विनोदी वृत्ति जिसके स्वभाव की प्रतिछाया बनकर मिलने वाले को सम्मोहित कर ले, वही हैं गंगा बाबू!
प्रेरक प्राण उद्बोधनों के माध्यम से जो युवाओं में जोश भर दे, वही हैं गंगा बाबू!
विचारों की स्पष्टता से जो लक्ष्य को सुगम बना दे, वही हैं गंगा बाबू!
पटना के खड़गपुर गाँव में जन्मे गंगाशरण सिंह अनन्य राष्ट्रप्रेमी की छवि के साथ प्रस्तुत होते हैं। अपने हिंदी प्रेम के कारण विख्यात इस कर्मयोगी से जब पूछा गया कि आप फोन उठाने पर "हैलो" के स्थान पर "जी" क्यों कहते हैं, तो वे गंभीर होकर बताते हैं, "मैं दूसरी ज़बान में क्यों उत्तर दूँ? मेरी अपनी भाषा है। मैं अपनी भाषा में उत्तर दूँगा। मान लो, किसी ने तुम्हारे दरवाज़े पर दस्तक दी। तुम द्वार खोलकर आगंतुक को देखोगे, फिर क्या कहोगे? यही न, कि "कहिए, किससे मिलना है?" फ़ोन की घंटी को मैं दरवाज़े पर हुई दस्तक मानता हूँ, इसीलिए फ़ोन उठाकर "जी हाँ, कहिए" कहता हूँ। हिंदी ही हमारी बोली-बानी है। हमारी सत्ता की संरचना में हिंदी की महत्वपूर्ण भूमिका है। हिंदी हमारी आत्मा में रची-बसी है। मैं उसी भाषा में उत्तर देता हूँ।"
गंगा बाबू का बचपन जहाँ एक संपन्न परिवार में बीता, वहीं युवावस्था में रहन-सहन और वेशभूषा तक में अपने को साहित्यिक बना चुके रामवृक्ष बेनीपुरी की मित्रता ने उन्हें एक अजब-सी धुन पर सवार कर दिया। आचार्य नरेंद्र देव के विचारों से तो प्रभावित थे ही, बस फिर क्या था! अपने सभी ठाट छोड़कर वे आश्रम में रामवृक्ष के साथ रहने आ गए।
रामवृक्ष बेनीपुरी से गंगा बाबू की मुलाकात तरुण भारत के कार्यालय में हुई थी। लेकिन जब रामवृक्ष मुजफ्फरपुर से पटना आए और दोनों के बीच 'युवक आश्रम' को लेकर चर्चा हुई तो वे बड़े उत्साहित होकर इस कार्य के लिए मान गए। रामवृक्ष के लिए 'युवक आश्रम' पत्रकारिता की एक साधना-यात्रा थी।
'युवक' के मूल संकल्प पर अमल करते हुए रामवृक्ष और गंगा बाबू ने अपनी पुरानी जीवनशैली को चुनौती दी और पत्रिका को शक्ति, साहस और साधना के जीवंत प्रतीक के रूप में प्रस्तुत करने के लिए स्वयं को एक जीती-जागती मिसाल बनाने का प्रयास किया। दोनों ने निश्चय किया - "दुनिया बदलने निकले हैं तो पहले खुद को बदलें।" यहाँ संकल्प साधने को उन्होंने कड़े अनुशासन का व्रत लिया। ज़मीन पर केवल चटाई बिछाकर सोना, अपने कपड़े खुद साफ करना, सादा भोजन लेना, अपनी थाली खुद माँजना आदि से एक जुनून की तरह शुरू हुई युवक साधना। सूर्योदय से पहले उठकर दैनिक कार्यों से निर्वृत होकर पत्रिका का काम शुरु करना, प्रेस जाना, पते लिखना, लेबल चिपकाना, डाक ले जाना, ग्राहकों के लिए प्रतिदिन की दौड़-धूप इत्यादि। धीरे-धीरे 'युवक आश्रम' के आँगन से नौजवानों की विचारधाराएँ समाज और सरकार के खिलाफ़ विद्रोह का समीर बनकर पूरे बिहार में विहार