Friday, December 31, 2021

पद्मभूषण श्रीलाल शुक्ल का सृजन संसार



सूनी घाटी का सूरज' कभी 'अज्ञातवास' में नहीं रहा। 'राग-दरबारी' बनकर, 'आदमी का ज़हर' पहचानते हुए, 'उसकी सीमाएँ टूटती हैं' और एक 'मकान' उसका 'पहला पड़ाव' बन जाता है। इसी बीच, 'विश्रामपुर का संत’ 'बब्बर सिंह और उसके साथी' 'इस उम्र में' 'यह घर मेरा नहीं' कहकर 'राग-विराग' करने लगे। किंतु, यह 'अंगद का पाँव' था। इतनी आसानी से 'यहाँ से वहाँ' कैसे होता?, 'उमरावनगर में कुछ दिन' क्या गुज़ार लिए, 'कुछ ज़मीन कुछ हवा में' उड़ने लगे! खैर, छोड़ो, 'आओ बैठ लें थोड़ी देर', 'अगली शताब्दी का शहर' 'ज़हालत के पचास सालों' से बेहतर होगा। मगर 'ख़बरों की जुगाली' तो वहाँ भी करनी ही पड़ेगी।

आप सोच रहे होंगे, “यह कैसी पहेली है?” यह कोई पहेली नहीं, अपितु ज्ञानपीठ तथा साहित्य अकादमी पुरस्कृत पद्मभूषण श्रीलाल शुक्ल की रचनाओं के शीर्षक हैं। जी हाँ, वही श्रीलाल शुक्ल जिनकी “राग-दरबारी” काल की सभी सीमाओं के परे प्रासंगिक है। साठ के दशक की पृष्ठभूमि पर लिखी यह कटु व्यंग्य रचना आज के भ्रष्ट तंत्र और सुप्त समाज में भी फिट बैठती प्रतीत होती है। श्रीलाल शुक्ल के जीवन वृत्त से कुछ रोचक पहलु आपके समक्ष प्रस्तुत हैं -

प्रारंभिक जीवन
श्रीलाल शुक्ल के जन्म के विषय में उनके बड़े भाई शीतला सहाय शुक्ल ने एक बड़ी ही दिलचस्प बात कही थी। अपने पितामह (दादाजी) की मृत्यु का ज़िक्र करते हुए वे कहते हैं कि वर्ष १९२४ में, जब पितामह मृत्यु शैय्या पर लेटे थे और दादी अत्यंत दुखी अवस्था में पास बैठी थीं, तब दादी को सांत्वना देते हुए पितामह ने कहा था, “इसमें दुखी होने की कोई बात नहीं है। मनुष्य अपने कर्मों के अनुसार जन्म लेता है और मृत्यु को प्राप्त होता है। हम अवश्य फिर से जन्म लेंगे और उस बालक का नाम आप श्रीलाल रखिएगा।”  इस घटना के तकरीबन एक वर्ष बाद ही, ३१ दिसंबर १९२५ को, उनके घर एक पुत्र का आगमन हुआ और उसका नाम श्रीलाल शुक्ल रखा गया।

