Wednesday, January 5, 2022

काशीनाथ सिंह : काशी का अस्सी या अस्सी का काशी


नाम अगर सार्थक हुआ करते हैं, तो यह बात काशीनाथ सिंह पर पूरी तरह से खरी उतरती है। उनकी कृतियाँ काशी के वातावरण से यूँ सराबोर कराती हैं, जैसे कि हम उसकी हवा में साँस ले रहे हों, उसकी सँकरी और टेढ़ी-मेढ़ी गलियों में ख़ुद को खोकर ख़ुद को ही तलाश रहे हों, सतत प्रवाहित गंगा का दृश्यावलोकन कर रहे हों, बनारस की भाषा हमारे कानों में रच-बस गयी हो और उसके निवासियों से हमारा कोई संबंध हो। उनके कृतित्व और व्यक्तित्व को जितना जानो, यह सवाल उतना ही प्रबल होता जाता है, कि काशी उन के जीवन का अटूट हिस्सा है या वे काशी के?
 
काशीनाथ सिंह साठोत्तरी पीढ़ी के हिंदी-कथा लेखन के चार यारों में से एक हैं; इनके बाक़ी तीन यार ज्ञानरंजन, रवींद्र कालिया और दूधनाथ सिंह हैं। हिंदी कथा में नई-कहानी आंदोलन के बाद इस पीढ़ी की शुरुआत हुई। इसके रचनाकारों ने हिंदी कहानी में संबंधों के विघटन को रेखांकित करने वाली अंतर्वस्तु और तीक्ष्ण भाषा-शैली को प्रमुखता से जगह दी। 
 
काशीनाथ सिंह कथाकार, संस्मरण लेखक, उपन्यासकार, नाटककार हैं और आलोचना के क्षेत्र में भी उनका दख़ल रहा है, जो उनकी पुस्तक ‘आलोचना भी रचना है’ में समाहित है। काशीनाथ सिंह की लेखनी जीवन-विरोधी मर्यादाओं पर निर्मम वार करती है और समाज की विषमताओं तथा विसंगतियों को उसी परिवेश की भाषा में ज्यों का त्यों व्यक्त कर देती है। यही कारण है, कि उनकी रचनाएँ दिलों में रच-बस जाती हैं। काशीनाथ सिंह अकल्पित गद्य के सरताज बादशाह हैं और क़लम से क़िस्सागोई करने की महारत रखते हैं। 
 
साठोत्तरी हिंदी कथा-लेखन के इस मुख्य हस्ताक्षर का जन्म १ जनवरी १९३७ में ज़िला वाराणसी के बस्तीनुमा गाँव जीयनपुर में हुआ। इनका पालन-पोषण एक संयुक्त परिवार में हुआ। जीवन की बारीकियों को समझना और उसके अध्यायों को पढ़ना इन्होंने गाँव की गलियों में घूमते, ऊसर के टीलों पर चढ़ते सीखा। पिता गाँव के स्कूल में मदर्रिसी करते थे। वे एक ऐसे अध्यापक थे, जो किसी भी जाति के बच्चे को अगर मटरगश्ती करते देखते, तो डाँट-डपट कर स्कूल भिजवा देते। पाखंड, धूर्तता और झूठ उनसे दूर भागते थे, बिना नाग़ा हर दिन स्कूल जाते थे, बेहद अनुशासित थे। उनकी माँ घरेलू, अपढ़ महिला थीं और यह ग़म उन्हें हमेशा सताता था। वे अपने तीनों बेटों नामवर सिंह, रामजी सिंह और काशीनाथ सिंह को उच्च शिक्षा देना चाहती थीं। उनकी ज़िंदगी का सबसे सुनहरा दिन वह था, जब नामवर सिंह को वज़ीफ़ा मिला था और उन पैसों से उन्होंने अपने बच्चों के दूध पीने के लिए बकरी ख़रीदी थी। वे चाहती थीं, कि उनके बेटे ख़ूब पढ़ें - बड़ा आदमी बनें।  
 
