Friday, December 31, 2021

पद्मभूषण श्रीलाल शुक्ल का सृजन संसार



सूनी घाटी का सूरज' कभी 'अज्ञातवास' में नहीं रहा। 'राग-दरबारी' बनकर, 'आदमी का ज़हर' पहचानते हुए, 'उसकी सीमाएँ टूटती हैं' और एक 'मकान' उसका 'पहला पड़ाव' बन जाता है। इसी बीच, 'विश्रामपुर का संत’ 'बब्बर सिंह और उसके साथी' 'इस उम्र में' 'यह घर मेरा नहीं' कहकर 'राग-विराग' करने लगे। किंतु, यह 'अंगद का पाँव' था। इतनी आसानी से 'यहाँ से वहाँ' कैसे होता?, 'उमरावनगर में कुछ दिन' क्या गुज़ार लिए, 'कुछ ज़मीन कुछ हवा में' उड़ने लगे! खैर, छोड़ो, 'आओ बैठ लें थोड़ी देर', 'अगली शताब्दी का शहर' 'ज़हालत के पचास सालों' से बेहतर होगा। मगर 'ख़बरों की जुगाली' तो वहाँ भी करनी ही पड़ेगी।

आप सोच रहे होंगे, “यह कैसी पहेली है?” यह कोई पहेली नहीं, अपितु ज्ञानपीठ तथा साहित्य अकादमी पुरस्कृत पद्मभूषण श्रीलाल शुक्ल की रचनाओं के शीर्षक हैं। जी हाँ, वही श्रीलाल शुक्ल जिनकी “राग-दरबारी” काल की सभी सीमाओं के परे प्रासंगिक है। साठ के दशक की पृष्ठभूमि पर लिखी यह कटु व्यंग्य रचना आज के भ्रष्ट तंत्र और सुप्त समाज में भी फिट बैठती प्रतीत होती है। श्रीलाल शुक्ल के जीवन वृत्त से कुछ रोचक पहलु आपके समक्ष प्रस्तुत हैं -

प्रारंभिक जीवन
श्रीलाल शुक्ल के जन्म के विषय में उनके बड़े भाई शीतला सहाय शुक्ल ने एक बड़ी ही दिलचस्प बात कही थी। अपने पितामह (दादाजी) की मृत्यु का ज़िक्र करते हुए वे कहते हैं कि वर्ष १९२४ में, जब पितामह मृत्यु शैय्या पर लेटे थे और दादी अत्यंत दुखी अवस्था में पास बैठी थीं, तब दादी को सांत्वना देते हुए पितामह ने कहा था, “इसमें दुखी होने की कोई बात नहीं है। मनुष्य अपने कर्मों के अनुसार जन्म लेता है और मृत्यु को प्राप्त होता है। हम अवश्य फिर से जन्म लेंगे और उस बालक का नाम आप श्रीलाल रखिएगा।”  इस घटना के तकरीबन एक वर्ष बाद ही, ३१ दिसंबर १९२५ को, उनके घर एक पुत्र का आगमन हुआ और उसका नाम श्रीलाल शुक्ल रखा गया।

श्रीलाल बचपन से ही बड़े मेधावी छात्र थे। पढ़ाई में उनकी विशेष रूचि थी और वे सदैव मेरिट लिस्ट में अपना स्थान सुरक्षित रखते थे। प्रारंभिक शिक्षा गाँव, अतरौली (तहसील - मोहनलालगंज), के ही सरकारी विद्यालय में हुई। एक साक्षात्कार के दौरान अपना बचपन याद करते हुए वे बड़े भावुक होकर बताते हैं कि उनके विद्यालय के पास एक बहुत बड़ा तालाब हुआ करता था, जिसके पास जामुन के पेड़ थे। गर्मी के मौसम में जामुन के टूटकर पानी में गिरने की आवाज़ उन्हें बड़ी अच्छी लगती थी। मिडिल स्कूल की परीक्षा में लखनऊ कमिश्नरशिप, जिसमें ५-६ ज़िले थे, में वे अव्वल स्थान पर थे। हाई स्कूल की परीक्षा उन्होंने लखनऊ के एक अंग्रेज़ी माध्यम स्कूल से उत्तीर्ण की, जिसमें पूरे प्रदेश में वे छठे स्थान पर रहे। इंटरमीडिएट के लिए वे कानपुर आ गए, जहाँ उन्हें समूचे प्रदेश में तीसरा स्थान प्राप्त हुआ। फिर बीए करने वे इलाहाबाद विश्वविद्यालय आए, किंतु यहाँ वे कभी एकाग्र मन से पढ़ नहीं सके। नतीजतन ग्रेजुएशन में मन लायक परिणाम नहीं ला सके, जिसका मलाल उन्हें आजीवन रहा। मगर ये छोटी-मोटी ठोकरें उनके इरादों को कमज़ोर नहीं कर सकीं और डेढ़ वर्षों की कड़ी मेहनत ने उन्हें उत्तर प्रदेश राज्य प्रशासनिक सेवा में डेप्युटी कलेक्टरेट (१९४९) के ओहदे पर बिठा दिया। एक व्यवस्थित आजीविका मिलते ही श्रीलाल शुक्ल के भीतर का साहित्यकार बाहर निकलने को कुलबुलाने लगा और वर्ष १९५६ से आरंभ हुआ एक प्रशासनिक अधिकारी से साहित्यकार श्रीलाल का सुहाना सफ़र। 

