डॉक्टर हरदेव बाहरी का नाम अहिंदी भाषी हिंदी सेवियों की सूची में सदैव स्वर्णाक्षरों में अंकित रहेगा। उन्होंने एक शिक्षक, भाषा वैज्ञानिक, कोशकार, हिंदी के अनन्य सेवक, अध्ययनशील और अनुशासन प्रिय प्राध्यापक के रूप में विश्व पटल पर ख्याति अर्जित की है। आपका जन्म ०१ मार्च १९०७ ई० में तालागंज, अटक, पंजाब में हुआ था, जो अब पाकिस्तान में है।
डॉ० बाहरी ने बी० ए० (अँग्रेज़ी से आनर्स), एम० ए० (इतिहास) १९३१, पी० एच० डी० (लहँदी भाषा विज्ञान) १९४३ में पंजाब विश्वविद्यालय से की तथा डी० लिट० हिंदी शब्दार्थ विज्ञान १९४५ में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से किया। सर्वप्रथम आपने साप्ताहिक 'आर्य गजट' का संपादन किया, तदनंतर आप डीएवी कॉलेज रावलपिंडी में इतिहास विभाग के प्राध्यापक एवं अध्यक्ष रहे। १९३५-३९ में एचिसन चीफ्स कॉलेज, लाहौर में हिंदी-संस्कृत विभाग के अध्यक्ष के रूप में कार्य किया और १९४९ में इलाहाबाद विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग के प्रोफे़सर पद पर नियुक्त हुए और यहीं से अवकाश प्राप्त किया। अवकाश प्राप्त करने के बाद यूजीसी की Distinguished Teacher Scheme के अंतर्गत पाँच वर्ष तक हिंदी विभाग में अध्यापन करते रहे। उनके निर्देशन में अनेक शोधार्थियों ने डी० फिल० की उपाधि प्राप्त की। यहाँ उल्लेखनीय है कि जर्मनी के एक प्रसिद्ध शोधार्थी हेलमट रॉबर्ट नेस्पिटल ने उनके साथ हिंदी में उपयोग की जाने वाली क्रियाओं पर शोध कार्य किया। प्रो० बाहरी जी के कुशल मार्गदर्शन में अत्यधिक श्रम करके उन्होंने शोध-सामग्री का संकलन किया और 'हिंदी क्रिया-कोश' नामक शोध-ग्रंथ प्रस्तुत किया; जिसे बाद में लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद ने प्रकाशित किया। हिंदी के क्रिया संबंधी शोध-कार्यों में अब तक का यह सबसे महत्त्वपूर्ण और अद्भुत ग्रंथ है।
भारत में अध्ययन-अध्यापन तथा शोध के लिए उन्होंने व्यापक स्तर पर देश-विदेश की यात्राएँ कीं। दो बार यूरोप की यात्रा में गए। १९६७-६८ के बीच 'रूसी-हिंदी-शब्दकोश' संकलन के लिए सोवियत संघ में एक वर्ष का प्रवास किया। तत्पश्चात लगभग छह माह जर्मनी में रहकर 'हिंदी-जर्मन' और 'जर्मन-हिंदी' कोशों का संकलन भी किया। जब वे जर्मनी की यात्रा पर गए थे, उस समय मैं उनके साथ मिलकर 'सूर शब्द सागर' का कार्य कर रहा था। वे मुझे निर्देशित करके जर्मनी गए थे; किंतु कुछ माह बाद ही 'हिंदी-जर्मन' और 'जर्मन-हिंदी कोश' कार्य को अधूरा छोड़कर वापस आ गए और सहयोगियों को भारत में ही रहकर यह कार्य करने का आश्वासन दिया; कारण यह था कि डॉ० बाहरी पूरा दिन काम करने वाले व्यक्ति थे। उन्होंने मुझे बताया कि वहाँ मेरा बहुत समय ज़ाया हो रहा था, इसलिए वापस आ गया।
डॉ० बाहरी जी बहु-भाषाविद थे- संस्कृत, हिंदी, अँग्रेज़ी, रूसी, जर्मन, उर्दू-फ़ारसी आदि भाषाओं में पारंगत थे, इसीलिए उन्होंने भाषा-विज्ञान और कोश कार्य के क्षेत्र में अत्यधिक सफलता प्राप्त की और देश-विदेश में ख्याति अर्जित की।