श्रीलाल बचपन से ही बड़े मेधावी छात्र थे। पढ़ाई में उनकी विशेष रूचि थी और वे सदैव मेरिट लिस्ट में अपना स्थान सुरक्षित रखते थे। प्रारंभिक शिक्षा गाँव, अतरौली (तहसील - मोहनलालगंज), के ही सरकारी विद्यालय में हुई। एक साक्षात्कार के दौरान अपना बचपन याद करते हुए वे बड़े भावुक होकर बताते हैं कि उनके विद्यालय के पास एक बहुत बड़ा तालाब हुआ करता था, जिसके पास जामुन के पेड़ थे। गर्मी के मौसम में जामुन के टूटकर पानी में गिरने की आवाज़ उन्हें बड़ी अच्छी लगती थी। मिडिल स्कूल की परीक्षा में लखनऊ कमिश्नरशिप, जिसमें ५-६ ज़िले थे, में वे अव्वल स्थान पर थे। हाई स्कूल की परीक्षा उन्होंने लखनऊ के एक अंग्रेज़ी माध्यम स्कूल से उत्तीर्ण की, जिसमें पूरे प्रदेश में वे छठे स्थान पर रहे। इंटरमीडिएट के लिए वे कानपुर आ गए, जहाँ उन्हें समूचे प्रदेश में तीसरा स्थान प्राप्त हुआ। फिर बीए करने वे इलाहाबाद विश्वविद्यालय आए, किंतु यहाँ वे कभी एकाग्र मन से पढ़ नहीं सके। नतीजतन ग्रेजुएशन में मन लायक परिणाम नहीं ला सके, जिसका मलाल उन्हें आजीवन रहा। मगर ये छोटी-मोटी ठोकरें उनके इरादों को कमज़ोर नहीं कर सकीं और डेढ़ वर्षों की कड़ी मेहनत ने उन्हें उत्तर प्रदेश राज्य प्रशासनिक सेवा में डेप्युटी कलेक्टरेट (१९४९) के ओहदे पर बिठा दिया। एक व्यवस्थित आजीविका मिलते ही श्रीलाल शुक्ल के भीतर का साहित्यकार बाहर निकलने को कुलबुलाने लगा और वर्ष १९५६ से आरंभ हुआ एक प्रशासनिक अधिकारी से साहित्यकार श्रीलाल का सुहाना सफ़र। 

साहित्यिक सफ़रनामा
उपन्यासों व व्यंग्य लेखन के लिए विख्यात श्रीलाल शुक्ल ने कविताओं से लेखन आरंभ किया था, जो मुख्यतः ब्रज भाषा में थीं। उनकी कवितायें कभी प्रकाशित नहीं हुई, बस स्वान्तः सुखाय बनकर रहीं। अपनी कविताओं को वे “VERY GOOD BAD POEMS” (बहुत अच्छी बुरी कविताएँ) की श्रेणी में रखते हैं। अच्छी कविताएँ इसलिए क्योंकि भाषा अच्छी थी, लय-ताल अच्छा था, छंद अच्छे थे; और बुरी इसलिए क्योंकि उनमें कुछ नई बातें नहीं कही जा रही थी। हालाँकि उनके कवि मित्रों का मानना था कि श्रीलाल को छंदों का बहुत गहरा ज्ञान था। उन्हें कविताओं में विशेष रुचि थी और अक्सर अपने मित्रों की दुविधाओं को दूर करने में सफल रहते थे।
अपने पितामह से मिले भाषा ज्ञान ने श्रीलाल शुक्ल को अंग्रेज़ी, उर्दू, संस्कृत और हिंदी का विद्वान बनाया जबकि पिता से मिली संगीत की समझ ने उन्हें शास्त्रीय और सुगम दोनों पक्षों का मर्मज्ञ-रसिक बनाया। लेखनी के लिए उन्होंने हिंदी भाषा को अपनाया। अपनी भाषा-शैली और दक्षता पहचानते हुए उन्होंने व्यंग्य और उपन्यास लेखन की ओर रुख़  किया और एक-से-बढ़कर एक नायाब कहानियों से लैस सृजन-संसार तैयार किया। उनका पहला उपन्यास “सूनी घाटी का सूरज” १९५७ में प्रकाशित हुआ और फिर एक-एक करके २००५ तक उनकी लगभग ३० पुस्तकें प्रकाशित हुईं। इनमें १० उपन्यास, ९ व्यंग्य-संग्रह, ४ कहानी-संग्रह, २ विनिबंध तथा एक आलोचना पुस्तक शामिल हैं। उन तीस किताबों में बीसवीं शताब्दी का जीवन अपना अर्थ पाता है। उनकी सर्वाधिक लोकप्रिय पुस्तक “राग दरबारी” प्रशंसा और आलोचनाओं के बीच आज भी उसी रुचि से पढ़ी जाती है, जिस रुचि  से अपने प्रकाशन काल में पढ़ी गई। 

