नाम से मुसलमान, मन से नास्तिक और कर्म से एक बेहद नेक इंसान – इस फ़नकार को गीतकार, शायर, लेखक और समाजसेवी जैसे शब्दों में बाँधना नाइंसाफ़ी सा लगता है! उनका जीवन एक खुली किताब है जिसपर शोहरत और कामयाबी के पन्ने जुड़ते चले जा रहे हैं। शब्दों के इस जादूगर का जादू हर भारतीय की ज़ुबान पर कभी उनके गीतों के रूप में तो कभी किसी डायलॉग के रूप में सामने आ ही जाता है। ये हैं फ़िल्मी गीतों, ग़ज़लों और संवादों के बेताज बादशाह जावेद अख़्तर साहब! इनकी उपलब्धियों का गुलदस्ता हमेशा हरा-भरा रहता है। इन्होंने अपनी कलम और वाणी-दोनों को ऐसा साधा है कि सुनकर यही कहने का मन करता है - वाह! क्या बात है!!
आइये, एक नज़र उनके बचपन से अबतक के सफ़र पर डालें।
ग्वालियर के तरक़्क़ी-पसंद शायर जाँ निसार अख़्तर के घर एक नन्हा बालक आया जिसे पिता ने जादू कहा। जादू से मिलता-जुलता जावेद नाम इस बालक के हिस्से आया। माँ साफ़िया सिराज-उल-हक़ उर्दू की मशहूर लेखिका और शिक्षिका थीं। जावेद के दादा मुज़्तर ख़ैराबादी अपने दौर के मशहूर शायर थे। महज़ आठ साल की उम्र में माँ का आँचल सर से क्या उठा कि पलक झपकते ही उसे और उसके छोटे भाई को लखनऊ में उनके नाना-नानी के सुपुर्द कर अब्बू बम्बई जा बसे। यहाँ न खाने-पीने की दिक़्क़त थी, न पढ़ाई में अड़चन, पर उनकी परवरिश पर होने वाले ख़र्च से उन्हें रोज़ रू-ब-रू कराया जाता। इन रोज़-रोज़ के तानों ने पढ़ाई की ललक तो नहीं जगाई, अलबत्ता मन में अमीर बनने का ख़्वाब ज़रूर सजा दिया। नवीं कक्षा में जावेद को उसके छोटे भाई सलमान से दूर अलीगढ़, उनकी ख़ाला के घर भेज दिया गया ताकि नाना-नानी सलमान की बेहतर परवरिश कर सकें। चौदह साल का जावेद पढ़ाई में कम और फ़िल्मी गानों में अधिक मन रमाने लगा; कोर्स की किताबों से ज़्यादा उपन्यासों में सर खपाने लगा। उसे तालीम अब सिर्फ़ नाम के लिए मुकम्मल करनी थी।
जावेद का झुकाव शेर-ओ-शायरी, गज़लों और गीतों की तरफ बढ़ता जा रहा था| उसके दादा, दादा के बड़े भाई, परदादा, मामा-मामी सभी मशहूर शायर थे और मक़बूल शख़्सियत रखते थे। रगों में उर्दू अदब और शायरी के दिग्गजों के ख़ानदान का खून अब अपना रँग दिखाने लगा था। किशोर जावेद की शायरी जवाँ दिलों की ज़ुबान बनने लगी थी। जावेद के लिए उर्दू अशआर की अंत्याक्षरी जीतना रिवाज सा बन गया था। मगर कॉलेज की पढ़ाई के लिए उसे एक बार फिर शहर बदलना पड़ा और इस बार नया ठिकाना बना शहर भोपाल। अब तक जावेद अपना हुनर पहचान चुका था। भोपाल में गुज़ारे उन तीन सालों ने जावेद को एक प्रखर वक्ता और उम्दा शायर बनने के बेशुमार मौक़े दिए| उसने न सिर्फ़ लगातार तीनों साल भोपाल रोटरीक्लब का डिबेट जीता बल्कि जिस भी डिबेट में हिस्सा लिया, ईनाम और ट्रॉफी अपने नाम ही लिखवाई। कॉलेज की पढ़ाई पूरी कर उसने बम्बई अपने पिता की ओर रुख़ किया, लेकिन पिता का साथ उसकी क़िस्मत में न बदा था। छः दिन बाद ही पिता का घर छोड़ वह नौजवान जेब में मात्र सत्ताईस पैसे लेकर अपनी तक़दीर लिखने निकल पड़ा।
अपनी कलम पर भरोसा कर उसने पुर-उम्मीद फ़िल्मी दुनिया का मुँह ताका, किन्तु चंद पैसों और झूठे आश्वासनों के सिवाय उसे कुछ न मिला। आज़माइश के उन सालों में, जहाँ बुरी संगत, दारूबाजी और नशे की लत के पूरे आसार थे, उसका वही ख़्वाब हिम्मत बनकर उसके साथ खड़ा रहा जो उसने अपने ननिहाल में देखा था - मशहूर और अमीर बनने का सपना!
