जैनेंद्र मुख्यतः विचारक थे। जीवन और जगत, साहित्य और समाज, प्रेम और नैतिकता आदि के संबंध में उनके विचार सर्वथा निजी, किंतु क्रांतिकारी थे। अपने प्रखर और मौलिक चिंतन के लिए जाने जाने वाले जैनेद्र कुमार हिंदी के अत्यंत समर्थ एवं युग प्रवर्तक कथाशिल्पी के रूप में प्रतिष्ठित हैं। छायावाद के बाद हिंदी साहित्य जगत में जैनेंद्र कुमार एक जाज्वल्यमान नक्षत्र के रूप में उभरे, जिन्होंने हिंदी साहित्य की अनेक विधाओं – उपन्यास, कहानी, निबंध, संस्मरण, रेखाचित्र आदि को अपनी रचनात्मक क्षमता से दीप्त किया। जैनेंद्र मूलतः अन्तः जगत के शब्द-शिल्पी थे। अन्तः जगत को बाह्य जगत से अनुस्यूत करके अभिव्यक्त करना अत्यंत कठिन कार्य होता है, जिसमें अपनी पैनी दृष्टि और विपुल ज्ञान के कारण जैनेंद्र को अभूतपूर्व सफलता मिली। जैनेंद्र ने उस दुनिया को सामने रखा था, जो अबूझ दुनिया थी, किंतु थी बेहद महत्वपूर्ण और जिसे जाने बिना अपूर्णता का गहरा संकट था। जैनेंद्र कुमार ने हिंदी कथा साहित्य को मनोविज्ञान का सुदृढ़ आधार प्रदान कर उसे घटना-बहुलता से तीव्र संवेदना के धरातल पर प्रतिष्ठित किया। उन्होंने पाठकों को मानव-जीवन की गहन रहस्यमयता के विश्लेषण से यह बताने का कार्य किया, कि अपने आस-पास के जिस जगत को हम इतना सुपरिचित और सामान्य मानते हैं, वस्तुतः वह कितना निगूढ़ और विलक्षण है।
जैनेंद्र के कथा साहित्य में चरित्र-वैशिष्ट्य, मानसिक द्वंद्व, स्त्री-पुरुष संबंधों को लेकर सूक्ष्म एवं गहन स्तरों का स्पर्श, अवसाद और करुणा के अंतस्थल को स्पर्श करने वाली एक स्निग्ध धारा, राष्ट्रीयता और क्रांति की भावना, मानवेतर प्राणियों के प्रति सहानुभूति, नैतिक प्रश्नों के प्रति गंभीर शंकाएँ, दार्शनिक ऊहापोह, प्रतीक योजना, संकेत और रहस्य सब कुछ मिल जाता है। जैनेंद्र ने कथा साहित्य में उस समय प्रवेश किया, जब प्रेमचंद की तूती बोल रही थी। उनके साहित्यिक व्यक्तित्व का विकास बहुत कुछ प्रेमचंद की छाया में ही हुआ, किंतु फिर भी उन्होंने अपने लिए नई पगडंडी की तलाश की। प्रेमचंद सामाजिक जीवन के चितेरे थे, तो जैनेंद्र ने व्यक्ति के मानस की गहराइयों में झांका। प्रेमचंद ने जीवन के फैलाव को देखा, तो जैनेंद्र ने उसकी गहराई को थहाने का प्रयास किया। प्रेमचंद की मुख्य चिंता या समस्या सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक थी, तो जैनेंद्र की नैतिक-आध्यात्मिक। प्रेमचंद और जैनेंद्र के बारे में विचार करते हुए नलिन विलोचन शर्मा ने लिखा है – “प्रेमचंद के हाथों में दूरबीन होती है, जिससे वे जीवन या मनुष्यता के किसी दूरवर्ती अंश को साफ-साफ देखकर हमारे लिए भी प्रत्यभिज्ञेय बना देते हैं। जैनेंद्र के हाथों में खुर्दबीन है, जिसके नीचे वे जिंदगी की कतरन को रखकर, वैज्ञानिक की तरह उसके अणुओं को परमाणुओं में विश्लिष्ट करते, तह तक पहुँच जाना चाहते हैं।”
