Monday, July 4, 2022

स्वामी विवेकानंद – मानवता का विश्व विजेता


मानव मस्तिष्क की सीमाएँ अथाह हैं
; इस महासागर में डूबकर भी इसके छोर का पार पाना कठिन है। किन्तु इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता कि मनुष्य की इच्छाशक्ति नामुमकिन प्रतीत होने वाले कार्यों को भी करने का साहस भर देती है। स्वामी विवेकानंद का जीवन इसका जीता जागता प्रमाण है। मात्र ३९ वर्ष का लघु जीवन लेकर आए भगवान् शिव के इस मानव अवतार ने अपना लक्ष्य भी साधा और सम्पूर्ण विश्व को मानवता का कभी ना भूलने वाला मन्त्र भी दे गए। उस शाश्वत परमज्ञानी परमानन्द स्वामी विवेकानंद को युगों-युगों तक पढ़ा जाएगा क्योंकि उनके श्रीमुख से निकली हर बात हर काल हर देश और हर धर्म के लिए सदा प्रासंगिक रहेगी।

“उठो, जागो और तब तक मत रुको जब तक लक्ष्य की प्राप्ति न हो जाए!”

धर्म, जाति, रंग-रूप, वेश-भूषा और सीमाओं के मायाजाल में फँसे उन असंख्य धर्माधिकारियों, समाज के ठेकेदारों, राजनैतिक ताकतों और तथाकथित महापंडितों की कट्टरता का एक ही जवाब है - स्वामी विवेकानंद! संसार के उन असंख्य लक्ष्यहीन और बेरोज़गार नौजवानों की सफलता का एक ही मार्ग है – स्वामी विवेकानंद! भारत के कमज़ोर, भूखे-नंगे तबकों के उद्धार का एक ही आसरा है – स्वामी विवेकानंद! संसार में आदर्श माने जाने वाले कई हस्तियों जैसे ए. पी. जे. अब्दुल कलाम, नेताजी सुभाषचंद्र बोस, लाल बहादुर शास्त्री, निकोला टेस्ला के आदर्श रहे हैं - स्वामी विवेकानंद! दरअसल स्वामी विवेकानंद अब अपने मनुष्य रूप से ऊपर उठ कर एक सोच और एक आदर्श के रूप में प्रतिष्ठित हो चुके हैं।

१२ जनवरी १८६३ को मकर संक्राति की प्रातः बेला में माता भुवनेश्वरी देवी के आँचल में शिव जी के आशीर्वाद से जन्मा बालक बड़ा होकर सम्पूर्ण विश्व को हिन्दुत्व और सनातन धर्म का वह पहलू दिखा गया जिसे उनसे पहले किसी ने उस नज़रिए से न देखा, न व्याख्या की थी। पिता विश्वनाथ दत्त कलकत्ता उच्च न्यायालय के प्रतिष्ठित वकील थे और उन्होंने इस बालक, जिसे उन्होंने नरेन्द्रनाथ दत्त नाम दिया था, के लिए अनेक सपने देखे थे। नरेन बचपन से असाधारण थे – हठी, विनोदी, दयालु और दानवीर! उन्होंने सदैव अपने माता-पिता को दूसरों की सेवा और दान-कर्म करते देखा, और यही भाव आजीवन उनके अन्दर रहा। द्वार पर आये किसी भी भिक्षुक को कीमती से कीमती सामान दान करने में वे तनिक भी संकोच नहीं करते थे। इस बात के लिए कई बार उन्हें माता-पिता से सुनना भी पड़ता था, किन्तु उनका कोमल मन कभी भी भौतिक वस्तुओं से आकर्षित नहीं होता था। एक कुलीन बंगाली कायस्थ परिवार में सम्पन्नताओं और अंग्रेज़ी शिक्षा-दीक्षा के मध्य भी उनकी जिज्ञासा अध्यात्म और ईश्वर प्राप्ति की रहती थी। अमीर-ग़रीब, काले-गोरे और हिन्दू-मुस्लिम का भेद उन्हें बचपन से विचलित करता था। ईश्वर के अस्तित्व को लेकर उनके मन में अनेक सवाल थे, जिसका उत्तर पाने के लिए वे कई धर्म गुरुओं और साधु-महात्माओं से अनगिनत सवाल किया करते थे। स्कूली शिक्षा में उनका मन नहीं लगता था। मेधा सूची में अव्वल आना कभी उनका मकसद नहीं रहा, हालाँकि एक बार पढ़ा कोई भी पाठ उन्हें आसानी से याद हो जाता था और स्कूल-कॉलेज दोनों विद्या-केन्द्रों में वे अव्वल आने वाले छात्रों तक को पढ़ाते और उनका शंका समाधान करते थे। उनकी उपस्थिति के आकर्षण से मंत्रमुग्ध हुए बिना रहना असंभव था। शिक्षक, विद्यार्थी तथा सभी मिलने वालों को उनका व्यक्तित्व सहज ही आकर्षित कर लेता था। लम्बा-चौड़ा गठीला शरीर, मुख पर तेज और आँखों में समंदर सी गहराई – इस अलौकिक रूप ने अनेकों को सम्मोहित किया था। किन्तु यह भी उतना ही बड़ा सच है कि इस मनमोहक व्यक्तित्व के होते हुए भी उन्होंने ग़रीबी, विपन्नता और तिरस्कार का सामना किया था।

