राष्ट्रप्रेम से बड़ा कोई प्रेम नहीं और देश-सेवा से बड़ा कोई धर्म नहीं। १८५७ का विद्रोह देश को आज़ादी दिलाने में भले ही असफल रहा हो, किन्तु देशप्रेम का ऐसा बीज बो गया कि सैकड़ों सालों की दासता से डरी-सहमी जनता भी दृढ़ होती गई और अंततः स्वराज्य का सपना साकार हुआ। इस विद्रोह से ठीक एक वर्ष पूर्व जन्मे एक बालक के मन में भी शैशव-काल से ही स्वराज्य का अँकुर फूटा था और अपने कर्मों से उसने देश की दशा बदलने का आग़ाज़ किया। वह उग्र किन्तु परम्-राष्ट्रभक्त बालक था केशव गंगाधर तिलक जिसे स्वजन ‘बाल’ बुलाते थे और आगे चलकर वह इसी नाम से ‘लोकमान्य’ हुआ। बाल गंगाधर तिलक, जिसके लेखों ने अँग्रेज़ी हुकूमत की ईंट-से-ईंट बजा दी थी; जिसकी कलम ने तलवार से भी धारदार वार कर अँग्रेज़ी कुशासन के परखच्चे उड़ा दिए और सैकड़ों देशभक्तों को सामाजिक चेतना और सांस्कृतिक स्वावलंबन की ओर ले गई; और जिसकी पुस्तकों ने हमारे वेदों और हमारी संस्कृति के उद्गम और कर्तव्यों से हमारा परिचय कराया – ऐसे युगपुरुष, समाज-सुधारक, राष्ट्रभक्त, परमज्ञानी लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के ओजपूर्ण जीवन के कुछ पहलू आपके समक्ष प्रस्तुत हैं:
कोंकण के समुद्री तट रत्नागिरी
में २३ जुलाई १८५६ को एक निम्न-मध्यम वर्गीय ब्राह्मण परिवार में तीन बहनों के बाद
एक पुत्र रत्न के आगमन ने ख़ुशियों की फुहार कर दी थी। पिता गंगाधर शास्त्री संस्कृत
और गणित के प्रकाण्ड पण्डित थे और शिक्षण कार्य में रत थे। बाल जब एक वर्ष के थे
तभी १८५७ का विद्रोह हुआ और वे अपने पैतृक गाँव चिखला आ गए। यहीं पितामह रामचंद्र
पन्त के मुख से इस विद्रोह के किस्से-कहानियाँ सुनकर वे बड़े होने लगे। स्वतंत्रता के
विचारों ने उस बालमन को स्वराज्य और स्वाधिकार की भावनाओं से भर दिया। पारंपरिक ब्राह्मण
परिवार के माहौल ने उन्हें हिन्दू संस्कार और वेदों के प्रति सहज आकर्षित किया।
बाल जब दस वर्ष के हुए, पिता समूचे
परिवार के साथ पूना (पुणे) आ गए। वे अपने बच्चों की शिक्षा को लेकर बहुत गम्भीर थे
और पूना उनके बच्चों को बेहतर अवसर देगा, यह सोचकर उन्होंने पुणे
में शिक्षण कार्य स्वीकार कर लिया था। उनका सोचना सच साबित हुआ और बाल को यहाँ
अपनी प्रतिभा के अनुसार अवसर मिलते रहे। बाल बहुत नटखट, उग्र
किन्तु मेधावी छात्र थे। एक बार पिता ने उनसे कहा कि यदि वे संस्कृत का एक श्लोक
याद कर सुनाएँगे तो उन्हें ईनाम मिलेगा। बाल ने उन्हें सम्पूर्ण गीता कंठस्थ कर सुना
दी। उनकी इस मेधा से पिता को यकीन हो गया था उनका यह लाल भारत का भविष्य बनाने में
