Thursday, July 14, 2022

बाबू श्यामसुन्दर दास : द्विवेदी-युग के प्रमुख निबन्धकार

          

   

मातृभाषा  के प्रचारक विमल बी.ए.पास।

सौम्य शील-निधान बाबू श्यामसुन्दर दास।।


द्विवेदी जी इन पंक्तियों के परिप्रेक्ष्य में कहें कि बाबू श्यामसुंदर दास हिन्दी को न केवल भाषा की दृष्टि से, बल्कि साहित्य की दृष्टि से स्वावलंबी बनाना चाहते थे और इसके लिए उन्होंने 'काशी नागरी प्रचारिणी सभा' के माध्यम से हिंदी जानने वाले जनमानस के ही नहीं, पूरे राष्ट्र के हृदय में हिन्दी-प्रेम को अंकुरित किया। इसकी नींव उन्होंने १८९३ में अपने छात्र-जीवन में ही अपने मित्रों के सहयोग से रखी थी। हिन्दी की वर्तमान प्रगति के सूत्रधार में बाबू श्यामसुंदर दास का नाम विशेष परिणित है। उनका जन्म काशी के एक धनाड्य वैश्य परिवार में १४ जुलाई १८७५ ई को हुआ था। उनके पूर्वज लाहौर के निवासी थे जो वहाँ से आकर काशी में बस गए थे और कपड़े का व्यापार करते थे। उनके पिता का नाम लाला देवीदास खत्री था।

बनारस के क्वीन्स कालेज से १८९६ में इन्होंने बी.ए.उत्तीर्ण किया। १८९९ ई में वे सेंट्रल हिन्दू स्कूल में अध्यापक नियुक्त हुए। १९०९ जम्मू महाराज के स्टेट ऑफिस में काम करने लगे, जहाँ वे दो वर्ष रहे। १९१३ से १९२१ तक वे लखनऊ के कालीचरण हाई स्कूल में हेडमास्टर रहे। उनके अटूट लगन और सदप्रयास से विद्यालय की अच्छी उन्नति हुई। सन् '२१ में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग खुल जाने के पश्चात् उन्हें अध्यक्ष बनाया गया। वहाँ उनका सम्पर्क आचार्य रामचंद्र शुक्ल और लाला भगवानदीन से हुआ।

अध्यक्ष पद पर आसीन होते ही उन्होंने पाठ्यक्रम के निर्धारण से लेकर हिन्दी भाषा और साहित्य की विश्वविद्यालय स्तरीय शिक्षा के मार्ग की अनेक बाधाओं को हटाकर योग्यतापूर्वक हिन्दी विभाग का संचालन तथा संवर्धन किया। इस प्रकार उन्हें हिन्दी की उच्च शिक्षा के प्रवर्तन और आयोजन का श्रेय है।

बाबू श्यामसुन्दर दास का विराट व्यक्तित्व तेजस्वी और जीवन हिन्दी की सेवा के पूर्णतः समर्पित था। उनके द्वारा स्थापित 'नागरी प्रचारिणी सभा' के वह प्रकाश-स्तम्भ हैं जिसके उजाले में अनेक साहित्यकारों को अपना मार्ग प्राप्त हुआ है। इस सभा ने अनेक प्रचीन अप्राप्य ग्रंथों की खोज की है। विस्मृति के अन्धकारपूर्ण गर्भ में विलीन होते हुए अनेक कवियों को प्रकाश में लाकर खड़ा किया है। सहस्रों के व्यय तथा वर्षों के अदम्य प्रयत्न से "हिन्दी शब्दसागर" का निर्माण कराया। इसकी प्रेरणा से लिखी गई अन्य महत्वपूर्ण पुस्तकें भी हमारे साहित्य के गौरव की वस्तु हैं। १९०७ से १९२९ तक अप्रतिम बुद्धिबल, अत्यन्त निष्ठा से उन्होंने इसका सम्पादन एवं कार्य संचालन किया। इस महकोश के प्रकाशन के अवसर पर उनकी अभूतपूर्व सेवाओं को मान्यता देने के निमित्त 'कोशोत्सव स्मारक संग्रह' के रूप में उन्हें यह अभिनन्दन ग्रन्थ अर्पित किया गया।

काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के अध्यापन कार्य के समय उच्च अध्ययन में विशेष उपयोग के लिए उन्होंने भाषाविज्ञान, आलोचना शास्त्र और हिन्दी भाषा तथा साहित्य के विकास क्रम पर श्रेष्ठ ग्रन्थ लिखे। ये ग्रन्थ अत्यन्त जटिल और गम्भीर प्रकृति के हैं--अद्वितीय हैं! हिन्दी में अपने विषय की ये पहली पुस्तकें हैं और आज भी इस टक्कर की अन्य कोई ग्रन्थ उपलब्ध नहीं हैं और यदि होगा भी तो इन पंक्तियों के लेखक के संज्ञान में नहीं हैं। अतः कहा जा सकता है कि सही मायने में हिन्दी-साहित्य के प्रमुख अग्रेता बाबू श्यामसुन्दर दास जी ही हैं।

बाबू श्यामसुन्दर दास ने मूल रूप से आलोचना, शोध, भाषिक विज्ञान सम्बन्धी लेखन के क्षेत्र में उत्कृष्ट काम किया है। पद्मसिंह शर्मा की तरह समालोचना को साहित्य की रक्षा का कवच मानने वाले बाबू जी ने आधुनिक हिन्दी आलोचना को समृद्ध कर उसे एक नई दिशा की ओर मोड़ दिया। यह उनकी बहुत बड़ी उपलब्धि है। तत्कालीन साहित्य-सृजन में भाषिक विद्रूपता को समाप्त कर वे स्वस्थ धरातल सौंपना चाहते थे और इसके लिए उन्होंने महत्वपूर्ण प्रयास भी किए। इसलिए कहा गया है कि, 'उन्होंने ग्रंथों की ही नहीं, ग्रंथकारों की भी रचना की है।'

गम्भीर विषयों पर लिखने का कारण उनकी भाषा स्वयं गुरु-गम्भीर है। यद्यपि भाषा में स्निग्धता नहीं है तथापि उसमें परिपुष्ट है। लेखन-शैलीमें यथाशक्ति सुबोधता है। उसमें अपने विषय को पूर्ण प्रतिपादित करने की सतर्कता दीख पड़ती है। यही कारण है कि उनकी शैली में हम एक ही विषय को समझाते हुए पाते हैं। हाँ , विषय दुरूह होते हुए भी, उनकी भाषा और शैली उतनी दुरूह नहीं है।उनकी रचना में साधारण उर्दू के अधिक प्रचलित शब्द अवश्य आए हैं परन्तु इन शब्दों के प्रयोग में भी--यह तो निर्विवाद ही है कि, उन्होंने सदैव तद्भव रूप का व्यवहार किया है। इस पर उन्होंने अपना विचार व्यक्त करते हुए स्पष्ट लिखा है--"जब हम विदेशी भावों के साथ विदेशी शब्दों को ग्रहण करें तो उन्हें ऐसा बना लें कि उनमें से विदेशीपन निकल जाय और वे हमारे अपने होकर हमारे व्याकरण के नियमों से अनुशासित हों। जबतक उनके पूर्व उच्चारण को जीवित रखकर हमुनके पूर्व रूप-रंग-आकार, प्रकार को स्थायी बनाए रहेंगे, तब तक वे हमारे अपने न होंगे और हमें उन्हें स्वीकार करने में सदा खटक तथा अड़चन बनी रहेगी।"

इसलिए उन्होंने उर्दू के अधिकाधिक प्रचलित शब्दों का प्रयोग किया और भी इतना न्यून कि हिंदी-संस्कृत की धूमधाम में उनका पता भी नहीं लगता। उनके भाषा-प्रयोग में शब्दाडम्बर विशेष नहीं मिलता। उनकी भाषा इस प्रकार का दृष्टान्त भी हो सकती है कि उनके शब्द-विधान में कितनी उत्कृष्टता एवं विशदता है। एक धाराप्रवाह अन्विति दिखाई देती है। उनकी तप-साधना-यज्ञ से प्राप्त उनके आलोचनात्मक ग्रंथ हों या वर्णमाला विषयक शोधात्मक या मौलिक सभी में भाषा और शैली का गुरु-गम्भीर रूप सहज ही मिलता है। बाबू श्यामसुन्दर दास की व्यावहारिक आलोचना में भी सामंजस्यवाद का सौंदर्य स्थापित किया। यही कारण है कि उनकी आलोचना में तुलना, ऐतिहासिक दृष्टि,व्याख्या, भाष्य आदि गुण-वैशिष्ट्य दिखाई देता है।

