आदि कवि वाल्मीकि के संबंध में अनेक संदर्भ मिलते हैं जो परस्पर भिन्न हैं, जैसे जन्मकाल, उनका लालन-पालन इत्यादि। ऐसा प्रतीत होता है कि कालांतर में इतिहासकारों ने इन घटनाओं की अलग-अलग व्याख्या की हो। परंतु, यदि सभी घटनाओं को जोड़ दिया जाए, तो वाल्मीकि की ऐसी छवि बनती है जो रोचक, ज्ञानवर्द्धक, रोमांचकारी तो है ही, विस्मयकारी भी है।
वाल्मीकि महर्षि कश्यप और अदिति के नौवें पुत्र वरुण की संतान हैं। इनकी माता का नाम चर्षणी है। इनका जन्म अश्विन पूर्णिमा (शरद पूर्णिमा) को हुआ था। शरद पूर्णिमा के दिन चंद्रमा सोलह कलाओं से युक्त होता है। इनके भाई का नाम महर्षि भृगु था। वरुण का एक नाम प्रचेत भी है। इसलिए इन्हें प्राचेतस नाम से भी उल्लेखित किया जाता है। इनके अन्य नाम त्रिकालदर्शी, भगवान महर्षि, गुरुदेव, ब्रह्मर्षि अग्नि शर्मा हैं। कुछ पौराणिक इतिहासकार इनका वास्तविक नाम रत्नाकर बताते हैं।
एक किंवदंती के अनुसार, बाल्यकाल में रत्नाकर को उनके पिताजी ने समीप के घनघोर जंगल में जाने से मना किया था। परंतु, एक दिन दोस्तों के संग खेलते-खेलते वे जंगल में चले गए। उन्हें वापस लौटने का रास्ता नहीं मिला और वे वहीं बैठकर रोने लगे। इस प्रकार एक बच्चे को अकेला रोते देखकर पास से गुज़र रही एक भीलनी को दया आ गई। वह भीलनी निःसंतान थी और उसने न सिर्फ उस बालक को आश्रय दिया, बल्कि एक पुत्र के समान उसका भली-भांति लालन-पालन भी करने लगी। भीलनी के जीवन-यापन का मुख्य साधन वन्य प्राणियों का आखेट, लूटपाट और डकैती था। रत्नाकर ने बचपन से जो देखा, उसे ही सही मानकर वही सीखा और बड़े होकर वही उसका मुख्य पेशा बन गया - जानवरों का शिकार, लूटपाट और डकैती। वह जीवन-यापन के लिए इन बुरे कामों को ही आय का स्रोत समझता था। योग्य उम्र में डाकू रत्नाकर का विवाह एक भीलनी से कर दिया गया, जिससे उसे कई संतानें हुईं। परिवार बढ़ने के साथ उनके भरण-पोषण के लिए उसकी लूटपाट और बढ़ती जा रही थी।
एक दिन वन से गुज़र रहे मुनिवर नारद उसके कोप का शिकार बन गए और क्रोध में उसने नारद की हत्या की चेष्टा की। नारद ने भी बिना विचलित हुए शांत भाव से रत्नाकर से प्रश्न कर डाला, "जिस परिवार के लिए तुम इतने अपराध करते हो, क्या वह तुम्हारे पापों का भागीदार बनेगा?" इस अप्रत्याशित प्रश्न से रत्नाकर सोच में पड़ गया और नारद को वहीं पेड़ से बाँधकर इस प्रश्न का उत्तर जानने घर की ओर दौड़ा। उसने बारी-बारी से अपनी पत्नी और बच्चों से इस प्रश्न का उत्तर माँगा। उसे यह जानकर घोर आश्चर्य और निराशा हुई, कि जिस परिवार की संपन्नता के लिए वह पाप-कर्म किए जा रहा था, उसका कोई भी सदस्य उसके पापों का बोझ साझा करने के लिए तैयार नहीं था। भारी मन से वन लौटकर उसने नारद मुनि को बंधन मुक्त किया और उनकी चरणों में लेट गया। रत्नाकर को अपने किए पर पछतावा था। नारद ने पश्चाताप स्वरूप उसे राम नाम का जाप करने को कहा। किंतु रत्नाकर राम के नाम का उच्चारण कर सकने में असमर्थ था। यह देखकर नारद जी ने उसे "मरा-मरा" बोलने को कहा, जिसे बोलने में उसे कोई दिक्कत नहीं हुई। कुछ वर्षों में ही वह "राम राम" जपने में सफल हुआ और नारद मुनि की प्रेरणा से अपने सारे दुष्कर्म त्याग कर तपस्या में लीन हो गया। कहते हैं, वे अपनी तपस्या में इस तरह लीन हुए कि उनके स्थूल शरीर पर दीमकों ने घर बना लिया और उनका समूचा शरीर रेत के टीले के समान दीमकों से ढक गया। तपस्या पूरी कर जब वे दीमकों के घर, जिसे वाल्मीकि कहा जाता है, से बाहर निकले तो उन्हें वाल्मीकि नाम से पुकारा जाने लगा।
