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पश्चिम बंगाल के मेदिनीपुर ज़िले के गाँव बीरसिंह के छोटे से घर में एक माँ और बेटा रहते थे। बेटा माँ की खूब सेवा करता था। एक दिन बातों ही बातों में बेटे ने माँ से कहा कि माँ मैं तुम्हारे लिए कुछ गहने बनवाना चाहता हूँ। तुम्हें किस प्रकार के गहने पसंद हैं? माँ बोली, "बेटा मुझे तीन तरह के गहने पसंद हैं। इस गाँव में गरीबी बहुत है, अस्तु गाँव वालों के खाने-पीने और रहने का कुछ प्रबंध करवा दे और स्कूल, दवाखाना भी नहीं है तो स्कूल और दवाखाना खुलवा दे, बस मुझे ये तीन प्रकार के गहने पसंद हैं।" आश्चर्यचकित बेटे ने मन ही मन माँ की इच्छा पूरी करने का संकल्प ले लिया। आगे चलकर माँ की ये तीनों इच्छाएँ पूरी की और ये तीनों गहने बनवाए। यही बेटा आगे चलकर महान संत ईश्वर चंद्र विद्यासागर कहलाया।
ईश्वर चंद्र विद्यासागर बंगाल के पुनर्जागरण के प्रमुख स्तंभ और नारी शिक्षा के प्रबल समर्थक थे। जहाँ एक ओर सभी का सम्मान करना, अपना काम स्वयं करना, यह शिक्षा उन्हें अपनी माता भगवती से मिली थी, वहीं दूसरी ओर पिता ठाकुरदास बंदोपाध्याय से शिक्षा की उपयोगिता, प्रगति के उपाय और परिश्रम की महत्ता का ज्ञान मिला, जिसे ग्रहण कर जीवन में भी उतारा। इनका जन्म सोमवार २६ सितंबर १८२० (आश्विन १२ बांग्ला वर्ष १२२७) को बीरसिंह गाँव हूगली (मिदनापुर ज़िला, पश्चिम बंगाल) में हुआ। विद्यासागर ने बेहद गरीबी में अपना बचपन बिताया, लेकिन गरीबी उनकी आत्मा को छू न सकी और न ही उन्हें उनके जीवन के लक्ष्यों को प्राप्त करने से ही रोक सकी। वे अपनी माताजी के हाथों का बुना हुआ साधारण सूती-वस्त्र ही पहनते थे। उनका विवाह चौदह वर्ष की आयु में दिनामनी देवी से हुआ और नारायण चंद्र नामक एक पुत्ररत्न प्राप्त हुआ।
शिक्षा
ईश्वर चंद्र एक मेधावी छात्र थे। ज्ञान के प्रति उनकी जिज्ञासा इतनी तीव्र थी कि वे स्ट्रीट लाइट के नीचे बैठकर पढ़ा करते थे क्योंकि उनके पास घर में जलाने के लिए गैस लैंप के पैसे नहीं थे। कहा जाता है कि ईश्वर चंद्र विद्यासागर ने कलकत्ता जाते समय मील-पत्थरों के लेबल का अनुसरण करके अंग्रेज़ी अंकों को सीखा। उनकी प्रारंभिक शिक्षा गाँव के ही विद्यालय से ही हुई थी। उच्च शिक्षा के लिए कलकत्ता के संस्कृत विद्यालय में गए। संस्कृत की शिक्षा के साथ-साथ वे अंग्रेज़ी की शिक्षा भी प्राप्त करते रहे। सन १८३९ में 'लौ कमिटी' की परीक्षा उत्तीर्ण करने पर उन्हें विद्यासागर की उपाधि मिली। उन्होंने १८२९ से १८४१ के दौरान संस्कृत कॉलेज में वेदांत, व्याकरण, साहित्य, रैतिक और स्मृति सीखी।
