साल १९८०, इस्लामाबाद स्थित सदर का दफ़्तर -
ज़िआ-उल-हक़ : आप किस ज़बान में मेरा मुज़ाकरा करेंगे?
कमलेश्वर : जी वही…. मेरी अपनी ज़बान।
ज़िआ-उल-हक़ की पेशानी पर थोड़े बल पड़ गए, परेशान हो कर सवाल किया,
ज़िआ-उल-हक़ : अच्छा? कौनसी ज़बान बोलते हैं आप?
कमलेश्वर : जी जनाब उर्दू मेरी ज़बान है।
राष्ट्रपति साहब को ये बात पसंद नहीं आई। आँखों में चमक और हैरानी दोनों।
उनकी दोनों आँखों के साथ खींची सुरमे की रेखाएँ लजा गईं। हैरानी से पूछा,
ज़िआ-उल-हक़ : ये तो हमारी ज़बान है, आपकी कैसे हुई?
कमलेश्वर : ज़बान तो हमारी ही है जनाब, आप तो बस उठा लाएँ हैं….
"आप तो बस उठा लाएँ हैं…" सही समय पर सहज, परंतु सटीक वाक्य कहने की कला का नाम है, कमलेश्वर।
साल १९४० के आस पास, मैनपुरी (कमलेश्वर का पैतृक घर) -
सिद्धार्थ : तू बहुत छोटा था जब बाबूजी का हार्टफेल हो गया था, बाबा को तो मैंने भी नहीं देखा।
बाल कमलेश्वर : ये फोटो?
सिद्धार्थ : ये फोटो बाबा की है।
बाल कमलेश्वर : और ये?
सिद्धार्थ : बाबू जी की!!
बाल कमलेश्वर : (आस्तीन से साफ़ करते हुए), "इस जैसी नई तस्वीर" बनाओगे?
सिद्धार्थ : हाँ।
एक रंगीन चित्र बन कर तैयार होता है, जो हू-ब-हू ब्लैक-एंड-व्हाइट फोटो से मिलता है, और फिर बड़े भाई सिद्धार्थ भी चल बसते हैं। चल बसते हैं, बाल कमलेश्वर को अकेला छोड़। पर नई तस्वीर छोड़ जाते हैं। जब नई तस्वीर बन सकती है, तो फिर क्या-क्या नया नहीं बन सकता? नया रास्ता, नया सफ़र, नए लोग, नया गीत, नई कहानी!!
आइए मिलते हैं, उस नई तस्वीर के चित्रकार कमलेश्वर से, जिनके बेबाक़, निर्भीक एवं नए अंदाज़ में रंगे यथार्थवादी लेखन को समस्त समाज का दर्पण माना जाता है।
कमलेश्वर के जीवन के आरंभिक वर्ष नितांत अभाव और अकेलेपन में गुज़रे। जब कोई आठ बरस के होंगे, तब उनके बड़े भाई सिद्धार्थ के चले जाने के बाद ऐसा लगता है, मानो उन्होंने अपने आप से दोस्ती कर ली हो। ये बरस कुछ ऐसे थे कि विश्व युद्ध और भारत में स्वाधीनता प्राप्ति के लिए देशव्यापी संघर्ष चल रहा था। कमलेश्वर कोई दस-बारह बरस के होंगे, जब उनके सौतेले बड़े भाई ने उन्हें कानपुर कैंट के एक फ़ौजी क्लब में काम करने को विवश किया। वहाँ के निर्मम वातावरण से घबरा कर, वे वहाँ से चले गए और इलाहबाद में क्रांतिकारी समाजवादी पार्टी के दफ़्तर में काम करने लगे। शायद यहीं वे समाज सेवा की भावना से प्रेरित हुए। उनकी निस्वार्थ सेवा से स्वाधीनता के बाद बँटवारे में कितने ही शरणार्थियों को किशोर कमलेश्वर की सहायता मिली।
ज़िंदगी का ऊँट किस करवट बैठेगा, उन्हें शायद स्वयं भी खबर नहीं थी। अपने अस्तित्व की खोज में इधर-उधर भटकते कमलेश्वर को राहत मिली इलाहबाद यूनिवर्सिटी में।
खुद में खुद को ढूँढते हुए कमलेश्वर -
साल १९५२, इलाहाबाद, हिंदी साहित्य सम्मेलन पुस्तकालय -
कमलेश्वर : बारह साल भाई को गए हुए, क्या किया अब तक़?