सक्षम होगा। पिता की छत्रछाया ने संस्कृत और गणित के प्रति उन्हें स्वतः आकर्षित किया। सोलह वर्ष की उम्र में पिता का स्वर्गवास हो गया किन्तु उनकी सीख और संस्कार आजीवन बाल के साथ रहे। उन दिनों कम उम्र में ब्याह होना आम बात थी – मैट्रिक
करते ही बाल ‘सत्यभामा’ नामक कन्या से विवाह-बंधन में बाँध
दिए गए। ससुराल वालों ने तोहफ़े में सोने की अँगूठी व अन्य सामग्रियाँ देने की इच्छा जताई तो
दामाद ने विनम्रता से मना करते हुए कहा कि यदि कुछ देना ही चाहते हैं तो पुस्तकें
दें – जीवन की अमूल्य निधि होती हैं पुस्तकें।
१८७२ में उन्होंने
डेक्कन कॉलेज में दाखिला लिया। यहीं उनके अधिकांश विचारों को आकार मिला। अपने
मित्र गोपाल गणेश आगरकर के साथ वे घंटों देश की दुर्दशा पर चिंतन किया करते थे।
तंदुरुस्ती और सेहत बनाने के इरादे से खेल-कूद और पहलवानी में रुचि लेने लगे, किन्तु इससे उनकी पढ़ाई पर प्रतिकूल प्रभाव
पड़ा। ऐसे समय में गणित के अध्यापक गेरुनाना छत्रे ने उनका उत्साहवर्धन किया और १८७७
में वे गणित से स्नातक हुए। यहीं रेखागणित और खगोलशास्त्र में उनकी रुचि जगी जो
आगे चलकर उनके पुस्तक-लेखन में सहायक बनी। तत्पश्चात उन्होंने एल.एल.बी. की डिग्री
हासिल की। वे चाहते तो वकालत अपनाकर एक आरामदेह जीवन जी सकते थे किन्तु स्वराज्य
का जुनून उन्हें देश-सेवा की ओर ललकार रहा था और उन्होंने इसे ही अपना ध्येय बनाया।
तिलक शिक्षा को किसी भी
व्यक्तित्व का बहुत ही महत्वपूर्ण आयाम मानते थे। बहुत कम उम्र में ही उन्हें यह
समझ आ गया था कि ब्रिटिश सरकार स्वार्थ के वशीभूत भारतीयों को अँग्रेज़ी शिक्षा दे
रही है जिसका एकमात्र उद्देश्य भारत में नौकर-वर्ग का निर्माण करना था जिससे वे भारतीयों
से मनचाहे कार्य करवा सकें। समान विचारधारा के कुछ मित्रों ने जब उनकी मंशा जानी
तब सबने मिलकर एक विद्यालय खोलने की ठानी। उन्होंने अपने तीन मित्रों – गोपाल गणेश
आगरकर, विष्णु शास्त्री चिपलूनकर और महादेव बल्लाल
नामजोशी के साथ मिलकर १ जनवरी १८८० को ‘न्यू इंग्लिश स्कूल’
नाम से माध्यमिक शिक्षा विद्यालय की शुरुआत की। इसी बीच भारतीयों में राष्ट्रभक्ति
की भावना और सांस्कृतिक चेतना भरने के उद्देश्य से आगरकर और चिपलूनकर के सहयोग से उन्होंने
‘केसरी’ और ‘मराठा’ नामक दो समाचार-पत्र
निकाले। ४ जनवरी १८८१ से ‘केसरी’ मराठी में व ‘मराठा’ अँग्रेज़ी में देश की दुर्दशा और अँग्रेज़ों के अमानवीय कृत्यों पर खुलकर
गर्जना करने लगे। तिलक के सम्पादकीय देशप्रेम के जज़्बे से ओतप्रोत होते थे और
तत्कालीन व्यवस्था पर करारा प्रहार करते थे। तत्कालीन सामाजिक समस्याएँ उनके पत्रों