अक्टूबर १९६४ से नवम्बर १९६९ तक मायानगरी की सड़कों की ख़ाक़ छानने के बाद क़िस्मत ने करवट बदली और जावेद के हाथ लगा अलादीन का चिराग़। कुछ ही दिनों के अन्तराल पर एक-एक करके तीन फ़िल्मों के पटकथा और संवाद लिखने का मौक़ा मिला, जो उन्हें उस समय के स्थापित कलाकार सलीम ख़ान के साथ साझेदारी में करना था। उस वक्त किसे मालूम था कि अकस्मात बनी यह जोड़ी फ़िल्मी लेखन का इतिहास बदलने वाली थी। ‘हाथी मेरे साथी’, 'अंदाज़' और 'अधिकार' नाम की ये तीनों फ़िल्में वर्ष १९७१ में रिलीज़ हुईं और व्यावसायिक तौर पर बेहद सफल साबित हुईं और इसी के साथ मुम्बई फ़िल्म इंडस्ट्री को मिली सलीम-जावेद की बेमिसाल जोड़ी। लगातार हो रही फिल्मों की सफलता से ख़ुश जावेद ने चट मंगनी पट ब्याह करते हुए जल्द ही अपना घर बसा लिया। पत्नी हनी ईरानी भी फ़िल्मी पृष्ठभूमि से थीं और मोहब्बत का आलम कुछ ऐसा था कि शुरूआती दौर की आर्थिक तंगी भी उनके हिम्मत को तोड़ नहीं सकी। धीरे-धीरे गृहस्थी आगे बढ़ने लगी और फ़िल्मों की सफलता परवान चढ़ने लगी। दो साल के भीतर जावेद के घर बेटी ज़ोया और बेटे फ़रहान की आमद हुई और साथ ही घर, गाड़ी और शोहरत की बुलंदी मिली।
छः साल तक सफलता का सिलसिला चलता रहा - सुपरहिट फ़िल्मों का ताँता, पुरस्कारों की लड़ी, अखबारों और मैगजीनों पर बड़ी-बड़ी तस्वीरें, टीवी और पत्र-पत्रिकाओं में साक्षात्कार, पार्टियों की चकाचौंध, प्रशंसाओं के पुल – यह सबकुछ सपना साकार होने का भ्रम देता रहा। मगर एक असफल फ़िल्म ने उनकी ज़िन्दगी का फ़लसफ़ा बदल दिया। जावेद के शब्दों में, “ज़िन्दगी एक टेक्नीकलर ख़्वाब है, मगर हर ख़्वाब की तरह यह ख़्वाब भी टूटता है। पहली बार एक फ़िल्म की नाकामी – फ़िल्में तो उसके बाद भी नाकाम हुईं और क़ामयाब भी, मगर क़ामयाबी की वो ख़ुशी और ख़ुशी की वो मासूमियत जाती रही। ”
जावेद अख़्तर के जीवन में वह दौर बहुत बदलाव लेकर आया। ताउम्र जिस पिता से वे रूठे रहे, उनकी मौत के बाद उनकी अहमियत पता चली और वे आत्मग्लानि से भर गए। पिता से नाराज़गी की वजह से छोड़ी शायरी को फिर से अपनाने को वे अपने मृत पिता से साझा करने की कोशिश बताते हैं। उथल-पुथल के उन दिनों में उनकी मुलाकात मशहूर शायर और गीतकार कैफ़ी आज़मी की बेटी शबाना आज़मी से हुई और मुलाकातों का वह सिलसिला बढ़ने लगा। अपने जीवन के मानी तलाशता शायर शबाना की सोहबत में मिलने वाले सुकून के वास्ते अपना भरा-पूरा परिवार छोड़ कर उसके संग