कमलेश्वर : बहुत रोया, बहुत सहा, वॉर झेली, बँटवारा झेला, राजनीति भी झेली, हाँ, पर अब लगता है, मंज़िल मिल गई है।
कमलेश्वर : ये लाइब्रेरी अपनी बैठक की तरह लगती है न?
कमलेश्वर : हाँ, ये फोटो?
कमलेश्वर : भारतेंदु की है।
कमलेश्वर : और ये?
कमलेश्वर : प्रेमचंद की।
कमलेश्वर : तू बहुत छोटा था जब प्रेमचंद नहीं रहे, भारतेंदु को तो मैंने भी नहीं देखा।
कमलेश्वर : (प्रेमचंद की तस्वीर को निहारते हुए) एक "नई कहानी" बनाओगे?
कमलेश्वर : हाँ।
...और जन्म होता है नए प्रेमचंद का, नई कहानी का, हिंदी कथा और शिल्प के नए युग का, कमलेश्वर का।
१९५० के उत्तरार्ध में हिंदी कथा शिल्प को नए हस्ताक्षर मिले थे। ये कमलेश्वर की कलम से तो निकले ही थे, पर इसमें सहयोगी थे, मोहन राकेश और राजेंद्र यादव। साहित्य के गलियारों में इन चार दोस्तों के गुट की खूब चर्चा होने लगी थी। जहाँ दुष्यंत कुमार हिंदी में ग़ज़ल विधा के प्रयोग कर रहे थे, वहीं बाकी तीन यार हिंदी की कथा के कथोपकथन को आधुनिक, लचीला, सहज, और समांतर बना रहे थे, जो आदर्शवाद और काल्पनिक यथार्थवाद से अलग हट कर कभी जीवंत पात्रों को परिभाषित करता था, तो कभी इन पात्रों के माध्यम से पाठक को आत्मज्ञान में सहायता प्रदान करता। ऐसे साहित्य को खूब पढ़ा जा रहा था। कमलेश्वर की प्रथम प्रकाशित कृति "राजा निरबंसिया" १९५७ में प्रकाशित हुई। तब से लेकर १९६३ तक आते-आते उनकी अनेक कहानियों ने उन्हें बहुप्रचलित पत्रिका "नई कहानी" के संपादक पद के योग्य बना दिया। कई विद्वान 'राकेश-कमलेश्वर-राजेंद्र' को नई कहानी आंदोलन का नायक बताते हैं।
इंडिया टुडे (हिंदी) के कार्यकारी संपादक सौरभ द्विवेदी कहते हैं -
"कमलेश्वर उस दौर के आधुनिक हिंदी कथा साहित्य के कट्टर समर्थक थे। आंदोलन जैसी तो कोई बात नहीं थी, न वे किसी की पैरवी कर रहे थे, न वे किसी के प्रणेता थे, बस एक नई शैली या रचना पद्धति बन रही थी। सृजनात्मकता अपनी नई दिशाएँ ढूँढ रही थी, कमलेश्वर लिख रहे थे, और उन्हें खूब पढ़ा जा रहा था।"
कमलेश्वर तब दिल्ली में रहते थे, कमलेश्वर जी के दामाद, आलोक त्यागी बताते हैं -
"टाइम्स ऑफ़ इंडिया की मासिक हिंदी पत्रिका 'सारिका' से पहले कमलेश्वर जी 'नई कहानी' के संपादक थे। मोहन राकेश जी ने जब सारिका छोड़ी, तो कमलेश्वर जी के पास संपादन हेतु प्रस्ताव आया था। उन्होंने तब इसे स्वीकार नहीं किया था। तब विद्यालंकार जी संपादक बने थे। उनके जाने के बाद जब पुनः सारिका का प्रस्ताव आया, शायद १९६८ के आसपास, तब उन्होंने संपादन संभाला … और दिल्ली छोड़कर बंबई आ गए।"
तब से लेकर लगभग १९७८ तक कमलेश्वर जी बंबई में ही रहे। निदा फ़ाज़ली अपने बंबई आवास के शुरुआती दिनों के संघर्ष में कमलेश्वर को याद करते हुए बताते हैं कि किस तरह एक स्थापित पत्रिका के संपादक होते हुए भी वे नवोदित लेखकों से घुल-मिल जाते थे। उन्हें अपने साथ बिठाकर, अपने पैसे से खरीदकर खाना खिलाते थे और सारिका के लिए अच्छी सामग्री जमा करते थे। संपादक होते हुए भी उन्होंने सबके लिए अपने द्वार खुले ही रखे। उनका यही खुलापन, खुली नज़र, दूसरों की ज़िंदगी में बेबाकी से जुड़ जाना, उन्हें 'नई कहानी' की शैली का विशेषज्ञ बना रहा था।
