"समाजवाद का सवाल केवल रोटी का सवाल नहीं है। समाजवाद मानव स्वतंत्रता की कुंजी है। समाजवाद ही एक सुखी समाज में संपूर्ण स्वतंत्र मनुष्यत्व को प्रतिष्ठित कर सकता है। समाजवाद ही श्रेणी नैतिकता तथा मत्स्य-न्याय के बदले जनप्रधान नैतिकता तथा सामाजिक न्याय की स्थापना कर सकता है। समाजवाद ही स्वतंत्रता, समता और भ्रातृभाव के आधार पर एक सुंदर, सबल मानव संस्कृति की सृष्टि कर सकता है।" - आचार्य नरेंद्रदेव।
आज हम साहित्यिक, दार्शनिक, राजनीतिक, भाषा-संस्कृति के विद्वान व भारत में समाजवाद के पितामाह आचार्य नरेंद्रदेव से रूबरू होंगे। यदि आज़ादी के पश्चात नए भारत का निर्माण करते समय आचार्य नरेंद्र देव के विचारों को आधार बनाया गया होता तो आज हमारा समाज कई विकराल समस्याओं से मुक्त होता। क्योंकि उस रास्ते पर चलकर ही हम सही अर्थों में कार्ल मार्क्स, महात्मा गाँधी, गौतम बुद्ध के विचारों को समाहित कर भारतीय समाजवादी समाज की स्थापना की राह हमवार कर चुके होते।
इनके पिता पेशे से वकील, वृत्ति से धार्मिक और विचारों से समाजवादी थे, जिसके चलते विभिन्न प्रकार के लोगों का इनके घर आना-जाना रहता था। इस परिवेश ने बालक अविनाशी लाल को स्वामी रामतीर्थ, पंडित मदनमोहन मालवीय, पंडित दीनदयाल शर्मा आदि के संपर्क में आने का अवसर दिया जिससे इनके मन में भारतीय संस्कृति के प्रति अनुराग उपजा। संस्कृत के विद्वान माधव मिश्र ने इनका नाम नरेंद्रदेव रखा। राजनीति में रुचि होने के कारण नरेंद्रदेव ने वकालत की पढ़ाई की। साथ ही इतिहास, पुरातत्व, धर्म, दर्शन व संस्कृति का भी गहन अध्ययन किया। वे हिंदी, संस्कृत, पाली, जर्मन, फ्रेंच और अँग्रेज़ी भाषाओं के अच्छे ज्ञाता थे। वर्ष १९१५ से पाँच वर्षों तक फ़ैजाबाद में वकालत की। असहयोग आंदोलन के शुरू होने के बाद जवाहरलाल नेहरू की पहल और अपने मित्र श्री शिवप्रसाद गुप्त के आमंत्रण पर नरेंद्रदेव काशी विद्यापीठ आए। काशी विद्यापीठ से उनका जुड़ाव सन १९२१ से रहा।
उनके सहपाठियों में दर्शन और तंत्र विद्या के महान विचारक महामहोपाध्याय गोपीनाथ कविराज रहे। नरेंद्रदेव स्वंय बौद्ध धर्म और दर्शन तथा भारतीय दर्शन के विद्वान थे। आचार्य नरेंद्रदेव सन १९४७ से १९५१ तक लखनऊ विश्वविद्यालय और सन १९५१ से १९५३ तक काशी हिंदू विश्वविद्यालय के उपकुलपति रहे। उपकुलपति रहते हुए वे अपने वेतन का अधिकांश हिस्सा समाजवादी गतिविधियों के लिए दे दिया करते थे। उनके शिष्यों में भारत के दूसरे प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री, काँग्रेस के वरिष्ठ नेता कमलापति त्रिपाठी और समाजवादी नेता चंद्रशेखर थे।
सन १९२९ में काशी विद्यापीठ में आचार्य नरेंद्रदेव की महात्मा गाँधी से मुलाक़ात हुई। महात्मा गाँधी ने बाबू श्रीप्रकाश से पूछा - ऐसा हीरा मुझसे अब तक क्यों छिपाकर रखा था? श्रीप्रकाश ने कहा - एक अच्छे हीरे की परख तो अच्छे जौहरी को ही हो सकती है। गाँधी जी ने उस हीरे को फिर ताउम्र संभाल कर रखा तथा समय और ज़रूरत पड़ने पर आज़माया भी।