वर्ण्य-विषय

श्यामसुन्दर दास जी उच्चकोटि के निबन्धकार थे। उन्होंनें विचारात्मक और भावात्मक दोनों प्रकार के निबन्ध लिखे हैं। उनके निबन्धों में पर्याप्त वैविध्य पाया जाता है। उन्होंनें बहुत से अछूते विषयों को भी अपनी लेखनी चलाई-कवियों की खोज तथा इतिहास सम्बन्धी निबन्धों में उनकी प्रतिभा का निखर विशेष ध्यातव्य हैं। उनके निबन्धों की शैली प्राध्यापकीय है। उसमें सरलता, सुबोधता; सहजता और विषय प्रतिपादन की स्वाभाविक क्षमता है। उर्दू के प्रचलित शब्दों के प्रयोग हैं पर उसमें समायुक्त आलंकारिकता नहीं मिलती। गम्भीर और वैज्ञानिक विवेचन को भी यत्र-तत्र उन्होंने अपने निबन्धों का विषय बनाया है।

भाषा-शैली

उनकी भाषा शुद्ध साहित्यिक हिन्दी है जिसमें संस्कृत के प्रचलित शब्दों का प्राधान्य है। यथा, अञ्जना के स्थान पर अंजना शब्द का होना सरल ढंग का सूचक है। उर्दू शब्दों के प्रचलित रूप भी मिलते हैं। कहीं भाषिक क्लिष्टता का आभास नहीं होता। शब्द-चयन के बारे में उनका मत था, 'सबसे पहला स्थान

हिन्दी के शब्दों को, उसके पीछे संस्कृत के सुगम और प्रचलित शब्दों को, इसके पीछे फारसी आदी विदेशी भाषाओं के साधारण और प्रचलित शब्दों का और सबसे पीछे संस्कृत के अप्रचलित शब्दों को स्थान दिया जाए। फारसी आदि विदेशी भाषाओं के कठिन शब्दों का प्रयोग कलाप न हो। 'बाबू श्यामसुन्दर दास ने मुख्यतः दो प्रकार की शैलियों में सृजन किया है--विचारात्मक और गवेषणात्मक। विचारात्मक शैली में विचारात्मक निबन्ध लिखे गए हैं। इस शैली के वाक्य छोटे-छोटे तथा भावपूर्ण हैं। भाषा सरल,सबल और प्रवाहमयी है। गवेषणात्मक निबन्धों में गवेषणा शैली का प्रयोग मिलता है। उन्होंने व्याख्यात्मक और विवेचनात्मक शैलियों का भी प्रयोग किया है।

सम्मान एवं साहित्य सेवा में स्थान

हिन्दी- साहित्य में बाबू श्यामसुन्दर दास की हिन्दी सेवाओं से प्रसन्न होकर अंग्रेज सरकार ने "राय बहादुर" हिन्दी साहित्य सम्मेलन ने 'साहित्य वाचस्पति' और काशी हिन्दू विश्वविद्यालय ने डी. लिट् की सम्मानोपाधि प्रदान की। उनका स्थान हिन्दी प्रचारक तथा हिन्दी उन्नायक के रूप में है। उन्होंने अनेक मौलिक ग्रंथों का सृजन तथा सम्पादन करके साहित्य को समृद्ध किया। 'काशी नागरी प्रचारिणी सभा' की स्थापना कर उन्होंने हिन्दी प्रचार -कार्य को बहुत दूर तक अग्रसर किया। वे न केवल संस्थान के निर्माता थे, बल्कि प्रबन्धकला में भी बेजोड़ थे। उनके इस संस्थान से देश के विभिन्न क्षेत्रों में साहित्य-सर्जकों को हिन्दी को प्रेरणा और शुद्ध हिन्दी प्रयोग की दृष्टि-दिशा मिली। रामचंद्र शुक्ल ने हिन्दी साहित्य कै इतिहास में लिखा है-

