प्रगतिशील लेखक संघ का पहला स्थापना सम्मेलन ९ अप्रैल, १९३६ को लखनऊ में आयोजित हुआ था। सम्मेलन के अध्यक्ष मुंशी प्रेमचंद ने कहा था, कि “साहित्य, देशभक्ति और राजनीति के पीछे चलने वाली सच्चाई ही नहीं, बल्कि उसके आगे मशाल दिखाती हुई सच्चाई है।” अर्थात साहित्य पथप्रदर्शक की भूमिका अदा करता है, जिसमें यथार्थ प्रतिबिंबित होता है। यथार्थवाद जहाँ काव्यशास्त्रीय सिद्धांतों से स्वयं को बचाते हुए सत्य के ठोस व खुरदरे धरातल पर खड़ा होता है, वहीं जनवाद निर्धन, शोषित व सर्वहारा की अनंत मौन पीड़ा को अपनी लेखनी से मुखर करता है।
१७ अक्तूबर, १९३६ को एक साधारण कृषक देवकीनंदन के पुत्र के रूप में जन्मे दूधनाथ सिंह, यथार्थवाद के जनवादी स्वर थे। वे हिंदी साहित्य के ऐसे जाज्वल्यमान नक्षत्र थे, जो हर विधा में प्रकाशमान रहे। उन्होंने अपनी कहानियों के माध्यम से साठोत्तरी भारत के पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक, नैतिक एवं मानसिक विसंगतियों को चुनौती दी। एक आलोचक, संपादक एवं कथाकार के रूप में हिंदी साहित्य जगत को प्रदत्त उनकी अनमोल कृतियाँ सदियों तक साहित्य पथ को प्रकाशित करती रहेंगी।
प्रारंभिक जीवन
दूधनाथ सिंह जी का जन्म एक आम कृषक परिवार में हुआ था। बचपन से ही गाँव कैथवली और सुरही के पुस्तकालयों से किताबें ले कर खूब पढ़ा करते थे। इनके छोटे भाई, सेना से रिटायर्ड जेसीओ रामाधार सिंह जी, बताते हैं, कि वे अक्सर पेड़ों की डालों और मचानों पर शांति से बैठकर किताबों में मगन हो जाते थे। इनके बड़े पिता मुखराम सिंह जी इनकी प्रतिभा के कायल थे और इन्हें हमेशा आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करते थे।
शिक्षण
एक बार बलिया के तत्कालीन जिलाधिकारी मेंहदी हस़न साहब इनके गाँव के पास से निकले और इन्हें पढ़ने में तल्लीन देखकर रुककर इनसे बात की। इनकी हिंदी और फ़र्राटेदार अंग्रेज़ी बोलने से ज़िलाधिकारी बहुत प्रभावित हुए और इन्हें इलाहाबाद जाकर शिक्षा ग्रहण करने की राय दी। दूधनाथ सिंह जी ने इस राय पर अमल किया।
आगे चल कर उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में स्नातकोत्तर के लिए उर्दू भाषा का चयन किया, क्योंकि बी.ए. में इनके पास उर्दू भाषा ही थी। वहाँ इनसे उर्दू के कुछ शब्द लिखने के लिए कहा गया, जो इन्होंने ब्लैकबोर्ड पर लिख दिए। परंतु विश्वविद्यालय ने इन्हें हिंदी भाषा में ही स्नातकोत्तर करने हेतु चयन किया।
आगे चल कर उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में स्नातकोत्तर के लिए उर्दू भाषा का चयन किया, क्योंकि बी.ए. में इनके पास उर्दू भाषा ही थी। वहाँ इनसे उर्दू के कुछ शब्द लिखने के लिए कहा गया, जो इन्होंने ब्लैकबोर्ड पर लिख दिए। परंतु विश्वविद्यालय ने इन्हें हिंदी भाषा में ही स्नातकोत्तर करने हेतु चयन किया।
साहित्य सेवा