में प्रमुखता से छपती थीं। नशाबंदी के लिए सरकार पर दबाव डालना, बाल-विवाह की निंदा, विधवा-पुनर्विवाह की वकालत, दलित और पिछड़े वर्ग को समाज की मुख्य धारा में लाने के लिए लोगों को
जागृत करना आदि विषय उनके पत्रों में मुख्य स्थान पाते थे। आज जिस गणेश-चतुर्थी और
शिवाजी-जयन्ती का सार्वजानिक उत्सव सम्पूर्ण देश मनाता है उसकी शुरुआत भी तिलक ने
ही की थी। समस्त भारतवर्ष में सामाजिक और सांस्कृतिक एकता को बढ़ावा देने के लिए
उन्होंने गणेशोत्सव और शिवाजी-जयन्ती को घरों से निकालकर सड़कों पर मनाने का आह्वान
किया और देखते ही देखते यह सांस्कृतिक एकता के प्रतीक के रूप में उभरकर आया। अपनी
प्रखर लेखनी और उत्तम विचारों से तिलक जल्द ही स्वराज्य की माँग करने वाले प्रणेता
बनकर देशवासियों के मानस-पटल पर छा गए।
उधर विद्यालय की सफलता
से प्रेरित हो उन्होंने १८८४ में ‘डेक्कन एड्यूकेशन सोसायटी’ की स्थापना की जिसके
अंतर्गत उच्च-माध्मिक और उच्च-शिक्षा की व्यवस्था की जा सके। राष्ट्रभक्ति के
निर्माण में सुशिक्षित युवकों का योगदान बढ़ाने के उद्देश्य से १८८५ में ‘फ़रगुसन
कॉलेज’ की नींव रखी गई। यहाँ तिलक स्वयं गणित पढ़ाया
करते थे। स्वतंत्रता संग्राम को जन-आन्दोलन का रूप लेने के लिए तिलक का राजनीति की
मुख्य धारा में आना आवश्यक था, अतः १८९० में ‘डेक्कन
एड्यूकेशन सोसायटी’ के संस्थापक-पद से त्यागपत्र देकर वे
स्वतंत्र रूप से भारतीय राजनीति में दाखिल हुए और ‘इण्डियन नैशनल काँग्रेस’ से
जुड़े। विचारों से उग्र और दो-टूक बात कहने वाले बाल गंगाधर तिलक काँग्रेस के नरम
रवैये से असंतुष्ट थे और बात जब स्वराज्य से जुड़े मुद्दों पर समझौता करने की होती तब
सामने कोई भी हो, खुल कर विरोध करने से नहीं चूकते थे।
संभवतः उनके आने के बाद ही पार्टी गरम-दल और नरम-दल जैसे दो गुटों में विभाजित
होने लगी थी ।
तिलक के विचारों ने अखिल
भारतीय लोकप्रियता पाई। आज़ादी के दो मतवाले बंगाल से विपिनचंद्र पाल और पंजाब से
लाला लाजपत राय तिलक के विचारों से प्रभावित होकर उनसे जुड़े और ‘लाल-बाल-पाल’ की इस तिकड़ी ने मिलकर स्वराज्य की भावना को
जन-जन तक पहुँचाने का प्रयास किया।
१८९६ के अकाल में
अँग्रेज़ी शासन के रवैये ने तिलक के मन में अँग्रेज़ों के प्रति बहुत रोष भर दिया। उन्होंने
अपने पत्रों के ज़रिए इसका आँखों-देखा हाल बयाँ किया और अपनी तरफ से किसानों की
सेवा में कोई कसर नहीं छोड़ी। बामुश्किल एक आपदा से उबरे ही थे कि एक साल बाद ही
मुम्बई और पूना को प्लेग की महामारी ने धर दबोचा। मौत का तांडव घर-परिवारों की
ख़ुशियाँ तबाह कर रहा था और लोग घर-बार छोड़ कर भागने को मजबूर होने लगे। सरकार ने इस
