Monday, October 31, 2022

आचार्य नरेंद्रदेव : भारत में समाजवाद के पितामह


"समाजवाद का सवाल केवल रोटी का सवाल नहीं है। समाजवाद मानव स्वतंत्रता की कुंजी है। समाजवाद ही एक सुखी समाज में संपूर्ण स्वतंत्र मनुष्यत्व को प्रतिष्ठित कर सकता है। समाजवाद ही श्रेणी नैतिकता तथा मत्स्य-न्याय के बदले जनप्रधान नैतिकता तथा सामाजिक न्याय की स्थापना कर सकता है। समाजवाद ही स्वतंत्रता, समता और भ्रातृभाव के आधार पर एक सुंदर, सबल मानव संस्कृति की सृष्टि कर सकता है।" - आचार्य नरेंद्रदेव।

आज हम साहित्यिक, दार्शनिक, राजनीतिक, भाषा-संस्कृति के विद्वान व भारत में समाजवाद के पितामाह आचार्य नरेंद्रदेव से रूबरू होंगे। यदि आज़ादी के पश्चात नए भारत का निर्माण करते समय आचार्य नरेंद्र देव के विचारों को आधार बनाया गया होता तो आज हमारा समाज कई विकराल समस्याओं से मुक्त होता। क्योंकि उस रास्ते पर चलकर ही हम सही अर्थों में कार्ल मार्क्स, महात्मा गाँधी, गौतम बुद्ध के विचारों को समाहित कर भारतीय समाजवादी समाज की स्थापना की राह हमवार कर चुके होते।

इनके पिता पेशे से वकील, वृत्ति से धार्मिक और विचारों से समाजवादी थे, जिसके चलते विभिन्न प्रकार के लोगों का इनके घर आना-जाना रहता था। इस परिवेश ने बालक अविनाशी लाल को स्वामी रामतीर्थ, पंडित मदनमोहन मालवीय, पंडित दीनदयाल शर्मा आदि के संपर्क में आने का अवसर दिया जिससे इनके मन में भारतीय संस्कृति के प्रति अनुराग उपजा। संस्कृत के विद्वान माधव मिश्र ने इनका नाम नरेंद्रदेव रखा। राजनीति में रुचि होने के कारण नरेंद्रदेव ने वकालत की पढ़ाई की। साथ ही इतिहास, पुरातत्व, धर्म, दर्शन व संस्कृति का भी गहन अध्ययन किया। वे हिंदी, संस्कृत, पाली, जर्मन, फ्रेंच और अँग्रेज़ी भाषाओं के अच्छे ज्ञाता थे। वर्ष १९१५ से पाँच वर्षों तक फ़ैजाबाद में वकालत की। असहयोग आंदोलन के शुरू होने के बाद जवाहरलाल नेहरू की पहल और अपने मित्र श्री शिवप्रसाद गुप्त के आमंत्रण पर नरेंद्रदेव काशी विद्यापीठ आए। काशी विद्यापीठ से उनका जुड़ाव सन १९२१ से रहा।

उनके सहपाठियों में दर्शन और तंत्र विद्या के महान विचारक महामहोपाध्याय गोपीनाथ कविराज रहे। नरेंद्रदेव स्वंय बौद्ध धर्म और दर्शन तथा भारतीय दर्शन के विद्वान थे। आचार्य नरेंद्रदेव सन १९४७ से १९५१ तक लखनऊ विश्वविद्यालय और सन १९५१ से १९५३ तक काशी हिंदू विश्वविद्यालय के उपकुलपति रहे। उपकुलपति रहते हुए वे अपने वेतन का अधिकांश हिस्सा समाजवादी गतिविधियों के लिए दे दिया करते थे। उनके शिष्यों में भारत के दूसरे प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री, काँग्रेस के वरिष्ठ नेता कमलापति त्रिपाठी और समाजवादी नेता चंद्रशेखर थे।       

सन १९२९ में काशी विद्यापीठ में आचार्य नरेंद्रदेव की महात्मा गाँधी से मुलाक़ात हुई। महात्मा गाँधी ने बाबू श्रीप्रकाश से पूछा - ऐसा हीरा मुझसे अब तक क्यों छिपाकर रखा था? श्रीप्रकाश ने कहा - एक अच्छे हीरे की परख तो अच्छे जौहरी को ही हो सकती है। गाँधी जी ने उस हीरे को फिर ताउम्र संभाल कर रखा तथा समय और ज़रूरत पड़ने पर आज़माया भी। 
  
महात्मा गाँधी भलीभाँति जानते थे कि दुनिया के लिए जितना ख़तरनाक फ़ासीवाद है उतना ही साम्राज्यवाद भी। महात्मा गाँधी के इन विचारों का आचार्य नरेंद्रदेव पूर्ण समर्थन करते थे। उनके इस समर्थन का आधार मुख्यतः भारतीय देशज परंपरा का ज्ञान था। 
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आचार्य नरेंद्रदेव के राजनीतिक जीवन में कई मोड़ आए। काँग्रेस में रहते हुए वे सन १९३७ में संयुक्त प्रांत से विधानसभा के सदस्य रहे। सन १९४६ में विधानसभा के निर्विरोध सदस्य चुने गए। सन १९४८ में नासिक सम्मेलन में काँग्रेस पार्टी और विधानसभा की सदस्यता से इस्तीफ़ा देकर गाँधी जी की हत्या के तीन महीने बाद समाजवादी पार्टी में चले गए।

आचार्य नरेंद्रदेव 'मेरे संस्मरण' शीर्षक रेडियो-वार्ता में बताते हैं, "मेरे जीवन में सदा दो प्रवृत्तियाँ रही हैं - एक पढ़ने-लिखने की और दूसरी राजनीति की; और इन दोनों में संघर्ष रहता है। यदि दोनों की सुविधा एक साथ मिल जाए तो मुझे बड़ा संतोष रहता है और यह सुविधा मुझे काशी विद्यापीठ में मिली। इसी कारण वह मेरे जीवन का सबसे अच्छा हिस्सा है जो विद्यापीठ की सेवा में व्यतीत हुआ।"

काशी विद्यापीठ में डॉक्टर भगवानदास जी की अध्यक्षता में आचार्य जी ने काम शुरू किया। वर्ष १९२१ में स्वयं अध्यक्ष हुए। विद्यापीठ में उनका अध्यापकों और विद्यार्थियों के साथ बड़ा ही घनिष्ठ संबंध रहा। वहीं श्रीप्रकाश जी ने उन्हें आचार्य कहना शुरू किया जो उनके नाम का अभिन्न अंग बन गया। काशी विद्यापीठ के अध्यापकों और विद्यार्थियों ने इनके नेतृत्व में देश के स्वतंत्रता संग्राम और स्वतंत्र राष्ट्रीय शिक्षा के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। 

इलाहाबाद में अध्ययन के समय हिंदू बोर्डिग हाउस में रहते हुए, जो उन दिनों उग्र विचारों का केंद्र था, नरेंद्रदेव के राजनीतिक विचार बलवती हुए। उन्होंने वहीं गरम दल की विचारधारा अपनाई और उसके प्रति जीवनपर्यंत दृढ़ रहे। गरम दल के होने के कारण सन १९०५ में उन्होंने काँग्रेस के अधिवेशनों में जाना छोड़ दिया और सन १९१६ में जब दोनों दलों का मेल हो गया तो वे फिर सक्रिय हो गए। वर्ष १९१६ से १९४८ तक ऑल इंडिया काँग्रेस कमेटी के सदस्य और जवाहरलाल की कार्यसमिति के सदस्य भी हुए।

भग्न स्वास्थ्य के बावजूद आचार्य नरेंद्रदेव ने सन १९३० के नमक सत्याग्रह, सन १९३२ के आंदोलन तथा सन १९४१ के व्यक्तिगत सत्याग्रह आंदोलन में साहस के साथ भाग लिया और जेल की यातनाएँ सहीं। सन १९४२ में चार महीने तक गाँधी जी ने उन्हें अपने आश्रम में चिकित्सा के लिए रखा। जब ९ अगस्त १९४२ को गाँधी जी ने 'करो या मरो' प्रस्ताव रखा, बंबई में आचार्य जी काँग्रेस कार्यसमिति के सदस्यों के साथ गिरफ़्तार हो गए। सन १९४२ से १९४५ तक श्री जवाहरलाल नेहरू के साथ अहमदनगर के किले में बंद रहे।

आचार्य नरेंद्रदेव क्रांतिकारी दल के कभी सदस्य नहीं हुए, किंतु कई नेताओं से उनका घनिष्ठ परिचय था, जो उन पर विश्वास करते थे और समय-समय पर उनसे सहायता भी लेते थे। 