शिक्षण के समय ही दूधनाथ सिंह का परिचय प्रख्यात साहित्यकार धर्मवीर भारती से हुआ। जिन्होंने उनका गुरु बनकर उन्हें साहित्य में आगे बढ़ने की प्रेरणा दी। दूधनाथ सिंह की पहली कहानी 'चौकोर छायाचित्र' १९५७ में 'कौमुदी' पत्रिका में प्रकाशित हुई। इसके बाद १९५९ में इनकी कहानी 'सपाट चेहरे वाला आदमी' लहर पत्रिका में प्रकाशित हुई। जब साहित्यकार मोहन राकेश जी 'सारिका' के संपादक थे, तब इनकी कहानी 'बिस्तर' सारिका में प्रकाशित हुई तथा इस कहानी को पुरस्कृत किया गया।
जीवकोपार्जन हेतु १९६० में दूधनाथ सिंह कलकत्ता गए, वहाँ बालीगंज स्थित रंगूटा हाईस्कूल में अध्यापन हेतु साक्षात्कार दिया। उनकी प्रतिभा से प्रभावित होकर स्कूल के प्रबंधक ने उन्हें प्रधानाचार्य नियुक्त कर दिया। उन्हीं दिनों वे 'ज्ञानोदय' पत्रिका के संपादक शरद देवड़ा जी के संपर्क में आए। देवड़ा जी से वे इतने प्रभावित हुए, कि स्कूल से त्यागपत्र देकर उन्होंने 'ज्ञानोदय' पत्रिका के उप-संपादक का दायित्व सँभाल लिया। एक साल ही कार्य कर पाए थे, कि वे प्रकृति के सुकुमार कवि सुमित्रानंदन पंत के संपर्क में आए तथा उनकी प्रेरणा से कलकत्ता छोड़कर पुन: इलाहाबाद आ गये। पंत जी के संपर्क में आने के बाद १९६४ में इलाहाबाद विश्वविद्यालय में सहायक प्रोफेसर की नौकरी पा गए।
इस बीच दूधनाथ सिंह जी जनवादी व यथार्थवादी साहित्य रचते रहे। हिंदी में उन्होंने उपन्यास, कहानियाँ, संस्मरण, कविताएँ, आलोचना जैसे हर साहित्य क्षेत्र का संवर्धन किया। इन्होंने उत्कृष्ट विदेशी साहित्य की कई कृतियों का अनुवाद भी किया।
दूधनाथ सिंह जी के सभी उपन्यास जनसरोकारों से युक्त एवं समाज और राजनीति में फैली विद्रूपताओं और अपसंस्कृति को उजागर करते हैं। वहीं दूसरी ओर मानस को झकझोरते हुए इस सड़ांध से निकलने की दिशा की ओर भी इशारा करते हैं। चाहे वह 'आख़िरी कलाम' के मुख्यपात्र हिंदू सांप्रदायिकता के विरुद्ध प्रतिरोध की आवाज़ 'तत्सत पांडे' हों और चाहे वह 'नमो अंधकारं' के लिजलिजे भ्रष्ट मठाधीश प्रोफ़ेसर गुरु हों व 'निष्कासन' उपन्यास के वामपंथी चोला ओढ़े शिक्षा के नाम पर छात्रावास की बेचारी दलित लड़की को वेश्या बनाने हेतु प्रयासरत तथा हॉस्टल से निकालने की धमकी देने वाले शार्दूल विक्रम सिंह और उनकी पत्नी हों! सभी पात्र बखूबी हमारे समाज का प्रतिबिंब हैं एवं पाठकों पर गहरी छाप छोड़ते हैं। उनके उपन्यास 'आख़िरी कलाम' का यह अंश पाठकों को गंभीर विचार-मंथन में डाल देता है -
जीवकोपार्जन हेतु १९६० में दूधनाथ सिंह कलकत्ता गए, वहाँ बालीगंज स्थित रंगूटा हाईस्कूल में अध्यापन हेतु साक्षात्कार दिया। उनकी प्रतिभा से प्रभावित होकर स्कूल के प्रबंधक ने उन्हें प्रधानाचार्य नियुक्त कर दिया। उन्हीं दिनों वे 'ज्ञानोदय' पत्रिका के संपादक शरद देवड़ा जी के संपर्क में आए। देवड़ा जी से वे इतने प्रभावित हुए, कि स्कूल से त्यागपत्र देकर उन्होंने 'ज्ञानोदय' पत्रिका के उप-संपादक का दायित्व सँभाल लिया। एक साल ही कार्य कर पाए थे, कि वे प्रकृति के सुकुमार कवि सुमित्रानंदन पंत के संपर्क में आए तथा उनकी प्रेरणा से कलकत्ता छोड़कर पुन: इलाहाबाद आ गये। पंत जी के संपर्क में आने के बाद १९६४ में इलाहाबाद विश्वविद्यालय में सहायक प्रोफेसर की नौकरी पा गए।