करने लगी। जब "भागो नहीं दुनिया बदलो" कहने वाले राहुल सांकृत्यायन का साथ मिला तो पत्रिका की नियमितता पर छाए संदेह के बादल भी छँट गए। बँधी आमदनी हो जाने से मित्र द्वय को आश्रम के हिसाब-किताब से चलने का रास्ता दिखने लगा। पटना कॉलेज के ठीक सामने होने के कारण यह कॉलेज के विद्यार्थियों और नौजवानों का अड्डा बन गया। साइमन के आगमन पर 'युवक आश्रम' शिविर-सा बन गया और पटना की गलियों में "उठो, भारत के वीरों, सबेरा हुआ" की हुंकार सी गूंजने लगी। १९३१ में जब बिहार सोशलिस्ट पार्टी बनने की तैयारी होने लगी और युवक आश्रम को उसका दफ्तर बना दिया गया, तो आर्थिक सहायकों ने मुँह मोड़ लिया और पत्रिका अधर में लटकती दिखाई देने लगी। इसी समय जब 'क्रांति अंक' छपकर निकला तो रामवृक्ष के साथ गंगाशरण भी गिरफ्तार कर लिए गए। मुकदमे और जुर्माने की रकम जमा करते करते दोनों बड़े कर्ज में डूब गए। इतना सब होने पर भी गंगा बाबू के चेहरे पर शिकन के बजाए मुस्कान थी। उन्होंने रामवृक्ष के साथ मिलकर जेल में ही यह तय कर लिया कि उन्हें नई और सक्रिय राजनीति में भूमिका अदा करनी है। परंतु पुनर्जीवित नहीं हो सकने पर भी 'युवक आश्रम' मात्र एक पत्रिका का केंद्र नहीं बल्कि बिहार के प्रगतिशील साहित्य और राजनीति का केंद्र बन गया।
खादी का श्वेत परिधान - धोती कुर्ता और सिर पर दुपल्ली गाँधी टोपी वाला, औसत कद और स्थूल शरीर का यह सुदर्शन युवक खुद एक ज़मींदार परिवार से आता था। परंतु जब किसानों की समस्याओं पर तथाकथित नेताओं ने उनके आंदोलन से मुँह मोड़कर लालची जमींदारों का साथ दिया तो गंगा बाबू इस लड़ाई में किसानों के पक्ष में खड़े रहे। उनके समर्थन में जयप्रकाश नारायण, लोहिया, राहुल सांकृत्यायन, रामवृक्ष बेनीपुरी, नरेंद्र देव, अशोक मेहता, किशोरी प्रसन्न सिंह और पं० रामनंदन मिश्र जैसे समाजवादी नेता भी आगे रहे। जयप्रकाश नारायण तो उनके घनिष्ठ मित्रों में से थे।
गंगा बाबू एक स्वाभिमानी जननेता थे। पद प्रतिष्ठा से कोसों दूर, इतने कि जब राज्यपाल पद के प्रस्ताव मिले तो कहने लगे, "तुम मुझे पंगु बनाना चाहते हो, मेरी जुबान बंद करना चाहते हो भाई!", निडर और बेबाक इतने कि एक बार दिनकर स्मृति पुरस्कार समारोह में उन्होंने उपराष्ट्रपति डॉ० शंकर दयाल शर्मा को विलंब से आने पर कड़ी फटकार लगाई, "शंकर अब तुम संविधान के अंग हो गए हो, गवर्नर नहीं हो।" संवेदनशील इतने कि उसी समारोह में क्षमा माँगते हुए यह कहने लगे, "भाइयों मुझे क्षमा करना। अपनी ही कहकर जा रहा हूँ, सबकी सुन नहीं पाऊँगा। मुझे अभी रात की गाड़ी से पटना जाना है। मेरे नौकर की धर्मपत्नी दिवंगत हो गई है, कल प्रातः अंत्येष्टि है।"
