Sunday, January 30, 2022

साहित्य के अमर दीपस्तंभ : श्री जयशंकर प्रसाद

 


साहित्यमार्ग के प्रेमी पथिकों, 

यह मेरा अहोभाग्य है कि मुझे आपको दुनिया की सबसे प्राचीन जीवित नगरी, पुण्य-भूमि काशी में रहने वाली एक महान विभूति के बारे में कुछ बताने का अवसर मिला है। माँ गंगा के पावन तट पर बसी इस नगरी ने न जाने कितने साहित्य रत्न, महान भक्त, वाद्य और सुरों पर अपनी मधुर स्वर-लहरी छेड़ने वाले संगीतज्ञ दिए हैं, उन असंख्य लोगों की गिनती बहुत कठिन है। उनमें से जिस एक महान विभूति के बारे में आज हम बात करने जा रहे हैं, वे हैं - छायावाद के संस्थापक माने जाने वाले और उसके चार स्तंभों में से एक सुदृढ़ स्तंभ - श्री यशंकर प्रसाद जी। आज उनका जन्मदिन है। उनका जन्म आज से १३३ वर्ष पूर्व १८८९ की ३० जनवरी को सुबह चार बजे काशी की धरती पर हुआ था और केवल अड़तालीस वर्ष की अल्पायु में, नवंबर १५, १९३७ सुबह चार बजे ही वे काशी की धरती से परलोक को प्रयाण कर गए। इस कम आयु में परिवार के दायित्व का निर्वहन करते हुए भी उन्होंने ऐसा मार्मिक, रोचक, सुंदर, विविध और उदात्त साहित्‍य लिखा कि साहित्य के इतिहास में एक नए युग का प्रारंभ हो गया।

प्रसाद जी के व्यक्तित्व और उनके विशाल लेखन संसार को समझना आसान काम नहीं। उनके लेखन का विशाल भवन या प्रासाद ऐसा है, जहाँ लेखक के भाव किसी एक धारा या विधा पर आधारित नहीं और न ही एक-सा संदेश या भावभूमि है, बहुत विविधता है यहाँ। इस विशालकाय भवन में ८ कविता-संग्रह और एक महाकाव्यात्मक निधि- कामायनी, ५ कहानी संग्रह, १३ पूर्ण और एक अपूर्ण नाटक, तीन उपन्यास और अनेक निबंध हैं, जो अपनी विभिन्न भावनिधियों, ऐतिहासिक दृश्यों, प्रेम के सुंदर चित्रों से पाठकों के मन के रथ को थाम लेते हैं, इस प्रासाद में 'प्रसाद' जी के जीवन दर्शन की उदात्त सांस्कृतिक धारा का बहता शांत जल है, तो देश-प्रेम के उतुंग शिखर भी हैं, इसकी दीवारों पर स्त्री-मनोभावों की सूक्ष्म नक्काशी है, तो पुरुष हृदय के आलोड़न और परिवर्तन की विशाल मूर्तियाँ भी हैं, अब ऐसे प्रासाद में भला कौन सहृदय सबकुछ भूल कर कुछ देर बैठना न चाहेगा ? वे तो कहते भी हैं -

तुमुल कोलाहल कलह में, मैं हृदय की बात रे मन।

विकल होकर नित्य चंचल, खोजती जब नींद के पल

चेतना थक सी रही तब, मैं मलय की वात रे मन। 

तो चलिए, आज साहित्य के इस महर्षि के लेखन प्रासाद में कुछ समय बिताते हैं और अपनी चेतना जागृत करते हुए, उनके भाव-समुद्र में गोता लगाते हैं, लेकिन इस भवन तक पहुँचने के लिए आपको उनके जीवन की उस गली तक पहले चलना होगा, जहाँ से प्रसाद जी का जीवन शुरू हुआ था।

यह गली जो आप देख रहे हैं न, जिसके बाहर एक छोटे से पट्ट पर 'जयशंकर प्रसाद, सुँघनी साहू' लिखा है। वह गली सरायगोवर्धन मोहल्ले को जाती है, जहाँ प्रसाद जी का जन्म हुआ था। विशाल कोठी हुआ करती थी, आज भी लगभग दो एकड़ के क्षेत्र में 'प्रसाद भवन' न्यास है। वे यहाँ रहते थे, शहर के सबसे धनी, काशी नरेश के बाद काशी की जनता से प्रेम और सम्मान पाने वाले - उनके बाबा बाबू शिवरतन साहू और पिता बाबू देवीप्रसाद जी! दोनों ही बहुत दानी थे। सुँघनी का विशाल व्यापार था। इन्हीं बाबू देवीप्रसाद जी और मुन्नी देवी के पुत्र थे जयशंकर प्रसाद जी, पर भाग्य का खेल देखिए, मात्र ११ वर्ष के थे कि पिता का देहांत हो गया, १५ वर्ष के हुए तो माता का देहांत हो गया। बड़े भाई-भाभी ने व्यापार और घर संभाला। इन्हें भी अपनी स्कूली शिक्षा सातवीं के बाद रोक कर व्यापार में हाथ बँटाने के लिए भाई के साथ काम करना पड़ा। लेकिन दुर्भाग्य अभी समाप्त नहीं हुआ था। मात्र १७ वर्ष के थे, तो पिता समान भाई की मृत्यु हो गई। बड़ा व्यापार हो और सँभालने वाला कच्ची उम्र का हो, तो क्या होता है? हम सभी जानते हैं। विधवा भाभी और छोटी उम्र के प्रसाद जी के आसपास के रिश्तेदारों, कर्ज़दारों और धन हड़पने वालों की भीड़ जुट गई। आप उनकी आर्थिक स्थिति को इस प्रकार समझ सकते हैं कि बताया जाता है, जब बाबू देवी प्रसाद जी का देहांत हुआ था, तब उन पर एक लाख रुपया कर्ज़ा था। प्रसादजी की अमीरी के बारे में कहा जाता है कि "कहाँ तो उनके दरवाज़े हाथी बँधते थे और कहाँ गरीबी का संकट …" पर प्रसाद जी ने हार नहीं मानी। अपने दायित्व को समझा और कमर कसकर जुट गए व्यापार सँभालने में। सामान बिके पर सम्मान नहीं जाने दिया, आर्थिक संकट झेला पर धर्म के मार्ग से न डोले और धीरे-धीरे करके इस डोलती नाव को वे भँवर से निकाल ले गए।