इस बीच दूधनाथ सिंह जी जनवादी व यथार्थवादी साहित्य रचते रहे। हिंदी में उन्होंने उपन्यास, कहानियाँ, संस्मरण, कविताएँ, आलोचना जैसे हर साहित्य क्षेत्र का संवर्धन किया। इन्होंने उत्कृष्ट विदेशी साहित्य की कई कृतियों का अनुवाद भी किया।
दूधनाथ सिंह जी के सभी उपन्यास जनसरोकारों से युक्त एवं समाज और राजनीति में फैली विद्रूपताओं और अपसंस्कृति को उजागर करते हैं। वहीं दूसरी ओर मानस को झकझोरते हुए इस सड़ांध से निकलने की दिशा की ओर भी इशारा करते हैं। चाहे वह 'आख़िरी कलाम' के मुख्यपात्र हिंदू सांप्रदायिकता के विरुद्ध प्रतिरोध की आवाज़ 'तत्सत पांडे' हों और चाहे वह 'नमो अंधकारं' के लिजलिजे भ्रष्ट मठाधीश प्रोफ़ेसर गुरु हों व 'निष्कासन' उपन्यास के वामपंथी चोला ओढ़े शिक्षा के नाम पर छात्रावास की बेचारी दलित लड़की को वेश्या बनाने हेतु प्रयासरत तथा हॉस्टल से निकालने की धमकी देने वाले शार्दूल विक्रम सिंह और उनकी पत्नी हों! सभी पात्र बखूबी हमारे समाज का प्रतिबिंब हैं एवं पाठकों पर गहरी छाप छोड़ते हैं। उनके उपन्यास 'आख़िरी कलाम' का यह अंश पाठकों को गंभीर विचार-मंथन में डाल देता है -
"अपने वर्तमान रूप में अयोध्या के बसने का इतिहास तीन-चार सौ वर्षों से पुराना नहीं है। सब कुछ इसी के भीतर हुआ। किसी भी भवन के वास्तु-कला संबंधी परीक्षण से यह तथ्य आसानी से सिद्ध किया जा सकता है। लेकिन तथ्यों से आज किसी को क्या लेना-देना! मिथकों की धुंध में डूबी अयोध्या की सांस घुट रही है।"
दूधनाथ सिंह जी की कविताएँ प्रगतिशीलता, जनवाद और यथार्थवाद का मिश्रित स्वर हैं। इनकी कविता पाठक और श्रोता दोनों को विगलित करती है। इनकी कविता 'तुम्हारे जन्मदिन पर' देश और समाज की स्थिति पर पैनी दृष्टि है -
दूधनाथ सिंह जी की कहानियाँ भी यथार्थ के नए बिंबों को सिरजती हैं तथा पाठकों को एक नए समाज के स्वप्न व वामपक्षीय ईमानदारी से अवगत कराती हैं। उनकी कहानी 'नपनी' दहेज लोभियों पर करारा तमाचा है। इस कहानी में दुल्हन लड़के के बाप के मुँह पर थप्पड़ जड़ देती है।
तुम्हारे जन्म-दिन पर आएगी स्वतंत्रता
तुम्हारे जन्म-दिन पर सजेगा लालक़िला
तुम्हारे जन्म-दिन पर ले जाए जाएँगे प्रधानमंत्री ऊपर
बखान करेंगे। सलामी लेंगे । झण्डा खींचेंगे तिरंगा
तुम्हारे जन्म-दिन पर खूब झमाझम होगी बारिश
झूमेंगे गरजेंगे मेघ
तुम्हारे जन्म-दिन पर ख़ूनी दरवाज़े पर पुलिस का दस्ता होगा
तुम्हारे जन्म-दिन पर पर मारे जाएँगे कश्मीरी दो-चार
तुम्हारे जन्म-दिन पर फिरूँगा अकेला
न जाने कहाँ
कब तक!....!