साहित्यिक सफ़रनामा
उपन्यासों व व्यंग्य लेखन के लिए विख्यात श्रीलाल शुक्ल ने कविताओं से लेखन आरंभ किया था, जो मुख्यतः ब्रज भाषा में थीं। उनकी कवितायें कभी प्रकाशित नहीं हुई, बस स्वान्तः सुखाय बनकर रहीं। अपनी कविताओं को वे “VERY GOOD BAD POEMS” (बहुत अच्छी बुरी कविताएँ) की श्रेणी में रखते हैं। अच्छी कविताएँ इसलिए क्योंकि भाषा अच्छी थी, लय-ताल अच्छा था, छंद अच्छे थे; और बुरी इसलिए क्योंकि उनमें कुछ नई बातें नहीं कही जा रही थी। हालाँकि उनके कवि मित्रों का मानना था कि श्रीलाल को छंदों का बहुत गहरा ज्ञान था। उन्हें कविताओं में विशेष रुचि थी और अक्सर अपने मित्रों की दुविधाओं को दूर करने में सफल रहते थे।
अपने पितामह से मिले भाषा ज्ञान ने श्रीलाल शुक्ल को अंग्रेज़ी, उर्दू, संस्कृत और हिंदी का विद्वान बनाया जबकि पिता से मिली संगीत की समझ ने उन्हें शास्त्रीय और सुगम दोनों पक्षों का मर्मज्ञ-रसिक बनाया। लेखनी के लिए उन्होंने हिंदी भाषा को अपनाया। अपनी भाषा-शैली और दक्षता पहचानते हुए उन्होंने व्यंग्य और उपन्यास लेखन की ओर रुख़  किया और एक-से-बढ़कर एक नायाब कहानियों से लैस सृजन-संसार तैयार किया। उनका पहला उपन्यास “सूनी घाटी का सूरज” १९५७ में प्रकाशित हुआ और फिर एक-एक करके २००५ तक उनकी लगभग ३० पुस्तकें प्रकाशित हुईं। इनमें १० उपन्यास, ९ व्यंग्य-संग्रह, ४ कहानी-संग्रह, २ विनिबंध तथा एक आलोचना पुस्तक शामिल हैं। उन तीस किताबों में बीसवीं शताब्दी का जीवन अपना अर्थ पाता है। उनकी सर्वाधिक लोकप्रिय पुस्तक “राग दरबारी” प्रशंसा और आलोचनाओं के बीच आज भी उसी रुचि से पढ़ी जाती है, जिस रुचि  से अपने प्रकाशन काल में पढ़ी गई। 

देशज मुहावरों तथा मिथकीय शिल्प का प्रयोग उनकी भाषा को अद्भुत रूप से प्रभावशाली बना देता है। उनकी भाषा की विशेषता बताते हुए सुप्रसिद्ध आलोचक मुरली मनोहर प्रसाद सिंह कहते हैं, अलग-अलग प्रकार की भंगिमाओं को पकड़ने की कला में जो तत्परता दस्तायेवस्की, डिकेंस और टॉलस्टॉय की रचनाओं में दिखाई देती है, वैसी ही कला, पात्रों की भंगिमाएँ श्रीलाल शुक्ल की रचनाओं में मिलती है। और इसीलिए श्रीलाल जी के पात्र भुलाये नहीं भूलते हैं – चाहे वह राग दरबारी का रंगनाथ हो, लंगर हो, सुकन्या हो या ‘विश्रामपुर के संत’ के पात्र कुँवर जयंती प्रसाद, सौंदर्य या जयंती हों।  
     
वहीं सुविख्यात कथाकार एवं आलोचक अरुण प्रकाश के शब्दों में -
“कोरे विक्षोभ से साहित्य में काम नहीं चलता है। श्रीलाल जी की भाषा शैली, विशेषकर राग दरबारी में, अपने आप में इतना खोलने वाली है, निर्मम है कि वह कुछ भी उघारने से नहीं चूकती।”

श्रीलाल शुक्ल स्वतंत्र भारत के उन लेखकों में से हैं, जिन्होंने साधारण जीवन को असाधारण प्रतिष्ठा प्रदान की।

व्यक्तित्व
अपनी हाज़िर-जवाबी और वाक्पटुता के लिए श्रीलाल शुक्ल सदैव अपने सहपाठियों व सहकर्मियों के बीच लोकप्रिय रहे। समय के साथ चलने के कारण वे हर उम्र के लोगों में घुल-मिल जाने का हुनर रखते थे। उनकी नतिनी नंदिनी माथुर के अनुसार वे बड़े ही दिलचस्प इंसान थे और अमूमन सभी विषयों पर अपनी पकड़ रखते थे। वे कहती हैं कि श्रीलाल शुक्ल जी से किसी भी विषय पर बात-चीत हो, हर बार कुछ-न-कुछ नया सीखने को मिलता था।

इलाहाबाद विश्वविद्यालय में उनके सहपाठी रह चुके कथाकार सत्येंद्र शरत ने उनके व्यक्तित्व के उस पहलु से परिचय करवाया, जिससे उनके ‘सादा जीवन उच्च विचार’ होने का प्रमाण मिलता है। कॉलेज के उन दिनों को याद करते हुए वे बताते हैं, सबसे ज़्यादा आकर्षक था उनका सादा लिबास – एक कमीज़, धोती, चप्पल और चेहरे पर मंद-मंद मुस्कान। कभी कभी कक्षा के बीच में प्रोफ़ेसर की किसी बात पर पीछे की बेंच से ऐसे कटाक्ष आते थे, कि विद्यार्थी अपनी हँसी रोक नहीं पाते थे और प्रोफे़सर कभी समझ नहीं पाते थे। पता चलता था, कि श्रीलाल जी ने कुछ व्यंग्य कसा है।” बात साफ़ है, श्रीलाल शुक्ल अति-कुशाग्र बुद्धि के बड़े विनोदी और वाक्पटु व्यक्ति थे। उन्हें नई पीढ़ी ज़्यादा पढ़ती है। वे बेबाक विश्लेषण कर तर्क-संगत राय देते थे। श्रीलाल जी के विलक्षण व्यक्तित्व के कारण ही सरकारी सेवा में रहते हुए व्यवस्था पर करारी चोट करने वाली ‘राग दरबारी’ जैसी रचना संभव हो सकी, जिससे हिंदी साहित्य समृद्ध हुआ। अपनी नौकरी के तैनाती स्थानों पर भी उन्होंने अद्भुत कार्य किए। प्रशासनिक सेवा में रहते हुए जो शख्स़ भ्रष्ट तंत्र की परत-दर-परत उघारने से नहीं चूकता, उसकी इच्छाशक्ति और आत्मानुशासन आज के युवाओं के लिए मिसाल हैं।