इस कथा की सच्चाई पर कितना भरोसा किया जाये, यह तो पाठक तय करें। किन्तु, यदि ऐसा हुआ होगा तो राम नाम की महानता का इससे बड़ा और क्या प्रमाण हो सकता है कि जिनका नाम ही मन के सारे द्वेष मिटाकर ऋषितुल्य बना दे।
एक दिन वन से गुज़र रहे मुनिवर नारद उसके कोप का शिकार बन गए और क्रोध में उसने नारद की हत्या की चेष्टा की। नारद ने भी बिना विचलित हुए शांत भाव से रत्नाकर से प्रश्न कर डाला, "जिस परिवार के लिए तुम इतने अपराध करते हो, क्या वह तुम्हारे पापों का भागीदार बनेगा?" इस अप्रत्याशित प्रश्न से रत्नाकर सोच में पड़ गया और नारद को वहीं पेड़ से बाँधकर इस प्रश्न का उत्तर जानने घर की ओर दौड़ा। उसने बारी-बारी से अपनी पत्नी और बच्चों से इस प्रश्न का उत्तर माँगा। उसे यह जानकर घोर आश्चर्य और निराशा हुई, कि जिस परिवार की संपन्नता के लिए वह पाप-कर्म किए जा रहा था, उसका कोई भी सदस्य उसके पापों का बोझ साझा करने के लिए तैयार नहीं था। भारी मन से वन लौटकर उसने नारद मुनि को बंधन मुक्त किया और उनकी चरणों में लेट गया। रत्नाकर को अपने किए पर पछतावा था। नारद ने पश्चाताप स्वरूप उसे राम नाम का जाप करने को कहा। किंतु रत्नाकर राम के नाम का उच्चारण कर सकने में असमर्थ था। यह देखकर नारद जी ने उसे "मरा-मरा" बोलने को कहा, जिसे बोलने में उसे कोई दिक्कत नहीं हुई। कुछ वर्षों में ही वह "राम राम" जपने में सफल हुआ और नारद मुनि की प्रेरणा से अपने सारे दुष्कर्म त्याग कर तपस्या में लीन हो गया। कहते हैं, वे अपनी तपस्या में इस तरह लीन हुए कि उनके स्थूल शरीर पर दीमकों ने घर बना लिया और उनका समूचा शरीर रेत के टीले के समान दीमकों से ढक गया। तपस्या पूरी कर जब वे दीमकों के घर, जिसे वाल्मीकि कहा जाता है, से बाहर निकले तो उन्हें वाल्मीकि नाम से पुकारा जाने लगा।
इस कथा की सच्चाई पर कितना भरोसा किया जाये, यह तो पाठक तय करें। किन्तु, यदि ऐसा हुआ होगा तो राम नाम की महानता का इससे बड़ा और क्या प्रमाण हो सकता है कि जिनका नाम ही मन के सारे द्वेष मिटाकर ऋषितुल्य बना दे।
वाल्मीकि आश्रम:
ऋषि वाल्मीकि वैदिक काल के महान ऋषि बताए जाते हैं। धार्मिक ग्रंथों एवं पुराणों के अनुसार वाल्मीकि ने कठोर तप अनुष्ठान सिद्ध कर महर्षि पद प्राप्त किया था। भारत के पड़ोसी देश नेपाल के वागमती राज्य स्थित चितवन नैशनल पार्क में वाल्मीकि आश्रम अवस्थित है। यह त्रिवेणी धाम के समीप है, जहाँ तमसा, सोमा, एवं सप्त गंडकी नदियों का संगम है। यहाँ राम, सीता एवं वाल्मीकि की पूजा की जाती है। रामनवमी के समय यह स्थान सुंदर दर्शनीय स्थल में परिवर्तित हो जाता है।
कुछ धर्मावलंबियों का मत है कि महर्षि वाल्मीकि आश्रम विठुर में स्थापित है। विठूर, कानपुर (उत्तरप्रदेश) के पश्चिमोत्तर दिशा में २७ किलोमीटर दूर स्थित एक छोटा सा स्थान है। महर्षि वाल्मीकि की तपोभूमि विठूर को प्राचीन काल में ब्रह्मावर्त नाम से जाना जाता था। यह गंगा किनारे बसा हुआ एक नगर है। इस स्थान से जुड़ी हुई अनेक कथाएँ एवं किंवदंतियाँ हैं। जैसे, अपनी तपस्या पूरी करने के बाद, यहीं पर महर्षि वाल्मीकि ने पौराणिक ग्रंथ "रामायण" की रचना की थी। साथ ही, राम द्वारा त्यागे जाने के बाद सीता यहीं रहने लगी थीं। इसी आश्रम में सीता ने लव-कुश नामक दो पुत्रों को जन्म दिया। लव, कुश का लालन पालन, प्रारंभिक शिक्षा इसी आश्रम में हुई थी। यह आश्रम थोड़ी ऊँचाई पर है, जहाँ पहुँचने के लिए सीढ़ियाँ बनी हुई हैं।
काल का अंतर - महर्षि वाल्मीकि ने रामायण की रचना प्रभु के जीवन काल, अर्थात त्रेतायुग में की थी, जबकि गोस्वामी तुलसीदास ने राम चरित मानस को कलियुग में लिखा था।
