Sunday, July 10, 2022

प्रवासी साहित्यकार सुषम बेदी: जीवन के विविध पक्षों की पैरोकार

विशेषांक | साहित्य कुंज

अधरों पर मधुर स्मित, आँखों में हिलोरे लेता स्नेह का विशाल सागर, भारतीयता को भीतर–बाहर सहेजे समेटे, दृढ इच्छाशक्तियुक्त, निर्भीक और आत्मविश्वास से लबरेज, जो एक बार इस अद्भुत और जादुई व्यक्तित्व से मिल भर ले ताउम्र उस आकर्षण से मुक्त न हो पाए।  कुछ ऐसे  ही सुन्दर, सौम्य व्यक्तित्व की स्वामिनी थीं सुषम बेदी । ०१  जुलाई, १९४५ को पंजाब के फिरोजपुर में जन्मीं, सुषम बेदी ने दिल्ली यूनिवर्सिटी से एम.फिल. और पंजाब यूनिवर्सिटी से पीएचडी की उपाधि प्राप्त की । आकाशवाणी, दूरदर्शन और रंगमंच से जुड़ीं सुषम बेदी के जीवन की इस यात्रा में एक पड़ाव ऐसा भी आया जब उन्हें अपनी जड़ों से  कटकर बसना पड़ा सात समंदर पार संयुक्त राज्य अमेरिका में। अमेरिका प्रवास के आरंभिक दिनों में अभिनय और रंगमंच से प्रेम के कारण वहां  टेलीविजन कार्यक्रमों और कुछ फ़िल्मों में काम किया। तत्पश्चात न्यूयॉर्क में कोलंबिया विश्वविद्यालय में हिंदी भाषा और साहित्य की प्रोफेसर नियुक्त हुईं । बहु आयामी व्यक्तित्व वाली सुषम बेदी की लेखन में गहरी अभिरुचि  थी, जिससे उन्हें जीवन जीने की प्रेरणा मिलती  थी ।  वे अक्सर कहा करतीं कि, जब नहीं लिख रही होती हूँ तो बेचैन हो जाती हूँ और उनकी इसी बेचैनी की ख़ूबसूरत परिणति ‘हवन’, ‘लौटना’, ‘कतरा दर कतरा’, ‘इतर’, ‘गाथा अमर बेल की’, ‘नवाभूम की रसकथा’ ,’मोर्चे’, ‘मैंने नाता तोड़ा’ और ‘पानी केरा बुदबुदा’ जैसे बहुचर्चित और महत्वपूर्ण उपन्यासों के रूप में देखने को मिलती है। उपन्यास के अतिरिक्त उनकी कहानियों का भी विशाल संसार है। उनकी पहली कहानी ’जमी बर्फ का कवच’ सन १९७८ में कहानी पत्रिका में प्रकाशित हुई,  जिस पर श्रीपत राय ने लिखकर भेजा था कि  ‘कहानी अच्छी है। लिखती  रहोगी तो हाथ धीरे-धीरे खुल जाएगा’। आगे चलकर यही वाक्य सुषम जी के लिए लेखन का मूल मंत्र सिद्ध हुआ। तबसे लेकर ताउम्र उनकी कलम साहित्य की विभिन्न विधाओं में  अविराम चलती रही और पाठकों को अपना मुरीद बनाती रही ।