ईश्वरचंद्र विद्यासागर का हस्तलेख बहुत अच्छा था। इसलिए उन्हें मासिक छात्रवृति भी मिलती थी। इनके अलावा न्यायदर्शन की परीक्षा उत्तीर्ण करने पर सौ रूपए तथा संस्कृत काव्य रचना पर सौ रूपए का नगद पुरुस्कार भी मिला था। सन १८४१ में इक्कीस साल की उम्र में ईश्वर चंद्र ने फोर्ट विलियम कॉलेज के संस्कृत विभाग के विभागाध्यक्ष के रूप में सेवा प्रारंभ की। पाँच साल बाद १९४६ में विद्यासागर ने फोर्ट विलियम कॉलेज छोड़ दिया और संस्कृत कॉलेज में 'सहायक सचिव' के रूप में शामिल हो गए। लेकिन एक साल बाद ही उन्होंने कॉलेज के सचिव, रसोमॉय दत्ता के साथ गंभीर बदलाव किए, जिसमें उन्होंने प्रशासनिक बदलावों की सिफारिश भी की।लेकिन अधिकारियों द्वारा मना किए जाने पर पद से इस्तीफा दे दिया और इस बार प्रधान लिपिक के रूप में फोर्ट विलियम कॉलेज वापस चले गए। जाने से पहले उन्होंने एक शर्त रखी कि उन्हें बदलाव करने की अनुमति दी जाए। १८५५ में उन्होंने विशेष निरीक्षक के रूप में जिम्मेदारियों को संभाला और शिक्षा की गुणवत्ता की देखरेख के लिए उन्होंने बंगाल के सुदूर गाँवों की यात्रा भी की। ईश्वरचंद्र विद्यासागर 'ब्रह्म समाज' नामक संस्था के भी सदस्य थे।
ईश्वर चंद्र विद्यासागर ने अपने जीवनकाल में बेबाकी और निडरता से न केवल ब्रिटिश हुकूमत को आईना दिखाया, बल्कि बंगाल के जन-जन खासकर युवा वर्ग को स्वावलंबन और आत्मनिर्भरता की सीख भी दी। जब वे संस्कृत कॉलेज के प्रिंसिपल थे तो एक दिन किसी कार्य के सिलसिले में एक अंग्रेज़ अधिकारी से मिलने उसके दफ़्तर गए। तब अंग्रेज़ अधिकारी भारतीयों के साथ बेहद अशिष्टता से पेश आते थे। विद्यासागर वहाँ पहुँचे तो वह अधिकारी उनके सामने जूते पहने मेज पर पैर रखे बैठा रहा। उस दिन तो वे अपना काम निपटाकर चुपचाप वहाँ से चले आए। संयोगवश कुछ दिनों बाद उसी अंग्रेज़ अधिकारी को किसी काम से विद्यासागर के पास उनके संस्कृत कॉलेज में आना पड़ा। अंग्रेज़ पहुँचा तो उस समय विद्यासागर ने चप्पल पहन रखी थी। वे चप्पल पहने अपने दोनों पैर मेज़ पर रखकर अंग्रेज़ अधिकारी के सामने बैठे रहे। इस पर उस अधिकारी को बहुत गुस्सा आया। वहाँ से वापस लौटकर उसने उनकी इस हरकत की शिकायत अपने वरिष्ठ अधिकारियों से कर दी। मामला उच्च अधिकारियों के पास पहुँचने के बाद विद्यासागर से इसका जवाब माँगा गया। विद्यासागर ने अपनी सफाई में जो जवाब ब्रिटिश हुकूमत को दिया, उसे सुनकर अंग्रेज़ अधिकारियों की सारी हेकड़ी निकल गई।
विद्यासागर ने कहा कि जब मैं इन्हीं महोदय से मिलने के लिए इनके दफ़्तर गया था, तो ये जूते पहने मेज़ पर अपने दोनों पैर रखे मेरे सामने बैठे थे। इसीलिए मुझे लगा कि शायद यही आप लोगों के शिष्टाचार का तरीका है। इसी कारण मैंने इनके अभिवादन के लिए शिष्टाचार का यही तरीका अपनाया। उनका यह जवाब सुनकर अंग्रेज़ अधिकारी बहुत शर्मिंदा हुए और उन्होंने विद्यासागर से माफी भी माँगी।
ईश्वर चंद्र के बारे में मशहूर था कि वे समय के बड़े पाबंद थे। एक बार उन्हें लंदन में आयोजित एक सभा में भाषण देना था। जब वे सभागार के बाहर पहुँचे तो देखा काफी लोग बाहर खड़े हैं। क्योंकि सभागार के सफाई कर्मचारी नहीं पहुँचे थे। उन्होंने बिना देर किए हाथ में झाड़ू उठाई और सफाई में लग गए। उन्हें देखकर वहाँ मौजूद लोग भी सफाई में लग गए। थोड़ी ही देर में पूरा हॉल साफ हो चुका था। इसके बाद विद्यासागर ने वहाँ भाषण दिया जिसमें मौजूद लोगों से कहा, "स्वावलंबी बनिए, हो सकता है कि इस सभागार के सफाई कर्मचारी किसी कारणवश न आ सके हों तो क्या ये कार्यक्रम नहीं होता? जो लोग इतना श्रम करके यहाँ हैं उनका समय व्यर्थ हो जाता?" उनके भाषण पर लोगों ने जबरदस्त तालियाँ बजाईं। ये वह समय था जब भारत में ब्रिटिश हुकूमत थी और ईश्वर चंद्र ब्रिटिश लोगों को उनकी धरती पर जीवन के कायदे समझा रहे थे।
