ये पंक्तियाँ लेखन सम्राट रांगेय राघव की पत्नी सुलोचना जी को समर्पित प्रेम कविता 'परिचय' से हैं। इसमें उन्होंने हवा को जीजा, जामुन को पड़ोसिन और नींबू के पेड़ों को भानजे बताया है। ऐसे वे पत्नी का, घर के पीछे के बाग़ से, वैर गाँव से, जहाँ उन्होंने बहुत लेखन किया था, परिचय कराते हैं। ऐसे उन्होंने प्रकृति को आत्मसात किया था। कुल ३९ वर्ष के छोटे से जीवन में इन्होंने उपन्यास, कहानियाँ, नाटक, काव्य, जीवनीपरक उपन्यास, इतिहास, रिपोर्ताज़, निबंध और अन्य विधाओं की १५० से अधिक पुस्तकें लिखीं। संस्कृत के कई ग्रंथों, जर्मन, फ्रांसीसी रचनाओं का हिंदी में अनुवाद किया। इन्होंने शेक्सपियर के नाटकों का अनुवाद इतना बढ़िया किया है, कि इन्हें हिंदी का शेक्सपियर कहा जाता है। हिंदी साहित्य की एक नई विधा, जीवनीपरक उपन्यास लिखना रांगेय राघव ने शुरू किया था। इनकी कई पुस्तकें अभी भी अप्रकाशित हैं। इतनी कम उम्र में रांगेय राघव ने जितना साहित्य सृजन किया है, उतना शायद ही किसी दूसरे लेखक ने किया होगा।
रांगेय राघव का अपनी पत्नी सुलोचना जी से पहला परिचय तब हुआ, जब वे अपनी बड़ी बहन, जो रांगेय राघव की भाभी थीं, से मिलने वैर आई थीं। उन्होंने पहली मुलाक़ात में रांगेय राघव जी के लेखन कक्ष का कुछ यूँ वर्णन किया है, "मुझे लगा, मैं किसी ऋषि के आश्रम में पहुँच गई हूँ। कमरे में चारों तरफ़ किताबें रखी थीं, ज़मीन पर आसन बिछा हुआ और पास में क़लम, दवात और कागज़ रखे थे। मेरे योगी की बस वही संपत्ति थी.....कमरे की खिड़की से दिखती फुलवाड़ी और वैर की सघन, प्राकृतिक सुंदरता।" सुलोचना जी ने 'रांगेय राघव : एक अंतरंग परिचय' नामक संस्मरण पुस्तक लिखी है।
पृष्ठभूमि
करीब ३०० वर्ष पहले जयपुर की स्थापना के समय, वहाँ के राजा के आमंत्रण पर इनके पूर्वज, तमिल और संस्कृत के प्रकांड विद्वान दक्षिण आरकॉट से आकर राजस्थान के वैर गाँव में बस गए थे। उन्हें उनकी विद्वता के सम्मान में राजा से ढाई गाँव और सीताराम मंदिर भेंट स्वरूप मिले थे। रांगेय राघव का पूरा नाम तिरुमल्लै नंबाकम् वीर राघव आचार्य था। इनके दो बड़े भाई थे। घर में माँ-पिता, बुआ, मौसी और परिवारजनों से पढ़ने-लिखने के अच्छे संस्कार मिले। संस्कृत के एक-एक श्लोक की व्याख्या कई-कई दिन चलती। इनकी शिक्षा आगरा में हुई थी। लेखन के अलावा पुरातत्त्व, संगीत और चित्रकला में भी इनकी रुचि थी। उंगलियों में जब तक पेंसिल और ब्रश पकड़ने का दम था, तब तक चित्रकारी की। नन्हीं बिटिया सीमंतिनी के लिए फूलों और पक्षियों के चित्र बनाते थे।