रहने चला जाता है। हनी से तलाक़ और शबाना से शादी दुनिया की नज़रों में भले ही सही-ग़लत की तराज़ू पर तौला जाता रहा हो, किन्तु जिस ईमानदारी से जावेद ने दोनों रिश्तों का निर्वाह किया, वह कई तलाकशुदा लोगों के लिए एक मिसाल है। जावेद के परिवार का हर शख़्स आज अपनी-अपनी जगह पर क़ामयाब है और अपनी मर्ज़ी का जीवन जी रहा है, जो उनकी ख़ुशी का सबसे बड़ा सबब है।
जावेद
जावेद अख़्तर की मायानगरी के उतार-चढ़ाव की कहानी उनकी लिखी फ़िल्मों जैसी ही दिलचस्प है या यूँ कह लें कि एक फ़िल्म ही है।
सलीम ख़ान से उनकी मुलाक़ात महज़ इत्तेफ़ाक़ न थी, उन्हें तो मिलकर हिंदी सिनेमा को नए आयाम देने थे। सलीम पटकथा लिखते, जावेद संवाद, और दोनों के संगम से फ़िल्में बन जातीं थीं ख़ास। उनके कलम का जादू कुछ ऐसा चला कि सलीम-जावेद को फ़िल्म के पोस्टरों पर भी स्थान मिलने लगा, जो इससे पहले किसी राइटर को नसीब नहीं हुआ था। इस जोड़ी ने कुल चौबीस फ़िल्में लिखीं, जिनमें दो कन्नड़ फ़िल्में भी शामिल हैं। इनमें से बीस फ़िल्में सफलता के सोपान पर चढ़ीं और सुपरहिट श्रेणी में रहीं। शोले, ज़ंजीर, दीवार, डॉन.. एक से बढ़कर एक बेहतरीन फ़िल्में और कभी न भूल पाने वाले वे डायलॉग - "कितने आदमी थे?", "जाओ, पहले उस इंसान का साइन लेकर आओ, जिसने मेरे हाथ पर ये लिख दिया था!", या "डॉन को पकड़ना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है।"
जावेद के विषय में एक दिलचस्प बात यह है कि वे अपने स्क्रिप्ट्स मूलतः उर्दू में लिखा करते थे, जिन्हें बाद में हिन्दी में तब्दील किया जाता था। वर्ष १९८२ में निजी कारणों से यह लेखक-द्वय अलग हो गया मगर जावेद के सुपरहिट फिल्मों का सिलसिला बदस्तूर जारी रहा। अब उन्होंने फ़िल्मों के गाने भी लिखना शुरू कर दिया। बतौर गीतकार, उनकी फ़िल्मों की फ़हरिस्त बड़ी लम्बी है, और वैसी ही लम्बी है उनके पुरस्कारों की लिस्ट। नामित तो वे तक़रीबन हर साल होते रहे, किन्तु उन्हें चौदह दफ़ा फ़िल्मफ़ेयर अवार्ड से नवाज़ा गया, जिसमें सात बेस्ट स्क्रिप्ट और सात बेस्ट लिरिक्स के लिए थे। कैसा रहा होगा वो पल जब सर्वश्रेष्ठ गीतकार के लिए एक वर्ष के सारे नामांकन जावेद अख़्तर के लिखे गीतों के रहे होंगे? जावेद साहब का ये सपना भी २००५ में पूरा हो गया, जब २००४ में रिलीज़ फिल्मों के लिए नामित गानों में से सारे जावेद जी की क़लम से निकले थे। उन्हें पाँच दफ़ा राष्ट्रीय पुरस्कार से भी नवाज़ा जा चुका