिका है। हिंदी हमारी आत्मा में रची-बसी है। मैं उसी भाषा में उत्तर देता हूँ।"

गंगा बाबू का बचपन जहाँ एक संपन्न परिवार में बीता, वहीं युवावस्था में रहन-सहन और वेशभूषा तक में अपने को साहित्यिक बना चुके रामवृक्ष बेनीपुरी की मित्रता ने उन्हें एक अजब-सी धुन पर सवार कर दिया। आचार्य नरेंद्र देव के विचारों से तो प्रभावित थे ही, बस फिर क्या था! अपने सभी ठाट छोड़कर वे आश्रम में  रामवृक्ष के साथ रहने आ गए।

रामवृक्ष बेनीपुरी से गंगा बाबू की मुलाकात तरुण भारत के कार्यालय में हुई थी। लेकिन जब रामवृक्ष मुजफ्फरपुर से पटना आए और दोनों के बीच 'युवक आश्रम' को लेकर चर्चा हुई तो वे बड़े उत्साहित होकर इस कार्य के लिए मान गए। रामवृक्ष के लिए 'युवक आश्रम' पत्रकारिता की एक साधना-यात्रा थी। 

'युवक' के मूल संकल्प पर अमल करते हुए रामवृक्ष और गंगा बाबू ने अपनी पुरानी जीवनशैली को चुनौती दी और पत्रिका को शक्ति, साहस और साधना के जीवंत प्रतीक के रूप में प्रस्तुत करने के लिए स्वयं को एक जीती-जागती मिसाल बनाने का प्रयास किया। दोनों ने निश्चय किया - "दुनिया बदलने निकले हैं तो पहले खुद को बदलें।" यहाँ संकल्प साधने को उन्होंने कड़े अनुशासन का व्रत लिया। ज़मीन पर केवल चटाई बिछाकर सोना, अपने कपड़े खुद साफ करना, सादा भोजन लेना, अपनी थाली खुद माँजना आदि से एक जुनून की तरह शुरू हुई युवक साधना। सूर्योदय से पहले उठकर दैनिक कार्यों से निर्वृत होकर पत्रिका का काम शुरु करना, प्रेस जाना, पते लिखना, लेबल चिपकाना, डाक ले जाना, ग्राहकों के लिए प्रतिदिन की दौड़-धूप इत्यादि। धीरे-धीरे 'युवक आश्रम' के आँगन से नौजवानों की विचारधाराएँ  समाज और सरकार के खिलाफ़ विद्रोह का समीर बनकर पूरे बिहार में विहार करने लगी। जब "भागो नहीं दुनिया बदलो" कहने वाले राहुल सांकृत्यायन का साथ मिला तो पत्रिका की नियमितता पर छाए संदेह के बादल भी छँट गए। बँधी आमदनी हो जाने से मित्र द्वय को आश्रम के हिसाब-किताब से चलने का रास्ता दिखने लगा। पटना कॉलेज के ठीक सामने होने के कारण यह कॉलेज के विद्यार्थियों और नौजवानों का अड्डा बन गया। साइमन के आगमन पर 'युवक आश्रम' शिविर-सा बन गया और पटना की गलियों में "उठो, भारत के वीरों, सबेरा हुआ" की हुंकार सी गूंजने लगी। १९३१ में जब बिहार सोशलिस्ट पार्टी बनने की तैयारी होने लगी और युवक आश्रम को उसका दफ्तर बना दिया गया, तो आर्थिक सहायकों ने मुँह मोड़ लिया और पत्रिका अधर में लटकती दिखाई देने लगी। इसी समय जब 'क्रांति अंक' छपकर निकला तो रामवृक्ष के साथ गंगाशरण भी गिरफ्तार कर लिए गए। मुकदमे और जुर्माने की रकम जमा करते करते दोनों बड़े कर्ज में डूब गए। इतना सब होने पर भी गंगा बाबू के चेहरे पर शिकन के बजाए मुस्कान थी। उन्होंने रामवृक्ष के साथ मिलकर जेल में ही यह तय कर लिया कि उन्हें नई और सक्रिय राजनीति में भूमिका अदा करनी है। परंतु पुनर्जीवित नहीं हो सकने पर भी 'युवक आश्रम' मात्र एक पत्रिका का केंद्र नहीं बल्कि बिहार के प्रगतिशील साहित्य और राजनीति का केंद्र बन गया।

खादी का श्वेत परिधान - धोती कुर्ता और सिर पर दुपल्ली गाँधी टोपी वाला, औसत कद और स्थूल शरीर का यह सुदर्शन युवक खुद एक ज़मींदार परिवार से आता था। परंतु जब किसानों की समस्याओं पर तथाकथित नेताओं ने उनके आंदोलन से मुँह मोड़कर लालची जमींदारों का साथ दिया तो गंगा बाबू इस लड़ाई में किसानों के पक्ष में खड़े रहे। उनके समर्थन में जयप्रकाश नारायण, लोहिया, राहुल सांकृत्यायन, रामवृक्ष बेनीपुरी, नरेंद्र देव, अशोक मेहता, किशोरी प्रसन्न सिंह और पं० रामनंदन मिश्र जैसे समाजवादी नेता भी आगे रहे। जयप्रकाश नारायण तो उनके घनिष्ठ मित्रों में से थे। 