सन १९३४ में आचार्य नरेंद्रदेव ने श्री जयप्रकाश नारायण, डॉक्टर राममनोहर लोहिया तथा अन्य सहयोगियों के साथ काँग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना की। सन १९३४ में हुए प्रथम अधिवेशन के अध्यक्ष आचार्य नरेंद्रदेव जी ही थे। काँग्रेस से बाहर आने पर सन १९४८ में सोशलिस्ट पार्टी का जो सम्मेलन पटना में हुआ उसकी अध्यक्षता भी आचार्य नरेंद्रदेव जी ने ही की। समाजवादी आंदोलन में आचार्य नरेंद्रदेव का वही स्थान रहा है जो एक परिवार में पिता का होता है। आचार्य जी मार्क्सवादी समाजवादी थे, किंतु बराबर कहा करते थे कि इस युग की दो मुख्य प्रेरणाएँ राष्ट्रीयता और समाजवाद है और राष्ट्रीय परिस्थितियों तथा आकांक्षाओं की दृष्टि से ही समाजवाद के आकलन पर ज़ोर देते रहे। भारत में समाजवाद को राष्ट्रीयता और किसानों के सवाल से जोड़ना आचार्य जी की भारतीय समाजवाद को एक स्थायी देन है।

काशी विद्यापीठ के अध्यापक, आचार्य और कुलपति की हैसियत से उन्होंने अपनी विद्वत्ता, उदारता और चरित्र के द्वारा अध्यापन और प्रशासन का जो उच्च आदर्श कायम किया, वह अनुकरणीय है। अपने सहयोगी श्री संपूर्णानंद जी के आग्रह पर आचार्य जी ने उत्तर प्रदेश की माध्यमिक शिक्षा समिति की अध्यक्षता की थी। इस समिति के ज़रिए कई महत्त्वपूर्ण सुझाव उन्होंने दिए थे। 

बौद्ध दर्शन में विशेष रुचि के चलते आजीवन उसका अध्ययन करते रहे। अपने जीवन के अंतिम दिनों में 'बौद्ध-धर्म-दर्शन' उन्होंने पूरा किया जिसके लिए उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। उन्होंने 'अभिधर्मकोश' भी प्रकाशित कराया था। 'अभिधम्मत्थसंहहो' का हिंदी अनुवाद किया था। उन्होंने प्राकृत तथा पाली व्याकरण हिंदी में तैयार किया था, जो अभी तक प्रकाशित न हो सका है। बौद्ध दर्शन के पारिभाषिक शब्दों के कोश का निर्माणकार्य भी उन्होंने प्रांरभ किया था और ४०० शब्दों का व्याख्यात्मक कोश बना लिया था, किंतु आकस्मिक निधन से वह काम पूरा न हो सका।
  
उनके बेजोड़ भाषण उनकी प्रकाशित रचनाओं से किसी भी मायने में कम नहीं हैं, परंतु समय रहते भाषणों का संकलन न होने के कारण हम ज्ञान की एक अमूल्य निधि से वंचित हैं।
     
आचार्य नरेंद्रदेव ने 'विद्यापीठ' त्रैमासिक पत्रिका, 'समाज' त्रैमासिक, 'जनवाणी' मासिक, 'संघर्ष' और 'समाज' साप्ताहिक पत्रों का संपादन किया। 

नरेंद्रदेव नैतिक समाजवादी थे। वे समाजवाद को राजनीतिक से अधिक सांस्कृतिक आंदोलन मानते थे, इसलिए उन्होंने समाजवाद के मानवतावादी पक्ष पर अधिक बल दिया। यद्यपि वे हिंदू धर्म और बौद्ध धर्म का भी अध्ययन कर चुके थे, परंतु उन्होंने गाँधी जी के अहिंसा सिद्धांत से कभी सहमति व्यक्त नहीं की। 
               
आचार्य नरेंद्रदेव एक चिंतन पद्धति के रूप में मार्क्सवाद को मानने वाले थे। एक मौके पर उन्होंने कहा कि वे पार्टी छोड़ सकते हैं, मार्क्सवाद नहीं। लेकिन वे रूढ़िवादी कम्युनिस्ट नहीं थे। यानी सर्वहारा के नाम पर कम्युनिस्ट पार्टी, उसमें भी एक व्यक्ति या गुट की तानाशाही उन्हें अस्वीकार्य थी। परंतु लेनिन को वे बहुत पसंद करते थे। वे अमरीकी साम्रज्यवाद के हमेशा घोर विरोधी रहे। वे मार्क्सवाद और भारत तथा बाक़ी पराधीन दुनिया के राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन में कोई विरोध नहीं देखते थे। वे किसान और मजदूर की क्रांतिकारी शक्ति के बीच विरोध नहीं, परस्पर पूर्णता देखते थे। वे कृषि क्रांति को समाजवादी क्रांति से जोड़ने के पक्षधर थे, इसीलिए उन्होंने अपना ज़्यादा समय किसान राजनीति को दिया। वे किसानों को जाति और धर्म के आधार पर संगठित करने के ख़तरों को समझते थे, इसीलिए जाति और धर्म के आधार पर किसानों और मजदूरों को बाँटने की साज़िश का लगातार विरोध व उसका पर्दाफाश करते रहे। भारत के क्रांतिकारी आंदोलन को भी वे द्विभाजित नज़रिये से नहीं बल्कि स्वतंत्रता संघर्ष के इतिहास की विकासमान धारा की संगति में देखते थे।

वर्ष १९३६ में आचार्य नरेंद्रदेव द्वारा दिए गए भाषण का यह अंश दृष्ट्व्य है, ‌"हमारा काम केवल साम्राज्यवाद के शोषण का ही अंत करना नहीं है किंतु साथ-साथ देश के उन सभी वर्गों के शोषण का अंत करना है जो आज जनता का शोषण कर रहे हैं। हम एक ऐसी नई सभ्यता का निर्माण करना चाहते हैं जिसका मूल प्राचीन सभ्यता में होगा, जिसका रूप-रंग देशी होगा, जिसमें पुरातन सभ्यता के उत्कृष्ट अंश सुरक्षित रहेंगे और साथ-साथ उसमें ऐसे नवीन अंशों का भी समावेश होगा जो आज जगत में प्रगतिशील हैं और संसार के सामने एक नवीन आदर्श उपस्थित करना चाहते हैं।"
                        
आचार्य नरेंद्रदेव के विचारों की सबसे बड़ी सार्थकता व्यक्ति के नैतिक मूल्यों का सामाजिक परिवर्तन की क्रांतिकारी प्रक्रिया के साथ संवर्द्धन करने में है। उनका सामाजिक परिवर्तन के नैतिक पक्ष पर आग्रह जहाँ भारतीय दृष्टि से जुड़ा है, वहीं सामाजिक शक्तियों के वैज्ञानिक विश्लेषण का आग्रह मार्क्सवादी दृष्टि से है।
                      
आचार्य नरेंद्रदेव ने अपना संपूर्ण जीवन भारत में समाजवाद की स्थापना के संघर्ष में लगा दिया। उन्होंने जीवनपर्यंत एक सीधी-सादी जिंदगी बिताई। उन्हें अपने अंतिम समय में अपने कार्य-क्षेत्र उत्तर-प्रदेश विशेषकर फ़ैजाबाद में सत्ताधारी काँग्रेस व सांप्रदायिक शक्तियों के दुष्प्रचार का शिकार होना पड़ा। जेल जीवन तथा अत्याधिक परिश्रम के कारण उन्हें दमा जैसी गंभीर बीमारी ने जकड़ लिया।
                     
भारत में समाजवाद के इस महान स्वप्नदृष्टा, महान मनीषी ने १९ फरवरी १९५६ को मद्रास में अंतिम साँस ली और हमारे पीछे छोड़ गए एक बेहतर समाज बनाने का संकल्प। आज इस अंधेरे समय में आचार्य नरेंद्रदेव बड़ी शिद्दत से याद आते हैं जब सांप्रदायिकता की काली शक्तियाँ हमारी बहुलतावादी संस्कृति, संविधान और लोकतंत्र को समाप्त करना चाहतीं हैं और धनकुबेर देश के सभी संसाधनों को अपने क़ब्ज़े में कर अकूत मुनाफ़ा कमा कर किसानों-मजदूरों को लूट रहें हैं। 
            
अंत में उनके निम्न कथन के साथ, जो हमारी सामाजिक सच्चाई के कारण उजागर करता है, आलेख को विराम देता हूँ, "वैज्ञानिक दृष्टि से जाति-विशुद्धि नाम की कोई वस्तु नहीं है। सदा से जातियों का सम्मिश्रण होता आया है। यह भी धारणा मिथ्या है कि एक जाति विशिष्ट है और दूसरी निकृष्ट। जो जातिगत विरोध इस समय पाया जाता है, उसका कारण आर्थिक है। किंतु यह भी सत्य है कि एक जाति के लोग दूसरी जाति के लोगों को निकृष्ट मानते हैं। जातियों के पारस्परिक संबंध का इतिहास जानने से तथा निकट संपर्क में आने से यह अज्ञान दूर हो जाएगा। हमें यह भी स्वीकार करना चाहिए कि किसी देश के निवासियों को प्रवास कर दूसरे देश का आर्थिक शोषण करने का अधिकार नहीं है।"
                                                   