है। सिने-जगत् के बेशुमार दूसरे अवार्ड्स भी इनके नाम हैं। अल्फ़ाज़ से ख़ुशी और मोहब्बत का पैग़ाम देने वाले इस बेहतरीन क़लमकार को भारत सरकार ने वर्ष १९९९ में पद्मश्री तथा वर्ष २००७ में पद्मभूषण से अलंकृत किया। उनकी पुस्तक ‘लावा’ को वर्ष २०१३ में साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त हुआ। क़लम के इस जादूगर को जामिया हमदर्द विश्वविद्यालय ने २०१९ में पीएचडी की मानद उपाधि दी। तर्कसंगत विचार, धर्मनिरपेक्षता और मानव विकास तथा मानवीय मूल्यों को अहमियत देने के लिए जावेद अख़्तर को वर्ष २०२० के रिचर्ड डॉकिन्स अवॉर्ड से सम्मानित किया गया। यह पुरस्कार वर्ष २००३ से दुनिया में धर्मनिरपेक्षता को बढ़ावा देने के उद्देश्य से दिया जा रहा है और यह गर्व की बात है कि जावेद अख़्तर यह पुरस्कार पाने वाले पहले भारतीय हैं।
एक कविता के कई मायने होते हैं। शब्दार्थ और भावार्थ
के सूक्ष्म और वृहत मायनों को समझने के लिए उसके रचयिता को समझना बहुत ज़रूरी हो जाता
है। जावेद अख़्तर
के गीत, गीतों के
अल्फ़ाज़, उनकी शायरी और शायरी का अंदाज़ भले ही सबको पसंद आता हो, धर्मनिरपेक्षता
और विभिन्न सामाजिक मुद्दों पर उनकी टिप्पणियाँ समझ पाना सबके बस की बात नहीं। जावेद अपने सियासी
ख़यालात खुल कर बयान करते हैं, और गाहे-ब-गाहे विवादों में घिर जाते
हैं। भारतीय कम्युनिस्ट
पार्टी के समर्थक जावेद अख़्तर ने २०१९ के आम चुनावों में सीपीआई के उम्मीदवारों के
प्रचार-प्रसार में सक्रिय भागीदारी की थी। इससे पूर्व, मार्च २०१० से मार्च २०१६ तक बतौर राज्य
सभा सांसद उन्होंने अपने साथी लेखकों के लिए जो किया, वह काबिले-ए-तारीफ़ है। कॉपीराइट एक्ट, १९५७,
को संशोधित करके कॉपीराइट (अमेंडमेंट) बिल २०१० को राज्यसभा में सर्वसम्मति से पास
कराने का श्रेय जावेद अख़्तर को दिया जाता है। इस बिल को पास करवाने के क्रम में अपने प्रभावशाली भाषण, तथ्यपरक सटीक उदाहरणों
और विशेषकर संगीत/गीतों के रचयिताओं की ज़ुबान बनकर उन्होंने एक
प्रबुद्ध वक्ता होने का भी प्रमाण दिया है। साहित्यिक व सांस्कृतिक
मंचों पर उनके भाषण सुनकर यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि वे एक संवेदनशील, प्रबुद्ध और तर्कसंगत
भारतीय हैं। जो इंसान
धर्मान्धता के ख़िलाफ़ खुलकर आवाज़ उठाता है;
देशभक्ति का सन्देश कुछ इस तरह से देता है: “जो मुसलमान भारत को तबाह करना चाहते
हैं, वे बस एक बार पाकिस्तान घूम कर आ जाएँ, वापस आने के बाद वे इस देश की मिट्टी को
