सरकारी सेवाओं में रहते हुए ठूँठ बन जाना एक
आम बात है लेकिन यदि कोई अधिकारी महज़ अधिकारी न रहकर घोषित कर दे, ‘मैं नहीं हूँ और कुछ, बस एक हरा पेड़ हूँ’ तो वह उसकी ‘हरी पत्तियों की एक दीप्त रचना’ भर नहीं रह जाती, बल्कि पूरा आख्यान बन जाता है। ऐसा इसलिए भी होता है जब आत्मकथन में कोई
कहता है- ‘कविता न होती तो जीवन लगभग अकारथ होता: कविता है, तो जीवन इतना व्यर्थ नहीं लगता’। फिर उनका होना अपने आप में किवदंती बन जाता है...ऐसी एक किवदंती,
एक आख्यान हैं - अशोक वाजपेयी, जिनके बिना
भोपाल स्थित ‘भारत भवन’ के इस स्वरूप
की कल्पना तक नहीं की जा सकती थी। भारतीय प्रशासनिक कार्यों में रहते हुए संगीत,
कला, संस्कृति और निश्चित ही कविता के जितने
आयोजन अशोक जी ने किए, करवाए, उतने
करवा पाना किसी और के बूते की बात नहीं। चाहे वे महात्मा गाँधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के प्रथम उप-कुलपति रहे
हों या ललित कला अकादेमी के अध्यक्ष या भारत भवन
की ही बात कर लें, उन्होंने केवल खानापूर्ति की तरह काम नहीं किया
बल्कि वे उस संस्थान के पर्याय बन गए थे। मध्य प्रदेश आदिवासी लोक कला परिषद, उस्ताद अल्लाउद्दीन ख़ाँ संगीत अकादेमी, ध्रुपद केंद्र, चक्रधर नृत्य केंद्र, उर्दू अकादेमी, कालिदास अकादेमी, महात्मा गाँधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, रज़ा फ़ाउंडेशन जैसी कई संस्थाओं की स्थापना और संचालन में उनका
योगदान रहा है।
उनके प्रशासनिक जीवन का लंबा समय मध्य प्रदेश, विशेषकर भोपाल में बीता जहाँ उन्होंने राज्य के संस्कृति सचिव के रूप में भी सेवा दी और कार्यकाल के अंतिम दौर में भारत सरकार के संस्कृति विभाग के संयुक्त सचिव के रूप में दिल्ली में कार्य किया।
लेकिन क्या उन्हें इसलिए रेखांकित किया जाएगा कि वे महज़ प्रशासनिक अधिकारी थे, या इसलिए कि उनके काव्य-संग्रह ‘कहीं नहीं वहीं’ के लिए १९९४ में
उन्हें साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया है, या वे दयावती मोदी कवि शेखर सम्मान, कबीर सम्मान के साथ ही फ़्रांस और पोलैंड के सरकारी सम्मानों से नवाज़े गए हैं? उन्हें महज़ तमगों के लिए याद
नहीं किया जाता बल्कि उनका नाम साहित्य, राजनीति और समाज के समसामयिक मुद्दों पर लेखन, वक्तव्य और प्रखर भागीदारी के लिए जाना जाता है।
अपने जीवन के पचहत्तर वर्ष पूरे करने पर
उन्होंने स्वयं कहा था, “अब तक उनके कविता लिखने के साठ वर्ष, आलोचना लिखने के पचास वर्ष, पहले कविता संग्रह के प्रकाशन के भी पचास वर्ष हो गए हैं।“ आप देख सकते हैं कि उन्होंने कितनी सक्रियता से
अपनी रचनाधर्मिता को निभाया है, राह में आने वाले तमाम तरह के प्रलोभनों को सचेत रहकर दूर करते हुए अपनी
वैचारिक प्रतिबद्धता को पैना किया और मौन को और अधिक मुखर किया। आम तौर पर देखा
गया है कि कवि, अन्य शास्त्रीय विधाओं से दूर रहता है; शास्त्रीय
विधाओं का जानकार ललित कलाओं से दूरी बनाए रखता है, और ललित