गंगा बाबू एक स्वाभिमानी जननेता थे। पद प्रतिष्ठा से कोसों दूर, इतने कि जब राज्यपाल पद के प्रस्ताव मिले तो कहने लगे, "तुम मुझे पंगु बनाना चाहते हो, मेरी जुबान बंद करना चाहते हो भाई!", निडर और बेबाक इतने कि एक बार दिनकर स्मृति पुरस्कार समारोह में उन्होंने उपराष्ट्रपति डॉ० शंकर दयाल शर्मा को विलंब से आने पर कड़ी फटकार लगाई, "शंकर अब तुम संविधान के अंग हो गए हो, गवर्नर नहीं हो।" संवेदनशील इतने कि उसी समारोह में क्षमा माँगते हुए यह कहने लगे, "भाइयों मुझे क्षमा करना। अपनी ही कहकर जा रहा हूँ, सबकी सुन नहीं पाऊँगा। मुझे अभी रात की गाड़ी से पटना जाना है। मेरे नौकर की धर्मपत्नी दिवंगत हो गई है, कल प्रातः अंत्येष्टि है।"

स्वतंत्रता की कामना और सवप्नों के जीवनप्रद स्वरूप ने गंगा बाबू के मन-मस्तिष्क में आंदोलन की सी चिंगारी सुलगा दी। अपनी अभिव्यक्ति कला को उन्होंने प्रखरता की आग में तपाया था। उनका मित्र मंडल श्रेष्ठ व्यक्तित्वों की महफिल हुआ करता था। खाने-खिलाने के शौकीन गंगा बाबू विनोदी वृत्ति को निज स्वभाव का अंग मानते हुए प्रत्येक आगंतुक का बड़ा ही स्नेहिल स्वागत करते। भोजन के समय जहाँ व्यंजनों का रस मुँह में घुलता वहीं उनकी बातों का रस भी सबके हृदय में घुल जाता। उनकी मस्तमौला छवि सभा को ठहाकों की बौछार से गुदगुदा देती। उनके पास सूक्तियों, चुटकुलों, कहावतों, संस्मरणों व शेर-ओ-शायरी का अकूत भंडार था, जिसकी सहायता से वे प्रत्येक प्रश्न का विस्तृत उत्तर देकर सभी को विस्मित कर देते थे। उनके मुख से शब्द अमृत छलकते थे। 

गंगा बाबू की भारतीय साहित्य में गहरी पैठ थी। उन्होंने साहित्यिक कृतियाँ भले ही नहीं रची बल्कि कृतिकारों को गढ़ने का कार्य करते हुए साहित्यिक-सांस्कृतिक वातावरण को रचने में महत्वपूर्ण अवदान दिया। 'युवक' के माध्यम से दिनकर जैसी प्रतिभाओं को प्रोत्साहित किया। बिहार से तीन बार के राज्यसभा सदस्य रहे गंगा बाबू के तेज और मेधा के चर्चे उन्हें परिभाषित करते रहे हैं। लेकिन एक समय ऐसा आया जब उन्होंने हिंदी सेवा को ही जीवन का एकमात्र ध्येय बना लिया था। इसके प्रचार-प्रसार में उन्होंने निरंतर काम करते हुए इसे सशक्त और संपर्क भाषा के रूप में संवर्धित करने का बीड़ा उठाया। वे अनेक हिंदी सेवी संस्थाओं से अभिन्न रूप से जुड़े हुए थे। देश की लगभग २० स्वैच्छिक हिंदी संस्थाओं को अखिल भारतीय हिंदी संस्था संघ के समन्वयात्मक मंच पर लाते हुए उन्होंने समग्र भारत में राष्ट्रभाषा की ज्ञान गंगा बहाई। हिंदीतर भाषी क्षेत्रों में हिंदी के प्रचार-प्रसार और हिंदी प्रशिक्षण के क्षेत्र में कार्य करने व विशिष्ट योगदान के लिए केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा द्वारा उनके नाम पर "गंगाशरण सिंह सम्मान" दिया जाता है। 

साहित्यानुरागी गंगा बाबू अनेक रचनात्मक संस्थाओं के निर्माता होने के साथ ही भारतीय संस्कृति के पोषक के रूप में भी जाने जाते हैं। राष्ट्र में हिंदी भाषा को समुचित दर्जा नहीं मिल पाना उनके जीवन की पीड़ रही। उनकी मान्यता के अनुसार, "भारत की राष्ट्रभाषा हिंदी हो सकती है, वह संतों की भाषा है, प्रेम की भाषा है, सदा जोड़ने वाली, दिलों को मिलाने वाली भाषा है। कन्याकुमारी से लेकर कश्मीर और द्वारका से लेकर डिब्रूगढ़ तक हिंदी ही है जो सबसे अधिक बोली और समझी जाती है। हिंदी रहेगी तो देश एक रहेगा।" देश और भाषा के प्रति इसी दायित्व और कर्तव्य बोध की सजगता ने उनके व्यक्तित्व को व्यापक आयाम दिए और सच्चे अर्थों में कर्मयोगी कहा जाने वाला यह व्यक्ति स्वयं एक विस्तृत संस्था बन गया।