आपदा से निबटने के लिए एक अँग्रेज़ अधिकारी रैंड को मनमाने अधिकार देकर पुणे प्लेग
कमिश्नर बनाकर स्थिति पर काबू पाने भेजा। यह अमानुष अधिकारी सहायता करने के बजाय
खुलकर ज़ुल्म ढाने लगा और रोगियों के साथ ज़ोर-ज़बर्दस्ती करने लगा। रोगियों की
सहायता और इलाज के लिए तिलक ने स्वयं एक राहत-शिविर की व्यवस्था की और निडर भाव से
पीड़ितों की सेवा में जुटे रहे। प्लेग रुकने का नाम नहीं ले रहा था और रैंड का
अत्याचार बढ़ता जा रहा था। बहुत दुखी मन से उन्होंने ‘मराठा’ में एक लेख लिखा जिसमें जनता को महाभारत
में श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को दिए उपदेश के हवाले से कहा गया कि ज़ुल्मी को मारने
वाला पापी नहीं कहलाता; धर्म की रक्षा हेतु अधर्मियों का नाश करना आवश्यक है। इस
लेख ने जनता के आक्रोश को हवा दी और उन विचारों से प्रेरित हो चापेकर बँधुओं ने २२
जून १८९७ को अपने सरकारी कार्यालय से लौटते हुए रैंड को एक अन्य अधिकारी समेत
गोलियों से छलनी कर दिया। इस हत्याकाण्ड के लिए तिलक के लेखों को दोषी ठहराया गया
और उनपर राजद्रोह का मुकदमा चला। १४ सितम्बर १८९७ को उन्हें अठारह महीने की सज़ा
सुनाई गई और डोंगरी जेल भेज दिया गया। जेल में खाने के नाम पर उन्हें केवल सूखी
रोटी और पानी दिया जाता था जिसके लगातार सेवन से उनका स्वास्थ्य बिगड़ने लगा। जेल
में ही प्राण न चले जाएँ, इस आशंका से अँग्रेज़ों ने उन्हें
समय से पहले ही रिहा कर दिया। स्वास्थ्य लाभ के लिए पुणे के प्लेग-ग्रस्त वातावरण
से दूर वे अपने परिवार समेत वीर शिवाजी के गढ़ सिंहगढ़ आकर रहने लगे। यहाँ शांत जीवन
और पहाड़ी आब-ओ-हवा में उनका स्वास्थ्य सुधरने लगा। सिंहगढ़ के सूर्यास्त उन्हें
उत्तरी ध्रुव पर लम्बे दिन-रात का रहस्य समझने को प्रेरित करते थे और वे एक बार
फिर अपने अध्ययन-अनुसंधान में संलग्न हो गए। इससे पहले जब वे अनुसंधान में जुटे थे
तब 'ओरायण' नामक ग्रन्थ की रचना की थी। तब इतिहास के पन्नों में खोकर अपने गहन शोध
और अध्ययन से उन्होंने यह सिद्ध किया था कि हमारे वेदों की रचना छह हज़ार साल पहले
की गई थी।
इस बार उनके शोध से जो पुस्तक लिखी उसका नाम रखा – ‘द आकर्टिक होम इन द वेदाज़’ (The Arctic Home in the Vedas)। इस पुस्तक में उन्होंने यह सिद्ध किया कि आर्य उत्तरी ध्रुव के मूल निवासी थे। उनकी यह पुस्तक उन दिनों वृहद् चर्चा का विषय बनी।
जुलाई १८९९ में उन्होंने
एक बार फिर आज़ादी का मोर्चा सम्भाला और ‘केसरी’ में ‘पुनश्च हरी ॐ’ शीर्षक से सम्पादकीय लिखकर स्वतंत्रता संग्राम का
बिगुल बजा दिया। यहीं से प्रारम्भ हुआ भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन का ‘तिलक युग’।
