Wednesday, July 27, 2022

कृष्ण बलदेव वैद : एक बेचैन परिंदा

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"मैं अकसर आकांक्षाओं, आशाओं, अरमानों, उड़ानों, हताशाओं, कोशिशों, आक्रोशों पर रोक लगाता रहता हूँ, उनसे मुक्त हो जाने के संकल्प साधता रहता हूँ। क्यों? क्या इसलिए, सिर्फ़ इसलिए कि ऐसा करते रहने से मुझे अपनी विफलताओं को झेलने में, उनके बावजूद जीते चले जाने में मदद मिलती है? या इसलिए भी कि मुझे वे सब कुछ मायावी और व्यर्थ नज़र आता है? उस सब कुछ के घोर आकर्षण के बावजूद? और अगर यह दूसरी बात सही है तो क्या मैं इस संसार को मिथ्या मानता हूँ, और अगर यह सही है तो क्या मैं नास्तिक नहीं ? या आस्तिक नास्तिक हूँ? या नास्तिक आस्तिक? या आस्तिक मुझे अज़ीज़ नहीं। कभी-कभी सोचता हूँ मुझे कुछ भी अज़ीज़ नहीं। अगर यह सही है तो मैं दुखी क्यों रहता हूँ? हो सकता है मैं दरअसल दुखी भी नहीं रहता। हो सकता है मेरा दुख भी लीला का ही एक रंग हो, हो सकता है मैं एक विरोधाभास में ही क़ैद हूँ। मैं ही नहीं, हम सब!"

उपरोक्त पंक्तियाँ कृष्ण बलदेव वैद की डायरी से ली गई  हैं। एक अजीब सी बेचैनी थी उनमें। एक अजीब सी बेबाक़ी भी और इन दोनों आयामों के बीच एक सूक्ष्मदर्शक यंत्र की तरह था उनका व्यक्तित्व, जो समाज की छोटी से छोटी बात को भी  देख लेना चाहता था। एक शोधकर्ता जैसा था उनका काम, जो समाज के हर पहलू को चीर-फाड़ के रख देना चाहता था। एक तूफ़ान  था उनमें, जो हिंदी साहित्य के हरेक  वाद से परे था। और इन सबके बीच, मुस्कराता हुआ दोस्त, पति, पिता और समाज के लिए एक बहुत अच्छा इंसान। मेरा ये आलेख कृष्ण बलदेव वैद के व्यक्तित्व और साहित्य से जुड़े इन्हीं कुछ पहलुओं को छूने की एक कोशिश भर है। 

बेचैनी 

जून १९४७, डिंगा, पंजाब का एक छोटा सा क़स्बा। उस छोटे से क़स्बे में एक घर और घर का एक पड़ोस। एक पड़ोसी क़स्बा, जहाँ से मॉब आएगा। एक डर, कि वह कस्बे के वर्ग विशेष को जान से मारने आएगा। और एक उम्मीद, उस पड़ोसी के वादे की, कि वह अपने घर में जो भूसे वाला कमरा है वहाँ सबको छुपा लेगा, सबको बचा लेगा। उसी भूसे के ढेर में लगभग २० वर्ष के युवा कृष्ण बलदेव वैद कोई ३६ घंटे तक मौत या विस्थापित हो जाने की बैचेनी को पालते रहे। शायद ये वे ३६ घंटे ही रहे होंगे, जिन्होंने उस बैचेनी को जन्म दिया होगा जो जीवनपर्यंत उनके व्यवहार, उनके साहित्य, उनकी सोच और उनके सृजन में बनी रही। एक निष्ठुर बैचेनी।
पर ये निष्ठुर बैचेनी हमेशा थोपी हुई तो नहीं थी। उन्होंने स्वयं अपनाई  थी