चूमने लगेंगे”; जो इंसान
संसद के अपने विदाई भाषण में “भारत माता की जय” के नारे लगाता है; जो
धर्म के नाम पर हो रहे झूठे आडम्बरों के खिलाफ़ लगातार आवाज़ बुलंद करता है; जिसने स्वयं नास्तिक
रहकर अपने बच्चों को धर्म-निरपेक्षता की परवरिश दी है; उनके लिए मन में आदर भाव ही आता है। शायर, गीतकार, संवाद-लेखक, समाजसेवी, सांसद, और इन सबसे ऊपर
एक नेक दिल इंसान - जावेद अख़्तर सही मायनों में भारत का एक नायाब नगीना हैं जिसकी चमक से हमारी सोच हमेशा रौशन रहेगी।
जावेद अख़्तर: जीवन परिचय |
|
नाम |
जावेद अख़्तर |
जन्म |
१७ जनवरी, १९४५, ग्वालियर |
माता |
साफ़िया सिराज-उल-हक़ |
पिता |
जाँ निसार अख़्तर |
पत्नी |
हनी ईरानी (१९७२-१९८५); शबाना आज़मी (१९८४ – अब तक) |
पुत्र |
फ़रहान अख़्तर, [पेशे से नायक, गायक, फ़िल्मकार, गीतकार आदि] |
पुत्री |
जोया अख़्तर [फ़िल्म निर्देशक व् स्क्रीन राइटर]
|
शिक्षा एवं कार्यक्षेत्र |
|
मैट्रिक |
अलीगढ़ |
बी ए |
भोपाल |
कार्यक्षेत्र |
हिन्दी सिनेमा/राजनीति/समाजसेवा |
सांसद, विधान
सभा |
२१ मार्च २०१० – २१ मार्च २०१६ [कॉपीराइट (अमेंडमेंट)
बिल, २००१०
पारित करवाने में सक्रिय व् अहम् भूमिका] |
संवाद एवं पटकथा लेखन |
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सलीम-जावेद
की साझा फ़िल्में |
अंदाज़ (१९७१), अधिकार (१९७१), हाथी मेरे साथी (१९७१), सीता और गीता (१९७२),
यादों की बारात (१९७३), ज़ंजीर(१९७३), हाथ की सफ़ाई (१९७४), मजबूर (१९७४), आख़िरी दाँव
(१९७५), दीवार (१९७५), शोले (१९७५), प्रेमदा कनिके तथा राजा नन्ना राजा [कन्नड़ सिनेमा-१९७६],
चाचा-भतीजा (१९७७), ईमान-धरम (१९७७), डॉन (१९७८), त्रिशूल (१९७८), काला पत्थर (१९७९),
दोस्ताना (१९८०), शान (१९८०), क्रान्ति (१९८१), शक्ति (१९८२) |
जावेद अख़्तर
की फ़िल्में |
बेताब (१९८३), दुनिया (१९८४), मशाल (१९८४), मेरी जंग (१९८५) सागर (१९८५),
ज़माना (१९८५), डकैत (१९८७), मि. इण्डिया (१९८७), जोशीले (१९८९), मैं आज़ाद हूँ (१९८९),
खेल (१९९२), रूप की रानी चोरों का राजा (१९९३) प्रेम (१९९५) कभी न कभी (१९९८), लक्ष्य
(२००४), डॉन (रीमेक) २००६ |
गीतकार
जावेद |
सिलसिला, सागर, १९४२-अ लव स्टोरी, दिल चाहता है, साथ-साथ, नरसिम्हा, सैलाब, मि. इण्डिया, तेज़ाब, पापा कहते हैं, गर्दिश, बोर्डर, सपने, मृत्युदंड, विरासत, दिलजले, यस बॉस, जींस,