पिता की इच्छा थी कि नरेन उनसे भी बड़ा वकील बने, पाश्चात्य संस्कृति अपनाए और सम्पन्नता का जीवन जिए; माँ चाहती थी कि मानवता और आध्यात्मिकता के साथ-साथ सफल पारिवारिक जीवन जिए किन्तु नरेन के सपने उसे कुछ और बनने की ओर इशारा कर रहे थे। हिन्दुत्व पर अभी उन्हें भरोसा नहीं हुआ था, उनके सवालों का किसी ने अब तक संतोषजनक उत्तर भी नहीं दिया था और जीवन का मार्ग अभी तक तय नहीं हुआ था – किन्तु जिज्ञासा और ज्ञान-पिपासा ने उन्हें वेद, उपनिषद्, पुराण, गीता, महाभारत, रामायण समेत अन्य धर्मों के ग्रंथों का अध्ययन करवाया। अपनी किशोरावस्था में ब्रह्म समाज के ध्येय वाक्य ‘अनंत को खोजने का प्रयास से आकर्षित हो वे उसका अनुसरण करने लगे किन्तु शीघ्र ही उन्हें यह आभास हो गया कि यहाँ लोगों की कथनी और करनी में अंतर है। प्रवचन केवल बाहरी आडम्बर है; यदि मनुष्य स्वयं उसका पालन न करे तो वही बातें बेअसर और बेबुनियाद हो जाती हैं।