सामाजिक कार्य
ईश्वर चंद्र विद्यासागर ने विधवा पुनर्विवाह की अवधारणा शुरू की और बाल-विवाह और बहुविवाह प्रथा के उन्मूलन का मुद्दा उठाया। उन्होंने निम्न जाति के छात्रों के लिए कॉलेजों व अन्य शैक्षणिक संस्थानों के दरवाजे खोले जो पहले केवल ब्राह्मणों के लिए आरक्षित किए गए थे। वर्णमाला की उनकी पहली पुस्तक 'वर्ण परिचय' (बोर्नो पोरिचोय, भाग १ एवं २) है, जो अभी भी बंगाली-अक्षर सीखने के लिए परिचयात्मक पाठ के रूप में उपयोग की जाती है। उन्होंने बांग्ला गद्य की आधारशिला रखी और अनगिनत संस्कृत कृतियों का बांग्ला भाषा में अनुवाद किया। उन्होंने बंगाल के सभी ज़िलों में बीस ऐसे आदर्श विद्यालय खोले जिसमें विशुद्ध भारतीय शिक्षा दी जाती थी।
इन्होंने अपने समय में अनेक क्षेत्रों में सुधार किए। जिसमें शैक्षिक सुधार, सामाजिक सुधार, महिलाओं की स्थिति में सुधार शामिल है। उनका मानना था कि बालिकाओं को बालकों के समान शिक्षा पाने का अधिकार है, जिसके लिए उन्होंने अथक प्रयास किए। घर-घर जाकर परिवारों के प्रमुखों से अनुरोध किया कि वे अपनी बेटियों को स्कूलों में दाखिला लेने दें। उन्होंने संथाल लड़कियों के लिए सबसे पहला औपचारिक विद्यालय प्रारंभ किया जो हमारे देश का संभवतः पहला औपचारिक बालिका विद्यालय था। उन्होंने इन आदिवासी लोगों के लिए चिकित्सा प्रदान करने हेतु एक निशुल्क होम्योपैथी क्लिनिक खोला। उन्होंने जनजातीय आबादी के वयस्कों को भी शिक्षित करने की कोशिश की। उन्हें जनजातीय समाज द्वारा भगवान की तरह पूजा जाता था। उन्होंने पूरे बंगाल में महिलाओं के लिए ३५ स्कूल खोले और १३०० छात्रों के नामांकन में सफल रहे। यहाँ तक कि उन्होंने नारी शिक्षा भंडार की शुरुआत की, जो नारी शिक्षा हेतु सहायता देने के लिए एक कोष था। उन्होंने ७ मई १८४९ को बेथ्यून स्कूल, भारत में पहले स्थायी कन्या विद्यालय की स्थापना की। जिसके लिए जॉन इलियट ड्रिंकवाटर बेथ्यून ने अपना समर्थन दिया था। वे बालिका शिक्षा को प्रोत्साहन देने के लिए मेहनती और मेधावी छात्राओं को पुरस्कार भी दिया करते थे। उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय से सबसे पहले एम० ए० की परीक्षा उत्तीर्ण करने वाली चंद्रमुखी बोस को पुरस्कार भी दिया था।
ईश्वर चंद्र विद्यासागर ने जुलाई १८५६ में हिंदू विधवा-पुनर्विवाह का कानून पारित करवाया। खुद विद्यासागर ने अपने बेटे का विवाह एक विधवा से करवाया था। उन्होंने ब्राह्मणवादी सोच को चुनौती दी और साबित किया कि वैदिक शास्त्रों द्वारा विधवा पुनर्विवाह को मंजूरी दी जाती है।