स्वतंत्रता की कामना और सवप्नों के जीवनप्रद स्वरूप ने गंगा बाबू के मन-मस्तिष्क में आंदोलन की सी चिंगारी सुलगा दी। अपनी अभिव्यक्ति कला को उन्होंने प्रखरता की आग में तपाया था। उनका मित्र मंडल श्रेष्ठ व्यक्तित्वों की महफिल हुआ करता था। खाने-खिलाने के शौकीन गंगा बाबू विनोदी वृत्ति को निज स्वभाव का अंग मानते हुए प्रत्येक आगंतुक का बड़ा ही स्नेहिल स्वागत करते। भोजन के समय जहाँ व्यंजनों का रस मुँह में घुलता वहीं उनकी बातों का रस भी सबके हृदय में घुल जाता। उनकी मस्तमौला छवि सभा को ठहाकों की बौछार से गुदगुदा देती। उनके पास सूक्तियों, चुटकुलों, कहावतों, संस्मरणों व शेर-ओ-शायरी का अकूत भंडार था, जिसकी सहायता से वे प्रत्येक प्रश्न का विस्तृत उत्तर देकर सभी को विस्मित कर देते थे। उनके मुख से शब्द अमृत छलकते थे।
गंगा बाबू की भारतीय साहित्य में गहरी पैठ थी। उन्होंने साहित्यिक कृतियाँ भले ही नहीं रची बल्कि कृतिकारों को गढ़ने का कार्य करते हुए साहित्यिक-सांस्कृतिक वातावरण को रचने में महत्वपूर्ण अवदान दिया। 'युवक' के माध्यम से दिनकर जैसी प्रतिभाओं को प्रोत्साहित किया। बिहार से तीन बार के राज्यसभा सदस्य रहे गंगा बाबू के तेज और मेधा के चर्चे उन्हें परिभाषित करते रहे हैं। लेकिन एक समय ऐसा आया जब उन्होंने हिंदी सेवा को ही जीवन का एकमात्र ध्येय बना लिया था। इसके प्रचार-प्रसार में उन्होंने निरंतर काम करते हुए इसे सशक्त और संपर्क भाषा के रूप में संवर्धित करने का बीड़ा उठाया। वे अनेक हिंदी सेवी संस्थाओं से अभिन्न रूप से जुड़े हुए थे। देश की लगभग २० स्वैच्छिक हिंदी संस्थाओं को अखिल भारतीय हिंदी संस्था संघ के समन्वयात्मक मंच पर लाते हुए उन्होंने समग्र भारत में राष्ट्रभाषा की ज्ञान गंगा बहाई। हिंदीतर भाषी क्षेत्रों में हिंदी के प्रचार-प्रसार और हिंदी प्रशिक्षण के क्षेत्र में कार्य करने व विशिष्ट योगदान के लिए केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा द्वारा उनके नाम पर "गंगाशरण सिंह सम्मान" दिया जाता है।
साहित्यानुरागी गंगा बाबू अनेक रचनात्मक संस्थाओं के निर्माता होने के साथ ही भारतीय संस्कृति के पोषक के रूप में भी जाने जाते हैं। राष्ट्र में हिंदी भाषा को समुचित दर्जा नहीं मिल पाना उनके जीवन की पीड़ रही। उनकी मान्यता के अनुसार, "भारत की राष्ट्रभाषा हिंदी हो सकती है, वह संतों की भाषा है, प्रेम की भाषा है, सदा जोड़ने वाली, दिलों को मिलाने वाली भाषा है। कन्याकुमारी से लेकर कश्मीर और द्वारका से लेकर डिब्रूगढ़ तक हिंदी ही है जो सबसे अधिक बोली और समझी जाती है। हिंदी रहेगी तो देश एक रहेगा।" देश और भाषा के प्रति इसी दायित्व और कर्तव्य बोध की सजगता ने उनके व्यक्तित्व को व्यापक आयाम दिए और सच्चे अर्थों में कर्मयोगी कहा जाने वाला यह व्यक्ति स्वयं एक विस्तृत संस्था बन गया।
