सत्तर के दशक की लोकप्रिय और अग्रणी कथाकार, ममता कालिया का जन्म २ नवंबर १९४० को वृंदावन में हुआ। वे अध्यापन-कार्य से लगातार जुड़ी रहीं। दिल्ली, मुंबई और आख़िर में इलाहाबाद के डिग्री कॉलेज से प्राचार्या के पद से सेवा-निवृत्त हुईं। वे कोलकाता में भारतीय भाषा परिषद की निदेशक रहीं, साथ ही महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा की अंग्रेज़ी पत्रिका, 'हिंदी' का संपादन भी किया।
१८-१९ वर्ष की उम्र में लिखी गई सबसे पहली कहानी को १९६३ में 'साप्ताहिक हिंदुस्तान' पत्रिका द्वारा सर्वश्रेष्ठ कहानी का प्रथम पुरस्कार प्राप्त हुआ। वे कहती हैं, 'यह एक रोमांटिक कहानी थी, जो पसंद की गई। शुरु में ही थोड़ी सी स्वीकृति मिलने की वज़ह से मैं लेखन में लगी रही।' आरंभ में उन्होंने बच्चों के लिए नाटक और कविताएँ लिखीं। उनका कहना है, "आमतौर से जिस उम्र में लड़कियाँ रोमांटिक कविताएँ लिखती हैं, मैंने एंटी-रोमांटिक कविताएँ लिखना शुरु किया, मेरी कविताओं का गुस्सा और क्रांतिकारिता पसंद की गई।" उनके तत्कालीन लेखनशैली के बारे में कहा गया, "है तो औरत पर बाईगॉड मर्दों की तरह लिखती हैं।"
साहित्य की अनेक विधाओं में सक्रिय ममता जी की प्रमुख रचनाओं में बेघर, नरक दर नरक, दौड़, अँधेरे का ताला, दुक्खम-सुक्खम, कल्चर वल्चर, सीट नंबर ६, प्रेम कहानी, लड़कियाँ, एक पत्नी के नोट्स, छुटकारा, एक अदद औरत, प्रतिदिन, उसका यौवन, जाँच अभी जारी है, चर्चित कहानियाँ, ए ट्रिब्यूट टू पापा एंड अदर पोयम्स, पोएम्स ७८ शीर्षक कविता संग्रह, और कितने प्रश्न करूँ, यहाँ रोना मना है और आप न बदलेंगे एकांकी संग्रह तथा बोलने वाली औरत, शहर दर शहर, स्मृतियों का आलेख हैं। इसके अतिरिक्त देश-विदेश के कई संकलनों में उनकी कविताएँ तथा कहानियाँ संकलित हैं। वर्तमान समय में उनकी बहुपठित कृतियों अंदाज़-ए-बयां उर्फ़: रविकथा और जीते जी इलाहाबाद को दर्ज किया जाएगा। आजकल वे सक्रिय सृजनात्मकता का साकार रूप बनी हुई हैं - संवाद, भाषण, साक्षात्कार, वक्तव्य और क्या नहीं!