सुषम जी के साहित्य में विषय का अथाह विस्तार है, जिसमें स्त्री-विमर्श, प्रवासी विमर्श ,पीढ़ियों के टकराव, स्त्री-पुरुष संबंध और इन संबंधों में आ रहे परिवर्तनों आदि से जुड़े विभिन्न मुद्दों पर बात की गई है। ‘हवन’  सुषम बेदी का पहला उपन्यास है जिसने उन्हें  अपार ख्याति दिलाई। इस उपन्यास ने न केवल उनकी मनोभूमि को विस्तार दिया, उनका  विशाल पाठक वर्ग तैयार किया बल्कि आलोचकों द्वारा उनकी रचनाधर्मिता को एक सिरे से स्वीकार करने पर भी बाध्य किया। उपन्यास पर अब तक अनेकों शोधकार्य किये जा चुके हैं और भारत से बाहर लिखे जा रहे साहित्य में इसे मील का पत्थर कहा जाये तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। उपन्यास का घटनाक्रम मूलतः तीन बहनों के इर्द गिर्द घूमता है जो भारतीय संस्कार लेकर अमेरिका आती हैं, लेकिन भौतिकता के मोह में उनका परिवार अपनी सारी नैतिकता, मूल्यों, संस्कारों को हवन कर देता है। उपन्यास के माध्यम से लेखिका यक्ष प्रश्न रखती हैं कि भौतिकता की चकाचौंध में अपने नैतिक मूल्यों की समिधा देकर किये गए इस हवन का अभीष्ट क्या है? एक अन्य उपन्यास जिसकी चर्चा करना यहाँ जरुरी प्रतीत होता है, वह है- ‘गाथा  अमरबेल की’। यह उपन्यास  एक ऐसी माँ शन्नो की कहानी है जो अपने बेटे के विवाह के बाद भी उस पर अपना अधिकार बनाये रखने की दमित इच्छा के कारण मात्र उसका दाम्पत्य जीवन ही बर्बाद नहीं करती, बल्कि उसकी मृत्यु का कारण भी बनती है। अपनी कथावस्तु से अधिक अपनी प्रयोगधर्मिता के कारण उपन्यास अधिक प्रभावी कहा जा सकता है। लेखिका उपन्यास के तीन अंत पाठकों के सामने प्रस्तुत करते  हुए औपन्यासिक शिल्प का बखूबी निर्वाह तो करती ही है अभिभावकों द्वारा प्रेम का नाम लेकर अपने बच्चों पर किये स्वामित्व पूर्ण अधिकार पर भी विचारणीय सवाल उठाती हैं –‘प्रेम आत्ममोह है या परमोह? प्रेम, सुख पाकर फलना-फूलना ओर हरीतिमामय आनंद है या कि सर्वस्व देकर रिक्त हो जाना, सूख जाना! प्रेम की प्रकृति क्या है लोभ या संचय? दान या विलय? प़्रेम सच में इतना सर्वग्रासी होता है कि अपने प्रणय के पात्र को ही खा डाले।" 


सुषम बेदी का समग्र साहित्य चाहे उपन्यास हों, कहानियाँ हों या फिर कविताएँ हों, सभी का विचारबिन्दु यथार्थ के बहुत करीब है, लेखिका ने या तो उसे खुद जिया है या उन्हें निकट से महसूस किया  है। उसके पात्र और घटनाएँ आसपास के परिवेश से लिए गए हैं जिनमें सच्चाई है और इसी कारण ये अपने से लगते हैं। साधारणीकरण की  खूबी और  विषयगत सरलता लिए उनके कहानी और उपन्यास पाठकों के समक्ष पर्त दर पर्त खुलते जाते हैं । औपन्यासिक कला पर चर्चा करते हुए  अपने लिखे हुए को जीने के बारे में वे कहती हैं "मैं जो कुछ भी लिखती हूँ उसे जीती हूँ। सालों तक जीती हूँ, जब तक उपन्यास ख़त्म नहीं हो जाता। बहुत बार देर तक भी जीती हूँ। ख़ुद भी रस लेती हूँ, चाहे वह पीड़ा हो। बहुत बार हैरान भी होती हूँ कि क्या मैं पाठक जैसा सुख ले रही हूँ या कि यह लेखन का सुख कुछ और ही है। पीड़ा को भी बार-बार भोगना, उसे सोचना शायद परवरेट़ड सुख हो सकता है।


