Saturday, April 30, 2022

प्रेम और सौंदर्य के पथिक : रसखान

 

"या लकुटी अरु कामरिया पर राज तिहूँ पुर को तजि डारौ"

ब्रज की गोधूलि को सिर-माथे चढ़ाने वाले रसखान कृष्ण के प्रेम में पड़कर वल्लभ संप्रदाय में दीक्षित हुए। सैय्यद इब्राहिम के 'रसखान' बनने की इबारत कान्हा के प्रेम ने ही लिखी। ब्रज के छोरे ने रूप और सौंदर्य का ऐसा जादू चलाया कि हज को निकले सैय्यद इब्राहिम उसकी रूप माधुरी में डूब कर रह गए।  

देख्यौ रूप अपार, मोहन सुंदर श्याम कौ!
प्रेमदेव की छवि लखिहीं, भयौ मियाँ 'रसखान'।

कभी रसखान तो कभी रसखाँ कहलाने वाले कवि की यह प्रेम-यात्रा धर्म और जाति की कवायद को नकार देती है और कृष्ण समर्पण की परिपाटी में एक नए यात्री से परिचय कराती है। सूरदास, मीरा और रसखान - कृष्ण भक्ति शाखा के ये ऐसे पथिक हैं, जो कान्हा के अतिरिक्त और कुछ नहीं चाहते। रसखान बनने की यह यात्रा कृष्ण के प्रेम में डूबकर शुरू होती है और उन्हीं के प्रेम और रूप-रस-माधुरी में निखरती है। कृष्ण के इस रूप-माधुर्य में डूबकर ही सैय्यद इब्राहिम 'रसखान' ने फ़ारसी में भागवत का अनुवाद पढ़ा और स्वाभावोक्ति अंलकार का प्रयोग करके कृष्ण के प्रति अपनी भावनाओं को व्यक्त किया। न तो उनके साहित्य में वक्रता है न स्वभाव में! हर रूप में वे केवल उस माखन-चाखनहार को ही समर्पित हैं।

ज्ञान ध्यान विद्या मति मत विश्वास विवेक

बिना प्रेम सब घूर है, एजी-जग एक अनेक

 

भक्ति काल के कवियों ने एक तरफ जहाँ कृष्ण हों या राम - दोनों के पद-चरण अनुराग की भावना व्यक्त की है तो दूसरी तरफ दास्य भाव से खुद को पतित मानकर मुक्ति की प्रार्थना की है; पर रसखान ने तो सिर्फ़ कृष्णमय हो जाने की इच्छा ज़ाहिर की है "मानुष हौं तो वही रसखान, बसौं ब्रज गोकुल गाँव के ग्वारन" वाले पद में रसखान का प्रेम ही है जो यह प्रार्थना करता है कि खग बने तो उसी जगह बसेरा करे जहाँ कृष्ण हैं और पत्थर बने तो उसी पर्वत का जिसे कान्हा ने उंगली पर धारण किया था। 

इनकी जन्मस्थली हरदोई ज़िले के पिहानी ग्राम को माना जाता है। हरदोई स्थित रसखान संग्रहालय में लगे हुए पत्थर पर उकेरे गए रसखान के सवैये उनके कृष्ण माधुरी में डूबे हृदय को आज भी दर्शाते हैं -

रसखान के साहित्य में कृष्ण के बाल-गोपाल रूप से लेकर भक्ति, प्रेम और यौवन की लीलाएँ मिलती हैं। भागवत की कथा-कहानी के विस्तृत रूप को न लेकर कृष्ण की भक्ति-प्रेम और यौवन की संयोग क्रीड़ा का चित्रण ही इनके काव्य के केंद्र में रहा है। बाल-गोपाल कृष्ण के रूप पर मोहित रसखान लिखते हैं -

"काग के भाग बड़े सजनी
हरि, हाथ सौं ले गयौ माखन रोटी"

- क्या भाग्य है कौए का जो हरि के हाथ से रोटी लेकर उड़ गया!

 

प्रेम के पंथ को लेकर रसखान कहते हैं,


कमलतंतु सौ छीन अरु, कठिन खड़ग की धार।

अति सूधौ टेढ़ो बहुरि, प्रेमपंथ अनिवार।

 

घनानंद जहाँ प्रेम के पंथ को 'अति सूधौ' मानते हैं वहीं 'बोधा' प्रेम को 'पंथ कराल' कहते हैं। रसखान प्रेम के इस पंथ को कमल के तंतु से भी कोमल और तलवार की धार से भी कठिन मानते हैं। हो भी क्यों ना! किंवदंती से घिरे जीवन में जहाँ एक तरफ इनका प्रेम एक साहूकार के छोरे से जोड़ा गया, जिसके मोह में ये घर-बार छोड़ बैठे थे वहीं यह भी कहा जाता है कि नायिका के मानिनी रूप से आहत होकर ये उससे दूर हो गए।शिवसिंह सरोज, भक्तमाल, नवभक्तमाल, दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता में इनके वंश और कृष्ण में आसक्त होने की अनेक कथाएँ मिलती हैं। 'दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता' के अनुसार चार वैष्णव बैठकर बात कर रहे थे जिन्होंने कहा कि प्रभु में ऐसे चित्त लगाओ जैसे रसखान का चित्त साहूकार के बेटे में लगा है। यह बात रसखान के कान में पड़ी तो वे कहने लगे कि "प्रभु को स्वरूप दिखे तो चित्त लगाएँ!" वैष्णवों ने उन्हें श्रीनाथ का चित्र दिखाया। रसखान उन पर ऐसे मोहित हुए कि संसार की कोई लौकिकता अब उन्हें मोहित न कर सकी! लोगों ने समझाया कि बादशाह को अगर यह खबर लगी तो आपको काफ़िर घोषित कर दिया जाएगा। परंतु प्रेम कहाँ धर्म की पाबंदियों में बँधता है! रसखान ने तो इन चुगली लगाने वालों पर भी दोहा जड़ दिया,

 

कहा करे रसखानि कौ, कौ चुगुल लबार!