ग़नीमत है कि जीवन के निर्णायक मोड़ों पर ठीक निर्णायक ग़लतियाँ होती रहीं। वही ग़लतियाँ मेरे चुनाव भी हैं। आई० ए० एस० का इम्तहान नहीं दिया, हार्वर्ड से पीएचडी के बाद आयोवा राइटिंग वर्कशाप में काम करने से इनकार कर दिया, फिर इलस्ट्रेटेड वीकली में नहीं गया, पंजाब यूनिवर्सिटी, चंडीगढ़ से छुट्टी नहीं मिली तो त्यागपत्र दे दिया, पॉट्सडैम में ही पड़ा रहा, एक साल ब्रैंडाइज़ में बतौर विज़िटिंग प्रोफ़ेसर रहने के अलावा, और जैसे ही तीनों बेटियाँ पढ़ाई के बाद कमाई भी करने लगीं, मैंने पॉट्सडैम भी छोड़ दिया और फिर कहीं और प्रोफ़ेसरी नहीं की, कोई और काम नहीं किया, सिवाय लिखने के।

बेबाकी 

कोई और काम नहीं किया सिवाय लिखने के। बेबाक़ लेखन। और ऐसा लेखन जिसकी पहली कृति ही एक नया आयाम पैदा करती है। वह नई कहानी का दौर था। "उसका बचपन"(१९५७) तभी आई थी। अशोक वाजपेयी बताते हैं कि यथार्थ को देखने और समझने की दृष्टि से ये सूक्ष्म उपन्यास इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि इसमें यथार्थ एक बालक की सोच से दिखाया गया है। ये प्रयोग अपने आप में निराला था। वैद की कई कहानियों में ये दिखाई पड़ता है। अगर वैद लेखक नहीं होते तो मनोवैज्ञानिक होते। इक्वलिटी उनके सृजन में खूब दीखती है। अगर मैं 'मेरा दुश्मन' पढ़ूँ तो उसके दर्पण में मुझे 'पवन कुमारी' दिखाई देती है। पेश हैं बेबाकी के ये शानदार नमूने
 
"हो सकता है कि उस शाम दिमाग़ कुछ देर के लिए उसी गुज़रे हुए ज़माने की ओर भटक गया हो। कुछ भी हो, मैं घर से बहुत दूर निकल गया था और फिर अचानक वह मेरे सामने आ खड़ा हुआ था। महसूस हुआ था जैसे मुझे अकेला देखकर घात में बैठे हुए किसी ख़तरनाक अजनबी ने ही रास्‍ता रोक लेना चाहा हो। मैं ठिठककर रुक गया था। उसकी सुती हुई आँखों से फिसलकर मेरी निगाह उसकी मुस्‍कराहट पर जा टिकी थी, जहाँ अब मुझे उसके साथ बिताए हुए उस सारे गर्द-आलूद ज़माने की एक टिमटिमाती हुई-सी झलक दिखाई दे रही थी। महसूस हो रहा था कि बरसों तक रूपोश रहने के बाद फिर मुझे पकड़कर किसी के सामने पेश कर दिया गया हो। मेरा सर इस पेशी के ख़याल से दबकर झुक गया था। कुछ, या शायद कितनी ही देर हम सड़क के उस नंगे और आवारा अँधेरे में एक-दूसरे के रूबरू खड़े रहे थे। अगर कोई तीसरा उस समय देख रहा होता तो शायद समझता कि हम किसी लाश के सिरहाने खड़े कोई प्रार्थना कर रहे हैं या एक-दूसरे पर झपट पड़ने से पहले किसी मंत्र का जाप।" (मेरा दुश्मन)
   
"उसे अपने इस ख़तरनाक फ़ैसले पर हैरान होने का अवसर नहीं मिला, क्योंकि उसने देखा कि साँप बल खाता हुआ उसकी तरफ़ बढ़ रहा है, बहुत धीमी रफ़्तार से जैसे उसे भाग जाने का अवसर दे रहा हो। बहुत खूबसूरत लहराव के साथ, अपनी सुर्ख़ जबान को किसी बारीक झंडे की तरह फहराता हुआ, मानो उसके फ़ैसले की सराहना कर रहा हो। उसे अपने ख़तरनाक फ़ैसले को बदलने का मौका ही नहीं मिला, क्योंकि चट्टान पर चढ़ते ही साँप एक स्वर-लहरी की तरह उसकी तरफ़ लपका और उसके गले का हार बन गया। उसके जिस्म में कोई झुरझुरी नहीं हुई, उसके मुँह से कोई चीख नहीं निकली। उसके शरीर में फिर सुबह का सा निखार आ गया, उसकी आँखें साँप के झूलते हुए सिर पर झुककर उसके साथ-साथ झूमने लगीं, उसकी उँगलियाँ साँप की काली-नीली लंबाई की बलाएँ-सी लेने लगीं, उसकी जबान साँप की जबान की ही तरह तड़पने-लहराने लगी  और उसका मन आकाश की तरह साफ़ और ख़ाली हो गया।" (पवन कुमारी का पहला साँप ) 