भाषा में अंतर - महर्षि वाल्मीकि ने रामायण को संस्कृत भाषा में लिखा था, जबकि तुलसीकृत रामचरित मानस की भाषा के बारे में विभिन्न मत हैं। कुछ लोग इसे अवधी मानते हैं तो कुछ भोजपुरी। वहीं कुछ लोग मानस की भाषा को अवधी और भोजपुरी की मिश्रित भाषा मानते हैं, तो कुछ लोग बुंदेली।
कथा के आधार में अंतर - महर्षि वाल्मीकि जी ने श्री राम के जीवन को प्रत्यक्ष देखा था। उनकी कथा का आधार स्वयं राम का जीवन था। जबकि तुलसीदास जी ने रामायण सहित अन्य कई राम-कथाओं को आधार बनाकर रामचरित मानस की रचना की थी।
लोकप्रियता - वर्तमान में वाल्मीकि कृत रामायण को पढ़ना एवं समझना कठिन है, क्योंकि उसकी भाषा संस्कृत है, जबकि रामचरितमानस को वर्तमान की आम बोलचाल की भाषा में लिखा गया है। आम जन की भाषा होने के कारण रामचरितमानस का पाठ अधिकांश घरों में प्रचलित, और यह अपेक्षाकृत ज्यादा लोकप्रिय है।
रामायण में सात कांड या अध्याय हैं - तुलसीदास कृत मानस में युद्ध कांड को लंका कांड कहा गया है। शेष छः कांड समान हैं - बाल कांड, आयोध्या कांड, अरण्य कांड, किष्किंधा कांड, सुंदर कांड, एवं उत्तर कांड।
राजा दशरथ की पत्नी - रामायण के अनुसार राजा दशरथ की ३५० रानियाँ थीं, जिनमें ३ प्रमुख पत्नियाँ थीं - कौशल्या, सुमित्रा एवं कैकेयी, जबकि रामचरितमानस के अनुसार राजा दशरथ की तीन ही पत्नियाँ थीं।
राम भक्त हनुमान - रामायण में भक्त हनुमान को एक मानव के रूप में जो वानर जनजाति का था, कहा गया है, जबकि रामचरित मानस में भगवान हनुमान को बंदर के रूप में प्रस्तुत किया गया है।
श्लोक और चौपाई - रामायण को संस्कृत काव्य की भाषा में लिखा गया, जिसमें सर्ग और श्लोक होते हैं, जबकि रामचरितमानस के दोहों-चौपाइयों की संख्या अधिक है। रामायण में २४००० श्लोक, ५०० सर्ग तथा ७ कांड हैं, जबकि रामचरितमानस में २७ श्लोक, ४६०८ चौपाई, १०७४ दोहे, २०७ सोरठा और ८६ छंद हैं।
सीता का अपहरण - रामायण के अनुसार, रावण ने वास्तविक सीता का अपहरण किया था, जबकि रामचरितमानस के अनुसार वास्तविक सीता का कभी अपहरण हुआ ही नहीं था। जिस सीता का अपहरण बताया गया, वह वास्तविक सीता का प्रतिरूप (क्लोन) था। वास्तविक सीता को भगवान राम द्वारा अग्निदेव के पास छिपा दिया गया था।
भगवान राम की जल समाधि - रामायण के अनुसार जब माँ सीता पृथ्वी में समा गईं और भ्राता लक्ष्मण सरयू नदी में समा गए, तो भगवान राम ने सरयू नदी में जल समाधि ले ली थी। जबकि तुलसीदास जी ने लक्ष्मण की मृत्यु या सीता के पृथ्वी में समाने की किसी घटना का ज़िक्र ही नहीं किया है।
कुछ धर्मावलंबियों का मत है कि महर्षि वाल्मीकि आश्रम विठुर में स्थापित है। विठूर, कानपुर (उत्तरप्रदेश) के पश्चिमोत्तर दिशा में २७ किलोमीटर दूर स्थित एक छोटा सा स्थान है। महर्षि वाल्मीकि की तपोभूमि विठूर को प्राचीन काल में ब्रह्मावर्त नाम से जाना जाता था। यह गंगा किनारे बसा हुआ एक नगर है। इस स्थान से जुड़ी हुई अनेक कथाएँ एवं किंवदंतियाँ हैं। जैसे, अपनी तपस्या पूरी करने के बाद, यहीं पर महर्षि वाल्मीकि ने पौराणिक ग्रंथ "रामायण" की रचना की थी। साथ ही, राम द्वारा त्यागे जाने के बाद सीता यहीं रहने लगी थीं। इसी आश्रम में सीता ने लव-कुश नामक दो पुत्रों को जन्म दिया। लव, कुश का लालन पालन, प्रारंभिक शिक्षा इसी आश्रम में हुई थी। यह आश्रम थोड़ी ऊँचाई पर है, जहाँ पहुँचने के लिए सीढ़ियाँ बनी हुई हैं।
रामायण की प्रेरणा