जौ पे राखनहार है, माखन चाखन हार!

 

जिस भक्ति को प्रेम इतनी ताकत देता है, उस प्रेम के सदके कौन न जाए! रसखान का प्रेम शारीरिक है, संयोग का प्रेम है, इसमें वियोग के लिए जगह नहीं! रसखान के गोपी रूप को कान्हा का एक क्षण का वियोग भी मान्य नहीं! जिसे कान्हा की प्रेम-छाँह ने जीवन दिया हो, उसे जलने के लिए एक क्षण का वियोग भी पर्याप्त है। तीन दिन वृंदावन में बेसुध पड़े रसखान के भाव पर खुद कृष्ण भी रीझ गए तो रसखान भला उन्हें जाने कैसे देते! वे उस कान्हा के संयोग में पूरी तरह डूब गए! यह उसी संयोग का ही असर है कि योगियों ने योग से और ज्ञानियों ने ज्ञान से जिसे जानना चाहा पर जान न सके, रसखान की गोपियाँ उसी कान्हा को "छछिया भरि छाछ पै नाच" नचाती

हैं।

 

वंश और काल की नजर से 'देखि गदर हित साहिबी, दिल्ली नगर मसान' कहकर रसखान ने जिस काल का उल्लेख किया है, उसमें गदर होने और दिल्ली के श्मशान बनने का इतिहास नहीं मिलता। यह काल अकबर का शासनकाल है। इस समय एक छोटे से उत्पात का संकेत मिलता है जो अकबर के सौतेले भाई मुहम्मद हाकिम ने किया था। इतिहासकार मानते हैं कि शायद रसखान उसी की ओर संकेत कर रहे होंगे! इसी तरह इनके वंश को लेकर भी पर्याप्त मतभेद हैं - "छिन्हीं बादसा वंस की" में संकेत है कि वे बादशाह वंश के होंगे पर दूरवर्ती! हालांकि डॉ० नगेंद्र ने हुमायूँ और शेरशाह के बीच के विप्लव को इनके काल से जोड़कर देखा है। पर इस बात को लेकर इतिहासकारों में प्रायः मतभेद पाए गए हैं।

 

रसखान के प्रेम की इंतहा देखिए - "पाहन हौ तो उसी गिरि कौ..." यानी मनुष्य बनना है तो उसी गोकुल गाँव के ग्वाले के रूप में! वाणी वही चाहिए जो उसके गुण गाए, कान वही जिनमें उनके गुण सुनाई दें, हाथ वही जो उनके हाथ में हो और रसखान भी वही जो उनके हों! समर्पण की ये पराकाष्ठा न तो दास्य भक्ति का मार्ग चुनती है न ही सख्य भक्ति का! वे तो स्वयं ही कृष्णमय हो चुके हैं इसीलिए दोहे, सवैये, पद सब उनके ही नाम के हैं! मीरा, आण्डाल, चैतन्य महाप्रभु की तरह खुद को समर्पित करने वाले रसखान भी जन-मन के रचनाकार हो गए क्योंकि नि:स्वार्थ समर्पण के अतिरिक्त उन्हें और कुछ नहीं चाहिए था।

 

रसखान की कविता के वर्ण्य विषय हैं - मुरली, कृष्ण, गोपिका और भक्त-प्रेमी। इन सभी को मिलाकर ही प्रेम की पूर्णता होती है। मुरली की तान उन्हें मोहित करती है, गोपिकाएँ कृष्ण के प्रेम में मोहित रहती हैं और उन्हीं का साहचर्य गोपिकाओं को ही नहीं रसखान को भी पूर्ण करता है। लीला पुरुषोत्तम कृष्ण की लीलाओं में ही प्रेम का सुख है "हरि से बड़ौ हरि को नाम!"

 

कोई कहता है कि कृष्ण के रूप ने इन्हें मोह लिया तो किसी जनश्रुति के अनुसार वे उनके प्रेम में डूब गए! जो भी हो, उनके सवैयों के भीतर प्रेम और रूप दोनों की ऐसी मोहिनी मिलती है जिसमें आज भी जन-मन झूम रहा है। मथुरा ज़िले के महावन में इनकी समाधि है जिसे 'रसखान की छतरी' कहा जाता है। धर्मों के बीच एकता और प्रेम का संदेश देती यह समाधि आज भी रसखान के प्रेमी हृदय की कहानी कहती है। भारतेंदु हरिश्चंद्र ने इनके सवैयों पर ही रीझ कर कहा था, "इन मुसलमान हरिजनन पर कोटिक हिंदुअन वारिये" - प्रेम और समर्पण की ये अद्भुत दास्ताँ भारतभूमि की मिट्टी की वह सुगंध है जो हज़ार-हज़ार रूपों में भक्त कवियों से होकर आज भी हमारे मन को महका रही है।


