Wednesday, January 19, 2022

कोश कला के आचार्य - रामचंद्र वर्मा


हिंदी में जीना भी एक कला है

यह शब्दलोक निवासी की कथा है


दूसरों के दोष ढूँढते फिरना कोई अच्छी बात नहीं है, क्योंकि नीति और धर्म दोनों इसे बुरा कहते हैं। परंतु वह व्यक्ति अपने दुर्भाग्य को क्या कहे जिसे आरंभ से ही कुछ ऐसी तीव्र दृष्टि प्राप्त हुई, जो बलपूर्वक उसका ध्यान एक विशिष्ट क्षेत्र के कार्यों में रह गए दोषों की ओर आकृष्ट करती थी। वह क्षेत्र था, भाषा का और वह व्यक्ति थे आचार्य रामचंद्र वर्मा।

१९०७-०८ का समय रहा होगा, जब वर्माजी का ध्यान काशी से निकलने वाले एक मासिक पत्र के कार्यालय द्वारा छापे एक पोस्टकार्ड पर गया। उस पर व्यवस्थापक की ओर से लिखा गया था, "दुख है कि इस कार्यालय के अध्यक्ष श्रीयुक्त…… के एकमात्र पिता का स्वर्गवास हो जाने के कारण इस पत्र का अंक समय पर न निकल सका।"

वर्माजी को उक्त सज्जन के निधन का दुख तो हुआ ही ( क्योंकि व्यवस्थापक महोदय विद्यालय में उनके सहपाठी रह चुके थे ), पर साथ ही अधिक दुख इस बात का हुआ, कि उन्होंने 'एकमात्र' शब्द का प्रयोग बिना उसका अर्थ जाने ही, अपने पिता के आगे कर दिया। उन्हें आश्चर्य यह भी हुआ, कि उस पोस्टकार्ड को पढ़ने वाले अनेक सुधीजनों ने भाषा की इस स्थिति की ओर ध्यान ही नहीं दिया। बस उसी दिन से वर्माजी भाषा के दोषों पर गंभीरता से विचार करने लगे। कहते हैं, कि पूत के पाँव पालने में ही दिख जाते हैं, वर्माजी पर यह बात एकदम सही बैठती है। वे स्वयं बताते हैं, "जब मैं हरिश्चंद्र स्कूल के चौथे-पाँचवें दर्जे में पढ़ता था, मैं अपने सहपाठियों को अशुद्ध बोलने पर प्रायः टोका करता था। पहले तो कुछ दिनों तक वे मेरी हँसी उड़ाते थे। पर धीरे-धीरे उनकी समझ में आने लगा, कि मैं उन्हें जो कुछ बतलाता हूँ, ठीक बतलाता हूँ। फिर तो और लड़के भी दूसरों की भाषा-संबंधी भूलें पकड़ने लगे। कभी-कभी उन लोगों में झगड़ा भी हो जाता था। कोई कहता था, कि यह प्रयोग ठीक है और कोई कहता कि नहीं, यह ठीक है। उस समय निर्णय कराने के लिए वे मेरे पास आते थे। मैं लज्जित भी होता था, संकुचित भी। कारण यह, कि उनमें कुछ ऐसे लड़के होते थे, जो अवस्था में भी मुझसे बड़े होते थे और पढ़ते भी ऊँचे दर्जों में। फिर भी मैं उन्हें अपनी अल्पबुद्धि के अनुसार बतला देता था, कि क्या ठीक है और क्या ठीक नहीं है। और उस समय मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहता था, जब मैं देखता था, कि मेरे निर्णय से दोनों पक्षों का समाधान हो गया।"

वर्माजी ने इस घटना को लड़कपन का खिलवाड़ कहा है, परंतु भाषा के प्रति उनका यह समर्पण दर्शाता है कि वे हिंदी में जिए,और हिंदी के लिए जिए।