नई कहानियों की छाप वे सिल्वर स्क्रीन पर भी छोड़ने लगे। मिसाल के तौर पर "छोटी सी बात" फ़िल्म से ये छोटी सी कमेंट्री लीजिए -
"और आप हैं, हीरजी नानजी पारिख। जैक्सन तोलाराम कंपनी के चीफ़ अकाउंटेंट। कंपनी का हिसाब रखने के साथ साथ मि० पारिख इसी कंपनी की छोटी सी मेज़ पर बैठने वाली हंसा मेहता से अपना हिसाब भी जमाते रहे। बीस साल हो गए, लेकिन लगता है कल ही की तो बात है, १९४७ से १९५० तक - दफ़्तर, बांद्रा के पाम पॉश रेस्टारेंट और पास ही के एल्मीडा पार्क के पेड़ों के झुरमुट में इनका रोमांस फला-फूला। फिर एक दिन अकाउंटेंट की जोड़ हंसा बेन से बैठ गई। दफ़्तर की छोटी सी मेज़ से उठ कर हंसा मेहता, पारेख के बड़े से फ़्लैट में समा गईं, और आज अकाउंटेंट साहब के खाते में तीन बच्चे हैं।"
फ़िल्मों के अलावा कमलेश्वर ने ७० के दशक में दूरदर्शन पर भी कई लोकप्रिय कार्यक्रम प्रस्तुत किए। ऐसा लगता था, हर माध्यम में कुछ न कुछ नया रचने की चाह उनमें बनी हुईं हो। दशक के अंत तक आते-आते सारिका को कन्हैया लाल नंदन के काबिल हाथों में छोड़, दूरदर्शन के लिए अतिरिक्त महाप्रबंधक के रूप में अपनी सेवाएँ प्रदान करने के लिए कमलेश्वर दिल्ली आ गए।
कमलेश्वर साधारण रूप में असाधारण व्यक्ति थे। उनकी सामान्य जन की सामान्य ज़िंदगी की तलाश और उसकी अभिव्यक्ति अनुपम थी। उन्होंने वही लिखा, जो वे चाहते थे। उनके लेखन के विषय में डॉ० मनुभाई पांधी कहते हैं, "कमलेश्वर ने बदलते हुए हालात में आम भारतीय की मानसिकता और व्यवहार के बदलाव को बड़ी ख़ूबसूरती के साथ अभिव्यक्ति दी है। उनके पात्र गाँव, कस्बों, नगरों और महानगरों के हैं। अतः उनकी कृतियों को आम आदमी की कृतियाँ मानना पड़ेगा।"
नोएडा निवासी और पत्रकार विनोद शर्मा अपने दैनिक जागरण कार्यकाल के दौरान कमलेश्वर के सान्निध्य को अपने जीवन की अमूल्य निधि मानते हैं। १९९० के दशक में कमलेश्वर पत्रिकारिता भी कर रहे थे, संपादन भी, फ़िल्में भी, और टीवी भी। ऐसा लग रहा था, कि जीवन की दूसरी पारी में वे खेल के हर प्रारूप से दोस्ती कर रहे हों, भोग रहें हों। इन दिनों ऐसा नहीं था, कि अपनी मूलभूत विधा को छोड़ दिया हो। ९० के उत्तरार्ध में कमलेश्वर अपने सारे अनुभवों, और इस सृष्टि के निर्माण से आज तक के सारे पहलुओं को एक सूत्र में बाँधती हुई कालजयी रचना करते हैं। देहरादून की पहाड़ियों के निवास के दौरान लिखी हुई, ये रचना लाखों लाख लोगों तक पहुँची।
साल २००१, कमलेश्वर का निवास दिल्ली एनसीआर -
राजपाल एंड संस प्रकाशन के आला अघिकारी : सर 'कितने पाकिस्तान' के नए संस्करण के लिए आया हूँ।
कमलेश्वर : इतनी जल्दी?
अधिकारी (चिंतायुक्त भाव से) : जी रॉयल्टी का बहुत नुकसान है सर, बिहार और सीमांती उत्तरप्रदेश में लोग फोटो कॉपी कराकर न जाने कितनी प्रतियाँ बेच रहे हैं, लड़के एक दूसरे को बाँट रहे हैं।
कमलेश्वर (मुस्कुराते हुए) : वाह!! कितनी अच्छी खबर है!!