“क्या आपने ईश्वर को देखा है?” पूछकर वे बड़े-बड़े दिग्गजों के होश उड़ा चुके थे। पिता की असामयिक मृत्यु ने परिवार को आर्थिक रूप से झकझोर दिया था। छोटे भाई-बहनों और माँ की ज़िम्मेदारी अब नरेन पर आ गयी थी, किन्तु किसी की नौकरी कर पैसा कमाना उनसे न हो सका। उनकी प्रवृत्ति सदा से साधुओं सी रही थी, सो आर्थिक तंगी में भूखे पेट सोना उनके लिए आम बात थी। परिवार के अन्य सदस्यों को भरपेट खाना मिल सके इस कारण कई बार वे ‘दोस्तों के यहाँ खाने का न्योता है’ ऐसा कहकर भूखे पेट ही सो जाते थे। माँ को पुत्र के इरादों का अंदेशा हो चुका था।  नियति उन्हें श्री रामकृष्ण परमहंस के संपर्क में ले गई और इसी मुलाक़ात ने नरेन्द्रनाथ के शेष जीवन का मार्ग प्रशस्त किया। गुरु-शिष्य का यह सम्बन्ध अद्भुत और अनूठा था। रामकृष्ण को नरेन का सदा से इंतज़ार था जबकि नरेन्द्रनाथ की खोज इस निरीह ब्राह्मण पर ख़त्म होगी, इसे समझने में नरेन को थोड़ा समय लगा। रामकृष्ण के पास नरेन के सभी प्रश्नों के उत्तर थे, उन्होंने भगवान् को भी देख रखा था और उन्होंने नरेन को भी भगवान् से मिलवाने का दावा किया था। गुरु ने उन्हें न सिर्फ़ हिन्दू धर्म की ताकत समझाई बल्कि इसकी सभी धर्मों को समाहित करने की विशालता से भी परिचय कराया। जैसे-जैसे नरेन रामकृष्ण को समझने लगे, वे उनके प्रेम में मतवाले होते चले गए। यही हाल रामकृष्ण परमहंस का भी था – उनका विश्वास था कि नरेन के रूप में उन्हें साक्षात् विष्णु भगवान् मिले हैं और शीघ्र ही नरेन उनके परम प्रिय शिष्य बन गए। नरेन के लिए उनके भाव कभी आँसू, कभी हँसी और कभी आशीर्वाद के रूप में आजीवन उमड़ते रहे। रामकृष्ण ने अपना समस्त ज्ञान और साधना नरेन को सौंप दिया। नरेन ने भी गुरु सेवा में कोई कसर नहीं छोड़ी और उनकी मृत्यु शैय्या तक साथ खड़े रहे। श्रद्धा में घृणा का कोई स्थान नहीं होता और ना ही कोई कार्य छोटा होता है – नरेन्द्रनाथ ने गुरु के थूक-खखार से लेकर रक्त की उल्टियाँ भी निःसंकोच साफ़ कीं। कैंसर पीड़ित रामकृष्ण की दिन-रात सेवा करने के लिए उन्होंने अपना गृह त्याग दिया था और आश्रम में ब्रह्मचर्य जीवन का पालन करते रहे। एक माँ के लिए पुत्र का इस तरह संन्यासी होना सहज स्वीकार्य नहीं था किन्तु नरेन के संकल्प के सामने उन्होंने भी आशीर्वाद में ही हाथ उठाए और पुत्र को जनकल्याण के लिए गृह के उत्तरदायित्वों से मुक्त कर दिया। यह वह समय था जब पति की संचित संपत्ति ख़त्म हो चुकी थी, लोभी रिश्तेदारों ने उन्हें उन्हीं के पुश्तैनी घर से बेदखल कर दिया था जिसका मुकदमा न्यायालय में कई वर्षों तक चलता रहा। किन्तु भुवनेश्वरी देवी ने नरेन के मार्ग में इन सांसारिक अड़चनों को कभी बाधा नहीं बनने दिया। नरेन अपने जीवन का प्रतिपल अपनी माँ का आशीर्वाद मानते थे और उनका कहना था कि माँ का ऋण वो किसी भी प्रकार से नहीं चुका सकते हैं। नरेन मानव सेवा को अपना परम धर्म मानते थे और अपना सम्पूर्ण जीवन उन्होंने इसी सेवा में न्योछावर कर दिया।  