१९४३-४४ में बंगाल के अकाल के दौरान, डॉ कुंटे के नेतृत्व में एक मेडिकल जत्थे के साथ बतौर रिपोर्टर वहाँ गए थे। वहाँ उन्होंने जो कुछ देखा, उसका सजीव और मार्मिक चित्रण हिंदी साहित्य के पहले रिपोर्ताज़ संकलन 'तूफ़ानों के बीच' में किया है। इन्होंने अकाल को मानव निर्मित तथा मानवता के इतिहास का सबसे बड़ा कलंक बताया और इस त्रासदी के लिए अँग्रेज़ी शासन और देश के पूँजीपतियों को दोषी बताया। रिपोर्ताज़ में मौत से संघर्ष करते हुए लोगों तथा मृत्यु के डरावने सच की कहानी है। तब इतने अधिक लोग मारे गए, कि 'एक-एक कब्र में कई लाशें दफनाईं गईं'। नदी में नहाते हुए बच्चे एक स्वर में चिल्लाते हैं, "इंक़लाब ज़िंदाबाद! इंक़लाब ज़िंदाबाद!"। इस नारे के माध्यम से लेखक ने बताया, कि भूख, रोग और मृत्यु से जूझते हुए लोगों का चेतना-संघर्ष जारी था। अकाल की भयावहता और तिल-तिल करके मरते लोगों की त्रासदी पढ़कर आँखें नम हो जाती हैं।
अकाल ने लेखक को बुरी तरह हिला दिया था। वहाँ से लौटने पर वे एकदम बदले हुए व्यक्ति थे। तब उन्होंने कुछ गीत लिखे, जिन्हें आगरा के 'इप्टा' कलाकारों के साथ घूम-घूमकर गाते और अकाल पीड़ितों के लिए चंदा जुटाते। एक सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में भी सक्रियता से भाग लिया। वे आगरा प्रगतिशील लेखक संघ की बैठकों में अपने विचार रखते। उनका मार्क्सवाद में गहरा विश्वास था। उन्होंने भारतीय संस्कृति, परंपरा और कला का मूल्यांकन मार्क्सवादी दृष्टिकोण से किया है। वे कहते थे, मनुष्य का केवल आर्थिक शोषण ही नहीं होता, सामाजिक भी होता है। इसलिए देश, काल और परिवेश भी ध्यान में रखने चाहिए। उनके ऐसे दृष्टिकोण की डॉ राम विलास शर्मा ने कड़ी आलोचना की थी। मानवीय मूल्यों के पक्षधर रांगेय राघव ने अपने पूरे साहित्य में यह दिखाया है, कि न्यायपरक, संवदेनशील मनुष्य का निर्माण कैसे हो। उनका सरोकार मनुष्य से है, उनकी आवाज़ हमेशा शोषण के ख़िलाफ़ है। वे मानवतावादी थे, हम उन्हें किसी एक वाद में बाँधकर नहीं देख सकते।
पंडित परिवार में जन्मे रांगेय राघव ने जागीर और मंदिर का स्वामित्व नहीं लिया और सेंट जोन्स कॉलेज, आगरा में, जहाँ वे पढ़े थे, प्राध्यापक की नौकरी यह कहकर ठुकरा दी, कि उनके पास इसके लिए समय नहीं है, उन्हें बस लेखन करना है। आर्थिक कठिनाईयों के चलते कई अनुवादों और रचनाओं के कॉपी राइट बहुत सस्ते में प्रकाशकों को बेच दिए थे (बाद में उनके घर वालों को कुछ कॉपी राइट वापस मिले)। मुझे लगता है, लेखन उनके लिए ऑक्सीजन के समान था, जीवन की मुहिम थी। कॉलेज में भी लिखते थे। अर्थशास्त्र में कम्पार्टमेंट आने पर मालूम हुआ, कि वे कॉलेज में पढ़ाई करने के बजाय 'घरौंदे', जो 'घरौंदा' नाम से प्रकाशित हुआ, उपन्यास लिख रहे थे। सर्दियों में ओवरकोट और मफ़लर पहनकर, बारिश की रातों में मच्छरदानी में लालटेन की रौशनी में, गर्मियों में दिन में पेट के बल लेटकर, छत पर लटकने वाले कपड़े के पंखे की रस्सी पाँव के अँगूठे में फँसाकर, उसे हिलाते हुए लिखते (सेवक से हवा नहीं करवाते थे)। मज़दूर-किसानों, रिक्शेवालों, दुकानवालों..... सबके