आचार्य नरेंद्रदेव  : जीवन परिचय

नाम 

अविनाशी लाल बाद में आचार्य नरेंद्रदेव

जन्म

३१ अक्टूबर १८८९, सीतापुर 

निधन

१९ फरवरी १९५६, मद्रास

पिता 

श्री बलदेव प्रसाद (अपने समय के बड़े वकील)

शिक्षा 

  • बी०ए०, इलाहाबाद विश्वविद्यालय

  • एल०एल० बी०, इलाहाबाद विश्वविद्यालय

  • एम०ए०, इलाहाबाद विश्वविद्यालय

  • पुरातत्व, क्वींस कालेज, वाराणसी

व्यवसाय 

  • वकालत ( फैज़ाबाद में १९१५ से १९२० तक )

  • अध्यापन (काशी विद्यापीठ)

  • उपकुलपति (लखनऊ एवं काशी हिंदू विश्वविद्यालय)

भाषा 

हिंदी 

प्रमुख रचनाएँ

  • बौद्ध धर्म दर्शन

  • अभिधर्मकोश( चार खंडों में)

  • समाजवाद और राष्ट्रीय क्रांति

  • चुनाव पद्धतियाँ और जनसत्ता

  • समाजवाद लक्ष्य तथा साधना

  • समाजवाद का बिगुल

  • भारतीय संस्कृति का इतिहास

  • राष्ट्रीयता और समाजवाद

  • बोधिचर्या तथा महायान

  • किशोरों के लिए अनेकों छोटी पुस्तिकाएँ

संपादन-लेखन 

विद्यापीठ, जनवाणी, संघर्ष, जनता, समाज आदि पत्र-पत्रिकाएँ 

सम्मान

  • 'बौद्ध धर्म दर्शन' के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार 

 

 

संदर्भ

  • राष्ट्रीयता और समाजवाद
  • विकिपीडिया
  • कुछ फुटकर नोट

लेखक परिचय

सुनील कुमार कटियार

जनवादी चिंतक
एम० ए० अर्थशास्त्र, उत्तर- प्रदेश सहकारी फेडरेशन से सेवानिवृत्त
स्थानीय पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित
जनवादी लेखक संघ, उत्तर-प्रदेश की राज्यपरिषद के सदस्य
मोबाइल- ७९०५२८२६४१, ९४५०९२३६१७
ईमेल- Sunilkatiyar57@gmail.com

Sunday, October 30, 2022

गुरु तेग़ बहादुर : एक तपस्वी, त्यागी, बलिदानी साहित्यकार

काहे रे बन खोजन जाई॥

सरब निवासी सदा अलेपा तोही संगि समाई॥१॥रहाउ॥

पुहप मधि जिउ बासु बसतु है मुकर माहि जैसे छाई॥

तैसे ही हरि बसे निरंतरि घट ही खोजहु भाई॥१॥

बाहरि भीतरि एको जानहु इहु गुर गिआनु बताई॥

जन नानक बिनु आपा चीनै मिटै न भ्रम की काई॥२॥

(राग धनासरी, अंग ६८४)

(तू क्यों उसे वन में खोजने जा रहा है? वह तो सर्वत्र है, सदा अलेप रहते हुए भी तेरे संग समाया हुआ है। जैसे पुष्प में सुगंध बसती है और दर्पण में छाया, वैसे ही हरि निरंतर तेरे हृदय में बसे हुए हैं, वहीं खोज ले। बाहर-भीतर सब एक ही जानो, यह ज्ञान मुझे गुरु ने दिया है। नानक का कथन है कि स्वयं को पहचाने बिना भ्रम की काई नहीं मिटती।)


इतने सरल शब्दों में ब्रह्म का गहरा परिचय देने वाले यह महान तपस्वी गुरु तेग़ बहादुर हैं जिनके बारे में औरंगज़ेब के अत्याचार के विरुद्ध धर्म की रक्षा करने के कारण कहा गया, 

"तेग़ बहादर, हिंद की चादर"


गुरु तेग़ बहादुर जी का जन्म २१ अप्रैल, १६२१ को अमृतसर में हुआ। आप सिखों के छठे गुरु हरगोबिंद साहब के सुपुत्र थे। आपका जन्म का नाम त्यागमल था। आपको गुरुमुखी, हिंदी, संस्कृत और भारतीय आध्यात्म एवं दर्शन की शिक्षा प्रसिद्ध सिख विद्वान भाई गुरदास ने दी। घुड़सवारी और तीरंदाज़ी की शिक्षा वरिष्ठतम सिख बाबा बुड्ढा जी ने दी। १६३५ में करतारपुर की लड़ाई हुई थी जिसमें मुग़लों ने पैंदा खान के नेतृत्व में करतारपुर पर हमला कर दिया था। हरगोबिंद साहब के नेतृत्व में लड़ी सिख सेना ने हमलावर मुग़ल सेना को मार भगाया। उस लड़ाई में अल्पायु में ही आपने युद्ध कला के अद्भुत जौहर दिखाए और हरगोबिंद साहब ने ख़ुश होकर आपको तेग़ बहादुर का नाम दिया। यह गुरु तेग़ बहादुर जी द्वारा लड़ा गया एकमात्र युद्ध था। इसके पश्चात आपका अधिकांश जीवन ध्यान और तपस्या में ही बीता। 


इसी गहन तप और ध्यान ने गुरु तेग़ बहादुर जी को न केवल आत्म-प्रकाश देकर ब्रह्म से एकाकार कर दिया अपितु वैराग्य भाव का शिरोमणि कवि भी बना दिया। तप और ज्ञान व्यक्ति को मानवीय श्रेष्ठता के उच्च्तम शिखर पर विराजमान कर देते हैं लेकिन यहीं पहुँचकर उस महापुरुष की अंतिम परीक्षा होती है, दंभ और अहंकार से मुक्ति की। उस उच्च्तम शिखर पर बैठकर भी स्वयं को दूसरों से श्रेष्ठ न समझना बड़ा कठिन हो जाता है। लेकिन इस कठिन कार्य को सरल, निर्मल स्वरूप दे देती है भक्ति और स्वेच्छा से स्वयं को शून्य कर ब्रह्म के समक्ष किया गया पूर्ण समर्पण। इसके बाद जो अमृत धारा बहती है, वह है गुरु तेग़ बहादुर जी का काव्य।


यदि एक सामान्य ज्ञान रखने वाले व्यक्ति को गीता का गूढ़ ज्ञान सरलतम शब्दों में सहज भाव से ग्रहण करना हो तो उसे गुरु तेग़ बहादुर जी का काव्य पढ़ना चाहिए। एक उदाहरण देखिए,

जो नर दुख मै दुखु नहीं मानै॥

सुख सनेहु अरु भै नही जा कै कंचन माटी मानै॥१।रहाउ॥ 

नह निंदिआ नह उसतति जा कै लोभु मोहु अभिमाना॥

हरख सोग ते रहै निआरौ नाहि मान अपमाना॥१॥

आसा मनसा सगल तिआगै जग ते रहै निरासा॥

कामु क्रोधु जिह परसै नाहनि तिह घटि ब्रहमु निवासा॥२॥

गुर किरपा जिह नर कउ कीनी तिह इह जुगति पछानी॥

नानक लीन भइओ गोबिंद सिउ जिउ पानी संगि पानी॥३॥११॥

(राग सोरठ, अंग ६३३)

(जो व्यक्ति उसे दुख नहीं मानता जिसे संसार दुख कहता है; जिसे सुख, स्नेह और भय प्रभावित नहीं करते; जिस पर न निंदा का प्रभाव पड़ता है, न स्तुति का, न ही लोभ, मोह या अभिमान का; जो हर्ष, शोक से असंपृक्त रहता है, और मान-अपमान से भी। जो अपेक्षा और इच्छा का त्याग कर चुका है और जगत से अपेक्षाहीन रहता है; जिसे काम और क्रोध व्यापते नहीं; ऐसे व्यक्ति के हृदय में ब्रह्म का निवास है। जिस व्यक्ति पर गुरु की कृपा हो, उसे यह युक्ति समझ आ जाती है। नानक का कथन है कि ऐसा व्यक्ति प्रभु से यूँ मिल जाता है जैसे पानी के साथ पानी मिल जाता है)  


ऊपर से देखने पर लगता है कि ऐसा व्यक्ति तो जीवन को ही त्याग चुका है। लेकिन गुरु तेग़ बहादुर जी ने ऐसा जीवन प्रत्यक्ष जीकर दिखाया। गृहस्थ जीवन भी जिया, समाज और देश के हित में भी काम किया और सत्य-धर्म की रक्षा के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया। निर्लिप्त भाव से कर्त्तव्य का निर्वाह करने वाला व्यक्ति स्वयं तो आत्म-प्रकाश को प्राप्त करता ही है, आने वाली पीढ़ियों में करोड़ों लोगों के लिए प्रकाश-स्तंभ बन जाता है। 