देशज मुहावरों तथा मिथकीय शिल्प का प्रयोग उनकी भाषा को अद्भुत रूप से प्रभावशाली बना देता है। उनकी भाषा की विशेषता बताते हुए सुप्रसिद्ध आलोचक मुरली मनोहर प्रसाद सिंह कहते हैं, अलग-अलग प्रकार की भंगिमाओं को पकड़ने की कला में जो तत्परता दस्तायेवस्की, डिकेंस और टॉलस्टॉय की रचनाओं में दिखाई देती है, वैसी ही कला, पात्रों की भंगिमाएँ श्रीलाल शुक्ल की रचनाओं में मिलती है। और इसीलिए श्रीलाल जी के पात्र भुलाये नहीं भूलते हैं – चाहे वह राग दरबारी का रंगनाथ हो, लंगर हो, सुकन्या हो या ‘विश्रामपुर के संत’ के पात्र कुँवर जयंती प्रसाद, सौंदर्य या जयंती हों।  
     
वहीं सुविख्यात कथाकार एवं आलोचक अरुण प्रकाश के शब्दों में -
“कोरे विक्षोभ से साहित्य में काम नहीं चलता है। श्रीलाल जी की भाषा शैली, विशेषकर राग दरबारी में, अपने आप में इतना खोलने वाली है, निर्मम है कि वह कुछ भी उघारने से नहीं चूकती।”

श्रीलाल शुक्ल स्वतंत्र भारत के उन लेखकों में से हैं, जिन्होंने साधारण जीवन को असाधारण प्रतिष्ठा प्रदान की।

व्यक्तित्व
अपनी हाज़िर-जवाबी और वाक्पटुता के लिए श्रीलाल शुक्ल सदैव अपने सहपाठियों व सहकर्मियों के बीच लोकप्रिय रहे। समय के साथ चलने के कारण वे हर उम्र के लोगों में घुल-मिल जाने का हुनर रखते थे। उनकी नतिनी नंदिनी माथुर के अनुसार वे बड़े ही दिलचस्प इंसान थे और अमूमन सभी विषयों पर अपनी पकड़ रखते थे। वे कहती हैं कि श्रीलाल शुक्ल जी से किसी भी विषय पर बात-चीत हो, हर बार कुछ-न-कुछ नया सीखने को मिलता था।

इलाहाबाद विश्वविद्यालय में उनके सहपाठी रह चुके कथाकार सत्येंद्र शरत ने उनके व्यक्तित्व के उस पहलु से परिचय करवाया, जिससे उनके ‘सादा जीवन उच्च विचार’ होने का प्रमाण मिलता है। कॉलेज के उन दिनों को याद करते हुए वे बताते हैं, सबसे ज़्यादा आकर्षक था उनका सादा लिबास – एक कमीज़, धोती, चप्पल और चेहरे पर मंद-मंद मुस्कान। कभी कभी कक्षा के बीच में प्रोफ़ेसर की किसी बात पर पीछे की बेंच से ऐसे कटाक्ष आते थे, कि विद्यार्थी अपनी हँसी रोक नहीं पाते थे और प्रोफे़सर कभी समझ नहीं पाते थे। पता चलता था, कि श्रीलाल जी ने कुछ व्यंग्य कसा है।” बात साफ़ है, श्रीलाल शुक्ल अति-कुशाग्र बुद्धि के बड़े विनोदी और वाक्पटु व्यक्ति थे। उन्हें नई पीढ़ी ज़्यादा पढ़ती है। वे बेबाक विश्लेषण कर तर्क-संगत राय देते थे। श्रीलाल जी के विलक्षण व्यक्तित्व के कारण ही सरकारी सेवा में रहते हुए व्यवस्था पर करारी चोट करने वाली ‘राग दरबारी’ जैसी रचना संभव हो सकी, जिससे हिंदी साहित्य समृद्ध हुआ। अपनी नौकरी के तैनाती स्थानों पर भी उन्होंने अद्भुत कार्य किए। प्रशासनिक सेवा में रहते हुए जो शख्स़ भ्रष्ट तंत्र की परत-दर-परत उघारने से नहीं चूकता, उसकी इच्छाशक्ति और आत्मानुशासन आज के युवाओं के लिए मिसाल हैं।

