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'हिंदी से प्यार है' समूह की इस "साहित्यकार तिथिवार" परियोजना के अंतर्गत हम प्रतिदिन आपको हिंदी साहित्य जगत के एक महत्वपूर्ण हस्ताक्षर से मिलवाते हैं। इन प्रख्यात साहित्यकारों के जन्मदिन/पुण्यतिथि के अनुसार एक कैलेंडरनुमा प्रारूप में बँधी यह आत्मीय शब्दांजलि आप सभी का स्नेह पाकर अभिभूत है। हमारा प्रमुख आकर्षण तिथियों से परे रचनाकार हैं, जिनकी उपस्थिति से यह पटल पावन और शाश्वत हो गया है। विगत नवंबर माह से यह सफ़र सफलता के नए कीर्तिमान गढ़ता हुआ इस माह के साहित्यकारों की अनमोल धरोहर लेकर उपस्थित है।
Monday, January 31, 2022
ग्रामीण संस्कृति के चितेरे अद्भुत कहानीकार : मिथिलेश्वर
"मेरे मन में यह बात आई कि ऐसे चरित्र को प्रस्तुत करूँ, जो पारिवारिक और सामाजिक संबंधों के रूढ़ होते हुए दायरों से अलग जीवन का नैसर्गिक सुख लेना चाहता हो और अपनी शर्तों पर जीते हुए सर्वमान्य सामाजिक मर्यादाओं और बंधनों की तनिक भी परवाह नहीं करता हो।"
ये पंक्तियाँ हैं, मिथिलेश्वर द्वारा लिखी गई कहानी 'बाबूजी' के बारे में स्वयं मिथिलेश्वर जी की। अपनी ही कहानियों की समीक्षा करते हुए उनका कहना था कि 'मुझे यह स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं कि 'बाबूजी' धरती के किसी यथार्थ चरित्र की अनुकृति नहीं, मेरे अंतर्मन की पैदाइश है। 'हरिहर काका' कहानी व्यक्ति के ऊपर बढ़ते आर्थिक दबाव और उसके संबंधों को परिचालित करने वाले आर्थिक कारणों की उपज रही है। व्यक्ति की व्यक्तिगत संपत्ति ही सारे अनर्थ की जड़ है। अपने नाम पर संपत्ति का होना हमें सुखकर अवश्य लगता है, लेकिन संबंधों का विघटन और हमारे दुखों का कारण भी बहुधा वह संपत्ति ही होती है।
'मेघना का निर्णय' कहानी फुटकर मज़दूरों के अंदर पैदा हुई वर्गीय चेतना की कहानी है। सामंती मूल्यों के खिलाफ़ फुटकर मज़दूरों की एकजुटता और उनके संगठित निर्णय की प्रेरणा से इस कहानी का जन्म हुआ है। इसी प्रकार 'तिरिया जन्म' कहानी भारतीय समाज में महिला जीवन की करुण गाथा है। पुरुष प्रधान समाज द्वारा महिलाओं को तुच्छ और उपभोग की वस्तु समझने तथा अपनी इच्छा और मर्ज़ी के अनुसार उनके साथ सलूक करने की सामाजिक छूट की प्रतिक्रिया में पैदा हुई है, यह कहानी।
ये संक्षिप्त विवेचना है, रचनाकार व कहानीकार मिथिलेश्वर जी की कुछ कहानियों की,आइए विस्तार से जानते हैं उनसे जुड़े कुछ रोचक तथ्यों को -
मिथिलेश्वर जी का जन्म ३१ दिसंबर १९५० को बिहार के भोजपुर ज़िले के 'बैसाडीह' नामक गाँव में हुआ। इन्होंने हिंदी में एम०ए० और पी०एच०डी करने के उपरांत व्यवसाय के रूप में अध्यापन कार्य को चुना। दिसंबर १९८१ से जून १९८४ तक रांची विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में कार्यरत रहे और फिर यूजीसी के टीचर फे़लोशिप अवार्ड के तहत एच०डी०जैन कॉलेज, आरा आ गए। बाद में वीर कुंवर सिंह विश्वविद्यालय आरा, बिहार के स्नातकोत्तर हिंदी विभाग में वरिष्ठ उपाचार्य (रीडर) रहे। मिथिलेश्वर के पिता प्रो० वंशरोपन लाल भी विलक्षण प्रतिभा के धनी थे, परंतु उनकी असाध्य बीमारी ने मिथिलेश्वर के जीवन में आरंभ से ही कठिन संघर्ष के बीज बो दिए थे। भाइयों की शिक्षा-दीक्षा में होने वाले खर्च के अतिरिक्त बहनों की शादी में होने वाले खर्च