हिंदी कथा साहित्य के होलटाइमर आलोचक के रूप में विख्यात, रामप्रकाश शंखधार उर्फ मधुरेश दशकों से साहित्य साधना करने के उपरांत, हिंदी साहित्य जगत में एक विलक्षण कथा समीक्षक, उपन्यास समीक्षक व प्रज्ञावान समालोचक के रूप में एक विशिष्ट स्थान रखते हैं। इनका चिंतन अपने सम्मोहित दर्शन के साथ इनके व्यक्तित्व को ही आभा युक्त नहीं करता, वरन इनका व्यक्तित्व भी गरिमामय बन पड़ता है। इनका जन्म १० जनवरी १९३९ को बरेली में एक निम्न मध्यवर्गीय परिवार में हुआ। बरेली कॉलेज से हिंदी और अंग्रेज़ी में एम.ए. और पी. एच. डी. की। तीस वर्ष नेहरू मेमोरियल शिवनारायण दास पोस्ट ग्रेजुएट कॉलेज, बदायूँ के हिंदी विभाग में अध्यापन के बाद, ३० जून १९९९ को सेवा निवृत हुए। लगभग पाँच दशकों से कथा समीक्षा में इनकी सक्रिय हिस्सेदारी रही। शुरू में कुछ लेख अंग्रेज़ी में भी प्रकाशित हुए। अनेक रचनाओं का विभिन्न भारतीय भाषाओं में अनुवाद भी किया। बाद में स्वतंत्र लेखन की दिशा में मुड़ गए। यद्यपि मधुरेश ने कहानी एवं उपन्यास दोनों की आलोचना में पर्याप्त श्रम तथा प्रभूत कार्य किए हैं, फिर भी कहानी-समीक्षक के रूप में उनकी पहचान अधिक रही है। इनकी करीब दो दर्जन मौलिक तथा एक दर्जन से अधिक संपादित कृतियाँ हैं। गुणात्मक एवं मात्रात्मक दोनों दृष्टियों से उनकी दो पुस्तकें 'हिंदी कहानी: अस्मिता की तलाश', तथा 'नई कहानी: पुनर्विचार की स्थिति' रीढ़ की हड्डी की तरह है। विवादों से प्रायः दूर रहते हुए, उन्होंने लगभग एक साधक की तरह कहानियों-उपन्यासों की निष्ठापूर्ण विवेचना की है। मधुरेश जी ने कथाकारों-आलोचकों पर विचार के द्वारा वैयक्तिक पूर्वाग्रहों तथा आपसी उठा-पटक से साहित्य की लोकापेक्षिकता की क्षति के विरुद्ध साहित्य की सहज जनचेतना के पक्ष में अपने ढंग से एक लंबा संघर्ष किया है। साहित्यिक सफ़र अगर इनके लेखन के शुरुआत की चर्चा की जाए, तो उन्होंने अपने लेखन का आरंभ कहानी से ही किया था। १९५६ में जब वे बरेली कॉलेज में इंटर में पढ़ते थे, कॉलेज की नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा उनकी कहानी ‘बुधिया’ को प्रथम पुरस्कार मिला था, जबकि उस प्रतियोगिता में एम.ए. के भी कई छात्र सम्मिलित थे। तब कुछ स्थानीय पत्रों में एक-दो कहानियाँ छपी भी थीं। इसी दौर में कुछ अंग्रेज़ी कहानियों का अनुवाद भी किया, जो तब की कहानी और ज्ञानोदय जैसी प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में छपे थे। लेकिन इसी बीच कहीं अश्क को लिखा गया प्रेमचंद का एक पत्र पढ़ा, जिसमें उन्होंने नए लेखकों को खूब सारा साहित्य, इतिहास, दर्शन आदि पढ़ने का सुझाव दिया। इस पत्र के प्रभाव में ही मधुरेश ने बी.ए. में हिंदी और अंग्रेज़ी साहित्य के साथ दर्शन भी पढ़ा। फिर तीन-चार वर्ष कुछ नहीं लिखा, यह सोचकर, कि अब पूरी तैयारी के बाद ही लिखुँगा। जब एम.