घर पर ही इनकी पढ़ाई भी चलती रही। संस्कृत सीखने के लिए तीन उद्भट विद्वान इनके गुरु बने - मोहिनीलाल गुप्त 'रसमय सिद्ध जी', गोपाल बाबा और श्री दीनबंधु बह्मचारी। इनके माध्यम से वैदिक संस्कृत, पुराणों आदि का पूरा ज्ञान उन्होंने प्राप्त किया। उनके इतिहास, पुराण और प्राँजल भाषा के पीछे इन प्राध्यापकों के अतिरिक्त उनके काव्य-गुरू कहे जाने वाले महामहोपाध्याय पं० देवीप्रसाद शुक्ल कवि-चक्रवर्ती की प्रेरणा भी कही जा सकती है। नौ वर्ष के थे, तो कवित्त लिखने का शौक प्रारंभ हो गया था। बही के कागज़ों के पीछे कवित्तों की बढ़ती संख्या पर भाई से डाँट पड़ी, तो 'कलाधर' नाम से लिखने लगे। पहली कविता 'सावक पंचक' १९०६ में 'भारतेंदु' पत्रिका में छपी। और इस तरह उनकी लेखन यात्रा चल पड़ी और फिर वे अनेक विधाओं में लिखते चले गए और उनकी रचनाएँ प्रकाशित होती गईं।

आइए अब चलें और देखे इस विशाल साहित्य प्रासाद के भीतर, जिसमें अनेक भव्य कक्ष हैं। इसका पहला कक्ष है, काव्य का। उनके काव्य में प्रकृति है - 'बीती विभावरी जाग री' जैसा भोर का सुंदर राग है, तो जगह-जगह यह सदिच्छा दिखाई देती है - 

सबका निचोड़ लेकर तुम

सुख से सूखे जीवन में। 

बरसों प्रभात हिमकन-सा

आँसू इस विश्व सदन में॥ (आँसू) 

कहीं दर्शन है - 

माना जीवन वेदी पर

परिणय हो विरह मिलन का

दुख-सुख दोनों नाचेंगे

है खेल आँख का मन का॥ 

और कहीं कोलाहल से भरी अवनी को छोड़ कर कुछ देर शांति की जगह जाने की चाह भी है -

ले चल मुझे भुलावा देकर

मेरे नाविक! धीरे-धीरे 

उनकी इस कविता को पलायनवादी मान कर उन पर आरोप लगाने वालों ने बहुत शोर मचाया। वे भूल गए कि प्रसाद जी ने ही यह गीत भी लिखा है - 

हिमाद्रि तुंग शृंग से, प्रबुद्ध शुद्ध भारती

स्वयंप्रभा समुज्ज्वला, स्वतंत्रता पुकारती। 

अमृत्य वीर पुत्र हो, दृढ़ प्रतिज्ञ सोच लो, 

प्रशस्त पुण्य पंथ हो, बढ़े चलो,बढ़े चलो

प्रसाद जी की अनेक कविताएँ वेदना से भीगी हैं। प्रेम की चाह है, पर प्राप्ति नहीं। उनके निजी जीवन में प्रेम का स्थायित्व नहीं हो पाया। पहली पत्नी विंध्यवासिनी देवी आठ वर्ष बाद क्षय रोग से ग्रस्त होकर चल बसी, साल भर बाद २७ वर्ष की आयु में पुनः विवाह किया, तो सरस्वती देवी दो वर्ष बाद प्रसूति के समय क्षय रोग से ईहलीला समाप्त कर गईं। भाभी के आग्रह से तीसरी बार विवाह किया। कमलादेवी और जयशंकर प्रसाद जी का यह साथ प्रसाद जी के अंत तक, क्षय रोग से जाने तक चला। इन्हीं के साथ उन्हें इकलौती संतान रत्नशंकर की प्राप्ति हुई। भाग्य के मिलन-विरह के इस खेल पर भी उन्होंने बहुत कुछ लिखा है, एक बानगी देखिए - 

अरे कहीं देखा है तुमने

मुझे प्यार करने वालों को? 

मेरी आँखों में आकर 

आँसू बन ढरने वालों को? 