ने मिथिलेश्वर को बहुत परेशान किया। परिस्थितिवश स्वयं के वयस्क होते ही शादी की विवशता और फिर कई पुत्रियों का पिता हो जाना उनके संघर्षमय जीवन को और अधिक कठिन बनाने में योगदान देता रहा। इसके अतिरिक्त माँ की बीमारी और आरा शहर में नया घर बनाने की आवश्यकता मेें मिथिलेश्वर ने बहुत संघर्ष किया, किंतु उन्होंने हार नहीं मानी। मिथिलेश्वर के व्यक्तित्व के निर्माण में अनवरत संघर्षपूर्ण जीवन यात्रा की अहम भूमिका रही है। उनकी माँ अपने ज़माने की पढ़ी-लिखी महिला थी। कम ही शिक्षा में उन्होंने बहुत ज्ञान अर्जित कर लिया था। मिथिलेश्वर अपने लेखक होने का श्रेय अपनी माँ को देते हैं। माँ के निधन से वे बिल्कुल टूटे हुए से महसूस करने लगे थे। सारे संघर्षों के बीच पारिवारिक सद्भाव व उनकी पत्नी का साथ उन्हें सदा संबल देता रहा। चार बेटियों की माँ होने के बावजूद भी उनकी पत्नी रेणु स्वस्थ-सुरूपा रहीं और हमेशा मिथिलेश्वर जी की पग-पग सहयोगिनी रहीं, जिसके कारण मिथिलेश्वर ने संघर्षों से कभी हार नहीं मानी।
रचनात्मक परिचय
मिथिलेश्वर मुख्यतः कथाकार है। कहानी के साथ-साथ उपन्यास विधा को भी उन्होंने गंभीरता से अपनाया है तथा इन दोनों विधाओं में अनेक कृतियाँ दी हैं। मिथिलेश्वर का विषय-क्षेत्र मुख्यतः ग्रामीण जीवन है। प्रेमचंद और रेणु के बाद गाँव से संबंधित कथा-लेखन में मिथिलेश्वर का नाम सबसे प्रथम आता है। वे सादगी के शिल्प में कहानी रचने वाले कथाकार हैं। शैली में आत्यंतिक सादगी उनकी पहचान बन चुकी है। मिथिलेश्वर मूलतः उस जनता के लेखक हैं, जो गाँव में रहती है और आज भी अपनी बेहतरी के लिए सामंती पूंजीवादी मिजाज़ के खिलाफ़ निजी और सामूहिक स्तर पर विरोध कर रही है। मिथिलेश्वर ने बाल-साहित्य तथा नवसाक्षरोपयोगी अनेक कृतियों के साथ-साथ निबंध विधा में भी अपनी कलम चलाई है तथा संपादन के क्षेत्र में भी अपना हाथ आज़माया है। उनकी आत्मकथात्मक रचना के तीन खंड भी प्रकाशित हो चुके हैं।
साहित्यिक विशेषताएँ
मिथिलेश्वर ने अपनी कहानियों में ग्रामीण जीवन को बहुत अच्छी तरह से उकेरा है। इन्होंने देश की आज़ादी के बाद गाँव के बदलते परिवेश के कारण ग्रामीण जीवन तथा संस्कृति में आई भयावहता, जटिलता एवं गिरते मानवीय मूल्यों का बारीकी से जीवंत चित्रण किया है। परिपत्र के नाम पर प्रेम भावना,आपसी भाईचारा,आम लोगों के शोषण के नए तरीके, सभी सामाजिक विषमताओं का वर्णन उन्होंने इतने स्पष्ट रूप में किया है, जैसे पाठक वहाँ उपस्थित हो। इनकी रचनाओं का मूल स्वर राष्ट्रभक्ति, देश-समाज, गाँव को सुखी-समृद्ध तथा सुसंस्कृत बनाने का है। इनकी हर रचना में इनका व्यक्तित्व स्पष्ट झलकता है। इनकी रचनाएँ इनके धुर विरोधियों को भी स्पष्ट दृश्य दिखाती हैं।
भाषा शैली
मिथिलेश्वर जी की भाषा शैली आत्मपरक, विश्लेषणात्मक, वर्णनात्मक, ऐतिहासिक सभी तरह की है। इनकी भाषा सहज, सरल और बहुत रोचक है। यह गहरी से गहरी बात बड़े स्पष्ट ढंग से कह देते हैं। उनकी रचनाएँ बहुत मर्मस्पर्शी हैं। भाषा प्रौढ़ एवं उज्ज्वल है। बिंब विधान, प्रतीक योजना, मुहावरे, लोकोक्तियाँ आदि सभी का प्रयोग इन्होंने संदर्भानुसार किया है।
मिथिलेश्वर : जीवन परिचय | |||
जन्म | ३१ दिसंबर, १९५० | ||
जन्म स्थान | बैसाडीह, ज़िला - भोजपुर, बिहार | ||
पिता | प्रो० वंशरोपन लाल | ||
शिक्षा | |||
