Wednesday, July 20, 2022

बालकृष्ण भट्ट : आधुनिक हिंदी साहित्य के निर्माता

 बालकृष्ण भट्ट - भारतकोश, ज्ञान का हिन्दी महासागर

बालकृष्ण भट्ट भारतेंदु युग के महत्वपूर्ण साहित्यकार रहे हैं और आधुनिक हिंदी साहित्य के विकास में उनका ऐतिहासिक योगदान है। निबंधकार और पत्रकार के रूप में बालकृष्ण भट्ट के राष्ट्रीयता से जो संबंध थे, सृजनात्मक साहित्य के लिए उन्हें कभी विस्मृत नहीं किया जा सकता। भट्ट जी का हिंदी, संस्कृत, फारसी, बंगला, और अंग्रेजी पर समान अधिकार था। प्रसिद्ध पत्रकार रामानंद चटोपाध्याय, जो के० पी० कॉलेज के तत्कालीन प्राचार्य थे, उनकी प्रेरणा से भट्ट जी ने पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रवेश किया और १८७७ में हिंदी वर्धिनी सभा की स्थापना कर 'हिंदी प्रदीप' पत्रिका का प्रकाशन (३ जून १८४४-२० जुलाई १९१४) प्रारंभ किया, जिसका स्वर निर्भीकता, राष्ट्रीयता, स्वदेशी तथा तेजस्विता से भरपूर था। हिंदी पत्रकारिता का विकास बहुत से त्यागी पुरुषों की तपस्या से हुआ, पर पत्रकारिता के लिए भट्ट जी के समान संघर्षमय जीवन शायद ही किसी पत्रकार का रहा होगा। भट्ट जी तेजस्वी हिंदी पत्रकार थे, जो भूखे रहकर भी आत्मसम्मान के साथ समझौता न करते हुए अनवरत बत्तीस वर्ष तक 'हिंदी प्रदीप' का संपादन और स्वदेशी, स्वधर्म तथा राष्ट्रीयता का उद्घोष करते रहे। सामाजिक कुरीतियों दहेज, बालविवाह, अस्पृश्यता के विरुद्ध संघर्ष का आह्वान करते रहे। हिंदी साहित्य सेवा का व्रत लेकर 'हिंदी प्रदीप' शुरु करने का उनका मकसद हर व्यक्ति के अंदर राष्ट्रप्रेम व भारतीयता की भावना को जागृत करना रहा। भट्ट जी ने 'हिंदी प्रदीप' के लक्ष्य और उद्देश्य को निबंध 'समाचार पत्र की आवश्यकता' में स्पष्ट करते हुए लिखा, "हिंदी वर्धिनी सभा के सदस्य जो मेरे (हिंदी प्रदीप) जन्मदाता हैं, उनका पत्र को प्रकाशित करने से कदापि यह प्रयोजन नहीं है कि मुझे (हिंदी प्रदीप) चलाकर रुपए एकत्रित करें, बल्कि देश की बुराइयों का शोधन, भलाई का संचार और उन्नति उन महापुरुषों का मुख्य तात्पर्य है।" हिंदी साहित्य के समकालीन साहित्यकार - भारतेंदु हरिश्चंद्र, प्रताप नारायण मिश्र, राधाचरण गोस्वामी, महामना मदन मोहन मालवीय, श्रीधर पाठक, बाबू बालमुकुंद गुप्त, किशोरीलाल गोस्वामी, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, बाबू गंगा प्रसाद गुप्त जैसे महारथी उनके पास आकर हिंदी की उन्नति और विकास की योजनाएँ बनाते थे। 'हिंदी प्रदीप' में जहाँ राष्ट्रीय चेतना से युक्त रचनाएँ शामिल होती थीं, वहीं समसामयिक विषयों पर बहुत ही गंभीर और खरी-खरी बातें प्रकाशित होती थी। १९०९ अप्रैल के चौथे अंक में माधव शुक्ल ने 'बम क्या है' नामक कविता लिखी, जो अंग्रेज सरकार को नागवार लगी और उन्होंने पत्रिका पर तीन हजार रुपए का जु़र्माना लगा दिया। उस समय भट्ट जी के पास भोजन तक के पैसे नहीं थे, जमानत कहाँ से भरते। विवश होकर उन्हें पत्रिका बंद करनी पड़ी। 

