आधुनिक आलोचना-साहित्य में एक नयी परम्परा की शुरुआत करने वाले आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र बहुअधीत-अन्वेषक, मार्मिक टीकाकार, निबन्धकार एवं सुयोग पाठ-सम्पादक के रूप में प्रतिष्ठित हैं। उनका जन्म काशी के ब्रह्मपाल मोहल्ला में संवत् १९६३ तदनुसार सन् १९०६ ( सोमवार) में हुआ था। उनका बाल्यकाल काशी में ही व्यतीत हुआ। प्रारम्भिक शिक्षा की शुरुआत यहीं हुई थी। फिर वहीं उच्च शिक्षा हासिल कर काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में प्रोफेसर/हिन्दी विभागाध्यक्ष नियुक्त हो गये। उन्होंने जहाँ हिन्दी आलोचना को नयी विश्लेषणात्मकता से जोड़ा, वहीं निबन्धों को विचारात्मक, भावात्मक, वर्णनात्मक और कथात्मक प्रकारों में विभक्त करते हुए एक नयी दिशा-दृष्टि दी।
आचार्य मिश्र की आलोचना-दृष्टि
भक्तिकालीन कविता से नई प्रवृत्तियों को अलगाने के लिए ही रामचन्द्र शुक्ल ने 'रीतिकाल' को परिभाषित किया था। आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र इस कालखण्ड को "श्रृंगार काल" नाम देने के पक्ष में थे। उनकी मान्यता थी कि इस कालखण्ड मेंअनेक कवियों की रुचि विशेष रूप से श्रृंगार काव्य लिखने की ही थी। रीतिकालीन साहित्य के सन्दर्भ में आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र की आलोचना-दृष्टि हिन्दी आलोचना के इतिहास या विकास को दर्शाने वाली पुस्तकों में आचार्य मिश्र के आलोचक रूप के लिए मुख्य रूप से शुक्लवर्ती आलोचक या शुक्ल- परम्परा के
आलोचक शब्द को प्रयोग किया जाता है। विश्वनाथ त्रिपाठी ने अपनी पुस्तक "हिन्दी आलोचना" में 'शुक्लानुवर्ती आलोचक' शीर्षक अध्याय मे आचार्य शुक्ल की आलोचना की दृष्टि से विशिष्ट बातों काउल्लेख किया है--'यहाँ उन आलोचकों की चर्चा की जा रही है जिनकी आलोचनात्मक कृतियों में आचार्य शुक्ल की ये विशेषताएँ परिलक्षित होती हैं। ऐसे आलोचकों में पं.कृष्ण शंकर शुक्ल और पं विश्वनाथ प्रसाद मिश्र प्रमुख हैं।'
१९३६ में हिन्दी से एम.ए. करने के क्रम में मिश्र जी ने बिहारी पर अपना शोध प्रबन्ध प्रस्तुत किया था। यह शोध-प्रबन्ध' बिहारी की वाग्विभूति' नाम से पुस्तक रूप में सामने आया। रीतिकालीन कवियों पर केंद्रित विश्वनाथ प्रसाद मिश्र की यह पहली पुस्तक है। मिश्र जी अकेले ऐसे लेखक हैं जिन्होंने रीतिकाल के अनेक कवियों पर विस्तारपूर्वक विचार किया है। अपनी पुस्तक"वाङ्मय विमर्श" में उन्होंने रीतिकाल के एक ऐतिहासिक पक्ष पर गम्भीरता से विचार किया है। उनकी 'पुस्तक हिन्दीसाहित्य का अतीत (भाग-2)' को श्रृंगारकाल और रीतिकाल के विषय-पक्ष को सम्यक समझाने के लिएअनिवार्य पाठ्य-पुस्तक का दर्जा प्राप्त है। यह पुस्तक १९६० में प्रकाशित हुई थी। इसे रीतिकाल पर प्रतिनिधि पुस्तक कहा जाता है। मिश्र जी रह रचना विवेचन-विश्लेषण की दृष्टि से विशेष महत्वपूर्ण है। विशेष इस अर्थ में कि जितनी बारीकी से आचार्य मिश्र ने रीतिकालीन कविता और उनके सर्जकों पर विचार किया है, उतनी गहनता और गम्भीरता से अबतक कोई भी कृति नहीं है। इसमें उन्होंने रीतिकाल के अन्य महत्वपूर्ण बिन्दुओं पर मूल्यांकन प्रस्तुत किया है।