ऐसी मान्यता है कि एक बार वाल्मीकि अपने शिष्य भारद्वाज के साथ स्नान करने के लिए तमसा नदी जा रहे थे। मार्ग में एक नदी किनारे क्रौंच (सारस) का जोड़ा प्रेमालाप में लीन दिखा, जिसे वे निहारने लगे। तभी एक बहेलिए ने उस जोड़े के नर पक्षी का वध कर दिया और मादा विलाप में तड़प-तड़प कर वहीं मर गई। यह दृश्य देखकर वाल्मीकि द्रवित हो गए और उनकी करुणा जाग उठी। द्रवित अवस्था में स्वतः ही उनके मुख से यह श्लोक फूट पड़ा -
मा निषाद प्रतिष्ठां त्वंगमः शाश्वतीः समाः।
यत्क्रौंचमिथुनादेकं वधीः काममोहितम्॥
(अर्थात हे दुष्ट, तुमने प्रेम में मग्न कामरत क्रौंच पक्षी को मारा है। जा तुझे कभी भी प्रतिष्ठा की प्राप्ति नहीं हो पाएगी और तुझे भी वियोग सहना पड़ेगा।)
जब महर्षि वाल्मीकि उक्त श्लोक के चिंतन में ध्यान मग्न थे, उसी क्षण प्रजापिता सृष्टि रचयिता ब्रह्मा जी वाल्मीकि के आश्रम आ पहुँचे। मुनिश्रेष्ठ ने उनका अभिवादन और सत्कार किया, तब ब्रह्माजी ने कहा, "हे मुनिवर, विधाता की इच्छा से ही माँ सरस्वती आपकी जिह्वा पर श्लोक बनकर प्रकट हुईं हैं। इसीलिए आप इसी में रघुवंशी श्री रामचंद्र जी के जीवन चरित की रचना करें। ब्रह्मा जी ने वाल्मीकि को आशीर्वचन देते हुए कहा, "जबतक इस पृथ्वी पर पहाड़ और नदियाँ रहेंगी, तबतक यह रामायण कथा समस्त जनों द्वारा गाई और सुनाई जाएगी।"
ब्रह्माजी के आशीर्वचन सुनकर महर्षि वाल्मीकि ने संकल्प लिया कि रामायण की रचना छंदों में ही करेंगे और ध्यान मग्न होकर बैठ गए। अपनी योग-साधना एवं तपोबल के प्रभाव से वाल्मीकि ने मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम, माता सीता एवं अन्य पात्रों के जीवन चरित्र को प्रत्यक्ष देखते हुए रामायण महाकाव्य की रचना की।
ऐतिहासिक तथ्यों के मतानुसार, आदि कवि वाल्मीकि कृत 'रामायण' जगत का प्रथम काव्य था। उन्होंने इस महाकाव्य की रचना संस्कृत भाषा में की थी। इस महाकाव्य में कवि 'राम' के माध्यम से समाज को सत्य व कर्त्तव्य से परिचित करवाता है। वाल्मीकि रचित रामायण में दर्शन, राजनीति, नैतिकता, शासन, आत्मानुशासन, खगोलशास्त्र एवं मनोविज्ञान का विषद वर्णन होना सिद्ध करता है कि वाल्मीकि विविध विषयों के ज्ञाता तथा प्रकांड पंडित थे।
वाल्मीकि द्वारा रचित रामायण में पितृभक्ति, भ्रातृप्रेम, पतिव्रत धर्म, आज्ञापालन, प्रतिज्ञापूर्ति तथा सत्य परायणता का संदेश है। इस महाकाव्य की रचना कर आदिकवि वाल्मीकि ने अमरत्व प्राप्त कर लिया। रामायण में अनेक घटनाओं के वर्णन में सूर्य, चंद्रमा तथा अन्य नक्षत्रों की स्थितियों का उल्लेख है, जिससे परिलक्षित होता है कि उन्हें ज्योतिष विद्या तथा खगोल विद्या का भी प्रचुर ज्ञान था।
वाल्मीकि रामायण में चौबीस हज़ार श्लोक हैं, जिसके एक हज़ार श्लोकों के बाद गायत्री मंत्र के एक अक्षर का 'संपुट' लगा हुआ है। इसमें सात कांड - बाल कांड, अयोध्याकांड, अरण्यकांड, किष्किंधाकांड, सुंदरकांड, युद्धकांड/लंकाकांड, एवं उत्तर कांड हैं। इसमें सौ उपाख्यान व पाँच सौ सर्ग हैं, जो अनुष्टुप छंद में हैं। महर्षि वाल्मीकि ने जीवन से जुड़े सभी पहलुओं को रामायण के विभिन्न पात्रों के चरित्रों द्वारा साकार करके समझाया है। नायक श्रीराम के माध्यम से उन्होंने गृहस्थ धर्म, राज-धर्म तथा प्रजा-धर्म बड़े ही विलक्षण ढंग से समझाया है। रामायण आत्मसंयम, आदर्श परिवार तथा मर्यादित समाज निर्माण की प्रेरणा देता है। इसमें अवतारी पुरुष होते हुए भी, श्रीराम कभी अपनी मर्यादा का उल्लंघन नहीं करते; शक्ति-संपन्न होते हुए भी कभी अपनी शक्तियों का दुरुपयोग नहीं करते। सामर्थ्य होते हुए भी राक्षस सेना से लड़ने के लिए उन्होंने छोटे-छोटे वानरों तथा भालू की सेना का सहयोग लिया। समुद्र पार करने के लिए उन्होंने तीन दिनों तक समुद्र से याचना की, जबकि उनकी तरकश में ऐसे बाण थे, जो पल में समुद्र को सुखा सकते थे। किंतु मर्यादा का मान रखते हुए युद्ध में प्रत्येक सिपाही का महत्त्व समझाया और समुद्र की गरिमा को भी अक्षुण्ण रखा।