कलाओं का पक्षधर प्रदर्शनकारी कलाओं से दूरी बनाकर चलता है; लेकिन
अशोक जी तमाम कलाओं के बीच सेतु का कार्य करते हैं। उनके लिए कवि होना मतलब केवल
कवि कर्म करना नहीं है बल्कि हर कला को सघनता से आत्मसात् करना है। कलाओं का
सौंदर्य संस्कार क्या होता है उनके साथ रहते हुए जाना जा सकता है। कलाओं के
साथ-साथ, प्रकृति और भाषा से उनका ऐसा लगाव था कि समस्त
सृष्टि उनकी सहचरी थी -
“मुझे चाहिए पूरी पृथ्वी
अपनी वनस्पतियों, समुद्रों
और लोगों से
घिरी हुई,
एक छोटा-सा घर
काफ़ी नहीं है।
…
थोड़े से शब्दों
से नहीं बना सकता मैं कविता,
मुझे चाहिए
समूची भाषा –
सारी हरीतिमा
पृथ्वी की”
ऐसी विश्वव्यापी दृष्टि रखने वाले अशोक जी ने मध्य प्रदेश राज्य के दुर्ग में एक संपन्न, सुशिक्षित परिवार में १६ जनवरी १९४१ को आँखें खोलीं। पिता सागर विश्वविद्यालय में डिप्टी रजिस्ट्रार थे और नाना डिप्टी कलेक्टर थे। इनकी आरंभिक शिक्षा लालगंज सरकारी विद्यालय से हुई; फिर इन्टर तथा बी . ए. सागर विश्वविद्यालय से किया। एम. ए. अंग्रेजी की पढ़ाई इन्होने सेंट स्टीफेंस कॉलेज दिल्ली से की तथा दयाल सिंह कॉलेज दिल्ली में ही अध्यापन कार्य करने लगे। १९६५ में इन्होंने भारत के सर्वोच्च सरकारी सेवा परीक्षा आई. ए. एस. की परीक्षा उत्तीर्ण की | १९६६ में इनका विवाह समादृत साहित्यकार नैमीचंद्र जैन की सुपुत्री रश्मि जैन से सम्पन्न हुआ। प्रशासनिक सेवा में जिम्मेदार पदों पर रहते हुए मध्य प्रदेश सरकार में इन्हें कला, साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में प्रकल्पित और स्थापित संस्थानों, आयोजनों, प्रकाशनों और विमर्शों की महत्वपूर्ण भूमिकाओं को स्थापित करने का अवसर मिला| मध्य प्रदेश तथा वर्धा में इन्होंने लीक से हट कर एक प्रणेता की तरह काम किया जो अपनी मिसाल ख़ुद है|
अशोक जी स्कूली दिनों से ही कविता लिखने लगे थे
और १६-१७ की आयु तक प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगे
थे। उनका पहला कविता संग्रह ‘शहर अब भी सम्भावना है’ २५ वर्ष की अवस्था में १९६६ में प्रकाशित हुआ। यह
नई कविता में एक युवा कवि की अलग सी दस्तक थी। उसमें भाषा का ताज़ा और उत्तेजक
प्रयोग, और एक ऐसा संसार सिमटा था जिसमें गहरे और
अप्रत्याशित मानवीय संबंधों की पड़ताल थी। इतनी कम उम्र से छपने का अनुभव होने के
बाद उन्होंने दूसरों को छपवाने के अवसर भी दिए जहाँ संपादक के तौर पर कई
पत्र-पत्रिकाओं में उन्होंने यह कार्य किया। आलोचना के क्षेत्र में उनका प्रवेश
‘लेखक की प्रतिबद्धता’ शीर्षक के साथ हुआ। इनका बहुलतावादी दृष्टिकोण आलोचना के लिये नया आयाम
साबित हुआ | इनकी पहली आलोचना कृति ‘फ़िलहाल’
१९७० में प्रकाशित हुई, तब से अब तक लगभग एक दर्जन से अधिक आलोचनाएँ हिन्दी
और अंग्रेजी में प्रकाशित हो चुकी हैं।
एक संपादक के रूप में अशोक जी ने कई पत्र पत्रिकाएँ,