रसखान : जीवन परिचय

मूल नाम 

सैय्यद इब्राहिम 

उपाधि 

रसखान 

जन्म 

संवत १५९०

निधन

संवत १६७५

जन्मभूमि 

हरदोई (पिहानी)

रचनाएँ

  • प्रेमवाटिका

  • सुजान-रसखान

  • दानलीला

  • अष्टयाम 


संदर्भ

लेखक परिचय


प्रो० हर्षबाला शर्मा

हिंदी विभाग,

इंद्रप्रस्थ कॉलेज,

दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली

Friday, April 29, 2022

मौत तो आनी है तो फिर मौत का क्यूँ डर रखूँ? : डॉ० कुँअर बेचैन

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"जितनी दूर नयन से सपना
जितनी दूर अधर से हँसना
बिछुए जितनी दूर कुँवारे पाँव से
उतनी दूर पिया तू मेरे गाँव से।"
 
फ़िल्म 'कोख़' के गीत की ये पंक्तियाँ लिखने वाले क़लम की दुनिया के अनमोल सितारे डॉ कुँअर बेचैन की क़लम की तहरीर और उनकी शख़्सियत से परिचित कराती हैं। सोच का एक आलम हो मानो, सजग रचनाकार हिंदी गीत व ग़ज़ल को समकालीन जामा पहनाते हुए आम-आदमी के दिल की बात सलीके से कह जाने के हुनर का दूसरा नाम है, डॉ० कुँअर बहादुर सक्सेना।
 
तुम्हारे जिस्म जब जब धूप में काले पड़े होंगे
हमारी भी ग़ज़ल के पाँव में छाले पड़े होंगे
 
ग़ज़ल की पंक्तियों में मानो उन्होंने अपने संघर्ष का चित्र उकेरा हो। हिंदी ग़ज़लों के माध्यम से उन्होंने आम-आदमी के जीवन संघर्ष के बिंबों को सजीव किया है। चित्रकारिता और संगीतात्मकता को ग़ज़ल व गीत के अल्फ़ाज़ में  पिरोकर नई पहचान देने वाले डॉ० कुँअर बेचैन का जन्म उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद में हुआ था।  बचपन में ही माता-पिता का साया उठ गया था और संघर्ष की तपती ज़मीन पर तन्हा और लगातार जद्दो-जहद ने उनके अंदर के इंसान को दर्द-मंद इंसान के रूप में पाला-पोसा। उन्होंने जो भोगा, उसी को कलम के जरिए काग़ज़ पर नक्श कर इतिहास रचते गए।
 
डॉ० कुँअर बेचैन की कहानी, उन्हीं की जुबानी 

"१ जुलाई १९४२ को मुरादाबाद के पास उमरी नाम का गाँव है, वहाँ मेरा जन्म हुआ था। मेरे पिता वहाँ पटवारी थे और हमारे खान-दान में पटवारी रहते चले जा रहे थे। अच्छा खानदान था... खूब संपन्न लोग थे हम। जब मैं दो महीने का था, तभी मेरे पिताजी का देहांत हो गया। पिता के देहांत के पाँच महीने बाद मैं माँ के पास लेटा हुआ था, हमारे घर में डकैती पड़ गई। डकैतों ने मुझ पर चाकू रख दिया और माँ से बोला कि कहाँ-कहाँ पैसा गड़ा है, दे दो; नहीं तो हम इसको मार देंगे। मेरी माँ ने कहा, इसे छोड़ दो, मैं बता देती हूँ। लगभग २७ कलश सोने-चाँदी के ज़ेवरात से भरे हुए ज़मीन में  गड़े थे, जिन्हें वे खोद कर ले गए। इस घटना से माँ डर गईं। मेरी बड़ी बहिन को लेकर माँ अपनी माँ के गाँव आ गई और अपना गाँव छोड़ दिया। तब मैं डेढ़ वर्ष तक अपनी नानी व उसके बाद अपने मौसा-मौसी के पास  रहा। जब मैं दो वर्ष का था, उनके साथ मुरादाबाद आ गया। मेरा पालन-पोषण उन्होंने सात महीने किया। उसके बाद मेरी बड़ी बहिन की शादी कर दी गई। बहिन की विदाई के समय मैं दरवाज़े पर  खड़ा था, तो कोई चोर मुझे उठाकर भाग गया। बाराती चोरों से छुड़ा कर लाए। उसके बाद दो वर्ष तक के लिए बहिन-बहनोई के साथ मुरादाबाद चला गया। जब मैं सात वर्ष का था, तब माँ  का और जब नौ वर्ष का तो मेरी बहिन का भी देहांत हो गया। मैं और जीजाजी घर में अब अकेले रह गए।
बहिन के देहांत के बाद घर की सारी ज़िम्मेदारी मुझ पर आ गई। हम कच्चे घर में रहते थे। घर में बिजली नहीं थी। मैं स्ट्रीटलाइट की रोशनी में पढ़ता था। जीजाजी खाना बनाना नहीं जानते थे। हम दोनों ने सबसे पहले खिचड़ी बनाना सीखा। बाजरी की रोटी तवा उल्टा करके चूल्हे पर बनाते थे। उस रोटी के टुकड़े-टुकड़े होते तो भी मैं खाता था। वह ऐसा दिन था जिसकी रोटी की महक बहुत भारी रही।"

