भारतीय राजनीति का शिखर पुरुष कहलाए जाने वाले सशक्त जननायक, स्वप्नदर्शी, राजनायक, आदर्श चिंतक, दार्शनिक के साथ-साथ युग को एक विशेष रंग देने वाले चक्रवर्ती राजगोपालाचारी को आधुनिक भारत के इतिहास का 'चाणक्य' माना जाता है। वे स्वतंत्र भारत के पहले भारतीय गवर्नर जनरल थे। वकील, लेखक, राजनीतिज्ञ और दार्शनिक थे। उनके व्यक्तित्व के इतने रूप हैं, इतने आयाम हैं, इतने रंग हैं, इतने दृष्टिकोण हैं, उनकी उपलब्धियाँ इतनी विराट हैं कि उन्हें मिली 'राजाजी' की उपाधि सर्वथा समुचित है। विलक्षण प्रतिभा, राजनीतिक कौशल, कुशल नेतृत्व क्षमता, बेबाक सोच, निर्णय क्षमता, दूरदर्शिता और बुद्धिमत्ता के कारण कांग्रेस के सभी नेता उनका लोहा मानते रहे।
प्रारंभिक जीवन
चक्रवर्ती राजगोपालाचारी का जन्म १० दिसंबर १८७८ को तमिलनाडु के कृष्णागिरी ज़िले के थोरापल्ली अग्रहारम में हुआ था। वे थोरापल्ली के मुंसिफ चक्रवर्ती वेंकटेरियन और सिंगरम्मा के तीसरे पुत्र थे। राजगोपालाचारी की आरंभिक शिक्षा थोरापल्ली और होसुर के प्राथमिक विद्यालयों में हुई और १८९१ में उन्होंने मैट्रिक पास किया। १८९४ में उन्होंने बैंगलोर के सेंट्रल कॉलेज से कला में स्नातक किया। १८९७ में प्रेसीडेंसी कॉलेज, मद्रास से कानून में स्नातक किया और उसी वर्ष उनका विवाह दस वर्षीय अलामेलु मंगलम्मा से हो गया। १९०० में तमिलनाडु के सेलम में उन्होंने अपना कानूनी करियर आरंभ किया। यही वह समय था जब उनकी रुचि राजनीति और समाज में उत्पन्न हुई। १९११ में वे सलेम नगरपालिका के सदस्य बने। उन्होंने १९१७ से १९१९ तक इसके अध्यक्ष के रूप में भी कार्य किया। अध्यक्ष के रूप में उनके कार्यकाल के दौरान नगरपालिका को अपना पहला दलित सदस्य मिला। इस विकास में राजगोपालाचारी की बड़ी भूमिका थी।
स्वतंत्रता संग्राम और राजाजी
राजगोपालाचारी जी १९०६ में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हुए और १९०६ के कलकत्ता अधिवेशन में भाग लिया। उसके बाद वे राष्ट्रीय राजनीति में सक्रिय रूप से शामिल हो गए। उन्होंने रॉलेट एक्ट विरोधी आंदोलन और असहयोग आंदोलन में भाग लिया तथा जेल भी गए। वे महात्मा गाँधी के सच्चे अनुयायी थे और गाँधीजी भी उन्हें अपनी अंतरात्मा की आवाज़ कहते थे। जेल से छूटते ही वे अपनी वकालत और तमाम सुख-सुविधाओं को त्याग, पूर्ण रूप से स्वतंत्रता संग्राम को समर्पित हो गए और खादी पहनने लगे। चक्रवर्ती देश की राजनीति और कांग्रेस में इतना ऊँचा कद प्राप्त कर चुके थे कि गाँधीजी भी प्रत्येक कार्य में उनकी राय लेने लगे थे। १९२१ में वे पार्टी के महासचिव बने। वैक्कम सत्याग्रह में भी शामिल हुए।