ए. अंग्रेज़ी साहित्य में किया, तो पढ़ने का और अधिक अवसर मिला। इसके बाद कहानी लिखने के बदले उन्होंने ‘लहर’ की संपादिका मनमोहिनी (जिनसे उनका पत्राचार था और जिन्हें वे मोना जी कहते थे) के सुझाव पर ‘लहर’ के लिए यशपाल पर अपनी पहली टिप्पणी लिखी, जो दिसंबर ६२ के अंक में छपी। उसके बहुत पहले यशपाल से पत्राचार शुरू हो चुका था। वस्तुतः उस टिप्पणी के बाद आलोचना के क्षेत्र में वह पूरे मनोयोग से जुड़ गए। वैसे उसके बाद भी काफी समय तक लगता रहा, कि कहानी ही उनका मूल क्षेत्र है, लेकिन आलोचना ने उन्हें कभी छोड़ा ही नहीं। आलोचना के क्षेत्र में पैनी दृष्टि रखने वाले मधुरेश जी के शब्दों में - " कुशल आलोचक रचना की अच्छाईयों और बुराइयों दोनों का सूक्ष्म विवेचन कर उनका उचित मूल्यांकन करता है। वह एकदलीय बहाव में कभी नहीं बह सकता। आलोचना में यदि दोस्ती निभाना गलत है, तो दुश्मनी निभाना उससे भी ज्यादा गलत है।" सन १९६२ से मधुरेश के आलोचनात्मक लेखन की शुरुआत हुई। 'यशपाल : संतुलनहीन समीक्षा का एक प्रतीक' पहली आलोचनात्मक टिप्पणी सन् ६२ की 'लहर' में छपी थी। उस टिप्पणी ने उनके लिए सबसे बड़ा काम यह किया, कि इन्हें काफ़ी कुछ यशपाल का एक संभावित प्रामाणिक और विश्वसनीय भाष्यकार बना दिया। आलोचक के रूप में पहली बार मान्यता इसी ओजस्वी टिप्पणी ने उन्हें प्रदान की। तब से उन्होंने पीछे मुड़ कर कभी नहीं देखा। कहानियों व उपन्यासों की दायित्वपूर्ण समीक्षाएँ वे सतत लिखते रहे। समकालीन कथा-साहित्य की निरंतरता के समांतर उनकी आलोचनात्मक धारा प्रवाहित होती रही। आज भी वह गतिमती है। ‘शिनाख़्त’ जैसा वृहदकाय ग्रंथ इसी का शुभ परिणाम है, जिसे पढ़कर और समझ कर हम हिंदी उपन्यास के साथ-साथ इतर भारतीय भाषाओं के उपन्यासों से भी सुपरिचित हो सकते हैं। भारत सदृश्य विराट राष्ट्र के संपूर्ण उत्थान-पतन को समझने के लिए भारतीय भाषाओं के उपन्यासों का गंभीर अध्ययन अनिवार्य है। ‘शिनाख़्त’ ऐसा ही अध्ययन है, जो उत्तम उपन्यासों की शिनाख़्त करता है और मधुरेश की दायित्वपूर्ण आलोचना की भी। 'शिनाख़्त' पर अमीर चंद वैश्य का कहना है - " 'शिनाख़्त’ में मधुरेश की औपन्यासिक आलोचना भारतेंदु युग से वर्तमान सदी तक विस्तृत है। यह ग्रंथ पढ़कर हम भारत के अतीत और वर्तमान को रचनात्मक रूप में समझ सकते है। यह ग्रंथ मधुरेश की आलोचना की भी शिनाख़्त करता है, अर्थात मधुरेश की आलोचना विश्वसनीय है। अतिरंजना से दूर है। विचार सापेक्ष है। उसमें मार्क्सवादी शब्दावली का प्रयोग न के बराबर है। फिर भी वे अपनी आलोचना दृष्टि से उपन्यास में आगत प्रगतिशील तत्व तलाश लेते है। मधुरेश बोलते कम हैं। लिखते ज्यादा हैं। सार्थक लिखते हैं। इसलिए वह बड़े आलोचक हैं। " 'शिनाख़्त' मुख्यतः ऐतिहासिक उपन्यासों पर केंद्रित समीक्षात्मक पुस्तक है। हिंदी के आरंभिक दौर के उपन्यासों से लेकर 'काशी का अस्सी' तक को समेटने वाली, कुल अड़तालीस आलेखों से युक्त इस वृहद समीक्षात्मक पुस्तक में हिंदी के अतिरिक्त अन्य भारतीय भाषाओं के भी दर्जनभर से अधिक उपन्यासों की समीक्षा संकलित है। 