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साहित्यिक रचनाएँ | |||
लोक एवं विचार साहित्य |
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आत्मकथात्मक |
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उपन्यास |
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कहानी संग्रह |
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बालोपयोगी कथा-पुस्तक |
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निबंध संग्रह |
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संपादन | 'मित्र' नामक एक साहित्यिक पत्रिका का संपादन | ||
पुरस्कार/सम्मान | |||
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संदर्भ
- साहित्य अमृत
- हिंदी लेखक ब्लॉग
- साहित्य शिल्पी
- हिंदी समय
- विकिपीडिया हिंदी
- भारत कोश
- सांगोपांग
- बृहत साहित्यकार संदर्भ कोश
- कविता कोश
- केंद्रीय हिंदी संस्थान,आगरा
लेखक परिचय
ईमेल : rashmizawar74@gmail.com
फोन : 9588440759
Sunday, January 30, 2022
साहित्य के अमर दीपस्तंभ : श्री जयशंकर प्रसाद
यह मेरा अहोभाग्य है कि मुझे आपको दुनिया की सबसे प्राचीन जीवित नगरी, पुण्य-भूमि काशी में रहने वाली एक महान विभूति के बारे में कुछ बताने का अवसर मिला है। माँ गंगा के पावन तट पर बसी इस नगरी ने न जाने कितने साहित्य रत्न, महान भक्त, वाद्य और सुरों पर अपनी मधुर स्वर-लहरी छेड़ने वाले संगीतज्ञ दिए हैं, उन असंख्य लोगों की गिनती बहुत कठिन है। उनमें से जिस एक महान विभूति के बारे में आज हम बात करने जा रहे हैं, वे हैं - छायावाद के संस्थापक माने जाने वाले और उसके चार स्तंभों में से एक सुदृढ़ स्तंभ - श्री जयशंकर प्रसाद जी। आज उनका जन्मदिन है। उनका जन्म आज से १३३ वर्ष पूर्व १८८९ की ३० जनवरी को सुबह चार बजे काशी की धरती पर हुआ था और केवल अड़तालीस वर्ष की अल्पायु में, नवंबर १५, १९३७ सुबह चार बजे ही वे काशी की धरती से परलोक को प्रयाण कर गए। इस कम आयु में परिवार के दायित्व का निर्वहन करते हुए भी उन्होंने ऐसा मार्मिक, रोचक, सुंदर, विविध और उदात्त साहित्य लिखा कि साहित्य के इतिहास में एक नए युग का प्रारंभ हो गया।
प्रसाद जी के व्यक्तित्व और उनके विशाल लेखन संसार को समझना आसान काम नहीं। उनके लेखन का विशाल भवन या प्रासाद ऐसा है, जहाँ लेखक के भाव किसी एक धारा या विधा पर आधारित नहीं और न ही एक-सा संदेश या भावभूमि है, बहुत विविधता है यहाँ। इस विशालकाय भवन में ८ कविता-संग्रह और एक महाकाव्यात्मक निधि- कामायनी, ५ कहानी संग्रह, १३ पूर्ण और एक अपूर्ण नाटक, तीन उपन्यास और अनेक निबंध हैं, जो अपनी विभिन्न भावनिधियों, ऐतिहासिक दृश्यों, प्रेम के सुंदर चित्रों से पाठकों के मन के रथ को थाम लेते हैं, इस प्रासाद में 'प्रसाद' जी के जीवन दर्शन की उदात्त सांस्कृतिक धारा का बहता शांत जल है, तो देश-प्रेम के उतुंग शिखर भी हैं, इसकी दीवारों पर स्त्री-मनोभावों की सूक्ष्म नक्काशी है, तो पुरुष हृदय के आलोड़न और परिवर्तन की विशाल मूर्तियाँ भी हैं, अब ऐसे प्रासाद में भला कौन सहृदय सबकुछ भूल कर कुछ देर बैठना न चाहेगा ? वे तो कहते भी हैं -
तुमुल कोलाहल कलह में, मैं हृदय की बात रे मन।
विकल होकर नित्य चंचल, खोजती जब नींद के पल
चेतना थक सी रही तब, मैं मलय की वात रे मन।