हिंदी साहित्य के ‘नामवर’ कहलाने वाले प्रो० नामवर सिंह इनके बड़े भाई थे। इतने प्रख्यात साहित्यकार की परछाईं तले पलने-बढ़ने के लाभ तो निश्चित होते हैं, परंतु उन्हीं की तरह अपनी अलग और सशक्त पहचान बना पाना आसान नहीं होता। नामवर सिंह जी ने उन्हें साहित्य की तरफ प्रेरित भी किया और उनकी रचनाओं की भरपूर आलोचना भी की। इसने काशीनाथ सिंह की क़लम को पैना बनाया और ख़यालात को नई ऊँचाइयाँ दीं। उपन्यास ‘काशी का अस्सी’ और कहानी ‘सुख’ का नामकरण भी नामवर सिंह ने ही किया था।  
 
रामजी उनके मँझले भाई थे। उनका साहित्य के प्रति रुझान तो नहीं था, लेकिन घटनाओं का वर्णन वे कहानियों के रूप में किया करते थे, उनके बखानों ने भी कथाकार काशीनाथ पर बहुत प्रभाव डाला है। 
बनारस काशीनाथ सिंह की कृतियों से झाँकता  हुआ दिखाई देता है, लेकिन पृष्ठभूमि में होता है, उनका गाँव। शहर में लंबे समय तक रहने के बावजूद उनमें गँवईं संस्कार मौजूद हैं। गाँव के अपने कथाकार जीवन पर पड़े प्रभाव के संदर्भ में वे कहते हैं, जिसे हम प्रकृति कहते हैं, उस प्राकृतिक सौंदर्य से भरापूरा गाँव थाइसके सिवा शादी-ब्याह के मौके पर, तीज-त्यौहार पर कभी-कभी आते थे – नाई-कहार जो क़िस्से-कहानियाँ सुनाया करते थे – रात रात भर।  उन्हें सुनने में मेरी बड़ी दिलचस्पी रहती थी।  सोने से पहले मैं बराबर क़िस्से सुना करता था। कहानी कहने का ढंग, कहानी करने का शिल्प, ये उन्हीं नाई –कहारों से और माँ से  मैंने सीखा। मुझे याद आ रहा है कि शुरुआत में मैंने एक कहानी लिखी थी – सुख और इस कहानी में ताड़ों के पीछे डूबते हुए सूरज का दृश्य है। दरअसल वह कहानी लिखी गयी थी बनारस में, लेकिन मेरी आँखों के सामने मेरे गाँव का डूबता हुआ सूरज था।  इस कारण आप चाहें तो कह सकते हैं, कि उन प्राकृतिक दृश्यों, कहानी कहने की शैली, इन सबकी बड़ी भूमिका है मेरे कथाकार होने में।”  
 
हज़ारी प्रसाद द्विवेदी इनके अध्यापक रहे जिनसे उन्होंने सीखा, कि असहमति विरोध नहीं होती बल्कि विचारों के द्वंद्व को आगे बढ़ाती है। करुणापति त्रिपाठी की रहनुमाई में इन्होंने अपना शोध काम तो पूर्ण किया ही साथ ही यह भी सीखा, कि लोगों की आस्थाएँ अलग हो सकती हैं, लेकिन प्रत्येक अपनी प्रतिबद्धता से बँधा रह सकता है और यह कि विचारों के मतभेद के बावजूद संबंध बने रह सकते हैं। 
 
गाँव, समाज, परिवार, विद्यार्थी जीवन, अध्यापकों, दोस्तों, छात्रों, यहाँ तक कि आसपास के लोगों की छवि उनके सृजन में दीखती है। उनका मानना था, कि कहानी विचारों से नहीं ज़िंदगी से बनती है, ऐसी ज़िंदगी जो समाज के विभिन्न स्तरों पर फैली अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही होती है। काशीनाथ जी कहते हैं - मैं तो आदमी लिखता हूँ, वह कहानी बनेगा इसका आश्वासन नहीं देता।  
 