उन्होंने वैदिक शास्त्रों के साथ-साथ यूरोपीय इतिहास, दर्शन और विज्ञान के पाठ्यक्रम पेश किए। उन्होंने छात्रों को इन विषयों को आगे बढ़ाने और दोनों दुनिया से सर्वश्रेष्ठ लेने के लिए प्रोत्साहित किया। उन्होंने गैर-ब्राह्मण छात्रों को प्रतिष्ठित संस्थान में दाखिला लेने की अनुमति देते हुए संस्कृत कॉलेज में छात्रों के लिए प्रवेश के नियमों में बदलाव किया। वे बंगाल पुनर्जागरण के एक प्रमुख व्यक्ति थे, जो राजा राम मोहन राय के साथ मिलकर समाज के पारंपरिक मानदंडों को चुनौती देने वाले पहले भारतीयों में से एक थे।
लेखकीय भूमिका
विद्यासागर एक जाने-माने लेखक, बुद्धिजीवी और मानवता के एक कट्टर अनुयायी थे। वे बंगाल की शिक्षा प्रणाली में एक क्रांति लेकर आए। विद्यासागर ने बांग्ला भाषा को परिष्कृत किया और इसे समाज के आम तबके के लिए सुलभ बनाया। उन्होंने दो पुस्तकें 'उपकारामोनिका' और 'बयाकरन कौमुदी' लिखीं, जो आसान सुगम्य बंगाली भाषा में संस्कृत व्याकरण की जटिल धारणाओं की व्याख्या करती हैं। उन्होंने ५२ पुस्तकों की रचना की है, जिनमें १७ संस्कृत में, पाँच अँग्रेज़ी भाषा में, शेष बंगला में हैं। जिन पुस्तकों से उन्होंने विशेष साहित्यकीर्ति अर्जित की, वे 'वैतालपंचविंशति', 'शकुंतला' तथा 'सीतावनवास' हैं। उन्होंने कलकत्ता में पहली बार प्रवेश शुल्क और ट्यूशन शुल्क की शुरुआत की। उन्होंने अपने आदर्शों को नियमित लेखों के माध्यम से प्रसारित किया जो उन्होंने पत्रिकाओं और समाचार पत्रों के लिए लिखे थे। वे 'तत्त्वबोधिनी पत्रिका', 'सोमप्रकाश', 'सर्बशुभंकरी पत्रिका' और 'हिंदू पैट्रियट' जैसे प्रतिष्ठित पत्रकार प्रकाशनों से जुड़े थे। उन्होंने सस्ती कीमतों पर मुद्रित पुस्तकों का उत्पादन करने के उद्देश्य से संस्कृत प्रेस की स्थापना की, ताकि आम लोग उन्हें खरीद सकें।
ईश्वर चंद्र विद्यासागर ने अपने जीवन के अंतिम १८ वर्ष व्यतीत करने के लिए कर्माटांड का चयन किया था। उन्होंने अपने निवास स्थान का नाम 'नंदन कानन' रखा था। करमाटांड में वे केवल संथालों के साथ रहे ही नहीं बल्कि उनके सामाजिक उत्थान के लिए भी काफी प्रयास किया।
ईश्वर चंद्र विद्यासागर को जनवरी १८७७ में इंपीरियल असेंबल में सम्मान का प्रमाण पत्र मिला। १८८० में सी० आई० ई० का सम्मान मिला। २००४ के एक सर्वेक्षण में उन्हें 'अब तक का सर्वश्रेष्ठ बंगाली' माना गया था। अपनी विशाल उदारता और सहृदयता के कारण लोग उन्हें 'दयासागर' (दया के सागर) के रूप में संबोधित करने लगे। टैगोर ने उन्हें 'आधुनिक बांग्ला गद्य का पिता' कहा है।
ईश्वरचंद्र विद्यासागर का कहना था कि कोई भी व्यक्ति अच्छे कपडे़ पहनने, अच्छे मकान में रहने तथा अच्छा खाने से ही बड़ा नहीं होता बल्कि अच्छे काम करने से बड़ा होता है। ७० वर्ष की उम्र में २९ जुलाई १८९१ को उनका निधन हो गया। उनकी मृत्यु के बाद रवींद्रनाथ टैगोर ने कहा, "लोग आश्चर्य करते हैं, कैसे ईश्वर ने, चालीस लाख बंगालियों में, एक मनुष्य को पैदा किया!"