काल के निर्धारण के सम्बन्ध में मिश्र जी का विचार है कि काल, विषय और पद्धति को ध्यान में रखते हुए 'काल' का निर्धारण अथवा नामकरण किया जाता है। इस क्रम में उन्होंने रीतिबद्ध काव्य और रीतिमुक्त काव्य-धारा--इन दो वर्गों में विभाजित किया है। रीति-मुक्त काव्य-धारा को पुनःदो भागों में विभक्त किया है--लक्षण-बद्धऔर लक्ष्यमात्र। रीति-मुक्तकाव्य को भी रहस्योन्मुख काव्य और शुद्ध प्रेमकाव्य में विभक्त करते हुए विवेचन प्रस्तुत किया है। इस प्रकार उनकी रीतिकालीन कविता की आलोचना हो या साहित्य की अन्य विधागत सर्जना-- को बहुत ही गम्भीर ढंग से विश्लेषित किया गया है। उनका रस -निरूपण याकि रस विषयक चिन्तन बहुत सूक्ष्म एवं प्रौढ़ है।
निबन्ध-कला का वैशिष्ट्य
आधुनिक हिन्दी निबन्धकारों में आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र का प्रमुख स्थान है। भारत की आज़ादी के दौरान उनका झुकाव क्रान्ति की ओर हुआ था किन्तु प्राध्यापन-कार्य से सुसम्बद्ध होने के कारण वे स्वातन्त्र्य-संग्राम से जुड़ना चाहते हुए भी उधर उन्मुख न हो सके। वे प्रख्यात साहित्यिक संस्था 'प्रसाद परिषद' के सम्मानित सभापति रहे। उनकी आलोचना और निबन्ध की प्रतिपादन शैली में उनके विरल-विश्रुत-विमल व्यक्तित्व की गहरी छाप दिखती है, परन्तु हिन्दी निबन्धों में यह विषय-वस्तु के साथ घुला-मिला रहता है जो यहाँ भी दिखाई देता है। तात्पर्य यह है कि हिन्दी निबन्धों के लिए जो वैशिष्ट्य साहित्य के अन्तर्गत माने जाते हैं तथा जिनमें वैचारिक प्राधान्य रहता है वह गुण-रूप में इनमें विद्यमान है।
मिश्र जी मूलतः निबन्धकार थे। उनके लेख प्रमुखतः दो रूपों में हैं-प्रबन्ध तथा निबन्ध। उनका विचार है कि, प्रबन्ध विस्तार से लिखा जानेवाला वह लेख है जिसमें प्रतिपादन विषय प्रधान होता है और व्यक्तित्व की योजना नाममात्र को होती है तथा निबन्ध अपेक्षा-कृत ऐसी छोटी रचना है, जिसमें लेखक का व्यक्तित्व अपनी झलक देता चलता है, भाषा में कसावट होती है तथा बन्ध निगूढ़ होता है। वे निबन्ध को बुद्धिजनित तथा व्यवसात्मक मानते थे क्योंकि उनमें ज्ञानात्मक अवयव तथा विचार का प्राधान्य होता है। उनके विचारसे निबन्ध वांड्मय का शास्त्र-पक्ष है।
वे पाँच प्रकार के निबन्ध मानते हैं--विचारात्मक, वर्णनात्मक, भावात्मक, कथात्मक व आत्म-व्यंजक। वे उन निबन्धों को शुद्ध विचारात्मक तथा साहित्यिक मानते हैं जिनमें बुद्धि तथा हृदय का समानयोग होता है। उनकी दृष्टि में निबन्धों की दो प्रकार की शैली होती हैं- निगमन शैली तथा आगमन शैली। निगमन शैली के निबन्धों में सिद्धान्त की बात प्रस्तुत करके उसके लिए अनेक तर्क तथा तर्कों की सिद्धि के लिए दृष्टान्त प्रस्तुत किए जाते हैं। आगमन-शैली के निबन्धों में अनेक दृष्टान्त प्रस्तुत करके, उनमें से कोई सिद्धांत निकाला जाता है। उनके अनुसार 'इन निबन्धों में प्रतिपाद्य सिद्धांत की ऐसी व्याप्ति प्रस्तुत की जाती है जिनसे फालतू बातें छंटकर विषय की सीमा निर्धारित हो जाती है। 'वर्णनात्मक निबन्धों के बारे में उनका अभिमत है कि जिनमें लेखक एक वस्तु या कुछ विस्तार के साथ वर्णन करता हुआ दिखाई देता है तथा अपने पाठकों को प्रत्येक के निकट उपस्थित करना चाहता है।'