१९०५ में बंगाल के विभाजन से अँग्रेज़ों की ‘फूट डालो शासन करो’ कूटनीति खुलकर सबके सामने आ गई। इस निर्णय से आहत तिलक ने खुलकर अँग्रेज़ों की निंदा की और देशवासियों से अपील की – “हमारे पास हथियार नहीं, लेकिन विचार हैं – बहिष्कार का विचार; विदेशी हुकूमत का बहिष्कार।”
उनके समाचार पत्रों ने ‘स्वराज्य, स्वदेशी, बहिष्कार और राष्ट्रीय शिक्षण’ – इस चार-सूत्री नारे को जन-जन की आवाज़ बनाने का आह्वान किया। उनके विचारों से प्रेरित हो परीक्षार्थी विदेशी कागज़ों से बने प्रश्न-पत्र और उत्तर-पुस्तिकाएँ फाड़ने लगे, अँग्रेज़ी मदिरा का सेवन करने वाले धनिक औरतों द्वारा पिटकर आन्दोलनकर्ताओं के सुपुर्द किये जाने लगे, विदेशी कपड़ों की होलियाँ जलने लगी और स्वदेशी के नारों से देश की गली-गली गूँजने लगी। तिलक के विचार अब सम्पूर्ण देश के विचार बन गए थे। ऐसे में १९०६ के कॉंग्रेस अधिवेशन में दादाभाई नैरोजी की अध्यक्षता में तिलक के इस चार-सूत्री कार्यक्रम को राष्ट्रीय कार्यक्रम के रूप में स्वीकृति मिली। ‘प्रोटेस्ट, पिटिशन और प्रेयर’ में विश्वास रखने वाले नरम दलीय नेताओं के लिए तिलक जैसे गरम दल के नेता को समझना आसान नहीं था। १९०७ के सूरत अधिवेशन में तिलक का रौद्र रूप खुलकर सामने आया। अँग्रेज़ों की अन्यायपूर्ण नीतियों के खिलाफ़ भारतीय नेताओं का खून नहीं खौलना तिलक की समझ से बाहर था। कॉंग्रेस अँग्रेज़ों द्वारा तैयार एक ऐसा मुखैटा था जिसके दम पर वे अपनी दमनकारी नीतियों को निर्विरोध चलाना चाहते थे किन्तु तिलक सरीखे बाग़ी ने अपना उग्र रूप इख्तियार कर पार्टी के अन्दर खलबली मचा दी थी। अँग्रेज़ों ने उन्हें ‘भारतीय अशांति के पिता’ (The Father of Indian Unrest) कहा।
३० अप्रैल
१९०८ को बंगाल के मुज़फ्फ़रनगर में खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी ने मजिस्ट्रेट
किंग्सफ़ोर्ड की हत्या की कोशिश की। मजिस्ट्रेट तो बच गए किन्तु इस हमले में दो
ब्रिटिश महिलाओं की मृत्यु हो गई। सोलह वर्षीय बोस को फाँसी की सज़ा हुई। तिलक ने
खुदीराम बोस के समर्थन में एक सम्पादकीय लिखा और एक बार फिर अँग्रेज़ों की आँखों
में चढ़ गए। उनपर राजद्रोह का मुकदमा चला। तिलक के बचाव के लिए बैरिस्टर मोहम्मद
अली जिन्ना ने एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा दिया किन्तु जब मकसद ही उन्हें कारावास में
डालना था तब जिन्ना की एक भी दलील न चली। मुम्बई हाईकोर्ट की ज्युरी ने उन्हें
दोषी करार दिया और छह वर्षों के कठिन कारावास की सज़ा सुनाई। इस फ़ैसले के विरोध में
मज़दूरों ने बड़े पैमाने पर हड़तालें कीं, मोर्चे निकाले किन्तु लोकमान्य की