गंगा बाबू हृष्ट-पुष्ट और फुर्तीले व्यक्ति थे। अपने ध्येय के प्रति उनकी कर्मठता ने जीवन के अंतिम वर्षों में भी निरंतर गिरते स्वास्थ्य की ओर से उन्हें बेपरवाह कर दिया। वे लगातार देशव्यापी यात्राएँ कर रहे थे। आयोजनों, व्याख्यानों, अभिभाषणों, मंत्रणाओं और बैठकों के दौर से उन्हें जीवन-भर मुक्ति नहीं मिली। एक समय साहित्य अकादमी, नई दिल्ली के एक आयोजन में वे सम्मिलित हुए थे, जिसमें 'संस्मरण सत्र' की अध्यक्षता करने के लिए उनके मित्र प्रफुल्लचंद्र ओझा 'मुक्त' भी पटना से दिल्ली गए थे। सभा-भवन में तबियत बिगड़ जाने से गंगा बाबू मूर्च्छित हो गए थे। जब उनकी हालत थोड़ी सँभली तो ओझा जी ने उन्हें थोड़ी कड़कती सी आवाज़ में कहा, "तुम क्या समझते हो, तुम न रहोगे तो क्या ये आयोजन ठप्प पड़ जाऐंगे? जब तबियत इतनी नासाज़ थी, तो तुम्हें यहाँ नहीं आना चाहिए था।" प्रिय मित्र की नाराज़गी देखकर गंगा बाबू निरीह भाव से बोले, "तब तो सारा झगड़ा ही ख़त्म हो जाएगा। लोग इतने प्यार से बुलाते हैं कि इनकार करते नहीं बनता। बोलो, क्या करूँ?"
शायद १९८७ का समय होगा, गंगा बाबू मित्र ओझा जी के घर जा पहुँचे। वाहन से उतरकर दस-पंद्रह कदम भी चलना उनके लिए दुसाध्य था। अपने शरीर को उन्होंने लौह-शिकंजे सा जकड़ रखा था, सोफे पर बैठते हुए उनका एक पाँव भी सहजता से मुड़ता नहीं था। उठने-बैठने में उन्हें जो असहृय पीड़ा होती थी, जाने किस योग-बल से उसका प्रभाव वे उसे चेहरे पर नहीं आने देते थे। उसी शाम वे अपने साथ ओझा जी से लखीसराय के बालिका विद्यापीठ के वार्षिकोत्सव में मुख्य-अतिथि के रूप में सम्मिलित होने का आग्रह करने आए थे। परंतु स्वास्थ्य अच्छा न होने से ओझा जी ने अपनी असमर्थता व्यक्त करते हुए क्षमा-याचना की। पल भर को गंगा बाबू उन्हें देखते रहे, फिर बोले, "तुमसे सौ गुना ज्यादा मैं तकलीफ में हूँ और अनेक व्याधियों से जूझ रहा हूँ, यह तुम जानते हो। मैं मानता हूँ कि इस दशा में यदि मैं इस उत्सव में शरीक हो सकता हूँ तो तुम भी सम्मिलित हो सकते हो।" इसके बाद उन्होंने अपनी व्याधियों और शारीरिक दशा का सचमुच मर्माहत कर देने वाला वर्णन किया। जिसने ओझा जी को निरुत्तर कर दिया।
गंगा बाबू के हृदय में पेसमेकर और रीढ़ की हड्डी में स्टील की रॉड डली हुई थी। लेकिन यह लौह पुरुष मृत्यु से एक जंग लड़ते हुए अपने संकल्पों के प्रति अडिग थे। उनका प्रवाह ऐसा निर्मल था कि चापलूस लोग, भ्रष्ट राजनीतिज्ञ और बेईमान साहित्यकार सभी उनसे घबराते थे। वे भारतीय राजनीति और साहित्य के पृष्ठों पर निर्भीकता की आँच में व्यवस्थाओं का काढ़ा पकाते एकमात्र निडर और बेबाक पुरुष थे। वे अंतिम समय तक शारीरिक व्याधियों-पीड़ाओं को नज़रअंदाज़ करते हुए हिंदी और हिंदी सेवी संस्थानों के उत्थान हेतु प्राणपण से जुटे रहे।