'शिनाख़्त' के प्रकाशन के छह वर्ष बाद उनकी पुस्तक "ऐतिहासिक उपन्यास : इतिहास और इतिहास-दृष्टि" का प्रकाशन हुआ। यह पुस्तक अपने नाम के अनुरूप पूरी तरह से ऐतिहासिक उपन्यासों पर केंद्रित आलोचनात्मक कृति है। तीन अनुभागों में बँटी इस पुस्तक के प्रथम अनुभाग 'परिप्रेक्ष्य' में कुल सात आलेखों में से 'हिंदी ऐतिहासिक उपन्यास की उपलब्धियाँ' शीर्षक से एक आलेख है। दूसरे अनुभाग में ‘मूल्यांकन’ नामक आलेख है, जो कि छह उपन्यासकारों पर केंद्रित है और 'किशोरीलाल गोस्वामी' शीर्षक एक आलेख और उपन्यासों की समीक्षा पर केंद्रित 'आख्यान पाठ' है। तीसरे अनुभाग में कुल छब्बीस आलेखों में से 'एक म्यान में दो तलवारें', 'आग का दरिया', 'पट्ट महादेवी शांतला', 'पर्व', 'दुर्दम्य', 'दासी की दास्तान', 'ययाति', 'कई चाँद थे सरे आसमाँ', 'सुल्ताना रजिया बेगम', 'जुझार तेजा', 'ग़दर', 'दिव्या', 'मुर्दों का टीला', 'कालिदास', 'विश्वबाहु परशुराम' तथा 'पानीपत' उपन्यास की समीक्षा के रूप में कुल सोलह आलेख 'शिनाख़्त' में यथावत संकलित हैं। मधुरेश जी के द्वारा की गई ऐतिहासिक उपन्यासों की समीक्षा के संदर्भ में अमीर चंद वैश्य का मानना है, कि - "उन्होंने किसी भी लेखक की पठनीय कृति का आख्यान पाठ करते हुए, उसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का उल्लेख किया है। उपन्यास में रूपायित पात्रों के चरित्रों के अंतर्विरोध उजागर किए हैं। इस प्रक्रिया में सामाजिक-धार्मिक रूढ़ियों और अंधविश्वासों का प्रतिरोध किया है। प्रगतिशील विचारों और आचारों के अनुयायी चरित्रों की प्रशंसा कर उन्हें वर्तमान के लिए प्रेरणास्रोत माना है। गैर प्रगतिशील लेखकों की कृति का भी यथोचित समादर किया है और प्रगतिशील लेखक की चमत्कारप्रियता की निंदा भी की है।" मधुरेश जी के साहित्य में कथालोचना व्यापक रूप में दृष्टिगोचर होती है और इसके लिए उनका गहन अध्ययन एवं श्रम स्पष्ट झलकता है। कथालोचना और पुस्तक-समीक्षाओं के लेखन में वे निरंतर सक्रिय हैं। समीक्षा-लेखन के अतिरिक्त मधुरेश ने कुछ अच्छे संस्मरण भी लिखे हैं तथा कुछ अन्य विधाओं में भी हाथ आजमाया है। सन २००० में प्रकाशित उनकी पुस्तक 'कुछ और भी ' में डायरी, समीक्षा, वैचारिक टिप्पणियाँ आदि का संगम है। इससे पहले 'यह जो आईना है' शीर्षक से उनके संस्मरणों का संग्रह हुआ, जिसके संबंध में अनंत विजय का मानना है - "हाल के दिनों में संस्मरण की जो कुछ अच्छी किताबें आई हैं, उनमें हम मधुरेश की इस पुस्तक को रख सकते हैं। इस पूरी पुस्तक में मधुरेश ने लेखकीय ईमानदारी का निर्वाह किया है।" हिंदी-अँग्रेज़ी काव्य जगत में अपनी पहचान बना चुके मधरेश जी जहाँ उर्दू शायरी से परिचित हैं, वहीं संस्कृत काव्य परंपरा से भी है। उनके आलोचना कार्य का संसार इतना विस्तृत है, कि सभी का विवरण करना बहुत मुश्किल है। उनके साहित्यिक सफ़र के साठ साल पूरे होने को है। "हिंदी से प्यार है" ग्रुप के सभी सदस्य मधुरेश जी को बधाई देते हुए उनके दीर्घायु होने की कामना करते हैं।