मुक्तिबोध लिखते हैं - "प्रसाद जी वस्तुतः अंतर्मुखी कवि हैं। वे भावों को इस प्रकार अनुभूत करते हैं, इस तरह पहचानते हैं, जैसे हम अपने घर की भींत, टेबिल, दवात, छड़ी आदि वस्तुएँ अच्छी तरह जानते हैं। भाव मानव-प्रसंगों के बीच पैदा होते हैं। जिस प्रकार मानव-प्रसंग उलझे हुए होते हैं, उसी तरह भाव भी। भाव चाहें जितने ग्रंथिल क्यों न हों, प्रसाद में ऐसी विश्लेषण प्रधान मर्म-दृष्टि थी कि जो उन भावों को, सारी जटिलता और समग्रता के साथ, किंतु फिर भी जहाँ तक बने वहाँ तक सरलीकृत रूप में, विश्लेषित और संश्लेषित रूप में चित्रित करती थी।" (मुक्तिबोध ग्रंथावली - भाग ५,पृष्ठ-४४८)  

अब इसी कक्ष के भीतर बने इस विशाल प्रासाद को देखिए। इसका नाम है, "कामायनी"- हिंदी साहित्य का एक अमर ग्रंथ। जानते हैं, तुलसी बाबा की रामचरितमानस के बाद अगर हिंदी साहित्य में किसी और ग्रंथ की मीमांसा हुई है, तो वह है यही "कामायनी" जिसपर केवल दिल्ली विश्वविद्यालय से ही लगभग डेढ़ सौ से ऊपर शोध कार्य हो चुके हैं और अब भी शोध की जाने कितनी संभावनाएँ इसमें हैं। मनु, श्रद्धा और इड़ा की यह कहानी उसी तरह अनेक परतों को अपने में समेटे है, जिसकी ओर मुक्तिबोध ने संकेत किया था। हिंदी के लगभग सभी कवियों और आलोचकों ने 'कामायनी' पर लिखा है और लगभग सब की राय अलग-अलग है, जैसे - डॉ० नगेंद्र इसमें 'महाकाव्यात्मकता' देखते हैं, तो दिनकर जी ने लेख लिखा - 'कामायनी- दोषरहित-दूषण सहित', आचार्य नंद दुलारे वाजपेयी इसमें 'काव्य और मनोविज्ञान का संगम' देखते हैं और मुक्तिबोध इसे 'आधुनिक युग की वृत्तियों को प्रस्तुत करने वाली फ़ैंटेसी' के रूप में देखते हैं। पंत जी इसके कथ्य को 'दर्शन प्रस्तुति के लिए रंगमंच' मानते हैं और यह दर्शन था - शैव दर्शन का महत्वपूर्ण भाग - प्रत्यभिज्ञा दर्शन!

हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर, 

बैठ शिला की शीतल छाँह। 

एक पुरुष, भीगे नयनों से, 

देख रहा था प्रलय प्रवाह 

आप भी इस विशद काव्य की छाया में बैठ कर सोचिएगा कि आप इसे क्या मानते हैं? क्योंकि जब तक साहित्य प्रेमी रहेंगे, 'कामायनी' पर चर्चाएँ चलती रहेंगी। पर काव्य के इस कक्ष से पूरी तरह बाहर निकलने से पहले इस दीवार पर देखिए - प्रसाद जी काव्य के संबंध में क्या लिख गए हैं -

"काव्य आत्मा की संकल्पनात्मक अनुभूति है, जिसका संबंध विश्लेषण, विकल्प या विज्ञान से नहीं है। वह एक श्रेयमयी प्रेय रचनात्मक ज्ञानधारा है।" कह सकते हैं कि प्रसाद जी काव्य को शिव, सुंदर, सत्य और चारु बना कर ही ग्राह्य मानते थे।

अगला कक्ष है नाटकों का। इस कक्ष के भीतर आपको ऐतिहासिक कहानियों की आधारभूमि मिलेगी, इस कक्ष का चंदोबा राष्ट्रीय-साँस्कृतिक चेतना के सुनहरे तारों से बना है। हमारे देशप्रेम और मानवीय चेतना को जगाने वाले पात्र मिलेंगे, ध्रुवस्वामिनी जैसी स्वाभिमानी, साहसी स्त्री पात्र स्वाभिमान का शंखनाद करते दिखेंगे। कविता में जो दार्शनिक मन है, वह यहाँ पौरुष से तने, साहसी, कर्मठ तन का रूप ले लेता है। प्रसाद पर आरोप लगाया गया कि उनके नाटक रंगमंच के अनुकूल नहीं है, उन्हें पारसी नाटकों की तरह आसानी से खेला नहीं जा सकता। प्रसाद जी ने यह सुना तो हँस कर कहा, "रंगमंच को नाटकों के समान होना चाहिए, नाटक को रंगमंच के अनुरूप नहीं।" उन्होंने १३ पूर्ण नाटक लिखे थे। चौदहवॉं नाटक पूरा नहीं हुआ था कि वे नहीं रहे। लगभग सभी नाटकों की पृष्‍ठभूमि इतिहास है। हर नाटक के प्रारंभ में वे उस काल के मिले हुए ऐतिहासिक तथ्य और उन तथ्यों के आधार भी बताते हैं, जिससे उनके शोध की गहराई का पता लगता है। कुछ आलोचकों और साथी लेखकों को यह आपत्ति थी कि वे ऐतिहासिक नाटक ही क्यों लिखते हैं? इसका उत्तर वे 'अजातशत्रु' की भूमिका में देते हुए कहते हैं - 

"विश्व में कल्पना जब तक इयत्ता को प्राप्त नहीं होती, तब तक वह रूप परिवर्तन करके पुनरावृत्ति करती ही जाती है……इसलिए हम कहेंगे कि भारत के ऐतिहासिक काल का प्रारंभ धन्य है, जिसने संसार में पशु-कीट-पतंग से लेकर इंद्र तक के साम्यवाद की शंखध्वनि की थी। केवल इसी कारण हमें, अपना अतीव प्राचीन इतिहास रखने पर भी, यहाँ से इतिहास-काल का प्रारंभ मानने से गर्व होना चाहिए", भारतीयता के इस गर्व को वे हर गुलाम भारतीय हृदय में भर देना चाहते थे।