"बाबू साहब ने बहुत बड़ा काम लेखकों के लिए सामग्री प्रस्तुत करने का किया है। हिन्दी पुस्तकों की खोज के विधान द्वारा आपने साहित्य का इतिहास, कवियों के चरित्र और उन पर प्रबन्ध आदि लिखने का बहुत बड़ा मसाला इकट्ठा करके रख दिया। इसी प्रकार हिन्दी के नये-पुराने लेखकों के जीवनवृत्त हिन्दी कोविद रत्नमाला के दो भागों में संग्रहित किए हैं। शिक्षाकर्मी तीन पुस्तकों- भाषा विज्ञान, हिन्दी भाषा और साहित्य तथा साहित्य लोचन, भी आपने लिखी या संकलित की है।"

 

संक्षिप्त परिचय 

नाम 

बाबू श्यामसुन्दर दास

जन्म 

१४ जुलाई १८५७ ई

जन्म स्थान 

बनारस (उत्तर प्रदेश)

पिता

लाला देवीदास खत्री

उच्च शिक्षा  

बी.ए. क्वींस कालेज १८९७ 

पुण्य  तिथि 

१९४५  ई. 

परिचयात्मक और आलोचनात्मक  ग्रन्थ 

हिन्दी कोविद रत्नमाला भाग,१ -२ (१९०९ - १९१४ ) 

साहित्यलोचन(१९२२)

भाषाविज्ञान (१९२३)

भाषा रहस्य भाग-१ (१९३५)

हिन्दी के निर्माता भाग-१  व २ (१९४०-४१) साहित्यिक लेख (१९४५)

नागरी वर्णमाला (१९९६)

हिन्दी हस्तलिखित ग्रन्थों कि वार्षिक खोज विवरण भाग-१ (१९००), भाग-२  (१९००-०५), भाग-३ (१९०६-०८), भाग-४ (१९३३);

भाषा-विज्ञान (१९२९),

गद्य कुसुमावली (१९२५),

भारतेन्दु हरिश्चंद्र (१९२७ )

हिन्दी भाषा और साहित्य (१९३०)        

गोस्वामी तुलसीदास( १९३१)

रूपक- रहस्य (१९१३)

भाषा-रहस्य भाग-१ (१९३५)        

आत्मकथा: मेरी आत्म कहानी(१९४१)

सम्पादित ग्रन्थ 

नासिकेतोपाख्यान अर्थावली  (१९०१ )

छत्रसाल प्रकाश (१९०३)

रामचरित मानस (१००४ )

पृथ्वीराज रासो (१९०४)

हिन्दी वैज्ञानिक कोश (१९०६)

वनिता विनोद (१९०६),

इन्द्रावती भाग-१ (१९०६)

हम्माम रासो  (१९०८)     

शकुन्तला नाटक (१९०८) 

प्रथम हिन्दी साहित्य सम्मेलन की लेखावली(१९११ )

बाल विनोद (१९१३)      

हिन्दी शब्दसागरखंड-१ से ४  (१९१६ )

मेघदूत (१९२०)    

दीनदयाल गिरि ग्रन्थावली (१९२१), 

परमाल रासो (१९२१)

अशोक की धर्म लिलिया (१९२३)

रानीखेत की कहानी (१९२५)

भारतेन्दनाटकावली (१९२४)

कबीर ग्रन्थावली (१९२८)

राधा-कृष्ण ग्रन्थावली (१९३०)

द्विवेदी अभिनन्दन ग्रन्थ (१९३३)        

रत्नाकर सतसई  सप्तक (१९३३)

बाल शब्दसागर (१९३५)     

त्रिधारा (१९३५ )

नागरी प्रचारिणी पत्रिका (१  से १८  तक) 

मनोरंजन पुस्तक माला (१  से ५० तक) 

सरस्वती (1990 तक)