चूंकि निबन्ध संश्लिष्ट और असंश्लिष्ट दो प्रकार के होते हैं तथा वर्ण्य-विषय के विचार से इनमें कृति तथा प्रकृति दोनों का वर्णन आता है। उनका मानना है कि कृतिमें मानव-वृत्ति का वर्णन अधिकतर शुद्ध रूप में दिखाई देता है किन्तु प्रकृति का वर्णन शुद्ध, भावपूर्ण एवं अलंकृत आदि रूपों में दृष्टिगत होता है। इसी प्रकार भावात्मक निबन्धों मे भी उन्होंने दो शैलियों– धारा शैली और तरंग-शैली माना है। वे आत्मव्यंजक निबन्धों को भी विचारात्मक ही मानते हैं।
विशिष्ट उपलब्धियाँ
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, हिन्दी विभाग उनके अवदान पर 'आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र के प्रदेय का अनुशीलन: पाठ-सम्पादन' का विशेष सन्दर्भ विषयक शोधकार्य करा रहा है। मिश्र जी काशी हिन्दू विश्वविद्यालय तथा काशी नागरी प्रचारिणी सभा जैसी महान संस्थाओं से आजीवन सम्बद्ध रहे। आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र के कर्तृत्व का सर्वोच्च शिखर पाठ-सम्पादन के क्षेत्र में है। उन्होंने रीतिकालीन ग्रंथों के पाठ का निर्धारण करने के साथ-साथ राम-चरित मानस के सुप्रसिद्ध "काशीराज संस्करण" का पाठ-सम्पादन किया। इस प्रकार उन्होंने हिन्दी की जो अजस्र सेवा की और हिन्दी- साहित्य में उनका जो अमूल्य अवदान है, उससे हिन्दी जगत सदैव लाभान्वित होता रहेगा।
सन्दर्भ:
1. https//epustakalay.com- n..
2. https//epustakalay.com-!pages
3. https//new.mgahv-in-hre
4. हिन्दी आलोचना/विश्वनाथ त्रिपाठी
5. हिन्दी साहित्य का अतीत ,भाग-२ / विश्वनाथ प्रसाद मिश्र,पृष्ठ ४६-४७
6. https//sr.indianrailway.gov.in
7 . बीसवीं सदी: हिन्दी के मानक निबन्ध (खण्ड1)/ डॉ.राहुल, प्रथम संस्करण २००४, पृष्ठ २१
8. वाड्मय विमर्श,सं २००७,तृतीय संस्करण,पृष्ठ ७१
9. हिन्दी साहित्य का इतिहास/ डॉ.नगेन्द्र,संस्करण १९७८, ने.प.हाउस,नई दिल्ली-२
लेखक परिचय:
डॉ. राहुल उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान, लखनऊ एवं हिंदी अकादमी दिल्ली द्वारा पुरस्कृत-सम्मानित।
अंतर्राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त; अब तक ७० से अधिक कृतियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं। उत्तर रामकथा पर आधारित 'युगांक' (प्रबंधकाव्य) का लोकार्पिण करते हुए तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ० शंकरदयाल शर्मा ने कहा था- “यह बीसवीं सदी की एक महत्वपूर्ण काव्य-कृति है। इससे भारतीय संस्कृति की पुनर्प्रतिष्ठा होती है और सामाजिक-राष्ट्रीय एकता को बल मिलेगा।”
कविता, कहानी, उपन्यास, निबंध, आलोचना आदि विधाओं में इन्होंने महत्वपूर्ण सृजन किया है।
बहुत बहुत बधाई। विवेचनात्मक आलेख है यह।
ReplyDeleteआदरणीय आपका आलेख स्वागतेय है।
ReplyDeleteराहुल जी, हिंदी साहित्य के विशेष स्तम्भ निबंधकार और प्रबंधकार विश्वनाथ प्रसाद मिश्र जी पर आपका आलेख भी विशेष है। यह सुंदर परिचय कराने के लिए आपका बहुत-बहुत आभार और बधाई।
ReplyDeleteडॉ. राहुल जी नमस्ते। हिंदी के प्रमुख आलोचक एवं निबन्धकार आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र जी पर आपने एक बढ़िया लेख हम तक पहुँचाया है। आपने मिश्र जी के सृजन एवं साहित्य की विशेषताओं को लेख में प्रभावी रूप में प्रस्तुत किया। आपको इस जानकारी भरे लेख के लिए हार्दिक बधाई।
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