गुरु का जाना नरेन के जीवन का सबसे दुःखद क्षण था। किन्तु अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अभी उन्हें कई कार्य करने थे। अपने विचारों को देश-दुनिया के कोने-कोने तक पहुँचाना उनका मकसद था और वे दिन-रात इसी दिशा में सोचा करते थे। परमहंस के कुछ चुनिन्दा अनुयायियों, जिन्होंने भिक्षुक के समान जीवन जीना स्वीकार किया था, को शिक्षा-दीक्षा देना उनका पहला मकसद था। वे रात को उन्हें धर्म, अध्यात्म और तत्व-ज्ञान देते और दिन में अपने भाई-बहनों और माँ के प्रति कर्तव्य का निर्वहन करते। कुछ दिन ऐसे ही चलता रहा मगर इससे उनका विश्व तक अपना सन्देश पहुँचाने का उद्देश्य पूरा होना असंभव था। अतः एक रात अपने शिष्यों के नाम सन्देश छोड़कर भारत भ्रमण पर निकल पड़े। इस सफ़र में उनके साथ था उनका भगवा वस्त्र, एक छड़ी और सिर पर साफ़ा – न जेब में पैसे और न हाथ में कोई अन्य वस्तु - एक संन्यासी के समान मन में असीम संभावनाओं का सागर समेटे वे एक ऐसी यात्रा पर थे जिसका एक ही उद्देश्य था – संसार को मानव धर्म का पाठ पढ़ाना, धर्म का सच्चा रूप दिखाना और भेद-भाव से रहित एक ऐसे समाज की स्थापना करना जहाँ सर्व-धर्म समभाव हो। कलकत्ता से बोधगया, वाराणसी, इलाहाबाद होते हुए वे माउंट आबू तक गए। हिमालय से कन्याकुमारी, गुजरात से शिलाँग – समूचे भारत का भ्रमण कर अपनी बात अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचाना अब उनके जीवन का एकमात्र उद्देश्य था। वे भारत देश और इसकी सनातन परम्परा के सबसे बड़े प्रचारक के रूप में उन सभी प्रभावशाली और समृद्ध व्यक्तियों से मिलना चाहते थे जिनके ज़रिए समाज के दबे-कुचले और दरिद्र लोगों तक अपनी बात पहुँचा सकें। उनका ध्येय देश में समानता और सहृदयता की स्थापना करना था। मानव सेवा को सबसे बड़ा धर्म बताने वाले स्वामी विवेकानंद ने विभिन्न रियासतों के राजाओं से मिलकर उन्हें ग़रीब और हीन समझे जाने वाले लोगों की सेवा करने का आह्वान किया। उनका कहना था – “यदि ग़रीब जो भोग रहे हैं वो उनके कर्मों का फल है तो उनके दुखों को दूर करना हमारा कर्म होना चाहिए।” ध्यान-साधना उनकी नित्य-क्रिया का अभिन्न अंग था वे घंटों ध्यान मग्न हो ईश्वर का सान्निध्य पाते थे। भूख-प्यास और नींद की परवाह किये बिना वे लगातार साधना करने में सक्षम थे।

दिसम्बर १८९२ में रामेश्वरम होते हुए जब वे कन्याकुमारी पहुँचे, समुद्र तट से दूर कुछ शिलाओं के प्रति आकर्षित होकर वे तैर कर ही वहाँ चले गए और घंटों ध्यान मग्न रहे। कन्याकुमारी के समुद्र की उन शिलाओं पर वे रोज़ाना ध्यान करने जाते रहे। आज उन चट्टानों को ‘विवेकानंदा रॉक’ के नाम से उनकी पावन स्मृति में प्रार्थना भवन के रूप में प्रतिष्ठित किया गया है। यह देश के मुख्य पर्यटन स्थल के रूप में विश्व-विख्यात है और यहाँ जाने के लिए छोटे जहाजों का प्रयोग किया जाता है।

अपने देशाटन के दौरान उन्हें अमेरिका में हो रहे विश्व धर्म संसद के बारे में पता चला और समूचे विश्व के सामने आपनी बात रखने का उन्हें यह एक सुअवसर दिखा। अब तक कई राजा उनके अनुयायी बन चुके थे। उन्हीं में से खेतड़ी रियासत के राजा व अन्य शुभचिंतकों की आर्थिक सहायता से वे अमेरिका के लिए रवाना हो गए। जुलाई में नियोजित यह सभा अज्ञात कारणों से सितम्बर तक स्थगित हो गई और इन तीन महीनों में स्वामी जी ने अपमान और तिरस्कार के कई घूँट पिये। उन्हें अपने पहनावा, वेश-भूषा और एक ग़ुलाम देश का प्रतिनिधित्व करने के नाम पर कदम-कदम पर अपमानित किया गया। किन्तु इन अपमानों ने उनको अपने लक्ष्य से विचलित नहीं होने दिया। ११ सितम्बर १८९३ को उस धर्म महासभा में उनके वक्तव्य के प्रथम पाँच शब्दों ने ही शिकागो के उस कला संस्थान में मौजूद ७००० लोगों का दिल जीत लिया था। “सिस्टर्स एंड ब्रदर्स ऑफ़ अमेरिका” (मेरे अमेरिकी बहनों और भाइयों!) विश्व के धर्माधिकारियों, अमेरिकी जनता और वहाँ मौजूद प्रत्येक इंसान के लिए स्वामी जी का वह संबोधन ऐसा सम्मोहित करने वाला था कि लोग खड़े होकर दो मिनट तक तालियाँ बजाते रह गए। वर्ल्ड कोलम्बियन एक्स्पोज़िशन की धर्म संसद में एक भारतीय संन्यासी द्वारा कहे एक-एक शब्द ऐतिहासिक धरोहर बन गए और अमेरिकी अखबारों ने कई दिनों तक उनका जयगान किया-