विपन्नता में जीवन यापन करते हुए भी बालकृष्ण भट्ट त्याग की प्रतिमूर्ति थे। समालोचक रविनंदन सिंह के अनुसार बालकृष्ण भट्ट त्यागी और संयमी व्यक्ति थे। उन्होंने पैतृक संपत्ति में हाथ लगाने से इंकार कर दिया था। हिंदुओं में पितरों का 'गया श्राद्ध' करते समय तीन वर माँगने का विधान है। भट्ट जी ने पिता के श्राद्ध के समय जो तीन वर माँगे, वे यह थे -
-पैतृक संपत्ति से हमें एक भी पैसा न मिले।
-हमारे पुत्र, कन्यादि का चरित्र निर्मल रहे।
-हमारा एक पुत्र संस्कृत का विद्वान हो।

निर्विवाद रूप से यह स्वीकार किया जाता है कि हिंदी साहित्य में 'व्यावहारिक' आलोचनाओं के प्रारंभिक प्रवक्ता पं० बालकृष्ण भट्ट रहे। 'हिंदी प्रदीप' में प्रकाशित एक व्यावहारिक समालोचना का उदाहरण 'एडिटरों की टरटर' से एक अंश दृष्टव्य है, "हिंदी पत्रों के जितने संपादक हैं सभी को मैं जानता हूँ। जो कुछ और जितनी उनकी पूँजी है उसे भी हम अच्छी तरह जानते हैं। बहुधा तो हिंदी की दो-एक किताबें पढ़कर तुलसीदास की रामायण या मिडिल क्लास में जो गुटका प्रचलित है, वह उनकी हिंदी की लियाक़त का छोर है। बस इतनी ही पूँजी से वे संपादक बनना चाहते हैं- शुद्ध संस्कृत शब्द लिखने का भी उन्हें शऊर नहीं है, तब संस्कृत का व्याकरण या संस्कृत का साहित्य समझना तो बहुत दूर है। इस पूँजी पर हिमाक़त उन्हें यह है कि हम ऐसों पर बहुधा आक्षेप कर अपनी कलई खुलवाना चाहते हैं। उन्हें चाहिए हमारा लेख पढ़ें और लिखना सीखें, न कि हम पर बहुधा आक्षेप कर अपनी कलई खुलवाएँ। हम कहते हैं एक पेज भी तो ऐसा वे लिख लें, जैसा हमारा लेख होता है। हम चाहे छह महीने में एक बार प्रकाश में आएँ, पर अपने लेख से पढ़ने वालों का मनोरंजन अवश्य कर देंगे। हाल में वेंकटेश्वर समाचार के किसी पत्र-प्रेरक ने हम पर कुछ ताना लिखा है। अभी तो वेंकटेश्वर जी जन्में हैं। कुछ दिन चले तो जानेंगे कि लेख और पत्र चलाना कैसा होता है।"

पं० बालकृष्ण भट्ट की आलोचना का दायरा केवल साहित्य न होकर व्यापक समाज तक फैला हुआ है, जिसमें सैद्धांतिक शुष्कता के बजाए संवेदनशीलता, संवादधर्मिता और ताजगी है। उसे 'सभ्यतालोचन' कहा जाना चाहिए।साहित्य और सभ्यता के बीच अन्न्योन्याश्रित संबंध की ओर इशारा करते हुए भट्ट जी लिखते हैं, "साहित्य का सभ्यता से घनिष्ठ संबंध है, वरन साहित्य ही सभ्यता का प्रधान अंग है। यह कभी हो ही नहीं सकता कि कोई देश सभ्यता में बढ़ जाए और वहाँ की भाषा का साहित्य पीछे हटा रहे। जो देश सभ्यता के छोर तक पहुँच पीछे गिरी दशा में आ गया है तो वहाँ का साहित्य ही उस देश का नपना होता है, कि यहाँ सभ्यता किस सीमा तक पहुँच चुकी थी।" 