उनकी मृत्यु के बाद, विद्यासागर के निवास 'नंदन कानन' को उनके बेटे ने कोलकाता के मलिक परिवार को बेच दिया। इससे पहले कि 'नंदन कानन' को ध्वस्त कर दिया जाता बंगाली एसोसिएशन बिहार ने घर-घर से एक-एक रुपया अनुदान एकत्रित कर २९ मार्च १९७४ में खरीद लिया। बालिका विद्यालय पुनः प्रारंभ किया गया जिसका नामकरण विद्यासागर के नाम पर किया गया। वहाँ का निशुल्क होम्योपैथिक क्लिनिक स्थानीय जनता की सेवा कर रहा है। विद्यासागर के निवास स्थान के मूल रूप को आज भी व्यवस्थित रखा गया है। सबसे बेशकीमती संपत्ति १४१ साल पुराने 'पालकी' है जिसे खुद विद्यासागर जी द्वारा प्रयोग किया जाता था।
कवि माइकल मधुसूदन दत्ता का ईश्वर चंद्र के बारे में कहना है, "एक प्राचीन ऋषि की प्रतिभा और ज्ञान, एक अंग्रेज़ की ऊर्जा और एक बंगाली माँ का दिल उनके पास है।"
ईश्वर चंद्र विद्यासागर : जीवन परिचय |
जन्म | २६ सितंबर १८२०, वीरसिंह गाँव, हुगली |
निधन | २९ जुलाई १८९१ |
माता | भगवती देवी |
पिता | ठाकुरदास बंदोपाध्याय |
पत्नी | दिनामनी देवी |
पुत्र | नरायणचंद्र |
शिक्षा | कलकत्ता संस्कृत विद्यालय, फोर्ट विलियम कॉलेज से लॉ |
लेखन |
मौलिक ग्रंथ | संस्कृत भाषा आरु संस्कृत साहित्य बिषयक प्रस्ताब (१८५३) बिधबा बिबाह चलित हओया उचित किना एतद्बिषयक प्रस्ताब (१८५५) बहुबिबाह रहित हओया उचित किना एतद्बिषयक प्रस्ताब (१८७१) अति अल्प हइल (१८७३) आबार अति अल्प हइल (१८७३) ब्रजबिलास (१८८४) रत्नपरीक्षा (१८८६) प्रभावती सम्भाषण (सम्बत १८६३) जीवन-चरित (१८९१ ; मरणोपरांत प्रकाशित) शब्दमञ्जरी (१८६४) निष्कृति लाभेर प्रयास (१८८८) भूगोल खगोल बर्णनम् (१८९१ ; मरणोपरांत प्रकाशित)
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शिक्षामूलक ग्रंथ | |
संपादित ग्रंथ | अन्नदामङ्गल (१८४७) किरातार्जुनीयम् (१८५३) सर्वदर्शनसंग्रह (१८५३-५८) शिशुपालबध (१८५३) कुमारसम्भवम् (१८६२) कादम्बरी (१८६२) वाल्मीकि रामायण (१८६२) रघुवंशम् (१८५३) मेघदूतम् (१८६९) उत्तरचरितम् (१८७२) अभिज्ञानशकुन्तलम् (१८७१) हर्षचरितम् (१८८३) पद्यसंग्रह प्रथम भाग (१८८८; कृत्तिबासी रामायण से संकलित) पद्यसंग्रह द्बितीय भाग (१८९०; रायगुणाकर भारतचन्द्र रचित अन्नदामङ्गल से संकलित)
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अनुवाद | हिंदी से बांग्ला संस्कृत से बांग्ला शकुन्तला (दिसंबर १८५४; कालिदास के अभिज्ञानशकुन्तलम् पर आधारित) सीतार बनबास (१८६०; भवभूति के उत्तररामचरित और वाल्मीकि रामायण के उत्तराकांड पर आधारित) महाभारतर उपक्रमणिका (१८६०; वेद व्यास के मूल महाभारत की उपक्रमणिका अंश पर आधारित) बामनाख्यानम् (१८७३; मधुसूदन तर्कपञ्चानन रचित ११७ श्लोकों का अनुवाद)