गंगा बाबू हृष्ट-पुष्ट और फुर्तीले व्यक्ति थे। अपने ध्येय के प्रति उनकी कर्मठता ने जीवन के अंतिम वर्षों में भी निरंतर गिरते स्वास्थ्य की ओर से उन्हें बेपरवाह कर दिया। वे लगातार देशव्यापी यात्राएँ कर रहे थे। आयोजनों, व्याख्यानों, अभिभाषणों, मंत्रणाओं और बैठकों के दौर से उन्हें जीवन-भर मुक्ति नहीं मिली। एक समय साहित्य अकादमी, नई दिल्ली के एक आयोजन में वे सम्मिलित हुए थे, जिसमें 'संस्मरण सत्र' की अध्यक्षता करने के लिए उनके मित्र प्रफुल्लचंद्र ओझा 'मुक्त' भी पटना से दिल्ली गए थे। सभा-भवन में तबियत बिगड़ जाने से गंगा बाबू मूर्च्छित हो गए थे। जब उनकी हालत थोड़ी सँभली तो ओझा जी ने उन्हें थोड़ी कड़कती सी आवाज़ में कहा, "तुम क्या समझते हो, तुम न रहोगे तो क्या ये आयोजन ठप्प पड़ जाऐंगे? जब तबियत इतनी नासाज़ थी, तो तुम्हें यहाँ नहीं आना चाहिए था।" प्रिय मित्र की नाराज़गी देखकर गंगा बाबू निरीह भाव से बोले, "तब तो सारा झगड़ा ही ख़त्म हो जाएगा। लोग इतने प्यार से बुलाते हैं कि इनकार करते नहीं बनता। बोलो, क्या करूँ?" 

शायद १९८७ का समय होगा, गंगा बाबू मित्र ओझा जी के घर जा पहुँचे। वाहन से उतरकर दस-पंद्रह कदम भी चलना उनके लिए दुसाध्य था। अपने शरीर को उन्होंने लौह-शिकंजे सा जकड़ रखा था, सोफे पर बैठते हुए उनका एक पाँव भी सहजता से मुड़ता नहीं था। उठने-बैठने में उन्हें जो असहृय पीड़ा होती थी, जाने किस योग-बल से उसका प्रभाव वे उसे चेहरे पर नहीं आने देते थे। उसी शाम वे अपने साथ ओझा जी से लखीसराय के बालिका विद्यापीठ के वार्षिकोत्सव में मुख्य-अतिथि के रूप में सम्मिलित होने का आग्रह करने आए थे। परंतु स्वास्थ्य अच्छा न होने से ओझा जी ने अपनी असमर्थता व्यक्त करते हुए क्षमा-याचना की। पल भर को गंगा बाबू उन्हें देखते रहे, फिर बोले, "तुमसे सौ गुना ज्यादा मैं तकलीफ में हूँ और अनेक व्याधियों से जूझ रहा हूँ, यह तुम जानते हो। मैं मानता हूँ कि इस दशा में यदि मैं इस उत्सव में शरीक हो सकता हूँ तो तुम भी सम्मिलित हो सकते हो।" इसके बाद उन्होंने अपनी व्याधियों और शारीरिक दशा का सचमुच मर्माहत कर देने वाला वर्णन किया। जिसने ओझा जी को निरुत्तर कर दिया। 

गंगा बाबू के हृदय में पेसमेकर और रीढ़ की हड्डी में स्टील की रॉड डली हुई थी। लेकिन यह लौह पुरुष मृत्यु से एक जंग लड़ते हुए अपने संकल्पों के प्रति अडिग थे। उनका प्रवाह ऐसा निर्मल था कि चापलूस लोग, भ्रष्ट राजनीतिज्ञ और बेईमान साहित्यकार सभी उनसे घबराते थे। वे भारतीय राजनीति और साहित्य के पृष्ठों पर निर्भीकता की आँच में व्यवस्थाओं का काढ़ा पकाते एकमात्र निडर और बेबाक पुरुष थे। वे अंतिम समय तक शारीरिक व्याधियों-पीड़ाओं को नज़रअंदाज़ करते हुए हिंदी और हिंदी सेवी संस्थानों के उत्थान हेतु प्राणपण से जुटे रहे।

अद्वितीय स्मरण शक्ति के धनी गंगा बाबू के स्वर में सिंह सा जोश था। देश के तत्कालीन राजनेताओं, वरेण्य साहित्यकारों और विद्वज्जनों की पूरी जमात में उनकी गहरी पैठ थी और सर्वत्र उनका समादर होता था। उनके मित्र ओझा जी ने एक बार उनसे कहा, "तुम्हारे पास अनुभवों और अनमोल संस्मरणों का खज़ाना है, भाषा पर तुम्हारा पूरा अधिकार है। अब भाग-दौड़ भी तुम्हारे वश की बात नहीं रही। एक जगह जमकर बैठो और उन संस्मरणों-अनुभवों को लिख डालो। मैं शपथपूर्वक कह सकता हूँ कि तुम्हारा वह लेखन साहित्य की अमूल्य निधि और इस समूचे काल-खंड का जीवित इतिहास सिद्ध होगा।" मित्र की बात सुनकर गंगा बाबू मुस्कुराए और कहा, "मुक्त, सचमुच चाहता हूँ, कुछ लिखूँ। जानता हूँ, लिखने लायक बातें मेरे पास हैं; लेकिन इस यायावरी, इस भाग-दौड़ से मुक्ति नहीं मिलती। लगता है, इस जीवन में अब मिलेगी भी नहीं। फिर, समय की पूंजी भी कितनी बची है मेरे पास....?" 