यथार्थ को चीर फाड़कर रख देने वाला रचनाकार 

वैद जी ने कभी भी इस बात की परवाह नहीं की कि लिखने की क्या सीमाएँ होनी चाहिए। वे लेखन में भद्रता के मोहताज नहीं थे। ऐसा नहीं कि जो चाहे लिख दें, पर ये ज़रूर कि सिर्फ़ लेखनी को भद्र बनाने के लिए मॉडरेशन उन्हें नहीं भाता था। वे समाज में व्याप्त हर उस व्यवस्था की तह तक जाते और जैसा पाते वैसा लिखते। अगर समाज में हवस या वासना दिखती तो लिखते, उसके साथ वीर्य दिखता तो लिखते, अगर रक्त की  बूँदें  भी नज़र आतीं तो वह भी लिखते। उन्हें वीभत्स हो जाने की परवाह नहीं थी। और पाठक भी उनका साहित्य पढ़ते हुए और कोई रस नहीं पाते सिवाय और सिवाय 'वैद रस' के। इस विषय में वैद आपने आप में एक अनूठे रचनाकार होंगे।  
कलाकार सिर्फ़ सौंदर्य, सुख और संतोष से ही प्रेरणा नहीं पाता, उन्हीं को अपनी कला का केंद्र नहीं बनाता। कलाकार असौंदर्य, दुख और असंतोष से भी प्रेरणा पा सकता है और उसे भी अपनी कला का केंद्र बना सकता है।

भाषा से प्रयोग

वैद को अपनी लेखनी में शब्दों के साथ बहुत खिलवाड़ करने का शौक  था। मूलतः उर्दू जबान के शब्द बड़ी आसानी से हिंदी में बुन दिए जाते थे। वे वाक्यों में नए शब्द कुछ इस तरह गढ़ लेते थे कि पाठक उन्हें स्वतः अपना लेता था। अशोक वाजपेयी बताते हैं कि वैद साहब ने हिंदी में एक ऐसी कथा भाषा का विस्तार किया, जिसमें शब्दों से खिलवाड़ उनकी शैली का  एक रोचक अंग बन गया। इस वृत्ति को वे वहाँ तक ले गए कि अपने जीवन के अंतिम दिनों की लेखनी में वे कम शब्दों में बड़ी बात कहने लगे और जब बात कहते-कहते शब्दों की रिक्तता पैदा हो जाती तो वह एक दर्दनाक खामोशी बयान करने लग जाती। हिंदी गद्य साहित्य में ये कवितात्मक रूप कम ही देखने को मिलता है। यूँ तो वैद मूलतः कहानीकार कहलाते हैं, पर सामान्य कहानीकारों से भिन्न। अक्सर कहानीकार जब कुछ कहना चाहता है। तो कहानी का कोई स्ट्रक्चर अपनाता है। उसका कोई प्रयोजन होता है, कुछ प्रबंधन होता है। वैद की कहानियाँ इन सब बातों से परे होती थीं। वे एक कहानीकार के तौर पर कुछ कहना नहीं चाहते थे। ऐसा लगता था, वे एक गाइड हैं, कुछ देख रहे हैं, कुछ सोच रहे हैं, और कुछ बता दे रहे हैं, कई बार अपनी कही बातों को भी नकारते हुए। रिपोर्ताज और रिसर्चर का संयुग्म जो बहुत गहराई में झाँक लेने में सक्षम है। पर अंततः उनका सृजन कुछ न कहने की चेष्टा किए हुए भी बहुत कुछ कह जाता है। 