महात्मा गाँधी भलीभाँति जानते थे कि दुनिया के लिए जितना ख़तरनाक फ़ासीवाद है उतना ही साम्राज्यवाद भी। महात्मा गाँधी के इन विचारों का आचार्य नरेंद्रदेव पूर्ण समर्थन करते थे। उनके इस समर्थन का आधार मुख्यतः भारतीय देशज परंपरा का ज्ञान था।
आचार्य नरेंद्रदेव के राजनीतिक जीवन में कई मोड़ आए। काँग्रेस में रहते हुए वे सन १९३७ में संयुक्त प्रांत से विधानसभा के सदस्य रहे। सन १९४६ में विधानसभा के निर्विरोध सदस्य चुने गए। सन १९४८ में नासिक सम्मेलन में काँग्रेस पार्टी और विधानसभा की सदस्यता से इस्तीफ़ा देकर गाँधी जी की हत्या के तीन महीने बाद समाजवादी पार्टी में चले गए।
आचार्य नरेंद्रदेव 'मेरे संस्मरण' शीर्षक रेडियो-वार्ता में बताते हैं, "मेरे जीवन में सदा दो प्रवृत्तियाँ रही हैं - एक पढ़ने-लिखने की और दूसरी राजनीति की; और इन दोनों में संघर्ष रहता है। यदि दोनों की सुविधा एक साथ मिल जाए तो मुझे बड़ा संतोष रहता है और यह सुविधा मुझे काशी विद्यापीठ में मिली। इसी कारण वह मेरे जीवन का सबसे अच्छा हिस्सा है जो विद्यापीठ की सेवा में व्यतीत हुआ।"
काशी विद्यापीठ में डॉक्टर भगवानदास जी की अध्यक्षता में आचार्य जी ने काम शुरू किया। वर्ष १९२१ में स्वयं अध्यक्ष हुए। विद्यापीठ में उनका अध्यापकों और विद्यार्थियों के साथ बड़ा ही घनिष्ठ संबंध रहा। वहीं श्रीप्रकाश जी ने उन्हें आचार्य कहना शुरू किया जो उनके नाम का अभिन्न अंग बन गया। काशी विद्यापीठ के अध्यापकों और विद्यार्थियों ने इनके नेतृत्व में देश के स्वतंत्रता संग्राम और स्वतंत्र राष्ट्रीय शिक्षा के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।
इलाहाबाद में अध्ययन के समय हिंदू बोर्डिग हाउस में रहते हुए, जो उन दिनों उग्र विचारों का केंद्र था, नरेंद्रदेव के राजनीतिक विचार बलवती हुए। उन्होंने वहीं गरम दल की विचारधारा अपनाई और उसके प्रति जीवनपर्यंत दृढ़ रहे। गरम दल के होने के कारण सन १९०५ में उन्होंने काँग्रेस के अधिवेशनों में जाना छोड़ दिया और सन १९१६ में जब दोनों दलों का मेल हो गया तो वे फिर सक्रिय हो गए। वर्ष १९१६ से १९४८ तक ऑल इंडिया काँग्रेस कमेटी के सदस्य और जवाहरलाल की कार्यसमिति के सदस्य भी हुए।
भग्न स्वास्थ्य के बावजूद आचार्य नरेंद्रदेव ने सन १९३० के नमक सत्याग्रह, सन १९३२ के आंदोलन तथा सन १९४१ के व्यक्तिगत सत्याग्रह आंदोलन में साहस के साथ भाग लिया और जेल की यातनाएँ सहीं। सन १९४२ में चार महीने तक गाँधी जी ने उन्हें अपने आश्रम में चिकित्सा के लिए रखा। जब ९ अगस्त १९४२ को गाँधी जी ने 'करो या मरो' प्रस्ताव रखा, बंबई में आचार्य जी काँग्रेस कार्यसमिति के सदस्यों के साथ गिरफ़्तार हो गए। सन १९४२ से १९४५ तक श्री जवाहरलाल नेहरू के साथ अहमदनगर के किले में बंद रहे।