काशीनाथ सिंह ने साहित्य के साथ-साथ हिंदी भाषा की भी सेवा की है। काशी हिंदू विश्वविद्यालय में वे सन् १९४९ से लेकर १९६४ तक ‘ऐतिहासिक व्याकरण कार्यालय’ में शोध-सहायक रहे और ‘हिंदी में संयुक्त क्रियाएँ’ विषय पर उन्होंने शोध-प्रबंध लिखा, जिसके लिए सन् १९६३ में काशी हिंदू विश्वविद्यालय से उन्हें पी.एच.डी. की उपाधि प्रदान की गयी। काशी हिंदू विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में सन् १९६५ से सन् १९९६ तक प्राध्यापक से लेकर प्रोफेसर के पद तक कार्यरत रहे। सन् १९९१ से १९९४ तक विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में आचार्य एवं अध्यक्ष पद पर बने रहे। उनके छात्र दिनेश कुशवाहा  (कवि) ने अपने संस्मरण में लिखा है - मैंने उन्हें बिना  नाग़ा सोलह वर्ष हिंदू विश्वविद्यालय में अध्यापन करते हुए, छात्र-कर्मचारी और अध्यापकों के आंदोलन में भाग लेते हुए, अस्सी घाट पर रमते हुए और चौराहे पर चाय पीते हुए, लंका पर पान खाते हुए और प्रेम करते हुए देखा है - अपने-बेगानों दोनों को। वे थे समाजवादी और साम्यवादी दोनों विचारधाराओं से जुड़े छात्रों और छात्र-नेताओं के लाड़ले  प्राध्यापक। जवान, ज़हीन, ख़ूबसूरत, ख़ैर ख़्वाह।  
काशीनाथ सिंह का कहना है, कि अध्यापक और छात्र के बीच में किताब के पन्ने नहीं होते, पन्नों में ज़िंदगी होती है। हम छात्रों को किताबों के माध्यम से जीवन जीना सिखाते हैं, संघर्ष करना पढ़ाते हैं। 
एक अध्यापक की तरह भी उन्होंने कई प्रतिमान स्थापित किए। उन्हें सेवानिवृत्त हुए २५ वर्ष हो गए हैं पर वे ख़ुद को अध्यापक ही मानते हैं। 
 
उनकी पहली कहानी संकटकृति पत्रिका में (सितम्बर १९६०) प्रकाशित हुई। उनका पहला उपन्यास अपना मोर्चा’ सन् १९६७ के छात्र आंदोलन पर केंद्रित है। शिक्षा पद्धति समाजोन्मुखता के स्थान पर हृदयों में जीवन विमुखता और नीरसता घोल रही है। इस उपन्यास से उनकी परिपक्व सामाजिक और राजनीतिक समझ का परिचय मिलता है। 
उनका दूसरा उपन्यास काशी का अस्सी’ लम्बे अंतराल के बाद सन् २००२ में आया और उसे उनकी  सबसे महत्त्वपूर्ण कृति माना जाता है। यह पहला उपन्यास है जिसका मुख्य पात्र किसी नगर का कोई मोहल्ला है, और उसकी कथावस्तु सामाजिक व्यंग्य है। काशी का अस्सी ऐसा उपन्यास है, जो कथा-रिपोर्ताज भी है, संस्मरण भी है, पाँच कहानियों का संकलन भी है।  इस रचना के ज़रिये काशीनाथ सिंह ने गद्य का एक नया रूप पेश किया है। यह पिछली सदी के नब्बे के दशक में देश में घटित मुख्य राजनीतिक और आर्थिक घटनाओं और उनके फलस्वरूप आये परिवर्तनों का ब्यौरा है। देश और समाज में होते परिवर्तनों को अस्सी पर मौजूद रहने वालों (जिनमें काशीनाथ ख़ुद भी हैं) के जीवंत संवादों में बयान किया गया है। पात्र चाय की दुकान में बैठ कर दीगर मुद्दों पर अपने विचार बनारसी भाषा (गालियों से लैस) में रखते हैं, और उनके मुद्दे अस्सी के दायरे से निकल कर देशव्यापी हो जाते हैं जो पाठक के सामने साठोत्तरी साहित्य के औज़ारों के माध्यम से आते हैं और उनके जीवन का अभिन्न हिस्सा हो जाते हैं। आम बातचीत को अनुपम कृति में ढालने का तिलस्म  रखते हैं काशीनाथ सिंह। 
अपनी रचना प्रक्रिया और सोद्देश्यता के बारे में उनका कहना है - मैं वही लिखता हूँ जो बख़ूबी जानता हूँ, जिसे नहीं जानता या कम जानता हूँ उसमें हाथ नहीं डालता।” 
 