साथ बातों के दौरान कहानियाँ उनके जीवन में चली आती थीं और वे ख़ुद उन कहानियों में जाते थे, उन्हें क़रीब से देखने के लिए। ३७ वर्ष की उम्र में कैंसर होने पर उन्होंने स्टेनो के माध्यम से लेखन जारी रखा। उनकी प्रतिभा का कमाल था, कि वे सुबह एक विषय पर डिक्टेट कराते थे, तो शाम को एकदम दूसरे। उन्होंने दूसरे लेखकों की कृतियों के जवाब में भी कुछ उपन्यास लिखे, जैसे बंकिमचंद्र के आनंद मठ के जवाब में विषाद मठ, भगवतीचरण वर्मा के टेढ़े मेढ़े रास्ते के जवाब में सीधा-सादा रास्ता और यशपाल के दिव्या के जवाब में चीवर। इनका उपन्यास सीधा-सादा रास्ता एक रोचक प्रयोग है। यह भगवतीचरण वर्मा के उपन्यास टेढ़े-मेढ़े रास्ते के अंत से शुरू होता है। इसके पात्र, समस्याएँ, परिस्थितियाँ टेढ़े-मेढ़े रास्ते की हैं। लेखक ने अपने विपुल सृजन के बारे में कहा था, लिखना जहाँ एक कला है, वहाँ वह अभ्यास भी है। ज़्यादा लिखना लेखक के लिए एक साधना है।
शोध-सामग्री जुटाने के दौरान शांति निकेतन प्रवास लेखक के जीवन का एक महत्त्वपूर्ण मोड़ था। वहाँ वे आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के सान्निध्य से बहुत प्रभावित हुए थे। अपने शोध प्रबंध की भूमिका में उन्होंने आचार्य से ज्ञान प्राप्त करने के लिए उनके प्रति आभार व्यक्त किया है। शांति निकेतन से लौटने के बाद तबीयत बिगड़ने पर उन्होंने वैर में सुखराम नामक एक नट से इलाज करवाया था। दोनों की अच्छी दोस्ती हो गई थी। रांगेय राघव उसके साथ नटों की बस्तियों में जाकर उनकी जीवन-शैली का अध्ययन करते। सुखराम द्वारा उसके समुदाय के बारे में दी गई जानकारी हिंदी साहित्य के एक प्रसिद्ध क्लासिक उपन्यास 'कब तक पुकारूँ' का आधार है। लेखक ने दिखाया है, कि नटों का किस प्रकार शोषण होता है, उन्हें अपने अस्तित्व के लिए कितने संघर्ष करने पड़ते हैं। उत्तर प्रदेश सरकार ने इस उपन्यास को पुरस्कृत किया था। रूसी अनुवादकों दिमशित्स और उल्त्सीफ़ेरोव ने इसका रूसी भाषा में अनुवाद भी किया है। १९८९ में सुधांशु मिश्र ने इसी नाम से एक धारावाहिक बनाया था, जिसकी शूटिंग वैर और उसके आस-पास के इलाके में हुई थी।
स्त्री स्वतंत्रता के पक्षधर रांगेय राघव ने अपनी कृतियों में स्त्री की विशिष्ट सत्ता को रेखांकित किया है। 'गदल' जैसी स्त्री प्रेम कहानी हिंदी साहित्य में दूसरी ढूँढ़ना मुश्किल है। इसका परिवेश और भाषा-सौंदर्य दोनों अद्भुत हैं। केंद्रीय पात्र विधवा गदल और उसके विधुर देवर डोडी के बीच परस्पर आकर्षण होता है। डोडी की तरफ़ से प्रेम अभिव्यक्ति की पहल न होने पर उससे बदला लेने के इरादे से गदल सारी मर्यादाएँ तोड़कर अपने बेटे के हमउम्र लुहार के पास रहने चली जाती है। डोडी ने बिरादरी के भय से गदल को साथ रहने को नहीं कहा। गदल के जाते ही अगले दिन बुखार से डोडी की मृत्यु होने पर वह बिरादरी भोज करवाती है। वहाँ अँग्रेज़ सरकार के एक जगह २५ से अधिक लोगों के इकट्ठे होने का नियम टूटने पर चली पुलिस की गोली से गदल मर जाती है।