तो चलिए, आज साहित्य के इस महर्षि के लेखन प्रासाद में कुछ समय बिताते हैं और अपनी चेतना जागृत करते हुए, उनके भाव-समुद्र में गोता लगाते हैं, लेकिन इस भवन तक पहुँचने के लिए आपको उनके जीवन की उस गली तक पहले चलना होगा, जहाँ से प्रसाद जी का जीवन शुरू हुआ था।
यह गली जो आप देख रहे हैं न, जिसके बाहर एक छोटे से पट्ट पर 'जयशंकर प्रसाद, सुँघनी साहू' लिखा है। वह गली सरायगोवर्धन मोहल्ले को जाती है, जहाँ प्रसाद जी का जन्म हुआ था। विशाल कोठी हुआ करती थी, आज भी लगभग दो एकड़ के क्षेत्र में 'प्रसाद भवन' न्यास है। वे यहाँ रहते थे, शहर के सबसे धनी, काशी नरेश के बाद काशी की जनता से प्रेम और सम्मान पाने वाले - उनके बाबा बाबू शिवरतन साहू और पिता बाबू देवीप्रसाद जी! दोनों ही बहुत दानी थे। सुँघनी का विशाल व्यापार था। इन्हीं बाबू देवीप्रसाद जी और मुन्नी देवी के पुत्र थे जयशंकर प्रसाद जी, पर भाग्य का खेल देखिए, मात्र ११ वर्ष के थे कि पिता का देहांत हो गया, १५ वर्ष के हुए तो माता का देहांत हो गया। बड़े भाई-भाभी ने व्यापार और घर संभाला। इन्हें भी अपनी स्कूली शिक्षा सातवीं के बाद रोक कर व्यापार में हाथ बँटाने के लिए भाई के साथ काम करना पड़ा। लेकिन दुर्भाग्य अभी समाप्त नहीं हुआ था। मात्र १७ वर्ष के थे, तो पिता समान भाई की मृत्यु हो गई। बड़ा व्यापार हो और सँभालने वाला कच्ची उम्र का हो, तो क्या होता है? हम सभी जानते हैं। विधवा भाभी और छोटी उम्र के प्रसाद जी के आसपास के रिश्तेदारों, कर्ज़दारों और धन हड़पने वालों की भीड़ जुट गई। आप उनकी आर्थिक स्थिति को इस प्रकार समझ सकते हैं कि बताया जाता है, जब बाबू देवी प्रसाद जी का देहांत हुआ था, तब उन पर एक लाख रुपया कर्ज़ा था। प्रसादजी की अमीरी के बारे में कहा जाता है कि "कहाँ तो उनके दरवाज़े हाथी बँधते थे और कहाँ गरीबी का संकट …" पर प्रसाद जी ने हार नहीं मानी। अपने दायित्व को समझा और कमर कसकर जुट गए व्यापार सँभालने में। सामान बिके पर सम्मान नहीं जाने दिया, आर्थिक संकट झेला पर धर्म के मार्ग से न डोले और धीरे-धीरे करके इस डोलती नाव को वे भँवर से निकाल ले गए।
घर पर ही इनकी पढ़ाई भी चलती रही। संस्कृत सीखने के लिए तीन उद्भट विद्वान इनके गुरु बने - मोहिनीलाल गुप्त 'रसमय सिद्ध जी', गोपाल बाबा और श्री दीनबंधु बह्मचारी। इनके माध्यम से वैदिक संस्कृत, पुराणों आदि का पूरा ज्ञान उन्होंने प्राप्त किया। उनके इतिहास, पुराण और प्राँजल भाषा के पीछे इन प्राध्यापकों के अतिरिक्त उनके काव्य-गुरू कहे जाने वाले महामहोपाध्याय पं० देवीप्रसाद शुक्ल कवि-चक्रवर्ती की प्रेरणा भी कही जा सकती है। नौ वर्ष के थे, तो कवित्त लिखने का शौक प्रारंभ हो गया था। बही के कागज़ों के पीछे कवित्तों की बढ़ती संख्या पर भाई से डाँट पड़ी, तो 'कलाधर' नाम से लिखने लगे। पहली कविता 'सावक पंचक' १९०६ में 'भारतेंदु' पत्रिका में छपी। और इस तरह उनकी लेखन यात्रा चल पड़ी और फिर वे अनेक विधाओं में लिखते चले गए और उनकी रचनाएँ प्रकाशित होती गईं।
आइए अब चलें और देखे इस विशाल साहित्य प्रासाद के भीतर, जिसमें अनेक भव्य कक्ष हैं। इसका पहला कक्ष है, काव्य का। उनके काव्य में प्रकृति है - 'बीती विभावरी जाग री' जैसा भोर का सुंदर राग है, तो जगह-जगह यह सदिच्छा दिखाई देती है -
सबका निचोड़ लेकर तुम
सुख से सूखे जीवन में।