पुरस्कार एवं सम्मान
साहित्य जगत के लगभग सभी सम्मान श्रीलाल शुक्ल के नाम हैं। इनमें ‘राग दरबारी’ के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार, साहित्य भूषण पुरस्कार, साहित्य का सर्वोच्च ज्ञानपीठ पुरस्कार तथा भारत के राष्ट्रपति द्वारा पदत्त पद्मभूषण शामिल हैं। उनकी उपलब्धियों की सार्थकता पर कथाकार शैलेंद्र सागर ने कहा था, कई बार यह आरोप लगाया जाता है कि अधिकारियों का लेखन अच्छा लेखन नहीं होता है, लेकिन उनके पद और रुतबे की वजह से उनकी रचनाएँ प्रकाशित और चर्चित होती हैं। श्रीलाल जी ने इस मिथक को तोड़ा है और उत्कृष्ट लेखन देकर अन्य सरकारी कर्मचारियों को नई दिशा प्रदान की है।” 

और अंत में
श्रीलाल शुक्ल के जीवन के ८० वर्ष पूर्ण होने पर दिसंबर २००८ में नई दिल्ली में एक सम्मान समारोह का आयोजन किया गया था, जिसमें ‘‘श्रीलाल शुक्ल : जीवन ही जीवन” का विमोचन किया गया। जीवन के अंतिम समय तक सक्रिय रहने की कामना होते हुए भी एक लंबी बीमारी के बाद २८ अक्टूबर २०११ को उनका निधन हो गया। इस अपूर्ण क्षति का आभास हिंदी साहित्य जगत आज भी महसूस करता है। किंतु एक साहित्यकार अपने साहित्य के दम पर सदैव जीवित रहता है।

श्रीलाल शुक्ल : एक परिचय

जन्म

३१ दिसंबर १९२५, अतरौली, लखनऊ (उ. प्र) 

मृत्यु

२८ अक्टूबर २०११, लखनऊ (उ. प्र)

शिक्षा

स्नातक, इलाहाबाद विश्वविद्यालय

नौकरी

१९४९ में राज्य सिविल सेवा (पी.सी.एस.) में चयनित, १९८३ में भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस) के सेवानिवृत्त।

साहित्यिक रचनाएँ

उपन्यास

सूनी घाटी का सूरज (१९५७), अज्ञातवास (१९६२), राग दरबारी (१९६८), आदमी का ज़हर (१९५७), सीमाएँ टूटती हैं (१९७३), मकान (१९७६), पहला पड़ाव (१९८७), विश्रामपुर का संत (१९९८), बब्बर सिंह और उसके साथी (१९९९), राग विराग (२००१)

व्यंग्य निबंध संग्रह

अंगद के पाँव (१९५८), यहाँ से वहाँ (१९७०), मेरी श्रेष्ठ व्यंग्य रचनाएँ (१९७९), उमरावनगर में कुछ दिन (१९८६), कुछ ज़मीन में कुछ हवा में (१९९०), आओ बैठ लें कुछ देर (१९९५), अगली शताब्दी के शहर (१९९६), ज़हालत के पचास साल (२००३), खबरों की जुगाली (२००५)

कहानी संग्रह (लघुकथाएँ)

ये घर में नहीं (१९७९), सुरक्षा तथा अन्य कहानियाँ (१९९१), इस उम्र में (२००३), दस प्रतिनिधि कहानियाँ (२००३)

साक्षात्कार संग्रह

मेरे साक्षात्कार (२००२)

संस्मरण

कुछ साहित्य चर्चा भी (२००८)

आलोचना


भगवती चरण वर्मा (१९८९), अमृतलाल नागर(१९९४), अज्ञेय : कुछ रंग कुछ राग (१९९९)

संपादन

हिन्दी हास्य व्यंग्य संकलन (२०००)

बाल साहित्य

बब्बर सिंह और उसके साथी

पुरस्कार एवं सम्मान

  • साहित्य अकादमी पुरस्कार (१९७०), राग दरबारी

  • मध्य प्रदेश हिंदी साहित्य परिषद द्वारा पुरस्कृत (१९७८)

  • हिंदी संस्थान का साहित्य भूषण पुरस्कार (१९८८)

  • कुरूक्षेत्र विश्वविद्यालय का गोयल साहित्यिक पुरस्कार (१९९१)

  • हिंदी संस्थान का लोहिया सम्मान (१९९४)

  • मध्य प्रदेश सरकार का शरद जोशी सम्मान (१९९६)

  • मध्य प्रदेश सरकार का मैथिली शरण गुप्त सम्मान (१९९७)

  • बिड़ला फाउंडेशन का व्यास सम्मान (१९९९)

  • उत्तर प्रदेश सरकार का यश भारती सम्मान पुरस्कार (२००५)

  • भारत के राष्ट्रपति द्वारा पद्म भूषण (२००८)  

सन्दर्भ:

१. विकिपीडिया
२. साहित्य अकादमी द्वारा लघु व्रत्तचित्र
३. jivanihindi.com
४. राग दरबारी, श्रीलाल शुक्ल


लेखक परिचय

दीपा लाभ
हिंदुस्तानहरिभूमिआज तक और प्रज्ञा चैनल से होते हुए नैशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ फैशन टेक्नोलॉजी (वस्त्र मंत्रालय, भारत सरकार) के विभिन्न केंद्रों में प्रशिक्षक रहीं। पत्रकारिता में स्वर्ण पदक प्राप्त दीपा ने भाषा के क्रियात्मक प्रयोगों से संप्रेषण सुदृढ़ करने के लिए कुछ कोर्स तैयार किए, जिन्हें वे सफलतापूर्वक चला रही हैं। इन दिनों हिंदी से प्यार है समूह में उनकी सक्रिय भागीदारी है। साहित्यकार तिथिवार की प्रबंधक-संपादक हैं।

ईमेल - deepalabh@gmail.com ; व्हाट्सएप - +91 8095809095

 

शोध: डॉ० जयशंकर यादव

सेवानिवृत्त सहायक निदेशक, राजभाषा विभाग, गृह मंत्रालय, भारत सरकार, बेलगावी, कर्नाटक, भारत।

विशेष - डॉ० यादव को श्रीलाल शुक्ल के सान्निध्य में रहने का अवसर मिला था।

ईमेल -  drjaishankar50@gmail.com 

Thursday, December 30, 2021

दुष्यंत कुमार नामक कैलाइडोस्कोप


कुछ ही महीनों पहले, २९ अगस्त २०२१ को, ९३ वर्ष की आयु में भोपाल (मध्यप्रदेश) में राजेश्वरी देवी का निधन हो गया। कौन थीं राजेश्वरी देवी? राजेश्वरी देवी त्यागी चर्चित ग़ज़लगो दुष्यंत कुमार की पत्नी थीं। हिंदी भाषा में ग़ज़ल को इसी भाषा के पैरहन पहना लाने वाले दुष्यंत कुमार, अपने अंतिम संग्रह ‘साये में धूप’ के कारण अधिक जाने जाते हैं। 

यहाँ दरख़्तों के साये में धूप लगती है,
चलो यहाँ से चलें और उम्र भर के लिए।

कहने वाला यह शायर, शायद यही सोचकर महज़ ४४ साल की उम्र में चला गया| क्या जाते हुए अपनी पत्नी से यह कहकर रुख़सत हुआ होगा, कि तुम्हें मेरी भी उमर लग जाए!