बालकृष्ण भट्ट के अनेक निबंध सैद्धांतिक समीक्षा पर आधारित रहे हैं, जैसे- ब्रह्मानंद सहोदर, साहित्य जनसमूह के हृदय का विकास है, काव्यास्वाद, माधुर्य, कवि और चितेरे की डाडमिडी, एकांतवासी आदि। भट्ट जी कविता को मनुष्य के हृदयगत भाव का सत्त (एसंस) मानते हैं, इसलिए उनके अनुसार कविता को पूर्णतः प्रभावशाली होने के लिए सच्चा होना आवश्यक है। इस सच्चा होने के संदर्भ में भट्ट जी ने 'सच्ची कविता' निबंध में लिखा है- "बहुत जल्दी ऐसा समय आता है कि झूठे और नकली सोने को असली कर दिखा देने का हुनर लोगों को मालूम हो जाता है- ठीक यही बात कविता में है। निस्संदेह पहले जिन लोगों ने कुछ कहा वह सच्ची और खरी बात थी क्योंकि कविता का आर्ट, हुनर तब तक पैदा नहीं हुआ था। कविता झूठी और नकली होने की संभावना ही नहीं थी। इसको हम प्राथमिक अथवा वास्तविक कविता कहेंगे।" उनका स्पष्ट मत था कि कविता वही है जो सीधे हृदय को प्रभावित करे, सहज स्वाभाविक हो, उसमें कलात्मकता न हो। भट्ट जी प्राचीन कवियों की उत्कृष्टता का कारण प्रस्तुत करते हुए लिखते हैं कि "सभ्यता के आगमन से पूर्व के कवियों में किसी प्रकार की कुटिलता नहीं थी। बुद्धि उनकी विमल थी, चित्त में किसी तरह का कुटिल भाव नहीं आने पाया था, क्योंकि समाज अब के समान प्रौढ़ दशा को नहीं पहुँचा था। इसलिए बहुत बातों में सभ्यता की बुरी हवा का झरोखा भी उन शिष्ट पुरुषों तक न पहुँच सका था। बुद्धि उनकी जैसी तीव्र और विमल थी, वैसा ही मन में उनके किसी तरह की कुटिलता और मैल न रहने से जिस बात के वर्णन में उन्होंने अपने ख्याल को रुज किया, वह सांगोपांग पूरा उतरा।" 

बालकृष्ण भट्ट ने 'हिंदी प्रदीप' के लेखों से पाठकों के अंधविश्वासों को दूर करने और बुद्धिसंगत ढंग से सोचने का तरीका बताया। वेदों को अपौरुषेय कहा जाता रहा है, किंतु बालकृष्ण भट्ट वेदों और उनके रचयिताओं के विषय में लिखते हैं, "वेद जिन महापुरुषों के हृदय का विकास था, वे लोग मनु और याज्ञवल्क्य के समान समाज के आभ्यंतरिक भेद, वर्ण, विवेक आदि के झगड़ों में पड़ समाज की उन्नति या अवनति की तरह-तरह की चिंता में नहीं पड़े थे .....प्रातः काल उदयोन्मुख सूर्य की प्रतिमा देख उनके सीधे-सादे चित्त ने बिना कुछ विशेष छानबीन किए इसे अज्ञात और अज्ञेय शक्ति समझ लिया। इसके द्वारा वे अनेक प्रकार का लाभ देख कानन-स्थिति-विहंग कुंजन समान कल-कल रव से प्रकृति की प्रभात वंदना का राग गाने लगे, कृतज्ञतासूचक उपहार की भाँति स्त्रोत का पाठ करने लगे। वायु जब प्रबल वेग से बहने लगी तो उसे भी एक ईश्वरीय शक्ति समझ उसको शांत करने हेतु वायु की स्तुति करने लगे। वे ही सब ऋग और साम  की पावन ऋचाएंँ हो गईं।"  