सुषम बेदी की  रचनाओं में विश्व भर में बसे  प्रवासी भारतीयों के संघर्ष और अंतर्द्वंद्वों का प्रतिबिम्ब देखा जा सकता है। परदेस में बसे भारतीय जहाँ अपनी मातृभूमि से विमोहित  नहीं हो पाते ,वहीं देस वापस जाने पर वहाँ का बदला मौसम उन्हें निराशा और अवसाद में ढाल देता है। ‘लौटना’ कहानी का यह वाक्य- 'यदि तुम विदेश में नौकरी करना चाहते हो तो भूल जाओ कि जब तुम यहाँ आना चाहो तो सब कुछ वैसा का वैसा बरकरार रहेगा,देश बदलता है तो और भी बहुत कुछ बदलता है- लोगों के मन बदलते हैं ' दिखाता है कि परिवर्तन को स्वीकारना कठिन ही नहीं, दुष्कर भी  है। सुषम बेदी की अधिकाँश रचनाओं में भारतीय  संस्कारों में पगे प्रवासियों की उस आम मनोस्थिति का चित्रण है, जिसके चलते वे न तो ठेठ  भारतीय ही  रह पाते हैं और न ही विदेश के परिवेश में घुलमिल जाने की बलवती इच्छा के बावजूद पाश्चात्य समाज द्वारा स्वीकारे जाते हैं। यही कारण है कि ‘काला लिबास’ कहानी की नायिका भारत के प्रति अपने प्रेम के वशीभूत हो कुछ ऐसा कर जाती है जो अमेरिका में रंग में रंग चुके उनके माता-पिता के लिए भी अप्रत्याशित हो जाता है  । मनोस्थितियों के अंतर्द्वंद्व में जकड़ी और दोराहे पर भटकती नायिका की इस पीड़ा को  लेखिका ने  समस्त प्रवासियों की पीड़ा बना दिया है ''वहाँ जाकर मैं वहीं की हो जाती हूँ। कोई मुझसे यह नहीं पूछता कि मैं कहाँ से हूँ, मैं किसी को विदेशी नहीं लगती। और यहाँ जहाँ कि मैं पैदा हुई हूँ, जहाँ मेरा घर है, हमेशा से रहती आ रही हूँ, वहाँ हर नया मिलनेवाला सबसे पहले यह पूछता है कि मैं किस देश से हूँ जैसे कि मैं अमरीकी हो ही नहीं सकती। जबकि मैं भी उन्हीं की तरह यहाँ की नागरिक हूँ। यह सवाल चाहे मैंने अमरीकी कपड़े पहने हो या भारतीय, उठाया ही जाता है। दूसरी तरफ़ कोई गोरी लड़की अगर भारतीय पोशाक भी पहन ले तो भी उसे सब अमरीकी ही मानते हैं जैसे कि यह देश सिर्फ़ गोरों का ही हो।''


सुषम जी अपनी लेखनी के माध्यम से  विभिन्न संस्कृतियों के विरोधाभास को ही चित्रित नहीं करतीं बल्कि दो पीढ़ियों के उस सामाजिक टकराव को भी व्यंजित करती हैं जिसमें माता-पिता चाहते हैं कि उनके बच्चे अंग्रेजों के साथ बराबरी से तो चलें लेकिन घर में संस्कारिता का जामा पहनकर आदर्श प्रतिमान भी बनें। दोहरी मानसिकता से घिरे भारतीयों के इस अंतर्द्वंद्व से बखूबी परिचित सुषम जी  पीढ़ियों के दर्द को व्यक्त करने के साथ-साथ अपने पाठकों के भावनात्मक साम्य बनाकर संवाद की खिड़कियाँ भी खोलती हैं। 


सुषम बेदी अपनी कहानी और उपन्यासों के माध्यम से देस-परदेस की स्थितियों, जिंदगी की अप्रत्याशित घटनाओं, बहु प्रतीक्षित खुशियों-उदासियों, देश से दूर रहने के दर्द, और इच्छाओं–अनिच्छाओं  के व्यामोह में झूलती जीवन की विकट समस्याओं पर  कभी अनदेखे अनसुलझे प्रश्नचिह्न लगाती हैं, तो कभी उनका सहज समाधान ढूँढ़कर पाठकों को हतप्रभ कर  देती हैं।  उनकी लेखनी का यही अलहदापन उनकी खासियत है जो  पाठकों के दिल में उनके लिए बेपनाह मुहब्बत भर  देता है ।

 

उपन्यास और कहानियों के अतिरिक्त सुषम बेदी की कविताओं ने भी अपनी ख़ास पहचान बनाई है। कविता के प्रति उनका प्रेम कुछ इस कदर देखा जा सकता है  कि  अपने उपन्यास ‘नवाभूम की रसकथा’ में कई स्थानों पर बेहतर अभिव्यक्ति के लिए उन्होंने कविताओं का बहुत ही खूबसूरत प्रयोग किया है। गद्य में पद्य के समावेश को स्वीकारते हुए वे उपन्यास की भूमिका में कहती हैं कि -"नवाभूम की रसकथा में कविता और उपन्यास घुलमिल गए हैं। इसी से कई कविताएँ भी उपन्यास में बिखरी दिख जाएँगी। इस उपन्यास में जहाँ कविता पद्य रूप मे नहीं आई, वहाँ कथा अलग-अलग विधा होते हुए भी एक दूसरे में घुलमिल गई है।"  उपन्यास में किये गए  इस काव्यमय प्रयोग के कारण ही आलोचकों के एक वर्ग ने उनके उपन्यास को  गद्यात्मक महाकाव्य की श्रेणी दे दी है । 