असमय गुज़र जाने वाले दुष्यंत कुमार लिख गए हैं,

थोड़ी आँच बची रहने दो, थोड़ा धुआँ निकलने दो,
कल देखोगी कई मुसाफ़िर इसी बहाने आएँगे।
मेरे गीत तुम्हारे पास सहारा पाने आएँगे,
मेरे बाद तुम्हें ये मेरी याद दिलाने आएँगे।

दुष्यंत कुमार को याद करने के लिए किसी बहाने की ज़रूरत हो ही नहीं सकती| वे तो बहाने, बिना-बहाने याद किए जाने वाले ग़ज़लकार हैं। कभी उनके शेरों से राजनीतिक गलियारों में भी हड़कंप मच जाया करता था। 

भूख है तो सब्र कर, रोटी नहीं तो क्या हुआ,
आजकल दिल्ली में है ज़ेर-ए-बहस ये मुद्दआ।

उनका यह जुमला हर राजनीतिक खेमे में खूब उछला। चुटीले फ़िल्मी संवाद तो लोगों को देर तक याद रहते हैं, लेकिन दुष्यंत कुमार की हर ग़ज़ल, हर ग़ज़ल का हर शेर अपने आप में इंकलाब लाने वाला है। हालाँकि, वे केवल नारे नहीं हैं, ख़ुद दुष्यंत कुमार ही तो कहते हैं, "सिर्फ़ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं। ग़ज़ल में हर शेर दूसरे से अलग होता है, लेकिन उनकी ग़ज़लें ऐसा लगता है, एक ही मनःस्थिति में लिखी गई हैं।" ग़ज़ल का न तो शीर्षक होता है, न भूमिका। तब भी वे ‘साये में धूप’ की भूमिका में एक तरह की स्वीकारोक्ति करते हुए लिखते हैं- 'मैं उर्दू नहीं जानता, शहर को नगर लिखा जा सकता था, लेकिन मैंने उर्दू शब्दों को उस रूप में इस्तेमाल किया है; जिस रूप में वे हिंदी में घुल-मिल गए हैं।' वे इसलिए बड़े आराम से कह पाते हैं,  

मैं जिसे ओढ़ता-बिछाता हूँ,
वो ग़ज़ल आपको सुनाता हूँ।

उन्होंने उर्दू शब्दावली के साथ खड़ी बोली का प्रयोग किया है। मैं और तू की शैली है। अपनी भूमिका में उन्होंने लिखा है कि- 

हाथों में अंगारों को लिए सोच रहा था,
कोई मुझे अंगारों की तासीर बताए।

ऐसा लगता है, जैसे उस समय के राजनीतिक-सामाजिक-आर्थिक परिप्रेक्ष्य की गहरी चोट दुष्यंत कुमार को अंगार बना देती है। वे कहते हैं-

न हो कमीज़ तो पाँवों से पेट ढँक लेंगे,
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिए।

 वे व्यंग्य कसते हैं, 

कहाँ तो तय था चिरागाँ हरेक घर के लिए,

कहाँ चिराग मयस्सर नहीं शहर के लिए।

पहले शे’र में चिराग शब्द बहुवचन में आता है, फिर दूसरी बार एक वचन में। अर्थ और काव्य की दृष्टि से यह कितना अद्भुत प्रयोग है- 

वे मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता,
मैं बेकरार हूँ आवाज़ के असर के लिए

यहाँ पत्थर पिघल में अनुप्रास अलंकार दिखता है।

उनकी आवाज़ का असर ऐसा रहा है कि उनके इस संग्रह ने उन्हें देश-विदेश के साहित्य-प्रेमियों के दिलों तक पहुँचा दिया। इस संग्रह का प्रकाशन राजकमल प्रकाशन के सहयोगी राधाकृष्ण प्रकाशन ने १९७५ में किया था। ऐसा नहीं है, कि उन्होंने केवल इतना ही लिखा। ‘एक कंठ विषपायी’ शीर्षक से लिखा उनका गीति-नाट्य हिंदी साहित्य की महत्वपूर्ण और प्रशंसित कृति है। उन्होंने नाटक, काव्य-गीति नाटक भी लिखे; लेकिन जैसा कि पहले कहा, वे सबसे अधिक अपने इस संग्रह (साये में धूप) की वजह से ही जाने गये। इस संग्रह से एक शेर पेश है-

इस सड़क पर इस क़दर कीचड़ बिछी है,
हर किसी का पाँव घुटनों तक सना है।

अपने जीवनकाल के अंतिम वर्ष उन्होंने जहाँ गुज़ारे, उस भोपाल (मध्यप्रदेश) में उनके नाम की एक सड़क बन गई है; लेकिन उनके नाम का सभागृह अब नहीं रहा। जैसे उनकी जन्मस्थली राजपुर नवादा गाँव, बिजनौर (उत्तरप्रदेश) की वह हवेली; जहाँ उनकी याद में संग्रहालय स्थापित होना चाहिए था, खंडहर बनती जा रही है। उनकी कई अनमोल रचनाएँ, साहित्यिक दस्तावेज़, पुरातन धरोहरों-पुस्तकों-रजिस्टरों को दीमक चाट गई, तीन संदूक गल चुके और ग्रामोफ़ोन भी टूटा-फूटा पड़ा है। भारत सरकार ने २००९ में उनके नाम पर डाक टिकट जारी किया। हालाँकि इतने बड़े साहित्यकार की जन्म तिथि को लेकर भी हमेशा ऊहा-पोह की स्थिति रहती है। दुष्यंत कुमार की किताबों में उनके जन्म की तारीख १ सितंबर १९३३ लिखी है। लेकिन दुष्यंत साहित्य पर अधिकार से बात कहने वाले विजय बहादुर सिंह बताते हैं, कि उनकी जन्मतिथि २७ सितम्बर १९३१ है। जहाँ तक दुष्यंत कुमार के साहित्यिक-जीवन की बाते करें, तो वह इलाहबाद (अब प्रयागराज) की संस्था ‘परिमल’ की साहित्यिक गोष्ठियों की ओर ले जाता है। उन्होंने वहाँ ‘नए पत्ते’ जैसे महत्वपूर्ण पत्र के लिए लिखना भी शुरू किया था। वे आकाशवाणी से जुड़े और उसके बाद मध्यप्रदेश के राजभाषा विभाग में काम किया। 