कृतित्व- व्यक्तित्व, रचना संचयनों का संपादन किया| चेस्लाव मिलोश, विस्लावा सिम्बोर्स्का, जिबिग्न्यु हर्बर्ट, तादयुस्ज रोज़विच सरीखे कवियों की कविताओं का अनुवाद किया| वाजपेयी जी संस्कृतिकर्मी और आयोजक के रूप में विशिष्ट स्थान रखते हैं।
प्रशासनिक कार्यों में रहते हुए उनके
द्वारा हजारों से अधिक आयोजन और साहित्य और कला की
विविध विधाओं के प्रसार में अद्वितीय कार्य हुए हैं। साहित्यिक, राजनैतिक और समसामयिक मुद्दों पर मौखिक वक्तव्य, लेख,
खुली भागीदारी भी हमेशा करते रहे हैं।
लंबी रचना यात्रा में उनके यहाँ प्रेम कविताएँ
भी जीवन का संचार करती हैं तो जीवन के कठोर ताप को दिखाती ठोस कविताएँ भी।
कहीं-कहीं कुछ तरल कविताएँ आँखों को भी तरल कर जाती हैं जैसे इन पंक्तियों को ही
लीजिए-
‘एक बार जो ढल जाएँगे
शायद ही फिर खिल पाएँगे
फूल शब्द या प्रेम
पंख स्वप्न या याद
जीवन से जब छूट गए तो
फिर न वापस आएँगे
अभी बचाने या सहेजने का अवसर है
अभी बैठकर साथ
गीत गाने का क्षण है।
... अभी मृत्यु से दाँव लगाकर
समय जीत जाने का क्षण है!’
कवि को ऐसे ही अपने समय का साक्षी नहीं कहा
जाता...आज के समय का सच जैसे उक्त पंक्तियों में शब्द-दर-शब्द बयाँ हो रहा है।
युवा होने के अद्भुत आश्चर्य को वे इस तरह पिरोते हैं कि:
‘कुछ भी कर सकने का शब्दों पर भरोसा,
अमरता का छद्म, और अनन्त का पड़ोसी होने का आश्वासन?
फिर जब लौटेंगे तो
पुरा-पड़ोस के लोग हमें
पहचान नहीं पायेंगे,
अपना घर चौबारा बिना पलक झपकाये ताकेगा,
हम जो छोड़कर गये थे
उसी में वापस नहीं आ पायेंगे’
‘हम जो छोड़कर गये थे उसी में वापस नहीं आ पायेंगे’- अद्भुत है यह पंक्ति!
वे इतने आत्मीय कवि लगते हैं
क्योंकि उनकी कविताओं में मनुष्य अपने सारे सुख-दुःखों के साथ है। उनकी कविताओं
में माँ हैं, पिता हैं, प्रेमिका है, बाल
मित्र हैं, पुत्र-पुत्री, बहू मतलब
घर-परिवार का पूरा संसार समाया है। जीवन की वास्तविकता को रखते हुए वे उसे कुरूप
होने से बचा ले जाते हैं, उनकी शैली अतुकांत और छंदमुक्त
होते हुए भी आपके भीतर एक गान को पिरोती जाती है। बीते करीब छह दशकों से भी ज्यादा
की अपनी साहित्यिक-सामाजिक यात्रा के जरिये आम जन तक अपनी अलग पहचान और
स्वीकार्यता बनाने वाले कवि वाजपेयी शब्दों से प्रेम
करने वाले ही नहीं बल्कि जीवन से भी प्रेम करने वाले
कवि हैं!
वाजपेयी ने कविता की ज़रुरत पर लिखा,
"कविता गाती है पर इसलिए नहीं कि कभी-कभार वह छंद में होती
है। कविता याद करती है पर इसलिए नहीं कि उसमें
बिंबमाला होती है। कविता सुख देती है पर इसलिए नहीं कि
रस उसका धर्म है। कविता प्रश्न पूछती है पर इसलिए नहीं कि कवि को किसी रामझरोखे पर
बैठकर ऐसा करने का नैतिक अधिकार मिला हुआ है। कविता जीवन के प्रति हमारे रहस्यभाव
को गहरा करती है पर इसलिए नहीं कि उसे कहीं से ब्रह्मज्ञान मिल जाता है। कविता
समाज में हमारी हिस्सेदारी को बढ़ाती है पर इसलिए नहीं कि वह हर हालत में समाज से
प्रतिबद्ध होती है."