बरसों प्रभात हिमकन-सा
आँसू इस विश्व सदन में॥ (आँसू)
कहीं दर्शन है -
माना जीवन वेदी पर
परिणय हो विरह मिलन का
दुख-सुख दोनों नाचेंगे
है खेल आँख का मन का॥
और कहीं कोलाहल से भरी अवनी को छोड़ कर कुछ देर शांति की जगह जाने की चाह भी है -
ले चल मुझे भुलावा देकर
मेरे नाविक! धीरे-धीरे
उनकी इस कविता को पलायनवादी मान कर उन पर आरोप लगाने वालों ने बहुत शोर मचाया। वे भूल गए कि प्रसाद जी ने ही यह गीत भी लिखा है -
हिमाद्रि तुंग शृंग से, प्रबुद्ध शुद्ध भारती
स्वयंप्रभा समुज्ज्वला, स्वतंत्रता पुकारती।
अमृत्य वीर पुत्र हो, दृढ़ प्रतिज्ञ सोच लो,
प्रशस्त पुण्य पंथ हो, बढ़े चलो,बढ़े चलो
प्रसाद जी की अनेक कविताएँ वेदना से भीगी हैं। प्रेम की चाह है, पर प्राप्ति नहीं। उनके निजी जीवन में प्रेम का स्थायित्व नहीं हो पाया। पहली पत्नी विंध्यवासिनी देवी आठ वर्ष बाद क्षय रोग से ग्रस्त होकर चल बसी, साल भर बाद २७ वर्ष की आयु में पुनः विवाह किया, तो सरस्वती देवी दो वर्ष बाद प्रसूति के समय क्षय रोग से ईहलीला समाप्त कर गईं। भाभी के आग्रह से तीसरी बार विवाह किया। कमलादेवी और जयशंकर प्रसाद जी का यह साथ प्रसाद जी के अंत तक, क्षय रोग से जाने तक चला। इन्हीं के साथ उन्हें इकलौती संतान रत्नशंकर की प्राप्ति हुई। भाग्य के मिलन-विरह के इस खेल पर भी उन्होंने बहुत कुछ लिखा है, एक बानगी देखिए -
अरे कहीं देखा है तुमने
मुझे प्यार करने वालों को?
मेरी आँखों में आकर
आँसू बन ढरने वालों को?
मुक्तिबोध लिखते हैं - "प्रसाद जी वस्तुतः अंतर्मुखी कवि हैं। वे भावों को इस प्रकार अनुभूत करते हैं, इस तरह पहचानते हैं, जैसे हम अपने घर की भींत, टेबिल, दवात, छड़ी आदि वस्तुएँ अच्छी तरह जानते हैं। भाव मानव-प्रसंगों के बीच पैदा होते हैं। जिस प्रकार मानव-प्रसंग उलझे हुए होते हैं, उसी तरह भाव भी। भाव चाहें जितने ग्रंथिल क्यों न हों, प्रसाद में ऐसी विश्लेषण प्रधान मर्म-दृष्टि थी कि जो उन भावों को, सारी जटिलता और समग्रता के साथ, किंतु फिर भी जहाँ तक बने वहाँ तक सरलीकृत रूप में, विश्लेषित और संश्लेषित रूप में चित्रित करती थी।" (मुक्तिबोध ग्रंथावली - भाग ५,पृष्ठ-४४८)
अब इसी कक्ष के भीतर बने इस विशाल प्रासाद को देखिए। इसका नाम है, "कामायनी"- हिंदी साहित्य का एक अमर ग्रंथ। जानते हैं, तुलसी बाबा की रामचरितमानस के बाद अगर हिंदी साहित्य में किसी और ग्रंथ की मीमांसा हुई है, तो वह है यही "कामायनी" जिसपर केवल दिल्ली विश्वविद्यालय से ही लगभग डेढ़ सौ से ऊपर शोध कार्य हो चुके हैं और अब भी शोध की जाने कितनी संभावनाएँ इसमें हैं। मनु, श्रद्धा और इड़ा की यह कहानी उसी तरह अनेक परतों को अपने में समेटे है, जिसकी ओर मुक्तिबोध ने संकेत किया था। हिंदी के लगभग सभी कवियों और आलोचकों ने 'कामायनी' पर लिखा है और लगभग सब की राय अलग-अलग है, जैसे - डॉ० नगेंद्र इसमें 'महाकाव्यात्मकता' देखते हैं, तो दिनकर जी ने लेख लिखा - 'कामायनी- दोषरहित-दूषण सहित', आचार्य नंद दुलारे वाजपेयी इसमें 'काव्य और मनोविज्ञान का संगम' देखते हैं और मुक्तिबोध इसे 'आधुनिक युग की वृत्तियों को प्रस्तुत करने वाली फ़ैंटेसी' के रूप में देखते हैं। पंत जी इसके कथ्य को 'दर्शन प्रस्तुति के लिए रंगमंच' मानते हैं और यह दर्शन था - शैव दर्शन का महत्वपूर्ण भाग - प्रत्यभिज्ञा दर्शन!
हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर,
बैठ शिला की शीतल छाँह।
एक पुरुष, भीगे नयनों से,
देख रहा था प्रलय प्रवाह
आप भी इस विशद काव्य की छाया में बैठ कर सोचिएगा कि आप इसे क्या मानते हैं? क्योंकि जब तक साहित्य प्रेमी रहेंगे, 'कामायनी' पर चर्चाएँ चलती रहेंगी। पर काव्य के इस कक्ष से पूरी तरह बाहर निकलने से पहले इस दीवार पर देखिए - प्रसाद जी काव्य के संबंध में क्या लिख गए हैं -
"काव्य आत्मा की संकल्पनात्मक अनुभूति है, जिसका संबंध विश्लेषण, विकल्प या विज्ञान से नहीं है। वह एक श्रेयमयी प्रेय रचनात्मक ज्ञानधारा है।" कह सकते हैं कि प्रसाद जी काव्य को शिव, सुंदर, सत्य और चारु बना कर ही ग्राह्य मानते थे।
अगला कक्ष है नाटकों का। इस कक्ष के भीतर आपको ऐतिहासिक कहानियों की आधारभूमि मिलेगी, इस कक्ष का चंदोबा राष्ट्रीय-साँस्कृतिक चेतना के सुनहरे तारों से बना है। हमारे देशप्रेम और मानवीय चेतना को जगाने वाले पात्र मिलेंगे, ध्रुवस्वामिनी जैसी स्वाभिमानी, साहसी स्त्री पात्र स्वाभिमान का शंखनाद करते दिखेंगे। कविता में जो दार्शनिक मन है, वह यहाँ पौरुष से तने, साहसी, कर्मठ तन का रूप ले लेता है। प्रसाद पर आरोप लगाया गया कि उनके नाटक रंगमंच के अनुकूल नहीं है, उन्हें पारसी नाटकों की तरह आसानी से खेला नहीं जा सकता। प्रसाद जी ने यह सुना तो हँस कर कहा, "रंगमंच को नाटकों के समान होना चाहिए, नाटक को रंगमंच के अनुरूप नहीं।" उन्होंने १३ पूर्ण नाटक लिखे थे। चौदहवॉं नाटक पूरा नहीं हुआ था कि वे नहीं रहे। लगभग सभी नाटकों की पृष्ठभूमि इतिहास है। हर नाटक के प्रारंभ में वे उस काल के मिले हुए ऐतिहासिक तथ्य और उन तथ्यों के आधार भी बताते हैं, जिससे उनके शोध की गहराई का पता लगता है। कुछ आलोचकों और साथी लेखकों को यह आपत्ति थी कि वे ऐतिहासिक नाटक ही क्यों लिखते हैं? इसका उत्तर वे 'अजातशत्रु' की भूमिका में देते हुए कहते हैं -
"विश्व में कल्पना जब तक इयत्ता को प्राप्त नहीं होती, तब तक वह रूप परिवर्तन करके पुनरावृत्ति करती ही जाती है……इसलिए हम कहेंगे कि भारत के ऐतिहासिक काल का प्रारंभ धन्य है, जिसने संसार में पशु-कीट-पतंग से लेकर इंद्र तक के साम्यवाद की शंखध्वनि की थी। केवल इसी कारण हमें, अपना अतीव प्राचीन इतिहास रखने पर भी, यहाँ से इतिहास-काल का प्रारंभ मानने से गर्व होना चाहिए", भारतीयता के इस गर्व को वे हर गुलाम भारतीय हृदय में भर देना चाहते थे।
प्रसाद जी के हर नाटक में तत्कालीन स्थितियों के लिए कोई गहरा संदेश रहता था। पात्रों के नाम भी उनके चरित्र को बताते थे जैसे 'अजातशत्रु' नाटक की छलना जो अहंकार के कारण गृह-कलह का कारण बन रही है, वहीं भगवान बुद्ध करुणा का संदेश दे रहे हैं -
निष्ठुर आदि-सृष्टि पशुओं की विजित हुई इस करुणा से
मानव का महत्व जगती पर फैला अरुणा-करुणा से।