ममता जी अपनी साहित्यिक रचनाओं के लिए यशपाल कथा सम्मान, रचना सम्मान, महादेवी वर्मा अनुशंसा सम्मान, सावित्री बाई फुले सम्मान, साहित्य भूषण सम्मान, लमही पुरस्कार, व्यास सम्मान, कलिंग लिटरेरी फेस्टिवल सम्मान आदि से पुरस्कृत और सम्मानित हुई हैं।
नया शहर, नई नौकरी, बच्चे-पति-परिवार के प्रति दायित्व को संभालने के साथ साहित्यिक उपलब्धियों में उनके जीवन संघर्ष के स्वेद कण झिलमिलाते हैं, जिन्हें वे दांपत्य संबंध की आत्मीयता में सहर्ष झेलती रहीं। "बवालों के समानांतर गंभीर समीक्षा और आलोचना ने मेरी सृजनशीलता का सही सम्मान किया" - उनका यह कथन आज की उठा-पटक के दौर में एक संवेदनशील मन के संतोष को दिखाता है। उनके लेखन की विशिष्टता को बराबर रेखांकित किया जाता रहा, उन्हें हिंदी कथालेखन में एक स्तरीय मापदंड के रूप में देखा गया और यह भी कहा गया, "उनके लेखन ने स्त्री-पुरुष लेखन की निरर्थक हदबंदियों को तोड़ा है।"
उनका यह मानना कम रोचक नहीं कि लेखन का कारण और कारक दिल-दिमाग का बावलापन है। ममता जी के पास इतना कुछ कहने को है कि वे एक बार उसे शब्दों में पिरोने के बाद उसकी ओर पीछे मुड़ कर कोई कटाई-छँटाई नहीं करती हैं। वे आज भी कहती हैं कि "यह मेरी एक साँस में लिखने की आदत जाने कब जाएगी।"
१९७१ में प्रकाशित उनका पहला उपन्यास 'बेघर' बहुचर्चित और लोकप्रिय हुआ। इस उपन्यास को पढ़ने के बाद अश्कजी ने कहा कि वे "अपनी इस उपलब्धि पर उचित गर्व कर सकती हैं।" २००९ के नए संस्करण के कथन, "यह रचना बीसवीं शताब्दी के तीस वर्ष जीवित रह कर इक्कीसवीं शताब्दी में इस नए संस्करण के साथ प्रवेश कर रही है, दो नगरों का रेशा-रेशा उघाड़ती यह कथा प्रेम और विवाह के बीच के अंतर और अंतराल का अध्ययन प्रस्तुत करती है", उपन्यास की सार्वकालिक प्रासंगिकता का द्योतक है। 'बेघर' परमजीत के एक महानगर से दूसरे महानगर पहुँचकर बदलते जीवन की कथा है, अंततः घर होते हुए भी वह बेघर हो जाता है।
'दौड़' उनका एक चर्चित लघु उपन्यास है। भूमंडलीकरण, उपभोक्तावाद, बाजारवाद जैसे मुद्दों से टकराता यह लघु उपन्यास आज के उस मनुष्य की कहानी है, जिस पर समय और बाज़ार के इतने दबाव और तनाव हैं कि इस अंधी दौड़ में सब कुछ नष्ट होता जा रहा है - पारिवारिक संबंध, संवेदनशीलता, तमाम ख़तरों के बावजूद इन परिस्थितियों को चुनने वाला आज का मनुष्य जैसे उपन्यास में पवन और उसके छोटे भाई सघन की तरह जूझता है। २०१० में प्रकाशित एक और छोटा उपन्यास 'अँधेरे का ताला' है, जिसमें अँधेरे का ताला खोल कर ज्ञान का उजाला भरने वाले अध्यापकों के जीवन का कच्चा चिट्ठा है। उपन्यास का अंत कठिन परिस्थितियों का सामना करती अध्यापिकाओं की हिम्मत का चित्र देता है।