१९३० के दशक में राजगोपालाचारी तमिलनाडु कांग्रेस में नेता बने और जब गाँधीजी दांडी मार्च का नेतृत्त्व कर रहे थे, राजगोपालाचारी ने वेदारण्यम में वैसा ही मार्च किया और नमक कानूनों की अवहेलना की। इसके लिए उन्हें गिरफ्तार किया गया था। उसके बाद उन्हें तमिलनाडु कांग्रेस कमेटी का अध्यक्ष चुना गया। १९३७ के चुनावों के बाद मद्रास प्रेसीडेंसी में कांग्रेस सत्ता में आई और राजगोपालाचारी मद्रास प्रेसीडेंसी के पहले मुख्यमंत्री बने। उनके द्वारा किए गए महत्त्वपूर्ण कार्यों की सूची में शामिल हैं, मंदिर प्रवेश प्राधिकरण और क्षतिपूर्ति अधिनियम १९३९ जारी करना तथा हिंदू मंदिरों में दलितों के प्रवेश पर प्रतिबंध हटाना। राज्य के किसानों पर कृषि ऋण के बोझ को कम करने के लिए भी उन्होंने एक अधिनियम पारित किया।
गाँधी की शिक्षा की नई तालीम योजना को लागू करने पर उन्हें आलोचना का सामना करना पड़ा। मद्रास में राजगोपालाचारी की सरकार का शायद सबसे ज्यादा याद किया जाने वाला पहलू स्कूलों में अनिवार्य विषय के रूप में हिंदी की शुरुआत करना था।
१९३० में ब्रिटिश सरकार और कांग्रेस के बीच मतभेद के चलते कांग्रेस की सभी सरकारें भंग कर दी गई थीं। चक्रवर्ती ने भी अपने पद से त्यागपत्र दे दिया। इसी समय दूसरा विश्व युद्ध आरंभ हुआ, कांग्रेस और चक्रवर्ती के बीच पुनः ठन गई। इस बार वे गाँधी जी के भी विरोध में खड़े थे। गाँधी जी का विचार था कि ब्रिटिश सरकार को इस युद्ध में मात्र नैतिक समर्थन दिया जाए, वहीं राजा जी का कहना था कि भारत को पूर्ण स्वतंत्रता देने की शर्त पर ब्रिटिश सरकार को हर प्रकार का सहयोग दिया जाए। यह मतभेद इतने बढ़ गए कि राजा जी ने कांग्रेस की कार्यकारिणी की सदस्यता से त्यागपत्र दे दिया। उन्होंने सीआर फॉर्मूला के रूप में विभाजन के मुद्दे पर काँग्रेस-मुस्लिम लीग के गतिरोध का प्रस्ताव भी दिया।
१९४२ में 'भारत छोड़ो आंदोलन' प्रारंभ हुआ, तब भी वे अन्य कांग्रेसी नेताओं के साथ गिरफ्तार होकर जेल नहीं गए। इस का अर्थ यह नहीं कि वे देश के स्वतंत्रता संग्राम या कांग्रेस से विमुख हो गए थे। अपने सिद्धांतों और कार्यशैली के अनुसार वे इन दोनों से निरंतर जुड़े रहे। उनकी राजनीति पर गहरी पकड़ थी। १९४२ के इलाहाबाद कांग्रेस अधिवेशन में उन्होंने देश के विभाजन को स्पष्ट सहमति प्रदान की। यद्यपि अपने इस मत पर उन्हें आम जनता और कांग्रेस का बहुत विरोध सहना पड़ा, किंतु उन्होंने इसकी परवाह नहीं की। इतिहास गवाह है कि १९४२ में उन्होंने देश के विभाजन को सभी के विरोध के बाद भी स्वीकार किया, सन १९४७ में वही हुआ। यही कारण है कि कांग्रेस के सभी नेता उनकी दूरदर्शिता और बुद्धिमत्ता का लोहा मानते रहे। कांग्रेस से अलग होने पर भी यह महसूस नहीं किया गया कि वे उससे अलग हैं।