समाज में स्त्रियों की महत्ता पर भट्ट जी का अटूट विश्वास था और वे सदा ही स्त्रियों को पुरुष की अपेक्षा अधिक उत्तम और श्रेष्ठ मानते रहे। स्त्रियों से जुड़े विषयों के चिंतन में अपने समय के रचनाकारों और समाज सुधारकों से आगे खड़े दिखाई देते बालकृष्ण भट्ट 'स्त्रियाँ' नामक निबंध में लिखते हैं, "कौन सी चीज़ है जिसमें औरतें मर्द से अधिक बड़ी-चढ़ी नहीं हैं। जहाँ कहीं वे पढ़ाई-लिखाई जाती हैं वहाँ स्त्रियाँ पुरुषों के ऊपर हो गईं हैं। हमारे यहाँ के ग्रंथकार और धर्मशास्त्र गढ़ने वालों की कुंठित बुद्धि में न जाने क्यों यही समाया हुआ था कि स्त्रियाँ केवल दोष की खान हैं, गुण इसमें कुछ है ही नहीं।" बालकृष्ण भट्ट १८९४ में ही अपने निबंध 'धर्म का महत्व' में स्त्रियों को आधुनिक शिक्षा प्रदान करने की वकालत करते हुए लिखते हैं, "कितनों का मत है कि स्त्री शिक्षा इसके संबंध में उपकारी है पर हम पूछते हैं क्या इस तरह की स्त्री शिक्षा हमारे लिए कारगर साबित होगी जैसी आज तक हुई और होती जाती है? कभी नहीं। जैसी शिक्षा अभी तक हुई उसे देख कर हमें शरम आती है और हॅंसी आती है। ...... उस तरह की तालीम होनी चाहिए जिसके इनके नेत्र खुलें, भूगोल, इतिहास भाँति-भाँति के विज्ञान इन्हें सिखाए जाएँ और ठीक-ठीक मन में इनके बैठ जाएँ कि जो हम कर रही हैं और अब तक करती आईं वह धर्म  का आभास मात्र है, निरा अधर्म है।"

भट्ट जी प्राचीन सभ्यता और संस्कृति पर गंभीर चिंतन-मनन करते हैं और उत्तरोत्तर प्रगति के संदर्भ में पश्चिम के नए विचारों और अवधारणाओं का समर्थन भी करते हैं। वे जानते हैं कि भारत कृषि प्रधान देश है पर यहाँ पिछड़ापन बहुत है। पाश्चात्य देशों में कृषि की प्रगति के परिप्रेक्ष्य में भारत की प्रगति की बात भी उठाते हैं। 'वर्तमान महादुर्भिक्षा' निबंध में वे लिखते हैं, "खेती हमारे देश की बहुत गिरी दशा में है, खेतिहर जितना परिश्रम करते हैं उतना फल उसका उन्हें नहीं मिलता इसका यही कारण है कि खेती के औज़ार इत्यादि और खाद तथा आबपाशी का क्रम अमेरिका के खेतिहरों की अपेक्षा यहाँ बहुत घटा हुआ है। अमेरिका के किसानों को इतनी मेहनत नहीं करनी पड़ती है, जैसा यहाँ के खेतिहर करते हैं और फायदा इनसे वे लोग बहुत अधिक थोड़ी ही मेहनत में उठाते हैं।"