उपन्यास 'दुक्खम-सुक्खम' रोचक और प्रभावशाली है, परिचित और प्रिय लगने वाली प्रवाहपूर्ण अभिव्यक्ति के साथ गज़ब की संप्रेषण क्षमता की अगली कड़ी सा उपन्यास समय के लंबे विस्तार को समेट कर चला है। आज़ादी से पहले और बाद के बदलते भारत की तस्वीर के साथ-साथ मथुरा जैसे छोटे शहर के बदलाव को आँकता है। कहानी एक परिवार की तीन पीढ़ियों के बदलते संबंध को रेखांकित करती है, किंतु इसमें परिवार के साथ-साथ देश की हलचल को भी समेटने की कोशिश है। एक रूढ़िवादी परिवार में युवा पुत्र पढ़-लिख कर आगे बढ़ने की सोचता है, पर माहौल पूरी तरह पीछे को खींचने वाला है। अंत में वह निकल ही लिया और सफल भी हुआ। उसके जीवन के उतार-चढ़ाव भरी कहानी में माँ, पिता, बहनें, पत्नी और बेटियाँ आती हैं, अपने-अपने रंग और आग्रह ले कर, संयुक्त परिवार की कलह, दांपत्य के कड़वे-मीठे अनुभव और महानगर के जीवन की जद्दोजहद लेकर। व्यास सम्मान प्राप्त इस उपन्यास की लेखिका का ब्रजभाषा पर बहुत नैसर्गिक अधिकार भी है। वे बंबइया हिंदी और इलाहाबादी रिक्शेवालों की बोली-बानी का सहज प्रवेश अपनी रचनाओं में कराती रही हैं, किंतु इस कृति की अभिव्यक्तियों में वे जिस तरह हूबहू ब्रज की आत्मा को आत्मसात किए चलती हैं, वह बेहद प्रभावी है - कहीं आगरा से आए दालमोठ के 'ठोंगे' हैं, तो किसी बात में 'सबकी सतामता है'। और फिर सर्वोपरि है, यह मुहावरा - "जाई गाँव में रहना हाँजी हाँजी कहना!" ममता कालिया के लेखन का प्रवाह पाठक को बाँध लेता है। अश्क जी ने उन्हें सफल कथाकारों की पहली पंक्ति में रखा, उनकी कहानियों में अपूर्व पठनीयता पाई, बेबाकी को भी उनकी कहानी का गुण बताया और कहा कि वे - "घर की चारदीवारी में कैद और परंपरा की मारी नारी के विद्रोह, मुक्त होने की उसकी प्रबल आकांक्षा, अपनी अलग पहचान और अपनी स्वतंत्र इयत्ता बनाने और मनवाने की ज़द्दोजहद की कथाकार हैं।"
उनके लेखन के दायरे में मध्यवर्ग और उच्चवर्ग की पढ़ी-लिखी औरत है, वह स्त्री जो बदलती परिस्थिति में अपने-आप को जानने की कोशिश कर रही है। एक अर्थ में उनकी रचनाएँ स्त्री-जीवन की असमाप्त कथा कहती हैं। वे छोटी-बड़ी घटनाओं द्वारा बताती हैं कि स्त्री के अनादर, उपेक्षा और अवहेलना का अधिकार परिवार में सबको मिला है - पति को, सास को, यहाँ तक कि बच्चों को भी। उनकी स्त्रियाँ इस बात का भी प्रमाण हैं कि विवाह ने प्रायः उन्हें कोई पहचान नहीं दी, बल्कि अधिकतर उनसे वह छीन ही ली। परिवार या दांपत्य-संबंध में जो उदासीनता, उपेक्षा और निर्मम चुप्पी है, वह एक तरह की हिंसा ही है, जिस पर उनके लेखन में चुप्पी नहीं साधी गई। उनकी कृतियों में भावपूर्ण और टूटती हुई नारियाँ हैं और आत्मबल से संपन्न नारियाँ भी। यह उनकी सबसे बड़ी विशेषता है कि उन्होंने आज के दौर में स्त्री के सामर्थ्य पर लिखा, उसकी समानता की बात की। वाद-विवाद से परे, स्त्री-विमर्श के बिना भी, वे स्त्री की बात कहती हैं। स्त्री की दशा का विवेचन स्वतंत्र भाव से करते हुए, उनकी