प्रसाद जी के हर नाटक में तत्कालीन स्थितियों के लिए कोई गहरा संदेश रहता था। पात्रों के नाम भी उनके चरित्र को बताते थे जैसे 'अजातशत्रु' नाटक की छलना जो अहंकार के कारण गृह-कलह का कारण बन रही है, वहीं भगवान बुद्ध करुणा का संदेश दे रहे हैं - 

निष्ठुर आदि-सृष्टि पशुओं की विजित हुई इस करुणा से 

मानव का महत्व जगती पर फैला अरुणा-करुणा से। 

वे वाक-संयम को विश्व मैत्री की पहली सीढ़ी बताते हैं। इसी तरह ध्रुवस्वामिनी के प्रारंभ से ही साम्राज्य को गूँगे, बहरे, कुबड़ों का राज्य कहा गया या 'प्राणों की क्षमता बढ़ा लेने पर वही काई जो बिछलन बन कर गिरा सकती थी अब दूसरों के ऊपर चढ़ने का अवलंबन बन गई है' कह कर संदेश दिया गया। इन नाटकों के गीत उस समय के गीतमय नाटकों के चलन की ओर तो इशारा करते ही हैं, पर इन ओजपूर्ण-भावपूर्ण कवित्तों और गीतों ने नाटकों को गति देने के साथ अपनी स्वतंत्र लोकप्रियता भी हासिल की है, जैसे ध्रुवस्वामिनी की ये पंक्तियाँ चंद्रशेखर आज़ाद जैसे स्वतंत्रता के मतवाले सिपाहियों को संबोधित करती लगतीं हैं

अपनी ज्वाला को आप पिये

नव नील कंठ की छाप लिए

विश्राम शांति को शाप दिए

ऊपर ऊँचे सब झेल चले। 

मुझे इस समय 'आज़ाद' क्यों याद आए? क्योंकि कहा जाता है कि वे कुछ दिनों प्रसाद जी के संरक्षण में ही अंग्रेज़ी सरकार से छिप कर रहे थे और प्रसाद जी ने ठीक से सुन न पाने का बहाना बना कर अंग्रेज़ी सरकार के ज्यूरी समूह में जाने से मना कर दिया था। घर-परिवार की अकेले ज़िम्मेदारी सँभालने वाले प्रसाद सशरीर स्वतंत्रता संग्राम में नहीं उतर पाए तो क्या, कलम से सोए भारतीय गौरव को जगा कर 'बढ़े चलो' का संदेश तो दे ही रहे थे। डॉ० रामविलास शर्मा ने भी इतिहास के माध्यम से तत्कालीन राजनैतिक स्थितियों को चुनौती देने वाले प्रसाद जी को पहचाना। छायावादी-रहस्यवादी कवि कह कर जो लोग उन पर तत्कालीन स्थितियों से कटे होने का आरोप लगाते हैं, उन्हें प्रसाद के नाटकों के गहन अध्ययन की आवश्यकता है।

अगला कक्ष है - उपन्यासों का। उन्होंने कुल तीन उपन्यास लिखे। तीसरा उपन्यास पूरा नहीं माना जाता। कहा गया कि मृत्यु ने उसे पूरा नहीं करने दिया। उनके पहले ही उपन्यास 'कंकाल' पर उनके नाटकों की ऐतिहासिकता से नाराज़, काशी के ही लमही में रहने वाले उपन्यास सम्राट प्रेमचंद ने लिखा था, "यह प्रसादजी का पहला ही उपन्यास है, पर आज हिंदी में बहुत कम ऐसे उपन्यास हैं, जो इसके सामने रक्खे जा सकें" 'तितली' में ग्राम-सुधार को देख कर प्रेमचंद जी ने फिर प्रशंसा की।

अब चलते हैं, उस कक्ष में जिसमें कहानियाँ ही कहानियाँ हैं। लगभग ७०-७२ कहानियाँ हैं यहाँ। उनकी पहली कहानी 'ग्राम' को बहुत से विद्वानों ने पहली आधुनिक कहानी माना है, जिसमें सामंती स्थितियाँ हैं, तो मनोवैज्ञानिक आयाम भी है। कुछ कहानियों पर प्रेम का रंग है, जैसे 'रसिया बालम', 'चूड़ीवाली', 'दासी', 'नूरी' आदि, स्त्री हृदय के मनोभावों का सूक्ष्म अंकन कई कहानियों में मिलता है, जैसे 'सालवती', तत्कालीन स्थितियों का सुंदर चित्रण करती हैं, 'विराम चिह्न' जैसी कहानियाँ जिसमें वृद्धा भिखारिन का बेटा राधे पैसे छीन कर ताड़ी पीता है और मंदिर में घुसकर भोग पाना चाहता है। शूद्र जातियों का ब्राह्मणों के प्रति बढ़ते क्रोध का एक उदाहरण इस कहानी से देखिए - "अकेले-अकेले बैठकर भोग-प्रसाद खाते-खाते बच्चू लोगों की चरबी बढ़ गई है।" कुछ कहानियों की भूमि पौराणिक-ऐतिहासिक भी है, पर प्रायः ये तत्कालीन सामाजिक और मनोवैज्ञानिक संदर्भों में मनुष्य के उदात्त जीवन-मूल्यों की स्थापना करती हैं। इन कहानियों की सबसे बड़ी विशेषता भावों का सूक्ष्म चित्रांकन है। इनके बिंब और ध्वनि, स्त्री-मन के उतार-चढ़ाव दिखाने की सधी भाषा ने इनके कहानीकार रूप को भी बहुत ख्याति दिलवाई। आचार्य रामचंद्र शुक्ल की पौत्री व साहित्यकार डॉ० मुक्ता के अनुसार अपनी कहानियों में प्रसाद जी काफी मुखर रहे। ममता और घींसू में महिलाओं की स्थिति से लोगों को दिलों को झकझोरा और ये कहानियाँ आज भी तर्कसंगत हैं।