पुरस्कार एवं सम्मान
साहित्य जगत के लगभग सभी सम्मान श्रीलाल शुक्ल के नाम हैं। इनमें ‘राग दरबारी’ के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार, साहित्य भूषण पुरस्कार, साहित्य का सर्वोच्च ज्ञानपीठ पुरस्कार तथा भारत के राष्ट्रपति द्वारा पदत्त पद्मभूषण शामिल हैं। उनकी उपलब्धियों की सार्थकता पर कथाकार शैलेंद्र सागर ने कहा था, कई बार यह आरोप लगाया जाता है कि अधिकारियों का लेखन अच्छा लेखन नहीं होता है, लेकिन उनके पद और रुतबे की वजह से उनकी रचनाएँ प्रकाशित और चर्चित होती हैं। श्रीलाल जी ने इस मिथक को तोड़ा है और उत्कृष्ट लेखन देकर अन्य सरकारी कर्मचारियों को नई दिशा प्रदान की है।” 

और अंत में
श्रीलाल शुक्ल के जीवन के ८० वर्ष पूर्ण होने पर दिसंबर २००८ में नई दिल्ली में एक सम्मान समारोह का आयोजन किया गया था, जिसमें ‘‘श्रीलाल शुक्ल : जीवन ही जीवन” का विमोचन किया गया। जीवन के अंतिम समय तक सक्रिय रहने की कामना होते हुए भी एक लंबी बीमारी के बाद २८ अक्टूबर २०११ को उनका निधन हो गया। इस अपूर्ण क्षति का आभास हिंदी साहित्य जगत आज भी महसूस करता है। किंतु एक साहित्यकार अपने साहित्य के दम पर सदैव जीवित रहता है।

श्रीलाल शुक्ल : एक परिचय

जन्म

३१ दिसंबर १९२५, अतरौली, लखनऊ (उ. प्र) 

मृत्यु

२८ अक्टूबर २०११, लखनऊ (उ. प्र)

शिक्षा

स्नातक, इलाहाबाद विश्वविद्यालय

नौकरी

१९४९ में राज्य सिविल सेवा (पी.सी.एस.) में चयनित, १९८३ में भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस) के सेवानिवृत्त।

साहित्यिक रचनाएँ

उपन्यास

सूनी घाटी का सूरज (१९५७), अज्ञातवास (१९६२), राग दरबारी (१९६८), आदमी का ज़हर (१९५७), सीमाएँ टूटती हैं (१९७३), मकान (१९७६), पहला पड़ाव (१९८७), विश्रामपुर का संत (१९९८), बब्बर सिंह और उसके साथी (१९९९), राग विराग (२००१)

व्यंग्य निबंध संग्रह

अंगद के पाँव (१९५८), यहाँ से वहाँ (१९७०), मेरी श्रेष्ठ व्यंग्य रचनाएँ (१९७९), उमरावनगर में कुछ दिन (१९८६), कुछ ज़मीन में कुछ हवा में (१९९०), आओ बैठ लें कुछ देर (१९९५), अगली शताब्दी के शहर (१९९६), ज़हालत के पचास साल (२००३), खबरों की जुगाली (२००५)

कहानी संग्रह (लघुकथाएँ)

ये घर में नहीं (१९७९), सुरक्षा तथा अन्य कहानियाँ (१९९१), इस उम्र में (२००३), दस प्रतिनिधि कहानियाँ (२००३)

साक्षात्कार संग्रह

मेरे साक्षात्कार (२००२)

संस्मरण

कुछ साहित्य चर्चा भी (२००८)

आलोचना


भगवती चरण वर्मा (१९८९), अमृतलाल नागर(१९९४), अज्ञेय : कुछ रंग कुछ राग (१९९९)

संपादन

हिन्दी हास्य व्यंग्य संकलन (२०००)

बाल साहित्य

बब्बर सिंह और उसके साथी

पुरस्कार एवं सम्मान

  • साहित्य अकादमी पुरस्कार (१९७०), राग दरबारी

  • मध्य प्रदेश हिंदी साहित्य परिषद द्वारा पुरस्कृत (१९७८)

  • हिंदी संस्थान का साहित्य भूषण पुरस्कार (१९८८)

  • कुरूक्षेत्र विश्वविद्यालय का गोयल साहित्यिक पुरस्कार (१९९१)

  • हिंदी संस्थान का लोहिया सम्मान (१९९४)