जब तक दूधनाथ सिंह जी की लघु उपन्यासिका 'धर्म क्षेत्रे कुरुक्षेत्रे' का उल्लेख न किया जाए, तब तक यह आलेख अपूर्ण ही रहेगा। यह कहानी राजनीति, धर्म, जातिवाद, औरतों की खरीद-फ़रोख़्त पर केंद्रित है। एक स्त्री की अपनी नवजात संतान को बचाने की जिजीविषा तथा एक बाप से पुत्र की निर्मम लड़ाई पर आधारित उपन्यास में पुत्र द्रवित होकर उस स्त्री को स्वयं की पत्नी व नवजात को पुत्र मान लेता है। लड़ाई का अंत बाप बेटे द्वारा एक दूसरे पर किए गए घातक प्रहारों से दोनों की मौत से होता है और वह सताई हुई स्त्री अपने बच्चे की सुरक्षा हेतु अंधेरे जंगल में गुम हो जाती है।
दूधनाथ सिंह जी के डायरी के कुछ पन्ने भी बहुत प्रभावशाली हैं। डायरी का उनका यह पन्ना-
“प्रतीकार्थ भिन्न भी हो सकते हैं-
जैसे कि लिखने के बाद का हैंगोवर- असफलता
जैसे कि उम्र बीत जाने का हैंगओवर- अवसाद
जैसे कि प्रेम का हैंगओवर- खीझ”
दूधनाथ सिंह जी की डायरी का यह पन्ना दिनांक ६ मार्च २०१४ को लिखा गया है। इनकी डायरी को पढ़ने से ऐसा प्रतीत होता है, कि वह पाठकों से एकालाप कर रहे हैं।
दूधनाथ सिंह जी के साक्षात्कारों में फरवरी, २०१६ के अंक में गुफ्तगू के अंतर्गत सितंबर २०१५ में प्रभाशंकर शर्मा और शिवपूजन जी ने उनसे बातचीत की। इस बातचीत में दूधनाथ जी ने ग़ज़ल तथा हिंदी-उर्दू संबंधों पर बहुत ही मौंजू बात कही -
" हिंदी में ग़ज़ल लिखी ही नहीं जा सकती। क्योंकि हिंदी के अधिकांश ग़ज़लगो शायर बह्र और क़ाफ़िया रदीफ़ से परिचित नहीं हैं। इसके अलावे हिंदी के अधिकांश शब्द संस्कृत से आए हैं, जो ग़ज़ल में फिट नहीं बैठते और लड़खड़ाते हैं ------ और जब ग़ज़ल उनसे नहीं बनती तो उर्दू अल्फ़ाज़ का सहारा लेते हैं। अरबी से फ़ारसी और फ़ारसी से उर्दू में आती हुई ग़ज़ल की अपनी परंपरा है।"
इसी साक्षात्कार में वे आगे कहते हैं -
" हिंदी-उर्दू साहित्य एक प्रतिरोधी विधा है, वह सत्ता की अनुगामी कभी नहीं रही।"
" हिंदी-उर्दू साहित्य एक प्रतिरोधी विधा है, वह सत्ता की अनुगामी कभी नहीं रही।"
और आगे कहते हैं -
" हिंदी-उर्दू साहित्य के स्तर पर दोनों अलग-अलग हैं, लेकिन व्यावहारिक ढांचा एक ही है, फ़र्क़ यह है, कि हिंदी संस्कृत से अपनी शब्दावली ग्रहण करती है, जबकि उर्दू फ़ारसी से। अगर इसमें कठोरता बरतेंगे, तो दोनों भाषाएँ विनष्ट हो जाएँगी। भारतेंदु ने १८७२ में एक लेख लिखा था, जिसका शीर्षक ' हिंदी नई चाल में ढली ' इसमें उन्होंने भाषा का जो स्वरूप निर्धारित किया है, उसी में सब कुछ संभव है।"
दूधनाथ सिंह जी का देहांत प्रोस्टेट कैंसर की बीमारी से हुआ। यह जानते हुए भी, कि वह कैंसर जैसी जानलेवा बीमारी से पीड़ित हैं, उन्होंने लिखना बंद नहीं किया। उनकी अटूट जिजीविषा उन्हें साहित्य लेखन से जोड़े रही। दूधनाथ सिंह जी के जीवन के अस्सी वर्ष पूरे होने पर १८ अक्टूबर २०१६ में हिंदुस्तान अकादमी, इलाहाबाद में आयोजित 'अस्सी के दूधनाथ सिंह' कार्यक्रम में वरिष्ठ साहित्यकारों ने उनके लेखन के बारे में जो विचार प्रकट किए, वह यह साबित करते हैं, कि वे हिंदी के साहित्याकाश में फीनिक्स पक्षी की भांति ही अवतरित हुए, वैसे ही पंचतत्व में भस्मीभूत हुए। उनके बारे में साहित्यकारों ने कहा -