मानस सिक्ता (1920)

संक्षिप्त रामायण, हिन्दी निबन्धमाला (भाग-१ /२), 

संक्षिप्त पद्मावती (१९२७)

हिन्दी निबन्ध रत्नावली (१९४१ )       

उच्चस्तरीय पाठ्य पुस्तकें: भाषा सार संग्रह (१९०२) 

भाषा प्रबोध, प्राचीन लेखमाला(१९०२-०३)

हिन्दी पत्र-लेखन (०४ )

आलोक चित्रण (०२)

हिन्दी प्राइमर, हिन्दी  की पहली पुस्तक (१९०५ )    हिन्दी ग्राम (१९०६ )

हिन्दी संग्रह, गवर्नमेंट आफ इंडिया

बालक विनोद (१९०८)

नूतन संग्रह  अनुलेखमाला(१९)

हिन्दी रीडर (भाग-६ / ७) 

हिन्दी संग्रह ( भाग-१ /२, १९२५)

हिन्दी कुसुमावली, हिन्दी सुमन(भाग-१ /४  १९२७)

हिन्दी प्रोजेक्ट सेलेक्शन    

गद्य रत्नावली 

साहित्य प्रदीप

हिन्दी गद्य कुसुमावली (१९३६)

हिन्दी प्रवेशिका पद्यावली (३९)  

साहित्यिक लेख (१९४५)                                    

 

सन्दर्भ:

--------

"हमारे साहित्य - निर्म्माता/ श्री शान्तिप्रिय द्विवेदी,  ग्रन्थमाला कार्यालय,वबांकीपुर

हिन्दी साहित्य कोश, भाग-२, धीरेन्द्र वर्मा, ज्ञानमंडल लि. वाराणसी

बीसवीं सदी: हिन्दी के मानक निबन्ध/ डॉ.राहुल, भावना प्रकाशन दिल्ली-९१, (२००४)

हिन्दी साहित्य का इतिहास/रामचंद्र शुक्ल,काशी नागरी प्रचारिणी सभा, बनारस (१९४०)

हिन्दी साहित्य की भूमिका/हजारी प्रसाद द्विवेदी, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली (१९४१)

हिन्दी साहित्य  और संवेदना का विकास/ रामस्वरूप चतुर्वेदी,लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद  (१९९३)

https/hi.m.wikipedia.org-wiki

https//m.bharatdiscovery.org-india

https//study.shubhresult.in-shyam..

https//jivani.and biogrophy-


लेखक परिचय:

डॉ. राहुल उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान, लखनऊ एवं हिंदी अकादमी दिल्ली द्वारा पुरस्कृत-सम्मानित।

अंतर्राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त; अब तक ७० से अधिक कृतियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं। उत्तर रामकथा पर आधारित 'युगांक' (प्रबंधकाव्य) का लोकार्पिण करते हुए तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ० शंकरदयाल शर्मा ने कहा था- “यह बीसवीं सदी की एक महत्वपूर्ण काव्य-कृति है। इससे भारतीय संस्कृति की पुनर्प्रतिष्ठा होती है और सामाजिक-राष्ट्रीय एकता को बल मिलेगा।”

कविता, कहानी, उपन्यास, निबंध, आलोचना आदि विधाओं में इन्होंने महत्वपूर्ण सृजन किया है।


3 comments:

  1. पुरोधा को सहेजता संग्रहणीय लेख।अभिनंदन।

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  2. डॉ. राहुल जी नमस्ते। आपने हिंदी भाषा एवं साहित्य के प्रमुख महारथी बाबू श्यामसुंदर दास जी पर बहुत अच्छा लेख लिखा है। आपने एक मानक लेख प्रस्तुत किया है जिससे हम सभी लाभान्वित हुए। आपको इस महत्वपूर्ण लेख के लिए हार्दिक बधाई।

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  3. राहुल जी, हिन्दी साहित्य के पुरोधा बाबू श्याम सुंदर दास की जीवन यात्रा एवं उनके विस्तृत कृतित्व पर आपने सुंदर आलेख प्रस्तुत किया है। बहुत बहुत आभार तथा बहुत बधाई आपको।

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