पूज्य तुम राजर्षि क्या ब्रह्मर्षि बहुगुण धाम।
व्यर्थ आज वशिष्ठ विश्वामित्र के संग्राम।।
बहुत मेरे अर्थ पुरूषोत्तम तुम्हारा नाम।
सतत श्रद्धायुक्त तुमको शत सहस्र प्रणाम।। (मैथिलिशरण गुप्त)
हिंद देश की भाषा के लिए हिंदी नामकरण के प्रबल पक्षधर, हिंदी में महान शक्ति को देखने वाले महापुरुष, जिनके व्यक्तित्व को गोविंद बल्लभ पंत जी ने भारतीय संस्कृति और सभ्यता का प्रतीक बताया, तो अनंतशयनम अय्यंगर जी ने प्राचीन भारतीय संस्कृति की उस ओजस्विता का प्रतीक, जिसने हर नए को अपनी अजस्र ज्ञान-धारा में समा लेने और उनके परस्पर समन्वय का प्रयास किया है। जिनकी जीवनी को गोपाल प्रसाद व्यास जी ने सामाजिक, सांस्कृतिक एवं भाषायी कार्यकर्ताओं और नेताओं के लिए 'कर्मगीता' बताया, जो सिद्धांतों पर अटल स्तंभ की तरह डटे रहे, जिनका जीवन उनके संपर्क में आने वाले हर व्यक्ति के लिए एक सीख था…। ऐसी विभूति को नमन करना, उनके बारे में कुछ कहना सूर्य को दीपक दिखाने जैसा है।
पुरुषोत्तम दास टंडन वकील, पत्रकार, भाषा अभियानी, राजनेता, स्वतंत्रता सेनानी थे। उनके जीवन को किसी एक वृत्त में समेट पाना बहुत मुश्किल है। उनके महान व्यक्तित्व और कृतित्व के कारण उन्हें १९४८ में 'राजर्षि' की पदवी से विभूषित किया गया। स्वतंत्रता संग्राम के निर्भय सेनानी और संस्कृति के मूलभूत मूल्यों में अदम्य विश्वास रखने वाले इस महर्षि से जब उनके अंतिम कुछ वर्षों में उनकी आत्मकथा बोलकर लिखवाने का आग्रह किया गया तो उन्हें वह प्रस्ताव ज़रा भी न भाया, क्योंकि वे इतने विनयशील थे कि अपने बारे में कुछ कहना उन्हें कभी न रुचा था। वे शांत भाव से अपना अभीष्ट करने में विश्वास रखते थे। हिंदी उनके लिए भाषा नहीं, माँ थी और इस माँ की सेवा में उन्होंने अथक कष्ट झेले किंतु मुख पर कभी न लाए। हिंदी को भारत की राजभाषा के पद पर प्रतिष्ठित करवाने में उनका महत्त्वपूर्ण योगदान रहा। वे हिंदी को देश की आज़ादी के पहले "आज़ादी प्राप्त करने का" और आज़ादी के बाद "आज़ादी को बनाए रखने का" साधन मानते थे। भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में अग्रणी पंक्ति के नेता होने के साथ-साथ पुरुषोत्तम दास जी हिंदी के अनन्य सेवक, कर्मठ पत्रकार, तेजस्वी वक्ता और समाज सुधारक भी थे। उनका मानना था कि राष्ट्र की निर्मिति और उसकी स्थिरता उसकी अपनी संस्कृति और अपने साहित्य के उपादानों से होती है। उनका कार्यक्षेत्र मुख्यतः तीन भागों में बँटा हुआ है, स्वतंत्रता संग्राम, साहित्य और समाज। उनके संघर्ष और त्याग को लक्षित करते हुए श्री किशोरीदास वाजपेयी जी ने लिखा है, "जब जब राष्ट्रीय संघर्ष हुए, टंडन जी सबसे आगे रहे"।