उनके युवा-मन से आता है- 

कल माँ ने यह कहा
कि उसकी शादी तय हो गयी कहीं पर
मैं मुसकाया वहाँ मौन
रो दिया किंतु कमरे में आकर
जैसे दो दुनिया हो मुझको
मेरा कमरा औ’ मेरा घर।

ग़ज़ल में भी ये स्वर हैं, कि ‘तू किसी रेल-सी गुज़रती है, मैं किसी पुल-सा थरथराता हूँ’ या ‘तूने ये हरसिंगार हिलाकर बुरा किया’ या ‘तुमको निहारता हूँ सुबह से ऋतम्बरा’ या ‘फिर कर लेने दो प्यार प्रिये’; लेकिन वे जाने जाते हैं, अपने आक्रोश के स्वरों के कारण ही। उनके आक्रोश में पीड़ा है- 

मत कहो, आकाश में कुहरा घना है,
यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है।

और उम्मीद भी-

एक चिंगारी कहीं से ढूँढ लाओ दोस्तों,
इस दिये में तेल-सी भीगी हुई बाती तो है।

उससे भी कहीं अधिक आशा यहाँ दिखती है- 

कैसे आकाश में सुराख़ हो नहीं सकता,
एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारों।

केवल ५२ ग़ज़लों का संग्रह है, ‘साये में धूप’, लेकिन यह एक कैलाइडोस्कोप है; जिसे जितनी बार देखो, उतनी बार उतने अलग कोण उसमें से नज़र आते हैं। दुष्यंत कुमार को पढ़ना खुद को समृद्ध करना हो जाता है| उनके शब्द हैं- 

कल नुमाइश में मिला वो चीथड़े पहने हुए,
मैंने पूछा नाम तो बोला कि हिंदुस्तान है।

उम्मीद है, कि उनका लिखा पढ़ने से मेरा हिंदुस्तान भी समृद्धि की राह पकड़ेगा; समृद्धि केवल आर्थिक ही तो नहीं होती न!

 

दुष्यंत कुमार - जीवन परिचय

पूरा नाम

दुष्यंत कुमार त्यागी

जन्म

२७ सितंबर १९३१, नवादा राजपुर, बिजनौर (उ.प्र.)

निधन

३० दिसंबर १९७५, भोपाल (मध्यप्रदेश), हृदयाघात से

पिता

चौधरी भगवत सहाय

माता

राजकिशोरी देवी त्यागी

शिक्षा

स्नातकोत्तर, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद

साहित्यिक रचनाएँ

काव्य संग्रह

  • सूर्य का स्वागत

  • जलते हुए वन का वसंत

  • आवाज़ों के घेरे

उपन्यास

  • छोटे-छोटे सवाल

  • आँगन में एक वृक्ष

  • दुहरी जिंदगी

काव्य-नाटक

  • एक कंठ विषपायी

लघुकथाएँ

  • मन के कोण 

नाटक

  • और मसीहा मर गया

ग़ज़ल संग्रह

  • साये में धूप 

सम्मान

भारतीय डाक विभाग द्वारा ५ रु. मूल्य का डाक टिकिट प्रकाशित किया (२००९)


संदर्भ

  • साये में धूप- दुष्यंत कुमार (राधाकृष्ण प्रकाशन)
  • अनुभूति- साहित्यिक पत्रिका (व्यक्तिगत अभिरुचि- अव्यावसायिक)

लेखक परिचय

स्वरांगी साने कविता, कथा, अनुवाद, संचालन, स्तंभ-लेखन, पत्रकारिता, अभिनय, नृत्य, साहित्य-संस्कृति-कला समीक्षा, आकाशवाणी और दूरदर्शन पर वार्ता और काव्यपाठ आदि क्षेत्रों में सक्रिय हैं। 
इनका काव्य संग्रह “शहर की छोटी-सी छत पर” 2002 में मध्य प्रदेश साहित्य परिषद, भोपाल द्वारा स्वीकृत अनुदान से प्रकाशित हुआ और “वह हँसती बहुत है” महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी, मुंबई द्वारा द्वारा स्वीकृत अनुदान से वर्ष 2019 में प्रकाशित हुआ।

Wednesday, December 29, 2021

सामाजिक विषमताओं से जूझते यथार्थवादी सुधारक: पाण्डेय बेचन शर्मा 'उग्र'

 