"दूधनाथ सिंह का झूठा-सच और तमस के बाद हिंदी उपन्यास के क्षेत्र में उनका उपन्यास आख़िरी कलाम सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। वह साठोत्तरी के ऐसे अकेले रचनाकार हैं, जिन्होंने तकरीबन सभी विधाओं में काम किया और योग्य शिष्यों की कई-कई पीढ़ियाँ तैयार कीं। वह मुकम्मल रचनाकार हैं।" - काशीनाथ सिंह
"दूधनाथ सिंह जोखिम के लेखक हैं, उन्होंने जीवन, विचार और रचनाकर्म हर जगह जोखिम लिए।" - वीरेंद्र यादव
"दूधनाथ सिंह अपने शिष्यों के साथ लोकतांत्रिक और बराबरी का रिश्ता रखते हैं। लोग गुरुओं के बारे में लिखते हैं, उन्होंने शिष्यों पर लिखा।" - अखिलेश
"दूधनाथ सिंह आनंद भाव के लेखक हैं, उनका मानना है, कि लिखने से जीना संभव हुआ। लिखने से हम मनुष्य और मुक्त हुए।" - प्रो० सदानंद शाही
एक अन्य जगह साहित्यकार पंकज प्रसून लिखते हैं -
"दूधनाथ सिंह जी भाषा में ज्यादा प्रयोग किए बिना कंटेंट में चमत्कार करते थे, जिससे उनकी लेखनी सहज और सरल थी और हर वर्ग उसे आसानी से समझ सकता था।"
और अंत में उनके ही कवितांश के साथ उन्हें शत-शत नमन।
मैं मरने के बाद भी
याद करूँगा
तुम्हें
तो लो अभी मरता हूँ
झरता हूँ
जीवन की
डाल से------।
लेखक परिचय
गीता भारद्वाज
कवयित्री एवं रचनाकार
अभिव्यंजना संस्था द्वारा महादेवी वर्मा पुरस्कार से सम्मानित,
अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित,
जनवादी लेखक संघ व प्रबोधिका की सदस्य
पता- रकाबगंज खुर्द, टाउनहाल के निकट, फर्रुखाबाद(उत्तर-प्रदेश), भारत
मोबाइल नंबर- ९५६५८२७५५१
ई- मेल- sunilkatiyar57@gmail.com
अभिव्यंजना संस्था द्वारा महादेवी वर्मा पुरस्कार से सम्मानित,
अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित,
जनवादी लेखक संघ व प्रबोधिका की सदस्य
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बहुत ही बढ़िया रोचक आलेख
ReplyDeleteबेहतरीन लेख। आभार। सादर।।
ReplyDeleteदूधनाथ सिंह जी की साहित्यिक यात्रा को समेटे हुए एक महत्वपूर्ण लेख है। गीता जी को इस उत्तम लेख के लिए बहुत बहुत बधाई।
ReplyDeleteबेहतरीन लेख
ReplyDeleteगीता जी, आपने साठोत्तरी साहित्य के महत्त्वपूर्ण स्तम्भ दूधनाथ जी की जीवन और कृतित्व यात्रा को सारगर्भित तरीके से इस जानकारीपूर्ण और रोचक लेख में समेटा है। आपको इस लेखन की बहुत-बहुत बधाई और आभार।
ReplyDeleteरोचक आलेख,हार्दिक बधाई गीता जी
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteगीता बिटिया को इस शोधपूर्ण व तथ्यपरक आलेख के लिए बहुत-बहुत बधाई। गीता ने इस आलेख में दूधनाथ सिंह जी के व्यक्तित्व व कृतित्व को पूरी तरह से बखूबी समेटने का प्रयास किया है।आगे भविष्य में गीता बिटिया और ज्यादा अपनी लेखनी को सुदृढ़ और पैना करे, यही मेरी कामना है।- सुनील कुमार कटियार, फर्रुखाबाद(उत्तर-प्रदेश), भारत।
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