इस प्रासाद का अंतिम कक्ष निबंध है। छायावाद, रस, काव्यकला और रहस्यवाद, आर्याव्रत और उसका प्रथम सम्राट आदि पर गंभीर चिंतन वाले ये लेख महत्वपूर्ण हैं। किताब रूप में ये प्रसाद जी के जाने के बाद प्रकाशित हुए। इसी कक्ष में आप उनके संपादक रूप के दर्शन भी कर लीजिए। 'जागरण' पत्र का नाम उन्हीं का दिया हुआ है और उन्होंने कुछ समय इसका संपादन किया भी, बाद में प्रेमचंद जी ने इसे सँभाला।

अब प्रासाद का यह खुला दालान देखिए, जो उनके खुले सात्विक जीवन का सा है। श्री रामनाथ सुमन जी ने लिखा है - "इनके यहाँ बेनी, शिवदा तथा अन्य कितने ही कवि आया करते थे और अक्सर समस्यापूर्ति एवं कविता पाठ का अखाड़ा आधी-आधी रात तक चलता रहता था। ठंडाई बन रही है, रसगुल्ले और मलाई की हँडिया भरी है, कहीं दंड-बैठक और कुश्ती का बाज़ार गर्म है, तो कहीं सभा चातुरी खिल-खिल हँस रही है, कहीं कवित्त पर कवित्त चल रहे हैं, तो कहीं पंडितों से ज्ञान चर्चा  हो रही है।" किसी कविता-साहित्य समारोह में न जाने वाले प्रसाद जी के घर ही मानों साहित्य की गंगा आ निकलती थी।   

प्रसादजी ने अनेक जगह से प्रकाशित होने वाली कृतियों से तथा प्रकाशन मानदेय या पुरस्कार की कोई धनराशि स्वीकार नहीं की। अपनी मेहनत से, अपने दुर्दिन और अभावों को समृद्धि में बदलने वाले और अल्पायु में भी हिंदी साहित्य को अमर कृतियाँ देने वाले यशस्वी प्रसाद जी हम सब के बीच सदैव एक 'प्रकाश स्तंभ' से खड़े हमें भाषा और राष्ट्र के गौरव-पथ पर आगे बढ़ने की प्रेरणा देते रहेंगे।  

सहृदयों, यह थी जयशंकर प्रसाद जी के विशाल साहित्यिक प्रासाद का एक छोटी सी झाँकी! आशा है, आपमें इनको अब और गहराई से जानने की इच्छा बलबती होगी ।


जयशंकर प्रसाद : जीवन परिचय

जन्म

३० जनवरी, १८८९

मृत्यु

१५ नवंबर, १९३७

पिता

बाबू देवी प्रसाद

माँ 

मुन्नी देवी

साहित्यिक रचनाएँ

काव्य

  • प्रेमपथिक 1909

  • झरना 1918

  • करुणालय 1913

  • महाराणा का महत्त्व 1914

  • चित्राधार 1918

  • कानन कुसुम 1913, पुनः प्रकाशन 1918

  • आँसू 1925

  • लहर 1935

  • कामायनी 1936

कहानी-संग्रह

  • छाया 1912

  • प्रतिध्वनि 1926

  • आकाशदीप 1929

  • आँधी 1931

  • इंद्रजाल 1936

उपन्यास

  • कंकाल 1929

  • तितली 1934

  • इरावती 1938

नाटक

  • उर्वशी (चम्पू) 1909

  • सज्जन 1910

  • कल्याणी परिणय 1912 नागरी प्रचारिणी पत्रिका में प्रकाशित; 1931 ई॰ में कुछ संशोधनों के साथ 'चन्द्रगुप्त' नाटक में समायोजित।

  • प्रायश्चित 1914

  • राज्यश्री 1915

  • विशाख 1921

  • अजातशत्रु 1922

  • जनमेजय का नागयज्ञ 1926

  • कामना 1927

  • स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य 1928

  • एक घूँट 1930

  • चंद्रगुप्त 1931

  • ध्रुवस्वामिनी 1933

  • अग्निमित्र (अपूर्ण)

निबंध

  • काव्य और कला तथा अन्य निबंध (छायावाद, रहस्यवाद, रस आदि 1939 (भारती भंडार, लीडर प्रेस, इलाहाबाद से प्रकाशित

संदर्भ

  • मुक्तिबोध रचनावली भाग-5
  • जयशंकर प्रसाद - काव्य और कला तथा अन्य निबंध
  • डॉ० नामवर सिंह : इतिहास और आलोचना - कामायनी के प्रतीक
  • नंददुलारे वाजपेयी : जयशंकर प्रसाद
  • डॉ० नगेंद्र : कामायनी के अध्ययन की समस्याएँ
  • कविता कोश व गद्य कोश

लेखक परिचय

शैलजा सक्सेना


शिक्षा : एम, (हिंदी), एमफिल, पीएचडी (दिल्ली विश्वविद्यालय), मानव संसाधन डिप्लोमा (ह्यूमन रिसोर्स मैनेजमेंट) (मैक मास्टर यूनिवर्सिटी, हैमिल्टन, कनाडा)

स्वतंत्र लेखन, "हिंदी राइटर्स गिल्ड" की सह-संस्थापक निदेशिका

हिंदी साहित्य सभा की आजीवन सदस्या और भूतपूर्व उपाध्यक्षा।

ईमेल : shailjasaksena@gmail.com फोन : 1-905-580-7341

19 comments:

  1. बहुत सुंदर सार्थक आलेख, प्रसाद के जीवन को साकार करता !
    लेखन शैली में प्रासाद की यात्रा पर ले चलने का अनूठा कौशल.
    प्रसाद साहित्य का समग्र आकलन, हार्दिक बधाई शैलजा !