काशी में जन्मे आचार्य रामचंद्र वर्मा की शिक्षा साधारण स्तर की ही रही। किशोर वय में जिज्ञासु मन लिए रामचंद्र अपने सखा श्रीकृष्ण वर्मा के साथ, भारत जीवन प्रेस के दफ़्तर पहुँच जाते थे। वहाँ उन्हें जगन्नाथदास रत्नाकर, पं० किशोरीलाल गोस्वामी, बाबू देवकीनंदन खत्री, बाबू कार्तिक प्रसाद खत्री, आदि हिंदी के शीर्ष विद्वानों का संग मिला करता था। वहाँ विज्ञजनों की मंडली उनसे उल्टे-सीधे वाक्यों के शुद्ध रूप पूछती और वर्माजी बड़े उत्साह से उत्तर देते। इसी क्रम में उन्हें हिंदी भाषा सीखने का सौभाग्य मिला। स्कूल में उनकी भाषा उर्दू रही। हिंदी वे बिलकुल नहीं जानते थे। यहीं पर वर्माजी के भीतर ज्ञान का अंकुर फूटा, और उन्होंने हिंदी भाषा की वाटिका में उग आए अवांछित झाड़-झंकार को उखाड़ फेंकने का मन बना लिया। इस आचिंत्य कार्य में वर्माजी का मन इतना रमा, कि वे आगे चलकर हिंदी के महत्त्वपूर्ण कोशकार व साहित्यकार कहलाए।

खत्री परिवार के सपूत बालक रामचंद्र में सीखने की उत्सुकता कमाल की थी और यह तब भी पूर्ण रूप से बनी रही, जब वे आचार्य रामचंद्र वर्मा हो गए। उन्होंने व्यक्तिगत अध्ययन द्वारा अनेक भाषाओं का ज्ञान प्राप्त कर लिया। बहुभाषी वर्माजी ने अनेक रचनाओं के आदर्श अनुवाद प्रस्तुत किए।

लेखन की पुस्तक में पड़े अस्त-व्यस्त शब्द-शिशुओं का उचित संस्कार करने हेतु, वर्माजी ने स्वयं के लिए पत्रकारिता की लेखनी चुनी और १९०७  में नागपुर से प्रकाशित होने वाले 'हिंदी केसरी' तथा बाँकीपुर से निकलने वाले 'बिहार बंधु' के संपादक की भूमिका निभाई। इतना कर चुकने पर करीब २० वर्ष की अवस्था में ही भाषा के इस समर्पित सेवी की योग्यता ने बाबू श्यामसुंदरदास को इतना प्रभावित कर दिया, कि उन्होंने इनके लिए काशी नागरीप्रचारिणी सभा के कोश-विभाग में संपादक का पद सुरक्षित कर दिया। यहाँ उन्होंने हिंदी के एक वृहत शब्द-संग्रह के निर्माण में महती भूमिका निभाई। सभा के एक सर्वसम्मत परामर्श पर हिंदी भाषा के दो बड़े कोश (हिंदी-हिंदी और हिंदी-अंग्रेज़ी) बनाने का निर्णय लिया गया। जिसमें कि हिंदी भाषा के  गद्य-पद्य में प्रचलित शब्दों का समावेश हो, उनकी व्युत्पत्ति दी जाए और उनके भिन्न भिन्न अर्थ यथासाध्य उदाहरणों सहित दिए जाएँ। इस कार्य हेतु शब्द-संग्रह की चुनौती बड़ी थी। इसमें योगदान हेतु बाबू रामचंद्र वर्मा ने समस्त भारत के पशुओं, पक्षियों, मछलियों, फूलों और पेड़ों आदि के नाम एकत्र करने के लिए कलकत्ते की यात्रा की थी, उन्होंने लगभग ढाई मास तक वहाँ रहकर इंपीरियल लाइब्रेरी से 'फ्लोरा एंड फौना ऑफ ब्रिटिश इंडिया सीरीज़' की समस्त पुस्तकों में से नाम और विवरण आदि एकत्र किए थे। इसके अतिरिक्त उन्होंने कोश के संपादन में अद्यंत अपनी सेवाएँ दीं। १८९३  में जिस विचार की पटरी पर प्रयत्नों के पहियों ने चलना शुरु किया, उसने १९२२  में मूर्त रूप पाया। इस यात्रा में भाषा और साहित्य के कई मर्मज्ञों ने निज श्रम आहुति दी। वर्ष १९२२  से १९२९  तक कोश का प्रथम प्रकाशन हुआ। इस श्रमसाधना के फलस्वरूप हिंदी भाषा को उसके प्रथम मानक कोश के रूप में 'हिंदी शब्दसागर' मिला, जो करीब एक लाख शब्दों का वैज्ञानिक और विधिवत संकलन है। यह मूल रूप से चार खंडों में प्रकाशित हुआ, जिसके प्रधान संपादक श्यामसुंदरदास थे। परंतु इस कार्य में आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अतिरिक्त आचार्य रामचंद्र वर्मा का योगदान अविस्मरणीय माना जाता है, जो आरंभ से अंत तक इस साधना में श्रमरत रहें। १९६५-१९७६ के बीच इसका परिवर्धित संस्करण ११ खंडों में प्रकाशित हुआ। 