ऐसे थे कमलेश्वर, खुले दिल के, खुश मिजाज़, हाज़िर जवाब, बहुत ही संवेदनशील। सन २००७ में सभी विधाओं में रचनाएँ लिखते हुए साहित्य के सफ़र का ये मुसाफ़िर, सफ़र से आगे चला गया। उनकी ज़िंदगी पर नज़र डालें, तो अहमद फ़राज़ का एक शेर याद आता है -
किसी को घर से निकलते ही मिल गयी मंज़िल
कोई हमारी तरह उम्र भर सफ़र में रहा।
संदर्भ
- ज़िआ उल हक़ : संदर्भ IGNOU interview सुकृता पॉल कुमार
- बाल्य काल, किशोर कमलेश्वर : कमलेश्वर (कृतित्व के आयाम : ‘आईने में कमलेश्वर’ से प्रेरित)
- सौरभ द्विवेदी, संपादक टीवी टुडे
- विनोद शर्मा, पत्रकार, नवभारत टाइम्स
- निदा फ़ाज़ली (जेहन के अँधेरे को हटाता हुआ कमलेश्वर, स्मृति के पटल पर, सितंबर २००७, वर्तमान साहित्य)
- और विशेष आभार आलोक त्यागी जी का, जिन्होंने बहुत ही मत्वपूर्ण सामग्री प्रदान की। इस सहायता के बिना ये लेख पूरा नहीं हो सकता था।
लेखक परिचय
कार्यक्षेत्र : टेक्निकल एंट्रेप्रेनुएर
लेखन: कुंडली विधा में प्रयोग, बालकाल में (१९८४) प्रथम रचना ‘पराग’ में प्रकाशित, तब से अब तक प्रकाशकों की तलाश।
बचपन से ही हिंदी कवि सम्मेलनों और मुशायरों के शौकीन। सन १९९३ में कंप्यूटर ऍप्लिकेशन्स में स्नातकोत्तर (जीवाजी विश्वविद्यालय) करने के बाद, अमेरिका में इंटेल, माइक्रोसॉफ्ट में कार्य किया, वर्तमान में तकनीकी उद्यमिता पर प्रयास - दो स्टार्टअप कंपनी के सीईओ सियाटल, अमेरिका में सन १९९६ से निवास।
शत शत नमन संतोष जी की लेखनी के । आलेख के अनूठा कलेवर ने अपने शब्दों में ऐसा बांधा कि एक ही सांस में पूरा पढ़ लिया । पुनः पढ़ने की ललक है । कमलेश्वर.जैसे बहुआयामी व्यक्तित्व को आप जैसा मंझा हुआ लेखक ही शब्दों में बाँध सकता है ।
ReplyDeleteधन्यवाद लतिका जी
Deleteआदरणीय!
ReplyDeleteखरेजी की खरी-खरी संवादात्मक कहन शैली (विशेषतः स्वयं से) _ _ _
पढ़ कर मज़ा आ गया।
धन्यवाद अरविन्द जी
Deleteबेहद अनूठे ढंग से सरगर्भित आलेख
ReplyDelete👌👌👌
धन्यवाद मनीष जी
Deleteबहुत अच्छा
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Deleteदादा आपको अच्छा लगा!
Deleteबहुत सुंदर संकलन और महत्वपूर्ण यादों के साथ आपने यह लेख लिखा, आपको बहुत बधाई आदरणीय संतोष जी
ReplyDeleteधन्यवाद
Deleteसंतोष जी, आपने कमलेश्वर जी के जीवन संघर्ष एवं साहित्यिक यात्रा को बखूबी इस लेख में उतारा है। इस महत्वपूर्ण लेख के लिए बहुत बहुत बधाई।
ReplyDeleteधन्यवाद
Deleteबहुत सुंदर , संतोष जी । आपने अनूठे अन्दाज़ में कमलेश्वर जी पर आलेख दिया है । बधाई ।
ReplyDeleteहम सब किसी लेखक / संपादक के साथ अपना एक विशेष सम्बंध बना लेते हैं । उनकी दर्जनों उपलब्धियों के होते हुए भी कमलेश्वर जी मुझे एक सुंदर खिड़की की तरह याद आते हैं : समकालीन हिंदी साहित्य के दर्शन कराने वाली खिड़की। उनका सारिका का संपादन काल किसी साहित्यिक क्रांति से कम न था।हम जैसे सत्तर के दशक में किशोर - नौजवान होते लोग शायद समकालीन हिंदी साहित्य से अछूते ही रह जाते यदि कमलेश्वर ना होते। उन्होंने एक से एक कहानियाँ , लघु कथाएँ प्रस्तुत कीं। कुछेक लघु कथाएँ तो मुझे ज़ुबानी याद हैं। एक से एक शानदार कलेवर वाले विशेषांक निकाले। अंतर्राष्ट्रीय साहित्य का हिंदी अनुवाद प्रस्तुत किया। बहुतों को दुष्यंत कुमार की ग़ज़लों का पहला परिचय सारिका से ही मिला।