इससे सुंदर कविता की वकालत
आपको कहीं और नहीं मिलेगी। एक बार अपने एक भाषण में अशोक जी बोले, “ मैं कवि हूँ। मैंने बहुत से काम किए हैं … पर अब वह सब
चोगे उतार कर रख दिए हैं| अब मैं मूल रूप में कवि हूँ!“ उनकी नजर में कई कवि शिखर के उच्च स्तर पर है
जिन्हें वे सप्तर्षि की संज्ञा देते हैं जेसे- निराला, प्रसाद, अज्ञेय, मुक्तिबोध, शमशेर, रघुवीर
सहाय और भवानी प्रसाद मिश्र!
इन्होंने वेबदुनिया से काव्यात्मक मुलाकात में कहा,”आजकल
ज्यादातर कवि अपढ़ हैं, अपढ़ इस अर्थ में कि वे दूसरे कवियों
को नहीं पढ़ते और स्वयं को जन्मजात कवि मानते हैं,
जबकि कवि जन्मजात नहीं होते! निरंतर
अध्ययन और संसार के प्रति चैतन्यता श्रेष्ठ कवि होने की शर्ते हैं।“
अब बात करते हैं विवादों की! “एक वाजपेयी
दूसरे वाजपेयी पर टिप्पणी नहीं करता”, यह कह कर, हँस कर अटल बिहारी वाजपेयी की कविताओं पर आकस्मिक टिप्पणी करने से मना कर
देने वाले अशोक वाजपेयी स्वयं कम विवादस्पद नहीं रहे! उनकी कविताओं की समीक्षा और
आलोचन पर एक पुस्तक ‘कविता का अशोक पर्व’ की पाण्डुलिपि के पूर्वकथन में लेखक प्रकाश ने लिखा, “आधुनिक हिंदी कविता का संभवत: सबसे विवादास्पद कवि-आलोचक अशोक वाजपेयी…", यानि अशोक जी को भी अपने हिस्से के पत्थर-काँटे सब मिले। १९९४ में
भारत सरकार द्वारा दिए साहित्य अकादमी पुरस्कार को उन्होंने २०१५ में दादरी की घटना
से आहत हो, देश में बढ़ती अहसहनशीलता के विरोध में लौटा दिया।
वे अक्सर साक्षात्कारों में दिल्ली में कम होती संभावनाओं को रेखांकित करते!
दिसंबर’२१ के अंत में
अशोक जी ने ‘सत्याग्रह’ के अपने एक लेख
में लिखा, “अगला वर्ष कैसा होगा यह इस पर निर्भर करता
है कि अहिंसक प्रतिरोध के कौन से दीर्घगामी रूप आकार लेते हैं।”
जनवरी २०२२ के लेखों में वे
लिखते हैं, ”जब धर्म अपने बुनियादी अध्यात्म से, सत्ता संविधान
की मर्यादाओं से, मीडिया अपने साहस और प्रश्नशीलता से दूर जा
चुके हैं तो प्रतिरोध साहित्य के ही जिम्मे आ जाता है। अपनी भाषा में सच और समय को
लिखना भर भी प्रतिरोध की कार्रवाई है।”
भाषा और अहिंसा के प्रति ऐसी
प्रतिबद्धता रखने वाले कवि-लेखक का पथ प्रशस्त हो, वह दीर्घायु हों!