लोकप्रियता को देखते हुए उन्हें अपने देश और देशवासियों से दूर बर्मा के बदनाम माण्डले
जेल भेज दिया गया। वहाँ की विषम परिस्थितियों ने भी तिलक की हिम्मत कमज़ोर नहीं
पड़ने दी। तपती-झुलसती गर्मी में मुरझाते पौधों को पानी देकर जीवंत करते हुए वे पुनः स्वाध्याय में लग गए। घर से तीन महीने में एक बार ख़त आता जिसके अधिकांश हिस्से कटे
होते थे। १९१२ में पत्नी सत्यभामा की मृत्यु का सन्देश आया जिसने उनका हृदय तोड़
दिया। ऐसे समय में उन्होंने गीता का सहारा लिया और इस बार शिथिल हो रहे
स्वराज्य के आन्दोलन में प्राण फूँकने के लिए ‘श्रीमद् भगवत् गीता-रहस्य’
की रचना की। इस पुस्तक में उन्होंने कृष्ण के अर्जुन को दिए संदेशों को आधार बनाकर
देशवासियों से कर्मयोगी बनने की अपील की।
८ जून १९१४ को वे जेल से
रिहा होकर भारत लौटे और आते ही राष्ट्रीय आन्दोलन में चेतना का संचार किया। उनके
विचारों का प्रभाव ही कुछ ऐसा था कि काँग्रेस में कोई ऊँचा पद न होते हुए भी उनकी
बातें असरदार और अनुकरणीय होती थीं। १९१६ में मो. अली जिन्ना और डॉ. एनी बेसेंट के
साथ मिलकर उन्होंने ‘अखिल भारतीय होमरूल लीग’ की स्थापना की। होमरूल आन्दोलन के माध्यम से एक बार फिर उनके स्वराज्य
आन्दोलन को बल मिला। स्वदेशी आन्दोलन को ठंडा करने के उद्देश्य से ‘भारतीय
संवैधानिक रिफ़ॉर्म्स’ लाया गया जिसके विरोध में तिलक ने कॉंग्रेस डेमोक्रेटिक पार्टी’
की स्थापना की। अपने सिद्धांतों और विचारों को जन-जन तक पहुँचाने के इरादे से
उन्होंने देश का दौरा किया। आगे चलकर उनके यही सिद्धांत भारतीय संविधान का हिस्सा
बने। १९१९ में हुए जलियाँवाला बाग़ हत्याकाण्ड ने प्रत्येक भारतीय की तरह तिलक को
भी झकझोर दिया था। १९ सितम्बर १९१९ में वे मानहानि का मुकदमा लड़ने इंग्लैंड गए। जुलाई
१९२० में वे बम्बई में अपने पसंदीदा सरदार गृह में रहने आए और यहीं १ अगस्त को
उन्होंने अंतिम साँस ली। उनकी मृत्यु का समाचार देश के हृदय पर करारा अघात था।
समूचे देश में शोक की लहर दौड़ गई। उनका नारा “स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है
और मैं इसे लेकर ही रहूँगा” देश के बच्चे-बच्चे के अधरों पर सजने लगा। गाँधी ने
उन्हें ‘आधुनिक भारत का निर्माता’ और नेहरु ने ‘भारतीय
क्रान्ति का जनक’ कहकर संबोधित किया।
न जाने स्वराज्य की
अभिलाषा लिए ये महापुरुष कौन सी मिट्टी के बने थे जिन्होंने ६५ वर्ष के जीवन में
एक भी दिन चैन से बैठ कर नहीं बिताया – जब तक रहे देश के लिए जिए और मर कर भी देश
के लिए कभी नष्ट न होने वाले उत्तम विचार दे गए। उस महान् देशभक्त को शत शत नमन्!