जैनेंद्र गांधी-दर्शन के भाष्यकार थे और जीवन भी उनका गांधी के आदर्शों के सांचे में ही ढला हुआ था, किंतु इसके साथ ही गांधी की कई सारी नैतिक सीमाओं को वे लांघते भी थे। स्वाधीनता आंदोलन के दौरान जैनेंद्र जेल भी गए, राजनीति में भागीदारी भी की, किंतु आज़ादी के बाद राजनीति के विकृत चेहरे को देखकर उनकी आत्मा कांप उठी। आज़ादी के बाद वे राजनीति में सक्रिय नहीं थे, किंतु राजनीति से जुड़े घटनाचक्रों पर, उसके कार्यकलापों पर उनकी पैनी नजर रहती थी। जैनेंद्र जैसे स्व की रक्षा करने वाले, किंतु समय के दर्द को अपने सीने में पालने वाले मनीषी-लेखक विरले ही पैदा होते हैं।
उनकी पहली कहानी १९२८ में ‘विशाल भारत’ में प्रकाशित हुई। १९२९ में उनका पहला उपन्यास परख प्रकाशित हुआ। बाद में उन्होंने १२ उपन्यास और अनेक कहानियाँ लिखी, जो अब ७ खण्डों में प्रकाशित हैं। नाटक, विचार साहित्य, ललित निबंध, यात्रा साहित्य, बाल साहित्य आदि अनेक विधाओं में रचनाएँ कीं। उन्होंने आलोचना साहित्य में भी अपना योगदान दिया।
जैनेंद्र को सर्वाधिक ख्याति उनके उपन्यासों से मिली। जैनेंद्र कुमार के लेखन से ही हिंदी में मनोवैज्ञानिक उपन्यासों की धारा प्रारंभ हुई। जैनेंद्र के उपन्यास बृहदाकार नहीं हैं, बल्कि छोटे हैं और उनमें पात्रों की संख्या भी सीमित होती है। उनके उपन्यास में समाज के ढ़ाँचे के साथ ही उसके परिवर्तन का इतिहास भी जगह घेरता चलता है। उनके उपन्यासों में घटना की बहुलता की जगह एक आध घटनाएँ ही घटती हुई प्रतीत होती हैं और उसी की संगति में उस पात्र का मनोविज्ञान मुखरित होने लगता है। उसकी कथा व्यक्ति के अंतस में ज्यादा चलती है, बाहरी वातावरण से संवाद कम होता है। जैनेंद्र के उपन्यासों में परंपरागत नैतिकता का अस्वीकार और उसके परिणामस्वरुप उनके पात्रों के जीवन में पीड़ा का संचार होता दिखाई देता है। इन्हीं पीड़ाओं से कुंठा, अवसाद, त्रास का आविर्भाव भी होता है। हालांकि उनके उपन्यासों में आधुनिकता और परंपरा का द्वंद्व भी है। उनकी आधुनिकता अक्सर कथा के विकास के साथ परंपरा के सामने घुटने टेकने लगती है। प्रेम है, पर शारीरिक संबंध नहीं, उनके मुताबिक प्रेम बहुत पवित्र है, स्वाभाविक है, अच्छा भी है, वरेण्य है, लेकिन शारीरिक संबंधों से यह दूषित हो सकता है। जैनेंद्र के पात्र प्रेम को इस दूषण से बचाते हुए दिखाई देते हैं।
इसी तरह जैनेंद्र की कहानियाँ मनोविज्ञान पर आधारित और व्यक्तिवाद की कहानियाँ हैं। उन्होंने अपनी कहानियों में शिक्षित मध्यवर्ग के लोगो के अंतर्मन का चित्रण बड़ी ही सूक्ष्मता से किया है। व्यक्ति के राग-द्वेष, घृणा, प्रेम को मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखा है और उसकी व्यवहारिकता का चित्रण किया है। उनकी मनोवैज्ञानिक कहानियों में ऐतिहासकता, बाल मनोविज्ञान, राष्ट्र प्रेम, आर्थिक सामाजिक संघर्ष, राजनीति के आयाम भी देखने को मिलते हैं। जहाँ तक कहानी के शिल्प का प्रश्न है, तो उन्होंने