मुझे रांगेय राघव की बेटी सीमंतिनी राघव से फ़ोन पर संपर्क करने का सुअवसर मिला। उनसे हुई लंबी बात के दौरान पिता के प्रति पुत्री की गहरी भावनाओं का अनुभव हुआ तथा उनसे जुड़े कई दिलचस्प क़िस्से सुनने को मिले। उन्होंने चंद शब्दों में यूँ बयाँ किया, "उनके देहावसान के समय मैं ढाई वर्ष की थी और अम्मा छब्बीस की। माँ की अप्पा के बारे में बातों, मित्रों तथा साहित्यिक संस्मरणों के ज़रिये मैं उनसे हमेशा जुड़ी रही हूँ। पुराने दृश्य और उनकी तस्वीर कभी आँखों से ओझल नहीं होती। यह सब एक अनुपस्थित उपस्थिति के समान है, जो हमेशा मेरी आँखों के सामने रहता है। मेरे सबसे क़रीब हैं, आज भी मेरे साथ हैं मेरे अप्पा।
साल २००० में वैर वासियों द्वारा चंदा जमा करके की गई रांगेय राघव की मूर्ति की स्थापना पर श्री सुलोचना जी को विशेष अतिथि के रूप में बुलाया गया था। वहाँ जिस गर्मजोशी से उनका स्वागत हुआ, वे भाव विभोर हो गई थीं। कुछ कह रहे थे, छोटी बहू जी आई हैं। कुछ ने तो रांगेय राघव को देखा भी नहीं था, वे उनके लिए एक किवदंती की तरह हैं। वैर का पर्याय बन गए हैं रांगेय राघव। इस वर्ष उनका शतीवर्ष मनाया जाएगा। रांगेय राघव के नाक-नक्श से लेकर, उनका व्यक्तित्व, लेखन के प्रति समर्पण अनूठा है। उन्होंने हिंदी साहित्य को आश्चर्यजनक रूप से समृद्ध किया है। कुछ ऐसा भी होता है, जो समय के साथ नहीं बीतता, हमेशा अमर रहता है। लेखन सम्राट रांगेय राघव ऐसे ही लेखक हैं, उन्हें मेरा शत-शत नमन।
संदर्भ
- सीमंतिनी राघव के साथ फ़ोन-वार्ता
- कविता 'परिचय', रांगेय राघव
- रांगेय राघव : एक अंतरंग परिचय, सुलोचना राघव
- कहानी गदल, रांगेय राघव
- रिपोर्ताज़ : तूफानों के बीच, रांगेय राघव
- https://www.facebook.com/hashtag/rangeyraghav?source=feed_text&epa=HASHTAG
- https://thehindipage.com/aadhunik-kaal-ke-sahityakaar/rangeya-raghav/
वाह सरोज जी, रांगेय राघव के ऋषि तुल्य अद्भुत व्यक्तित्व और अतुलनीय कृतित्व का क्या समृद्ध खाका खींचा है आपने! लेख के शुरू में दी गई कविता के चयन से लेकर संस्मरणों तक और उनके विपुल रचना संसार के विवरण से लेकर सरल व्यक्तित्व के वर्णन तक सब पठनीय और बांधे रखने वाला। ३९ साल की आयु में १५० पुस्तकें लिखने वाले विलक्षण रांगेय राघव पर दमदार रचना के लिए बधाई।
ReplyDeleteदिल्ली विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में पढ़े और पढ़ाए हुए विलक्षण रांगेय राघव की यादें हरी हो गईं।संग्रहणीय एवम अभिनंदनीय लेख।कृतज्ञ।
ReplyDeleteएक कथाकार की जीवनी को आपने कहानी की तरह लिखकर दिल में उतार दिया है.... अद्भुत.