बाजरे की रोटी का ज़िक्र माँ और बहिन से जोड़ कर उन्होंने लिखा,
 
तेरी हर बात चल कर यूँ भी मेरे जी से आती है
कि जैसे याद की खुश्बू किसी हिचकी से आती है।
 
कहाँ से और आएगी अकी़दत की वो सच्चाई
जो जूठे बेर वाली सरफिरी शबरी से आती है।
 
हजारों खुशबुएँ दुनियाँ में हैं पर उससे छोटी हैं
किसी भूखे को जो सिकती हुई रोटी से आती है।
 
अपने संघर्ष की कहानी को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने कहा, "मैं अपने दर्द को व्यक्त करने के लिए गाने लगा। जब मैं नवीं कक्षा का छात्र था, तब कक्षा अध्यापक ने जो खुद भी कविता लिखते थे, प्रोत्साहित किया और तुलसीदास पर कविता लिखने के लिए कहा। मैं लिख नहीं पाया। उन्होंने मेरा कवि-रूप पहचान लिया था, इसलिए उन्होंने वापस बोला कल तुलसी-जयंती में तुझे सब बच्चों के सामने कविता बोलना है। सैकड़ों छात्रों के सामने मैंने कविता सुनाई; जिसे सुनकर बहुत वाह-वाही हुई, तब से मेरी कविता की यात्रा का प्रारंभ हुई।"

अपनी तंगहाली को बताते हुए कहते हैं, "स्कूल के दिनों में मेरे पास दो जोड़ी कपड़े थे। एक बार बरसात होने से गंदे कपड़े नहीं धोए थे, तो गंदे कपड़े पहन कर ही स्कूल चला गया। मेरे टीचर ने देखा और मुझे क्लास से बाहर निकाल दिया। उसी कक्षा में मेरा मित्र था, उसने मेरी आप-बीती सर को सुना कर कहा कि बहुत गलत किया आपने उसके साथ। सर ने उसी समय कक्षा छोड़ी और मेरे पास आए। मेरे पैरों में पड़कर माफ़ी मांगी। कृष्ण कुमारजी नाम था उनका। फिर वे अपने घर ले गए और मुझे खाना खिलाया। वे लिखने के लिए प्रेरित करते रहे। सन १९५९ में सोलह वर्ष की आयु में सुरेंद्र मिश्र और हिंदी प्रभाग के अध्यक्ष गंगाधर राय ने मुझे कविता, ग़ज़ल और गीत लिखने के लिए बहुत  प्रोत्साहित किया। वे अपने साथ कवि सम्मेलनों और मुशायरों में मुझे ले जाते थे।"

इतनी दर्द भरी ज़िंदगी के सफ़र में भी बेचैन जी आशावादी बने रहे और ग़ज़ल-गीतों के जरिए आशा का संचार लोगों के दिलों में करते रहे,
हो के मायूस न यू शाम से ढलते रहिये
ज़िंदगी भोर है सूरज से निकलते रहिये
 
एक ही ठाँव पे ठहरेंगे तो थक जायेंगे
धीरे-धीरे ही सही राह पे चलते रहिये
 
सन १९६५ से २००२ तक एम एम एच कॉलेज, गाजियाबाद, उत्तरप्रदेश के हिंदी विभाग में अपनी सेवाएँ देते हुए व कवि सम्मेलनों और मुशायरों में अपनी शिरकत से लोगों के दिलों में जगह बनाते रहे। उनके गीत और ग़ज़लों की महक सिर्फ़ देश में ही नहीं; सात समंदर पार भी महकी। रूस, सिंगापुर, दुबई, हॉलैंड, फ्रांस, जर्मनी और पाकिस्तान की यात्राएँ की। जहाँ उनके गीतों और ग़ज़लों को बहुत सराहा गया और कई सम्मानों से नवाज़ा गया। 
 
डॉ० कुँअर बेचैन की साहित्य साधना

९ गीत संग्रह, १५ ग़ज़ल संग्रह, २ कविता संग्रह, दोहा संग्रह, हाइकु संग्रह, उपन्यास, महाकाव्य, सैद्धांतिक पुस्तक, नवगीत, बाल-गीत, यात्रा वृतांत उनकी कुल १५० पुस्तकें एक अलग ही दुनिया में ले जाती हैं। 
 
कुँअर बेचैन के हाइकु -
जल चढ़ाया
तो सूर्य ने लौटाए 
घने बादल।
 
तटों के पास
नौकाएं तो हैं, किन्तु
पाँव कहाँ हैं?
 
ज़मीन पर
बच्चों ने लिखा 'घर'
रहे बेघर।
 
रहता मौन
तो ऐ झरने तुझे 
देखता कौन?
 
चिड़िया उड़ी
किन्तु मैं पिजरे में
वहीं का वहीं!
 
प्रतिनिधि बाल-गीत (कानाबाती कुर्र) -
अरी चिरइया नींद की
हो जा जल्दी फुर्र! 
कानाबाती कुर्र! 
छोड़ अपने आराम को 
सूरज निकला काम को
देकर सबको रोशनी
घर लौटेगा शाम को।
तू भी जल्दी छोड़ दे
खर्राटों की खुर्र!
कानाबाती कुर्र !
जगीं शहर की मंडियाँ 
गाँवों की पगडंडियाँ
खेतों ने भी दिखलाई
हरी फसल की झंडियाँ।
चली सड़क पर मोटरें 
घर-घर-घर-घर घुर्र! 
कानाबाती कुर्र!
 