भंगिमा किसी भी बड़बोले नारी विमर्श से आगे बढ़कर कितनी तल्ख़ तथा प्रभावकारी ह़ो जाती है, इसका उदाहरण वह माँ है, जिसकी खु़राक थी मशक्कत और अपमान, जिसमें थी यह सब सहने की बेहया बहादुरी। एक कहानी में मनहूसा बी तेवर, ताने और तोहमत के तिराहे पर भयंकर असुरक्षित खड़ी मिलती है, जो उसकी रोज़ की खु़राक है। शादी हुई, तभी शायद यह नुस्खा लिख कर किसी ने उसके हाथ में थमा दिया - यह लो, यह है शादी मिक्सचर - एक डोज़ ताना, एक डोज़ तेवर, आखिरी डोज़ तोहमत। सुबह-शाम इसे पियो और सुखी सुहागिन बनी रहो।
उनकी इधर की रचनाओं में विषय की विविधता का पूर्ण विस्तार देखने को मिलता है। उनके लेखन में इकहरापन नहीं है, एक साथ कई बातें चलती हैं। उनके निहितार्थ गहरे हैं, केवल स्त्री पर ही नहीं, उन्होंने आज के युवा, स्कूल-कॉलेज के जीवन, शिक्षा-तंत्र, पुलिस, सरकारी कार्य-प्रणाली, क्रमशः बूढ़ी होती पीढ़ी पर भी बहुत जीवंत रूप से लिखा है। इनकी भीतरी परतों को बहुत पास से बाँचा और अंकित किया है। ममता जी की बहुचर्चित कहानी, 'आपकी छोटी लड़की' की समस्या जेंडर डिफ़रेंस नहीं है, कहानी में दोनों ही पात्र लड़कियाँ हैं, परिवार में समस्याएँ और भी बहुत सारी होती हैं।
लेखन में उनके मस्त-मौला अंदाज़, तेवर और मिजाज़ की अलग पहचान है। वे न केवल अछूते विषयों पर लिखती हैं, बल्कि उन पर अछूते ढंग से भी लिखती हैं - दन्न से! यह 'दन्न से' उनकी प्रिय अभिव्यक्ति है, जिसे अपने लेखन में उन्होंने कई जगह इस्तेमाल किया है। इसी तरह एक और शब्द उनके लेखन-क्रम में बार-बार आता है, 'मम्मी पापा पर कटखनी नज़र डालती हैं', (आपकी छोटी लड़की) 'पति से पत्नी को कटखना जवाब मिलता है',(लैला-मजनूँ) 'हवा काटू होती है' (रजत जयंती) 'रेखा थी छोटी, दुबली कमसूरत और कटखनी' (दौड़)।
ममता कालिया के लेखन में अभिव्यक्ति-भंगिमा के ऐसे विशिष्ट रूप भी हैं, जो केवल उनके ही बस की बात हैं। 'छोटे से कमरे में सब ऐसे फँस-फँस कर लेट जाते, जैसे डिब्बे में बाटा के जूते या एक प्लेट में कई दोसे (कहानी - लैला मजनूँ), वे (बच्चे) साक्षात धमकी की तरह पूरे घर में धमधम घूमते, वहीं यह इंसान सावन के महीने में उसे वैशाख की आँखों से घूर रहा है।
'वसंत सिर्फ़ एक तारीख़' कहानी में बेरोजगारी को वे आराम से 'पुश्तैनी रोज़गार' कह देती हैं। ऐसी अभिव्यक्तियों से भरी उनकी तमाम कहानियाँ अपनी विशेषताओं के चलते अपने को पढ़वा ले जाती हैं। बेटी का मार खाई माँ से पूछना, 'आसनाई का चीज़ होती है?' माँ का ठंडी साँस भर कर "का मालूम " कहना और बेटी का समझ जाना "यह कोई खराब चीज़ है, नहीं तो माँ क्यों पिटती!" इस पीड़ा और दुःख-बोध में स्त्री की पहचान पूरी ह़ो जाती है। उनकी ऐसी रचनाओं में गहरा संप्रेषण है, जिससे पाठक बंधा रहता है। एक चौखटा है, जिससे बाहर निकलने को छटपटाती हैं उनकी कहानियों की लड़कियाँ!