श्री गुरु ग्रंथ साहब में गुरु तेग बहादुर जी द्वारा रचित १५ रागों में ५९ सबद और ५७ श्लोक (दोहा शैली में) प्रकाशित हैं। इनमें एक श्लोक गुरु गोबिंद सिंह जी द्वारा रचित माना जाता है। वैराग्य शिरोमणि ने अपने सरल काव्यामृत में मन को संबोधित कर सही आचरण करने को बार-बार सचेत किया है।


बिरथा कहउ कौन सिउ मन की॥

लोभि ग्रसिओ दस हू दिस धावत आसा लागिओ धन की॥१॥रहाउ॥

सुख कै हेति बहुतु दुखु पावत सेव करत जन जन की॥

दुआरहि दुआरि सुआन जिउ डोलत नह सुध राम भजन की॥१॥

मानस जनम अकारथ खोवत लाज न लोक हसन की॥ 

नानक हरि जसु किउ नही गावत कुमति बिनासै तन की॥२॥१॥२३३॥

(राग आसा, अंग ४११)

(मन की स्थिति का क्या बयान करूँ? धन एकत्रित करने की आशा में, लोभ से ग्रस्त यह दसों दिशाओं में भागता है। सुख के हेतु बहुत दुख झेलता है और हर व्यक्ति की सेवा करता है। द्वार-द्वार कुत्ते की तरह भटकता है लेकिन प्रभु के नाम की सुध नहीं लेता। यह मानव जन्म यूँ ही निरर्थक निकल जाता है और इसे लोक-हास्य का विषय बनने पर भी लाज नहीं आती। नानक का कहना है कि प्रभु का यशगान क्यों नहीं करता जिससे इस तन से कुमति दूर हो जाए।)


यह मन नैक न कहिओ करै॥

सीख सिखाइ रहिओ अपनी सी दुरमति ते न टरै॥१॥ रहाउ॥

मदि माइआ कै भइओ बावरो हरि जस नहि उचरै॥

करि परपंच जगत कौ डरकै अपनो उदर भरै॥१॥

सुआन पूछ जिउ होइ न सूधौ कहिओ न कान धरै॥

कहु नानक भजु राम नाम नित जा ते काजु सरै॥२॥१॥

(राग देवगंधारी, अंग ५३६)

(यह मन मेरा कहा हुआ रत्ती भर भी नहीं करता। मैं इसे अपनी तरफ़ से बहुत शिक्षा दे रहा हूँ पर यह है कि दुर्बुद्धि से टलता ही नहीं। यह माया के नशे में बावरा हो गया है और हरि नाम का यशगान नहीं करता। तरह-तरह के प्रपंच कर जगत को ठगता है और उससे अपन पेट भरता है। कुत्ते की दुम की तरह यह कभी सीधा नहीं होता और मेरे सदुपदेश को सुनता ही नहीं। नानक का कहना है कि नित्य-प्रति प्रभु का नाम भजने से तेरे मानव जीवन को सफ़ल करने वाला सारा काम हो जाएगा।)


कहने का भाव यह कि पूरा ज़ोर मन को साधना में लगाने पर है। सारा ध्यान, जप-तप इसलिए कि यह मन मनुष्य के नियंत्रण में आ जाए, उसकी सद्बुद्धि के आदेश का पालन करे। उसका सेवक बने, स्वामी नहीं। यदि व्यक्ति इसके नियंत्रण में रहा तो यह तो बंदर की तरह रोज़ ऊपर-नीचे नाच-नाचकर उत्पात मचाएगा और उसके लिए दुख और अशांति का कारण बन जाएगा। इससे पहले कि यह दिशाहीन भटकाव में डाल दे, बेहतर है कि वह इसे स्वामीभक्त घोड़े की तरह साधकर लक्ष्य प्राप्ति की ओर ले चले


इस प्रकार मन को साधकर अनुशासित करने की बात गुरु जी ने केवल कही ही नहीं अपितु उस राह पर कदम-कदम चलकर दिखा दिया। यह ऐसे निराले सिख गुरु हुए जिन्हें सिक्खों ने खोजा। हुआ यूँ कि १६४४ में अपने पिता के आदेश पर आप पैतृक गाँव बकाला में आकर बस गए। वहाँ घर के एक छोटे से कमरे में हर समय प्रभु के नाम में ध्यान-मग्न रहते। जप-तप में इतने मगन कि कई बार भोजन की सुध नहीं रहती। कमरे के बाहर जो भोजन की थाली रखी जाती, वह दिनों तक अनछुई ही पड़ी रह जाती। स्थानीय सिख संगत चाव से गुरु-पुत्र की सेवा करना चाहती मगर तपस्वी को न तो सेवा करवाने की चाह, न गुरु बनने की आकांक्षा। ऐसे ही २० वर्षों से ऊपर बीत गए। आज उस तप-स्थल पर भव्य बाबा बकाला गुरुद्वारा है।


जब आठवें गुरु हरिकृशन जी चेचक के रोगियों की सेवा करते-करते स्वयं चेचक से ग्रस्त हो गए और उनके देह त्यागने से पहले सिक्खों ने पूछा कि उनके बाद गुरु कौन बनेगा तो उन्होंने कहा- बाबा बकाले। यह सुनकर गुरु पद की लालसा में ढोंगी और पाखंडी लोग बाबा बकाला की ओर दौड़ पड़े। शीघ्र ही वहाँ २२ गुरु अपने-अपने आसन लगा कर बैठ गए और हर व्यक्ति यह दावा करने लगा कि वही सच्चा नवां गुरु है।


मक्खन शाह लबाना एक बड़े धनाढ्य और प्रतिष्ठित व्यापरी थे। इनके जहाज़ गुजरात के बंदरगाहों से माल लेकर मध्य-पूर्व में खाड़ी के देशों में जाते और वहाँ से माल लेकर भारत लौट आते। मक्खन शाह की गुरु नानक में और उनके चलाए पंथ में बड़ी श्रद्धा थी और वे सक्रिय होकर सिख समुदाय की गतिविधियों में भाग लेते थे। १६६४ में जब वे अपने जहाज़ पर माल लेकर मध्य पूर्व से लौट रहे थे तो खंबात की खाड़ी के पास उनका जहाज़ भयंकर तूफ़ान में फँस गया। नाविकों ने लंगर डाल जहाज़ को स्थिर करने का प्रयास किया लेकिन तूफ़ान का प्रकोप बढ़ता ही गया। जब पानी जहाज़ पर आने लगा और मक्खन शाह झटका खाकर घुटनों पर गिर पड़े तो उन्हें गुरु नानक की याद आई। उन्होंने हाथ जोड़कर अरदास की कि बाबा नानक उनकी और उनके नाविकों की, जहाज़ की, माल-असबाब की रक्षा करें। गुरु नानक के दर पर तो लंगर और समाज की सेवा के अनेक कार्य होते हैं। सकुशल लौटने पर गुरु नानक की गद्दी पर बैठे गुरु के चरणों में नेक कार्य के लिए ५०० स्वर्ण मुद्राएँ (दीनार) भेंट करेंगे। कुछ देर में तूफ़ान शांत हो गया और मक्खन शाह अपने काफ़िले के साथ सुरक्षित घर पहुँच गए। उन्हें अपना वादा याद था। सिक्खों से पता चला कि नवें गुरु बाबा बकाला में मिलेंगे। वे अपने घुड़सवार काफ़िले के साथ बाबा बकाला पहुँचे। वहाँ २२ नकली गुरुओं को देख कर वह असमंजस में पड़ गए। लेकिन मक्खन शाह बहुत चतुर और अनुभवी व्यापारी थे। वे हर नकली गुरु के सामने जाकर २ स्वर्ण मुद्राएँ भेंट करते गए। हर नकली गुरु ने उन्हें आशीर्वाद दिया और कहा कि उनकी सब मनोकामनाएँ पूरी होंगी। वे बड़े निराश हो गए। गुरु नानक के सच्चे उत्तराधिकारी को कैसे खोजें? जब सच्चे गुरु को खोजने के बारे में लोगों से चर्चा की तो एक बुज़ुर्ग सिख ने उनसे कहा, वहाँ उस घर में एक तपस्वी भी बैठे हैं, गुरु पद का कोई दावा नहीं करते। इतना प्रयास किया है तो उनके भी दर्शन कर प्रयास कर लो। मक्खन शाह ने गुरु तेग़ बहादुर जी के सामने मत्था टेका, गुरु जी ने आहट सुन आँखें खोलीं, मक्खन शाह ने दो स्वर्ण मुद्राएँ भेंट कीं। गुरु जी ने मुस्कुराकर कहा, गुरु को सिख से कुछ नहीं चाहिए लेकिन सिख को अपने वादे का पक्का होना चाहिए। वादा ५०० मोहरों का और भेंट में २ मोहरें? मक्खन शाह की बाँछें खिल उठीं। वे दीवानों की तरह दौड़ कर छत पर चढ़ गए और सारे शहर को ऊँची आवाज़ में कहा, "गुरु लाधो रे! गुरु लाधो रे! (गुरु मिल गया। गुरु मिल गया।" मक्खन शाह की मातृभाषा लबंकी थी जो पंजाब और राजस्थान में लबाना कबीले द्वारा बोली जाती थी।