अनेक महाविद्यालयों और विद्यालयों के पाठ्यक्रमों में इनकी कविताएँ बेहतरीन मार्गदर्शक रही। इनके द्वारा लिखी पुस्तकों पर २० से ज्यादा रिसर्च स्कॉलरों ने विभिन्न विश्वविद्यालयों से पी०एच०डी० की डिग्री हासिल की। डॉ० कुँअर बेचैन को उनकी साहित्य-सेवाओं के लिए देश की नामी साहित्य संस्थाओं, कई अकादमियों आदि ने सम्मानित किया। उत्तर प्रदेश की राज्य सरकार और महामहिम राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह जी व डॉ० शंकर दयाल शर्मा जी द्वारा भी सम्मानित किया गया। 
 
इनके गीत टीवी सीरियलों के अलावा फ़िल्मों में भी सुनने को मिले। आकाशवाणी और टीवी सीरियलों में उनके द्वारा लिखे  गीत काफी लोकप्रिय हुए। फ़िल्म 'कोख' में रवींद्र जैन के संगीत और हेमलता जी के स्वर में गाया गीत लोगों में बहुत मशहूर हुआ।
 
जितनी दूर नयन से सपना
जितनी दूर अधर से हँसना
 
नेत्र विशेषज्ञ, कवि और फ़िल्म-निर्माता निखिल कौशिक ने फ़िल्म 'भविष्य, दी फ्यूचर' में डॉ कुँअर बेचैन के गीत को लिया। "नदी बोली समंदर से, मैं तेरे पास आई हूँ" और "बदरी बाबुल के अंगना जइयो" जो फ़िल्म 'टशन' में भी लिया था, लेकिन उनके नाम का कहीं भी ज़िक्र नहीं किया था। 

कौशिक ने उनसे पूछा, "मैं प्रायः सोचता और पूछता हूँ आप अपने आप से केवल मुस्कराते क्यों हैआपको कभी क्रोध क्यों नही आता?"
तब डॉ० बेचैन उनको बताते है कि "वे किसी आलोचना को भी मान का अधिकारी मानते है।"
बेचैन कहा करते  थे, "सिकती रोटी की महक मेरा संघर्ष था, जितना दुख सिखाता है, उतना कोई नहीं, दुख ही मेरा गुरु है।"
 
उन्होंने पत्नी का ज़िक्र करते हुए बताया कि शादी के बाद पत्नी मेरी गुरु रही। ग़ज़ल की तमीज़ के बिना उन्होंने पत्नी के लिए पहली बार ग़ज़ल-नुमा एक रचना लिखी थी,
मेरे पास तू नहीं तो मेरे पास तेरा ग़म है
तेरी याद संग है मेरे, क्या मेरे लिए ये कम है?
 
सन १९६३-६४ में रामधारी सिंह 'दिनकर' ने एक कवि सम्मेलन में उनके गीत की प्रतिक्रिया में बेचैन की पीठ प्यार से थपथपाई। डॉ० अशोक चक्रधर ने कहा, "डॉ० कुँअर बेचैन ने कितनी किताबें लिखी, उनमें से कितने ग़ज़ल संकलन हैं, कितनी अतुकांत कविताओं की किताबें हैं, कितने ही गीत, कितने उपन्यास  हैं, कहानियाँ हैं ये तो सब जानते हैं, लेकिन कुँअर बेचैन का व्यक्तित्व क्या है? उसे कितने लोगों ने पढ़ा है? लेकिन उनको पढ़ना आसान नहीं। वे समंदर से गहरे इंसान हैं, पेड़ से ऊँचे व्यक्तित्व हैं।" राज कौशिक (पत्रकार) कहते हैं, "मेरा सौभाग्य कि मैं उनका स्टूडेंट रहा। शायरी में छह-सात साल में पहली भैरवी डॉ० कुँअर ने बताई।"

डॉ० बेचैन के लिए कौशिक ने लिखा,
 "न तुम हो चांद न सूरज न दीप या जुगनू
 फिर आस-पास तुम्हारे ये रोशनी क्यूँ है?"
 
प्रगीत कुँअर (पुत्र) ने पिता के लिए अपने उद्गार व्यक्त किए, "डॉ० कुँअर बेचैन जी को पिता के रूप में पाना अपने आप में वरदान से ज्यादा कुछ नहीं। जहाँ तक उनकी रचनाओं का सवाल है उनकी रचनाएँ इतनी मौलिक हैं, उन्हें किसी भी परिवेश में आप नाप-तौल सकते हैं और वे लोगों को प्रेरणा देती हैं।"
 
हमारे देश के गंगा-जमुनी तहज़ीब के लिए बेचैन के विचार है, "मनुष्यता सबसे बड़ी चीज है। मुझे तो तमाम शायरों के साथ वसीम बरेलवी साहब का बहुत-बहुत प्यार मिला।"
 