१ अगस्त १८८२ को उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद नगर में जन्मे पुरुषोत्तम दास टंडन का नाम उनके पुरुषोत्तम मास में जन्म लेने के कारण रखा गया। प्रारंभिक शिक्षा एक मौलवी द्वारा दी गई और आठ वर्ष की आयु में शिवराखन स्कूल में नाम लिखवाया गया। उसके बाद क्रमशः, सरकारी स्कूल, कायस्थ पाठशाला क़ॉलेज तथा म्योर सेंट्रल कॉलेज में और स्थानीय सिटी एंग्लो वर्नाक्यूलर विद्यालय में शिक्षा हुई। वे आरंभ से ही एक मेधावी छात्र रहे और कॉलेज के बाद कानून की डिग्री हासिल की। १९०६ में कानूनी प्रैक्टिस के लिए इलाहाबाद हाई कोर्ट में काम करना शुरु किया। शिक्षा-दीक्षा के बाद वकालत को व्यवसाय के रूप में अपनाने वाले पुरुषोत्तम दास टंडन १८९९ में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के साथ जुड़कर अंग्रेज़ों के खिलाफ़ चलने वाली गतिविधियों में शामिल होने लगे थे। जिसकी वजह से उनकी पढ़ाई भी अवरोधित हुई और उन्हें इलाहबाद के म्योर सेंट्रल कॉलेज से निकाल दिया गया था। हालांकि बाद में उन्होंने अन्य कॉलेज से अपनी पढ़ाई पूरी की और वर्ष १९०६ में वकालत के पेशे में आ गए। पुरुषोत्तम जी बालपन से ही निर्भीक व साहसी थे। दस वर्ष की आयु में चित्रकूट जाने के लिए घर से निकल पड़े थे, किंतु वापस पहुँचा दिए गए।
वकालत के साथ-साथ स्वतंत्रता आंदोलन की गतिविधियों में भी सक्रिय रहने वाले राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन ने १० अक्टूबर १९१० को नागरी प्रचारिणी सभा वाराणसी के प्रांगण में हिंदी साहित्य सम्मेलन की स्थापना की। इसी क्रम में १९१८ में उन्होंने 'हिंदी विद्यापीठ' और १९४७ में 'हिंदी रक्षक दल' की स्थापना की। १९१४ में मालवीय जी के कहने पर उन्होंने वकालत का कार्य स्थगित कर नाभा के विदेशमंत्री का पद संभाला लेकिन १९१६ में नाभा महाराज द्वारा हिंदी साहित्य सम्मेलन की बैठक में भाग लेने की अनुमति न दिए जाने के कारण वे त्यागपत्र देकर चले आए, क्योंकि हिंदी से ऊपर उनके लिए कुछ न था।
उनकी सक्रियता को देखते हुए उन्हें १९१९ में जलियाँवाला बाग़ हत्याकांड के अध्ययन के लिए बनी समिति में भी जगह दी गई। इसके बाद १९२१ में महात्मा गांधी के कहने पर राजर्षि टंडन ने वकालत छोड़कर खुद को स्वतंत्रता आंदोलन के कार्य में लगा लिया। वकालत छोड़कर स्वतंत्रता आंदोलन में पूरी तरह से कूदने के बाद पुरुषोत्तम दास टंडन १९३० में महात्मा गांधी द्वारा चलाए जा रहे सविनय अवज्ञा आंदोलन में उत्तर प्रदेश के बस्ती ज़िले से गिरफ्तार कर लिए गए। उन्होंने उत्तर प्रदेश में इस आंदोलन का संचालन बढ़-चढ़कर किया था, जिसके परिणामस्वरूप उन्हें कारावास की सजा मिली। लंदन में महात्मा गांधी की गोलमेज़ बैठक में शामिल होने से पहले भारत में जिन स्वतंत्रता आंदोलन के क्रांतिकारियों को गिरफ्तार किया गया था, उनमें पुरुषोत्तम दास टंडन भी थे।
१९२३ में जेल से छूटने पर उन्होंने परिवार के भरण-पोषण के लिए पंजाब नैशनल बैंक में मंत्री का पद संभाला।
टंडन जी ने ग्वालियर के विक्टोरिया कॉलेज में हिंदी के लेक्चरर के रूप में कार्य किया। उस समय अटल बिहारी वाजपेयी विक्टोरिया कॉलेज के छात्र हुआ करते थे। टंडन जी कहते थे कि हिंदी साहित्य के प्रति मेरे (उसी) प्रेम ने उसकी रक्षा और उसके विकास के पथ को स्पष्ट करने के लिए मुझे राजनीति में सम्मिलित होने को बाध्य किया।
राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन हिंदी के प्रबल पक्षधर थे। वे हिंदी में भारत की मिट्टी की सुगंध महसूस करते थे। हिंदी साहित्य सम्मेलन के इंदौर अधिवेशन में स्पष्ट घोषणा की गई कि अब से राजकीय सभाओं, कांग्रेस की प्रांतीय सभाओं और अन्य सम्मेलनों में अंग्रेजी का एक शब्द भी सुनाई न पड़े।
भारतवर्ष में स्वतंत्रता के पूर्व से ही सांप्रदायिकता की समस्या अपने विकट रूप में विद्यमान रही। टंडन जी ने अछूतोद्धार के लिए बढ़-चढ़कर कार्य किया।
साहित्य में रुचि
राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन जी साहित्य पठन में रुचि रखते थे। वे अंग्रेज़ी साहित्य का भी विशद ज्ञान रखते थे। वे स्वयं एक उच्चकोटि के रचनाकार थे। उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व का आकलन करते समय प्रायः उनके साहित्यकार रूप को अनदेखा कर दिया जाता है। उनकी रचनाओं में तत्कालीन इतिहास की खोज की जा सकती है। साहित्यकार के रूप में टंडन जी निबंधकार, कवि और पत्रकार के रूप में दिखलाई पड़ते हैं। उनके निबंध हिंदी भाषा और साहित्य, धर्म और संस्कृति तथा अन्य विविध क्षेत्रों से संबंधित हैं।
भाषा और साहित्य संबंधी निबंधों में कविता, दर्शन और साहित्य, हिंदी साहित्य का कानन, हिंदी राष्ट्रभाषा क्यों, मातृभाषा की महत्ता, भाषा का सवाल, गौरवशाली हिंदी, हिंदी की शक्ति, कवि और दार्शनिक आदि विशेष उल्लेखनीय हैं। धर्म और संस्कृति संबंधी निबंधों में भारतीय संस्कृति और कुंभमेला, भारतीय संस्कृति संदेश तथा अन्य निबंधों में लोककल्याणकारी राज्य, धन और उसका उपयोग, स्वामी विवेकानंद और सरदार वल्लभ भाई पटेल आदि अति महत्वपूर्ण हैं।
काव्य रचनाओं में 'बंदर सभा महाकाव्य', 'कुटीर का पुष्प' और 'स्वतंत्रता' अपना ऐतिहासिक महत्व रखती हैं। इन कविताओं में राष्ट्रीयता और देशभक्ति की प्रमुखता है। उनकी रचनाओं में काव्यशास्त्र की बारीकियाँ नहीं मिलेंगी लेकिन युगीन यथार्थ की अभिव्यक्ति टंडन जी ने जिस ढंग से की है, वह निश्चय ही श्लाघनीय है,
एक एक के गुण नहिं देखें, ज्ञानवान का नहिं आदर,
लड़ैं कटैं धन पृथ्वी छीनैं जीव सतावैं लेवैं कर।
भई दशा भारत की कैसी चहूँ ओर विपदा फैली,
तिमिर आन घोर है छाया स्वारथ साधन की शैली॥
अपनी अपनी चाल ढाल को सब कोऊ धर-धर छप्पर पर,
चले लुढ़कते बुरी प्रथा पर जिसका कहीं पैर नहिं सिर।
धनी दीन को दुख अति देवैं, हमदर्दी का काम नहीं,
धन मदिरा गनिका में फूँकै करैं भला कुछ काम नहीं।
'बंदर सभा महाकाव्य' में आल्हा शैली में अंग्रेज़ों की नीतियों का भंडाफोड़ किया है।
उन्होंने अंग्रेज़ों के प्रति चुटकियाँ भी खूब ली हैं, यथा-
कबहूँ आँख दाँत दिखलावैं, लें डराय बस काम निकाल।
कबहूँ नम होय सीख सुनावैं, रचैं बात कै जाल कराल॥
ऐसे वैसे तो डर जावैं या फँस जावैं हमारे जाल।
