Thursday, March 31, 2022

दिन में शयन माने कर्म व प्राप्य को खोना : डॉ० हरदेव बाहरी

 

डॉक्टर हरदेव बाहरी का नाम अहिंदी भाषी हिंदी सेवियों की सूची में सदैव स्वर्णाक्षरों में अंकित रहेगा। उन्होंने एक शिक्षक, भाषा वैज्ञानिक, कोशकार, हिंदी के अनन्य सेवक, अध्ययनशील और अनुशासन प्रिय प्राध्यापक के रूप में विश्व पटल पर ख्याति अर्जित की है। आपका जन्म ०१ मार्च १९०७ ई० में तालागंज, अटक, पंजाब में हुआ था, जो अब पाकिस्तान में है।
डॉ० बाहरी ने बी० ए० (अँग्रेज़ी से आनर्स), एम० ए० (इतिहास) १९३१, पी० एच० डी० (लहँदी भाषा विज्ञान) १९४३ में पंजाब विश्वविद्यालय से की तथा डी० लिट० हिंदी शब्दार्थ विज्ञान १९४५ में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से किया। सर्वप्रथम आपने साप्ताहिक 'आर्य गजट' का संपादन किया, तदनंतर आप डीएवी कॉलेज रावलपिंडी में इतिहास विभाग के प्राध्यापक एवं अध्यक्ष रहे। १९३५-३९ में एचिसन चीफ्स कॉलेज, लाहौर में हिंदी-संस्कृत विभाग के अध्यक्ष के रूप में कार्य किया और १९४९ में इलाहाबाद विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग के प्रोफे़सर पद पर नियुक्त हुए और यहीं से अवकाश प्राप्त किया। अवकाश प्राप्त करने के बाद यूजीसी की Distinguished Teacher Scheme के अंतर्गत पाँच वर्ष तक हिंदी विभाग में अध्यापन करते रहे। उनके निर्देशन में अनेक शोधार्थियों ने डी० फिल० की उपाधि प्राप्त की। यहाँ उल्लेखनीय है कि जर्मनी के एक प्रसिद्ध शोधार्थी हेलमट रॉबर्ट नेस्पिटल ने उनके साथ हिंदी में उपयोग की जाने वाली क्रियाओं पर शोध कार्य किया। प्रो० बाहरी जी के कुशल मार्गदर्शन में अत्यधिक श्रम करके उन्होंने शोध-सामग्री का संकलन किया और 'हिंदी क्रिया-कोश' नामक शोध-ग्रंथ प्रस्तुत किया; जिसे बाद में लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद ने प्रकाशित किया। हिंदी के क्रिया संबंधी शोध-कार्यों में अब तक का यह सबसे महत्त्वपूर्ण और अद्भुत ग्रंथ है।
भारत में अध्ययन-अध्यापन तथा शोध के लिए उन्होंने व्यापक स्तर पर देश-विदेश की यात्राएँ कीं। दो बार यूरोप की यात्रा में गए। १९६७-६८ के बीच 'रूसी-हिंदी-शब्दकोश' संकलन के लिए सोवियत संघ में एक वर्ष का प्रवास किया। तत्पश्चात लगभग छह माह जर्मनी में रहकर 'हिंदी-जर्मन' और 'जर्मन-हिंदी' कोशों का संकलन भी किया। जब वे जर्मनी की यात्रा पर गए थे, उस समय मैं उनके साथ मिलकर 'सूर शब्द सागर' का कार्य कर रहा था। वे मुझे निर्देशित करके जर्मनी गए थे; किंतु कुछ माह बाद ही 'हिंदी-जर्मन' और 'जर्मन-हिंदी कोश' कार्य को अधूरा छोड़कर वापस आ गए और सहयोगियों को भारत में ही रहकर यह कार्य करने का आश्वासन दिया; कारण यह था कि डॉ० बाहरी पूरा दिन काम करने वाले व्यक्ति थे। उन्होंने मुझे बताया कि वहाँ मेरा बहुत समय ज़ाया हो रहा था, इसलिए वापस आ गया।
डॉ० बाहरी जी बहु-भाषाविद थे- संस्कृत, हिंदी, अँग्रेज़ी, रूसी, जर्मन, उर्दू-फ़ारसी आदि भाषाओं में पारंगत थे, इसीलिए उन्होंने भाषा-विज्ञान और कोश कार्य के क्षेत्र में अत्यधिक सफलता प्राप्त की और देश-विदेश में ख्याति अर्जित की।
