गिरिराज किशोर का ‘ढाई घर’ उपन्यास वर्ष १९९१ में भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित किया गया था। साहित्य अकादमी से पुरस्कृत यह उपन्यास आज़ादी के पूर्व से आज़ादी के बाद तक देश में जो सामाजिक बदलाव आए हैं, उन सबको समेटने का प्रयास है। गिरिराज किशोर रचनाकार के साथ-साथ एक विचारक भी रहे हैं। उनका मानना है कि आज़ादी के पूर्व के भी कुछ ऐसे प्रसंग हैं, जिनको जाने बगैर इस बदले हुए समाज का अध्ययन संभव नहीं है। अपने इस उपन्यास के बारे में गिरिराज किशोर लिखते हैं, “लेखन तो एक आँवा है; उसमें हजारों मिट्टी के कच्चे दिए लगते हैं, कुछ प्रथम कोटि के बनकर निकलते हैं, तो कुछ अधपके, कुछ टूटे हुए। खाली या अधपके आँवा से यह उम्मीद करना ही कि हर रचना श्रेष्ठतम बनकर निकले असंभव को साधने का स्वप्न देखने की तरह है।" वे आगे लिखते हैं, “मैं उपन्यास को एक समाजशास्त्रीय अध्ययन भी मानता हूँ। अनेक प्रकार के संबंधों को जो बन रहे हैं या आगे बनेंगे, व्याख्यायित करने वाले मानवीय समीकरण। मेरी दृष्टि में उपन्यास और कहानियाँ बल्कि नाटक भी जीवन के प्रति वैज्ञानिक और अर्धवैज्ञानिक दृष्टिकोण बनाने में मदद करते हैं; और उन्हें ऐसा करना चाहिए।”
हिंदी साहित्य-जगत के प्रसिद्ध उपन्यासकार, कथाकार, नाटककार, आलोचक व विभिन्न विषयों पर अपनी लेखन तूलिका से अनेक रंग बिखेरने वाले गिरिराज किशोर जी अपने उपन्यास ‘ढाई घर’ और गाँधी जी के दक्षिणी अफ्रीका प्रवास पर आधारित महाकाव्यात्मक उपन्यास ‘पहला गिरमिटिया’ के लिए चर्चित हैं।
गिरिराज किशोर जी का दूसरा प्रसिद्ध उपन्यास ‘पहला गिरमिटिया’ मोहनदास के महात्मा बनने की गाथा है। गिरमिटिया उन बँधुआ मजदूरों का पर्याय है, जो बेरोजगारी की मार के कारण पाँच साल गिरमिट (एग्रीमेंट) पर सात समंदर पार जाते थे। उन्हीं की मुक्ति के लिए गाँधीजी ने वर्ष १८९३ से १९१४ तक दक्षिण आफ्रीका में अपमान, उपेक्षा, संत्रास व शोषण से एक साथ युद्ध लड़ा था; पूरी तरह अहिंसात्मक युद्ध। गिरिराज किशोर जी ने आठ वर्ष की जद्दोजहद से अपना यह उपन्यास पूरा किया। इस सिलसिले में उन्होंने दक्षिण अफ्रीका और मॉरीशस सहित कई देशों की यात्राएँ भी कीं और वहाँ के तत्कालीन लोगों के उत्तराधिकारियों से मिले तथा अनेक पुस्तकें व दस्तावेज खँगाल डाले।
अपने इस उपन्यास के संबंध में गिरिराज किशोर लिखते हैं, “इस उपन्यास का मुख्य पात्र मोहनदास उतना ही सामान्य व्यक्ति है, जितना कोई भी हो सकता है। वह न चाँदी का जूता पहनकर पैदा हुआ था, और न सोने का मुकुट। पत्नी के जेवर बेचकर लंदन बार-एट-ला करने गया था। पिता मर चुके थे, चाचा ने बहाना बनाकर अँगूठा दिखा दिया था, बड़े भाई का सीमित सामर्थ्य था। जब बैरिस्टर बनकर लौटा तो बेरोजगारी का आलम, बड़े भाई पर निर्भरता, कचहरी की अनैतिकताओं और व्यक्तिगत नैतिक-मूल्यों का टकराव, बोल न पाने के कारण मुकदमों में हार, जो भी मिलता था वह बड़े भाई के वकील दोस्त के मुवक्किलों की मसौदानवीसी से, उसका भी एक हिस्सा वकील ले लेता था। शोषण का यह ढंग मोहनदास को बेचैन रखता था। नतीजा, देश के हजारों गरीब, अनपढ़, बेरोजगार मजदूरों की तरह उस बैरिस्टर को भी रोजी-रोटी कमाने के लिए पाँच साल के गिरमिट (एग्रीमेंट) पर दक्षिणी आफ्रीका के लिए कूच करना पड़ा था।”