जौने तनिक अकड़ने वाले तिनके लिए अनेकन चाल॥
पत्रकारिता के क्षेत्र में टंडन जी अंग्रेज़ी के भी उद्भट विद्वान थे। श्री त्रिभुवन नारायण सिंह जी ने उल्लेख किया है कि सन १९५० में जब वे कांग्रेस के सभापति चुने गए तो उन्होंने अपना अभिभाषण हिंदी में लिखा और अंग्रेज़ी अनुवाद मैंने किया। श्री सम्पूर्णानंद जी ने भी उस अंग्रेज़ी अनुवाद को देखा, लेकिन जब टंडन जी ने उस अनुवाद को पढ़ा, तो उसमें कई पन्नों को फिर से लिखा। तब मुझे इस बात की अनुभूति हुई कि जहाँ वे हिंदी के प्रकांड विद्वान थे, वहीं अंग्रेज़ी साहित्य पर भी उनका बड़ा अधिकार था।
टंडन जी सादगी और सरलता की मिसाल थे और अपनी बहुत सादे कुरते-धोती वाली वेशभूषा से ही उनकी पहचान थी, पर बहुतों को शायद पता न हो कि कॉलेज के दिनों में वे एक बहुत अच्छे खिलाड़ी और अपनी क्रिकेट टीम के कप्तान थे। इसी तरह टंडन जी हिंदी के अनन्य भक्त होने के साथ ही फ़ारसी के बहुत अच्छे विद्वान थे।
वर्ष १९६१ में हिंदी भाषा को देश में अग्रणी स्थान दिलाने में अहम भूमिका निभाने के लिए उन्हें देश का सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार दिया गया। २३ अप्रैल १९६१ को उन्हें भारत सरकार द्वारा 'भारत रत्न' की उपाधि से विभूषित किया गया। प्रयागराज में उनके नाम पर एक विश्वविद्यालय भी खुला है।
राष्ट्रभाषा हिंदी के लिए समर्पित पुरुषोत्तम दास टंडन जी का निधन १ जुलाई १९६२ को हुआ। हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिलाने वाले राजर्षि पुरूषोत्तम दास टंडन के हम सदैव ऋणी रहेंगे। देह रूप में टंडन जी हमारे बीच नहीं है लेकिन एक हिंदी प्रेमी, प्रखर वक्ता, विचारशील पत्रकार, साहित्यकार व समाज सुधारक के उत्साह से भरे विचार के रूप में वे सदा मानव जाति को प्रोत्साहित करते रहेंगे। आत्मा अजर अमर अविनाशी है। महान आत्मा टंडन जी के सम्मान में महान कवि सुमित्रानंदन पंत की एक कविता है,
जीना अपने ही में एक महान कर्म है, जीने का हो सदुपयोग यह मनुज धर्म है।
अपने ही में रहना एक प्रबुद्ध कला है, जग के हित रहने में सबका सहज भला है।
जग का प्यार मिले जन्मों के पुण्य चाहिए, जग जीवन को प्रेम सिंधु में डूबना चाहिए।
ज्ञानी बनकर मत नीरस उपदेश दीजिए, लोक कर्म भव सत्य प्रथम सत्कर्म कीजिए।
संदर्भ
राजर्षि टंडन - संतराम टंडन व रानी टंडन
https://archive.org/details/in.ernet.dli.2015.346268/page/n38/mode/1up?view=theater
लेखक परिचय
भावना सक्सैना
लेखिका, अनुवादक, पूर्व राजनयिक।
संप्रति - भारत सरकार के राजभाषा विभाग में कार्यरत हैं।
ईमेल - bhawnasaxena@hotmail.com
भावना जी नमस्ते। आपका एक और अच्छा जानकारी भरा लेख पढ़ने को मिला। पुरुषोत्तम दास टंडन जी का साहित्यिक एवं सामाजिक योगदान वंदनीय है। आपके लेख से उनके जीवन से जुड़ी अनेक रोचक प्रसंगों का पता चला। आपको इस शोधपूर्ण लेख के लिए हार्दिक बधाई।
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