वनवास काल की अवधि में भगवान राम वाल्मीकि आश्रम भी गए थे। सतयुग, द्वापरयुग और त्रेतायुग - तीनों कालों में वाल्मीकि का उल्लेख मिलता है। इसीलिए इन्हें सृष्टिकर्ता भी कहते हैं। तुलसीदास कृत रामचरितमानस में यह प्रसंग आया है कि वाल्मीकि आश्रम पहुँचकर श्रीराम ने वाल्मीकि को दण्डवत प्रणाम किया था और उनके मुख से निकला था,
सीताजी ने अपने वनवास का कुछ काल वाल्मीकि आश्रम में व्यतीत किया और यहीं रहते हुए लव-कुश का जन्म हुआ था। महाभारत काल में भी वाल्मीकि का ज़िक्र आता है। जब पांडव कौरवों से युद्ध जीत जाते हैं, तब द्रौपदी को यज्ञ करने की सलाह दी जाती है। यज्ञ की सफलता के लिए शंख का बजना आवश्यक था। परंतु, कृष्ण सहित सभी द्वारा प्रयास करने पर भी यज्ञ सफल नहीं होता है। अंत में, कृष्ण के सुझाव पर सभी वाल्मीकि से प्रार्थना करते हैं और वाल्मीकि प्रत्यक्ष प्रकट हो जाते हैं। वाल्मीकि के आने से शंख स्वयं बज उठता है और इस तरह द्रौपदी का यज्ञ सफल हो पाता है।
रामायण और रामचरितमानस का अंतर
जब महर्षि वाल्मीकि उक्त श्लोक के चिंतन में ध्यान मग्न थे, उसी क्षण प्रजापिता सृष्टि रचयिता ब्रह्मा जी वाल्मीकि के आश्रम आ पहुँचे। मुनिश्रेष्ठ ने उनका अभिवादन और सत्कार किया, तब ब्रह्माजी ने कहा, "हे मुनिवर, विधाता की इच्छा से ही माँ सरस्वती आपकी जिह्वा पर श्लोक बनकर प्रकट हुईं हैं। इसीलिए आप इसी में रघुवंशी श्री रामचंद्र जी के जीवन चरित की रचना करें। ब्रह्मा जी ने वाल्मीकि को आशीर्वचन देते हुए कहा, "जबतक इस पृथ्वी पर पहाड़ और नदियाँ रहेंगी, तबतक यह रामायण कथा समस्त जनों द्वारा गाई और सुनाई जाएगी।"
न ते वागनृता काव्ये काचिदत्र भविष्यति।
(ऐसा काव्य ग्रंथ न तो पहले कभी हुआ है और न ही भविष्य में कभी होगा।)
ब्रह्माजी के आशीर्वचन सुनकर महर्षि वाल्मीकि ने संकल्प लिया कि रामायण की रचना छंदों में ही करेंगे और ध्यान मग्न होकर बैठ गए। अपनी योग-साधना एवं तपोबल के प्रभाव से वाल्मीकि ने मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम, माता सीता एवं अन्य पात्रों के जीवन चरित्र को प्रत्यक्ष देखते हुए रामायण महाकाव्य की रचना की।
ऐतिहासिक तथ्यों के मतानुसार, आदि कवि वाल्मीकि कृत 'रामायण' जगत का प्रथम काव्य था। उन्होंने इस महाकाव्य की रचना संस्कृत भाषा में की थी। इस महाकाव्य में कवि 'राम' के माध्यम से समाज को सत्य व कर्त्तव्य से परिचित करवाता है। वाल्मीकि रचित रामायण में दर्शन, राजनीति, नैतिकता, शासन, आत्मानुशासन, खगोलशास्त्र एवं मनोविज्ञान का विषद वर्णन होना सिद्ध करता है कि वाल्मीकि विविध विषयों के ज्ञाता तथा प्रकांड पंडित थे।
वाल्मीकि द्वारा रचित रामायण में पितृभक्ति, भ्रातृप्रेम, पतिव्रत धर्म, आज्ञापालन, प्रतिज्ञापूर्ति तथा सत्य परायणता का संदेश है। इस महाकाव्य की रचना कर आदिकवि वाल्मीकि ने अमरत्व प्राप्त कर लिया। रामायण में अनेक घटनाओं के वर्णन में सूर्य, चंद्रमा तथा अन्य नक्षत्रों की स्थितियों का उल्लेख है, जिससे परिलक्षित होता है कि उन्हें ज्योतिष विद्या तथा खगोल विद्या का भी प्रचुर ज्ञान था।