सचमुच, समय की पूंजी तो धीरे-धीरे ख़त्म ही हो गई, जब ८३ वर्ष की अवस्था में सन १९८८ में गंगा बाबू ने अंतिम विश्राम पाया। एक समर्पित जीवन यज्ञ में उन्होंने हिंदी के उन्नयन और देश की राजनीति के लिए पवित्र आहुति दी है, जिसकी आज कल्पना भी नहीं की जा सकती। परंतु दुखद है कि अपने अनुभवों, संस्मरणों और प्रखर चिंतन की विशाल निधि को वे लिपिबद्ध नहीं कर सके। उनका संपूर्ण जीवन अभिन्न मित्र दिनकर जी इन पंक्तियों में समाहित करते हैं, 
"वसुधा का नेता कौन हुआ? 
भू-खंड विजेता कौन हुआ? 
अतुलित यश-क्रेता कौन हुआ? 
जिसने न कभी आराम किया, विघ्नों में रहकर नाम किया...!"

हिंदी के लिए आजीवन संघर्ष करने वाले सचेत व जागृत विद्रोही गंगा बाबू के निधन पर दूरदर्शन ने केवल दो पंक्ति का समाचार पढ़ा - बाबू गंगाशरण नहीं रहे। 

परंतु हिंदी की उपासना को जीवन की नियति समझने वाले गंगा बाबू अक्सर शुभचिंतकों की चिंता देखकर कहा करते, "आप लोग मेरी चिंता न करें, गंगाशरण या तो ट्रेन में मरेगा या हिंदी मंच पर।"

गंगाशरण सिंह : जीवन परिचय

जन्म

१९०५, खड़गपुर गाँव, पटना, बिहार

निधन

१९८८, राजेंद्र नगर, पटना, बिहार

भाषा ज्ञान

हिंदी, संस्कृत, बांग्ला, उर्दू- गुजराती और अंग्रेजी

पत्रिका

  • युवक - १९२८

  • जनता

  • जनवाणी

कार्यक्षेत्र

  • केंद्रीय हिंदी समिति से लेकर भारत सरकार की अनेक हिंदी सलाहकार समितियों के सदस्य

  • बिहार हिंदी विद्यापीठ, देवघर के कुलपति तथा बालिका विद्यापीठ, लखीसराय, मुंगेर के अध्यक्ष

  • भारतीय ज्ञानपीठ के संस्थापक न्यासी बोर्ड के सदस्य

  • अनेक संस्थाओं के संस्थापक सदस्य

सम्मान

केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा द्वारा उनके नाम पर "गंगाशरण सिंह सम्मान" की स्थापना


संदर्भ

लेखक परिचय

सृष्टि भार्गव

मुट्ठी भर उजाले

कश्ती भर विश्वास

ले जा रहे मुझे

लक्ष्य की ओर 


हिन्दी विद्यार्थी


ईमेल - kavyasrishtibhargava@gmail.com

Monday, May 30, 2022

एक अतरंगी शायर का सफ़रनामा

 

जनाब कृष्ण बिहारी "नूर" का ज़िक्र या फिर उनकी ज़िक्र-ए-शायरी की बातें करने से पहले किसी शायर का उर्दू का एक मिसरा बेसाख़्ता याद आ रहा है और इसी मिसरे से बातों का सिलसिला शुरू हो तो शायद "नूर" की कलम, मुख्तसर सोच और उनसे जुड़े जज़्बातों की पड़ताल आसान हो जाएगी।
"ख़ुदा ने मुझको ग़ज़ल का दयार बख़्शा है
मैं ये सल्तनत ज़माने के नाम करता हूँ।"

मैंने उपरोक्त शेर को बदलने की गुस्ताख़ी की है। मोहब्बत की जगह ज़माने का इस्तेमाल किया है क्योंकि "नूर" सिर्फ़ मोहब्बत के शायर नहीं थे। हकीकत में उन्हें दर्द का शायर कहना ज़्यादा मुनासिब होगा और दर्द तो ज़माने भर के पास होता है, वहीं मोहब्बत किस्मत वालों का शगल होता है। 

बहरहाल, लखनऊ उनका पैदायशी ठिकाना था, तालीम से नवाजे गए यूपी के शहरों में और बैरंग ख़तों के दफ़्तर (डेड लैटर ऑफिस या रिर्टन लैटर ऑफिस) में सेवानिवृत्ति तक ज़िंदगी के रंग तलाशते रहे उर्दू-हिंदी की तर्जुमानी के साथ और बन गए कृष्ण बिहारी श्रीवास्तव से कृष्ण बिहारी "नूर"!