शब्द-वर्तनी की उलझनों को सुलझाने वाले बाबू रामचंद्र वर्मा ने आचार्य किशोरीदास वाजपेयी के सहायकत्व में अच्छी हिंदी के आंदोलन को दिशा दी। जिसके अंतर्गत भाषा के मानकीकरण पर बल दिया गया। हिंदी शब्दसागर के सफल संपादकत्व के बाद उन्होंने संक्षिप्त हिंदी शब्दसागर की परियोजना को अपनी संपादन कला से फलीभूत  किया। जिसके बारे में वे स्वयं कहते हैं, "यदि काशी नागरीप्रचारिणी सभा की कृपा से हिंदी शब्दसागर और उसका संक्षिप्त संस्करण न निकल गया होता, तो संभवतः आज हिंदी का कोशक्षेत्र बहुत कुछ सूना ही दिखाई देता।" 

हिंदी कोशकला के यशस्वी संपादक श्री रामचंद्र वर्मा के इस प्रशंसनीय कार्य का आधार भी मुख्यतः हिंदी शब्दसागर ही है। उसका मूल ढ़ाँचा शब्दसागर से ही लिया गया है। हिंदी के अन्य कोशों में भी अधिकांश सामग्री इसी कोश से ली गई है। कोश-विज्ञान पर लिखी उनकी 'कोशकला' नामक पुस्तक विश्व साहित्य में अपनी उपादेयता सिद्ध करती है।

भाषा और कोश के क्षेत्र में वर्माजी आजीवन, अटल रूप से प्रयत्नशील रहे। शब्दार्थ-विचार कोश जैसे वैज्ञानिक ग्रंथ के रचनाकार को शब्दरुपी रत्नों ने इतना आकर्षित किया, कि वे अपने भवन का नामकरण करते हुए "शब्दलोक" निवासी हो गए। भाषा परिष्कार पर गहन चिंतन करने वाले ये महाशय अपनी पुस्तक 'अच्छी हिंदी' की भूमिका में निवेदन करते हुए कहते हैं, "वर्तमान युग में हमारी भाषा और लिपि की बहुत बड़ी आवश्यकताएँ हैं। मैं बहुत विनम्रता पूर्वक विद्वानों का ध्यान उन आवश्यकताओं की ओर आकृष्ट करना चाहता हूँ। जहाँ साधारण लेखकों के लिए यह उचित है, कि वे यह पुस्तक पढ़कर भाषा संबंधी अशुद्धियों से बचने का प्रयत्न करें, वहाँ विद्वान लेखकों का यह कर्तव्य है, कि वे विचारणीय तथा चितंनीय विषयों का निराकरण करें और भाषा तथा लिपि की आवश्यकताओं की पूर्ति का प्रयत्न करें। यदि ये बातें हो जाएँगी, तो मेरा वह उद्देश्य भी सिद्ध हो जाएगा, जिससे प्रेरित होकर मैंने यह पुस्तक लिखी है।"

इस पुस्तक की अपरिहार्यता स्पष्ट करते हुए, बाबूराव विष्णु पराड़कर लिखते हैं, "अच्छी हिंदी न व्याकरण है, न रचना पद्धति। वह साहित्य की शिक्षा नहीं देती, लेखन कला भी नहीं सिखाती। कैसे लिखना चाहिए, यह भी वह नहीं बताती। केवल उन गड्ढों को दिखा देती है, जो नवीन लेखकों के मार्ग में प्रायः पड़ते हैं, जिनसे उन्हें बचना चाहिए। अर्थात, वर्माजी ने वह भूलें दिखा दी हैं, जो नए और पुराने, पर असावधान लेखक करते दिखाई देते हैं।"

ज़रा विचार कीजिए, एक विद्यार्थी अगर निर्धारित पोशाक न पहने, एक सैनिक यदि सैन्य वर्दी न पहने, किसी समारोह में सम्मिलित होने हेतु जाते समय आप स्वयं के शृंगार पर ध्यान न दें, तो क्या वह उपयुक्त होगा?, क्या आप उसे स्वीकार कर पाएँगें? नहीं न, तो क्यों आपका यही व्यवहार भाषा के प्रति मंद पड़ जाता है? भाषा की वर्तनी, भाषा का शृंगार ही तो करती है। जब भाषा में वर्तनी की अशुद्धताएँ अर्थ का अनर्थ कर रही होती हैं, तो क्यों केवल प्रकाशित होने की शीघ्रता में आज की पीढ़ी उसे स्वीकार कर लेती है?, क्यों शब्द सामर्थ्य का अभाव गौण होकर जीविकोपार्जन ही लेखक का ध्येय बन जाता है?