पश्चिमी इतिहासकार जो आध्यात्मिक शक्तियों को नहीं मानते, उनके द्वारा इस घटना का विवरण यह है कि मक्खन शाह ने अपने अनुभव और चतुराई से बातचीत कर यह समझ लिया कि २२ गुरु नकली हैं और उन्हें आध्यात्मिक ज्ञान नहीं है। गुरु तेग़ बहादुर जी से वैचारिक आदान-प्रदान होने पर सिख समझ गया कि वही सच्चे गुरु हैं। पाठक अपने-अपने विवेक और श्रद्धा के आधार पर इस घटना का आकलन कर सकते हैं। इस बात पर सभी इतिहासकार सहमत हैं कि मक्खन शाह एक बड़े काफ़िले के साथ बाबा बकाला आए थे और उन्होंने गुरु तेग़ बहादुर जी को पहचान कर उनके सच्चे गुरु होने की घोषणा की थी। पाठक ध्यान दें कि इस घटना का सिख इतिहास पर गहरा प्रभाव पड़ा। यही कारण था कि गुरु गोबिंद सिंह जी ने आदेश दिया कि उनके बाद श्री गुरु ग्रंथ साहब को ही एकमात्र गुरु माना जाए। उसके बाद खालसा पंथ किसी देहधारी को गुरु के रूप में स्वीकार नहीं करता। यदि कोई व्यक्ति सिख गुरु होने का दावा करता है तो सिख समुदाय उसे लोभी और पाखंडी मानता है और उसका पुरज़ोर विरोध करता है।


गुरु तेग़ बहादुर जी की जगत-प्रसिद्ध वैराग्यमयी रचना है, सलोक महला ९। इसमें ५७ श्लोक हैं जो मानव मन को सचेत करते हैं कि इस संसार की प्रकृति ही अस्थाई है, मनुष्य व्यर्थ ही सुख-दुख की माया में उलझा रहता है, केवल प्रभु का नाम सुनिश्चित है और उसे आधार बनाने वाला सभी बंधनों से मुक्त हो परम आनंद का अनुभव करता है। यह रचना गुरु ग्रंथ साहब के अंग १४२६ से १४२९ पर प्रकाशित है। कुछ श्लोक यहाँ प्रस्तुत हैं,


धनु दारा संपति सगल जिनि अपुनि करि मानि॥

इन मै कछु संगी नहीं नानक साची जानि॥५॥

भै काहू कउ देत नहि नहि भै मानत आन॥

कहु नानक सुनि रे मना गिआनी ताहि बखानि॥१६॥

जैसे जल ते बुदबुदा उपजै बिनसै नीत॥

जग रचना तैसे रची कहु नानक सुन मीत॥२५॥

जउ सुख कउ चाहै सदा शरनि राम की लेह॥

कहु नानक सुनि रे मना दुरलभ मानुख देह॥२७॥

जो प्रानी निसि दिनु भजै रूप राम तिह जानु॥ 

हरि जन हरि अंतरु नही नानक साची मानु॥२९॥

बाल जुआनी अरु बिरधि फुनि तीनि अवसथा जानि॥

कहु नानक हरि भजन बिनु बिरथा सभ ही मानु॥३५॥ 

सुआमी को गृहु जिउ सदा सुआन तजत नही नित॥

नानक इह बिधि हरि भजउ इक मन हुइ इकि चिति॥४५॥

तीरथ बरतु अरु दान करि मन मै धरै गुमानु॥

नानक निहफल जात तिह जिउ कुंचर इसनानु॥४६॥

जो उपजिओ सो बिनसि है परौ आजु कै कालि॥

नानक हरि गुन गाइ ले छाडि सगल जंजाल॥५२॥ 


१६७५ में पंडित कृपाराम के नेतृत्व में कश्मीरी पंडितों का जत्था गुरु तेग़ बहदुर जी की शरण में उपस्थित हुआ और उनसे प्रार्थना की कि औरंगज़ेब के आदेश पर इफ़्तिखार खान द्वारा ज़बरन धर्म परिवर्तन से उन्हें बचाएँ। इफ़्तिखार खान का सीधा आदेश था कि या तो इस्लाम स्वीकार करो या मृत्यु। गुरु गहन सोच में डूब गए, फिर बोले, इस कार्य के लिए किसी संत, आध्यात्मिक पुरुष को अपनी बलिदानी देनी होगी। ९ वर्षीय गोबिंद बोले, "आपसे बेहतर बलिदानी कौन हो सकता है?" पिता ने पुत्र को गले लगाया, गुरु घोषित किया और अपने चुनिंदा शिष्यों के साथ चल दिए दिल्ली औरंगज़ेब से मिलने।


२४ नवंबर १६७५ को इस महान संत ने सत्य और धर्म की रक्षा के लिए चांदनी चौक में शहादत दी। इस ऐतिहासिक घटना की स्मृति में उसी स्थान पर प्रसिद्ध शीशगंज साहब गुरुद्वारा है।


गुरु गोबिंद सिंह जी ने इस शहादत पर कहा है,

ठीकरि फोरि दिलीस सिरि प्रभ पुर कीया पयान॥

तेग बहादर सी कृआ करी न किन हूं आन॥१५॥

तेग बहादर के चलत भयो जगत को शोक

है है है सब जग भयो जै जै जै सुर लोक॥१६॥

(बचित्तर नाटक, अंग ५४) 


उपरोक्त पंक्तियों के भावार्थ में कुछ सिख विद्वानों ने बड़ी सुंदर बात कही है,

'है है है' का अर्थ यहाँ हाहाकार नहीं लेना चाहिए। कवि ने कहा है कि जगत में यह प्रश्न खड़ा हो गया था कि क्या कोई इस संसार में है जो औरंगज़ेब की नृशंस शक्ति, न रोके जा सकने वाले अत्याचार के सामने स्वाभिमान से खड़ा हो सके? कह सके, औरंगज़ेब मैं तेरी तलवार से नहीं डरता। मैं सत्य और धर्म की रक्षा में इस शरीर के नष्ट होने से भयभीत नहीं हूँ और तेरी सारी शक्ति सत्य के सामने पराजित है। जब गुरु तेग़ बहादुर ने निर्भीक होकर औरंगज़ेब का सामना किया तो सारा जगत बोल उठा, 

है, है, है, ऐसा मानव है इस धरती पर!


तेग बहादर के चलत भयो जगत को शोक।।

है है है सब जग भयो जै जै जै सुर लोक।।


गुरु तेग़ बहादुर जी : जीवन परिचय

जन्म 

२१ अप्रेल १६२१, अमृतसर, पंजाब

निधन

२४ नवंबर १६७५

माता

माता नानकी जी

पिता

गुरु हरगोबिंद जी

पत्नी

माता गूजरी जी

पुत्र

गुरु गोबिंद सिंह जी

साहित्यिक रचनाएँ

  • श्री गुरु ग्रंथ साहब में प्रकाशित १५ रागों में ५९ शबद और ५७ श्लोक

 

संदर्भ

  • श्री गुरु ग्रंथ साहब 

  • श्री दशम ग्रंथ साहब

  • फ़ाउंडर ऑफ़ द खालसा, द लाइफ़ एंड टाइम्स ऑफ़ गुरु गोबिंद सिंह - अमनदीप एस० दहिया, हेज़ हाऊस पब्लिशर्स (२०१४)

  • विकिपीडिया

 

लेखक परिचय

हरप्रीत सिंह पुरी


जिस गुरु को अपना सब कुछ अर्पित करने पर भी उसके उपकारों से उऋण नहीं हुआ जा सकता, उसका सिख होने के अतिरिक्त लेखक का क्या परिचय हो सकता है भला!