सुषम बेदी अपने  लेखन के माध्यम से प्रवास में बसे भारतीयों के दिल की बात  कहती हैं  वहीँ दूसरी ओर विश्व भर की आधी आबादी के लिए अपनी कलम उठाती हैं, उनके  संघर्षों के लिए चिंतित दीखती हैं, उनकी लड़ाई को मजबूती देती हैं, उनके अधिकारों की पैरवी करती हैं और इन सबसे ऊपर उन्हें अपने लिए सोचने ,अपने खुद के लिए जीने के लिए  प्रेरित करती हैं। यही कारण है कि उनके लेखन के केंद्र में स्त्रियाँ हैं ], ऐसी स्त्रियाँ जो साहस से अपने निर्णय खुद लेने की क्षमता रखती हैं और अपने चरित्र-व्यवहार से अपना सर ऊंचा करके चलने का माद्दा भी रखती हैं । फिर चाहे वह "सड़क की लय" की नेहा हो "विभक्त" की अनन्या हो "चिड़िया और चील" की चिड़िया हो या फिर उम्र के साथ साल में अपने लिए पति खोजती रत्ना हो । ये सभी पात्र मात्र यही उद्घोष करते है कि अपनी पहचान तलाशना युग की माँग है , समस्त नारी जाति के लिए अनिवार्यता है।  


शब्द सीमा से बंधे होने के कारण सुषम बेदी के समग्र साहित्य पर व्यापक चर्चा निश्चित ही संभव नहीं, लेकिन इतना अवश्य कहा जा सकता है कि उनका एक-एक  उपन्यास, एक-एक कहानी ,एक-एक कविता साहित्य का वह मोती है जिसकी चमक कभी फीकी नहीं पड़ेगी । स्त्रियों पर लिखी गई उनकी एक बहुचर्चित और मेरी बहुत ही प्रिय कविता पाठकों केलिए यहाँ उद्धृत कर रही हूँ  :


लड़की थकी है
उसे गोद नहीं मिलती
जिस्म दुखता है
कंधा नहीं मिलता
बाँहों का घेरा बनाए बैठी है लड़की
सिर गिरफ़्त में नहीं आता
लड़की को कोई हक़ नहीं
लड़की बन कर रहने का
या तो माँ बनेगी
या वेश्या
कुछ और बनने की जिद करेगी
तो सूली चढ़ेगी


अमेरिका के प्रसिद्ध साहित्यकार और हिंदी-प्रेमी अनूप भार्गव द्वारा सुषम बेदी के साहित्य पर आधारित समस्त सामग्री को एकत्रित करके www.sushambedi.com पर संकलित किया गया है। सुषम बेदी-साहित्य के प्रशंसकों और उन पर शोध करने वाले अनुसंधित्सुओं के लिए यह वेबसाइट निश्चित ही बहुमूल्य उपहार है । 


संक्षिप्त परिचय 

जन्म 

०१ जुलाई १९४५ 

जन्मस्थान 

फिरोजपुर,पंजाब 

प्रमुख कृतियाँ 


उपन्यास 

हवन (१९८९,२०१५), लौटना (१९९४-२०१५), कतरा दर कतरा (१९९४-२०१५), इतर (१९९८), गाथा अमरबेल की (१९९९), नवाभूम की रसकथा (२००२), मोर्चे (२००६), मैंने नाता तोड़ा (२००९), पानी केरा बुदबुदा (२०१६)

कहानी संग्रह 

चिड़िया और चील(१९९५-२०१५), सड़क की लय और अन्य कहानियाँ, तीसरी आँख (२०१५), यादगारी कहानियाँ (२०१४)