अपने इस उपन्यास में उन्होंने साधारण से मोनिया (मोहनिया) से मोहनदास तथा मोहनदास से गाँधी बनने की गाथा लिखी है। इसी उपन्यास में विश्व में काला प्लेग के नाम से फैली महामारी गिरमिटिया मजदूरों के दक्षिण अफ्रीका में शिकार होने, मरने तथा बीमारी से अपने अस्तित्त्व की रक्षा हेतु बचाव व संघर्ष का सजीव चित्रण किया गया है।
“कुली-लोकेशन के चारों तरफ गारद लग गई थी। किसी को अंदर जाने की इजाज़त नहीं थी। सिर्फ मोहनदास और उनके साथियों को प्रवेश-पत्र दिए गए थे। म्युनिसिपैलिटी प्रशासन प्लेग के दौरान भारतीयों द्वारा अपनाए गए रवैये से बहुत प्रभावित था। उनके कारण बहुत से गोरे प्लेग के प्रकोप से बच गए थे। कुलियों और काफ़िरों ने सब कुछ अपने ऊपर झेला था। इसके बावजूद प्रशासन ने कुछ ऐसे निर्णय लिए थे जो टोले में बसे कुलियों के लिए जी का जंजाल बन गए थे। उन्हें लोकेशन यानी टोला ख़ाली करके जोहान्सबर्ग से तेरह मील दूर जाना था। प्रशासन ने उनके रहने के लिए तमोटियों का इंतज़ाम किया था। यह इतनी बड़ी विपत्ति आ गई थी कि उससे निबटना उन बेसहारा लोगों के लिए मुश्किल पड़ रहा था। उनके चले जाने के तीन हफ्ते बाद उस पूरे टोले को आग के सुपुर्द कर देने का फ़ैसला भी ले लिया गया था। जंगल में आग लग जाने पर जैसे चिड़ियाँ फड़फड़ातीं हैं, उसी तरह वे सब फड़फड़ा रहे थे।---”
गिरिराज किशोर जी की कहानियों में किसी न किसी रूप में यथार्थ के नग्न दर्शन होते हैं। गिरिराज जी एक प्रयोग-धर्मी रचनाकार रहे, जो निरंतर नए रास्ते तलाशते रहे। हिंदी की आलोचना के विषय में वे लिखते हैं कि “आलोचकों ने कहानी के चारों तरफ़ धीरे-धीरे एक लक्ष्मण-रेखा खींच दी। उसके अंदर है तो सीता, बाहर गई तो कुलच्छिनी।” हालांकि गिरिराज किशोर जी ऐसा नहीं मानते कि उनकी अपनी रचनाएँ किसी लक्ष्मण-रेखा के भीतर सुरक्षित हैं, बल्कि उनका ऐसा मानना था कि उनकी सीता रेखा के बाहर भी अपनी सुरक्षा कर लेने में सक्षम है। गिरिराज किशोर जी की कहानियाँ बार-बार यह सोचने को विवश करती हैं कि क्या सभ्यता और धर्म वही है, जिसकी चर्चा इसके तथाकथित हिमायती करते रहे हैं? उनकी कहानी ‘आन्द्रे की प्रेमिका’ एक प्रेम-प्रसंग है, जिसमें लड़की ही लड़के से अधिक सजग और अपने जीवन के प्रति सावधान है। मादकता को प्रेम से निकालकर एक ऐसे प्रेम की रचना जिसे विश्व-मैत्री की प्रेम-सृष्टि भी कहा जा सकता है। उनकी एक और कहानी ‘अंतर्दाह’ एक ओर आज के उस सांप्रदायिक तत्व की ओर संकेत करती है, जो बेवज़ह निर्दोष लोगों की हत्या करवा रहा है। वहीं दूसरी ओर यह भी बताती है कि हर धर्म में अच्छे और बुरे लोग होते हैं। लोगों का अच्छा या बुरा होना एक स्वतंत्र समस्या है; इसे किसी ख़ास धर्म से जोड़कर सही निष्कर्ष तक नहीं पहुँचा जा सकता। इसी तरह इनकी एक और कहानी ‘पाँचवाँ पराठा’ एक अभावग्रस्त मिल से