भट्ट जी का भाषा पर अबाध अधिकार था। उन्होंने संस्कृत, अरबी, फारसी, अंग्रेजी, देशज  शब्दों का खुलकर प्रयोग किया है और भाषा के प्रवाह में मुहावरों और लोकोक्तियों के प्रसंगानुकूल प्रयोग किए हैं। उनकी भाषा को विश्लेषित करते हुए जगन्नाथ प्रसाद शर्मा लिखते हैं, "साधारण और व्यावहारिक विषयों के साथ-साथ भट्ट जी ने गंभीर विषयों पर भी लेखनी चलाई है, जैसे शब्द की आकर्षण शक्ति, साहित्य जनसमूह का विकास है, आत्मनिर्भरता, चरित्र शोधन, आत्मगौरव, कल्पना। इन निबंधों में विषय प्रतिपादन की पद्धति भी अपेक्षाकृत अधिक संयत और स्वच्छ है। विषयानुरूप भाषा शैली को ढालने की चेष्टा भट्ट जी में सर्वदा मिलती है। भट्ट जी की शैली में कहानी के ढंग का सीधापन, बल और यथाक्रम उतार-चढ़ाव दिखाई देता है। वाक्यों की सरल योजना, शब्दों के प्रयोग में मिला-जुला रूप और भाव प्रकाशन में आत्मीयतापूर्ण मैत्री भाव उसकी मुख्य विशेषताएँ हैं। उनकी शैली में बनावटीपन रूप कहीं नहीं मिलता। उनके अधिकांश निबंध स्वच्छ, सुसंबद्ध और प्रवाहयुक्त हैं।"

इस प्रकार हम पाते हैं कि बालकृष्ण भट्ट ने अपने साहित्य-कर्म में समसामयिक स्थितियों-परिस्थितियों पर गंभीर विवेचन विश्लेषण कर समाज को जागृत करने का उपक्रम किया और जनता को राष्ट्रीयता से जुड़ने के लिए प्रेरित किया। बालकृष्ण भट्ट का साहित्य उनकी अभूतपूर्व वैचारिक क्षमता, भावनात्मक राष्ट्र-बोध, भाषा-बोध, हिंदी के प्रति समर्पण, उनकी तर्कपूर्ण अभिव्यंजना शैली, गहन अध्ययन-मनन का परिचायक है। हिंदी निबंधों में भट्ट जी के अनुपम योगदान के लिए कुछ समीक्षकों ने उन्हें हिंदी निबंधों का 'एडीसन' तक कह दिया है। वास्तव में बालकृष्ण भट्ट आधुनिक हिंदी साहित्य के निर्माता हैं।

बालकृष्ण भट्ट : जीवन परिचय

जन्म

२३ जून १८४४ इलाहाबाद, उत्तरप्रदेश  

निधन

२० जुलाई, १९१४ 

माता

पार्वती देवी 

पिता

बेनी प्रसाद भट्ट

छोटा भाई

बालमुकुंद भट्ट 

शिक्षा 

प्रारंभ में संस्कृत का अध्ययन और फिर १८६७ में प्रयाग के मिशन स्कूल से एंट्रेंस

कार्यक्षेत्र 

  • १८६९ से १८७५ तक प्रयाग मिशन स्कूल में अध्यापन

  • १८८५ सी ए वी स्कूल, इलाहाबाद में संस्कृत शिक्षक

  • १८८८ में कायस्थ पाठशाला इंटर कॉलेज इलाहाबाद में संस्कृत अध्यापक, पत्रकारिता और स्वतंत्र लेखन, जीवन के अंतिम वर्षों में काशी के 'हिंदी शब्दकोश' में संपादन सहयोग ।