निबंध संग्रह

हिंदी भाषा का भूमंडलीकरण (२०१२), आरोह-अवरोह (२०१५),

कविता संग्रह

शब्दों की खिड़कियाँ (२००६), इतिहास से बातचीत (२०१६)

आलोचनात्मक कृतियाँ

हिंदी नाट्य प्रयोग के संदर्भ में (१९८४), भाषा शिक्षण से जुड़ी विविध सामग्री अंग्रेजी में प्रकाशित।

सम्मान

सुषम बेदी को हिंदी सेवा के लिए अनेक सम्मानों से विभूषित किया गया जिनमें उत्तरप्रदेश हिंदी संस्थान, केंद्रीय हिंदी संस्थान, साहित्य अकादमी संस्थानों के सम्मान विशिष्ट हैं । 

निधन

१९ मार्च ,२०२० 


लेखक परिचय : 

https://lh3.googleusercontent.com/bjTI3T7D-tMdsiWbPwD0u4qmbcr1cc7nL_IrnYenMRNvJmdpAl-XMnEJir-saIWcXk9jusiuWdwcFfItzA2ZQ55cfEy-o609N0Br8WprXT495eXZrntQconuWnqjyc8r_P_MNGM  

डॉ. नूतन पाण्डेय, भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय में सहायक निदेशक पद पर पदस्थ हैं और २०१५ से २०१९ तक भारतीय उच्चायोग, मॉरीशस में राजनयिक के रूप में पदस्थ रहींभाषा विज्ञान, प्रवासी साहित्य में विशेष रूचि हैआपकी अनेक पुस्तकें प्रकाशित हैं.      



8 comments:

  1. कितना अद्भुत आलेख है नूतन जी यह! आज spell check करते हुए spellbound हो गई! हार्दिक अभिनंदन और धन्यवाद 🙏🏻

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  2. बहुत गहरा आलेख है, नूतन जी। जितनी गहराई आपने सूषम जी के लेखन में बताई है, उतनी ही गहराई से आपने उनके ऊपर लिखा है। लड़की पर कविता का उद्ग्ररण सत्य की कौंध देकर जगाता है। स्त्री हो या पुरूष , हम उसे वह होने दें जो वह होना चाहती/चाहता है तो यह दुनिया कई गुणा और खूबसूरत हो जाएगी ।
    आपको सूषम जी से इतना सुंदर परिचय करवाने के लिये धन्यवाद । शुभकामनाएँ । 💐💐

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  3. नूतन जी, सुषम जी के लेखन के विभिन्न विषयों और आयामों को आपने सीमित आलेख में कितनी ख़ूबसूरती से समेटा है! वाह! कितनी अच्छी बात थी कि सुषम जी अगर न लिखें तो बेचैन हो जाती थीं, उनकी वह बेचैनी हिंदी साहित्य को कितने अनमोल मोती दे गयी। आपको रम कर लिखे गए इस आलेख के लिए बहुत बधाई और आभार।

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  4. नूतन जी, हृदयग्राही आलेख। पढ़ने में लोरी जैसा और कथानक गूढ़ गंभीर। बहुत-बहुत बधाई।

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  5. करीने से सहेजकर लिखा गया गवेषणात्मक लेख। गुणग्राही अवलोकन।अभिनंदन।

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  6. डॉ. नूतन जी नमस्ते। प्रवासी साहित्यकार सुषम बेदी जी पर आपका लेख बहुत अच्छा है। आपके लेख के माध्यम से उनके जीवन एवं साहित्य यात्रा को जानने का अवसर मिला। आपको इस रोचक एवं जानकारी भरे लेख के लिए हार्दिक बधाई।

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  7. 'मैं जो कुछ भी लिखती हूँ, उसे जीती हूँ ' की विचारधारा लिए सुषम बेदी पर आपका आलेख माला के मोती सरीखा दमक रहा है नूतन जी। सुषम बेदी जी के व्यक्तित्व को उद्बोधित करते इस अनुपम लेख के लिए आपको हार्दिक बधाई।
    - विनीता काम्बीरी।

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  8. नूतन जी .. आपने बहुत ख़ूबसूरती के साथ सुषम जी के हर एक पक्ष को सामने रखा और उनकी रचनाओं की गहन समीक्षा की । इस मन को छूने वाले लेख के लिए आपको हार्दिक बधाई 🙏

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