वर्माजी का जीवन आज के लेखकों को एक बहुत बड़ी सीख देता है, कि अशुद्ध जानने की अपेक्षा तो न जानना ही उचित है। वे अशुद्धियों के उदाहरण समाचार-पत्रों व अन्य पुस्तकों से लेते हुए, बराबर चिंतन और मनन करते हुए, भाषा और कोश के क्षेत्र की गहराइयों में उतरे हैं। उनकी परिमार्जित हिंदीसेवा के फलस्वरूप भारत सरकार ने उन्हें 'पद्मश्री' से सम्मानित किया। अंतिम काल में उन्होंने हिंदी का एक बृहत् कोश 'मानक हिंदी कोश' के नाम से तैयार किया, जो पाँच खंडों में हिंदी साहित्य सम्मेलन से प्रकाशित हुआ।

उन्होंने प्रतिष्ठित पत्रिकाओं के कोश विभाग में कार्य किया और 'साहित्य रत्नमाला कार्यालय' का गठन किया। अपनी रचना उर्दू-हिंदी कोश की प्रस्तावना में आचार्य रामचंद्र वर्मा उर्दू और हिंदी का संबंध स्पष्ट करते हुए लिखते हैं, 

"यदि वास्तविक दृष्टि से देखा जाए, तो उर्दू कोई स्वतंत्र भाषा नहीं। वह हिंदी का ही एक ऐसा रूप है, जिसमें बहुधा अरबी, फ़ारसी, तुर्की आदि की ही अधिकांश संज्ञाएँ और विशेषण आदि रहते हैं।" उनके अनुसार कुछ कारणों से उसे एक स्वतंत्र भाषा स्वीकार किया गया है - एक तो उसकी एक स्वतंत्र लिपि है, जो अरबी और फ़ारसी लिपियों के योग से बनी है, दूसरा उसमें उत्तम कोटि का काव्य साहित्य प्रचुर मात्रा में है, तीसरा उत्तर भारत के मुसलमान उसे रोज़ की बोलचाल में काम में लाते है, और चौथा वह उत्तर भारत के कुछ प्रांतों की कचहरी की भाषा है। इन सभी कारणों से उर्दू भाषा का स्वतंत्र अस्तित्व है और शायद यही बातें उनसे कहलवाती हैं, "अपनी भाषा का स्वरूप स्थिर करने में हम उर्दू भाषा से भी बहुत कुछ शिक्षा और सहायता ले सकते हैं।" 

उन्होंने इस तथ्य को सहर्ष होकर स्वीकार किया, कि हिंदी का प्रचार विस्तृत होकर गति पा रहा है, परंतु कभी भी भिन्न भाषा-भाषियों से यह उम्मीद नहीं की, कि वे सभी तुरंत प्रभाव से हिंदी लेखन में निपुण हों। लेकिन, हिंदी भाषियों को अवश्य ही उनका कर्तव्य याद दिलाते हुए दृढ़ता से कहा कि, "हम अपनी भाषा का स्वरूप स्थिर करें और अन्यान्य भाषा-भाषियों के सामने उसका ऐसा आदर्श स्वरूप उपस्थित करें, जो उनके लिए मार्गदर्शक का काम दे।" 

आचार्य रामचंद्र वर्मा ने जहाँ सादगी और स्वभाव की सरलता से प्रत्येक मिलनेवाले को प्रभावित किया, वहीं एक प्रखर प्रेरणा बनते हुए, आजीवन भाषा के उत्थान हेतु एक योद्धा बने रहे।

आचार्य रामचंद्र वर्मा : जीवन परिचय

जन्म

८  जनवरी १८९० 

निधन

१९  जनवरी १९६९ 

जन्मभूमि

बनारस

पिता

दीवान परमेश्वरीदास

भाषा ज्ञान

संस्कृत, अंग्रेज़ी, उर्दू, फ़ारसी, बंगला, मराठी, गुजराती, पंजाबी

साहित्यिक रचनाएँ

  • अच्छी हिंदी (१९४४ )