बाल गंगाधर तिलक : संक्षिप्त परिचय |
|
पूरा नाम |
केशव गंगाधर तिलक |
लोकप्रिय नाम |
‘लोकमान्य’ बाल गंगाधर तिलक |
जन्म |
२३ जुलाई १८५६, रत्नागिरी, बम्बई प्रेसिडेंसी |
मृत्यु |
०१ अगस्त १९२०, सरदार गृह, बम्बई |
पिता |
गंगाधर शास्त्री |
पत्नी |
सत्यभामा बाई |
संतान |
३, श्रीधर बलवंत तिलक (श्रीधर पन्त), अनुपमा राव |
शिक्षा |
|
मैट्रिक |
१८७२ |
स्नातक |
गणित एवं संस्कृत, डेक्कन कॉलेज, पूना [१८७६] |
वकालत |
एल एल बी, बम्बई विश्वविद्यालय [१८७९] |
स्थापनाएँ |
|
विद्यालय |
न्यू इंग्लिश स्कूल, पूना १ जनवरी १८८० |
ट्रस्ट |
डेक्कन एड्यूकेशन सोसायटी, पूना १८८४ |
कॉलेज |
फ़रगुसन कॉलेज, पूना ११ जनवरी १८८५ |
राजनैतिक सफ़र |
|
१८९० |
भारतीय राष्ट्रीय कॉंग्रेस से जुड़े। |
डोंगरी जेल |
१४ सितम्बर १८९७; अपराध: देशद्रोह; १८ महीने की सज़ा |
स्वराज्य आन्दोलन |
अखिल भारतीय होमरूल लीग की स्थापना [एनी बेसेंट और मोहम्मद अली जिन्ना के
साथ][१९१६-१७] |
राजनितिक दल |
काँग्रेस डेमोक्रेटिक पार्टी [ उग्र विचारधारा वाले लोगों का दल] |
पत्रकारिता एवं अन्य सामाजिक कार्य |
|
१८८० – ८१ |
मराठी में साप्ताहिक-पत्र ‘केसरी’ प्रकाशन आरम्भ; बाद में इसे दैनिक कर दिया गया और यह आज भी प्रकाशित किया
जा रहा है। अँग्रेज़ी में साप्ताहिक-पत्र ‘मराठा’ का
प्रकाशन आरम्भ |
१८९४ |
सार्वजानिक गणेशोत्सव की शुरुआत |
१८९५ |
श्री शिवाजी फंड कमीटी कि स्थापना और शिवाजी जयन्ती का शुभारम्भ |
पुस्तक लेखन |
|
|
The Orion (ओरायण) |
|
The Arctic Home in the Vedas १९०३ |
|
श्रीमद् भगवत् गीता रहस्य १९१४ |
सन्दर्भ :
- https://en.wikipedia.org/wiki/Bal_Gangadhar_Tilak
- https://www.youtube.com/watch?v=vrsv2fmuYX0
- https://www.youtube.com/watch?v=M9_l9DDvEsw
- https://www.youtube.com/watch?v=IcH1Xh9pK14
- https://vskjaipur.org/views/bal-gangadhar-tilak/
- https://www.jagran.com/uttar-pradesh/kanpur-city-inspirational-revolutionary-speech-of-lokmanya-bal-gangadhar-tilak-22898928.html
- Tilak-Speeches-Writings-With-Foreword
- बालगंगाधर तिलक – स्मारक, दैशिक शास्त्र, बद्रीशाह दुलधरिया
- https://www.dnaindia.com/india/report-bal-gangadhar-tilak-was-a-visionary-leader-pm-modi-amit-shah-on-his-100th-death-anniversary-2835296 [चित्र]
लेखक परिचय :
दीपा लाभ स्वयं एक पत्रकार हैं और विभिन्न मीडिया संस्थानों के अनुभवों के साथ पिछले १२ वर्षों से अध्यापन कार्य से जुड़ी हैं। आप हिन्दी व अँग्रेज़ी दोनों भाषाओं में समान रूप से सहज हैं तथा दोनों भाषाओं में लेख व संवाद प्रकाशित करती रहती हैं। इन दिनों ‘हिन्दी से प्यार है’ की सक्रिय सदस्या हैं और ‘साहित्यकार तिथिवार’ का परिचालन कर रही हैं।
ईमेल - journalistdeepa@gmail.com; व्हाट्सएप - +91 8095809095