नूर साहब का जन्म लखनऊ के गौस नगर इलाके में मध्य-वर्गीय कुलीन कायस्थ परिवार में हुआ था। कहावत है कि कायस्थ तकरीबन आधा मुसलमान होता है। यही वजह है उर्दू अदब से जुड़ी सारी खूबियों से एक कायस्थ पूरी तरह से लैस होता है। "कायस्थ और वो भी लखनवी कायस्थ"। तहज़ीब, खुलूस, सेल्फ रिस्पेक्ट रगे-जाँ में बसा हुआ था। सो रुकना और झुकना मंजूर नहीं था।

साधारण शिक्षा या काम चलाऊ शिक्षा का आप की रचनात्मकता से कोई लेना-देना नहीं होता है। अदब या साहित्य सिर्फ़ और सिर्फ़ इंसानी ज़िंदगी और उसके सदंर्भों, संघर्षों, मनोभावों को विस्तार देता चलता है। इसमें दस्तूर भी होते हैं, फितूर भी होते हैं, ज़िद भी होती हैं, विद्रोह भी होता हैं, कहीं ख्वाब, कहीं रिएलिटी, लाचारी, गुरबत, हौसला, ख़िलाफ़त, मुखालफ़त, समाज और वतन परस्ती का जज़्बा और न जाने क्या-क्या या कहें सब कुछ समाया होता है। यही वजह है कि यद्यपि कृष्ण बिहारी नूर उच्च शिक्षित तो नहीं थे, लेकिन उनकी शार्गिदी और स्वाध्याय साथ ही जीवन के उतार चढ़ावों ने उनकी बयानी में धार पैदा की। नज़ाकत और नफ़ासत के शहर लखनऊ की पैदाइश होने के बावजूद नूर अपनी तल्ख़ियों और ज़िम्मेदारियों से भरे जीवन से बहुत कुछ सीखते चले गए और उनके हर्फ मानीखेज़ होते चले गए।

पाँच बेटियों और एक बेटे के भरे पूरे परिवार के मुखिया थे, जनाब कृष्ण बिहारी नूर। रही बात लखनवी नज़ाकत और नफ़ासात की तो ये सब आराम तलबी, सुकुन, इत्मीनान की अदा हुआ करती है। नूर तो तल्ख़िए ज़िंदगी की बयानी कुछ अलग हटकर करते है क्योंकि उनकी तालीम का ज़्यादातर हिस्सा ज़िंदगी के मदरसे में हुआ था। 
बकौल नूर,
ज़िंदगी से बड़ी सज़ा ही नहीं,
और क्या जुर्म है पता ही नहीं।

पिछली सदी के पाँचवें, छठे और सातवें दशक मंचीय कवि सम्मेलनों और मुशायरों के दशक कहे जा सकते है। उर्दू-हिंदी की शेरों-शायरी और कविताओं का स्वर्णिम दौर भी कहा जा सकता है। क्योंकि इन दशकों के बाद जगजीत सिंह, अनूप जलोटा, पंकज उधास, मेंहदी हसन और गुलाम अली सहित और भी गुलुकारों ने अपनी खूबसूरत गलेबाजी से इस परंपरा को नया सौष्ठव दे दिया था। पर उन दशकों में तहत और तरन्नुम की शायरी का लोक-लुभावन दौर था। रात के आखिरी पहर तक चलने वाले मुशायरे और कवि सम्मेलनों ने कव्वाली की रातों को दरकिनार करना शुरू कर दिया था। 

यही कृष्ण बिहारी नूर का भी समय था। कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक, सरहद के उस पार और सात समंदर पार भी, चलती भाषा में कहें तो वे मंच लूट लिया करते थे। रूमानी तबियत से लबरेज स्वर हों या जिस्मों-रूह के दर्द की बयानी, हिंदी में कहें तो 'वेदना के स्वर' ज्यादा बेहतर होगा, नूर कहीं भी मिसफिट नहीं थे। उनका एक शेर जो पिछली सदी के साठ और सत्तर के दशक में हवाओं में तैरता था और दशकों तक तैरता रहा। आज भी मोहब्बत के शौकीन, जी हाँ शौकीन लोगों को मुस्कराने पर मजबूर करता है। वैसे भी मोहब्बत को इबादत मानने वाले बहुत कम ही लोग बचे हों शायद।
मैं तो ग़ज़ल सुना के अकेला खड़ा रहा,
सब अपने-अपने चाहने वालों में खो गए।