डॉ० बाहरी का रचना संसार अति व्यापक है। उनके द्वारा लिखित एवं संपादित ग्रंथ इस प्रकार हैं- बृहद अंग्रेजी-हिंदी शब्द कोश, अँग्रेज़ी-हिंदी पारिभाषिक शब्द कोश, हिंदी काव्य शैलियों का विकास, प्राकृत और उसका साहित्य, उच्चतर हिंदी कोश, राजभाषा शब्दकोश, चुने हुए एकांकी नाटक, प्रशासनिक हिंदी कोश (हिंदी-अँग्रेज़ी), सूर शब्द सागर, प्रसाद साहित्य कोश, अवधी शब्द संपदा, भोजपुरी शब्द संपदा, आधुनिक कहानियाँ, भारत का भाषा सर्वेक्षण, सामान्य हिंदी, हिंदी शब्द-अर्थ-प्रयोग, हिंदी उद्भव विकास और रूप, हिंदी संक्षेपण, पल्लवन और पाठ-बोधन, संक्षिप्त हिंदी शब्दकोश, हिंदी साहित्य की रूपरेखा, शब्द सिद्धि, शिक्षार्थी हिंदी-अँग्रेज़ी शब्दकोश आदि आदि। इनके अतिरिक्त संस्कृति, साहित्य और मुख्य रूप से भाषा पर शताधिक निबंध और लेख लिखे।
विश्व के भाषा वैज्ञानिकों में आपका नाम अति उल्लेखनीय है। विशेषकर हिंदी भाषा विज्ञान में तो आप अद्वितीय हैं। आज भी 'हिंदी : उद्भव, विकास और रूप' तथा 'हिंदी शब्द अर्थ प्रयोग' जैसे ग्रंथ एम० ए० (हिंदी) तथा प्रशासनिक सेवाओं के परीक्षार्थियों के लिए आदर्श एवं उपयोगी ग्रंथ हैं। यद्यपि आपने अपने जीवन के उत्तरार्द्ध में कोश-कार्य को अपने जीवन का लक्ष्य बनाया और देशी-विदेशी भाषा में शब्दकोशों का वैज्ञानिक विधि से संपादन किया।
डॉ० हरदेव बाहरी जी की मातृभाषा पंजाबी थी; पर उन्होंने जीवन पर्यंत हिंदी की सेवा की। यहाँ हिंदी के संबंध में उनकी एक-दो बातों का उल्लेख कर देना चाहता हूँ। डॉ० बाहरी का विचार है कि लोग यह समझते हैं, "हिंदी देश भर की भौजी बनी है; जो आता है, मज़ाक कर जाता है, और यह समझकर यह दरिद्र है, हर कोई दो ठोकरें भी लगा देता है।" उनका जवाब देते हुए बाहरी जी कहते हैं, "हिंदी दरिद्र नहीं है। एक तो यह संस्कृत, पालि और प्राकृत की उत्तराधिकारिणी होने के नाते उन सबकी भाषागत उपलब्धियों से समृद्ध है; दूसरे इसमें नए-नए संस्कारों, विचारों और अभिव्यक्तियों को ग्रहण करने की क्षमता है; तीसरे इसमें शब्द-निर्माण की अद्भुत शक्ति है। ...हिंदी में सात लाख के लगभग शब्द हैं, जबकि अँग्रेज़ी में ढाई लाख से अधिक नहीं।"
हिंदी के संबंध में डॉ० बाहरी का यह मंतव्य तब भी विचारणीय है कि हिंदी का इतिहास मात्र एक हजार वर्ष पुराना नहीं है, "हिंदी का इतिहास वस्तुतः वैदिक काल से आरंभ होता है। उससे पहले इस आर्य भाषा का स्वरूप क्या था, यह सब कल्पना का विषय बन गया है। कोई लिखित प्रमाण नहीं मिलता। आर्य चाहे बाहर से आए हों अथवा यहीं सप्त-सिंधु प्रदेश के मूल निवासी हों। यह निश्चित और निर्विवाद सत्य है कि वर्तमान हिंदी प्रदेश में आने से पहले उनकी भाषा वही थी, जिसका साहित्यिक रूप 'ऋग्वेद' में प्राप्त होता है। एक तरह से यह कहना ठीक होगा कि वैदिक भाषा ही प्राचीनतम हिंदी है। इस भाषा के इतिहास का यह दुर्भाग्य है कि युग-युग में इसका नाम परिवर्तित होता रहा है, कभी वैदिक, कभी संस्कृत, कभी प्राकृत, कभी अपभ्रंश और अब हिंदी। तमिल, रूसी, चीनी, जर्मन सभी परिवर्तित हो गई हैं। लोगों ने उनके प्राचीन, मध्यकालीन और आधुनिक रूप-भेद तो बताए, किंतु उनका नाम नहीं बदला। भारत में प्रत्येक युग की भाषा का नया नाम रखा जाता है।"