हिंदू-मुस्लिम एकता पर उन्होंने लिखा, 
भले ही हममें तुममें कुछ ये रूप रंग का भेद हो
है खुशबुओं में फ़र्क क्या गुलाब हम, गुलाब तुम
कुछ तुम बदल के देखो, कुछ हम बदल के देखें
जैसे भी हो  दिलों का मौसम बदल के देखें
लगता है ये बदल ही आएगी कान अपने,
खुशियाँ बदल के देखी अब गम बदल के देखें
 
साहित्य-साधना में लीन डॉ० बेचैन आज की पीढी़ के साथ-साथ आने वाली पीढ़ी के लिए बेहतरीन उदाहरण हैं, कि संघर्ष से शख़्सियतें सदा निखरती हैं। नए कवियों और लेखकों को संदेश देते हुए कहा, "नए लेखकों से मैं यहीं कहना चाहता हूँ, जिस भी विधा में वो लिख रहे- कहानी लिखे तो कहानी की, कविता लिखे तो कविता की। कविता में कई विधाएँ हैं ...गीत है, ग़ज़ल है ...अलग अलग विधाएँ हैं ...उन विधाओं की पूरी जानकारी हासिल करें। ...जल्दबाजी नहीं करें। कला का कोई शॉर्टकट नहीं है। कला में तपस्या करनी पड़ती है। इंतजार करता पड़ता है।"
 
तुम भी भरी बहार से आगे निकल गये
तुम मेरे इंतज़ार से आगे निकल गये
पीछे तुम्हारे वो तो बड़ी दूर तक गयी
तुम ही मेरी पुकार से आगे निकल गये।
 
डॉ० कुँअर का अंतिम सफ़र 

डॉ० कुमार विश्वास ने डॉ० कुँअर बेचैन के लिए ट्वीट कर वेंटिलेटर की माँग की थी। डॉ० कुमार विश्वास के ट्वीट के बाद गौतम नगर के सांसद डॉ० महेश शर्मा ने मदद के लिए हाथ बढ़ाया। कैलाश अस्पताल में शिफ्ट कराने की बात की थी।

डॉ० कुमार विश्वास, "रात को १२ बजे तक प्रयास करता रहा, सुबह से प्रत्येक परिचित डॉक्टर को कॉल कर चुका हूँ। हिंदी के वरिष्ठ गीतकार गुरु-प्रवर डॉ० कुँअर बेचैन कॉस्मोस हॉस्पिटल, आनंद विहार, दिल्ली में कोविड उपचार में है। ऑक्सीजन लेवल सत्तर तक पहुँच गया, तुरंत वेंटिलेटर की आवश्यकता है। कहीं कोई बेड नहीं मिल रहा।" उसके बाद उनके लिए जीवन और मौत के बीच संघर्ष चलता रहा। तब भी वे आशा से और खुशी से भरे हुए थे। 

गुरुवार, २९ अप्रैल २०२१ को काव्य-साहित्य का एक और सूरज कोरोना के चलते अस्त हो गया। बकौल डॉ० विश्वास, "कोरोना ने मेरे मन का कोना मार दिया।" ऐसे अप्रतिम गीतकार, ग़ज़लगो, बेहतरीन काव्य-पाठ के नायक कुँअर बेचैन जिस महामारी के दौर में गए, वह पूरे देश को श्मशान बनाए दे रही थी। बीमारी के हर दिन, हर सुबह-शाम उनसे संपर्क व संवाद में रहने वाले बेटे प्रगीत कुँअर इतनी दूर (विदेश में) थे, कि इस महामारी में उसे आने तक की इजाज़त नहीं मिली। बेटे को लक्ष्य कर डॉ० कुँअर जी ने कभी एक बेहतरीन गीत लिखा था, 
 
पुत्र! तुम उज्ज्वल, भविष्यत फल,
हम तुम्हारे आज हैं, लेकिन-
तुम हमारे आज के शुभ कल,
पुत्र, तुम उज्ज्वल भविष्यत फल।
 
तुम हमारे मौन स्वर की भी
मधुमयी, मधु छंदमय भाषा
तुम हमारी हृदय-डाली के
फूल की मुस्कान, परिभाषा
 
झील हम, तो तुम नवल उत्पल,
पुत्र, तुम उज्ज्वल भविष्यत फल।
 
तुम हमारे प्यार का सपना
तुम बढ़े तो क़द बढ़ा अपना
छाँव यदि मिलती रही तुमको
तो हमें अच्छा लगा तपना
हर समस्या का सरल-सा हल,
पुत्र, तुम उज्ज्वल भविष्यत फल।
 
कैसी विषाद वेला रही, कि वही पुत्र उनके पार्थिव देह की अंतिम विदाई तक में भी शामिल नहीं हो सका। इससे बड़ी विडंबना और क्या हो सकती है? किंतु कहा गया है, "कालो न यातः वयमेव यातः।" समय नहीं, हमी हैं जो बीत रहे हैं। कविवर अशोक चक्रधर और कुमार विश्वास उनकी रोज़ खोज-खबर ले रहे थे। उन्हें आशा थी कि गीतों का यह राजकुंवर जल्दी ही उठ कर अपनी कुटिया में पधारेगा। महफिलें फिर उनके गीतों से गूंजेंगी। कविवर अशोक चक्रधर से उनके पुत्र प्रगीत कुँअर का सतत संवाद था। फोन पर ही उनका हाल-चाल, कुशल-क्षेम लेते रहते थे। शिक्षाविद डॉ० महेश शर्मा ने उनके इलाज में कोई कोर-कसर न छोड़ी, किंतु गुरुवार का दिन जैसे उनकी मृत्यु के लिए मुकर्रर था, जब उन्हें उनके ही शब्दों में- "बिस्तर समेट कर तैयार रहना था।" डॉ० कुँअर जी ७९ साल का भरा-पूरा जीवन जी कर इहलोक से विदा हो चुके हैं; किंतु उनके गीत उनकी ग़ज़लों की अनुगूंज कभी भी मंद नहीं पड़ने वाली। सोशल मीडिया व कवि सम्मेलनों के इतने वीडियो उनके मौजूद हैं कि कोई भी उन्हें सुनकर शुद्ध गीतों, कविताओं, ग़ज़लों व काव्‍यपाठ का आनंद ले सकता है। कवि इसी तरह सदियों के समय के कैनवस पर सदैव उपस्थित रहता है। वे भी हिंदी-जगत की स्मृतियों में हमेशा जीवित रहेंगे।