वे वाक-संयम को विश्व मैत्री की पहली सीढ़ी बताते हैं। इसी तरह ध्रुवस्वामिनी के प्रारंभ से ही साम्राज्य को गूँगे, बहरे, कुबड़ों का राज्य कहा गया या 'प्राणों की क्षमता बढ़ा लेने पर वही काई जो बिछलन बन कर गिरा सकती थी अब दूसरों के ऊपर चढ़ने का अवलंबन बन गई है' कह कर संदेश दिया गया। इन नाटकों के गीत उस समय के गीतमय नाटकों के चलन की ओर तो इशारा करते ही हैं, पर इन ओजपूर्ण-भावपूर्ण कवित्तों और गीतों ने नाटकों को गति देने के साथ अपनी स्वतंत्र लोकप्रियता भी हासिल की है, जैसे ध्रुवस्वामिनी की ये पंक्तियाँ चंद्रशेखर आज़ाद जैसे स्वतंत्रता के मतवाले सिपाहियों को संबोधित करती लगतीं हैं
अपनी ज्वाला को आप पिये
नव नील कंठ की छाप लिए
विश्राम शांति को शाप दिए
ऊपर ऊँचे सब झेल चले।
मुझे इस समय 'आज़ाद' क्यों याद आए? क्योंकि कहा जाता है कि वे कुछ दिनों प्रसाद जी के संरक्षण में ही अंग्रेज़ी सरकार से छिप कर रहे थे और प्रसाद जी ने ठीक से सुन न पाने का बहाना बना कर अंग्रेज़ी सरकार के ज्यूरी समूह में जाने से मना कर दिया था। घर-परिवार की अकेले ज़िम्मेदारी सँभालने वाले प्रसाद सशरीर स्वतंत्रता संग्राम में नहीं उतर पाए तो क्या, कलम से सोए भारतीय गौरव को जगा कर 'बढ़े चलो' का संदेश तो दे ही रहे थे। डॉ० रामविलास शर्मा ने भी इतिहास के माध्यम से तत्कालीन राजनैतिक स्थितियों को चुनौती देने वाले प्रसाद जी को पहचाना। छायावादी-रहस्यवादी कवि कह कर जो लोग उन पर तत्कालीन स्थितियों से कटे होने का आरोप लगाते हैं, उन्हें प्रसाद के नाटकों के गहन अध्ययन की आवश्यकता है।
अगला कक्ष है - उपन्यासों का। उन्होंने कुल तीन उपन्यास लिखे। तीसरा उपन्यास पूरा नहीं माना जाता। कहा गया कि मृत्यु ने उसे पूरा नहीं करने दिया। उनके पहले ही उपन्यास 'कंकाल' पर उनके नाटकों की ऐतिहासिकता से नाराज़, काशी के ही लमही में रहने वाले उपन्यास सम्राट प्रेमचंद ने लिखा था, "यह प्रसादजी का पहला ही उपन्यास है, पर आज हिंदी में बहुत कम ऐसे उपन्यास हैं, जो इसके सामने रक्खे जा सकें" 'तितली' में ग्राम-सुधार को देख कर प्रेमचंद जी ने फिर प्रशंसा की।
अब चलते हैं, उस कक्ष में जिसमें कहानियाँ ही कहानियाँ हैं। लगभग ७०-७२ कहानियाँ हैं यहाँ। उनकी पहली कहानी 'ग्राम' को बहुत से विद्वानों ने पहली आधुनिक कहानी माना है, जिसमें सामंती स्थितियाँ हैं, तो मनोवैज्ञानिक आयाम भी है। कुछ कहानियों पर प्रेम का रंग है, जैसे 'रसिया बालम', 'चूड़ीवाली', 'दासी', 'नूरी' आदि, स्त्री हृदय के मनोभावों का सूक्ष्म अंकन कई कहानियों में मिलता है, जैसे 'सालवती', तत्कालीन स्थितियों का सुंदर चित्रण करती हैं, 'विराम चिह्न' जैसी कहानियाँ जिसमें वृद्धा भिखारिन का बेटा राधे पैसे छीन कर ताड़ी पीता है और मंदिर में घुसकर भोग पाना चाहता है। शूद्र जातियों का ब्राह्मणों के प्रति बढ़ते क्रोध का एक उदाहरण इस कहानी से देखिए - "अकेले-अकेले बैठकर भोग-प्रसाद खाते-खाते बच्चू लोगों की चरबी बढ़ गई है।" कुछ कहानियों की भूमि पौराणिक-ऐतिहासिक भी है, पर प्रायः ये तत्कालीन सामाजिक और मनोवैज्ञानिक संदर्भों में मनुष्य के उदात्त जीवन-मूल्यों की स्थापना करती हैं। इन कहानियों की सबसे बड़ी विशेषता भावों का सूक्ष्म चित्रांकन है। इनके बिंब और ध्वनि, स्त्री-मन के उतार-चढ़ाव दिखाने की सधी भाषा ने इनके कहानीकार रूप को भी बहुत ख्याति दिलवाई। आचार्य रामचंद्र शुक्ल की पौत्री व साहित्यकार डॉ० मुक्ता के अनुसार अपनी कहानियों में प्रसाद जी काफी मुखर रहे। ममता और घींसू में महिलाओं की स्थिति से लोगों को दिलों को झकझोरा और ये कहानियाँ आज भी तर्कसंगत हैं।