कहानीकार के रूप में काशीनाथ सिंह ने ६० के दशक से ही ख़ूब नाम कमाया, लेकिन एक समय ऐसा आया कि उन्हें कहानियों से लेखन की आत्मसंतुष्टि मिलनी बंद हो गयी। यही वह समय था जब उन्होंने संस्मरण के क्षेत्र में प्रवेश किया और आँखों देखे हाल किस्साग़ोई अंदाज़ में पेश कर साहित्य जगत को चौंका सा दिया। उनके संस्मरण के सन्दर्भ में ‘हंस’ पत्रिका का पुनरारंभ करने वाले उसके संपादक राजेंद्र यादव के काशीनाथ जी को लिखे एक ख़त से: मज़ाक एक तरफ़ लेकिन तुम्हारे संस्मरणों ने लगभग तहलका मचा दिया है और नई आशंका ठीक ही होने जा रही है कि तुम जीवंत संस्मरण लिखने के अपराध में इतिहास-क़ैद कर दिए जाओगे।  मेरी सलाह यही है  कि जब एक बार सिलसिला शुरू किया है तो ५-७ और विस्फोट कर डालो और उसके बाद बैठकर उपन्यास कहानियाँ लिखना।”
 
उपन्यास रेहन पर रग्घू’ के लिए काशीनाथ सिंह जी को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला।  इस उपन्यास के चर्चित होने के दिनों में काशीनाथ सिंह ने कहा था: “मैंने यह उपन्यास यह दिखाने के लिए लिखा है कि मैं भी और लोगों की तरह लिख सकता हूँ, ऐसा नहीं है कि चले आते साहित्य-रूपों पर से पकड़ छूट गयी है इसलिए संस्मरण वगैरह लिख रहा हूँ।” बक़ौल संजीव कुमार - लेखक, अध्यापक, आलोचक - ऐसी टिप्पणी उसी के बस की बात है जो व्युत्पत्ति और अभ्यास की लम्बी प्रक्रिया से गुज़र कर अपनी प्रतिभा के विलक्षण पहलुओं की पहचान कर चुका है और उस पहलू की छाप जिन रचनाओं पर नहीं है, उन्हें ख़ुद ही औसत रचनाशीलता का उदाहरण मानने में सबसे आगे है।” काशीनाथ सिंह अपनी सृजन-शक्ति का वस्तुनिष्ठ आकलन करते हैं तभी डंके की चोट पर कहते हैं कि अपने क्षेत्र में मैं नामवर से कमतर नहीं हूँ।
 
काशी का अस्सी’ का सफल मंचन उषा गांगुली द्वारा निर्देशित काशीनामा’ नाटक द्वारा किया गया है। इस नाटक की १२५ प्रस्तुतियाँ देश-विदेश में हो चुकी हैं और हर प्रस्तुति के अंत में नाटकों के माहिरीन खड़े होकर ताली बजाते हैं और इसकी श्रेष्ठता पर अपनी मुहर लगाते हैं। काशीनामा को २००३ का पश्चिम बंगाल का सर्वश्रेष्ठ नाट्य पुरस्कार मिला।  इस उपन्यास पर फिल्म मोहल्ला अस्सी’ भी बनी जो ख़ूब पसंद की गयी। 
 
काशीनाथ सिंह जी ने जिस भी क्षेत्र में काम किया, उनके कामों की ख़ूब धूम मची। बतौर अध्यापक वे आज भी सप्रेम याद किए जाते हैं। लेखन के क्षेत्र में कथा, कहानी, उपन्यास, संस्मरण आदि क़िस्सागोई अंदाज़ में लिखकर उन्होंने विलक्षण प्रतिभा के झंडे गाड़ दिए और सबसे बड़ी बात यह कि बनारस की गलियों और मुहल्लों में घूमते हुए उन्होंने प्रत्येक के विचारों, बातों को अहमियत दी, उन्हें अपने मस्तिष्क के विभिन्न कोनों में दर्ज किया और जब कभी  कथानक ने माँग की, कुछ संवाद निकालकर, अपनी रचनाशीलता में पिरो कर हमें साहित्य के अनुपम नगीने देते रहे हैं।