गीतों व ग़ज़लों दोनों में उनके काफिये-रदीफ़ चुस्त-दुरुस्त होते रहे। ग़ज़लों का व्याकरण उनका इतना सटीक था, कि लोग तुकांतों की खोज के लिए उनकी ग़ज़लों को आज भी पढ़ा करते हैं, और आगे भी पढ़ते रहेंगे। आम-आदमी अक्सर मृत्यु से घबराता है, पर कवियों में ही यह साहस है कि वे न केवल मृत्यु का सामना करते हैं; बल्कि मृत्यु पर लिखते भी सर्वाधिक हैं। यों तो वे मूलतः आशावादी कवि रहे हैं, फिर भी देखिए मृत्यु को भी वे किस दिलेरी से स्वीकार करते हुए लिखते हैं,
मौत तो आनी है तो फिर मौत का क्यू डर रखूं,
ज़िंदगी आ तेरे क़दमों पर मैं अपना सर रखूं
 
जिसमें माँ और बाप की सेवा का शुभ संकल्प हो
चाहता हूं मैं भी काँधे पर वही काँवर रखूं,
 
कौन जाने कब बुलावा आए और जाना पड़े
सोचता हूं हर घड़ी तय्यार अब बिस्तर रखूं।
 
काव्य-कवियों में शोक की लहर फैल गई। उनके निधन पर उनकी समकालीन गीतकार डॉ० मधु चतुर्वेदी ने दुख प्रकट किया है। उन्होंने कहा कि "कुँअर जी का जाना बहुत दुखद है। हिंदी गीतों की वाचिक परंपरा के हस्ताक्षर के जाने से आए अवकाश को भरा नहीं जा सकता। लंदन के हाउस ऑफ़ लॉर्ड्स में दो भारतीय गीतकारों का सम्मान हुआ था। मेरा सौभाग्य है कि वह मैं और कुँअर जी थे। उनके साथ अनेक कार्यक्रम और यात्राएँ की, जो अब यादों में हैं।"

गीत और ग़ज़ल का सितारा आज के ही दिन एक वर्ष पूर्व पंचतत्व में भले ही विलीन हो गया हो लेकिन ग़ज़ल और गीत का अध्याय उनको पढ़े बिना पूरा नहीं हो सकता। ऐसी शख़्सियत को नमन...! जो ज़मीन से उठकर साहित्य के आकाश की ऊँचाईयों का कोना-कोना छान आए और समंदर-सी गहराई अपने व्यक्तित्व में समेट कर अपनी कलम की पैनी धार से कागज़ के पन्नों पर उकेर दी।

डॉ० कुँअर बेचैन : जीवन परिचय

मूल नाम

डॉ० कुँअर बहादुर सक्सेना

उपनाम

बेचैन

जन्म

०१ जुलाई १९४२, ग्राम - उमरी, ज़िला - मुरादाबादउत्तर प्रदेश, भारत

निधन

२९ अप्रैल २०२१, कैलाश अस्पताल, नोएडा

पिता

श्री नारायण दास सक्सेना

माता

श्रीमती गंगा देवी

पत्नी

श्रीमती संतोष कुँअर

संतान

  • पुत्र - प्रगीत कुँअर

  • पुत्री - वंदना कुँअर

शिक्षा

  • एम०कॉम०

  • एम०ए० (हिंदी)

  • पी०एच०डी०

साहित्यिक रचनाएँ

गीत-संग्रह

  • पिन बहुत सारे (१९७२)

  • भीतर साँकल - बाहर साँकल (१९७८

  • उर्वशी हो तुम (१९८७)

  • झुलसो मत मोरपंख (१९९०)

  • एक दीप चौमुखी (१९९७)

  • नदी पसीने की (२००५)

  • दिन दिवंगत हुए (२००५

ग़ज़ल-संग्रह

  • शामियाने काँच के (१९८३)

  • महावर इंतज़ारों का (१९८३)

  • रस्सियाँ पानी की (१९८७)

  • पत्थर की बाँसुरी (१९९०)

  • दीवारों पर दस्तक (१९९१)

  • नाव बनता हुआ काग़ज़ (१९९१)

  • आग पर कंदील (१९९३)

  • आँधियों में पेड़ (१९९७)

  • आठ सुरों की बाँसुरी (१९९७)

  • आँगन की अलगनी (१९९७)

  • तो सुबह हो (२०००)

  • कोई आवाज़ देता है (२००५)