दरमियाँ, और प्यार हो गया, बड़ा दिन समेत १०० से भी अधिक फ़िल्मों के गीत लिखे
हैं| |
शायर जावेद |
लावा, तरकश |
पुरस्कार एवं सम्मान |
|
भारत सरकार
|
पद्मश्री [१९९९], पद्मभूषण [२००७],
साहित्य अकादमी पुरस्कार [२०१३, उर्दु साहित्य, पुस्तक लावा] |
फ़िल्मफ़ेयर
अवार्ड्स |
सर्वश्रेष्ट गीतकार [जोधा अकबर २००९],
लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड(२००७), सर्वश्रेष्ट गीतकार [वीर-ज़ारा २००५], सर्वश्रेष्ट
गीतकार [कल हो ना हो २००४], सर्वश्रेष्ट गीतकार [लगान २००२], सर्वश्रेष्ट गीतकार
[रिफ्युजी २००१], सर्वश्रेष्ट गीतकार [बॉर्डर १९९८], सर्वश्रेष्ट गीतकार [पापा कहते
हैं १९९७], सर्वश्रेष्ट गीतकार [१९४२:अ लव स्टोरी १९९५], सर्वश्रेष्ट संवाद [मैं
आज़ाद हूँ १९९०], सर्वश्रेष्ट पटकथा [शक्ति १९८३], सर्वश्रेष्ट पटकथा/सर्वश्रेष्ट
कहानी/ सर्वश्रेष्ट संवाद [दीवार १९७६], सर्वश्रेष्ट पटकथा/ सर्वश्रेष्ट कहानी [ज़ंजीर
१९७४] |
राष्ट्रीय
पुरस्कार |
सर्वश्रेष्ट गीत [लगान २००१], सर्वश्रेष्ट
गीत [रिफ्युजी २०००], सर्वश्रेष्ट गीत [गॉडमदर १९९८], सर्वश्रेष्ट गीत [बॉर्डर १९९७],
सर्वश्रेष्ट गीत [साज़ १९९६] |
अन्य |
आइफा अवार्ड्स [भारतीय सिनेमा में
उत्कृष्ट योगदान के लिए २०१३ में] सर्वश्रेष्ठ गीतकार [जोधा-अकबर, ॐ शान्ति ॐ, स्वदेस, कल हो न हो, लगान, रिफ्युजी] लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड, मिर्ची म्युज़िक अवार्ड, २०१५ |
रिचर्ड
डॉकिन्स अवॉर्ड, २०२० |
तर्कसंगत विचार, धर्मनिरपेक्षता और मानव विकास और मानवीय
मूल्यों को अहमियत देने के लिए |
सन्दर्भ:
●
विकिपीडिया
●
https://hindi.filmibeat.com/celebs/javed-akhtar/biography.html
●
http://javedakhtar.com/Apne-Baare-Mein.php
●
https://dhakadbaate.com/javed-akhtar-hindi-quotes-shayari/
लेखक परिचय:
साहित्य के प्रति आकर्षण और काव्य से ख़ासा अनुराग रखने वाली दीपा लाभ १३ वर्षों से अध्यापन कार्य से जुड़ी हैं और विभिन्न शैक्षणिक संस्थानों में अतिथि लेक्चरर के रूप में व्याख्यान देती रहतीं हैं| साथ ही, हिन्दी व अँग्रेज़ी भाषा में रोजगारपरक पाठ्यक्रम तैयार कर सफलतापूर्वक चला रही हैं| दीपा लाभ 'हिन्दी से प्यार है' समूह की सक्रिय सदस्या हैं तथा 'साहित्यकार तिथिवार' परियोजना की प्रबंधक-सम्पादक हैं।
ईमेल: deepalabh@gmail.com; WhatsApp: +91
8095809095
जावेद अख्तर को सहजता के साथ समझने, परखने और आत्मसात करने का मौका मिला. अच्छी रचना..