ताज़िंदगी नूर साहब खुद को लखनऊ के ही फ़ज़ल नक्वीं साहब के शाग़िर्द मानते रहे। संगीत की परंपरा में कहें तो गंडा-ताबीज़ भले ही फ़ज़ल नक्वीं का हो पर खुद उन्होंने खूब पढ़ा, खूब सुना और खुद के नजरिए से जीस्त, दुनिया, खुदा और महबूब की नक्काशी की। नूर साहब ने रघुपति सहाय फिराक गोरखपुरी को अपना आइडिएल और महबूब शायर माना। उन्होंने इश्क़ मिजाजी और इश्क़ हकीकी के बीच का रास्ता चुना तभी उनके शेरों में कभी सूफियाना टच मिलता है तो कभी रूमानियत भरे जज़्बात। इसकी दो बानगी आप भी महसूस करें। 
आग है पानी है मिट्टी है हवा है मुझमें।
और फिर मानना पड़ता है ख़ुदा है मुझमें
आइना ये तो बताता है मैं क्या हूँ लेकिन
आइना इस पे है खामोश क्या है मुझमें।।

और रूमानी इंतहा 
अब तो बस जान देने की है बारी ऐ "नूर"
मैं कहाँ तक साबित करूँ वफा है मुझमें।
मैं कैसे और किस सिम्त मोड़ता खुद को,
किसी की चाह न थी दिल में, तेरी चाह के बाद।।

नूर साहब ने अपने दौर में भले ही शायरी को ताज़ा ख़यालात न दिए हों लेकिन खयालों की अंदाज़े बयानी बिल्कुल ताज़ा थी, आज भी ताज़ा है और शायद रहती दुनिया तक ऐसी ही रहेगी।
तमाम जिस्म ही घायल था, घाव ऐसा था,
कोई न जान सका, रख रखाव ऐसा था।

उर्दू ग़ज़लों के साथ-साथ हिंदी ग़ज़लों की बुनियाद में भी उनकी अहम भूमिका रही है। अंग्रेज़ी डिक्शन के साथ उनका ये शेर आसानी से जुबां पर चढ़ जाता है।
चाहे सोने के फ्रेम में जड़ दो
आइना झूठ बोलता ही नहीं

कहते हैं एक मुशायरे में फ़िराक साहब के तंज के चलते उन्होंने तरन्नुम में अपनी ग़ज़लों को पढ़ना छोड़ दिया और फिर सिर्फ उनकी तहत में पढ़ी गई ग़ज़लों ने अपना एक अलग सा मुकाम हासिल किया। उनके तहत की अदायगी किसी कहर से कम नहीं थी।

कहते हैं ग़ज़लों का सैकड़ों साल का इतिहास हैं। पर यदि 'मोमिन' और 'गालिब' से लेकर मुन्नव्वर राणा, मंजर भोपाली और राजेश रेड्डी तक पहुँची इस ग़ज़ल के सफर को देखें तो एक से बढ़कर एक शायर हुए है। सब अपने-अपने फन में माहिर। अपनी सलाहियत, अपनी अदायगी। जीवन के दार्शनिक विजन को अपने-अपने सायकोलाजिकल ट्रीटमेंट के जरिए अलग-अलग तरह से पेश किया। अपने समय को पहचान दी और पहचान हासिल भी की।

एक दौर ऐसा भी आया, ग़ज़लसराओं ने इन शानदार शायरों की ग़ज़लों को म्यूजिकल बना दिया। मंच-महफिल, नशिस्त से ग़ज़लों ने चौराहों की राह पकड़कर लोगों के ड्राइंग-रूम तक पैठ बनाना शुरू कर दिया। पर ग़ज़ल के शौकीन हमेशा मंच और शायर के लाइव परफॉमन्स या जीवंत प्रस्तुति के दीवाने बने रहे। यहाँ तक कि आज भी रतजगे वाले मुशायरों और कवि सम्मेलनों के दीवाने कस्बेनुमा शहर या फिर शहरनुमा कस्बों में अपनी दीवानगी के साथ दिखाई पड़ जाते हैं। जबकि इंटरनेट, सोशल मीडिया और डिजिटल प्लेटफार्म, प्रिंट, पॉडकास्ट, ब्राडकास्ट आदि के जरिए सब कुछ बेहद सुलभ और सरलता से उपलब्ध हो गया है। लेकिन ये भी सच है आदमी की दिलचस्पी आदमी में होती है। यही वजह है सिर्फ शायर और शायरी ही नहीं शायरों की भाव-भंगिमाएँ, हाजिर जवाबी, सामयिक टिप्पणी और जुमलों का लुत्फ़ खुले आकाश के नीचे बने मंचों और डॉयस से ही बिखरता है। बेकल उत्साही, कुंवर बेचैन, नीरज, मंजर भोपाली, माया गोविंद, अंजुम रहवर बशीर बद्र, मुन्नवर राणा, वसीम बरेलवी, राहत इंदौरी जैसे और भी कई नामचीन प्रस्तोता इसी वजह से याद रहते है। कृष्ण बिहारी नूर उसी दौर में शायर थे। उनकी आवाज में एक्सप्रेशन थे, अदा थी। उन्होंने आगाज़ भले ही लखनऊ से किया हो पर उनकी आवाज, अंदाज़ और अदायगी ने राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर खूब वाह-वाही बटोरी। लखनऊ से दूर जाकर उन्होंने एक पहचान हासिल की, लेकिन ताज़िंदगी लखनऊ उनसे कभी जुदा नहीं हुआ। कभी मशहूर शायर मुनव्वर राणा ने उनके बारे में कहा था, "नूर चलता फिरता लखनऊ था। नूर जहाँ मौजूद होते थे लखनऊ की हजीब, लखनऊ की नज़ाकत, लखनऊ का प्यार सब मौजूद होता था।"