डॉ० बाहरी का रचना संसार अति व्यापक है। उनके द्वारा लिखित एवं संपादित ग्रंथ इस प्रकार हैं- बृहद अंग्रेजी-हिंदी शब्द कोश, अँग्रेज़ी-हिंदी पारिभाषिक शब्द कोश, हिंदी काव्य शैलियों का विकास, प्राकृत और उसका साहित्य, उच्चतर हिंदी कोश, राजभाषा शब्दकोश, चुने हुए एकांकी नाटक, प्रशासनिक हिंदी कोश (हिंदी-अँग्रेज़ी), सूर शब्द सागर, प्रसाद साहित्य कोश, अवधी शब्द संपदा, भोजपुरी शब्द संपदा, आधुनिक कहानियाँ, भारत का भाषा सर्वेक्षण, सामान्य हिंदी, हिंदी शब्द-अर्थ-प्रयोग, हिंदी उद्भव विकास और रूप, हिंदी संक्षेपण, पल्लवन और पाठ-बोधन, संक्षिप्त हिंदी शब्दकोश, हिंदी साहित्य की रूपरेखा, शब्द सिद्धि, शिक्षार्थी हिंदी-अँग्रेज़ी शब्दकोश आदि आदि। इनके अतिरिक्त संस्कृति, साहित्य और मुख्य रूप से भाषा पर शताधिक निबंध और लेख लिखे। 
विश्व के भाषा वैज्ञानिकों में आपका नाम अति उल्लेखनीय है। विशेषकर हिंदी भाषा विज्ञान में तो आप अद्वितीय हैं। आज भी 'हिंदी : उद्भव, विकास और रूप' तथा 'हिंदी शब्द अर्थ प्रयोग' जैसे ग्रंथ एम० ए० (हिंदी) तथा प्रशासनिक सेवाओं के परीक्षार्थियों के लिए आदर्श एवं उपयोगी ग्रंथ हैं। यद्यपि आपने अपने जीवन के उत्तरार्द्ध में कोश-कार्य को अपने जीवन का लक्ष्य बनाया और देशी-विदेशी भाषा में शब्दकोशों का वैज्ञानिक विधि से संपादन किया।
डॉ० हरदेव बाहरी जी की मातृभाषा पंजाबी थी; पर उन्होंने जीवन पर्यंत हिंदी की सेवा की। यहाँ हिंदी के संबंध में उनकी एक-दो बातों का उल्लेख कर देना चाहता हूँ। डॉ० बाहरी का विचार है कि लोग यह समझते हैं, "हिंदी देश भर की भौजी बनी है; जो आता है, मज़ाक कर जाता है, और यह समझकर यह दरिद्र है, हर कोई दो ठोकरें भी लगा देता है।" उनका जवाब देते हुए बाहरी जी कहते हैं, "हिंदी दरिद्र नहीं है। एक तो यह संस्कृत, पालि और प्राकृत की उत्तराधिकारिणी होने के नाते उन सबकी भाषागत उपलब्धियों से समृद्ध है; दूसरे इसमें नए-नए संस्कारों, विचारों और अभिव्यक्तियों को ग्रहण करने की क्षमता है; तीसरे इसमें शब्द-निर्माण की अद्भुत शक्ति है। ...हिंदी में सात लाख के लगभग शब्द हैं, जबकि अँग्रेज़ी में ढाई लाख से अधिक नहीं।" 
हिंदी के संबंध में डॉ० बाहरी का यह मंतव्य तब भी विचारणीय है कि हिंदी का इतिहास मात्र एक हजार वर्ष पुराना नहीं है, "हिंदी का इतिहास वस्तुतः वैदिक काल से आरंभ होता है। उससे पहले इस आर्य भाषा का स्वरूप क्या था, यह सब कल्पना का विषय बन गया है। कोई लिखित प्रमाण नहीं मिलता। आर्य चाहे बाहर से आए हों अथवा यहीं सप्त-सिंधु प्रदेश के मूल निवासी हों। यह निश्चित और निर्विवाद सत्य है कि वर्तमान हिंदी प्रदेश में आने से पहले उनकी भाषा वही थी, जिसका साहित्यिक रूप 'ऋग्वेद' में प्राप्त होता है। एक तरह से यह कहना ठीक होगा कि वैदिक भाषा ही प्राचीनतम हिंदी है। इस भाषा के इतिहास का यह दुर्भाग्य है कि युग-युग में इसका नाम परिवर्तित होता रहा है, कभी वैदिक, कभी संस्कृत, कभी प्राकृत, कभी अपभ्रंश और अब हिंदी। तमिल, रूसी, चीनी, जर्मन सभी परिवर्तित हो गई हैं। लोगों ने उनके प्राचीन, मध्यकालीन और आधुनिक रूप-भेद तो बताए, किंतु उनका नाम नहीं बदला। भारत में प्रत्येक युग की भाषा का नया नाम रखा जाता है।"
डॉ० बाहरी का जीवन सिद्धांत था, "कर्म से सब कुछ प्राप्त किया जा सकता है।" वे अपने जीवन की चर्चा करते हुए कहते थे कि मैं इलाहाबाद में एक झोला लेकर आया था। मेरी सारी गृहस्थी उसी झोले में थी; किंतु कर्म करके, परिश्रम करके आज मैंने सब कुछ प्राप्त कर लिया है; बंगला, गाड़ी और यश भी। पहले मैं लिखता था और अपने पैसे से छपवाता था, फिर प्रकाशक कुछ लिए-दिए बिना ही छापने लगे, धीरे-धीरे कुछ पैसा मिलने लगा और अब प्रकाशक अग्रिम धनराशि दे जाते हैं- अमुक कोश के लिए, अमुक कोश के लिए। 