ReplyDelete. डॉ. जियाउर रहमान जाफरी
अद्भुत.मैंने बस कब तक पुकारूं ही पढ़ी है। इतना विस्तार से बताने के लिए बहुत बहुत आभार।
ReplyDeleteआप गदल कहानी पढ़िए, उसके परिवेश और भाषा का आपको बहुत मज़ा आएगा।
Deleteसरोज जी, बधाई स्वीकार करें। आपकी प्रबुद्ध लेखनी और चित्रात्मक शैली को नमन। राँगेय राघव को सच्ची श्रद्धांजलि!
ReplyDeleteसरोज जी जब ऐसा कोई मक्खन सा लेख आता है तो मन सच में first day first show वाले गर्व से भर जाता है! रांगेय राघव के बारे में पढ़ कर कल से अभिभूत है मन!
ReplyDeleteजिस घर में एक श्लोक की व्याख्या कई दिन तक चले, वहाँ बच्चे शब्द ऋषि ही बनेंगे!
उनका मानवतावाद ही सबसे श्रेयस्कर वाद है मेरे हिसाब से!
हजारीप्रसाद द्विवेदी का शांतिनिकेतन में होना, उन्हें छोटा पंडित कहना महाश्वेता देवी भी याद किया करती थीं!
मैं नक्शे में वैर ढ़ूँढ रह थी तो देखा वहाँ उनके नाम से एक कौलोनी और महिला महाविद्यालय भी है!
पुनः उम्दा लेख के लिए हार्दिक धन्यवाद सरोज जी!
रांगेय राघव जी ने छोटे जीवन काल में विशाल साहित्य सृजन किया। लगभग हर विधा में उन्होंने लिखा। ऐसे महान साहित्यकार के बारे में सरोज जी ने बहुत अच्छा लेख लिखा है। सीमित शब्दों में विस्तृत जानकारी उपलब्ध कराने के लिए सरोज जी को हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteसरोज, रांगेय राघव के साहित्य सृजन के लिए गए अथक परिश्रम और उससे उत्पन्न हुए दीप्त रत्नों की गाथा को सुन्दर कहानी में पिरोया है तुमने। इस आलेख से साहित्य के प्रति उनकी साधना के साथ-साथ परिजनों के प्रति स्नेह की भी बेहतरीन तस्वीर उकेरी है। बहुत बहुत बधाई और आभार इस अद्भुत लेख के लिए।
ReplyDeleteहिंदी साहित्य के विलक्षण कथाकार, लेखक, एवं कवि आदरणीय रांगेय राघव हिंदी जगत के *शेक्सपियर* जाने जाते थे। उनकी एक बहुत खास बात थी कि जितनी देर में कोई एक किताब पढ़ता था उतने ही समय में वह एक क़िताब लिख सकते थे। उनके साहित्य में अक्सर मानवीय जीवन की पीड़ा, दर्द और चेतना से संघर्ष करना, अंधकार से उजियारे का सफर तय करना ही पढ़ने मिलता हैं। वही उनके लेखन का आधार भी होता था। आदरणीया डॉ सरोज जी का आलेख जानकारीपूर्ण हैं। लेखन और वर्णात्मक शैली भी रोचक हैं। कही-कही आत्मकथात्मक, प्रतीकात्मक और व्यंगात्मक शैली भी दिखाई पड़ रही हैं। आपके लेख में श्री रांगेय राघव जी के जीवन की अतित घटनाओं का इतनी जीवंतभाषा में चित्रण हुआ है कि पढ़ते वक्त ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे आँखों के सामने कोई चलचित्र चल रहा हो। कुल मिलाकर अति कलात्मक, रोचक, प्रभावोत्पादक एवं प्रसंगानुकूल आलेख लिखा गया हैं। आपका बहुत बहुत आभार और शुभकामनाएं।