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  2. दिव्य काशी के धरा धाम के अमर दीप स्तंभ महाकवि जयशंकर प्रसाद की व्यापी साधना का आभा मंडल और प्रभा मंडल हम सब तक पहुंचाने के लिए आदरणीया शैलेजा जी के प्रति कृतज्ञ।

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  3. 'प्रसाद प्रासाद' का सजीव दर्शन कराने में शैलजा को साधुवाद!
    प्रसाद जी के कुछ अनछुए पहलुओं को बखूबी 'हिन्दी से प्यार है- साहित्यकार तिथिवार' के माध्यम से हम सबको बोध कराया आपने। अनंत शुभकामनाएं

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  4. बहुत ही बढ़िया लेख । अभिनंदन।

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  5. बहुत अच्छी प्रस्तुति

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  6. भारतीय साहित्य के सर्वकालीन शिखर पुरुषों में से एक जयशंकर प्रसाद के बारे में विशद और समृद्ध लेख के लिए बधाई और साधुवाद। विभिन्न कक्षों की सुंदर परिकल्पना करते हुए शैलजा जी ने प्रसाद जी के साहित्य के व्यापक कलेवर को बखूबी शब्दों में ढाला है। क्या ही अद्भुत प्रतिभा के धनी थे प्रसाद जी, जिन्होंने जिस विधा में हाथ डाला उसी में कालजयी कार्य कर गए। काव्य में 'कामायनी' की कोई मिसाल नहीं मिलती जिसे आप महाकाव्य भी कह सकते हैं तो दर्शन, चिंतन तथा अध्यात्म की अनुपम कृति भी मान सकते हैं। काव्य भी ऐसा जिसमें कथा के तत्व भी मौजूद हैं। और भाषा के तो क्या कहने! आज की परिस्थितियों में यह कल्पना भी नहीं कर पाते कि वैसी विलक्षण अभिव्यक्ति और वैसे संस्कृतनिष्ठ, मधुर व प्रवाहमान भाषा फिर कभी पढ़ने को मिलेगी। नाटकों में ध्रुवस्वामिनी सहित 14 नाटकों का समृद्ध खजाना उन्होंने हम पाठकों को दिया और कहानी से लेकर उपन्यास तक में ऐसी रचनाएं लिख गए जिनका लोहा प्रेमचंद जैसे उपन्यास सम्राट ने भी माना। शैलजा जी के लेख में बहुत सारी नई जानकारियां मिलती हैं जिनमें प्रसाद जी के निजी जीवन का संघर्ष, अल्पायु में ही उनका चले जाना, पारिवारिक सीमाओं के बावजूद क्रांतिकारियों से जुड़ाव आदि शामिल है। शोधपूर्ण और महत्वपूर्ण लेख के लिए बधाई।

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  7. प्रसाद का वर्णन प्रसाद की सी शैली में वह अति सुंदर

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  8. महान साहित्यकार जयशंकर प्रसाद जी पर यह लेख समग्रता लिये हुये है। प्रसाद जी के साहित्य के विस्तार को एक लेख में शैलजा जी ने बखूबी उतार है। प्रसाद जी की ये पँक्तियाँ हर निराशा के क्षण में आशा का पथ दिखाती हैं।
    "दु:ख की पिछली रजनी बीच,
    विकसता सुख का नवल प्रभात"
    शैलजा जी को इस लेख के लिये हार्दिक बधाई।

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  9. साहित्य मार्ग के पथिक के रूप में श्री जयशंकर प्रसाद के प्रासाद का भ्रमण अत्यंत सुखद तथा ज्ञानवर्धक रहा। प्रसाद जी के इस विशाल साहित्य भवन की विशद जानकारी एक सुंदर अनूठी शैली में देकर शैलजा तुमने पाठकों को अभिभूत कर दिया है, इसके लिए अभिनंदन तथा आभार!
    आशा बर्मन

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  10. शैलजा जी, आपने महाकवि जयशंकर प्रसाद जी पर बहुत सुंदर आलेख प्रस्तुत किया है।बधाई।
    आपने प्रसाद जी के कृतित्व का बहुत विस्तार से वर्णन किया है। सभी विधाओं की चर्चा की है एवं उनकी कहानियों की विषय-वस्तु को बड़े अच्छे से समझाया है।मेरे विचार से यदि उन्होंने केवल कामायनी की रचना की होती, और कुछ भी ना लिखा होता तो भी वह हिंदी साहित्य में अमर रहते।उन्होंने तो इतना बड़ा ख़ज़ाना छोड़ा है जिसका मूल्यांकन करना सम्भव ही नहीं है। प्रसाद जी के कृतित्व को , उनके साहसी संघर्षशील जीवन को सादर नमन । आपको इसी प्रकार निरंतर उत्तम लेखन के लिए हार्दिक शुभकामनाएँ। 🙏💐

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  11. शैलजा जी, आपने जिस तत्परता और श्रद्धा के साथ यह आलेख लिखा है, वही भाव कालजयी साहित्यकार जयशंकर प्रसाद जी के प्रति पाठकों के मन में जगाता है यह आलेख। उनके 'साहित्य-प्रासाद' की सैर में उनकी लेखनी की अनुपम झलकियाँ प्रस्तुत करके उनको बेहतर जानने की उत्सुकता भी बाख़ूबी जगाई है। अत्युत्तम लेख। आपको हृदयतल से आभार और बधाई।