अंग्रेजी से बांग्ला बाङ्गालार इतिहास (१८४८; मार्शम्यान कृत हिष्ट्री ऑफ बेङ्गाल पर आधारित) जीवनचरित (१८४९; चेम्बार्छ के बायोग्राफिज पर आधारित) नीतिबोध (प्रथम सात प्रस्ताव - १८५१; रबार्ट आरु उइलियाम चेम्बार्चर मराल क्लास बुक अवलम्बनत रचित) बोधोदय (१८५१; चेम्बा)
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अंग्रेजी ग्रंथ | |
सम्मान |
ईश्वरचंद विद्यासागर नामक स्मारक करमाटांड़ स्टेशन का नाम 'विद्यासागर रेलवे स्टेशन' विद्यासागर सेतु विद्यासागर मेला (कोलकाता औ बीरसिंह में) विद्यासागर महाविद्यालय विद्यासागर विश्वविद्यालय (पश्चिम मेदिनीपुर ज़िला) विद्यासागर मार्ग (मध्य कोलकाता में) विद्यासागर क्रीडाङ्गन (विद्यासागर स्टेडियम) भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान खड़गपुर में विद्यासागर छात्रावास १९७० और १९९८ में उनकी स्मृति में डाक टिकट जारी किया गया।
![](https://lh3.googleusercontent.com/7_D-F8-uGravzJr3IJkev9V-sggQT2zSV7IWLEPktFIlz8a5Uv3fmGYgPBk5lvJ3vu6feRNu1f3vShCPe-zF4KJRyvwa9gXLM3lflQl3BV8_GuthhAw_Fd0YMIxErX7Uei3zhGkWpilE)
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संदर्भ
लेखक परिचय
संतोष भाऊवाला
इनकी कविता-कहानियाँ कई पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं, जिनमें से कई पुरस्कृत भी हैं। ये कविता, कहानी, ग़ज़ल, दोहा आदि लिखती हैं। रामकाव्य पियूष व कृष्णकाव्य पियूष तथा अन्य कई साँझा संकलन प्रकाशित हुए हैं।
मनभावन और शिक्षाप्रद लेख ।अभिनंदन।
ReplyDeleteसंतोष जी, आपने ईश्वर चंद विद्यासागर की जीवन यात्रा और उनके कामों की सुंदर झलकी अपने आलेख के माध्यम से पेश की । उनके तेवर और विचार की खूब उभर कर सामने आए हैं । सुंदर लेखन के लिए बधाई और आभार स्वीकार करें । शुभकामनाओं सहित ।
ReplyDeleteईश्वर चन्द विद्यासागर के बारे में विस्तृत जानकारी प्राप्त हुई। आपके इस लेख में विद्यासागर जी की प्रतिभा,सामाजिक कार्य से परिचय मिला। हार्दिक बधाई, संतोष जी 🙏💐
ReplyDeleteसंतोष जी नमस्ते। आपने ईश्वर चंद्र विद्यासागर जी पर बहुत जानकारी भरा लेख लिखा। वो सामाजिक पुनर्जागरण के प्रमुख स्तम्भ रहे हैं। जिस प्रकार उनका सामाजिक योगदान अविस्मरणीय है उसी प्रकार उनका साहित्यिक योगदान भी अतुलनीय है। उन्होंने मौलिक सृजन एवं अनुवाद का विशाल साहित्य भंडार समाज को दिया। आपने उनके सामाजिक एवं साहित्यिक योगदान को रोचक रूप में लेख में प्रस्तुत किया। आपको इस शोधपरक लेख के लिए हार्दिक बधाई।
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