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'शिनाख़्त' सहित अन्य प्रकाशित पुस्तकों के फ्लैप पर दिये गये लेखक-परिचय में द्रष्टव्य।
साधना अग्रवाल को दिये साक्षात्कार
रविभूषण, आलोचना सदैव एक संभावना है, सं॰ प्रदीप सक्सेना, शिल्पायन, शाहदरा, दिल्ली, संस्करण
आलोचना सदैव एक संभावना है, पूर्ववत।
शिनाख़्त, मधुरेश, शिल्पायन, शाहदरा (दिल्ली), संस्करण-२०१३ , पृष्ठ-८ (भूमिका)।
द्रष्टव्य- शिनाख़्त, मधुरेश, शिल्पायन, शाहदरा (दिल्ली), प्रथम संस्करण-२०१३ , पृष्ठ-९-१० एवं ऐतिहासिक उपन्यास : इतिहास और इतिहास-दृष्टि, मधुरेश, आधार इतिहास दृष्टि प्रकाशन, पंचकूला (हरियाणा)।
अमीरचंद वैश्य, लहक (पत्रिका), (कांतिकुमार जैन एवं मधुरेश पर केंद्रित), संपादक- निर्भय देवयांश।
लेखक परिचय
विज्ञान की छात्रा संतोष भाऊवाला की कविता कहानियाँ कई पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती है, जिनमें से कई पुरस्कृत भी है। वे कविता, कहानी, ग़ज़ल, दोहा लिखती है। रामकाव्य पियूष व कृष्णकाव्य पियूष व अन्य कई साँझा संकलन प्रकाशित हुए हैं।
ईमेल : santosh.bhauwala@gmail.com
आलोचना के लोचन बनने में कई बार पूरी ज़िंदगी खप जाती है! कई नई जानकारियों से लैस इस आलेख के लिए शुक्रिया संतोष जी!
ReplyDeleteअतिशय धन्यवाद shardula जी
Deleteप्रख्यात कहानी समीक्षक आद.मधुरेश जी की पहचान उनकी आलोचनात्मक छवि के कारण साहित्य क्षेत्र में अधिक रही हैं। आलोचना के क्षेत्र को अतिसंदर्भ भाव से विस्तारित करने वाले मधुरेश जी हर रचना का बड़ी बारीकी से विवेचन कर उचित मूल्यांकन करते हैं। आद. संतोष जी ने उनके आलोचनात्मक साहित्य के जीवनी का परिचय देकर हिंदी से प्यार है समूह को समृद्ध किया हैं। सीमित और मर्यादित आलेख के लिए उनका बहुत बहुत आभार और आगामी लेखों के लिए शुभकामनाएं।
ReplyDeleteमधुरेश जी के व्यक्तित्व और कृतित्व के द्वारा आलोचना की बारीकियों की शिनाख्त करता हुआ यह आलेख बहुत महत्वपूर्ण बन पड़ा है। आभार, संतोष जी
ReplyDeleteसंतोष जी के इस लेख के माध्यम से मधुरेश जी को जानने का अवसर मिला। मधुरेश जी के सृजन संसार की ढेर सारी जानकारी से भरे इस बढ़िया लेख के लिए संतोष जी को बहुत बहुत बधाई।
ReplyDeleteसंतोष जी, आपने बहुत सुंदर लेख लिखा है। मधुरेश जी के बारे में मुझे ख़ास जानकारी नहीं थी, आपका यह आलेख पढ़कर उन्हें पढ़ने और जानने की इच्छा जागी है। आपको इस सुंदर लेखन के लिए बहुत बधाई और आभार।
ReplyDeleteशानदार आलेख के लिए बहुत बहुत बधाई ।
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