उनके लेखन में उनका समय है, यह तलाश है कि मानवीय रिश्ते बेहतर कैसे हों? वे जीवन की उस असंवेदनशीलता को विस्तार देती हैं, जिसने संबंधों को शीतल किया है। एक अर्थ में इस लेखन को सामाजिक चेतना को जगाने वाला लेखन कहा जा सकता है। वे आज के दांपत्य पर छोटी-छोटी घटनाएँ बुनती हैं और उनके माध्यम से पाठकीय संवेदना को झकझोरती हैं।
क्या इस लेखन में कोई रास्ता निकालने की कोशिश भी है? या केवल रोज़मर्रा की कठिन, ऊबड़-खाबड़ ज़िंदगी के चित्र ही हैं? उनका लेखन गहरे मानवीय और सामाजिक प्रश्न जगाता है, जीवन की विषमताओं से टकराते हुए न केवल सवाल छोड़ जाता है, बल्कि उत्तर पाने के लिए जूझने को विवश भी करता है। कहना गलत न होगा, कि ममता कालिया ने लगभग हर रचना में अपने समय और समाज को पुनर्परिभाषित करने का सृजनात्मक जोखिम उठाया है। कभी वे समूचे परिवेश में नया सरोकार ढूँढती हैं, तो कभी वे वर्तमान परिवेश में नई अस्मिता और संघर्ष को शब्द देती हैं।
संदर्भ
हिंदी-उर्दू फ्लैगशिप साईट पर उपलब्ध साक्षात्कार
चर्चित कहानियाँ : 'मेरी कहानी' शीर्षक के अंतर्गत लेखिका का कथन
'दौड़' उपन्यास
'बेघर' उपन्यास
अँधेरे का ताला : फ्लैप से
लेखक परिचय
पूर्व विज़िटिंग प्रोफ़ेसर, ऐलते विश्वविद्यालय बुदापैश्त हंगरी
पूर्व प्रोफ़ेसर, हान्कुक यूनिवर्सिटी ऑफ़ फ़ॉरन स्टडीज़ सिओल दक्षिण कोरिया
राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय गोष्ठियों में आलेख प्रस्तुति और उनका प्रकाशन।
सम्प्रति स्वांत: सुखाय लिखना-पढ़ना।
बहुत रोचकता से ममता दीदी की उपलब्धियों को बताया लेखक ने।ममता दीदी का ज्ञान विपुल, अनुभव विपुल और उनका लेखन भी विपुल ।
ReplyDeleteसाधुवाद लेखक को
धन्यवाद
DeleteBahut hi rochak sansmaran
ReplyDeleteविजयासती मैंने आज अभी आँख खुलते ही पढ़ा।तुमने कितने गहन,गंभीर और अनुरागी अध्ययन से मेरी रचनाओं पर लिखा।सप्रेम आभार।तुमने मिलने की इच्छा का ज्वार जिया में उठा
ReplyDeleteममता जी यह संदेश पढ़ कर और अनूप दा को दिए आपके संदेश को पढ़ कर हमारा उत्साह दुगुना हो गया है! स्नेह बनाए रखें इस परियोजना पर! आगे भी बहुत कुछ नया कर गुजरने के विचार हैं मन में!
Deleteजी बिल्कुल, हिंदी के लिए हम सदा तत्पर !
Delete"है तो औरत पर बाईगॉड मर्दों की तरह लिखती हैं।" वाह, बहुत खूब विजया सती जी। दिलचस्प टिप्पणियों और उद्धरणों के साथ ममता कालिया जी के व्यक्तित्व और लेखन कर्म का सांगोपांग लेखा जोखा प्रस्तुत किया है आपने। साथ ही उनकी रचना प्रक्रिया, चिंतन तथा सरोकारों से भी पाठकों को बखूबी परिचित कराया है। अत्यंत प्रेरक एवं पठनीय लेख के लिए हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteआत्मीय आभार बालेंदु जी !
Deleteआदरणीय विजया जी!🙏
ReplyDeleteमान्या ममता जी पर लिखा आपका यह आलेख ऐसा आभास करा रहा था, जैसे आत्मकथा हो। बेशक अपने न केवल उनकी रचनाओं का गहन अध्ययन किया है, वरन् उनके जीवन को भी भली-भांति पढ़ने में सफल रहे हम सब को अवगत कराया है। साधुवाद!