नूर ने तमाम उम्र लफ्ज़ों को संजीदगी, नज़ाकत और नफ़ासत से तराशकर उन्हें अशआरों में तब्दील किया। उनकी हर अदायगी और हर शेर में लखनवी नूर की रोशनी बरक्स दिखाई पड़ती है। तल्ख बात हो पर उनका लहज़ा हमेशा नरमों-नाज़ुक रहा। तबीयत से नूर एक खुशदिल शख्सियत, मुस्कराहट में खुलुस, पहनावा सादगी से भरा पर पहचान देता हुआ। 

लखनवी तहज़ीब उनके गोशे-गोशे में थी। बातों का सुकून भरा अंदाज़ उनकी समूची शख्सियत का रिफ्लेक्शन बन जाया करता था और प्रस्तुति ऐसी मानो चाशनी में घुली हुई, जोश और हिज्जे की फीलिंग्स और मंद-मंद मुस्कान या संक्षेप में कहें तो नूर से मंच रोशन हो जाता था।
मैं एक कतरा हूँ मेरा अलग वजूद तो है
हुआ करे जो समंदर मेरी तलाश में है।

या फिर 
मैं जिस हुनर में पोशीदा हूँ अपनी ग़ज़लों में
उसी तरह वो छुपा सारी कायनात में है।

जनाब कृष्ण बिहारी नूर खुद अपनी शायरी के बारे में कहते है, "हर बात को खूबसूरत ढंग से कहने का हुनर ही शायरी है फिर चाहे वो जज़्बात, हों ख़यालात हों या महसूसात और तर्जुबात हों।"
जिंदगी!. मौत तेरी मंजिल है
दूसरा कोई रास्ता ही नहीं
इतने हिस्सों में बँट गया हूँ मैं
मेरे हिस्से में कुछ बचा ही नहीं।

हिंदी साहित्य के तमाम वाद चाहे वो छायावाद हो या फिर रहस्य, प्रगति, आदर्श या फिर यर्थाथवाद हो नूर उन्हें सिर्फ दो मिसरों में ढाल देते थे। शायरी की ऐसी टकसाल थे नूर साहब :- मुलाहिजा फर्माइए

छायावाद- 
शाम जब रात की महफिल में कदम रखती है
भरती हैं माँग में सिंदूर सुहागन की तरह।
रहस्यवाद-
मैं तुम को जीत कर भी कहाँ जीत पाऊँगा
लेकिन मोहब्बतों का हुनर छोड़ जाऊँगा।
प्रगतिवाद-
कोई इंसान न मिला सारे अदाकार मिले
चैन मिल जाए जो थोड़ा भी कहीं प्यार मिले।
आदर्शवाद-
"नूर" का मज़हब है क्या सब देखकर हैरान हैं
हकपरस्ती, बुतपरस्ती, मयपरस्ती साथ-साथ
यर्थाथवाद -
सच बोलना अच्छा मगर ध्यान रहे "नूर"
कहते है ज़माने की हवा भी है कोई चीज।

"नूर" का हर शेर एक तस्वीर बनकर आँखों में उभरता है और रंगों की रोशनाई मजाज़ी और हक़ीक़ी दोनों सच एक साथ बेनकाब हो जाते है।
मैं तो अपने कमरे में तेरे ध्यान में गुम था।
घर के लोग कहते है सारा घर महकता था
या फिर
ये किस मुकाम पर ले आई जुस्तज़ू तेरी
कोई चराग नहीं और रोशनी है बहुत

उर्दू के और भी शायरों के कलाम और शेरों को नया कलेवर देने में उन्हें महारत हासिल थी। "नूर" ने जीते-जी ख़ूब दाद और इरशाद बटोरी वहीं ३० मई २००३ को दुनिया से रूखसत होने के बाद भी ये सिलसिला रुका नहीं है।
एक शख्सियत सिर्फ अपने कारनामों की बदौलत लोगों के दिलों में जीवित रह सकता है इसकी जीवंत मिसाल हैं, मरहूम कृष्ण बिहारी नूर। एक गंगा-जमुनी शायर जो हिंदी शब्दों और उर्दू लफ्ज़ों का कुशल चितेरा या कहें बाजीगर था। इंसानी जज़्बातों की गहरी पड़ताल में ताज़िंदगी मशरूफ रहा।
हीरे जवाहरात की महफिल को हो गुमान।
चुन चुन के लफ़्ज़ उसने यूँ मिसरे सजाए थे।।

बहरहाल, दुनिया से जाने कितने शायर विदा ले चुके है। जाने कितने शायर अपने शेरों से रोशनी बिखेर रहे है और न जाने कितने शायर आने वाले वक्त के गवाह बनेंगे। पर नूर की अपनी एक अलग सी रोशनी बरकरार रहेगी। उनके ख़यालों का अक्स उनकी याद दिलाता रहेगा। सदियाँ अपना सफर तय करती रहेंगी। पर लम्हें अपना वक्त दोहराते रहेंगे उनमें कुछ लम्हात कृष्ण बिहारी नूर के भी होंगे ।
अपनी रचनाओं में वो जिंदा है
"नूर" संसार से गया ही नहीं।