अशोक वाजपेयी: जीवन
परिचय |
||
जन्म |
१६ जनवरी १९४१ |
|
वर्तमान |
लेखनकार्य में व्यस्त, और रज़ा फाउंडेशन में संलग्न |
|
कर्मभूमि |
दिल्ली, मध्य प्रदेश |
|
माता |
श्रीमती विमला देवी |
|
पिता |
श्री परमानन्द वाजपेयी |
|
पत्नी |
श्रीमती रश्मि जैन, |
|
भाषा |
हिन्दी, अंग्रेजी |
|
शिक्षा एवं कार्य |
||
प्रारंभिक
शिक्षा |
लालगंज
सरकारी विद्यालय |
|
अध्यापन |
दयाल
सिंह कॉलेज, दिल्ली |
|
आईएएस
उत्तीर्ण |
१९६५ |
|
| ||
साहित्यिक रचनाएँ |
||
कविता संग्रह |
शहर अब भी संभावना १९६६, एक पतंग अनंत मे १९८४, अगर इतने से १९८६, तत्पुरुष १९८९, कहीं नहीं वहीं १९९१, थोड़ी सी जगह १९९४, आविन्यो १९९५, जो नहीं है, अभी कुछ और १९९८, समय के पास समय २०००, इबारत से गिरी मात्राएँ २००२, कुछ रफू कुछ थिगड़े २००४, उम्मीद का दूसरा नाम २००४, दुःख चिठ्ठी सा है २००८, कहीं कोई दरवाज़ा २०१३. |
|
आलोचना/निबन्ध/लेख/संस्मरण |
|
|
सम्पादन |
समवेत, पहचान, पूर्वग्रह, बहुवचन, कविता एशिया, समास आदि पत्रिकाएँ, कुमार गन्धर्व, कला विनोद, प्रतिनिधि कविताएँ (मुक्तिबोध), पुनर्वास, निर्मल वर्मा, टूटी हुई बिखरी हुई (शमशेरबहादुर की कविताओं का संकलन), साहित्य विनोद, कविता का जनपद, जैनेन्द्र की आवाज़, परम्परा की आधुनिकता, शब्द और सत्य, तीसरा साक्ष्य, सन्नाटे का छंद (अज्ञेय की कविताएँ) स्वछन्द, आत्मा का ताप, संशय के साए (कृष्ण बलदेव बेद संचयन) |
|
अनुवाद |
कई विदेशी रचनाओं का अनुवाद किया |
|
सम्मान |
|
|
संदर्भ:
- विकीपीडिया
- https://www.aajtak.in/literature/profile/story/birth-anniversary-of-indian-poet-ashok-vajpeyi-know-about-him-638055-2019-01-16
- https://www.pustak.org/index.php/books/bookdetails/5758
लेखक परिचय:
स्वरांगी साने, कार्यक्षेत्र : कविता, कथा, अनुवाद,संचालन, स्तंभ लेखन, पत्रकारिता,अभिनय, नृत्य, साहित्य-संस्कृति-कला समीक्षा, आकाशवाणी और दूरदर्शन पर वार्ता और काव्यपाठ
प्रकाशित कृतियाँ : काव्य संग्रह “शहर की छोटी-सी छत पर” २००२ में मध्य प्रदेश साहित्य परिषद, भोपाल द्वारा स्वीकृत अनुदान से प्रकाशित और म.प्र.राष्ट्रभाषा प्रचार समिति के कार्यक्रम में म.प्र. के महामहिम राज्यपाल द्वारा सम्मानित।
- काव्य संग्रह “वह हँसती बहुत है” महाराष्ट्र राज्य
हिंदी साहित्य अकादमी, मुंबई
द्वारा द्वारा स्वीकृत अनुदान
से वर्ष २०१९ में प्रकाशित।
डॉ० रेखा सिंह,
असिस्टेंट प्रोफेसर, हिन्दी विभाग, रा०महा० विद्यालय
पावकी देवी टिहरी गढ़वाल, उत्तराखण्ड, भारत
शिक्षा - B.Ed., Ph.D., Net, U-Set
शोधपत्र – २० राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय
दो लघु कहानी – आत्मा का ताप, क्रूर शोधन, शोध-प्रबन्ध प्रकाशानार्थ
इस आलेख के लिए उन सब को धन्यवाद जो इसे अपने प्रस्तुत स्वरूप में लाए हैं!
ReplyDeleteअशोक वाजपेयी जी ने हिन्दी कविता और भारतीय कला क्षेत्र में जो योगदान दिया वह अविस्मरणीय है! जो करेगा, वह विवादों से घिरेगा! आज भी 'सत्याग्रह' के उनके नियमित लेख उनकी बेबाक़ी की कहानी कहते हैं!
दीर्घायु हों, क्रियाशील रहें! 🙏🏻🌼
Thanks Swarangi & Rekha!