  • हिंदी प्रयोग 

  • शिक्षा और देशी भाषाएँ

  • हिंदी कोश रचना

  • शब्दार्थ विचार कोश

संपादन

  • हिंदी केसरी पत्र (नागपुर)

  • संक्षिप्त हिंदी शब्दसागर

  • हिंदी शब्दसागर 

  • राजकीय कोश

  • उर्दू हिंदी कोश (१९५३)

  • कोश कला

  • उर्दू-हिंदी-अंग्रेज़ी त्रिभाषी कोश

  • लोकभारती बृहत् प्रामाणिक हिंदी कोश 

  • लोकभारती प्रामाणिक हिंदी बाल-कोश

  • उर्दू-सागर

अनुवाद

  • हिंदु राजतंत्र ( Hindu Polity - काशीप्रसाद जायसवाल )

  • हिंदी ज्ञानेश्वरी ( भावार्थदीपिका - संत शिरोमणि श्री ज्ञानेश्वरजी महाराज द्वारा लिखित श्रीमद्भगवद्गीता की सर्वश्रेष्ठ मराठी टीका )

  • छत्रसाल ( श्रीयुत बालचंद रामचंद कोठारी की मराठी पुस्तक )

  • दासबोध

  • 'प्राचीन मुद्रा (राखालदास बंद्योपाध्याय की बंगाली पुस्तक)

  • काली नागिन 

  • अकबरी दरबार

  • 'फूलों का हार' 

पुरस्कार व सम्मान

  • भारत सरकार द्वारा पद्मश्री ( १९५८ )

  • हिंदी साहित्य सम्मेलन द्वारा विद्या वाचस्पति की उपाधि


संदर्भ

  • हिंदी शब्दसागर की भूमिका

  • संक्षिप्त हिंदी शब्दसागर की भूमिका

  • उर्दू-हिंदी कोश की भूमिका

  • अच्छी हिंदी

  • आचार्य रामचंद्र वर्मा रचनावली

लेखक परिचय

सृष्टि भार्गव
कुछ पढ़ लेती हूँ, कुछ लिख लेती हूँ,
मैं बस हिंदी भाषा की विद्यार्थी हूँ।
अभी पाना निज आकाश है,
मुझे बस हिंदी से प्यार है।
ब्लॉग : https://srishtibhargava.wordpress.com
ईमेल : kavyasrishtibhargava@gmail.com 
फोन : 9013688301

10 comments:

  1. यह आचार्य रामचंद्र वर्मा जी के जीवन एवं साहित्य को वर्णित करता एक उत्तम लेख है। सृष्टि जी ने बहुत सहजता एवं सरसता के साथ इस लेख को पाठकों के सामने रखा। इसके लिए उन्हें बहुत बहुत बधाई।

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  2. वाह सृष्टि! बहुत सुन्दर लिखा है तुमने| पढ़कर जो अनद आया सो तो आया ही, हिन्दी के शुद्ध प्रयोग और भाषा को उसके मूल रूप में देखने की प्रेरणा मिली, सो अलग| ऐसे कितने ही हिन्दी-सेवियों और हिन्दी-प्रेमियों से हम अबतक अनभिज्ञ रहे हैं| तुम्हारा यह आलेख इस दृष्टि से और भी महत्वपूर्ण हो जाता है कि अपनी जड़ें तलाशती हिन्दी को उसका आधार देने वाला आज सबकी आँखों के सामने आया है| बहुत बधाई तुम्हें सृष्टि| ऐसे ही लिखती रहो, यशस्वी बनो!

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  3. आचार्य रामचंद्र वर्मा जी को वर्णित समर्पित उत्तम लेख । सृष्टि जी को बहुत बहुत बधाई।

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  4. सृष्टि जितनी प्रशंसा कर सकें उतनी कम है आपके द्वारा लिखित इस लेख की...वर्मा जी के जीवन चरित्र का क्या खूब वर्णन किया है... हार्दिक आभार व शुभकामनाएं।

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  5. कुछ बातें हमें पता नहीं होती और हम उसे अपना ‘एकमात्र’ अज्ञान समझ लेते हैं लेकिन वह केवल मात्र अज्ञान नहीं होता बल्कि हमारी निष्क्रियता होती है... सचेत होने से ही आचार्य रामचंद्र वर्मा की तरह कार्य हो सकता है। ज्ञान के आलोक में यह लेख बहुत अच्छा बन पड़ा है, बधाई सृष्टि जी

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  6. इस रोचक आलेख के लिए आपको हार्दिक बधाई, सृष्टि। अच्छी हिन्दी और मानक शब्दकोश मेरे लिए उन किताबों में से हैं, जिनको बिना किसी काम के, ऐसे ही, अक्सर पढ़ा जा सकता है और वे हमेशा कुछ न कुछ नया बता जाती हैं। ऐसे महान् मार्गदर्शक के विषय में ज्ञानवर्धक आलेख के लिए अभार एवं आपको 'निज आकाश पाने' के लिए बहुत-सी शुभकामनाएँ! आप सदा प्रगतिशील रहें और सफलता पाती चलें!