‘न्यूयॉर्क हेराल्ड’ ने लिखा - “विश्व धर्म सांसद में स्वामी विवेकानंद सबसे महान् वक्ता थे। उन्हें सुनने के बाद लगता है कि जिस देश में इतने महान् और विद्वान् लोग रहते हैं वहाँ मिशनरीज़ को भेजना कितना मूर्खतापूर्ण है।”

‘द न्यूयॉर्क क्रिटीक’ ने लिखा - “कई विद्वानों का भाषण बहुत अच्छा था लेकिन एक हिन्दू साधु के ओज के आगे वो टिक न पाए

ज़ाहिर था, उस दिन विवेकानंद अकेले मंच पर नहीं गए थे; उनके साथ सनातन संस्कृति और भारत का लाखों वर्षों का इतिहास भी उनके साथ मंच पर आया था। इस भाषण ने उन्हें सबकी आँखों में बिठा दिया था। जिस विवेकानंद को इतनी ठोकरें मिली थीं, वही अब सबके चहेते बन गए थे। अमेरिका में वे तीन वर्ष रहे और इस दौरान न्यूयॉर्क, बॉस्टन, वाशिंगटन समेत कई यूरोपीय देशों, जापान आदि की यात्राएँ कीं और अपने भाषणों से विश्वविद्यालयों, धार्मिक संस्थाओं तथा सार्वजानिक सभाओं को लाभान्वित किया। विदेशों में अपने विचारों का झंडा लहराने के बाद जब वे भारत पहुँचे तब उनके स्वागत में समूचा पोर्ट खचाखच भर गया था। भीड़ अपने स्वामी के दर्शन की एक झलक पाने के लिए उतावली थी।

भारत आकर भी वे चैन से नहीं बैठे और विभिन्न स्थानों पर जा-जा कर रामकृष्ण मठ और रामकृष्ण मिशन की स्थापना करते रहे। मद्रास (चेन्नई), बेलूर, वाराणसी समेत कई शहरों व नगरों में गुरु रामकृष्ण के विचारों, वेदान्त और सनातन संस्कृति की स्थापना एवं प्रचार-प्रसार के उद्देश्य से इन मठों की प्राण-प्रतिष्ठा रखी गयी। विद्यालयों और प्रार्थना भवनों का निर्माण किया गया। भिक्षा और दान-अनुदान पर आश्रित स्वामी विवेकानंद ने दरिद्रनारायण की सेवा को सदैव सर्वोपरि रखा और इस कार्य में अपना सर्वस्व न्योछावर करने से कभी नहीं डिगे। ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए प्रत्येक स्त्री में अपनी माता के दर्शन किए और विलासिता से कोसों दूर रहे। शरीर अनेक रोगों से ग्रसित हो चुका था – मधुमेह, दमा आदि तन खोखला कर रहे थे किन्तु मन का साहस कभी कम न हुआ। बारह वर्षों की यायावरी ने उनके आदर्शों को जन-जन तक पहुँचाने का कार्य अवश्य किया था किन्तु अब उन्हें एक और विवेकानंद की ज़रुरत महसूस होने लगी थी। जनवरी १९०२ में अपने आख़िरी जन्मदिन पर उन्होंने घोषणा कर दी थी कि वे चालीसवाँ साल नहीं देखेंगे और बोधगया से बनारस होते हुए वे वापस बेलूर मठ आ गए । यहीं ४ जुलाई १९०२ को रात्रि ९ बजे उन्होंने अंतिम समाधि ली और इस संसार को एक सोच, एक लक्ष्य देकर सदा के लिए पञ्च तत्व में विलीन हो गए।