  

जीवन परिचय : काशीनाथ सिंह 

जन्म

१ जनवरी, १९३७

जन्मभूमि

जीयनपुर गाँव, ज़िला वाराणसी (वर्तमान चंदौली)

कर्मभूमि

बनारस 

पिता

नागर सिंह 

माता

बागेश्वरी 

शिक्षा एवं शोध

एमए 

हिंदी, काशी हिंदू विश्वविद्यालय 

पीएचडी

हिंदी में संयुक्त क्रियाएँ’, काशी हिंदू विश्वविद्यालय 

साहित्यिक रचनाएँ

कहानी संग्रह

  • लोग बिस्तरों पर, १९६८ 

  • सुबह का डर १९७५

  • आदमीनामा १९७८

  • नयी तारीख़ १९७९

  • कल की फटेहाल कहानियाँ १९८०

  • प्रतिनिधि कहानियाँ १९८४

  • सदी का सबसे बड़ा आदमी १९८६

  • १० प्रतिनिधि कहानियाँ १९९४

  • कहानी उपखान २००३

  • संकलित कहानियाँ २००८

  • कविता की नयी तारीख़ २०१०

  • खरोंच २०१४ 

उपन्यास

  • अपना मोर्चा १९७२

  • काशी का अस्सी २००२

  • रेहन पर रग्घू २००८

  • महुआ चरित २०१२

  • उपसंहार २०१४ 

संस्मरण 

  • याद हो कि न याद हो १९९२ 

  • आछे  दिन पाछे गए २००४ 

  • घर का जोगी जोगड़ा २००६ 

शोध आलोचना 

  • हिंदी में संयुक्त क्रियाएँ 

  • आलोचना भी रचना है १९९६ 

  • लेखक की छेड़छाड़ २०१३ 

नाटक 

  • घोआस 

संपादन 

  • परिवेश १९७१-१९७६ 

  • काशी के नाम २००७ (नामवर सिंह के पत्रों का संचयन)

काशीनाथ सिंह पर केंद्रित विशिष्ट साहित्य 

  • कहन पत्रिका का विशेषांक २०००, संपादक- मनीष दुबे 

  •  ‘बनास जन’ का विशेषांक ‘गल्पेतर गल्प का ठाठ’  २०१०, संपादक - पल्लव 

  • सम्बोधन का विशेषांक (अक्टूबर २०१२- जनवरी २०१३) संपादक - कमर मेवाड़ी 

पुरस्कार व सम्मान

  • कथा सम्मान

  • समुच्चय सम्मान

  • शरद जोशी सम्मान

  • साहित्य भूषण सम्मान

  • भारत भारती पुरस्कार 

  • साहित्य अकादमी पुरस्कार २०११ 

  

संदर्भ


लेखक परिचय

 प्रगति टिपणीस 

पिछले तीन दशकों से मास्को, रूस में रह रही हैं। इन्होंने अभियांत्रिकी में शिक्षा प्राप्त की है। ये रूसी भाषा से हिंदी और अंग्रेज़ी में अनुवाद करती हैं। आजकल एक पाँच सदस्यीय दल के साथ हिंदी-रूसी मुहावरा कोश और हिंदी मुहावरा कोश पर काम कर रही हैं। हिंदी से प्यार करती हैं और मास्को में यथा संभव हिंदी के प्रचार-प्रसार का काम करती हैं।

21 comments:

  1. प्रगति जी आपके द्वारा बहुत सुन्दर तरीके से लेखक के बारे में लिखा गया है। वैसे मैंने कम पढ़ा है काशीनाथ जी को लेकिन अब पढ़ना चाहूंगी! अनेक शुभकामनाएं!