कृष्ण बिहारी नूर : जीवन परिचय

जन्म 

८ नवंबर १९२६, ग़ौस नगर, लख़नऊ, उत्तर प्रदेश

निधन

३० मई २००३, गाज़ियाबाद, उत्तर प्रदेश

पिता 

कुंज बिहारी लाल श्रीवास्तव

शिक्षा

हाई स्कूल

अमीनाबाद (उत्तर प्रदेश)

स्नातक

लखनऊ विश्वविद्यालय

व्यवसाय

सहायक प्रबंधक, आर० एल० ओ० डिपार्टमेंट लखनऊ

साहित्यिक रचनाएँ

  • दुख-सुख (उर्दू)

  • तपस्या (उर्दू)  

  • समंदर मेरी तलाश में (हिंदी) 

  • हुसैनियत की छांव 

  • तजल्ली-ए-"नूर"

  • आज के प्रसिद्ध शायर "नूर" (संपादक कन्हैयालाल नंदन)

संदर्भ

  • कन्हैया लाल नंदन की पुस्तक 

  • प्रोफ़ाइल एंड बायोग्राफी रेख़्ता (www.rekhta.org ) 

  • फेसबुक कृष्ण बिहारी नूर "लखनवी" वेबपेज 

  • विकिपीडिया

लेखक परिचय

रविकांत वर्मा
एम०ए० (सोशियोलॉजी), एल०एल०बी०, बैचलर ऑफ़ जर्नलिज़्म एंड मास कम्युनिकेशन में उपाधि 
आकाशवाणी छिंदवाड़ा से सेवानिवृत्त  
मो०  9589972355
जबलपुर (मध्यप्रदेश )

आलेख पढ़ने के लिए चित्र पर क्लिक करें।

कलेंडर जनवरी

Sun Mon Tue Wed Thu Fri Sat
            1वह आदमी उतर गया हृदय में मनुष्य की तरह - विनोद कुमार शुक्ल
2अंतः जगत के शब्द-शिल्पी : जैनेंद्र कुमार 3हिंदी साहित्य के सूर्य - सूरदास 4“कल जिस राह चलेगा जग मैं उसका पहला प्रात हूँ” - गोपालदास नीरज 5काशीनाथ सिंह : काशी का अस्सी या अस्सी का काशी 6पौराणिकता के आधुनिक चितेरे : नरेंद्र कोहली 7समाज की विडंबनाओं का साहित्यकार : उदय प्रकाश 8भारतीय कथा साहित्य का जगमगाता नक्षत्र : आशापूर्णा देवी
9ऐतिहासिक कथाओं के चितेरे लेखक - श्री वृंदावनलाल वर्मा 10आलोचना के लोचन – मधुरेश 11आधुनिक खड़ीबोली के प्रथम कवि और प्रवर्तक : पं० श्रीधर पाठक 12यथार्थवाद के अविस्मरणीय हस्ताक्षर : दूधनाथ सिंह 13बहुत नाम हैं, एक शमशेर भी है 14एक लहर, एक चट्टान, एक आंदोलन : महाश्वेता देवी 15सामाजिक सरोकारों का शायर - कैफ़ी आज़मी
16अभी मृत्यु से दाँव लगाकर समय जीत जाने का क्षण है - अशोक वाजपेयी 17लेखन सम्राट : रांगेय राघव 18हिंदी बालसाहित्य के लोकप्रिय कवि निरंकार देव सेवक 19कोश कला के आचार्य - रामचंद्र वर्मा 20अल्फ़ाज़ के तानों-बानों से ख़्वाब बुनने वाला फ़नकार: जावेद अख़्तर 21हिंदी साहित्य के पितामह - आचार्य शिवपूजन सहाय 22आदि गुरु शंकराचार्य - केरल की कलाड़ी से केदार तक
23हिंदी साहित्य के गौरव स्तंभ : पं० लोचन प्रसाद पांडेय 24हिंदी के देवव्रत - आचार्य चंद्रबलि पांडेय 25काल चिंतन के चिंतक - राजेंद्र अवस्थी 26डाकू से कविवर बनने की अद्भुत गाथा : आदिकवि वाल्मीकि 27कमलेश्वर : हिंदी  साहित्य के दमकते सितारे  28डॉ० विद्यानिवास मिश्र-एक साहित्यिक युग पुरुष 29ममता कालिया : एक साँस में लिखने की आदत!
30साहित्य के अमर दीपस्तंभ : श्री जयशंकर प्रसाद 31ग्रामीण संस्कृति के चितेरे अद्भुत कहानीकार : मिथिलेश्वर          

आचार्य नरेंद्रदेव : भारत में समाजवाद के पितामह

"समाजवाद का सवाल केवल रोटी का सवाल नहीं है। समाजवाद मानव स्वतंत्रता की कुंजी है। समाजवाद ही एक सुखी समाज में संपूर्ण स्वतंत्र मनुष्यत्व...