बैठकी का शिकार, मज़दूर की बहुत ही छोटी बच्ची बिट्टी के अंतर्द्वंद्व, आत्मालाप की दास्तान है; जिसमें बच्ची अपने हिस्से का बचा पराठा रात को बिस्तर के नीचे इसलिए छिपाकर सो जाती है, कि सुबह स्कूल जाने पर वह पराठा अपने उस सहपाठी मित्र को खिलाना चाहती है, जो उसे अपने हिस्से में से खाने के लिए दे देता था। परंतु सुबह उठने पर उसे पराठा गायब मिलता है, क्योंकि उसका नन्हा भाई बिट्टू भूख लगने पर वह पराठा खा लेता है: और नन्हीं बिट्टी उससे उलझ पड़ती है। लेखक ने अपनी इस कहानी में दर्द और दुख के दरिया का अवलोकन करा दिया है। इसी तरह से इनकी एक कहानी ‘पेपरवेट’ में भ्रष्ट राजनीतिक सिस्टम में एक ईमानदार मंत्री भी जनता के हक में फैसला लेने में असहाय हो जाता है; जबकि पूर्व में जनता के उसी हक के लिए आवाज़ उठाने पर उसे उस विभाग का मंत्री बनाया जाता है।
इसके अतिरिक्त गिरिराज जी ने अनेक पत्र-पत्रिकाओं में सामयिक विषयों पर लेख लिखे हैं। प्रस्तुत है ०३ दिसंबर २०१८ के ‘आउट लुक’ में प्रकाशित लेख का यह अंश,
“-- दूसरे, शिक्षा में प्राइमरी स्कूल की हालत, गवर्नमेंट स्कूल की हालत बहुत खराब है। पिछले चार सालों में शिक्षा की बहुत उपेक्षा की गई है। कुछ समय पहले हाइकोर्ट ने फैसला दिया था कि मंत्री और अधिकारियों के बच्चे सरकारी स्कूलों में पढ़ें, जिससे सरकारी स्कूलों की व्यवस्था सुधरे, लेकिन उस पर कुछ नहीं हुआ। आईआईटी कानपुर से मेरा संबंध रहा है, जब स्मृति ईरानी मंत्री थीं, तो उन्होंने बजट में ७५ फीसदी की कटौती कर दी थी, इससे रिसर्च स्कॉलर्स को बहुत असुविधा हुई। इसी तरह अकादमियाँ हैं, साहित्य अकादमी वगैरह। कुछ को तो सरकार ने ले ही लिया है, लेकिन साहित्य अकादमी पर बहुत अंकुश लग गया है, अनुदान घटा दिया गया और कहा गया कि अपने स्रोतों से पैसे जुटाइए।”
इसी प्रकार ०७ मई २००८ को ‘कानपुरनामा’ में प्रकाशित एक साक्षात्कार में वह कहते हैं, “सख्त से सख्त बात शिष्टाचार के घेरे में रहकर भी की जा सकती है। हम लेखक हैं। शब्द ही हमारा जीवन है और हमारी शक्ति भी। उसको बढ़ा सकते हैं तो बढ़ाएँ, कम न करें। भाषा बड़ी से बड़ी गलाज़त ढँक लेती है।” उन्होंने अनेक उपन्यासों, कहानी संग्रहों, नाटकों, आलोचना प्रधान लेखों, साक्षात्कारों आदि से हिंदी साहित्य को समृद्ध किया है। अपने जीवन-काल में कानपुर से प्रकाशित होने वाली साहित्यिक त्रैमासिक पत्रिका ‘अकार’ का संपादन भी किया। अभी भी वह पत्रिका निकल रही है, जिसका अब संपादन प्रसिद्ध कथाकार प्रियंवद जी कर रहे हैं।
हिंदी साहित्य के अमर उपन्यासकार, कथाकार और नाटककार गिरिराज किशोर साहित्य-जगत के अप्रतिम नक्षत्र हैं। इनके साहित्य में आम आदमी की पीड़ा, संवेदना व मानव-मूल्यों की झलकियाँ तो मिलती ही हैं, बल्कि इनका साहित्य सामाजिक व राजनीतिक विद्रूपताओं को उजागर कर प्रगतिशील, वैज्ञानिक व समतामूलक समाज को निर्मित कर मानव की प्रतिष्ठा व गरिमा को बनाए रखने का महती प्रयास है।