कविता-संग्रह

  • नदी तुम रुक क्यों गई (१९९७)

  • शब्द : एक लालटेन (१९९७)

हाइकु-संग्रह

  • डॉ० कुँअर बेचैन के हाइकु

बाल-गीत

  • कानाबाती कुर्र

महाकाव्य

  • प्रतीक पांचाली

पुरस्कार व सम्मान

  • साहित्य भूषण सम्मान (उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान), २००४

  • परिवार सम्मान (परिवार संस्था मुंबई), २००४

  • गीत गौरव

  • गीत पुरुष

  • भारत श्री

  • राष्ट्रीय आत्मा पुरस्कार

  • कबीर सम्मान

  • हिंदी गौरव सम्मान

  • द्वितीय संवेदना सम्मान (सोच एवम वैद्यराज आरोग्य फाउंडेशन, नई दिल्ली), २०१३

  • प्रो० राम स्वरूप सिंदूर सम्मान (सिंदूर मेमोरियल अकादमी), २०१४

  • विपुलम सम्मान (विपुलम फाउंडेशन, लखनऊ), २०१८

संदर्भ

  • http://KavitaKosh.org.- कुँअर बेचैन - कविता कोश

  • कुँअर बेचैन का समस्त लेखन - रेख़्ता 

  • कुँअर बेचैन की संपूर्ण रचनाएँ - Hindwi

  • साहित्य का सूरज अस्त - Amar Ujala Kavya

  • प्रयाण - कुँअर बेचैन - Aaj Tak

  • Shakhsiyat with Dr. Kunwar bechain- YOUTube- Samvad Tv

  • Twitter - @ Dr. Kumar Vishwas १५ अप्रैल २०२१


लेखक परिचय

मीनाक्षी कुमावत 'मीरा'
शिक्षा- एम.ए., बी.एड., नेट (हिंदी साहित्य) ; संप्रति- अध्यापन
कृतियाँ- गुरु आराधनावली (भजन-संग्रह), १५ सांझा संकलन 
KKP कविता की पाठशाला में लेखन कार्य में सक्रिय साझेदारी
संपर्क +९१ ६३५०५१८५१५
ईमेल fragranceofm.meera@gmail.com

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कलेंडर जनवरी

Sun Mon Tue Wed Thu Fri Sat
            1वह आदमी उतर गया हृदय में मनुष्य की तरह - विनोद कुमार शुक्ल
2अंतः जगत के शब्द-शिल्पी : जैनेंद्र कुमार 3हिंदी साहित्य के सूर्य - सूरदास 4“कल जिस राह चलेगा जग मैं उसका पहला प्रात हूँ” - गोपालदास नीरज 5काशीनाथ सिंह : काशी का अस्सी या अस्सी का काशी 6पौराणिकता के आधुनिक चितेरे : नरेंद्र कोहली 7समाज की विडंबनाओं का साहित्यकार : उदय प्रकाश 8भारतीय कथा साहित्य का जगमगाता नक्षत्र : आशापूर्णा देवी
9ऐतिहासिक कथाओं के चितेरे लेखक - श्री वृंदावनलाल वर्मा 10आलोचना के लोचन – मधुरेश 11आधुनिक खड़ीबोली के प्रथम कवि और प्रवर्तक : पं० श्रीधर पाठक 12यथार्थवाद के अविस्मरणीय हस्ताक्षर : दूधनाथ सिंह 13बहुत नाम हैं, एक शमशेर भी है 14एक लहर, एक चट्टान, एक आंदोलन : महाश्वेता देवी 15सामाजिक सरोकारों का शायर - कैफ़ी आज़मी
16अभी मृत्यु से दाँव लगाकर समय जीत जाने का क्षण है - अशोक वाजपेयी 17लेखन सम्राट : रांगेय राघव 18हिंदी बालसाहित्य के लोकप्रिय कवि निरंकार देव सेवक 19कोश कला के आचार्य - रामचंद्र वर्मा 20अल्फ़ाज़ के तानों-बानों से ख़्वाब बुनने वाला फ़नकार: जावेद अख़्तर 21हिंदी साहित्य के पितामह - आचार्य शिवपूजन सहाय 22आदि गुरु शंकराचार्य - केरल की कलाड़ी से केदार तक
23हिंदी साहित्य के गौरव स्तंभ : पं० लोचन प्रसाद पांडेय 24हिंदी के देवव्रत - आचार्य चंद्रबलि पांडेय 25काल चिंतन के चिंतक - राजेंद्र अवस्थी 26डाकू से कविवर बनने की अद्भुत गाथा : आदिकवि वाल्मीकि 27कमलेश्वर : हिंदी  साहित्य के दमकते सितारे  28डॉ० विद्यानिवास मिश्र-एक साहित्यिक युग पुरुष 29ममता कालिया : एक साँस में लिखने की आदत!
30साहित्य के अमर दीपस्तंभ : श्री जयशंकर प्रसाद 31ग्रामीण संस्कृति के चितेरे अद्भुत कहानीकार : मिथिलेश्वर          

आचार्य नरेंद्रदेव : भारत में समाजवाद के पितामह

"समाजवाद का सवाल केवल रोटी का सवाल नहीं है। समाजवाद मानव स्वतंत्रता की कुंजी है। समाजवाद ही एक सुखी समाज में संपूर्ण स्वतंत्र मनुष्यत्व...