आचार्य नरेंद्रदेव क्रांतिकारी दल के कभी सदस्य नहीं हुए, किंतु कई नेताओं से उनका घनिष्ठ परिचय था, जो उन पर विश्वास करते थे और समय-समय पर उनसे सहायता भी लेते थे।
सन १९३४ में आचार्य नरेंद्रदेव ने श्री जयप्रकाश नारायण, डॉक्टर राममनोहर लोहिया तथा अन्य सहयोगियों के साथ काँग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना की। सन १९३४ में हुए प्रथम अधिवेशन के अध्यक्ष आचार्य नरेंद्रदेव जी ही थे। काँग्रेस से बाहर आने पर सन १९४८ में सोशलिस्ट पार्टी का जो सम्मेलन पटना में हुआ उसकी अध्यक्षता भी आचार्य नरेंद्रदेव जी ने ही की। समाजवादी आंदोलन में आचार्य नरेंद्रदेव का वही स्थान रहा है जो एक परिवार में पिता का होता है। आचार्य जी मार्क्सवादी समाजवादी थे, किंतु बराबर कहा करते थे कि इस युग की दो मुख्य प्रेरणाएँ राष्ट्रीयता और समाजवाद है और राष्ट्रीय परिस्थितियों तथा आकांक्षाओं की दृष्टि से ही समाजवाद के आकलन पर ज़ोर देते रहे। भारत में समाजवाद को राष्ट्रीयता और किसानों के सवाल से जोड़ना आचार्य जी की भारतीय समाजवाद को एक स्थायी देन है।
काशी विद्यापीठ के अध्यापक, आचार्य और कुलपति की हैसियत से उन्होंने अपनी विद्वत्ता, उदारता और चरित्र के द्वारा अध्यापन और प्रशासन का जो उच्च आदर्श कायम किया, वह अनुकरणीय है। अपने सहयोगी श्री संपूर्णानंद जी के आग्रह पर आचार्य जी ने उत्तर प्रदेश की माध्यमिक शिक्षा समिति की अध्यक्षता की थी। इस समिति के ज़रिए कई महत्त्वपूर्ण सुझाव उन्होंने दिए थे।
बौद्ध दर्शन में विशेष रुचि के चलते आजीवन उसका अध्ययन करते रहे। अपने जीवन के अंतिम दिनों में 'बौद्ध-धर्म-दर्शन' उन्होंने पूरा किया जिसके लिए उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। उन्होंने 'अभिधर्मकोश' भी प्रकाशित कराया था। 'अभिधम्मत्थसंहहो' का हिंदी अनुवाद किया था। उन्होंने प्राकृत तथा पाली व्याकरण हिंदी में तैयार किया था, जो अभी तक प्रकाशित न हो सका है। बौद्ध दर्शन के पारिभाषिक शब्दों के कोश का निर्माणकार्य भी उन्होंने प्रांरभ किया था और ४०० शब्दों का व्याख्यात्मक कोश बना लिया था, किंतु आकस्मिक निधन से वह काम पूरा न हो सका।
उनके बेजोड़ भाषण उनकी प्रकाशित रचनाओं से किसी भी मायने में कम नहीं हैं, परंतु समय रहते भाषणों का संकलन न होने के कारण हम ज्ञान की एक अमूल्य निधि से वंचित हैं।
आचार्य नरेंद्रदेव ने 'विद्यापीठ' त्रैमासिक पत्रिका, 'समाज' त्रैमासिक, 'जनवाणी' मासिक, 'संघर्ष' और 'समाज' साप्ताहिक पत्रों का संपादन किया।
नरेंद्रदेव नैतिक समाजवादी थे। वे समाजवाद को राजनीतिक से अधिक सांस्कृतिक आंदोलन मानते थे, इसलिए उन्होंने समाजवाद के मानवतावादी पक्ष पर अधिक बल दिया। यद्यपि वे हिंदू धर्म और बौद्ध धर्म का भी अध्ययन कर चुके थे, परंतु उन्होंने गाँधी जी के अहिंसा सिद्धांत से कभी सहमति व्यक्त नहीं की।