इस प्रासाद का अंतिम कक्ष निबंध है। छायावाद, रस, काव्यकला और रहस्यवाद, आर्याव्रत और उसका प्रथम सम्राट आदि पर गंभीर चिंतन वाले ये लेख महत्वपूर्ण हैं। किताब रूप में ये प्रसाद जी के जाने के बाद प्रकाशित हुए। इसी कक्ष में आप उनके संपादक रूप के दर्शन भी कर लीजिए। 'जागरण' पत्र का नाम उन्हीं का दिया हुआ है और उन्होंने कुछ समय इसका संपादन किया भी, बाद में प्रेमचंद जी ने इसे सँभाला।
अब प्रासाद का यह खुला दालान देखिए, जो उनके खुले सात्विक जीवन का सा है। श्री रामनाथ सुमन जी ने लिखा है - "इनके यहाँ बेनी, शिवदा तथा अन्य कितने ही कवि आया करते थे और अक्सर समस्यापूर्ति एवं कविता पाठ का अखाड़ा आधी-आधी रात तक चलता रहता था। ठंडाई बन रही है, रसगुल्ले और मलाई की हँडिया भरी है, कहीं दंड-बैठक और कुश्ती का बाज़ार गर्म है, तो कहीं सभा चातुरी खिल-खिल हँस रही है, कहीं कवित्त पर कवित्त चल रहे हैं, तो कहीं पंडितों से ज्ञान चर्चा हो रही है।" किसी कविता-साहित्य समारोह में न जाने वाले प्रसाद जी के घर ही मानों साहित्य की गंगा आ निकलती थी।
प्रसादजी ने अनेक जगह से प्रकाशित होने वाली कृतियों से तथा प्रकाशन मानदेय या पुरस्कार की कोई धनराशि स्वीकार नहीं की। अपनी मेहनत से, अपने दुर्दिन और अभावों को समृद्धि में बदलने वाले और अल्पायु में भी हिंदी साहित्य को अमर कृतियाँ देने वाले यशस्वी प्रसाद जी हम सब के बीच सदैव एक 'प्रकाश स्तंभ' से खड़े हमें भाषा और राष्ट्र के गौरव-पथ पर आगे बढ़ने की प्रेरणा देते रहेंगे।
सहृदयों, यह थी जयशंकर प्रसाद जी के विशाल साहित्यिक प्रासाद का एक छोटी सी झाँकी! आशा है, आपमें इनको अब और गहराई से जानने की इच्छा बलबती होगी ।
जयशंकर प्रसाद : जीवन परिचय | |
जन्म | ३० जनवरी, १८८९ |
मृत्यु | १५ नवंबर, १९३७ |
पिता | बाबू देवी प्रसाद |
माँ | मुन्नी देवी |
साहित्यिक रचनाएँ | |
काव्य |
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कहानी-संग्रह |
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उपन्यास |
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नाटक |
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निबंध |
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संदर्भ
- मुक्तिबोध रचनावली भाग-5
- जयशंकर प्रसाद - काव्य और कला तथा अन्य निबंध
- डॉ० नामवर सिंह : इतिहास और आलोचना - कामायनी के प्रतीक
- नंददुलारे वाजपेयी : जयशंकर प्रसाद
- डॉ० नगेंद्र : कामायनी के अध्ययन की समस्याएँ
- कविता कोश व गद्य कोश
लेखक परिचय
शैलजा सक्सेना
शिक्षा : एमए, (हिंदी), एमफिल, पीएचडी (दिल्ली विश्वविद्यालय),
मानव
संसाधन
डिप्लोमा
(ह्यूमन
रिसोर्स
मैनेजमेंट)
(मैक
मास्टर
यूनिवर्सिटी,
हैमिल्टन,
कनाडा)
स्वतंत्र लेखन, "हिंदी राइटर्स गिल्ड" की सह-संस्थापक निदेशिका;
हिंदी साहित्य सभा की आजीवन सदस्या और भूतपूर्व उपाध्यक्षा।
ईमेल : shailjasaksena@gmail.com फोन : 1-905-580-7341
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