  • मध्य प्रदेश सरकार का शरद जोशी सम्मान (१९९६)

  • मध्य प्रदेश सरकार का मैथिली शरण गुप्त सम्मान (१९९७)

  • बिड़ला फाउंडेशन का व्यास सम्मान (१९९९)

  • उत्तर प्रदेश सरकार का यश भारती सम्मान पुरस्कार (२००५)

  • भारत के राष्ट्रपति द्वारा पद्म भूषण (२००८)  

सन्दर्भ:

१. विकिपीडिया
२. साहित्य अकादमी द्वारा लघु व्रत्तचित्र
३. jivanihindi.com
४. राग दरबारी, श्रीलाल शुक्ल


लेखक परिचय

दीपा लाभ
हिंदुस्तानहरिभूमिआज तक और प्रज्ञा चैनल से होते हुए नैशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ फैशन टेक्नोलॉजी (वस्त्र मंत्रालय, भारत सरकार) के विभिन्न केंद्रों में प्रशिक्षक रहीं। पत्रकारिता में स्वर्ण पदक प्राप्त दीपा ने भाषा के क्रियात्मक प्रयोगों से संप्रेषण सुदृढ़ करने के लिए कुछ कोर्स तैयार किए, जिन्हें वे सफलतापूर्वक चला रही हैं। इन दिनों हिंदी से प्यार है समूह में उनकी सक्रिय भागीदारी है। साहित्यकार तिथिवार की प्रबंधक-संपादक हैं।

ईमेल - deepalabh@gmail.com ; व्हाट्सएप - +91 8095809095

 

शोध: डॉ० जयशंकर यादव

सेवानिवृत्त सहायक निदेशक, राजभाषा विभाग, गृह मंत्रालय, भारत सरकार, बेलगावी, कर्नाटक, भारत।

विशेष - डॉ० यादव को श्रीलाल शुक्ल के सान्निध्य में रहने का अवसर मिला था।

ईमेल -  drjaishankar50@gmail.com 

5 comments:

  1. श्रीलाल शुक्ल जैसे महान साहित्यकार पर दीपा जी एवं जयशंकर जी ने बहुत अच्छा लेख लिखा। उनके साहित्य एवं जीवन की कई नई बातों का मुझे पता चला। इस जानकारी भरे लेख के लिए दोनों लेखकों को बहुत बहुत बधाई।

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  2. वाह! साल का अंत एक अत्युत्तम और जानकारीपूर्ण लेख से हो रहा है। दीपा जी और जयशंकर जी ने श्रीलाल शुक्ल सरीखे महान साहित्यकार से बेहतरीन परिचय कराया। लेख की शुरुआत तो अद्वित्तीय है, श्रीलाल जी की कृतियों से गुँथी एक सुन्दर माला। इस भेंट के लिए आप दोनों को बहुत-बहुत बधाई और आभार।

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  3. 'राग दरबारी'से आदरणीय श्री लाल शुक्ल जी बहुत चर्चे में रहे और आज भी हैं। वैसे तो साहित्यिक व्यंग में श्री लाल जी का कोई मुकाबला नही कर सकता। आदरणीय डॉ. जयशंकर यादव एवं दीपा लाभ जी ने आलेख की शुरुवात बढ़े ही रचनात्मक ढंग से की हैं। अंत तक पढ़ने के बाद ही पाठन खत्म हुआ। बहुत ही रोचक और आनंदभरा लेख लिखा गया हैं। आप दोनों को हार्दिक बधाई और ढ़ेर सारी शुभकामनाएं।

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  4. जितना रोचक श्रीलाल शुक्ल का जीवन और लेखन है, उतनी ही रोचक इस लेख की प्रस्तुति है। दीपा जी और जयशंकर जी को बधाई।आपके लेख ने मुझे राग दरबारी को फिर से पढ़ने के लिए उकसा दिया है , शायद इसी सप्ताहांत । 😊💐

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  5. बहुत सुंदर आलेख है । शुरू से ही आप को अपने में जकड़ लेता है और अंत तक पीछा नहीं छोड़ता । ‘राग दरबारी’ के अमर लेखक को भाव भीनी शृधांजली ।

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