आचार्य नरेंद्रदेव एक चिंतन पद्धति के रूप में मार्क्सवाद को मानने वाले थे। एक मौके पर उन्होंने कहा कि वे पार्टी छोड़ सकते हैं, मार्क्सवाद नहीं। लेकिन वे रूढ़िवादी कम्युनिस्ट नहीं थे। यानी सर्वहारा के नाम पर कम्युनिस्ट पार्टी, उसमें भी एक व्यक्ति या गुट की तानाशाही उन्हें अस्वीकार्य थी। परंतु लेनिन को वे बहुत पसंद करते थे। वे अमरीकी साम्रज्यवाद के हमेशा घोर विरोधी रहे। वे मार्क्सवाद और भारत तथा बाक़ी पराधीन दुनिया के राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन में कोई विरोध नहीं देखते थे। वे किसान और मजदूर की क्रांतिकारी शक्ति के बीच विरोध नहीं, परस्पर पूर्णता देखते थे। वे कृषि क्रांति को समाजवादी क्रांति से जोड़ने के पक्षधर थे, इसीलिए उन्होंने अपना ज़्यादा समय किसान राजनीति को दिया। वे किसानों को जाति और धर्म के आधार पर संगठित करने के ख़तरों को समझते थे, इसीलिए जाति और धर्म के आधार पर किसानों और मजदूरों को बाँटने की साज़िश का लगातार विरोध व उसका पर्दाफाश करते रहे। भारत के क्रांतिकारी आंदोलन को भी वे द्विभाजित नज़रिये से नहीं बल्कि स्वतंत्रता संघर्ष के इतिहास की विकासमान धारा की संगति में देखते थे।
वर्ष १९३६ में आचार्य नरेंद्रदेव द्वारा दिए गए भाषण का यह अंश दृष्ट्व्य है, "हमारा काम केवल साम्राज्यवाद के शोषण का ही अंत करना नहीं है किंतु साथ-साथ देश के उन सभी वर्गों के शोषण का अंत करना है जो आज जनता का शोषण कर रहे हैं। हम एक ऐसी नई सभ्यता का निर्माण करना चाहते हैं जिसका मूल प्राचीन सभ्यता में होगा, जिसका रूप-रंग देशी होगा, जिसमें पुरातन सभ्यता के उत्कृष्ट अंश सुरक्षित रहेंगे और साथ-साथ उसमें ऐसे नवीन अंशों का भी समावेश होगा जो आज जगत में प्रगतिशील हैं और संसार के सामने एक नवीन आदर्श उपस्थित करना चाहते हैं।"
आचार्य नरेंद्रदेव के विचारों की सबसे बड़ी सार्थकता व्यक्ति के नैतिक मूल्यों का सामाजिक परिवर्तन की क्रांतिकारी प्रक्रिया के साथ संवर्द्धन करने में है। उनका सामाजिक परिवर्तन के नैतिक पक्ष पर आग्रह जहाँ भारतीय दृष्टि से जुड़ा है, वहीं सामाजिक शक्तियों के वैज्ञानिक विश्लेषण का आग्रह मार्क्सवादी दृष्टि से है।
आचार्य नरेंद्रदेव ने अपना संपूर्ण जीवन भारत में समाजवाद की स्थापना के संघर्ष में लगा दिया। उन्होंने जीवनपर्यंत एक सीधी-सादी जिंदगी बिताई। उन्हें अपने अंतिम समय में अपने कार्य-क्षेत्र उत्तर-प्रदेश विशेषकर फ़ैजाबाद में सत्ताधारी काँग्रेस व सांप्रदायिक शक्तियों के दुष्प्रचार का शिकार होना पड़ा। जेल जीवन तथा अत्याधिक परिश्रम के कारण उन्हें दमा जैसी गंभीर बीमारी ने जकड़ लिया।
भारत में समाजवाद के इस महान स्वप्नदृष्टा, महान मनीषी ने १९ फरवरी १९५६ को मद्रास में अंतिम साँस ली और हमारे पीछे छोड़ गए एक बेहतर समाज बनाने का संकल्प। आज इस अंधेरे समय में आचार्य नरेंद्रदेव बड़ी शिद्दत से याद आते हैं जब सांप्रदायिकता की काली शक्तियाँ हमारी बहुलतावादी संस्कृति, संविधान और लोकतंत्र को समाप्त करना चाहतीं हैं और धनकुबेर देश के सभी संसाधनों को अपने क़ब्ज़े में कर अकूत मुनाफ़ा कमा कर किसानों-मजदूरों को लूट रहें हैं।