Saturday, October 29, 2022

राजेंद्र यादव : मैं ज़िंदगी से नहीं, ज़िंदगी में भागता हूँ

अक्षर अर्थ वहन करने का एक प्रतीक है, माध्यम है 
अक्षर-अक्षर का ढेर, टाइप-केस में भरा सीसा मात्र है 
शब्द बनाता है - अक्षर-अक्षर का संबंध 
वही देता है उसे गौरव, गरिमा और गांभीर्य 
क्योंकि शब्द ब्रह्म है 
हम सब अक्षर हैं 
और सभी मिलकर एक सामाजिक सत्य को अभिव्यक्ति देते हैं 
सत्य जड़ नहीं, चेतन है 
सामाजिक सत्य एक गतिमान नदी है 
वह अपनी बाढ़ में कभी हमें बहा देती है, बिखरा देती है 
कभी नदी बह जाती है 
तो घोंघे की तरह हम किनारों से लगे झूलते रहते हैं 
इधर-उधर हाथ-पाँव मारते हैं 
लेकिन फिर मिलते हैं 
शब्द बनते हैं- वाक्य बनते हैं 
और फिर नए सामाजिक सूत्र को वाणी देते हैं 
क्योंकि मरते हम नहीं हैं 
हम अक्षर जो हैं 
शब्द बनकर सत्य को समोना हमारी सार्थकता है 
वाक्य बनना हमारी सफलता 
हमें पढ़ो, 
हमारा एक व्याकरण है।
(आवाज तेरी है) वर्ष १९६०


स्वातंत्र्योत्तर, बेलौस, बेबाक व बिंदास किस्म के राजेंद्र यादव का जन्म २८ अगस्त १९२९ को उत्तर प्रदेश, आगरा जिले के राजामंडी मोहल्ले में हुआ था। पिता श्री मिस्त्री लाल यादव जी डाक्टर तथा माता श्रीमती ताराबाई जी जो की दस संतानों में राजेंद्र सबसे बड़े थे। इनके जीवन का अधिकांश समय आगरा के राजामंडी वाले घर में ही व्यतीत हुआ। बहुत ही मस्तमौला व बेलौस स्वभाव के राजेंद्र सूसीर में प्राथमिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद मवाना भेज चले गए। मेरठ में अपने चाचा के यहाँ रहते हुए अपनी शिक्षा पूर्ण की। वहाँ उनकी शिक्षा अच्छे से चल रही थी कि अचानक ९-१० वर्ष की आयु में हॉकी खेलते हुए उनकी एक टाँग टूट ग‌ई और वे विकलांग हो गए। इस विकलांगता ने उन्हें जीवन के प्रति एक नए दृष्टिकोण से परिचित कराया। इसमें कोई संदेह नहीं कि इस विकलांगता के कारण उनकी शारीरिक गतिविधियाँ अवश्य प्रभावित हुईं, परंतु इस कमी को उन्होंने अपनी बौद्धिक व मानसिक गतिविधियाँ बढा़कर पूरा किया।


बाल्यावस्था के साथ किशोरावस्था भी किसी व्यक्ति के व्यक्तित्त्व निर्माण में अपना असाधारण सहयोग रखती है। राजेंद्र यादव के जीवन में भी इसका बहुत महत्त्व रहा। उन्होंने लिखा है, "कलाकार अपने किशोर काल में अपने यथार्थ से असंपृक्त नहीं हो पाता, वह या तो उसमें रस लेता है या उसे जस्टिफाई करता है, और ज़िंदगी भर कला के नाम पर आत्मकथा के टुकड़े देता रहता है।"


राजेंद्र यादव अपने व्यक्तित्त्व के बारे में चुप्पी साध लेते हैं। उनका कहना है कि एक साहित्यकार की झलक तो उसके कृतित्त्व से ही मिल जाती है। प्रेमचंद की परंपरा को निरंतर गतिमान रहना होगा, इसलिए इस प्रक्रिया को निरंतर जारी रखने के लिए नई युवा-पीढ़ी के साहित्यकारों को स्पेस देकर आगे बढा़ना होगा। कभी-कभी कुछ पीढ़ियाँ अगलों के लिए खाद बनतीं हैं। वे अपनी पुस्तक 'कहानी: स्वरूप और संवेदना' में लिखते हैं, "बीसवीं सदी के 'उत्पादन' हम सब 'खूबसूरत पैकिंग' में शायद वही खाद हैं। यह हताशा नहीं अपने 'सही उपयोग' का विश्वास है, भविष्य की फसल के लिए बुद्ध के अनुसार ये वे नावें हैं, जिनके सहारे मैंने ज़िंदगी की कुछ नदियाँ पार की हैं और सिर पर लादे फिरने के बजाय उन्हें वहीं छोड़ दिया है।"


पिता की रुचि उर्दू में होने के कारण राजेंद्र की प्रारंभिक शिक्षा उर्दू में ही हुई। प्रेमचंद के समान ही राजेंद्र यादव पहले उर्दू में पढ़े बाद में हिंदी भाषा अपनाई। उनकी मैट्रिक तक की शिक्षा झाँसी में अपने पिता के साथ हुई। अपनी कक्षा में वे एक बुद्धिमान छात्र माने जाते थे। छोटी उम्र से ही खूब पढ़ना उनका शौक था। कम उम्र में ही उन्होंने देवकीनंदन खत्री के तिलिस्मी उपन्यासों 'चंद्रकांता' और 'चंद्रकांता संतति' आदि को पढ़ डाला। इसके अतिरिक्त दुनिया के सबसे बड़े उपन्यास 'दास्तान-ए-अमीर हम्जा' का भी अध्ययन किया।


संयुक्त परिवार में जन्मे राजेंद्र यादव ऐसे परिवार की खूबियों व कमियों तथा वहाँ घटित त्रासदियों के बारे में बखूबी जानते थे। संयुक्त परिवार की त्रासदी को अपने प्रथम उपन्यास 'प्रेत बोलते हैं' में, जो बाद में 'सारा आकाश' के नाम से प्रसिद्ध हुआ, उन्होंने बखूबी रेखांकित किया है। राजेंद्र यादव के बचपन का काल (ब्रिटिश) गुलामी के विरुद्ध आज़ादी की लड़ाई का था। प्रसिद्ध कवि दिनकर जी की इन पंक्तियों ने उनके किशोर-मन पर गहरी छाप छोड़ी,

 सेनानी! करो प्रयाण अभय,

भावी इतिहास तुम्हारा है;

ये नखत अमा के बुझते हैं,

सारा आकाश तुम्हारा है।


राजेंद्र यादव की मैट्रिक के बाद की पढ़ाई आगरा में हुई। यहीं रहकर उन्होंने हिंदी विषय से बी० ए० तथा वर्ष १९५१ में हिंदी विषय लेकर ही आगरा विश्वविद्यालय से एम० ए० की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। एम०ए० की उपाधि के द्वारा राजेंद्र यादव किसी भी नौकरी को हासिल कर सकते थे, परंतु नौकरी न करने का संकल्प उन पर हावी रहा। अपनी संवेदनाओं को सीमित न रखने की चाह तथा आत्मसम्मान को बनाए रखने की तीव्र इच्छा-शक्ति ने उन्हें नौकरी से दूर बनाए रखा था और इस प्रकार एक मूर्धन्य साहित्यकार का हिंदी साहित्य जगत में पदार्पण हुआ।


आगरा की बहुत सीमित दुनिया और कुछ करने व बनने की ललक की वजह से राजेंद्र यादव आगरा से कलकत्ता पहुँच गए। घर से पैसे न लेना और नौकरी न करने की ज़िद्द के कारण राजेंद्र यादव कलकत्ता आकर आर्थिक कठिनाइयों में फँस गए। इन कठिनाइयों को हल करने के लिए उन्होंने ट्यूशन देने का कार्य आरंभ किया, जिसे बाद में तिलांजलि दे दी। कलकत्ता की नेशनल लाईब्रेरी में राजेंद्र यादव प्रतिदिन जाकर पढ़ते रहे। रोजी-रोटी की भीषण समस्या से जूझते हुए उन्होंने कलकत्ता से प्रकाशित 'ज्ञानोदय' पत्रिका में सहायक संपादक का कार्यभार संभाला; परंतु कुछ ही दिनों बाद त्यागपत्र दे दिया। इसके पश्चात कुछ एक माह के लिए जियोलॉजिकल सर्वे आफ इंडिया, कलकत्ता में अध्यापन का भी कार्य किया।


इसी समय राजेंद्र यादव का परिचय प्रसिद्ध लेखिका मन्नू भंडारी से तब हुआ, जब वे कलकत्ता के बालीगंज शिक्षा सदन में पुस्तकालय के लिए पुस्तकों की सूची तैयार कर रही थीं। लेखक होने के नाते दोनों एक-दूसरे से परिचित थे ही, परंतु अब प्रत्यक्ष परिचय भी हो गया। मन्नू भंडारी कलकत्ता के एक स्कूल में अध्यापक थीं तथा लेखन में भी रुचि रखतीं थीं। २२ नवंबर १९५९ को मन्नू भंडारी के घरवालों की इच्छा के विरुद्ध दोनों ने अंतर्जातीय विवाह किया। मन्नू भंडारी के साथ विवाह राजेंद्र यादव के लिए बहुत ही लाभदायक सिद्ध हुआ। विवाह के पश्चात उन्हें मन्नू के रूप में मानसिक, आर्थिक व साहित्यिक साथी मिल गया। १७ जून १९६१ को उनकी बेटी रचना का जन्म हुआ। राजेंद्र यादव और मन्नू भंडारी की अभिरुचियाँ अलग-अलग थीं। राजेंद्र यादव अपने वैवाहिक जीवन के बारे में कहते हैं, "हमारी रुचियाँ, आदतें, स्वभाव, रहन-सहन, मनोरंजन सभी कुछ प्रायः एक-दूसरे के विरोधी हैं, लेकिन उन्हें लेकर आज तक शायद ही कभी हम लोगों में मतभेद हुआ हो।" शादी के बाद मन्नू भंडारी ने महसूस किया कि राजेंद्र यादव गृहस्थी में उतनी रुचि न रखकर साहित्य-लेखन में अधिक रुचि रखते हैं। इसी कारण उन्होंने राजेंद्र यादव पर आरोप लगाते हुए कहा कि वे ज़िंदगी से भागते हैं। इस पर राजेंद्र यादव का कथन है, "मैं ज़िंदगी से नहीं, ज़िंदगी में भागता हूँ।"