डॉ० बाहरी का जीवन सिद्धांत था, "कर्म से सब कुछ प्राप्त किया जा सकता है।" वे अपने जीवन की चर्चा करते हुए कहते थे कि मैं इलाहाबाद में एक झोला लेकर आया था। मेरी सारी गृहस्थी उसी झोले में थी; किंतु कर्म करके, परिश्रम करके आज मैंने सब कुछ प्राप्त कर लिया है; बंगला, गाड़ी और यश भी। पहले मैं लिखता था और अपने पैसे से छपवाता था, फिर प्रकाशक कुछ लिए-दिए बिना ही छापने लगे, धीरे-धीरे कुछ पैसा मिलने लगा और अब प्रकाशक अग्रिम धनराशि दे जाते हैं- अमुक कोश के लिए, अमुक कोश के लिए।
हिंदी भाषी क्षेत्र के हिंदी प्राध्यापकों के प्रति क्षोभ व्यक्त करते हुए वे कहते थे कि आज का विश्वविद्यालय या महाविद्यालय का शिक्षक जिस दिन नौकरी प्राप्त कर लेता है, उसी दिन से साधक से सिद्ध हो जाता है; फिर उसको पढ़ने-लिखने की आवश्यकता नहीं रह जाती। हिंदी क्षेत्र की अकर्मण्यता अति व्यापक है। शोध कार्य के क्षेत्र में कुछ इने-गिने लोगों को छोड़कर किसी ने कोई प्रामाणिक कार्य नहीं किया है। फादर कामिल बुल्के का उदाहरण देते हुए वे कहते हैं कि एक हिंदी भाषी विदेशी व्यक्ति ने राम-काव्य के क्षेत्र में जो कार्य किया है, वैसा शोध कार्य अभी तक देखने को नहीं मिला है। ऐसा नहीं है कि हिंदी भाषा-भाषियों में प्रतिभा का अभाव है; अभाव है तो मेहनत का! परिश्रम का!! संकल्प का!!!
मैंने गुरुवर डॉ० हरदेव बाहरी जी के साथ निरंतर छः वर्षों तक प्रतिदिन चार घंटे कार्य किया है। 'सूर शब्द सागर' और 'अवधी शब्द संपदा' के संपादन में उनका पूर्ण सहयोग किया है। वे दिन के एक-एक क्षण का उपयोग करते थे। प्रातः से संध्या तक अध्ययन एवं लेखन में लगे रहते थे। बीच-बीच में नाश्ता करना और भोजन करना ही उनका विश्राम था। उनके जीवन का एक आश्चर्यजनक तथ्य यह भी है कि वे जीवन में कभी भी दिन में नहीं सोए। वे कहते थे, दिन में सोना कैसा होता है? मैं नहीं जानता। दिन में सोने का अर्थ है, अपने कर्म और प्राप्य को खोना।
गुरुदेव गोष्ठियों, संगोष्ठियों और चर्चाओं से भी बचते थे, जो निष्कर्षहीन होती हैं और जिनसे समय की बर्बादी होती है। वे उन मित्रों से भी घबराते थे, जो अनावश्यक रूप से मात्र गप-शप करने के लिए आते थे। समवयस्क और सहयोगी होने के नाते हुए उनका स्वागत-सत्कार तो करते थे; पर उनके चले जाने के बाद अपनी मित्रता पर पश्चाताप भी करते थे और अपने-आप को ही कोसते थे। वे समय के पाबंद और अनुशासन प्रिय प्रोफ़ेसर थे। उनकी कक्षा में दो-तीन मिनट विलंब से आने वाले विद्यार्थियों को प्रवेश नहीं मिलता था। डॉक्टर बाहरी के कक्षा में जाने के बाद कोई विद्यार्थी कक्षा से बाहर जाने की हिम्मत नहीं करता था।