आप सभी का धन्यवाद शार्दुला जी, रेखा जी, दीपा जी...आभारी हूँ
Deleteबहुत ही अच्छा आलेख। स्वरांगी जी को इस आलेख के लिए बहुत-बहुत बधाई। वास्तव में आज के युग में प्रतिरोध की जिम्मेदारी साहित्य की ही है। मीडिया तो सत्ता संस्थान के चाकर बन चुके हैं।
ReplyDeleteजी जी मुखर होना ही होगा...आभारी हूँ
Deleteप्रसिद्ध कवि एव साहित्यकार अशोक वाजपेयी जी की साहित्य यात्रा को वर्णित करता महत्वपूर्ण लेख है। स्वरांगी जी एवं रेखा जी को इस उत्तम लेख के बहुत बहुत बधाई।
ReplyDeleteबहुत आभार दीपक जी
Deleteस्वरांगी जी, रेखा जी को जानकारीपूर्ण लेख के लिए बधाई । 🌹
ReplyDeleteअशोक वाजपेयी जी को जन्मदिवस की शुभकामनाएँ। सृजन करते रहें , ऐसी शुभेच्छा। 💐
आभारी हूँ हरप्रीत जी...
Deleteस्वरांगी और रेखा जी ने अशोक वाजपेयी जी की विभिन्न उपलब्धियों, गहरी संवेदना, काव्यात्मक सौंदर्य, और कवि होने के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को शब्दों की सुन्दर माला में पिरोया है। अशोक वाजपेयी जी को जन्मदिन की बधाई और सृजन के अनुपम नगीने तराशने तथा सामजिक मुद्दों पर ऐसी ही प्रखर आवाज़ आगे भी बरक़रार रखने की शुभकामनाएँ। लेखिका द्वय को शुक्रिया और इस लेखन के लिए ढेरों बधाई।
ReplyDeleteप्रगति जी उत्साह बढ़ाने के लिए आभार...
Deleteसर्व प्रथम आदरणीय अशोक वाजपेयी जी को अवतरण दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ। अशोक जी अपने कवि सम्वेदनाओं के साथ-साथ साहित्य कलाओ के अनुरागी संस्था के रूप में भी जाने जाते हैं। प्रेमाधिकारी कवि अशोक जी का संसार कोमल व्यंजनाओं से भरा हैं। लम्बी काव्य यात्रा के पश्चात आज भी आपकी समाज और जीवन में प्रेम की सघन और सच्ची अनुभूति होती हैं। आज के इस आलेख में आदरणीया स्वारांगी जी और रेखा जी ने प्रेमकवि अशोक जी को नहीं तो उनकी आत्मकथा, रीति तथा समय को लिखा हैं। उनका लेख प्रेम की उत्कंठा, मिलन, विरह, आशा, निराशा से ओत-प्रोत भरा पड़ा हैं। अपनी लेखनी की अवधारणा को निश्चित कर बड़े ही सूक्ष्म भाव से पूर्णतः संशोधन कर लिखा गया लेख हैं। आप दोनों की लेखनी को और विस्तृत करने वाले शब्दों की सीमा समाप्त हो रही हैं। इसलिए यही विराम देकर आपका आभार और तहे दिल से अनगिनत शुभकामनाएँ देना चाहता हूँ।
ReplyDeleteअनुपम...आभारी हूँ
Deleteश्री अशोक वाजपेयी पर रोचक, सटीक और सूचनाप्रद लेख के लिए बधाई स्वरांगी जी एवं रेखा जी। अशोकजी की रचनाएँ अलग हैं और उनका व्यक्तित्व भी 'मौलिक' है। उनके अनुभव संसार की व्यापकता और बेबाकी भी इन रचनाओं में झलकती है। आपका लेख उन्हें और पढ़ने तथा जानने के लिए प्रेरित करता है।
ReplyDeleteसुंदर आलेख । अपने तरह का अलग काम । स्वरांगी साने और डॉ रेखासिंह को हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं ।
ReplyDelete*जवाहर चौधरी, इंदौर
आपका यह लेख अशोक वाजपेयी जी के समग्र व्यक्तित्व और कृतित्व का परिचय करा देता है. बहुत बहुत बधाई.
ReplyDelete