ReplyDelete. डॉ. जियाउर रहमान जाफरी
आभार आपकी लेखनी ने हमें जावेद अख़्तर जी के जीवन और उपलब्धियों से परिचित करवाया
ReplyDeleteदीपा जी,जावेद अख्तर जैसे महान कलाकार व लेखक से इतने प्रभावशाली ढंग से परिचित कराने के लिए आपका तहे दिल से शुक्रिया।
ReplyDeleteहिन्दी सिनेमा के सर्वश्रेष्ठ गीतकार और पटकथा लेखक जावेद अख्तर जी के जीवन पर प्रकाश डालने के लिए आपको साधुवाद।
ReplyDeleteजावेद अख़्तर की कथनी और करनी में बहुत अंतर है । ऐसा कुछ भी नहीं है जो किसी को समझ न आता हो, धर्मनिरपेक्षता, मानव विकास या फिर इनकी नास्तिकता ये सब दुनिया को गुमराह करने के लिए हैं।सोशल मीडिया पर जो देखा सुना और इनके भाषण बयां करते हैं ।
ReplyDeleteदीपा जी, जावेद अख्तर पर इतना सुन्दर,ज्ञानवर्धक व शोधपूर्ण आलेख के लिए, जिसमें आपने जावेदजी के फिल्म कैरियर के साथ-साथ साहित्यक पहलुओं को रखा, बहुत-बहुत बधाई।
ReplyDeleteउफ़! दीपा जी , कैसे ज़ालिम शायर चुनती हैं आप ! पहले दुष्यंत कुमार और अब जावेद अख़्तर।दोनों ज़हीन शायर। इनके प्रेम काव्य में भी वैचारिकी स्पष्ट दिखती है।साहिर और गुलज़ार की दिल की शायरी से एकदम अलग। आपने सुंदर लेख लिखा है।मैं आप सबको इनकी ग़ैर-फ़िल्मी शायरी पढ़ने सुनने के लिए प्रोत्साहित करना चाहता हूँ । बहुत बरस पहले जब इन्होंने फ़िल्मों में गीत लिखने शुरू नहीं किए थे , तब मैंने टेलिविज़न के मुशायरे में इनकी नज़्म सुनी : वो कमरा याद आता है। मेरे मुँह से अनायास निकला : क्या शायर है! ज़ेहन में जज़्बात लिए घूमता है। फिर मदर टेरेसा सुनी।फिर ये खेल क्या है। फिर तो झड़ी लग गई। इस पटल पर रचनाओं का जमघट ना हो जाए , इसलिए एक PDF फ़ाइल भेज रह हूँ। जिनको रुचि हो , अवश्य पढ़ें।किताब में से ली तस्वीरें थोड़ी बेतरतीब मिलेंगी। एकरूप नहीं होंगी।😊
ReplyDeleteउनकी आज तक की सर्वश्रेष्ठ रचना लगती है : वक़्त। कोई शायर कल्पनाशीलता में कैसे वैज्ञानिक हदें पार कर जाता है , इसका उत्कृष्ट उदाहरण है । मैंने तो अब तक किसी शायर से यह ख़याल नहीं सुना। उनके मुँह से सुनने में ही आनंद आएगा, इसलिए रेख़्ता का यूट्यूब लिंक दे रहा हूँ। जिसे भी रुचि हो , अवश्य सुने। जिन्होंने जावेद अख़्तर की ग़ैर-फ़िल्मी शायरी नहीं पढ़ी-सुनी, अवश्य पढ़ें । आप जानेंगे कि यह शायर दरअसल चीज़ क्या है ! 💐🙏
एक त्रुटि हुई , दीपा जी। आपने नीरज पर लिखा था , दुष्यंत पर नहीं । मुझे ग़लत ध्यान रह गया । क्षमा करें। 🙏
Deleteबहुत बहुत धन्यवाद हरप्रीत जी| आपकी हौसलाअफजाई से आगे और अच्छा लिखने की प्रेरणा मिलती है|
Deleteलिखना एक बात है किंतु एक बार पढ़ना शुरू करने पर पूरा पढ़े बिना रहा न जाए ... यही खास है
ReplyDeleteबहुत सुंदर लेख दीपा जी,
ReplyDeleteपहली बार किसी के माध्यम से आपके ब्लॉग से मेरा राब्ता हुआ। काफी अच्छा लगा। जावेद जी मेरे पसंदीदा शायरों में से एक हैं परंतु उनकी बारे में सिलसिलेवार जानकारी काफी अच्छी लगी।
धन्यवाद महोदया!
Deleteमशहूर शायर और गीतकार जाँ निसार अख़्तर के बेटे जावेद अख्तर साहब दुनिया के वह सितारे हैं जिनकी चमक हर शख्स के दिल-ओ-जहन में फैली हुई है। हर उम्र के लोगों पर इनकी शायरी,गीत तथा शब्दों का जादू बिखेरा हुआ है शायद इसलिए उन्हें घरवाले *जादू* के नाम से भी बुलाते हैं। आदरणीया दीपा जी की लेखनी इस बार भी कमाल कर गई। जावेद साहब का साहित्य संसार इतना बढ़ा है कि उन्हें कम और संतुलित शब्दों में लिखना इतना आसान नहीं है। आपने आज भी अपने लेखनी का जादू बिखेरा है। आपको बहुत बहुत बधाई और शुभकामनाएं।
ReplyDeleteधन्यवाद सूर्या जी!