परंपरागत शिल्प को अपनाने की जगह नए शिल्प का निर्माण किया है। उन्होंने स्वप्न, गूढ़ता, फैंटेसी और पूर्वदीप्त कथानकों को अपनाकर कहानी में बिंब और प्रतीक का सफल प्रयोग किया है। जैनेंद्र ने उपन्यास और कहानियों के बाद हिंदी निबंध के क्षेत्र में भी उल्लेखनीय योगदान दिया है। उनका सतर्क चिंतन, तर्क की कसौटी पर चमकती उनकी आस्था, उनका विपुल ज्ञान, वैचारिक आयाम उनके निबंधों में स्पष्ट दिखता है। दरअसल वे अपने उपन्यासों और कहानियों में भी विचार देते हुए ही प्रतीत होते हैं। उनके निबंध तो विचार प्रधान हैं ही, जिसका क्षेत्र विचारों की दौड़ के लिए बड़ा व्यापक है।
उपन्यास, कहानी, निबंध के अतिरिक्त जैनेंद्र कुमार ने बाल साहित्य, नाटक, अनुवाद, संस्मरण आदि के माध्यम से भी हिंदी साहित्य में श्रीवृद्धि की है। उनका योगदान अप्रतिम है। उनकी रचनाएँ कालजयी हैं तथा हिंदी समाज उनका ऋणी है और हमेशा रहेगा।
संदर्भ
- हिंदी गद्य : विन्यास और विकास, रामस्वरूप चतुर्वेदी
- निबंधकार : जैनेंद्र कुमार, डॉ० विष्णु रानाबा सरवदे
- हिंदी कहानी का विकास, मधुरेश
- आधुनिक हिंदी कथा साहित्य और मनोविज्ञान, डॉ० देवराज उपाध्याय
लेखक परिचय
डॉ. विजय कुमार मिश्र
निश्चित रूप से जैनेंद्र की रचनाधर्मिता विलक्षण हैं।मानव मन की गहराइयों और अंतर्मन की बहुस्तरीय परतों के द्वंद की अभिव्यक्ति जैनेंद्र के साहित्य की प्रमुख विशेषता है।
ReplyDeleteबेहद सराहनीय लेख,सर।
बेहद बारीकी और सूक्ष्मता से आपने इस लेख में उनके समग्र साहित्यिक वैशिष्ट्य का सटीक मूल्यांकन किया है।
बहुत अच्छा लेख, निःसन्देह रूप से जैनेंद्र जी शब्दों के वैज्ञानिक शिल्पीकार थे, उनमें वह साहित्यिक शक्ति थी, जो बड़े कथानक को संवाद शैली में लिखकर साहित्य की चातुर्य को बढ़ा सके। डॉ. विनय गुप्ता
ReplyDeleteजैनेंद्र कुमार पर आपका आलेख बहुत सुंदर, व्यवस्थित और सटीक है विजय जी।
ReplyDeleteशब्दों और मनोभावों के सजग प्रहरी जैनेंद्र कुमार की रचनाएँ मानस के शांत सरोवर में धीरे से कंकड़ फेंक कर उसे तरंगित कर देती हैं। इस सहजता को आपने बड़ी तन्मयता से उभारा है।
विजय कुमार जी, आपका आलेख बहुत ही ज्ञानवर्धक, सटीक और जैनेन्द्र जी के प्रति आत्मीयता से भरा हुआ है। आपने उनके साहित्य के विस्तृत पहलुओं और उनकी दृष्टि और कलम की गहराई को बखूबी पेश किया है , आपका आलेख पढ़कर तुरंत ही जैनेन्द्र कुमार जी को पढ़ने का मन करता है, अद्भुत उत्सुकता जगाई है इस लेख ने। आपको इस नेक लेखन के लिए बहुत-बहुत बधाई और धन्यवाद।
ReplyDeleteजैनेन्द्र जी जैसे प्रसिद्ध लेखक पर बहुत सारी जानकारी भरा पठनीय लेख। लेख के लिए डॉ. विजय जी को बधाई।
ReplyDeleteबहुत बढ़िया विश्लेषण। जैनेंद्र - खुर्दबीन रचनाकार है। विजय जी आपका यह प्रयास बहुत महत्वपूर्ण है हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं
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