१९४६ में जब देश की अंतरिम सरकार बनी। उन्हें केंद्र सरकार में उद्योग मंत्री बनाया गया। १९४७ में देश के पूर्ण स्वतंत्र होने पर उन्हें बंगाल का राज्यपाल नियुक्त किया गया। इसके अगले ही वर्ष वे स्वतंत्र भारत के प्रथम 'गवर्नर जनरल' जैसे अति महत्त्वपूर्ण पद पर नियुक्त किए गए। सन १९५० में उन्हें पुनः केंद्रीय मंत्रिमंडल में ले लिया गया। इसी वर्ष सरदार वल्लभ भाई पटेल की मृत्यु होने पर उन्हें केंद्रीय गृह मंत्री बनाया गया। सन १९५२ के आम-चुनावों में वे लोकसभा सदस्य बने और मद्रास के मुख्यमंत्री निर्वाचित हुए। इसके कुछ वर्षों के बाद ही कांग्रेस की तत्कालीन नीतियों के विरोध में उन्होंने मुख्यमंत्री पद और कांग्रेस दोनों को ही छोड़ दिया और अपनी पृथक स्वतंत्र पार्टी की स्थापना की।
सम्मान
१९५४ में 'भारतीय राजनीति के चाणक्य' कहे जाने वाले राजा जी को 'भारत रत्न' से सम्मानित किया गया। वे विद्वान और अद्भुत लेखन प्रतिभा के धनी थे। जो गहराई और तीखापन उनके बुद्धिचातुर्य में था, वही उनकी लेखनी में भी था। भारत के गवर्नर जनरल के उच्चतम पद से अवकाश-ग्रहण करने के बाद पूर्ण रूप से साहित्य में उतरे। 'कल्की' से प्रोत्साहन पाकर तमिल में रचनाएँ लिखना आरंभ किया, जो 'कल्की' पत्रिका में प्रकाशित होती थीं। अपने उत्तम ग्रंथ 'वियासर विरूँदू', 'चक्रवर्ती तिरुमगन्', 'कन्नम का्टिटिय वलि' के कारण तमिलभाषी जनता में आदर के पात्र बने। उन्होंने अपने ढंग से गीता, रामायण और महाभारत के अनुवाद किए। मौलिक कहानियों के सृजन में वे सिद्धहस्त थे। उनकी रचनाओं की विशेषता सुगम भाषा, सुंदर व छोटे वाक्य, सरल अभिव्यक्ति और पारंपरिक गरिमाओं का पालन है। राजाजी की लघु कथाएँ टॉलस्टॉय की बोधक कथाओं की तरह प्रेरक और नैतिक होती हैं। उनको साहित्य अकादमी और मद्रास सरकार का पुरस्कार प्राप्त हुआ। मोपासां और खलील जिब्रान की तरह उन्होंने जीवन के गहन से गहन तत्व पर बड़ी सहज-सरल भाषा में अपनी अभिव्यक्ति दी। उन्होंने कुछ दिनों तक महात्मा गाँधी के 'यंग इंडिया' का संपादन कर इस क्षेत्र में भी अपनी प्रतिभा प्रदर्शित की थी। वे भारतीय विद्या भवन के संस्थापकों में से एक थे। १९५९ में भारतीय विद्या भवन ने उनकी पुस्तक प्रकाशित की, 'हिन्दूवाद : सिद्धांत और जीवन का मार्ग'। इस पुस्तक से पता चलता है कि वे हिंदू-दर्शन के प्रबल समर्थक थे। उनका कहना था, "यह मेरा दृढ़ विश्वास है कि वेदांत-दर्शन वर्तमान परिस्थितियों के लिए बहुत उपयुक्त है। उपनिषदों के अध्ययन से पता चलता है कि विश्व परमसत्ता की क्रमशः विकासमान अभिव्यक्ति है। हिंदू दर्शन ने प्राणीशास्त्र तथा भौतिक विज्ञान के मूल सिद्धांतों का पहले ही ज्ञान प्राप्त कर लिया था। यह आरंभ से अंत तक वैज्ञानिक ढंग पर चलता है, अन्य प्राचीन मतों की भांति उसमें संकुचित रूढ़िवादिता और दुविधा नहीं है।"