वाल्मीकि रामायण में चौबीस हज़ार श्लोक हैं, जिसके एक हज़ार श्लोकों के बाद गायत्री मंत्र के एक अक्षर का 'संपुट' लगा हुआ है। इसमें सात कांड - बाल कांड, अयोध्याकांड, अरण्यकांड, किष्किंधाकांड, सुंदरकांड, युद्धकांड/लंकाकांड, एवं उत्तर कांड हैं। इसमें सौ उपाख्यान व पाँच सौ सर्ग हैं, जो अनुष्टुप छंद में हैं। महर्षि वाल्मीकि ने जीवन से जुड़े सभी पहलुओं को रामायण के विभिन्न पात्रों के चरित्रों द्वारा साकार करके समझाया है। नायक श्रीराम के माध्यम से उन्होंने गृहस्थ धर्म, राज-धर्म तथा प्रजा-धर्म बड़े ही विलक्षण ढंग से समझाया है। रामायण आत्मसंयम, आदर्श परिवार तथा मर्यादित समाज निर्माण की प्रेरणा देता है। इसमें अवतारी पुरुष होते हुए भी, श्रीराम कभी अपनी मर्यादा का उल्लंघन नहीं करते; शक्ति-संपन्न होते हुए भी कभी अपनी शक्तियों का दुरुपयोग नहीं करते। सामर्थ्य होते हुए भी राक्षस सेना से लड़ने के लिए उन्होंने छोटे-छोटे वानरों तथा भालू की सेना का सहयोग लिया। समुद्र पार करने के लिए उन्होंने तीन दिनों तक समुद्र से याचना की, जबकि उनकी तरकश में ऐसे बाण थे, जो पल में समुद्र को सुखा सकते थे। किंतु मर्यादा का मान रखते हुए युद्ध में प्रत्येक सिपाही का महत्त्व समझाया और समुद्र की गरिमा को भी अक्षुण्ण रखा।
वनवास काल की अवधि में भगवान राम वाल्मीकि आश्रम भी गए थे। सतयुग, द्वापरयुग और त्रेतायुग - तीनों कालों में वाल्मीकि का उल्लेख मिलता है। इसीलिए इन्हें सृष्टिकर्ता भी कहते हैं। तुलसीदास कृत रामचरितमानस में यह प्रसंग आया है कि वाल्मीकि आश्रम पहुँचकर श्रीराम ने वाल्मीकि को दण्डवत प्रणाम किया था और उनके मुख से निकला था,
तुम त्रिकालदर्शी मुनिनाथा, विश्व बिद्र जिमि तुमरे हाथा।'
(अर्थात आप तीनों लोकों को जानने वाले स्वयं प्रभु हो। ये संसार आपके हाथ में एक बेर के समान प्रतीत होता है।)सीताजी ने अपने वनवास का कुछ काल वाल्मीकि आश्रम में व्यतीत किया और यहीं रहते हुए लव-कुश का जन्म हुआ था। महाभारत काल में भी वाल्मीकि का ज़िक्र आता है। जब पांडव कौरवों से युद्ध जीत जाते हैं, तब द्रौपदी को यज्ञ करने की सलाह दी जाती है। यज्ञ की सफलता के लिए शंख का बजना आवश्यक था। परंतु, कृष्ण सहित सभी द्वारा प्रयास करने पर भी यज्ञ सफल नहीं होता है। अंत में, कृष्ण के सुझाव पर सभी वाल्मीकि से प्रार्थना करते हैं और वाल्मीकि प्रत्यक्ष प्रकट हो जाते हैं। वाल्मीकि के आने से शंख स्वयं बज उठता है और इस तरह द्रौपदी का यज्ञ सफल हो पाता है।
रामायण और रामचरितमानस का अंतर
यद्यपि महर्षि वाल्मीकि एवं संत तुलसीदास ने भगवान राम के ही चरित्र और महिमा की गाथा रामायण एवं रामचरितमानस में की है, परंतु दोनों ही ग्रंथों में अनेक अंतर मिलते हैं -
काल का अंतर - महर्षि वाल्मीकि ने रामायण की रचना प्रभु के जीवन काल, अर्थात त्रेतायुग में की थी, जबकि गोस्वामी तुलसीदास ने राम चरित मानस को कलियुग में लिखा था।
भाषा में अंतर - महर्षि वाल्मीकि ने रामायण को संस्कृत भाषा में लिखा था, जबकि तुलसीकृत रामचरित मानस की भाषा के बारे में विभिन्न मत हैं। कुछ लोग इसे अवधी मानते हैं तो कुछ भोजपुरी। वहीं कुछ लोग मानस की भाषा को अवधी और भोजपुरी की मिश्रित भाषा मानते हैं, तो कुछ लोग बुंदेली।
कथा के आधार में अंतर - महर्षि वाल्मीकि जी ने श्री राम के जीवन को प्रत्यक्ष देखा था। उनकी कथा का आधार स्वयं राम का जीवन था। जबकि तुलसीदास जी ने रामायण सहित अन्य कई राम-कथाओं को आधार बनाकर रामचरित मानस की रचना की थी।
लोकप्रियता - वर्तमान में वाल्मीकि कृत रामायण को पढ़ना एवं समझना कठिन है, क्योंकि उसकी भाषा संस्कृत है, जबकि रामचरितमानस को वर्तमान की आम बोलचाल की भाषा में लिखा गया है। आम जन की भाषा होने के कारण रामचरितमानस का पाठ अधिकांश घरों में प्रचलित, और यह अपेक्षाकृत ज्यादा लोकप्रिय है।