विशेषतः - 'बेरोजगारी को पुस्तैनी रोजगार' कहना सहज नहीं है।
धन्यवाद अरविंद जी
Deleteविजया जी, आपको इस सुंदर आलेख के लिए बधाई ।आपका आलेख ममता जी के लेखन का बहुत गहराई एवं विस्तार से चित्रण करता है।जिस प्रकार आपने अलग-अलग कहानियों के विशिष्ट भाषा-विन्यास , अलग-से स्वाद की चर्चा की है , ऐसा विश्लेषण कम देखने को मिलता है।स्पष्ट है कि ममता जी आपकी प्रिय लेखिका हैं और आपने इन्हें बहुत लगन से पढ़ा है।इसीलिए ममता जी ने स्वयं भी टिप्पणी दी है।आपको एवं ममता जी को हार्दिक शुभकामनाएँ । 💐💐
ReplyDeleteआप सभी का हार्दिक आभार !
ReplyDeleteममता जी मेरे हंगरी प्रवास की उपलब्धि हैं
वहां अपने एकांत में मैंने उन्हें भरपूर पढ़ा
हंगेरियन छात्र को भी पढ़वाया, ऐसा कि आज ममता कालिया के कथा साहित्य पर शोध कर पीटर पी एच डी की उपाधि प्राप्त कर चुका है ! ममता जी का लेखन अभी और पढ़े जाने की मांग करता है.
आप सभी के शब्द मुझे प्रेरणा दे रहे हैं !
‘दन्न से’ प्रतिबंधों पर वार करती ममता जी की लेखनी को क्या ही ‘ठप्पे से’ चित्रित किया है आपने विजया जी! मुझे इस बात की बहुत ख़ुशी है कि अमूमन सभी बागी नारी कलम पर स्त्रियाँ लिख रही हैं हमारे सतम्भ में! सच ही तो है कि Empowered women, empower women! जय हो!
ReplyDeleteबहुत विस्तृतलेख द्वारा ममता जी की जानकारियां। बधाई
ReplyDeleteडॉ. विजया जी, आपने समृद्ध साहित्यकार ममता कालिया जी पर बहुत उत्तम जानकारी भरा लेख लिखा है। इस शोधपरख लेख के लिये आपको बहुत बहुत बधाई एवं साधुवाद।
ReplyDeleteआभार आपका
Deleteअनुभवजन्य सारगर्भित लेखन।लेखिका का अभिनंदन।
ReplyDeleteविजया जी बहुत सुन्दर आलेख , ममता जी पर गहन शोधपरक लेख मक्खन सा उनके व्यक्तित्व को दर्शा रहा है बहुत बधाई
ReplyDeleteआभार व्यक्त करती हूं आपका
Delete“हो गयी सबसे छिटककर
ReplyDeleteसांस लेने योग्य जब
नफ़रतों ने बिलबिला कर यह कहा,
छूट कर सबसे निकलना
था ही सरल।
किया क्या तुमने
फेंक दी दिन एक
सुलगती तीली
बीचोंबीच
चीड़ के जंगल।”- ममता कालिया
हार्दिक बधाई स्वीकार करें डॉ. विजया सती जी! आपने आदरणीय ममता कालिया जी की ‘पैनी और कटखनी नज़र’ को ‘दन्न’ से लिखा तो ‘छन्न’ से आवाज़ आई! एक साँस में पढ़ गई और मुँह से निकला “बहुत ख़ूब”!