Deletebahot achchha likh rahi ho har nazar se. bhasha sundar hai shailee bhi. urdu aur hindi ka sangam ise bol chal ki bhasha bana deta hai.
ReplyDeleteek salah hai. har paanch saat aalekh ke baad baahar niklo aur dillee Mumbai jo bhi related bachenge hain, wahan ka Chakkar laga lo. wo saahitykaar zinda hai to use interview karo, uske aap paas ke logon ke interview karo aur agar wo marhoom hai to uske aap paas rahe logon ko interview karo. phir apne aalekh ke sath us material ko bhi likho.
is tarah kitabon ki ek achchhi series ban jayegi. jahan meri help ki zaroorat pade main hoon hi.
आपकी सलाह और आपका साथ सर आँखों पर! मैं ज़रूर ऐसा करुँगी| एक बार कोविड सिचुएशन काबू में आ जाये, मेरा भी यही मन है| मुम्बई में आपके रहते मुझे कुछ सोचने की ज़रूरत ही नहीं है| आपका आशीर्वाद बना रहे, बस! आभारी हूँ| आपका सन्देश देखकर मन प्रसन्न हो जाता है|
Deleteदीपा, एक ऐसी शख़्सियत के बारे में क़लम चलाई है तुमने, जिसकी आवाज़ और अल्फ़ाज़ का जादू हर सर चढ़कर बोलता है, इसलिए उसे शब्दों में बाँधना नामुमकिन सा हो जाता है। ज्वलंत मुद्दों पर आवाज़ उठाने और उसे खूबसूरत नज़्म में पिरो देने वाले इस शायर की हर रचना पहली से बेहतर लगती है। कुछ रचनाएँ परत दर परत सवाल उठाती जाती हैं और उनके जवाब भी देती जाती हैं। क़लम का जादू चलाने के अलावा यह शख़्स इंसानियत की हर पल पैरवी करता है। इतने विस्तृत व्यक्तित्व पर सीमित शब्दों में अनुपम आलेख लिखने के लिए बहुत बहुत बधाई और आभार।
ReplyDeleteसहमत । सीमित शब्दों में बहुत सारा अध्ययन प्रस्तुत किया है दीपा जी ने । 👍
Deleteएकदम सहज सरल शैली में जावेद साहब की पूरी शख्सियत को सामने रख दिया...बहुत बहुत बधाई
ReplyDeleteदीपा जी, जाने-माने शायर और लगभग तीन दशकों से अपने गीतों और संगीत से जगत को सरोबार करने वाले गीतकार जावेद अख्तर पर आपने बहुत रोचक और प्रवाहमय आलेख लिखा है। इनकी रूमानी नज़्में सहज ही लोगों का ध्यान आकर्षित करतीं हैं। आपको आलेख के लिए बधाई और धन्यवाद। भावी लेखन के लिए शुभकामनाएँ।
ReplyDeleteदीपा जी, आपने पुनः एक बढ़िया लेख लिखकर पटल पर उपलब्ध करवाया। लेख पढ़ने में रोचक एवं जानकारी भरा है। इस उत्तम लेख के लिये आपको बहुत बहुत बधाई।
ReplyDeleteवाह, बहुत बढ़िया आलेख! जो पढ़ना शुरू किया तो पूरा पढ़कर ही दम लिया। आपने इतने बहुआयामी व्यक्तित्व को अपने आलेख में शब्द-सीमा का ध्यान रखते हुए, सहज शब्दों में, प्रवाहमयता के साथ बख़ूबी पेश किया है। बहुत-बहुत बधाई, दीपा!
ReplyDeleteआप सभी के प्रोत्साहन भरे शब्द मन पर जादुई असर करते हैं| आप सभी को तहे दिल से शुक्रिया! आभार!
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