उनके मरणोपरांत उनके आदर्शों और सीख को उनके शिष्यों ने ‘कर्मयोग, ज्ञानयोग, ‘राजयोग, ‘प्रेमयोग, तथा ‘भक्तियोग नामक पाँच ग्रंथों में प्रकाशित किया। उनकी आत्मकथा और उनके भाषणों का संग्रह संसार में हर जगह विभिन्न भाषाओं में उपलब्ध है। उनके अनुयायी केवल भारत में ही नहीं अपितु संसार के हर कोने में मौजूद हैं। उनके आदर्श आज भी भूले-भटकों का मार्गदर्शन करते हैं। स्वामी विवेकानंद एक ऐसी सोच है जिसकी आवश्यकता इस धरती पर जब तक जीवन है, रहेगी। मानवता की प्रतिमूर्ति स्वामीजी के लिए कुछ महान् लोगों ने कहा है –

“अगर आप भारत को जानना चाहते हैं तो विवेकानंद को पढ़िए। उनमें सब कुछ सकारात्मक है, नकारात्मक कुछ भी नहीं।” – रवीन्द्रनाथ टैगोर

“यदि स्वामी विवेकानंद जीवित होते तो मैं आज उनके चरणों में बैठा होता।” – सुभाषचंद्र बोस

"स्वामी विवेकानंद संघनित भारत (condensed India) हैं।" - सिस्टर निवेदिता

“एक अकेले स्वामी विवेकानंद का ज्ञान हमारे सभी अमेरिकी प्रोफ़ेसरों के ज्ञान के कुल जोड़ से अधिक है।” – जॉन हेनरी राइट

 

संक्षिप्त जीवन परिचय : स्वामी विवेकानंद

मूल नाम

नरेंद्रनाथ दत्त

पुकारने का नाम

नरेंद्र या नरेन

विश्वविख्यात नाम

स्वामी विवेकानंद (खेतड़ी रियासत के राजा अजीत सिंह द्वारा प्रथम बार संबोधित)

जन्म तिथि

१२ जनवरी १८६३ (प्रातः ६:३० बजे, सूर्योदय से पहले)

प्रतिवर्ष १२ जनवरी को राष्ट्रीय युवा दिवस मनाया जाता है।

जन्म स्थान

कलकत्ता, बंगाल प्रेसीडेंसी, ब्रिटिश भारत

मृत्यु की तारीख

जुलाई १९०२, रात्रि ९:०० बजे

मृत्यु का कारण

मस्तिष्क में रक्त वाहिका का टूटना

मृत्यु की जगह

बेलूर मठ, बंगाल प्रेसीडेंसी, ब्रिटिश भारत

शिक्षा

कला स्नातक (१८७९) साहित्य, दर्शन और इतिहास  

स्कूल

ईश्वर चंद्र विद्यासागर महानगर संस्थान (१८७१)

कॉलेज

प्रेसीडेंसी विश्वविद्यालय (कोलकाता),
महासभा की संस्था (स्कॉटिश चर्च कॉलेज, कोलकाता)

राशि

मकर राशि

नागरिकता

कायस्थ, हिन्दू, भारतीय

पेशा 

भारतीय देशभक्त संत और साधु

पिता का नाम

विश्वनाथ दत्ता

माता का नाम

भुवनेश्वरी देवी

सहोदर

भूपेंद्रनाथ दत्ता (भाई), स्वर्णमयी देवी (बहन)

१८८१

गुरु रामकृष्ण परमहंस से मुलाकात

१८८८

गुरु प्रेरणा से पच्चीस वर्ष की उम्र में संन्यास धारण

जुलाई १८९३

विश्व धर्म संसद में शामिल होने के लिए अमेरिका यात्रा

११ सितम्बर १८९३

सनातन संस्कृति और हिन्दुत्व पर ऐतिहासिक भाषण; यह दिन प्रतिवर्ष विश्व बंधुत्व दिवस के रूप में मनाया जाता है।