गिरिराज किशोर जी का जन्म ०८ जुलाई १९३७ को जिला मुजफ्फरनगर के मोतीमहल, उत्तरप्रदेश में एक जम़ींदार परिवार में हुआ था। इनके पिता श्री सूरज प्रकाश इलाके के बहुत असरदार व्यक्ति थे। इन्होंने कम उम्र में ही घर छोड़ दिया। वर्ष १९६० में गिरिराज किशोर जी ने समाज विज्ञान, आगरा विश्वविद्यालय आगरा से सोशल वर्क में पढ़ाई की। वर्ष १९६० से १९६४ तक उत्तरप्रदेश सरकार में सेवायोजन अधिकारी व प्रोबेशन अधिकारी रहे। वर्ष १९६४ से १९६६ तक इलाहाबाद में रहकर स्वतंत्र लेखन का कार्य किया। प्रसिद्ध कथाकार अमरकांत, महादेवी वर्मा, सुमित्रानंदन पंत आदि लेखकों के साथ उनका आत्मीय जुड़ाव रहा। जुलाई १९६६ से १९७५ तक कानपुर विश्वविद्यालय में सहायक और उप-कुलसचिव पद पर रह कर अपनी सेवाएँ प्रदान कीं। दिसंबर १९७५ से १९८३ तक प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) कानपुर में कुलसचिव के पद पर कार्य किया। वहीं पर वर्ष १९८३ में रचनात्मक लेखन केंद्र की स्थापना की और उसके अध्यक्ष रहे। १ जुलाई १९९७ को उन्होंने अवकाश ग्रहण किया; लेकिन रचनात्मक लेखन केंद्र से उनका जुड़ाव अंत समय तक बना रहा। उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि दिनांक २३ मार्च २००७ में साहित्य और शिक्षा के लिए तत्कालीन राष्ट्रपति महामहिम एपीजे अब्दुल कलाम द्वारा पद्मश्री से विभूषित किया जाना है। इसके साथ ही उनके ‘ढाई घर’ उपन्यास पर वर्ष १९९२ में साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त होना भी उनके साहित्यिक जीवन की महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है।
दिनांक ०९ फरवरी २०२० को साहित्य का यह अनमोल सितारा ८३ वर्ष की आयु में सूटरगंज, कानपुर, उत्तरप्रदेश स्थित अपने निवास-स्थान से अस्त हो गया और अपने पीछे पत्नी मीरा किशोर, बेटी जया, शिवा व बेटा अनीश किशोर के साथ साहित्य की विपुल उपलब्धियाँ छोड़ गया। आज भी कानपुर में माल रोड पर स्थित करेंट बुक डिपो जाने पर गिरिराज जी की यादें ताजा हो जातीं हैं; क्योंकि वहाँ पंहुचने पर यह चेहरा अक्सर दिखाई दे जाता था। आज भी कानपुर ही नहीं पूरे हिंदी साहित्य-जगत में उनकी यादें रची-बसी हैं।
संदर्भ :
- ढाई घर : गिरिराज किशोर
- पहला गिरमिटिया : गिरिराज किशोर
- पेपर वेट : गिरिराज किशोर
- आँन्द्रे की प्रेमिका और अन्य कहानियाँ : गिरिराज किशोर
- पांचवां पराठा : गिरिराज किशोर
- गिरिराज किशोर : विकिपीडिया
लेखक परिचय :
सुनील कुमार कटियार, उत्तर प्रदेश सहकारी फेडरेशन से सेवानिवृत्त
शिक्षा- एम०ए० (अर्थशास्त्र), जनवादी चिंतक
जनवादी लेखक संघ की उत्तरप्रदेश राज्यपरिषद सदस्यस्थानीय पत्र-पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाशन
निवास- जनपद फर्रुखाबाद
मोबाइल- ७९०५२८२६४१, ९४५०९२३६१
मेल आईडी-sunilkatiyar५७@gmail.com
सुनील जी, गिरिराज किशोर जी की पैनी और स्पष्ट सोच से गढ़े उनके व्यक्तित्व और उनको शब्दों एवं भावों में उतारती उनकी कृतियों से सुंदर परिचय कराया है । आलेख में दिया हर उद्धरण दूसरे से बेहतर है। आपको इस आलेख के लिए बधाई और बहुत आभार।