हिंदी भाषी क्षेत्र के हिंदी प्राध्यापकों के प्रति क्षोभ व्यक्त करते हुए वे कहते थे कि आज का विश्वविद्यालय या महाविद्यालय का शिक्षक जिस दिन नौकरी प्राप्त कर लेता है, उसी दिन से साधक से सिद्ध हो जाता है; फिर उसको पढ़ने-लिखने की आवश्यकता नहीं रह जाती। हिंदी क्षेत्र की अकर्मण्यता अति व्यापक है। शोध कार्य के क्षेत्र में कुछ इने-गिने लोगों को छोड़कर किसी ने कोई प्रामाणिक कार्य नहीं किया है। फादर कामिल बुल्के का उदाहरण देते हुए वे कहते हैं कि एक हिंदी भाषी विदेशी व्यक्ति ने राम-काव्य के क्षेत्र में जो कार्य किया है, वैसा शोध कार्य अभी तक देखने को नहीं मिला है। ऐसा नहीं है कि हिंदी भाषा-भाषियों में प्रतिभा का अभाव है; अभाव है तो मेहनत का! परिश्रम का!! संकल्प का!!!
मैंने गुरुवर डॉ० हरदेव बाहरी जी के साथ निरंतर छः वर्षों तक प्रतिदिन चार घंटे कार्य किया है। 'सूर शब्द सागर' और 'अवधी शब्द संपदा' के संपादन में उनका पूर्ण सहयोग किया है। वे दिन के एक-एक क्षण का उपयोग करते थे। प्रातः से संध्या तक अध्ययन एवं लेखन में लगे रहते थे। बीच-बीच में नाश्ता करना और भोजन करना ही उनका विश्राम था। उनके जीवन का एक आश्चर्यजनक तथ्य यह भी है कि वे जीवन में कभी भी दिन में नहीं सोए। वे कहते थे, दिन में सोना कैसा होता है? मैं नहीं जानता। दिन में सोने का अर्थ है, अपने कर्म और प्राप्य को खोना।
गुरुदेव गोष्ठियों, संगोष्ठियों और चर्चाओं से भी बचते थे, जो निष्कर्षहीन होती हैं और जिनसे समय की बर्बादी होती है। वे उन मित्रों से भी घबराते थे, जो अनावश्यक रूप से मात्र गप-शप करने के लिए आते थे। समवयस्क और सहयोगी होने के नाते हुए उनका स्वागत-सत्कार तो करते थे; पर उनके चले जाने के बाद अपनी मित्रता पर पश्चाताप भी करते थे और अपने-आप को ही कोसते थे। वे समय के पाबंद और अनुशासन प्रिय प्रोफ़ेसर थे। उनकी कक्षा में दो-तीन मिनट विलंब से आने वाले विद्यार्थियों को प्रवेश नहीं मिलता था। डॉक्टर बाहरी के कक्षा में जाने के बाद कोई विद्यार्थी कक्षा से बाहर जाने की हिम्मत नहीं करता था।
भाषा-विज्ञान और कोश के क्षेत्र में द्वारा किए गए महत्वपूर्ण कार्य के लिए डॉ० बाहरी को पंजाब सरकार, बिहार सरकार और भारत सरकार के द्वारा पुरस्कार के रूप में प्रचुर धनराशि एवं सम्मान दिया गया है। विदेशों में भी उनका अत्यधिक सम्मान हुआ है। हिंदी साहित्य सम्मेलन ने उन्हें 'साहित्य वाचस्पति' की उपाधि से सम्मानित किया है। हिंदी साहित्य में उनके योगदान के लिए 'सुब्रह्मण्यम भारती पुरस्कार' भी प्राप्त हुआ है। उनकी अनेक पुस्तकें भी पुरस्कृत हुई हैं।
डॉ० बाहरी प्रख्यात प्राध्यापक, भाषा वैज्ञानिक, समालोचक और कोशकार तो थे ही, पर सच्चे अर्थों में एक कर्मठ कर्मयोगी थे। जीवन के अंतिम काल में उनकी एक आँख खराब हो गई, चिकित्सक ने उसे निकाल दिया और सलाह दी कि दूसरी आँख को बचाए रखने के लिए उससे अधिक श्रम न लिया जाए। अतः आप अब पढ़ने-लिखने का कार्य बंद कर दें; पर डॉ० बाहरी कहाँ मानने वाले थे? एक हाथ में आवर्धक लेंस और दूसरे हाथ में कलम। वे लिखते रहे, जीवन पर्यंत लिखते रहे। अंततः ३१ मार्च २००० को इस कर्म-योगी ने इस लोक को सदा के लिए अलविदा कहा; लेकिन करोड़ों-करोड़ के मानस-पटल में आज भी विराजमान हैं। सच्चे अर्थों में वे कलम के सिपाही थे। उस कर्म-योगी को शत-शत नमन!