२५ मार्च १८९६

वेदान्त दर्शन पर व्याख्यान, हार्वर्ड विश्वविद्यालय

स्थापनाएँ

मई १८९७

रामकृष्ण मिशन, कलकत्ता

९ दिसम्बर १८९८

रामकृष्ण मठ, बेलूर (कलकत्ता के समीप गंगा तट पर)

१८९९

मायावती अद्वैत आश्रम (हिमालय) अंग्रेज़ अनुयायी कैप्टेन सर्वियर और उनकी पत्नी के द्वारा; इसे पूर्वी और पश्चिमी अनुयायियों का सम्मलेन केंद्र बनाया गया।

१८ नवम्बर १८९८

निवेदिता गर्ल्स स्कूल, कलकत्ता

ग्रन्थ रचना

 

कर्मयोग, ज्ञानयोग, राजयोग, प्रेमयोग तथा भक्तियोग

 

स्वामी जी के विचारों और आदर्शों पर कई वेदान्तचारियों, अनुयायियों और साहित्यकारों ने अनेक पुस्तकों की रचना की है।

स्वामी विवेकानंद के अनमोल विचार

·        हम ऐसी शिक्षा चाहते हैं जिससे चरित्र निर्माण हो। मानसिक शक्ति का विकास हो। ज्ञान का विस्तार हो और जिससे हम खुद के पैरों पर खड़े होने में सक्षम बन जाएँ।

·        भारत के युवाओं को अपने देश का इतिहास स्वयं लिखना चाहिए। अंग्रेज़ों ने हमारे इतिहास की व्याख्या अपने अनुसार की है। भारत को आवश्यकता है कि उसके इतिहास को उचित रूप से प्रस्तुत किया जाए।

·        भारत में ग़रीब से ग़रीब के पास धर्म के बारे में उच्चतम विचार होते हैं। उनके भीतर ज़िन्दगी के बारे में बौद्धिक शिक्षा प्राप्त करने की व्यावहारिक इच्छा जगाना हमारा उद्देश्य होना चाहिए।

 सन्दर्भ :

लेखक परिचय :

दीपा लाभ - स्वामी विवेकानंद की परम भक्त और उनके विचारों की संदेशवाहक 

ईमेल - journalistdeepa@gmail.com
व्हाट्सएप - +91 8095809095

9 comments:

  1. दीपा, स्वामी विवेकानंद के अल्प जीवन के असीम कार्यों को तुमने बख़ूबी इस छोटे आलेख में सँजोया है। ऐसे विचारों के धनी ने उसी धरती पर विचरण किया है जिसपर हमने भी, जानकर मन तो गर्वित होता है लेकिन आज की ज़रूरतों के अनुसार कुछ अधिक न कर पाने के कारण क्षोभित भी। निश्चित ही हमारे देश के हालात वे नहीं हैं जिनके लिए विवेकानंद ने आजीवन तपस्या की। विवेकानंद को सादर नमन। तुम्हें इस उत्तम लेख के लिए बधाई और आभार।

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  2. दीपा, आपने स्वामी विवेकानंद जी पर अद्भुत आलेख लिखा है। स्वामी विवेकानंद का व्यक्तित्व आदर्शों और वैचारिक क्रांति का सशक्त उदाहरण है आने वाली कई पीढ़ियों के लिए।
    ऐसे यशस्वी व ओजपूर्ण व्यक्तित्व को सदा सर्वदा सादर नमन। और आपको इस अनुपम लेख के लिए हार्दिक बधाई।

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  3. विनीता काम्बीरी

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  4. मानवता के पर्याय स्वामी विवेकानंद दुनिया भर के लोगों के लिए प्रेरणा हैं। उन्हें सादर नमन। उन पर उम्दा आलेख लिखा है दीपा तुमने। बहते हुए झरने जैसे प्रवाहमय आलेख के लिए तुम्हें बहुत-बहुत बधाई और शुभकामनाएँ। आलेख के साथ-साथ परिचय भी बहुत पसंद आया।