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  12. शैलजा जी, सर्वप्रथम आपके लेखक मन को सादर प्रणाम निवेदित है l आपने जिस प्रकार कालजयी जयशंकर प्रसाद जी के समग्र जीवन को इतनी एकाग्रता से उजागर किया है वह काबिले तारीफ है l आपके लेख को पढ़कर मन पुनः विद्यालय की उन पुस्तिकाओं के पन्नों के बीच पंहुच गया जहाँ प्रसाद जी के कृतित्व को पढ़ने का अवसर प्राप्त होता थाl 'कामायनी', 'तितली' आदि उनकी रचनाओं ने हमारे हिंदी साहित्य को और भी विशालता प्रदान की l आपको इस आलेख के लिए कोटि कोटि बधाई 👏👏

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  13. कितना सरस लिखा है आपने...और ऐसा लग रहा है कि हम उस प्रासाद से गुजरते हुए स्वयं प्रसाद जी को देख रहे हैं...साधुवाद

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  14. सर्वप्रथम आपका बहुत -बहुत आभार व हार्दिक बधाई शैलेजा जी, निशब्द महसूस कर रही हूँ स्वयं को कि किन शब्दोंमें आपकी प्रशंसा करूँ... साधुवाद! शुरूआत ही इतने सटीक ढंग से हुई कि कौतूहल बढ़ता ही गया। सच में बहुत आनंद आया। पुनः हार्दिक बधाई आपको।

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  15. *झरना* प्रकाशित कृति से जन्मे आदरणीय जय शंकर प्रसाद जी छायावादी कविता के चौथे आधार स्तंभ थे। हिंदी के व्याकरण को सुव्यवस्थित करने के लिए खड़ी बोली को हिंदी भाषा का मानक रूप देने के लिए जेष्ट साहित्यकार *निराला जी* के साथ कंधे से कंधा मिलाकर प्रसाद जी काम कर रहे थे। आदरणीया शैलजा जी ने काफ़ी शोधपरख कर यह आलेख तैयार किया है। उनकी लेखनी और शब्दिय प्रस्तुति तो हमेशा कमाल करती हैं और यह उनके आज के लेख से प्रतिपादित हो रहा है। आपने महाकवि प्रसाद जी के जीवन के अपरिचित पहलुओं से अवगत करा कर आलेख रोचकतथ्य, दिलचस्प और ज्ञानवर्धक बना दिया है। आपके सुंदर और सुगठित आलेख के लिए आपको कोटिशः धन्यवाद और अनगिनत शुभकामनाएं।

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  16. “प्रतिमा से सजीवता सी,
    बस गई सुछवि आँखों में।
    थी एक लकीर हृदय में,
    जो अलग रही लाखों में।”
    शैलजा जी बधाई स्वीकार करें! आपने प्रसाद जी के महात्म्य को प्रासादात्मक शैली में सुंदर ढंग से प्रस्तुत किया है, बधाई तो बनती है।
    *जयशंकर प्रसाद* भगवान शंकर का प्रसाद ही थे जो इनके माता-पिता को बहुत प्रार्थना के बाद प्राप्त हुए थे।
    प्रसाद का कुटुम्ब शिव का उपासक था। माता-पिता ने उनके जन्म के लिए अपने इष्टदेव से बड़ी प्रार्थना की थी। वैद्यनाथ धाम के झारखण्ड से लेकर उज्जयिनी के महाकाल की आराधना के फलस्वरूप पुत्र जन्म स्वीकार कर लेने के कारण शैशव में जयशंकर प्रसाद को 'झारखण्डी' कहकर पुकारा जाता था।वैद्यनाथधाम में ही जयशंकर प्रसाद का नामकरण संस्कार हुआ। जयशंकर प्रसाद की शिक्षा घर पर ही आरम्भ हुई। संस्कृत, हिन्दी, फ़ारसी, उर्दू के लिए शिक्षक नियुक्त थे।
    जयशंकर प्रसाद जी ने संस्कृत, अंग्रेजी, हिंदी, उर्दू तथा फारसी के गहन अध्ययन के साथ-साथ वेद, पुराण, इतिहास तथा साहित्य शास्त्र का भी गहन अध्ययन किया था और वे बंगलाभाषा भी जानते थे।
    युगप्रवर्तक कवि, नाटककार, उपन्यासकार, निबंधकार, कथाकार तथा छायावाद के प्रमुख स्तम्भ के रूप में प्रतिष्ठित श्री जयशंकर प्रसाद निश्चित रूप से हिंदी खड़ी बोली साहित्याकाश के दैदीप्यमान सितारे हैं।
    शैलजा जी ने अपने आलेख में प्रसाद जी के जीवन और साहित्य के बारे में विस्तार से बताया है और यह सत्य ही है कि तब से अब प्रसाद साहित्य पर सैंकड़ों शोध ग्रंथ लिखे जा चुके हैं लेकिन अभी भी उनके साहित्य के बारे में बहुत कुछ शेष है।
    “देखो, वहाँ वह कौन बैठा है शिला पर, शान्त है
    है चन्द्रमा-सा दीखता आसन विमल-विधु-कान्त है”
    अपने 48 वर्ष के “छोटे से जीवन में बड़ी कथाएँ “ कहने वाले इस सरस्वती पुत्र ने विविध रचनाओं के माध्यम से मानवीय करूणा और भारतीय मनीषा के अनेकानेक गौरवपूर्ण पक्षों का उद्घाटन कर हिंदी साहित्य जगत को सवांरा सजाया ।
    *“इस एकांत सृजन में कोई कुछ बाधा मत डालो
    जो कुछ अपने से सुंदर है दे देने दो इनको।।”*
    साहित्य के क्षेत्र में जब प्रसाद जी का पदार्पण हुआ तब देश में ही नहीं विश्व में सभी जगह असंतोष और उथल पुथल का वातावरण था।यह दो विश्व युद्धों के बीच का समय था। देश ग़ुलामी की ज़ंजीरों में जकड़ा हुआ था।सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन मूल्यों का विघटन और आर्थिक संकट के बीच जूझते मानव को अतीत के स्वर्णिम गौरव का भान कराकर प्रसाद जी ने अपनी रचनाओं के माध्यम से पुनः भारतीय उच्च आदर्शों और मूल्यों की स्थापना हेतु संघर्ष करने का आह्वान किया।