भाषा-विज्ञान और कोश के क्षेत्र में द्वारा किए गए महत्वपूर्ण कार्य के लिए डॉ० बाहरी को पंजाब सरकार, बिहार सरकार और भारत सरकार के द्वारा पुरस्कार के रूप में प्रचुर धनराशि एवं सम्मान दिया गया है। विदेशों में भी उनका अत्यधिक सम्मान हुआ है। हिंदी साहित्य सम्मेलन ने उन्हें 'साहित्य वाचस्पति' की उपाधि से सम्मानित किया है। हिंदी साहित्य में उनके योगदान के लिए 'सुब्रह्मण्यम भारती पुरस्कार' भी प्राप्त हुआ है। उनकी अनेक पुस्तकें भी पुरस्कृत हुई हैं।
डॉ० बाहरी प्रख्यात प्राध्यापक, भाषा वैज्ञानिक, समालोचक और कोशकार तो थे ही, पर सच्चे अर्थों में एक कर्मठ कर्मयोगी थे। जीवन के अंतिम काल में उनकी एक आँख खराब हो गई, चिकित्सक ने उसे निकाल दिया और सलाह दी कि दूसरी आँख को बचाए रखने के लिए उससे अधिक श्रम न लिया जाए। अतः आप अब पढ़ने-लिखने का कार्य बंद कर दें; पर डॉ० बाहरी कहाँ मानने वाले थे? एक हाथ में आवर्धक लेंस और दूसरे हाथ में कलम। वे लिखते रहे, जीवन पर्यंत लिखते रहे। अंततः ३१ मार्च २००० को इस कर्म-योगी ने इस लोक को सदा के लिए अलविदा कहा; लेकिन करोड़ों-करोड़ के मानस-पटल में आज भी विराजमान हैं। सच्चे अर्थों में वे कलम के सिपाही थे। उस कर्म-योगी को शत-शत नमन!
डॉ० हरदेव बाहरी : जीवन परिचय |
जन्म | ०१ मार्च १९०७ ई० तालागंज, अटक, पंजाब (पाकिस्तान) |
निधन | ३१ मार्च २००० |
शिक्षा |
स्नातक | अँग्रेज़ी आनर्स |
स्नातकोत्तर | इतिहास १९३१ |
एम०ओ०एल० | संस्कृत |
पी०एच०डी० | लहँदी भाषा विज्ञान, पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ १९४३ |
डी० लिट० | हिंदी शब्दार्थ विज्ञान, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद १९४५ |
कार्यक्षेत्र |
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साहित्यिक रचनाएँ |
बृहत अँग्रेज़ी-हिंदी शब्दकोश अँग्रेज़ी-हिंदी पारिभाषिक शब्दकोश हिंदी काव्य शैलियों का विकास १९४७ प्राकृत और उसका साहित्य १९५२ उच्चतर हिंदी कोश- वाणी प्रकाशन राजभाषा शब्दकोश चुने हुए एकांकी नाटक प्रशासनिक हिंदी कोश (हिंदी-अँग्रेज़ी) सूर शब्द सागर प्रसाद साहित्य कोश १९५७ अवधी शब्द संपदा १९८२ भोजपुरी शब्द संपदा १९८१ आधुनिक कहानियाँ भारत का भाषा सर्वेक्षण सामान्य हिंदी हिंदी शब्द-अर्थ-प्रयोग हिंदी : उद्भव, विकास और रूप हिंदी संक्षेपण पल्लवन और पाठ बोधन संक्षिप्त हिंदी शब्दकोश हिंदी साहित्य की रूपरेखा १९५५ शब्द सिद्धि १९५८ हिंदी शब्दार्थ विज्ञान १९५९ शिक्षार्थी हिंदी-अँग्रेजी शब्दकोश १९८९ इनके अतिरिक्त संस्कृति साहित्य और मुख्य रूप से भाषा पर शताधिक निबंध और लेख लिखे।
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पुरस्कार व सम्मान |
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संदर्भ
हिंदी : उद्भव, विकास और रूप - डॉ० हरदेव बाहरी, किताब महल, इलाहाबाद १९६९।
हिंदी शब्दकोशों और संबंधित मामलों पर अमेरिकन ओरियंटल सोसाइटी का जर्नल (१९८३)।
लेखक परिचय
डॉ० राजकुमार सिंह
पूर्व विभागाध्यक्ष (हिंदी) एवं एसोसिएट प्रोफेसर, दुर्गा नारायण स्नातकोत्तर महाविद्यालय, फतेहगढ़ (उ०प्र०)।
संपर्क सूत्र -
तिर्वा कोठी, सिविल लाइन्स, फतेहगढ़ (उ०प्र०)
दूरभाष : 9452436646