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  5. स्वामी विवेकानंद जी हमारी धरोहर हैं, विरासत हैं।दीपा लाभ जी द्वारा उनपर लिखा गया यह आलेख सार्थक और ज्ञानवर्धक बना है। दीपाजी को इस विश्व गुरु का स्मरण कराने के लिए साधुवाद

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  6. क्या कहें , दीपा जी। जो विवेक भी दे और आनंद भी , जिसे पढ़ना-समझना गूँगे की मिठाई हो , उसका किन शब्दों में वर्णन करें ? जिस साहूकार ने युवावस्था में ही हमें मालमाल कर दिया हो , उसका असीम ख़ज़ाना किन आँखो से दिखाएँ? जिन लोगों ने किशोर- युवा होते हुए स्वामी जी को पढ़ लिया, वह अत्यंत भाग्यशाली हैं।
    उपनिषद का ऐसा सरल, ग्राह्य, सरस विश्लेषण आपको कहीं नहीं मिलेगा। उन्होंने तर्क और विज्ञान को धर्म का मार्ग दिखलाया। बताया कि उपनिषद आपको कर्तव्य से दूर नहीं करते अपितु आपको कर्तव्य निर्वाह के सर्वोत्कृष्ट मार्ग पर ले जाते हैं । सिखाया कि धन की दरिद्रता इतनी भयानक नहीं जितनी मन की , ज्ञान की दरिद्रता होती है। उनके अपने यात्रा संस्मरण “ परिव्राजक” को पढ़कर पता चलता है कि वह रस से कितने सराबोर थे। उनका ज्ञान शुष्क पत्थर का ज्ञान नहीं था , बहते, महकते झरने का ज्ञान था जो पढ़ने-सुनने वाले को उस सुंदर उपवन में ले जाता है जहाँ से कोई वापस आने को तैयार नहीं। सृष्टि के कण-कण में ब्रह्म को देखने वाले, उसे ज्ञान, भक्ति , कर्म , और प्रेम के माध्यम से व्याख्यायित करने वाले इस महान द्रष्टा को सादर नमन।
    आपको सुंदर शब्दों में उनके कृतित्व को आलेख के रूप में प्रस्तुत करने पर हार्दिक बधाई। शुभकामनाएँ। 💐💐

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  7. दीपा जी नमस्ते। आपका एक और अच्छा लेख पढ़ने को मिला। स्वामी विवेकानंद जी को जितना पढ़ा, समझा जाए उतना आनंद मिलता है। लेख पर आई टिप्पणियों ने भी लेख को समृद्ध किया है। आपको इस महत्वपूर्ण लेख के लिए हार्दिक बधाई।

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  8. स्वामी विवेकानंद पर इतना सुंदर विश्लेषक लेख
    के लिए बहुत बधाई एवं साधुवाद ! सरस्वती तुम्हारी लेखनी पर कृपा बनाए रखे !

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  9. मानवता के पर्याय स्वामी विवेकानन्द को जितनी बार पढ़ी जाय कम है , जितनी बार पढ़ती हूँ कुछ नई बात समझ आती है | तुम्हारी लेखनी दिनेंदिन निखर रही है,तुम्हारा लिखा हर आलेख जानकारी के साथ - साथ आनन्द भी देता है।यह लेख मुझे बहुत ही ज्यादा पसंद आया,तुम यूंही लिखा करो ।तुम्हें बहुत - बहुत शुभकामनायें ।

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30साहित्य के अमर दीपस्तंभ : श्री जयशंकर प्रसाद 31ग्रामीण संस्कृति के चितेरे अद्भुत कहानीकार : मिथिलेश्वर          

आचार्य नरेंद्रदेव : भारत में समाजवाद के पितामह

"समाजवाद का सवाल केवल रोटी का सवाल नहीं है। समाजवाद मानव स्वतंत्रता की कुंजी है। समाजवाद ही एक सुखी समाज में संपूर्ण स्वतंत्र मनुष्यत्व...