    उनकी रचनाओं का कथ्य गौरवशाली इतिहास, परम्पराएँ, भारतीय संस्कृति का प्रतिपादन, उदात्त मूल्यों की स्थापना, स्वाभिमान, देश-प्रेम, प्रकृति-प्रेम, माधुर्य, दर्शन, नारी स्वातांत्र्य, संघर्ष आदि रहा है।

    प्रसाद जी औदात्य के पर्याय हैं। उनकी प्रारम्भिक रचनाएँ ब्रजभाषा में हैं इस कारण इनमें कवित्त और सवैया छन्दों की प्रधानता है किन्तु बाद के छन्दों में विविधता है। प्रसाद ने ‘कामायनी’ में ‘नाटक’ और ‘वीरछन्द’ को अपनाया है। ‘आँसू’ में ‘प्रसाद छन्द’ प्रयोग है जबकि ‘प्रेम पथिक’ की रचना के बारे में प्रसाद जी का अपना विचार इस प्रकार है-“प्रायः संक्षिप्त और प्रवाहमयी तथा चिरस्थायिनी जितनी पद्यमय रचना होती है। उतनी गद्य रचना नहीं। इसी स्थान में हम संगीत की भी रचना कर सकते हैं। सद्यः प्रभावोत्पादक जैसा संगीतमय पद्य होता है, वैसी गद्य रचना नहीं।” कहना न होगा प्रसाद जी के गद्य की भाषा भी काव्यात्मक ही है। भाषा पर प्रसाद जी का पूर्ण अधिकार और नियंत्रण रहा। उन्होंने खड़ी बोली को अपनी काव्य भाषा बनाया। उनकी रचनाओं में भाषा की संस्कृतनिष्ठता तथा प्रांजलता विशिष्ट गुण हैं। लाक्षणिकता, प्रतीकात्मकता और बिंबात्मकता उनकी शैली का स्थायी लक्षण है।
    प्रसाद जी के काव्य में उपमा, रुपक, उत्प्रेक्षा, यमक, श्लेष आदि अलंकारों के प्रयोग मिलते हैं।
    ” घन में सुन्दर-सी, बिजली में चपल-चमक-सी।
    आँखों में काली पुतली, पुतली में श्याम झलक सी।।”

    प्रसाद जी की जयंती पर भावपूर्ण आदरांजलि अर्पित करते हैं।
    🌹🙏

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  17. शैलजा जी, जयशंकर प्रसाद जी पर आपका आलेख सारगर्भित और शोध परक है। महादेवी, निराला और जयशंकर प्रसाद जी छायावाद के प्रमुख कवियों में रहे हैं। कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद और तार सप्तक की कविता संकलन को संम्पादित करने वाले अज्ञेय जी की घनिष्टता हिन्दी साहित्य को बहुत समृद्ध बनाती है।
    आंसू की यह पंक्तियाँ बरबस विषादपूर्ण क्षणों की याद दिलाती हैं-
    जो घनीभूत पीड़ा थी मस्तिक में स्मृति बन छाई
    दुर्दिन में आंसू बनकर वह आज बरसना आई।
    एक बार पुनः आपको बहुत-बहुत बधाई।-सुनील

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  18. महाकवि जयशंकर प्रसाद के बारे में समग्रता के साथ जानकारियाँ उपलब्ध कराता और उनकी रचनात्मक विशेषताओं को करीब से जानने का अवसर देता हुआ अत्युत्तम आलेख। इस अनुपम लेख के लिए शैलजा जी को बहुत बहुत बधाई।

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  19. शैलजा जी, प्रसाद जी को जितना पढ़ा है, इस आलेख के द्वारा उससे भी अधिक उनके विषय में जाना | कोर्स में कामायनी पढ़ी थी और उसके बाद उनकी रचनाओं को ढूँढ ढूँढ कर पढना शुरू किया| इतने सुनदर आलेख के लिए आपको बधाई |

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कलेंडर जनवरी

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9ऐतिहासिक कथाओं के चितेरे लेखक - श्री वृंदावनलाल वर्मा 10आलोचना के लोचन – मधुरेश 11आधुनिक खड़ीबोली के प्रथम कवि और प्रवर्तक : पं० श्रीधर पाठक 12यथार्थवाद के अविस्मरणीय हस्ताक्षर : दूधनाथ सिंह 13बहुत नाम हैं, एक शमशेर भी है 14एक लहर, एक चट्टान, एक आंदोलन : महाश्वेता देवी 15सामाजिक सरोकारों का शायर - कैफ़ी आज़मी
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आचार्य नरेंद्रदेव : भारत में समाजवाद के पितामह

"समाजवाद का सवाल केवल रोटी का सवाल नहीं है। समाजवाद मानव स्वतंत्रता की कुंजी है। समाजवाद ही एक सुखी समाज में संपूर्ण स्वतंत्र मनुष्यत्व...