रामायण में सात कांड या अध्याय हैं - तुलसीदास कृत मानस में युद्ध कांड को लंका कांड कहा गया है। शेष छः कांड समान हैं - बाल कांड, आयोध्या कांड, अरण्य कांड, किष्किंधा कांड, सुंदर कांड, एवं उत्तर कांड।
राजा दशरथ की पत्नी - रामायण के अनुसार राजा दशरथ की ३५० रानियाँ थीं, जिनमें ३ प्रमुख पत्नियाँ थीं - कौशल्या, सुमित्रा एवं कैकेयी, जबकि रामचरितमानस के अनुसार राजा दशरथ की तीन ही पत्नियाँ थीं।
राम भक्त हनुमान - रामायण में भक्त हनुमान को एक मानव के रूप में जो वानर जनजाति का था, कहा गया है, जबकि रामचरित मानस में भगवान हनुमान को बंदर के रूप में प्रस्तुत किया गया है।
श्लोक और चौपाई - रामायण को संस्कृत काव्य की भाषा में लिखा गया, जिसमें सर्ग और श्लोक होते हैं, जबकि रामचरितमानस के दोहों-चौपाइयों की संख्या अधिक है। रामायण में २४००० श्लोक, ५०० सर्ग तथा ७ कांड हैं, जबकि रामचरितमानस में २७ श्लोक, ४६०८ चौपाई, १०७४ दोहे, २०७ सोरठा और ८६ छंद हैं।
सीता का अपहरण - रामायण के अनुसार, रावण ने वास्तविक सीता का अपहरण किया था, जबकि रामचरितमानस के अनुसार वास्तविक सीता का कभी अपहरण हुआ ही नहीं था। जिस सीता का अपहरण बताया गया, वह वास्तविक सीता का प्रतिरूप (क्लोन) था। वास्तविक सीता को भगवान राम द्वारा अग्निदेव के पास छिपा दिया गया था।
भगवान राम की जल समाधि - रामायण के अनुसार जब माँ सीता पृथ्वी में समा गईं और भ्राता लक्ष्मण सरयू नदी में समा गए, तो भगवान राम ने सरयू नदी में जल समाधि ले ली थी। जबकि तुलसीदास जी ने लक्ष्मण की मृत्यु या सीता के पृथ्वी में समाने की किसी घटना का ज़िक्र ही नहीं किया है।
रामायण की प्रासंगिकता - वाल्मीकि रामायण के सभी पात्र यथा राम, लक्ष्मण, कौशल्या, कैकेयी आदि मानव गुण और अवगुण से युक्त हैं। रामायण राम के जीवन काल में रची गाथा है, अतः सत्य के करीब होन तर्कसंगत प्रतीत होता है, जबकि रामचरितमानस कई वर्षों बाद अनेकों बार अनेकों मुख से कही-सुनी बातों पर आधारित है।
महाकाव्य रामायण के अतिरिक्त, महर्षि वाल्मीकि ने "योग वशिष्ठ" नामक ग्रंथ की भी रचना की, जिसमें विभिन्न दार्शनिक विषयों की चर्चा की गई है।
संदर्भ
- हजारीप्रसाद द्विवेदी ग्रंथावली, राजकमल प्रकाशन
- “WasRamborninAyodhya?” MumbaiMirror [देवदत्त पटनायक/8 अगस्त २०२०]
- वाल्मीकि जयंती २०२१ [SANews चैनल] (अंग्रेज़ी में) १८-१०-२०२१ को प्रसारित
- सहरिया-२००९, प्रकाशन- वन्या, आदिम जाति कल्याण विभाग
- महाभारत में रामायण की रामकथा, अनिरुद्ध जोशी [hindiwebduniya,com] [१८-१०-२०२१]
- मुक्त ज्ञानकोष विकिपीडिया से
- नेपाल प्रेस रिपोर्ट, १९७३
- वाल्मीकि अ वेवास्ता [ekantipur.com (इन नेपाल)]
- www.hindivibhag.com
लेखक परिचय
दिनेश कुमार
भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी। नाटकों एवं कवि सम्मेलनों को देखने में सत्तर के दशक से ही दिलचस्पी रही है। कार्य के बीच भी गाहे-ब-गाहे इन्हें देखने/ सुनने का अवसर निकालते रहे हैं। हास्य-व्यंग्य की रचनाओं को पढ़ने/ सुनने के शौकीन हैं। अख़बारों व पत्र-पत्रिकाओं को बादस्तूर पढ़ते रहे हैं। समसामयिक मुद्दों पर पैनी नज़र, समाजसेवा में रूचि। दैनिक जागरण, पटना के वरिष्ठ नागरिकों के समूह "बागवान" के सक्रिय सदस्य हैं।
बहुत सुंदर आलेख है। मुझे कई नयी जानकरियाँ मिली जिससे मैं पहले अवगत नहीं था। धन्यवाद एवं शुभकामनाएँ 🙏🏻
ReplyDeleteधन्यवाद !