साहित्य ही नहीं उन्होंने संगीत के क्षेत्र में भी महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। राजगोपालाचारी ने भगवान वेंकटेश्वर को समर्पित एक भक्ति गीत 'कुराई ओन्रम इल्लई' की भी रचना की, जो कर्नाटक संगीत पर आधारित एक गीत है, और कर्नाटक संगीत समारोहों में नियमित रूप से बजाया जाता है। राजगोपालाचारी ने १९६७ में संयुक्त राष्ट्र महासभा में एम० एस० सुब्बुलक्ष्मी द्वारा गाए गए एक आशीर्वाद भजन की रचना की।
इस प्रकार चक्रवर्ती राजगोपालाचारी राजनीति व समाज में एक रौशनी बने और यह रौशनी अनेक मोड़ों पर नैतिकता का, राष्ट्रीयता का संदेश देती है कि राजनीति में घाल-मेल से अलग रहकर भी जीवन जिया जा सकता है- निडरता से, शुद्धता से, स्वाभिमान से, स्वतंत्र सोच से। राजगोपालाचारी जी एक बहुआयामी व्यक्तित्त्व थे, उनका बुद्धि चातुर्य और दृढ़ इच्छाशक्ति के कारण महात्मा गाँधी, जवाहरलाल नेहरू, और सरदार पटेल जैसे अनेक उच्चकोटि के कांग्रेसी नेता भी उनकी प्रशंसा करते नहीं अघाते थे।
शब्दों के जादूगर और ज्ञान के भंडार थे, तो उनका मजाकिया अंदाज़ भी खूब था। यह उन दिनों की बात है जब देश में हिंदी को राष्ट्रीय भाषा बनाने की मुहिम चल रही थी। राजाजी इसके ख़िलाफ़ थे। एक पत्रकार ने इस बाबत और 'नार्थ-साउथ डिवाइड' यानी उत्तर-दक्षिण विवाद पर उनकी राय जाननी चाही। राजाजी चहककर बोले, "ये सारी ग़लती भूगोल विज्ञानियों की है। उन्होंने नार्थ (उत्तर) को साउथ (दक्षिण) के ऊपर रख छोड़ा है!"
एक बार रेल में किसी अंग्रेज़ ने उनसे शिकायत भरे लहज़े में कहा कि बड़ी गर्मी है। राजाजी तपाक से बोले, "इतनी नहीं कि तुम्हें इस देश (भारत) से बाहर रख सके!"
१९५७ में दूसरे आम चुनाव हुए थे, इसमें भी कांग्रेस को ज़बर्दस्त सफलता हासिल हुई। राजाजी ने इस पर अपनी चिंता ज़ाहिर की। उन्होंने द्विपार्टी सिद्धांत पर बल दिया। उन्होंने कहा कि लोकतंत्र की सफलता के लिए मज़बूत विपक्ष का होना नितांत आवश्यक है। उनका कहना था कि बिना विपक्ष के सरकार ऐसी है, मानो गधे की पीठ पर एक तरफ़ ही बोझ रख दिया है। मज़बूत विपक्ष लोकतंत्र के भार को बराबर रखता है। राजाजी का मानना था कि किसी पार्टी में भी दो विचारधाराएँ होनी चाहिए और ऐसा न होने की सूरत में पार्टी का मुखिया एक तानाशाह की भांति बर्ताव करता है। उन्होंने क्षेत्रीय पार्टियों के अस्तित्त्व को भी स्वीकार किए जाने की बात कही।
राजाजी ने अर्थव्यवस्था को पूरी तरह से खोलने की बात पर ज़ोर दिया। उनके मुताबिक निजी संस्थान कोई दैत्यनुमा शक्ति नहीं हैं जो देश को लील जाएँगे। उन्होंने कहा कि योजनाओं के विकासक्रम में जो बात छूटती जा रही है वह यह कि सरकारी नियंत्रण कम नहीं हो रहा है और प्रक्रियाओं को सरल नहीं बनाया जा रहा है।