वह प्रयोग करने से नहीं डरते थे। इसीलिए नई ज़मीन तलाश कर लेते थे।जैसे मोहन राकेश का नाम लेते ही “ आषाढ़ का एक दिन “ याद आता है , वैसे ही कमलेश्वर का नाम लेते ही सारिका याद आती है। बहुत सिखाया कमलेश्वर ने हमें । आभार , कमलेश्वर।💐💐
धन्यवाद हरप्रीत जी , जब आपसे मिलूंगा या फ़ोन पर बात होगी तो कमलेश्वर जी पर भी चर्चा करेंगे
Deleteअनूठी प्रस्तुति, हार्दिक बधाई
ReplyDeleteधन्यवाद कमल जी
Deleteसंतोष जी, नई कहानी के त्रयी में से एक कमलेश्वर जी पर आपका यह आलेख बहुत ही शानदार है। कमलेश्वर जी से अलीगढ़ में जनवादी लेखक संघ के राज्य सम्मेलन में उनसे मुलाकात हुई थी। सरल स्वभाव के कमलेश्वर जी का साहित्य और सामाजिक परिवेश पर उनका कथन जो उन्होंने वहां व्यक्त किया था ' खिड़कियां बंद करता हूँ तो दम घुटता है यदि खिड़कियां खोलता हूँ तो जहरीला हवा आती है।' आज भी कानों में गूंज रहा है। इस सुन्दर आलेख के लिए आपको बहुत-बहुत बधाई एवं शुभकामनाएँ।-सुनील
ReplyDeleteधन्यवाद
Deleteसंतोष जी बेहद दिलचस्प प्रस्तुति!
ReplyDeleteकमलेश्वर जी की एक कहानी है ‘एक थी विमला’। उसमें कई कहानियाँ subroutine की तरह गुँथी हुईं हैं, जैसे कोई कुशल प्रोग्रामर धीरे-धीरे समाज की परतों को उधेड़ कर उसे बदलने की प्रोग्रामिंग कर रहा हो! एक फ़िकरा सा कस के हर कहानी को बंद किया गया है- “क्योंकि दुनिया यही चाहती है!”
फ़ॉर्मेट और कथ्य दोनों से चौंका देने वाले, मानवीय संवेदना के रचनाकार, समाज की नब्ज़ हाथ रख कुछ कड़वी दवाइयाँ हँस कर पिला देने वाले लेखक और खुलेदिल संपादक को नमन!
सुन्दर प्रस्तुति संतोष जी.
ReplyDeleteसंतोष जी, संवादों की मदद से आप ने कमलेश्वर जी के व्यक्तित्व के जिन पहलुओं को उकेरा है शायद साधारण गद्य में वे इतने प्रभावी तरीके से सामने न आ पाते। साधारण ज़मीन से विलक्षण कृतियों को गढ़ने वाले और हमारे साहित्य को नए रूप, आयाम और नई कहानी देने वाले कमलेश्वर जी को नमन और आपको इस सुन्दर लेखन की बधाई और आभार।
ReplyDeleteप्रगति जी धन्यवाद
Deleteसंतोष जी, आपका दिलचस्प और जानकारी से भरपूर आलेख एक ही बार मे पढ़ डाला। कमलेश्वर जी के सरल, कथन और कहानी मानो आँखों के सामने फिर जीवित हो उठे। सरल इसीलिए कि वे आम समाज की तस्वीर हैं लेकिन उनके विषय या प्रश्न बिल्कुल आसान नहीं थे! कहानी के समाप्त हो जाने पर भी देर तक मन को उलझाने वाले पात्र एवं प्रसंग एक से एक रोचक और मार्मिक! आपको बहुत बहुत बधाई!
ReplyDeleteसच!!
Deleteधन्यवाद
शानदार, संतोष जी। आलेख बढ़कर बहुत आनंद आया। मुझे पूरा विश्वास है, प्रकाशक आपको तलाशेंगें! :) बहुत बधाई और शुभकामनाएँ
ReplyDeleteरिचा जी धन्यवाद
Deleteकमलेश्वर जी के व्यक्तिव और कृतित्व पर, संतोष जी द्वारा संवादात्मक शैली में लिखा गया अनूठा और रोचक आलेख पढ़ कर बहुत आनंद आया। संतोष जी को बहुत बहुत बधाई।
ReplyDeleteआभा दी धन्यवाद
Delete