ReplyDeleteसुनील जी नमस्कार, गिरिराज किशोर जी के व्यक्तित्व और कृतित्व की व्यापकता को दर्शाता यह आलेख बड़ा दमदार, सहज और पठनीय है। इसके लिए आपको धन्यवाद और बहुत-बहुत बधाई।
ReplyDeleteअभिनंदनीय
ReplyDeleteशोधपरक लेख।अभिनंदन।
ReplyDeleteगिरिराज किशोर जी बहुत बड़े और जुझारू लेखक थे। वे रेलवे हिंदी सलाहकार समिति के सदस्य भी थे मेरे कार्यकाल में वे एक बार मुंबई आए थे और मुंबई मंडल के अधिकारियों को संबोधित करते हुए एक घंटे धाराप्रवाह बोलते रहे। एक भी अधिकारी टस से नस नहीं हुआ सुनील कुमार कटियार जी को इतना अच्छा लेख लिखने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद
ReplyDeleteसुनील जी नमस्ते। ‘ढाई घर’ और ‘पहला गिरमिटिया’ जैसे प्रसिद्ध उपन्यास के लेखक गिरिराज किशोर जी पर आपका लेख बहुत अच्छा और विस्तृत है। किशोर जी हिंदी साहित्य-जगत के प्रसिद्ध उपन्यासकार, कथाकार व आलोचक रहे हैं। आपने उनके साहित्यिक यात्रा को बखूबी लेख में समेटा है। आपको इस शोधपरक लेख के लिए हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteबहुत अच्छा लेख, सुनील कुमार जी💐 जब मैं पुणे विश्वविद्यालय के हिंदी अभ्यास मंडल पर नामित सदस्य (1995 -2000)था तब गिरिराज किशोर जी का उपन्यास पहला गिरमिटिया एम ए छात्रों के लिए प्रस्तावित किया था जो मंडल द्वारा स्वीकृत किया गया था।
ReplyDeleteगिरिराज किशोर जी को सूचित किया था, तब आनंदित होकर उन्होंने मुझे कहा था कि उन पाठकों के नाम मुझे सूचित करना जिन्होंने पहला गिरमिटिया सम्पूर्ण पढ़ा है। मुझे बहुत आश्चर्य हुआ था, लेकिन अब इस समय लेखक के लिए कोई पाठक उसकी रचना संपूर्ण पढ़ें यही उपलब्धि है।
इतने विस्तृत उपन्यास का विरोध भी हुआ था।लेकिन दिल्ली की सुनिता जैन ने पहला गिरमिटिया का संक्षिप्त पुस्तक भी प्रकाशित किया था। बहुत साधारण छात्रों ने परीक्षा हेतु संक्षिप्त पुस्तक ही पढ़ा था।
मैंने पहला गिरमिटिया पुस्तक के लेखक की भूमिका का मराठी अनुवाद साधना साप्ताहिक अंक में प्रकाशित किया था।जिसे पढ़ने के बाद पुणे के डॉ पांडुरंग कपडनिस और अहमदनगर के डाॅ. अरुण मांडे जी ने इस उपन्यास का मराठी अनुवाद किया था। यह भूमिका साने गुरुजी द्वारा स्थापित साप्ताहिक साधना के डिजिटल संग्रहालय में विशेष लेख नाते संग्रहित किया गया है।
सादर अभिवादन 🙏🙏🙏
आदरणीय सुनील जी आपके इस लेख के माध्यम से बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न साहित्यकार गिरिराज किशोर जी के साहित्यिक योगदान और उनके विपुल साहित्य को जानने का अवसर मिला। इस शोधपरक और जानकारीपूर्ण लेख के लिए आपका आभार। 🙏🏻
ReplyDeleteनमस्कार सर, 'पहला गिरमिटिया उपन्यास' शब्दभर से परिचित थे। उससे संबंधित व्यक्तित्व श्री गिरिराज जी के विषय में सांकेतिक जानकारी थी। श्रृंखला वार उन्होंने साहित्य व जीवन को कैसे देखा और उसे अपने अनुभव से जैसे अभिव्यक्त किया, इससे परिचित आपके आलेख से हो सके। सिलसिलेवार उनके व्यक्तित्व और कृतित्व के बारे में जानकारी और सुदृढ़ आलेख के लिए आपका आभार।
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