जीवन यात्रा, पड़ाव और हिंदी से प्यार

कृष्ण बलदेव वैद १९२७ में डिंगा, ब्रिटिश इंडिया में जन्मे, लाहौर से एम० ए० की पढ़ाई की और विभाजन के बाद कई छोटी नौकरियों के बाद पंजाब विश्वविद्यालय में अध्यापन कार्य किया। सन १९५० के मध्य में दिल्ली में डेरा डाला। हंसराज कॉलेज में अध्यापन किया और फिर हॉर्वर्ड विश्वविद्यालय से अंग्रेजी में शोध किया। १९६०-६१ में पुनः भारत और फिर १९६० के मध्य से १९८० के मध्य तक अमेरिका के पोडसडेम(NY) नगर में अध्यापन में रत रहे। फिर भोपाल स्थित भारत भवन में, और फिर दिल्ली, अमेरिका के बीच में निवास किया। वैद दिल्ली को अपना घर मानते थे। जीवन संगिनी चम्पा वैद हमेशा उनके साथ होती थीं। वे भी एक कुशल भाषाविद और चित्रकार थीं। तीनों पुत्रियाँ अमेरिका में रहीं इसलिए आजीवन अमेरिका आना तो होता ही रहा। अपने अंत के कई वर्ष टेक्सस में अपनी पुत्री ज्योत्सना या न्यूयॉर्क में पुत्री रचना के साथ बिताए। अपनी अंतिम साँस २०२० में बेटी रचना के घर पर ही ली। प्रोफ़ेसर और फ़िल्मकार आशीष अविकुंतक कहते हैं कि हिंदी के प्रति उनका प्यार इस कदर था कि जीवन का अधिकांश समय अंग्रेजी साहित्यकारों के साथ बिताने के बावजूद अपने लिखने की प्रथम भाषा हिंदी ही चुनी। हालाँकि कई अंग्रेजी अनुवाद किए हैं उन्होंने, अपनी रचनाओं के भी और दूसरों के भी। मुक्तिबोध की "अंधेरे में" का उनके द्वारा किया गया अंग्रेजी अनुवाद काफ़ी चर्चित रहा। 

दुख की बात है कि हिंदी के ऐसे प्रणेता को उतनी मान्यता या पहचान नहीं मिली जितनी उनके समकालीन रचनाकारों को मिली। सन २००० के दशक में उन्हें कई बार साहित्य अकादमी पुरस्कार के लिए नामांकित किया भी गया लेकिन पुरस्कार हर बार किसी और को दे दिया ज़ाता। उम्मीद है कि मृत्यु के बाद ही सही, लेकिन वे सभी सम्मान उनको प्राप्त होंगे, जिनके वे अधिकारी थे।

बड़े रचनाकार के बड़े साहित्यिक सृजन और उनके जीवन के, विचारों के, यात्राओं के अथाह समुद्र में गोता लगाने का मेरा ये अधम दुस्साहस शायद कुछ बूँदें आप तक भी पहुँचा गया हो। अगर वैद को नहीं पढ़ा है तो पढ़िए और पढ़ा है तो "वैद रस" से अपने मन को फिर से सींचिए। वह अल्हड़ लेखक बहुत कुछ छोड़ गया है। अगर उनके जीवन को देखूँ तो डॉ० जगदीश व्योम का ये हाइकु सारगर्भित प्रतीत होता है। अंत में यही
करते रहे 
जन्म से मृत्यु तक 
यात्रा में यात्रा।

कृष्ण बलदेव वैद  : जीवन परिचय

जन्म 

२७ जुलाई १९२७

निधन

६ फ़रवरी २०२० 

पत्नी 

चम्पा वैद  

पुत्रियाँ 

स्व० उर्वशी वैद, रचना वैद, ज्योत्सना वैद 

शिक्षा

लाहौर विश्वविद्यालय से एमए और हार्वर्ड विश्व विद्यालय से शोध (*Technique in the Tales of Henry James)  