राजेंद्र यादव के साहित्यिक जीवन का आरंभ किशोरावस्था में ही हुआ। किशोरावस्था में भिक्खी चाटवाले से उन्होंने अनेक कहानियाँ सुनी थीं और पिताजी से 'चंद्रकांता संतति' उपन्यास के किस्से सुने थे। कथा-कहानियों के संस्कारों का प्रभाव उन पर बचपन में ही पड़ा। इसी प्रभाव के फलस्वरूप बचपन में ही उन्होंने तीन सामाजिक उपन्यास लिखे- किशोर भावुकता के उपन्यास। राजेंद्र यादव के उपन्यास लेखन का यह अभ्यास था। इसी प्रकार आरंभ में उन्होंने ब्रजभाषा में कविताएँ भी लिखीं; किंतु उन्हें वे अपनी प्रवृत्ति के अनुकूल नहीं लगी। अपने अनुभवों को अभिव्यक्ति देने में कविता का क्षेत्र उन्हें सीमित लगा। बचपन से ही उपन्यास विधा उनकी प्रिय विधा हो गई। कहानियों की ओर उन्होंने बहुत बाद में रुख किया। 'प्रतिहिंसा' उनकी पहली कहानी है। यह कहानी प्रयाग से प्रकाशित होने वाली 'कर्मयोगी' पत्रिका में मई १९४७ में प्रकाशित हुई थी। एक ओर एम०ए० की पढ़ाई जारी थी, तो दूसरी ओर 'प्रेत बोलते हैं' उपन्यास का लेखन भी जारी था। यही उपन्यास आगे 'सारा आकाश' नाम से प्रकाशित हुआ जिस पर बासु चटर्जी ने सन १९७२ में फिल्म बनाई। बाद में हंस, गुलदस्ता, अप्सरा आदि पत्र-पत्रिकाओं में छपने का सिलसिला शुरू हुआ। सन १९५० से पहले एक कहानी संग्रह 'रेखाएँ, लहरें और परछाइयाँ' भी छप गया था। 'देवताओं की मूर्तियाँ' बीकानेर से छपा था जो उनका दूसरा कहानी संग्रह था। उस समय जोश भरे वातावरण में उन्होंने खूब लिखा। उन्हीं के शब्दों में, "उस समय का खौलता हुआ वातावरण आज भी याद करने की चीज है जब हर दिन कुछ न कुछ लिखने की स्फूर्ति लगातार मन में बनी रहती थी। 'विभाजन' और 'यह आजादी झूठी है' का उर्दू वाला दौर भी हिंदी को प्रभावित कर रहा था। इलाहाबाद, बनारस, आगरा, लखनऊ, बंबई, दिल्ली सभी उद्वलेनों के केंद्र थे।... सारी रात लालटेन के पास चिपका मैं कहानी लिखता रहता था।"


एम०ए० की छमाही परीक्षा के दिन थे। चार-छह दिनों के बाद भाषा विज्ञान जैसे कठिन विषय का पेपर था और राजेंद्र यादव लालटेन की रोशनी में रात भर 'खेल खिलौने' कहानी खिलने में जुटे हुए थे। राजेंद्र यादव का साहित्य-क्षेत्र में पर्दापण इनके कहानी संग्रह 'खेल खिलौने' से ही हुआ। 'खेल-खिलौने' कहानी संग्रह के प्रकाशन के साथ ही राजेंद्र यादव का लेखक मुखरित हो उठा। जहाँ तक राजेंद्र यादव के साहित्यिक अवदान पर हम रौशनी डालते हैं, वहीं उनके तीन रूप सामने आते हैं- पहला, उपन्यासकार के रूप में, दूसरा, एक कथाकार के रूप में और तीसरा, एक प्रकाशक व कुशल संपादक-बेबाक विचारक के रूप में।


जब राजेंद्र यादव जीवन में ढलान की ओर बढ़ रहे थे, देश में हर जनतांत्रिक निकाय का क्षरण होता जा रहा था और तत्त्ववादी ताकतें धार्मिक मिथकों को राजनीति में प्रयुक्त कर हमारे बहुलतावादी सांस्कृतिक ढांचे को कमजोर कर लोकतंत्र व संविधान को कमजोर कर रही थीं, उस भीषण समय में हमने इस बौद्धिक योद्धा को अनवरत चौतरफ़ा संघर्ष करते हुए देखा। लेखक के रूप में राजेंद्र यादव की पहली छवि नई कहानी आंदोलन के सूत्रधार की है। नई कहानी आंदोलन का वैचारिक आलोड़न इतना विस्तृत था कि उसमें कहानी की संरचना, भाषा, शैली, चरित्र, परंपरा यानी कोई पक्ष विमर्श के दायरे में आने से छूटा नहीं था। कहा जाता है कि कमलेश्वर, मोहन राकेश और राजेंद्र यादव की इस त्रयी में राजेंद्र यादव वैचारिक रूप से अग्रणी थे। एक साक्षात्कार में उन्होंने बताया कि उस समय दो वैचारिक धाराएँ कथा के क्षेत्र में सक्रिय थीं। एक, कलावादी- परिमल वादियों की धारा थी जो लेखन में व्यक्ति को केंद्र में रखकर चलती थी। दूसरी प्रगतिशील धारा थी, जिसके लिए लेखन में समाज ज्यादा महत्त्वपूर्ण था। नई कहानी ने व्यक्ति और समाज दोनों को साथ लेकर चलने के सिद्धांत का प्रतिपादन किया। हालांकि इसका रुझान मार्क्सवाद की ओर था।


भारत में मध्यम वर्ग का उभार आजादी के बाद तीव्र हो गया था। यह वर्ग आर्थिक गतिशीलता के साथ ही बहुस्तरीय सामाजिक संक्रमण से गुजर रहा था। इसके चलते मध्यवर्ग में एक द्वैत की मानसिकता विकसित हो रही थी, जिसमें एक ओर वह पारंपरिक जड़-मूल्यों से चिपका हुआ था, तो दूसरी ओर बाह्य तौर पर अपने को आधुनिक दिखाने की कोशिश करता था। राजेंद्र यादव का कथा-साहित्य मध्यम वर्गीय व्यक्ति और समाज के क्रमशः चरित्र और अंतर्विरोधों का निर्मम उद्घाटन करता है। उनके स्त्रियों के संदर्भ सांस्कृतिक रूढ़ियों और पिछड़ी मानसिकता को सबसे साफ प्रतिबिंबित करते हैं। उनके लेखन में स्त्रियों को इन प्रवृत्तियों से पीड़ित दिखाया गया है। साथ ही, रचनाकार की पक्षधरता सदैव स्त्रियों के साथ रही है, जिसे हम उनकी कहानियों और उपन्यासों जैसे- 'सारा आकाश', 'एक कमजोर लड़की', 'जहाँ लक्ष्मी कैद है' आदि  में स्पष्ट देख सकते हैं। उनकी 'संबंध' कहानी का यह अंश दृष्टव्य है, "देखो, यह लाश गलती से आ गई है। नंबर गड़बड़ हो गया था। तुम्हारे बेटे की लाश दूसरी है। यह तो भट्टी में जलने का केस था--- डाक्टर ने निहायत ही मशीनी ढंग से कहा और दरवाजा छोड़कर भीतर हटा ही था कि नीले गंदे-से नेकर-कमीज़ पहने दो आदमी आगे-पीछे एक नई स्ट्रेचर उठा लाए---।" राजेंद्र यादव की यह कारुणिक कहानी समाज के निहायत असंवेदनशील और यांत्रिक बनने की कथा है। अपनी एक और कहानी 'कला, अहम और विसर्जन' में वह कहते हैं, "ठीक है, तुम पहले कला का अर्थ समझो। कला का अर्थ है सुंदर ढंग। अपनी भावनाओं को तुम सुंदर ढंग से किसी भी प्रकार से रखो, सब कला है- इस दृष्टि से फोटोग्राफी कला है ही नहीं; क्योंकि कला शब्द की व्याख्या करते हुए किसी ने कहा है- प्रकृति या यथार्थ में जो कुछ भी मनुष्य अपनी ओर से जोड़ता है, कला है।" राजेंद्र यादव ने सैकड़ों कहानियाँ लिखी हैं। उनका कथा-फलक इतना विस्तृत है कि इस आलेख में समेटना संभव नहीं है। फिर भी उनकी कुछ कहानियाँ हिंदी साहित्य में उच्च स्थान रखती हैं। राजेंद्र यादव ने अपने उपन्यासों द्वारा विभिन्न वर्गों, उनकी समस्याओं, मनोगत एवं सामाजिक दशाओं का बहुत ही यथार्थ चित्रण किया है। इनमें स्त्री के स्वाभिमान, उसकी आत्मनिर्भरता, स्वतंत्र सोच, उसके खुद निर्णय लेने की क्षमता का बेबाक चित्रण किया है।