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  7. हिंदी भाषा के महत्वपूर्ण कोशकार व साहित्यकार आचार्य रामचंद्र वर्मा जी की जीवनी पढ़कर अत्यंत प्रभावित हुआ हूँ। बहुभाषी वर्मा जी को शब्द-वर्तनी को सुलझाने वाले महान साहित्यकार माना जाता था जो भाषा संबंधी अशुद्धियों का विचारणीय तथा चिंतनीय विषयों से निराकरण करते थे। आज आदरणीय सृष्टि भार्गव जी लिखित आलेख पढ़कर हिंदी भाषा और उसके व्याकरण को निर्धारित पोशाक पहनाने की सीख मिली। आपने बहुत ही सहजता और सरलता से इस आलेख को लिखा है। आपको बहुत-बहुत बधाई और ढ़ेर सारी शुभकामनाएं।

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  8. सृष्टि जी, रामचंद्र वर्मा जी पर उत्तम और रोचक आलेख के लिए आपको बधाई। उनकी किताब ‘अच्छी हिंदी’ वास्तव में बहुत अच्छी है। हिंदी के प्रति आपका समर्पण बहुत प्रशंसनीय है। आपको हिंदी की सेवा से जुड़े सभी कार्यों के लिए बहुत-बहुत शुभकामनाएँ।

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  9. सृष्टि, रामचंद्र वर्मा हिंदी शब्द कोश के पर्याय स्वरूप हैं। उनके द्वारा सम्पादित संक्षिप्त हिंदी शब्दसागर और मानक हिंदी कोश के पाँच खण्ड हिंदी वर्तनी और शब्द परिभाषा के किसी भी प्रश्न को सुलझा देते हैं। सतत परिश्रम और प्रयास से उन्होंने दिखा दिया कि किसी भी मुश्किल काम का हल संभव है। 'अच्छी हिंदी' निश्चित रूप से हमें भाषा के अज्ञान के गड्ढ़ों में गिरने से बचाती है। आपका आलेख जानकारीपूर्ण होने के साथ प्रेरणापरक भी है। यह हमें सामर्थ्यानुसार हिंदी का अधिकाधिक सही और मानक प्रयोग करने के लिए प्रेरित करता है और इस दिशा में हमें हमारी कर्तव्यता का बोध कराता है। हिंदी के महान साधक पर इस महत्त्वपूर्ण लेख के लिए आपको बधाई और आभार।

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  10. सृष्टि जी, आपको सुंदर , जानकारीपूर्ण , एवं रोचक लेख के लिए बधाई । भविष्य के लिए शुभकामनाएँ ।आपने स्वयं कहा है कि पूत के लक्षण पालने में दिखते हैं । सो , हमें लगता है कि आप के पाँव पालने में समा नहीं रहे और आप हिंदी की काफ़ी सेवा करने वाली हैं ।
    आचार्य रामचंद्र वर्मा जी का भाषा में योगदान तो अविस्मरणीय है। जितने भी आलेख आ रहे हैं , उनसे पता लगता है कि उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में और बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में हिंदी के नायकों ने अगाध श्रद्धा के साथ अटूट परिश्रम किया। यह बंजर ज़मीन पर गन्ने की खेती करने के समान था और इसने हिंदी/ खड़ी बोली के गद्य और पद्य की नींव रखी ।आज हम सब उन्हीं गन्नों का मीठा रसपान कर मस्त हो रहे हैं। अच्छी संतान पूर्वजों की छोड़ी ज़मीन पर शानदार महल खड़े करती है और बुरी संतान सब कुछ लूटा कर कंगाल हो जाती है। हम कैसी संतान सिद्ध होना चाहते हैं , यह तो हम सब पर निर्भर करता है । हाँ , महान पूर्वजों को नमन करने का कर्तव्य तो हम निभा रहे हैं । 🙏

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