साहित्यिक रचनाएँ


कहानियाँ/ कहानी संग्रह (आंशिक सूची)

  • बीच का दरवाज़ा

  • मेरा दुश्मन

  • बोधिसत्व की बीवी

  • बदचलन बीवियों का द्वीप

  • दूसरा किनारे से

  • लापता

  • उसके बयान

  • वह और मैं

  • ख़ाली किताब का जादू

  • प्रवास गंगा

  • खामोशी

  • अलाप लीला

  • पिता की परछाइयाँ

  • रात की सैर(संग़्रह)

  • मेरा दुश्मन - संपूर्ण कहानियाँ(संग्रह)

उपन्यास (आंशिक सूची)

  • उसका बचपन 

  • बिमल उर्फ़ जाएँ तो जाएँ कहाँ 

  • नासरीन 

  • एक नौकरानी की डायरी 

  • दर्द ला दवा

  • दूसरा ना कोई 

  • गुज़रा हुआ जमाना 

  • कला कोलाज 

  • माया लोक 

  • नर नारी  

नाटक (आंशिक सूची) 

  • भूख आग है 

  • हमारी बुढ़िया 

  • परिवार अखाड़ा 

  • सवाल और स्वप्न 

  • मोनालीसा की मुस्कान 

  • कहते हैं जिसको प्यार 

  • अंत का उजाला 

डायरी (आंशिक सूची)

  • ख़्वाब है दीवाने का 

  • शाम हर रंग में 

  • डुबोया मुझको होने ने 

  • जब आँख खुल गई 

  • अब्र क्या चीज़ है हवा क्या हैं


संदर्भ 

  • कृष्ण बलदेव वैद - अब्र क्या चीज़ है हवा क्या है, राजकमल प्रकाशन।

  • कृष्ण बलदेव वैद - जवाब नहीं। नेशनल पब्लिंशिग हाउस।

  • आशीष अविकुन्तक, उदयन वाजपेयी, आषुतोष भारद्वाज, रजा फ़ाउंडेशन youtube चैनल

  • 'मेरा दुश्मन और प्रतिनिधि कहानियाँ', राजकमल प्रकाशन

  • अभिनव शुक्ल : शोध सहयोग

  • हिमांशु बाजपेयी : शोध सहयोग

  • विशेष आभार उनके शिष्य और परम मित्र श्री अशोक बाजपेयी जी का जिन्होंने बहुत आत्मीयता से मुझे समय दिया।  इस सहायता के बिना ये लेख पूरा नहीं हो सकता था। 

लेखक परिचय

संतोष खरे 


कार्यक्षेत्र : टेक्निकल एंट्रेप्रेनुएर


लेखन : कुंडली विधा में प्रयोग, बाल्यकाल में (१९८४) प्रथम रचना 'पराग' में प्रकाशित। बचपन से ही हिंदी कवि सम्मेलनों और मुशायरों के शौक़ीन।


सन १९९३ में कंप्यूटर ऍप्लिकेशन्स में स्नातकोत्तर (जीवाजी विश्वविद्यालय) करने के बाद, अमेरिका में इंटेल, माइक्रोसॉफ्ट में कार्य किया। वर्तमान में तकनीकी उद्यमिता पर प्रयास - दो स्टार्टअप कंपनी के CEO सियाटल, अमेरिका में सन १९९६ से निवास।

2 comments:

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  2. संतोष जी नमस्ते। आपने कृष्ण बलदेव वैद जी पर अच्छा लेख लिखा है। आपके लेख के माध्यम से उनके साहित्यिक सृजन एवं जीवन के बारे में विस्तार से पता चला। आपको इस जानकारी भरे लेख के लिए हार्दिक बधाई। आपने सही कहा उनको वो सम्मान व वो स्थान साहित्य में नहीं मिला जिसके वो हकदार थे। इस समूह में सभी के अथक प्रयासों से ऐसे अनेक गुमनामी में खोए हुए महान साहित्यकारों को पाठकों तक ले जाने का महत्वपूर्ण कार्य हो रहा है। इसके लिए 'हिंदी से प्यार है' की टीम व लेखक साधुवाद के पात्र हैं।

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