“स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूँगा”। यह नारा बचपन में हम स्कूल में , घर में , बाज़ार में , किसी भी ज़बरदस्ती के ख़िलाफ़ हाथ खड़ा कर बोल देते थे। जय हो तिलक बाबा की जो ऐसा मंत्र दे गए। 😊 समझदार अध्यापकों ने, घर के बुजुर्गों ने पूछा : स्वराज्य के माने क्या? हम क्या जानें ? फिर समझाया स्व का शासन , स्व पर शासन कैसे होता है । बोले : गौतम बुद्ध को पढ़ो , नानक - कबीर को पढ़ो, गीता का अनुवाद पढ़ो। सीखो, स्वराज्य कैसे अर्जित करना है। तब तिलक बाबा की बात सही माने में समझ में आई।
ReplyDeleteदीपा जी , आपने प्रवाहमय , रोचक प्रस्तुति कर लोकमान्य तिलक की यादें ताज़ा कर दीं। आपको धन्यवाद , शुभकामनाएँ। 💐💐
दीपा, आपने बाल गंगाधर तिलक पर बहुत बढ़िया आलेख लिखा है। कमाल है! एक श्लोक की जगह पूरी गीता कंठस्थ कर ली। ऐसे यशस्वी व ओजपूर्ण व्यक्तित्व को सर्वदा सादर नमन। आलेख लिखने के इस श्रम साध्य कार्य के लिये आपको धन्यवाद, बधाई।
ReplyDeleteआपके लेखनी के सामर्थ को नमस्कार शब्दों का जादू असरदार है और वाक्यों में सहजता इतनी की स्वतः ही आकर्षित करती है धन्यवाद इन महान व्यक्तित्व के विराट दर्शन हेतू
ReplyDeleteदीपा, अत्युत्तम लेख। भारतीय समुदाय में एकजुटता बढ़ाने के लिए गणपति उत्सव और शिवाजी जयंती की परिकल्पना करना और स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है… जैसा नारा देना दिखाता है कि तिलक की दूरदर्शिता और ध्येय कितने स्पष्ट थे। इन विभूतियों को जितनी बार नमन करो कम है। बधाई और शुभकामनाएँ, दीपा।
ReplyDeleteदीपा जी नमस्ते। आपने स्वतंत्रता आंदोलन में स्वराज की अलख जगाने वाले महान सेनानी लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक जी पर बहुत अच्छा लेख लिखा है। उनके बारे में अनेकों बातें पता है पर आपने लेख में कई महत्वपूर्ण बातें समग्रता के साथ प्रस्तुत की। लेख पर आई टिप्पणियों ने भी लेख को खूब रोचकता दी। आपको इस शोधपरक लेख के लिए हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteदीपा दीदी आपका यह लेख सचमुच विचारों को उद्वेलित करता हुआ है, ख़ासकर उसके लिए जिसे बचपन में राजा-रानी की कहानियों के बजाए स्वतंत्रता संग्राम और उसके नायकों की कहानियाँ सुनने को मिली। जिन्हें सुनकर उसके बाल मन ने कहा कि अब तो बड़े होकर स्वतंत्रता सेनानी ही बनना है। धीरे धीरे समय के साथ परिस्थितियों का भान तो हुआ लेकिन उन कहानियों में गुँथी हुई कुछ कर गुज़रने की ज़िद्द आज भी उससे एक सवाल करती है कि बैठे क्यों हो? अभी मंज़िल दूर है। बाल गंगाधर तिलक निश्चित ही माँ भारती के माथे का तिलक है और आपका आलेख एक प्रेरक कहानी-सा। इसके लिए शुभकामनाओं के साथ आपको विशेष धन्यवाद।
ReplyDeleteदीपा, आपने बाल गंगाधर तिलक पर बहुत बढ़िया आलेख प्रस्तुत किया है। बाल गंगाधर तिलक जी को जितना पढ़ा था, जितना जाना था, वह जानकारी इस समग्र लेख के सामने बूँद भर ही लगी। इस प्रवाहमय, जानकारीपूर्ण और रोचक लेख के लिए आपको धन्यवाद, बधाई।
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