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    1. हार्दिक आभार, कल्पना जी। मुझे इस बात की ख़ुशी है कि आलेख ने आपमें काशीनाथ को पढ़ने की रूचि जगाई।

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  2. प्रगति जी नमस्ते l आदरणीय काशीनाथ सिंह जी पर बहुत खूबसूरत शब्दों में गंभीर , शोधपरक ,आलोचनात्मक , कलात्मक लेख लिखा है जो "क्लास " के साथ साथ हिंदी से प्यार करने वाले साहित्यिक अभिरुचि वाले "मास" पाठकों को भी लुभाने में समर्थ है l आदरणीय काशीनाथ जी को सादर प्रणाम l आपके लेखन को सलाम l काशीनाथ जी और काशी की सांस्कृतिक पृष्टभूमि को जानने और समझने के लिए बेहद जरूरी लेख l बहुत बहुत बधाई और हार्दिक आभार

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    1. हार्दिक आभार, इंद्रजीत जी। आपने काशीनाथ सिंह जी पर बनास का विशेषांक उपलब्ध करा के मेरे इस लेखन को सरल और सरस बना दिया। आपके मार्गदर्शन के लिए सदा आभारी हूँ।

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  3. प्रगति जी आपने काशीनाथ जी पर बहुत अच्छा लेख लिखा है। इस रोचक लेख के माध्यम से नई जानकारी मिली और पढ़ने में आनन्द आया। लेख के लिए हार्दिक बधाई।

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    1. दीपक जी, तहे दिल से आपका शुक्रिया। अगर लेख रोचक लगा तो लिखना सार्थक हुआ।

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  4. आपने बहुत उम्दा लिखा है प्रगति जी. बधाई.

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    1. हार्दिक आभार आपका, दुर्गाप्रसाद जी।

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  5. गति जी, यह लेख पढ़ते ही मन में "काशी का अस्सी" पढ़ने की इच्छा जगी। बहुत शानदार लिखा है आपने। बधाई एवं शुभकामनाएँ💐

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    1. दीपा, बहुत-बहुत शुक्रिया। काशी का अस्सी अपने आप में बिलकुल विरली कृति है। हम बरसों से विदेश में रह रहे हैं, २०१२ में दो राजनयिक मॉस्को आए थे जिनसे अच्छी दोस्ती थी। दोनों से अलग-अलग पूछने पर कि कौन सी किताब पढ़ूँ, जवाब मिला था- काशी का अस्सी। इस किताब की धूम भी ख़ूब मची और गालियों के भरपूर प्रयोग के कारण काफ़ी कटु आलोचना भी सहनी पड़ी। मेरी सलाह यह होगी कि इसे पढ़कर आप अपनी धारणा इसके बारे में खुद बनाएं।

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  6. बहुत सुंदर प्रस्तुति प्रगति जी l आपने बहुत ही बढ़िया लिखा है l इस शोध के लिए आपको नमन करता हूँ l काशीनाथ जी के व्यक्तिगत और साहित्यिक विशेषताओं को समेटे हुए एक शानदार और सम्पूर्ण आलेख पढ़ने को मिला l

    बनारस ,अस्सी घाट का मेरे व्यक्तिगत जीवन में भी बहुत महत्व है l बनारस की संस्कृति को वास्तविक रूप से समझना हो तो काशी का अस्सी ज़रूर पढ़ना चाहिए l बहुत कुछ दर्ज है इसमें l रही बात गालियों कि तो मेरा व्यक्तिगत मानना है कि काशीनाथ जी ने वही लिखा जो उन्होंने देखा,महसूस किया और जिया l कोई कुछ भी कहे किंतु बनारस की संस्कृति में गालियों का बहुत दख़ल है जिसके बिना वहाँ के आमजन के जीवन से न्याय नहीं कर पाएँगे l होली पर भाँग की नशे में गालियों का उत्सव होता है और अन्नकूट पर महिलाएँ गालियाँ देती है जिसे शुभ माना जाता है l बहुतायत में प्रयोग रोका जा सकता था लेकिन यक़ीन मानिए उसके बिना पात्र का संवाद अधूरा ही माना जाता l असली बनारसीपन यही है l बाक़ी अपवाद तो हर जगह है क्योंकि सबका अपना अपना नज़रिया है l

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    1. जी, मैं भी गालियों के काशी का अस्सी में हुए उपयोग के बारे में यही सोचती हूँ। यह उपन्यास पात्रों के मुख से लिखा गया है और चाय की दुकान या घाट पर घूमते बाशिंदों की भाषा में अगर गालियों का बड़ा हिस्सा है तो उन्होंने उसे वैसे ही दिया है। उपन्यास के आने से अबतक यह विषय चर्चा का मुद्दा बना हुआ है, लेकिन उसकी लोकप्रियता ने उस चर्चा के प्रभाव को बहुत कम कर दिया है।
      विनोद जी, आपका बहुत बहुत आभार लेख पर प्रतिक्रिया देने के लिए।