एक बार नेहरू ने उन पर टिप्पणी करते हुए कहा, "राजाजी जाने क्यों सरकार से नाख़ुश रहते हैं? जाने क्या चाहते हैं?" इस पर उन्होंने एक लेख लिखकर अपनी बात कही। उन्होंने कहा, "मैं वह चाहता हूँ जो देश चाहता है। देश चाहता है कि परमिट राज ख़त्म हो, लाइसेंस राज का अंत किया जाए और निजी संस्थाओं को पनपने की छूट दी जाए। मैं चाहता हूँ कि सरकारी प्रबंधनों में भ्रष्टाचार ख़त्म किया जाए। मैं मौलिक अधिकारों की स्थापना चाहता हूँ। मैं चाहता हूँ कि देश का बजट महंगाई और घाटे को न बढ़ाए। पूंजीपतियों का पैसा राजनीति को प्रभावित न करे। मैं चाहता हूँ देश अपना खोया हुआ सम्मान प्राप्त करे। मैं चाहता हूँ कि जनता यह न सोचे कि भारत में नैतिक शक्ति गाँधी के अंत के साथ ही ख़त्म हो गई है।"
निधन
अपनी वेशभूषा से भी भारतीयता के दर्शन कराने वाले इस महापुरुष का २८ दिसंबर १९७२ को निधन हो गया। उनके निधन पर देश के कोने-कोने में शोक की लहर थी। भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने लिखा था, "श्री राजगोपालाचारी नए भारत के निर्माताओं में से एक थे, एक ईमानदार देशभक्त, एक ऐसे व्यक्ति जिनकी मर्मज्ञ बुद्धि और नैतिक भावना ने राष्ट्रीय मामलों को गहराई से जोड़ा। उनके विश्लेषण, उनकी प्रत्याशा, उनके प्रशासनिक कौशल और ज़रूरत महसूस होने पर एक अलोकप्रिय पाठ्यक्रम चलाने के उनके साहस ने उन्हें एक राजनेता के रूप में चिह्नित किया और कई महत्त्वपूर्ण अवसरों पर राष्ट्रीय इतिहास पर प्रभाव डाला। उन्होंने सर्वोच्च पदों पर कार्य किया था और प्रत्येक कार्यालय को विशिष्ट स्थान दिया था।" ( स्वराज्य, २७ जनवरी १९७३)संदर्भ
- https://en.wikipedia.org/wiki/C._Rajagopalachari
- https://www।constitutionofindia।net/constituentassemblymembers/c rajagopalachari
लेखक परिचय
२८ वर्ष से शिक्षण, अनुवाद और लेखन से जुड़ी हैं। चार पुस्तकें प्रकाशित हैं, जिनमें एक पुस्तक सूरीनाम में हिंदुस्तानी दिल्ली विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में है। एक कहानी संग्रह नीली तितली व एक हाइकु संग्रह काँच-सा मन है। हाल ही में राष्ट्रीय पुस्तक न्यास से सरनामी हिंदी-हिंदी का विश्व फलक प्रकाशित। कई पुस्तकों का संपादन भी किया है व अनेक संस्थाओं से सम्मानित हैं। नवंबर २००८ से जून २०१२ तक भारत के राजदूतावास, पारामारिबो, सूरीनाम में अताशे पद पर रहकर हिंदी का प्रचार-प्रसार किया। संप्रति- भारत सरकार के राजभाषा विभाग में कार्यरत हैं।
ईमेल – bhawnasaxena@hotmail.com
भावना जी नमस्ते। आपका लिखा एक और अच्छा लेख पढ़ने को मिला। आपके लेख के माध्यम से लेखक, दर्शनिक, चिंतक, राजनेता, चक्रवर्ती राजगोपालाचारी जी के बारे विस्तृत रूप से जानने का अवसर मिला। आपको इस जानकारी भरे लेख के लिए हार्दिक बधाई।
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