पाण्डेय बेचन शर्मा 'उग्र' प्रेमचंद के समकालीन विलक्षण प्रतिभा संपन्न साहित्यकार रहे हैं, जिनके व्यक्तित्व में देशभक्ति, क्रांतिकारी और मातृभूमि के लिए उत्सर्गकर्ता लेखक के गुण समाहित थे। वे २० वर्ष की अवस्था में लेखन की ओर प्रवृत्त हुए और उन्होंने उपन्यास, कहानी, नाटक, संस्मरण, व्यंग्य, कविता, आलोचना, आत्मकथा आदि विधाओं में  हिंदी साहित्य को समृद्ध किया। उनके साहित्य में सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था के प्रति गहरा असंतोष है, जो उनके व्यक्तिगत अनुभवों से और भी संपुष्ट होता गया। यही कारण है, कि उनकी अभिव्यक्ति शैली विद्रोही चेतना का अनुसरण करती है, और उग्रता के भाव का प्रतिपादन करती है। हिंदी पत्रकारिता में भी उन्होंने आदर्श प्रस्तुत किया। असत्य से कभी डरे नहीं, सत्य का साथ आखिरी साँस तक निभाया। इसके लिए उन्हें काफ़ी कीमत भी चुकानी पड़ी। तभी तो शिवपूजन सहाय ने उग्र के बारे में लिखा है- " हिंदी साहित्य में पाण्डेय बेचन शर्मा 'उग्र' की एक अपनी ही ठसक है। शैली में ही इनकी समस्त प्रतिभा चमकती हुई दिखाई देती है। यदि इनकी कहानियों में कुछ दोष है, तो इनकी आतिशी यथार्थवादिता। ये निर्भीक एवं साहसी यथार्थवादी हैं- पूरे और सच्चे यथार्थवादी। जो टूक बात कहकर समाज की नस पर चोट करने में सिद्धहस्त हैं। "
     अत्यंत अभावग्रस्त परिवार में जन्में पाण्डेय  बेचन शर्मा 'उग्र'  को ढाई वर्ष की अवस्था में ही पिता के प्रेम से वंचित होना पड़ा। गरीबी के कारण स्कूली पठन-पाठन बाधित रहा और अभावों के चलते ही उन्हें बचपन में राम-लीला मंडलियों में काम करना पड़ा। बाद में काशी के सेंट्रल हिंदू स्कूल से आठवीं कक्षा तक आधी-अधूरी पढ़ाई ही कर पाए। घर की दयनीय स्थिति का उल्लेख करते हुए आत्मकथा ‘अपनी खबर’ में लिखा है- " मेरे घर में अक्सर जुआ हुआ करता था। जुए से जब नाल की रकम वसूल होती, तब मेरे घर में भोजन की व्यवस्था होती थी। आटा, चावल, दाल, नमक आता था। -----------बड़ी मुश्किलों से सुबह का खाना मिलता तो शाम को नहीं, शाम को मिलता तो सबेरे नहीं। जहाँ भोजन वस्त्र के लाले हों, वहाँ शिक्षा-दीक्षा क्या रही होगी!, सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। " साहित्य के प्रति उनका प्रगाढ़ अनुराग लाला भगवानदीन के सान्निध्य में प्रस्फुटित हुआ और उन्होंने साहित्य की विभिन्न विधाओं का गहरा अध्यवसाय किया। उनकी मित्र-मंडली में सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला', जयशंकर प्रसाद, शिवपूजन सहाय, विनोदशंकर व्यास जैसे यशस्वी कवि-साहित्यकार रहे। गोस्वामी तुलसीदास तथा उर्दू के प्रसिद्ध शायर असदुल्ला खाँ ग़ालिब, उनके दो सबसे प्रिय रचनाकार थे। उग्र जी गांधी से प्रभावित होकर स्वाधीनता संग्राम में सक्रिय हो गए और जब तत्कालीन शासन द्वारा  तिरंगा झंडा लेकर चलने पर गिरफ़्तार कर लिए गए, तो उग्र जी ने ऐसी कमीज बनवाई, जिसमें  तिरंगे झंडे के तीनों रंग विद्यमान थे, जिसे पहनकर वे राष्ट्रीयता का प्रचार करते रहे। उन्होंने राष्ट्रीय गान लेखन प्रतियोगिता के लिए कविता लिखी थी, जो तत्कालीन समय में बहुत सराही गई, उस कविता की कुछ पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं –

विमल भूमि जय । 
जल, सफल, सदल, सबल, अमल भूमि जय।
राम की पवित्र भूमि, श्याम की पवित्र भूमि, 
गौतम सुचरित्र भूमि-सकल भूमि जय ।।

उग्र जी की लंबी कविता ‘विदेशी वस्त्र बायकाट’ भी चर्चित हुई, जिसकी दो पंक्तियाँ इस प्रकार हैं -