ReplyDeleteबहुत ही ज्यादा जानकारियों से भरा आलेख। सरोज जी को साधुवाद
ReplyDeleteमहान आत्मा की प्रभावशाली अभिव्यक्ति। बहुत अच्छी तरह से शोधित लेखन जो उनकी पुस्तकों को पढ़ने और उनके बारे में अधिक जानने के लिए प्रेरित करता है।महान लेखक को मेरा नमन।
ReplyDeleteअब तक हिंदी साहित्य में उनका एक परिचित साहित्यकार के रूप में जाना था, वो कितने विराट व्यक्तित्व के धनी थे आपके लेख से परिचय हुआ, आभार सरोज मेम.. अद्भुत लेखन
ReplyDeleteसरोज जी , आपका रांगेय राघव पर लिखा आलेख आज पढ़ा। मैं जब भी रांगेय राघव जी के बारे में पढ़ता हूँ , बहुत प्रेरणा मिलती है । लगता है हम कुछ भी कर पाने में सक्षम हैं। उनकी लेखकीय साधना को प्रणाम।
ReplyDeleteआपने तो बहुत सुंदर तरीक़े से उनके पूरे जीवन की तस्वीर खींची है।लगता है कोई खूबसूरत फ़िल्म देख रहे हैं और यह चलती जाए तो अच्छा है। आपको बहुत बधाई एवं शुभकामनाएँ । 💐
डॉक्टर सरोज शर्मा जी सादर अभिवादन l रांगेय राघव जी के बहु आयामी व्यक्तित्व और कृतित्व पर आपका शोधपरक , पठनीय , ज्ञानवर्धक , दिलचस्प लेकिन गंभीरता की कसौटी पर सोलह आने खरा लेख लिखने के लिए आपको चौबीस कैरेट की बधाई l यूं ही रचनात्मक बनी रहे l रांगेय राघव महज 39 वर्ष जिए लेकिन 17-18 वर्ष के सृजन काल में उन्होने अनुवाद , आलोचना , निबंध , नाटक , जीवनी , कविता , कहानी और उपन्यास विधा पर पांच दर्जन से ज्यादा किताबें रचकर कीर्तिमान स्थापित किया है l आलोचकों की नजर हालांकि उन पर कम मेहरबान हुई उनके समय में भी और उनके बाद भी लंबे समय तक l मोहनजोदड़ो की पृष्ठभूमि पर उनका उपन्यास " मुर्दों का टीला" और घुमंतू जाति नटों की व्यथा कथा" पर उनका मार्मिक उपन्यास" कब तक पुकारूं" कालजई उपन्यास है l इन दोनों का रूसी भाषा में भी अनुवाद हुआ है l रूसी विद्वान चेलिशेव के कहने पर उन्होंने मायकोवस्की की रचनाओं का भी (विशेष रूप से " "लेफ्ट मार्च" ) अनुवाद किया l पुश्किन , भारतेन्दु हरिश्चन्द्र और शेली की तरह बहुत कम जिए लेकिन उनका रचनात्मक काम पाठकों के हृदय में अमर रहेगा l सरोज जी आपको इस काबिले गौर और काबिले तारीफ लेख के लिए हार्दिक बधाई और अभिनन्दन l
ReplyDelete