Deleteबहुत ही प्रामाणिक तथ्यों सहित लिखित आलेख पढ़कर आज के दिन की शुरुआत हो रही है। ऐसा अवसर देने के लिए आदरणीय को शुभकामनाएं!
ReplyDeleteअनुगृहित हूं !
Deleteरोचक और तथ्यात्मक आलेख हेतु बहुत बहुत बधाई ।ये सफर यूं ही चलता रहे ।शुभकामनाएं
ReplyDeleteअरुण लाल दास ।
आभार एवं धन्यवाद !
Deleteबहुत बहुत बधाई दिनेश कुमार जी! बहुत ही शोधपरक, रोचक और ज्ञानवर्धक आलेख लिखा है। साधुवाद।
ReplyDeleteअनुगृहीत हूं !
Deleteबहुत सशक्त लेख।
ReplyDeleteसाधुवाद!
आभार एवं धन्यवाद !
Deleteउलटा नाम जपत जग जाना। बाल्मीकि भए ब्रह्म समाना।। सराहनीय,संग्रहणीय एवम अभिनंदनीय लेख हेतु आदरणीय दिनेश जी को अभिवादन।
ReplyDeleteआभार एवं धन्यवाद !
Deleteबहुत अध्ययन पूर्वक लिखा गया है।छात्रों के लिए भी उपयुक्त रहा है।
ReplyDeleteआभार एवं धन्यवाद !
Deleteआदरणीय दिनेश जी, आपने आदि कवि वाल्मीकि जी पर बहुत अच्छा लेख लिखा है। बहुत सारी जानकारी को अपने इस लेख में समेटा। इस शोधपरख एवं रोचक लेख के लिए आपको हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteआभार !
Deleteआदिकवि महर्षि वाल्मीकि जी को कौन नही जानता? परंतु आज आदरणीय दिनेश कुमार जी के द्वारा लिखे सुंदर और शिक्षाप्रद आलेख को पढ़कर उन्हें और जानने की इच्छा जागृत हुई है। कुछ नए शब्दों का वास्तविकता से समीकरण हुआ है जैसे चर्षणी,आखेट, क्रोंच, बहेलिए इत्यादि। आपने वैदिक काल के महान ऋषि की जीवन घटना और उनके साहित्य को अति रचनात्मक ढंग से प्रस्थापित किया है। आपकी शोधपरख विस्तृत रचना के लिए अधिकाधिक आभार और विनम्र अभिवादन।
ReplyDeleteप्रोत्साहन से ओतप्रोत उद्गारों के लिए अनुगृहित हूं !
Deleteबहुत सुंदर आलेख, लेखक दिनेश कुमार जी ने सतर्क प्रयास किया है।
ReplyDeleteआभार !
Deleteदिनेश जी,आपका बहुत - बहुत आभार कि आपने रामायण के रचियता महर्षि वाल्मीकि के जीवन से जुड़ी रोचक वास्तविकता से हमें अवगत कराया।
ReplyDeleteसाधुवाद!
आभार एवं धन्यवाद !
Deleteदिनेश जी, विश्व के प्रथम काव्य-ग्रन्थ रचयिता और विभिन्न किवदंतियों से घिरे रहने वाले महर्षि वाल्मीकि का सजीव चित्रण आपने अपने आलेख में किया है। रामायण और रामचरितमानस की तथ्याधारित तुलना भी अनुपम हैं। जानकारीपूर्ण और रोचक लेख के लिए आपको बहुत बधाई और आपका आभार।
ReplyDeleteआलेख आपको अच्छा लगा, जानकर संतुष्ट हूं !
Deleteकवि वाल्मीकि के बारे में हम सब भारतीय बचपन से सुनते और पढ़ते आ रहें हैं। दिनेश जी, आपके आलेख से उनके बारे में कई नई रोचक जानकारियाँ मिली। इसके लिए आपको धन्यवाद।
ReplyDeleteआभार
Deleteज्ञानवर्धक लेख , साधुवाद!
ReplyDeleteआभार एवं धन्यवाद !
Deleteदिनेश सर 🙏🏽🙏🏽🙏🏽 मैं आपकी लेखनी से अभिभूत हूँ !! मुझे नही पता था कि मेरे मित्र मंडली में ऐसे महान ब्यक्तित्व भी हैं !!!
ReplyDeleteआपका आभार एवं धन्यवाद !
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