अंत में उनके निम्न कथन के साथ, जो हमारी सामाजिक सच्चाई के कारण उजागर करता है, आलेख को विराम देता हूँ, "वैज्ञानिक दृष्टि से जाति-विशुद्धि नाम की कोई वस्तु नहीं है। सदा से जातियों का सम्मिश्रण होता आया है। यह भी धारणा मिथ्या है कि एक जाति विशिष्ट है और दूसरी निकृष्ट। जो जातिगत विरोध इस समय पाया जाता है, उसका कारण आर्थिक है। किंतु यह भी सत्य है कि एक जाति के लोग दूसरी जाति के लोगों को निकृष्ट मानते हैं। जातियों के पारस्परिक संबंध का इतिहास जानने से तथा निकट संपर्क में आने से यह अज्ञान दूर हो जाएगा। हमें यह भी स्वीकार करना चाहिए कि किसी देश के निवासियों को प्रवास कर दूसरे देश का आर्थिक शोषण करने का अधिकार नहीं है।"
संदर्भ
- राष्ट्रीयता और समाजवाद
- विकिपीडिया
- कुछ फुटकर नोट
लेखक परिचय
सुनील कुमार कटियार
जनवादी चिंतक
एम० ए० अर्थशास्त्र, उत्तर- प्रदेश सहकारी फेडरेशन से सेवानिवृत्त
स्थानीय पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित
जनवादी लेखक संघ, उत्तर-प्रदेश की राज्यपरिषद के सदस्य
मोबाइल- ७९०५२८२६४१, ९४५०९२३६१७
ईमेल- Sunilkatiyar57@gmail.com
एम० ए० अर्थशास्त्र, उत्तर- प्रदेश सहकारी फेडरेशन से सेवानिवृत्त
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जनवादी लेखक संघ, उत्तर-प्रदेश की राज्यपरिषद के सदस्य
मोबाइल- ७९०५२८२६४१, ९४५०९२३६१७
ईमेल- Sunilkatiyar57@gmail.com
सुनील जी,आचार्य नरेन्द्रदेव के बहुआयामी व्यक्तित्व और गहरी सोच से परिचित कराता आपका आलेख उत्तम है। उनकी यह बात उनके गहन अध्ययन का सूचक है कि किसी भी सिद्धांत (समाजवाद) को लागू करने के लिए उस स्थान-विशेष की संस्कृति और मानस को समझना और ध्यान में लेना बहुत आवश्यक है। समाज, संस्कृति, साहित्य, भाषा जैसे विविध क्षेत्रों में सफलतापूर्वक काम करने वाले आचार्य नरेन्द्रदेव को नमन और आपको इस सार्थक लेख के लिए साभार बधाई।
ReplyDeleteसुनील जी, स्वंत्रता सेनानी, भाषाविद, शिक्षाविद और समाजवाद के पितामह आचार्य नरेन्द्रदेव के जीवन और कार्यों से रूबरू करवाने के लिए धन्यवाद। उनकी सादगी, त्याग, आधा वेतन सामाजिक कार्यों के लिए दे देना तथा उनके कार्य प्रेरणास्रोत हैं। इतने अच्छे आलेख के लिए आपको बधाई।
ReplyDeleteसुनील जी नमस्ते। आपने एक और बढ़िया लेख हम पाठकों तक पहुँचाया। आपके लेख के माध्यम से आचार्य नरेंद्र देव जी के जीवन एवं साहित्य सृजन को जानने का अवसर मिला। लेख बहुत व्यवस्थित एवं जानकारी भरा है। आपको इस उत्तम लेख के लिए हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteलाजवाब 👍👍
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