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  7. नमस्ते प्रगति जी , काशीनाथ सिंह जी को 3-4 बार अलग-अलग मंच से सुनने का मौका मिला है ...जिसमे से जनवादी लेखक संघ लखनऊ इकाई का मंच भी शामिल है। काशीनाथ सिंह जी के वक्तव्य को सुनते हुए लगा कि वे लाग लपेट से दूर एक यथार्थवादी व्यक्तित्व के स्वामी हैं। और यही यथार्थवादिता उनके लेखन में भी दिखी। जिसे आप के लेख के माध्यम से और भी अच्छी तरह से जानने , समझने का मौका मिला। मेरी सीमित जानकारी में , आपका लेख पढ़ते हुए अभूतपूर्व इज़ाफ़ा हुआ है। आभारी हूँ आपकी।😊💐
    एक सुंदर , समृद्ध लेख के लिए आपको बहुत बधाई। 🙏

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    1. आभा जी, इतनी सुन्दर प्रतिक्रिया के लिए आपका दिल से शुक्रिया। अगली बार जब लखनऊ आऊँगी तो आपसे ज़रूर मिलूंगी। वैसे आप लखनऊ में कहाँ रहती हैं?

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  8. प्रगति, हिंदी के वरिष्ठ कथाकार काशीनाथ सिंह जी पर तुम्हारा रोचक और सारगर्भित आलेख पढ़कर मजा आया। अति सराहनीय और उत्तम आलेख। तुम्हें इसके लिए बधाई! मैंने काशी का अस्सी अभी तक नहीं पढ़ा है, अब ज़रूर पढूँगी।

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    1. धन्यवाद, सरोज। जैसा जगदीश व्योम जी ने लिखा है हो सकता है भाषा में अराजकता लाने का उन पर आरोप है पर कथा शिल्प की दृष्टि से भी काशी का अस्सी अद्वितीय है। मुझे लगता है प्रत्येक को किसी भी कृति को पढ़ने के बाद ही अपनी धारणा बनानी चाहिए। ज़रूर पढ़ना और बिलकुल खुले दिमाग़ से।

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  9. प्रगति, हिंदी के वरिष्ठ कथाकार काशीनाथ सिंह जी पर तुम्हारा रोचक और सारगर्भित आलेख पढ़कर मजा आया। अति सराहनीय और उत्तम आलेख। तुम्हें इसके लिए बधाई! मैंने काशी का अस्सी अभी तक नहीं पढ़ी है, अब ज़रूर पढूँगी।

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  10. नमस्ते प्रगति जी, बहुत अच्छा काम आप ने किया है । बधाइयां।

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    1. आपका बहुत बहुत आभार। मैं आपका नाम नहीं देख पा रही हूँ पर आपकी प्रतिक्रिया प्राप्त कर अभिभूत हूँ।

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  11. आचार्य हजारी प्रसाद के शिष्य श्री काशीनाथ सिंह जी कहते थे कि समाज मे अगर कोई परिवर्तन करना हैं तो राजनीति से कीजिए क्योंकि साहित्य से कोई परिवर्तन होना संभव नहीं हैं। परन्तु स्वयं साहित्य के यथार्थवादी सुप्रसिद्व रचनाकार माने जाते हैं। समकालीन हिंदी कथाकारों में श्री काशीनाथ सिंह का महत्वपूर्ण स्थान हैं। आद. प्रगति जी के आलेख से उनके साहित्यिक जीवन से साक्षात्कार हुआ। उनके बारे में काफी पढ़ा और सुना हैं परंतु प्रगति जी का लेख पढ़ने के बाद उन्हें एक बार फिर पढ़ने की इच्छा हो रही हैं। आपका बहुत बहुत आभार।

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    1. सूर्या जी, बहुत बहुत आभार आपका। आपने देर से सही पर आलेख पढ़ा और सकारात्मक प्रतिक्रिया दी। लेखन के लिए ऐसी प्रतिक्रियाएँ प्रेरणा का काम करती हैं।

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