अद्वितीय स्मरण शक्ति के धनी गंगा बाबू के स्वर में सिंह सा जोश था। देश के तत्कालीन राजनेताओं, वरेण्य साहित्यकारों और विद्वज्जनों की पूरी जमात में उनकी गहरी पैठ थी और सर्वत्र उनका समादर होता था। उनके मित्र ओझा जी ने एक बार उनसे कहा, "तुम्हारे पास अनुभवों और अनमोल संस्मरणों का खज़ाना है, भाषा पर तुम्हारा पूरा अधिकार है। अब भाग-दौड़ भी तुम्हारे वश की बात नहीं रही। एक जगह जमकर बैठो और उन संस्मरणों-अनुभवों को लिख डालो। मैं शपथपूर्वक कह सकता हूँ कि तुम्हारा वह लेखन साहित्य की अमूल्य निधि और इस समूचे काल-खंड का जीवित इतिहास सिद्ध होगा।" मित्र की बात सुनकर गंगा बाबू मुस्कुराए और कहा, "मुक्त, सचमुच चाहता हूँ, कुछ लिखूँ। जानता हूँ, लिखने लायक बातें मेरे पास हैं; लेकिन इस यायावरी, इस भाग-दौड़ से मुक्ति नहीं मिलती। लगता है, इस जीवन में अब मिलेगी भी नहीं। फिर, समय की पूंजी भी कितनी बची है मेरे पास....?"
सचमुच, समय की पूंजी तो धीरे-धीरे ख़त्म ही हो गई, जब ८३ वर्ष की अवस्था में सन १९८८ में गंगा बाबू ने अंतिम विश्राम पाया। एक समर्पित जीवन यज्ञ में उन्होंने हिंदी के उन्नयन और देश की राजनीति के लिए पवित्र आहुति दी है, जिसकी आज कल्पना भी नहीं की जा सकती। परंतु दुखद है कि अपने अनुभवों, संस्मरणों और प्रखर चिंतन की विशाल निधि को वे लिपिबद्ध नहीं कर सके। उनका संपूर्ण जीवन अभिन्न मित्र दिनकर जी इन पंक्तियों में समाहित करते हैं,
"वसुधा का नेता कौन हुआ?
भू-खंड विजेता कौन हुआ?
अतुलित यश-क्रेता कौन हुआ?
जिसने न कभी आराम किया, विघ्नों में रहकर नाम किया...!"
हिंदी के लिए आजीवन संघर्ष करने वाले सचेत व जागृत विद्रोही गंगा बाबू के निधन पर दूरदर्शन ने केवल दो पंक्ति का समाचार पढ़ा - बाबू गंगाशरण नहीं रहे।
परंतु हिंदी की उपासना को जीवन की नियति समझने वाले गंगा बाबू अक्सर शुभचिंतकों की चिंता देखकर कहा करते, "आप लोग मेरी चिंता न करें, गंगाशरण या तो ट्रेन में मरेगा या हिंदी मंच पर।"
गंगाशरण सिंह : जीवन परिचय |
जन्म | १९०५, खड़गपुर गाँव, पटना, बिहार |
निधन | १९८८, राजेंद्र नगर, पटना, बिहार |
भाषा ज्ञान | हिंदी, संस्कृत, बांग्ला, उर्दू- गुजराती और अंग्रेजी |
पत्रिका | |
कार्यक्षेत्र |
केंद्रीय हिंदी समिति से लेकर भारत सरकार की अनेक हिंदी सलाहकार समितियों के सदस्य बिहार हिंदी विद्यापीठ, देवघर के कुलपति तथा बालिका विद्यापीठ, लखीसराय, मुंगेर के अध्यक्ष भारतीय ज्ञानपीठ के संस्थापक न्यासी बोर्ड के सदस्य अनेक संस्थाओं के संस्थापक सदस्य
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सम्मान |
केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा द्वारा उनके नाम पर "गंगाशरण सिंह सम्मान" की स्थापना
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संदर्भ
लेखक परिचय
मुट्ठी भर उजाले