ममता कालिया जी ने कहानी, उपन्यास, कविता, नाटक, संस्मरण और पत्रकारिता अर्थात् साहित्य की लगभग सभी विधाओं में अपनी कलम का जादू बिखेरा। उनका जीवन और संपूर्ण साहित्य नारी के सतत् संघर्ष, साहस और स्वाभिमान का युद्ध है जिसमें वे विजयी हुई हैं । उन्होंने अपने लेखन में रोजमर्रा के संघर्ष में युद्धरत स्त्री का व्यक्तित्व उभारा। अपनी रचनाओं में वह न केवल महिलाओं से जुड़े सवाल उठाती हैं, बल्कि उन्होंने उनके उत्तर देने की भी कोशिश की हैं।
आपने ममता जी के कृतित्व का बहुत ही सुंदर विश्लेषण किया है। मुझे ऐसा लगता है कि ममता जी के साहित्य का समग्र मूल्यांकन होना अभी बाक़ी है और जिस श्रेय, सम्मान और पुरस्कार की वे अधिकारिणी हैं वह अभी मिलना शेष है। ममता जी के स्वस्थ और सुदीर्घ जीवन की कामना के साथ आशा करते हैं कि वे इसी तरह सभी को प्रेरित करती रहेंगी।
विजया जी को पुनः धन्यवाद एवं शुभकामनाएँ 🌹
-सुनीता यादव
बहुत रोचक लेख, ममता जी के विशेष शब्दों का जिक्र करके आपने पाठकों के मन में जिज्ञासा बढ़ा दी है।हार्दिक बधाई,विजया जी 🙏💐
ReplyDeleteनवीन साहित्यिक प्रयोग और बहुचर्चित रचनाकार आदरणीया ममता जी समाज के अनछुए पहलुओं को प्रस्थापित करने वाली उच्चतम श्रेणी की साहित्यकार है। आपका जीवन कठिन परिस्थितियों से गुजरा है इसलिए आपकी रचनाओँ में साहसी और उत्तेजक शब्द शैली की छलक दिखाई पड़ती है। आप किसी भी बात से ज्यादा परेशान होती है तब अपने आप को संतुलित करने लेखन का सहारा लेती है जो आपकी सार्थक और संजीदा शक्ति है जो कलम के जरिये कागजों पर उतर कर जन सामान्य पाठक को प्रभावित कर रहीं है। आदरणीया डॉ विजया जी ने अपने आलेख के द्वारा ममता जी की अभिव्यक्ति-भंगिमा को विशष्ट रूप से वृस्तत किया है। आपने आलेख में ममता जी के अछूते पालो को बखूबी प्रज्वलित किया है जो किसी भी मानवीय रिश्ते को अभिव्यंजक रूप से निभाने की क्षमता रखता है। पाठकीय संवेदना को झकझोरते आपके लेखन को नमन और बहुत बहुत आभार। अनंत शुभकामनाएं।
ReplyDeleteविजया जी, प्रसिद्ध साहित्यकार ममता कालिया पर शोधपूर्ण और अच्छे आलेख के लिए आपको बहुत-बहुत बधाई एवं शुभकामनाएँ।
ReplyDeleteविजया जी, समाज के प्रत्येक असंवेदनशील पहलू पर अपनी संवेदनाओं की कलम से प्रहार करने वाली और हर छूते-अछूते मुद्दों को अपनी लेखनी का विषय बनाने वाली ममता जी का जीवंत चित्रण किया है आपने। आपने उनके ही कुछ चुनिंदा शब्दों के विभिन्न कृतियों में इस्तेमाल का उल्लेख कर 'वाह! क्या बात है' वाली भावना उत्पन्न कर दी। सप्रेम और ससाधना लिखे गए इस लेख के लिए आपको बधाई और हृदयतल से आभार।
ReplyDeleteममता जी के विषय में जितना भी पढ़ा जाए, हर बार कुछ नये तथ्य उभर कर आते हैं | डॉ विजया सती जी को इस सुन्दर लेख के लिए बधाई |
ReplyDeleteआपने सही कहा ममता जी के लिए, सादर
Deleteआपके शोधपरक आलेख से माननीया ममता कालिया जी के कृतित्व एवं व्यक्तित्व का और अधिक परिचय मिला। आप दोनों का हार्दिक अभिनंदन।
ReplyDeleteधन्यवाद !
ReplyDeleteहृदय से आभार सभी विद्वतजनों का !
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