उग्र शान अब न रहेगी, ब्यूरोक्रेसी देख ।
ब्रह्मवाण विकत विदेशी वस्त्र वायकट ।।

उग्र जी ने अपने कथा साहित्य में समाज और उसकी बहुत सी समस्याओं,  विकृतियों, विसंगतियों को पात्रों के माध्यम से सजीव अभिव्यक्ति प्रदान की है। उन्होंने सामाजिक अव्यवस्थाओं को, अपने अनुभवों को कथानकों में यथार्थ रूप से चित्रित किया है। भारतीय समाज में व्याप्त वर्ण-व्यवस्था और उससे उपजी जाति-व्यवस्था की कुरीतियों को साहित्य के माध्यम से उजागर करने के प्रयास किए और समाज में समता की  स्थापना की। वकालत करते हुए ' सर्वे भवंतु सुखिन: ' की भावना का प्रतिपादन किया। उग्र जी समाज में व्याप्त ऐसी वर्ण-व्यवस्था को नहीं  मानते, जो कर्म पर आधारित न हो। उनका मानना था, कि व्यक्ति की पहचान वर्ण से न होकर कर्म से होनी चाहिए। हमेशा ही उग्र जी दलितों के पक्षधर के रूप में सामने रहे, जिससे तत्कालीन युगबोध की यथार्थता  सामने आती है। उन्होंने सच्चाई उजागर करते हुए बताया है, कि निम्न वर्ग हमेशा ही उच्च वर्ग के अन्याय और अत्याचारों का साक्षी रहा है और सामाजिक वैषम्य को भुगतता रहा है।
‘बुधुआ की बेटी’ उपन्यास में दलितोद्धार की समस्या को आधार बनाया है और लेखक ने निम्न वर्ग की पीड़ा, शोषण और उच्च वर्ग की घृणित मानसिकता को अभिव्यक्ति दी है। वे लिखते हैं, कि भारतीय समाज में वर्ण व्यवस्था कर्मणा न रहकर जन्मना बन गई है, इसी असमानता को उग्र जी पात्र मनुष्यानंद से कहलवाते हैं, - " इस देश में ३१ करोड़ अछूते हैं ----- ६ करोड़ तो ऐसे हैं, जिन्हें हिंदू नामधारी मूर्ख अछूत समझते हैं; पर बाकी के २५ करोड़ ऐसे अछूत हैं, जिन्हें सारा संसार अस्पृश्य, पतित, पृथ्वी का बोझ और गुलाम समझता है। प्रकृति भी, ईश्वर भी थप्पड़ का जवाब पत्थर से देता है, महोदय। हम ६ करोड़ से नफरत करते हैं और हमसे सारा संसार नफ़रत करता है। हम नफ़रत बोते हैं और नफ़रत काटते हैं। "
 समाज में निम्न वर्ग के लोग  शोषण, पीड़ा, अशिक्षा, निर्धनता के कारण  धर्म परिवर्तन करने लगे। इस समस्या को भी उग्र जी ने गंभीरता से अभिव्यक्त किया है, कि ईसाई धर्म भी इनका हित नहीं कर सका। पादरी जॉनसन के माध्यम से उग्र जी इसी उपन्यास में लिखते हैं- " मेरी राय में तो आप और आपकी मुक्ति फ़ौज वाले इन अभागों को हिंदू-अछूत से उठाकर ईसाई अछूत बना देते हैं। कितने अछूत आप पेश करते हैं, जिन्हें आपने अपनी जाति में मिलाकर समाज में बराबरी का पद दिलवाया हो?,  मेरा तो ख्याल है- नहीं  के बराबर।"  उग्र जी निम्न वर्ग के प्रति अछूत समस्या के समाधान को भी सामने रखते हैं, और उन लोगों को अपने अधिकारों व आचरण से आदर का पात्र बनने का सुझाव देते हैं- " अछूत स्वयं संभलें, अपने आपको मनुष्य घोषित करें और संगठित होकर संसार के अच्छे से अच्छे लोगों से आदर पाने योग्य बनें। परस्पर गाली गलौज, लत्तम-जुत्तम के स्थान पर सहयोग और सही व्यवहार को अपनाएँ। अपने बच्चों को कोई कला-कौशल सिखलाएँ एवं शिक्षा दिलाने का उद्योग करें।" 
उग्र जी ' दिल्ली का दलाल ' उपन्यास में रूप और यौवन के जानकार सौदागरों का नाटकीय और घृणित व्यवहार यथार्थ रूप में  पाठकों के सामने रख देना चाहते हैं। अनैतिक नारी व्यापारों के अड्डों की समस्या कथा के मूल में है। ' कढ़ी में कोयला ' उपन्यास में कलकत्ते के मारवाड़ियों के काले धन की कमाई के रहस्यों का विश्लेषण है। कैसे पूंजीपतियों का एक वर्ग निम्न स्तर पर जन-जीवन में शासकीय नियमों की अवहेलना कर काला-धन कमाता है और भद्र समाज के नाम पर अपनी दैहिक वासना की तृप्ति के लिए विलासी वातावरण निर्मित करता है। ' जी जी जी ' उपन्यास में  माता-पिता की इच्छाओं से नवयुवतियों का अनमेल विवाह के लिए बाध्य होना और उसके दुष्परिणामों को मनोवैज्ञानिक ढंग से प्रस्तुत  किया है। ' गंगामाता ' उपन्यास भूतल-प्रवाहिनी गंगा नदी की पुराण गाथा नहीं, बल्कि गंगामाता के मानवीकरण द्वारा सृजित एक अभिनव नारी की स्वातंत्र्य चेतना का प्रस्तावित उपन्यास है। इसमें नारी गौरव की स्वीकृति के साथ ही, पुरुषवादी सामाजिक अवधारणा को विच्छिन्न करने की इच्छा शक्ति और नारियों द्वारा स्वतंत्र सत्ता स्थापित करने की कर्मठता का चित्रण है।  
उग्र जी का कहानी साहित्य भी समृद्ध है। उनके अनेक कहानी संग्रह प्रकाशित हुए, जिनके भावबोध समाज के विविध पक्षों को यथारूप अभिव्यक्त कर, सामाजिक परिवर्तन का मार्ग प्रशस्त करते हैं। ' चिनगारियाँ ' में संकलित कहानियों का विषय भारतीय स्वतंत्रता संग्राम से संबंधित रहा, तभी तो प्रकाशन के साथ ही तत्कालीन व्यवस्था ने उसे ज़ब्त कर लिया। ' बलात्कार ' एवं ' निर्लज्जा ' संग्रह की कहानियाँ  समाज में व्याप्त विकृत मानसिकता, जातीय संकीर्णता , धार्मिक आडंबर, नारी की दयनीय स्थिति और सामाजिक विषमताओं की पोल खोलती हैं। ' चॉकलेट ' संग्रह की कहानियों  में समलैंगिकता जैसी सामाजिक बुराई को कथानक में शामिल किया है। ' दोजख की आग ' की कहानियाँ हिंदू-मुसलमानों के वैमनस्य के दुष्परिणामों को अभिव्यक्त करती हैं। ' पंजाब की महारानी ' संग्रह की कहानियों में ब्रिटिश शासनकाल के इतिहास और उनकी अमानुषिक बर्बर दमनकारी नीति की घटनाओं का वास्तविक चित्रण हैं, तभी तो ब्रिटिश शासकों ने इसे गैर कानूनी घोषित कर दिया था।  इस प्रकार उग्र जी की कहानियों का भावबोध समकालीन सामाजिक परिस्थितियों का यथार्थ चित्रण रहा है। इनकी कहानियों पर ' राम-विलास ', ' पतित पावन ', ' राधा मोहन नंदलाल ' जैसी फ़िल्में बनीं और दर्शकों द्वारा सराही गईं। 
पत्रकारिता के क्षेत्र में उग्र जी बहुत ही सक्रिय रहे और अपनी प्रवृति और प्रकृति के द्वारा सराहे गए। समकालीन साहित्यकारों ने उनकी तीक्ष्ण एवं कुशाग्र बौद्धिक विचारधारा की सराहना भी की है। आज, मतवाला, संग्राम, हिंदू  पंच, वीणा, विक्रम, उग्र, स्वदेश आदि में रहकर अपनी धाक जमाई। उग्र जी १९३० से १९३८ तक फ़िल्मों से जुड़े रहे। 
बेचन शर्मा ‘उग्र’ जी भाषा शिल्पी रहे हैं। हाट -बात की जानदार भाषा उसका साधन है, उस पर आपका पूर्ण अधिकार है। शब्द चाहे उर्दू हों, चाहे देशज हों, चाहे स्थानीय हों, चाहे अंग्रेज़ी, आप की कलम से नगीने सरीखे लगते हैं। उर्दू-हिंदी-संस्कृत के उद्धरणों का प्रयोग उचित स्थान पर कर अपनी बात का समर्थन कर लेते हैं। उनकी भाषा में अद्भुत मार्मिकता थी, तभी वे विषय को यथार्थ रूप में अभिव्यक्त करने में सफल रहे। तभी तो उग्र जी के संबंध में कहा गया है, कि वे समाज के दोषों और दुर्बलताओं का पर्दाफ़ाश करके, नर-पशुओं के खतरनाक काले कारनामों को झटके पर झटका देकर, घसीट कर रोशनी में लाने वाले यथार्थवादी सुधारक साहित्यकार थे। उन्होंने अपनी रचनाओं के द्वारा सुषुप्त समाज की चेतना को झकझोर कर जगाने की चेष्टा की। उन्होंने सामाजिक चेतना के अंतर्गत अछूतोद्धार, आर्थिक वैषम्य, धर्म-वर्ण-जाति व्यवस्था के आडंबरों, नारी जीवन की समस्याओं, धार्मिक विद्वेष, साहित्य और भाषा से संबंधित समस्याओं की तरफ़ बुद्धिजीवियों को सोचने पर विवश किया। वास्तव में वे सामाजिक विषमताओं से जूझते साहित्यकार रहे हैं।

पांडेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ : जीवन परिचय

जन्म तिथि

२९ दिसंबर, १९०० ई.

जन्म स्थान 

उत्तर प्रदेश के मिर्ज़ापुर जनपद के अंतर्गत चुनार नामक कस्बे में गाँव सद्दूपुर की बभनटोली

मृत्यु

२३ मार्च, १९६७ को  दिल्ली में

पिता

श्री  वैद्यनाथ पांडेय 

माता

श्रीमती  जयकली

साहित्यिक रचनाएँ 

उपन्यास 

चंद हसीनों के खतूत, दिल्ली का दलाल, बुधुवा की बेटी, शराबी, घंटा, सरकार तुम्हारी आँखों में, कढ़ी में कोयला, जी जी जी, फागुन के दिन चार, जूहू।

कहानी

चॉकलेट, शैतान की मण्डली, चिंगारियाँ, इन्द्रधनुष, घोड़े की कहानी, बलात्कार, निर्लज्जा, दोजख की आग, क्रांतिकारी कहानियाँ, उग्र का रहस्य, गल्पांजली, रेशमी, पंजाब की महारानी, व्यक्तिगत, सनकी अमीर,जब सारा आलम होता है, भुनगा, उसकी माँ, चाँदनी, पाण्डेय बेचन शर्मा उग्र : श्रेष्ठ कहानियाँ 

काव्य

ध्रुव चरित, बहुत सी स्फुट कविताएँ।

आत्मकथा

अपनी खबर

 नाटक

महात्मा ईसा, चुंबन, चार बेचारे, गंगा का बेटा, आवास, अन्नदाता माधव महाराज महान।

संस्मरण

व्यक्तिगत 

आलोचना 

तुलसीदास आदि अनेक आलोचनातमक निबंध।

संपादित

ग़ालिब : उग्र

संपादन

भूत, मतवाला, संग्राम, हिंदी पंच, वीणा, विक्रम,उग्र, स्वदेश आदि पत्रिकाओं का संपादन  

संदर्भ

  • उग्र और उनका साहित्य - डॉ. रत्नाकर पाण्डेय 
  • उग्र का परिशिष्ट - भवदेव पाण्डेय 

लेखक परिचय

डॉ. दीपक पाण्डेय

वर्तमान में शिक्षा मंत्रालय भारत सरकार के केंद्रीय हिंदी निदेशालय में सहायक निदेशक पद पर कार्यरत हैं। २०१५ से २०१९ तक त्रिनिडाड एवं टोबैगो में राजनयिक के पद पर पदस्थ रहे। प्रवासी साहित्य में आपकी विशेष रुचि है। आपके लेख/समीक्षा प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते हैं। साथ ही आपकी अनेक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  

मोबाइल - +91 8929408999

ईमेल  – dkp410@gmail.com   

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कलेंडर जनवरी

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            1वह आदमी उतर गया हृदय में मनुष्य की तरह - विनोद कुमार शुक्ल
2अंतः जगत के शब्द-शिल्पी : जैनेंद्र कुमार 3हिंदी साहित्य के सूर्य - सूरदास 4“कल जिस राह चलेगा जग मैं उसका पहला प्रात हूँ” - गोपालदास नीरज 5काशीनाथ सिंह : काशी का अस्सी या अस्सी का काशी 6पौराणिकता के आधुनिक चितेरे : नरेंद्र कोहली 7समाज की विडंबनाओं का साहित्यकार : उदय प्रकाश 8भारतीय कथा साहित्य का जगमगाता नक्षत्र : आशापूर्णा देवी
9ऐतिहासिक कथाओं के चितेरे लेखक - श्री वृंदावनलाल वर्मा 10आलोचना के लोचन – मधुरेश 11आधुनिक खड़ीबोली के प्रथम कवि और प्रवर्तक : पं० श्रीधर पाठक 12यथार्थवाद के अविस्मरणीय हस्ताक्षर : दूधनाथ सिंह 13बहुत नाम हैं, एक शमशेर भी है 14एक लहर, एक चट्टान, एक आंदोलन : महाश्वेता देवी 15सामाजिक सरोकारों का शायर - कैफ़ी आज़मी
16अभी मृत्यु से दाँव लगाकर समय जीत जाने का क्षण है - अशोक वाजपेयी 17लेखन सम्राट : रांगेय राघव 18हिंदी बालसाहित्य के लोकप्रिय कवि निरंकार देव सेवक 19कोश कला के आचार्य - रामचंद्र वर्मा 20अल्फ़ाज़ के तानों-बानों से ख़्वाब बुनने वाला फ़नकार: जावेद अख़्तर 21हिंदी साहित्य के पितामह - आचार्य शिवपूजन सहाय 22आदि गुरु शंकराचार्य - केरल की कलाड़ी से केदार तक
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आचार्य नरेंद्रदेव : भारत में समाजवाद के पितामह

"समाजवाद का सवाल केवल रोटी का सवाल नहीं है। समाजवाद मानव स्वतंत्रता की कुंजी है। समाजवाद ही एक सुखी समाज में संपूर्ण स्वतंत्र मनुष्यत्व...