साहित्यिक रचनाएँ

उपन्यास

  • नूतन ब्रहमचारी

  • सौ अजान एक सुजान


 कुछ अधूरे उपन्यास 

  • गुप्त वैरी

  • रसातल यात्रा

  • उचित दक्षिणा

  • हमारी घड़ी

  • सदभाव का अभाव

नाटक

  • पद्मावती

  • चंदरसेन

  • किरातार्जुनीय

  • प्रथुचरित

  • शिशुपाल वध

  • नल-दमयन्ती

  • शिक्षादान

  • आचार विडंबन

  • नई रोशनी का विष

  • वृहन्नला

  • सीता वनवास

  • पतित पंचम

  • कट्टर सं की एक नकल

  • इंगलैंडेश्वरी और भारत जननी

  • भारतवर्ष और काली

  • दो दूर देशी

  • एक रोगी और वैद्य

  • रेल का विकट खेल

  • बालविवाह

निबंध

लगभग हजार निबंध लिखे, जिनमें से कुछ 'भट्ट निबंधमाला' नाम से दो खंडों के संग्रह में प्रकाशित हुए हैं। 


संदर्भ

  • हिंदी गद्य के निर्माता पंडित बालकृष्ण भट्ट - राजेंद्र शर्मा 

  • निबंधकार बालकृष्ण भट्ट - गोपाल पुरोहित 

  • बालकृष्ण भट्ट का व्यक्तित्व और कृतित्व - डॉ० मधुकर भट्ट  

  • आधुनिक हिंदी काव्यालोचना के सौ बरस - प्रो० पुष्पिता अवस्थी 

  • साहित्यकुंज ऑनलाइन पत्रिका में प्रकाशित लेख - साहित्यिक पत्रकारिता के उन्नायक : पं० बालकृष्ण भट्ट www.sahityakunj.net/entries/view/sahityik-patrakaarita-ke-unnayak-pt-balkrishan-bhatt

  • www.hindisamay.com ('बालकृष्ण भट्ट : कबीर की परंपरा के लेखक – गंगा सहाय मीणा; नवजागरणयुगीन हिंदी आलोचना और बालकृष्ण भट्ट – रवि रंजन)

लेखक परिचय

डॉ० दीपक पाण्डेय

वर्तमान में भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय के अंतर्गत केंद्रीय हिंदी निदेशालय में सहायक निदेशक पद पर कार्यरत हैं। २०१५-१९ तक त्रिनिदाद एवं टोबैगो में स्थित भारतीय उच्चायोग में द्वितीय सचिव, हिंदी एवं संस्कृति के पद पर पदस्थ रहे। भारत से बाहर लिखे जा रहे हिंदी साहित्य में आपकी विशेष रुचि है और इस दिशा में निरंतर रचनाशील हैं। प्रवासी साहित्य से संबंधित आपकी अनेक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। देश-विदेश में आयोजित अनेक सेमिनार/संगोष्ठियों में आपकी सहभागिता रही है।

संपर्क :  ईमेल  dkp410@gmail.com मोबाइल- +91-8929408999

3 comments:

  1. बेहद उम्दा !! एक अच्छे व्यक्तित्व के धनी और सालों तक याद रहने वाली हस्ती !! मेरे पास इस वक्त शब्द नहीं अपनी कृतज्ञता ज़ाहिर करने को….😍🙏

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  2. डॉ. दीपक पाण्डेय जी नमस्ते। भारतेंदु युग के प्रमुख साहित्यकार बालकृष्ण भट्ट जी पर आपने बहुत ज्ञानवर्धक लेख लिखा है। आपने इस लेख के माध्यम से उनके विस्तृत सृजन से पाठकों को अवगत कराया। आपको इस जानकारी भरे लेख के लिए हार्दिक बधाई।

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  3. दीपक जी, आपने आधुनिक हिंदी साहित्य के मुख्य स्तम्भ बालकृष्ण भट्ट जी के विचारों का सर्वांगीण परिचय दिया। जिस बेबाकी और सफ़ाई से बालकृष्ण जी अपनी बातें रखते थे वह लाजवाब है। आलेख में दिये गये उद्धरण उनके कृतित्व और व्यक्तित्व पर अच्छी रोशनी डाल रहे हैं। आपको एक और उत्तम लेख पटल पर रखने के लिए आभार और बधाई।

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