राजेंद्र यादव का सबसे बड़ा अवदान मुंशी प्रेमचंद द्वारा संचालित व स्थापित 'हंस' पत्रिका का पुनर्प्रकाशन तथा अक्षर प्रकाशन की स्थापना है। इस पत्रिका का प्रकाशन राजेंद्र यादव ने प्रेमचंद जयंती के दिन ३१ जुलाई १९८६ को प्रारंभ किया। इसके प्रकाशन और संपादक का दायित्त्व उन्होंने अपने अंतिम समय तक निभाया और इस पत्रिका ने समकालीन हिंदी साहित्य में एक नया इतिहास निर्मित किया। आज भी 'हंस' उसी सज-धज और तेवर के साथ प्रकाशित हो रही है। उनकी बेटी रचना यादव इसकी प्रबंध संपादक तथा कथाकार संजय सहाय इसके संपादक हैं। हंस ने जहाँ एक ओर नए रचनाकारों की एक लंबी कतार को जन्म दिया, वहीं दूसरी ओर समाज के विभिन्न तबकों, सामयिक, धार्मिक, राजनीतिक व आर्थिक मुद्दों पर सार्थक बहस आयोजित कर समाज को एक नई प्रगतिशील व जनवादी वैचारिकी से अवगत कराया। अनेक विवादास्पद मुद्दों पर तमाम विरोधों के बावजूद बेबाक राय रखी और एक ठोस और बुनियादी बहस को जारी रखा कि किस तरह इस समाज को अवैज्ञानिकता, अंधविश्वास, सांप्रदायिकता, अपसंस्कृति, धार्मिक कट्टरता, आर्थिक व सामाजिक शोषण से बचाया जा सके। हंस के संग्रहणीय विशेषांक जो समाज के अलग-अलग वर्गों, जातियों, अल्पसंख्यकों आदि पर प्रकाशित किए गए; साहित्यकारों, जागरुक पाठकों के लिए अमूल्य निधि हैं।


साहित्य के इस महान स्तंभ ने २८ अक्टूबर २०१३ को ८४ वर्ष की आयु में दिल्ली में अंतिम साँस ली। इदन्नमम, चाक, अल्मा कबूतरी, कहे ईश्वरी फाग, माया मृग आदि उपन्यासों की लेखिका, प्रसिद्ध कथाकार मैत्रेयी पुष्पा का यह कथन राजेंद्र यादव के महिला कहानीकारों के संबंध में उठे विवादों का सही उत्तर है, "मैंने बहुत ही दुखी मन से राजेंद्र जी से पूछा कि आपको बताना पड़ेगा, मेरा आपसे क्या रिश्ता है? राजेंद्र यादव ने कहा- मैत्रेयी! मेरा तुमसे वही रिश्ता है जो महाभारत के कृष्ण का द्रौपदी के साथ रहा है।" ऐसा ही रिश्ता हंस व राजेंद्र यादव से जुड़ी हर महिला रचनाकार से रहा। जो इस तरह के हर विवादों का अंत कर देता है। आज के समय में राजेंद्र यादव जैसे बेबाक साहित्यकार का होना बहुत ही जरूरी हो जाता है।


राजेंद्र यादव : जीवन परिचय

जन्म

२८ अगस्त १९२९, आगरा (उत्तर प्रदेश) 

निधन

२८ अक्टूबर २०१३, दिल्ली

पिता

डॉ० मिस्त्रीलाल यादव

माता

श्रीमती ताराबाई यादव

पत्नी

मन्नू भंडारी

बेटी

रचना यादव

शिक्षा एवं कार्य-क्षेत्र

प्राथमिक

सूसीर 

मैट्रिक

झाँसी, उत्तर प्रदेश

स्नातक (हिंदी)

आगरा (उत्तर प्रदेश)

स्नातकोत्तर (हिंदी)

आगरा विश्वविद्यालय, आगरा (उत्तर प्रदेश)

कार्यक्षेत्र

लेखन, प्रकाशन, संपादक

ट्रस्ट

हंसाक्षर

साहित्यिक रचनाएँ

उपन्यास

  • प्रेत बोलते हैं (सारा आकाश)

  • उखड़े हुए लोग

  • कुलटा

  • शह और मात

  • अनदेखे अनजाने पुल

  • मंत्रविद्ध

  • एक इंच मुस्कान

कहानी- संग्रह

  • रेखाएँ, लहरें और परछाइयाँ

  • देवताओं की मूर्तियाँ

  • खेल-खिलौने

  • जहाँ लक्ष्मी कैद है

  • छोटे-छोटे ताजमहल

  • टूटना 

  • किनारे से किनारे तक

  • अपने पार

  • मेरी प्रिय कहानियाँ

  • ढोल

  • घर की तलाश

  • पर नहीं मरती

कविता संकलन

  • आवाज तेरी है

समीक्षा

  • कहानी : स्वरूप और संवेदना

  • उपन्यास : स्वरूप और संवेदना

  • १८ उपन्यास

व्यक्ति-चित्र

  • औरों के बहाने

  • मुड मुड़कर देखता हूँ

अनुवाद।

  • अजनबी- अल्बर्ट कामू

  • हमारे युग का एक नायक- लेर्मेन्तोव

  • एक महुआ : एक मोती- स्टाइन बैक

  • वसंत प्लावन- इवान तुर्गनेव

  • प्रथम प्रेम- इवान तुर्गनेव

  • टक्कर- एंतोन चेखव

नाटक

  • हंसनी- एंतोन चेखव

  • चेरी का बगीचा- एंतोन चेखव 

  • तीन बहनें- एंतोन चेखव

संपादन और प्रकाशन

  • हंस मासिक (पत्रिका)

सम्मान व पुरस्कार

  • शलाका सम्मान २००३-०४


संदर्भ

  • औरों के बहाने

  • मुड़-मुड़ के देखता हूँ

  • राजेंद्र यादव की संकलित कहानियाँ

  • विकिपीडिया

लेखक परिचय

सुनील कुमार कटियार
जनवादी चिंतक
एम० ए० अर्थशास्त्र, उत्तर- प्रदेश सहकारी फेडरेशन से सेवानिवृत्त
स्थानीय पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित
जनवादी लेखक संघ, उत्तर-प्रदेश की राज्यपरिषद के सदस्य

मोबाइल- ७९०५२८२६४१, ९४५०९२३६१७
ई-मेल- Sunilkatiyar57@gmail.com

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कलेंडर जनवरी

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            1वह आदमी उतर गया हृदय में मनुष्य की तरह - विनोद कुमार शुक्ल
2अंतः जगत के शब्द-शिल्पी : जैनेंद्र कुमार 3हिंदी साहित्य के सूर्य - सूरदास 4“कल जिस राह चलेगा जग मैं उसका पहला प्रात हूँ” - गोपालदास नीरज 5काशीनाथ सिंह : काशी का अस्सी या अस्सी का काशी 6पौराणिकता के आधुनिक चितेरे : नरेंद्र कोहली 7समाज की विडंबनाओं का साहित्यकार : उदय प्रकाश 8भारतीय कथा साहित्य का जगमगाता नक्षत्र : आशापूर्णा देवी
9ऐतिहासिक कथाओं के चितेरे लेखक - श्री वृंदावनलाल वर्मा 10आलोचना के लोचन – मधुरेश 11आधुनिक खड़ीबोली के प्रथम कवि और प्रवर्तक : पं० श्रीधर पाठक 12यथार्थवाद के अविस्मरणीय हस्ताक्षर : दूधनाथ सिंह 13बहुत नाम हैं, एक शमशेर भी है 14एक लहर, एक चट्टान, एक आंदोलन : महाश्वेता देवी 15सामाजिक सरोकारों का शायर - कैफ़ी आज़मी
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आचार्य नरेंद्रदेव : भारत में समाजवाद के पितामह

"समाजवाद का सवाल केवल रोटी का सवाल नहीं है। समाजवाद मानव स्वतंत्रता की कुंजी है। समाजवाद ही एक सुखी समाज में संपूर्ण स्वतंत्र मनुष्यत्व...