डॉ० हरदेव बाहरी : जीवन परिचय

जन्म

०१ मार्च १९०७ ई० तालागंज, अटक, पंजाब (पाकिस्तान)

निधन

३१ मार्च २०००

शिक्षा

स्नातक

अँग्रेज़ी आनर्स 

स्नातकोत्तर

इतिहास १९३१ 

एम०ओ०एल० 

संस्कृत 

पी०एच०डी० 

लहँदी भाषा विज्ञान, पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ १९४३

डी० लिट० 

हिंदी शब्दार्थ विज्ञान, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद १९४५ 

कार्यक्षेत्र

  • भाषाविद

  • आलोचक 

  • कोशकार

साहित्यिक रचनाएँ

  • बृहत अँग्रेज़ी-हिंदी शब्दकोश

  • अँग्रेज़ी-हिंदी पारिभाषिक शब्दकोश

  • हिंदी काव्य शैलियों का विकास १९४७

  • प्राकृत और उसका साहित्य १९५२

  • उच्चतर हिंदी कोश- वाणी प्रकाशन

  • राजभाषा शब्दकोश 

  • चुने हुए एकांकी नाटक

  • प्रशासनिक हिंदी कोश (हिंदी-अँग्रेज़ी)

  • सूर शब्द सागर

  • प्रसाद साहित्य कोश १९५७

  • अवधी शब्द संपदा १९८२

  • भोजपुरी शब्द संपदा १९८१

  • आधुनिक कहानियाँ

  • भारत का भाषा सर्वेक्षण

  • सामान्य हिंदी

  • हिंदी शब्द-अर्थ-प्रयोग

  • हिंदी : उद्भव, विकास और रूप

  • हिंदी संक्षेपण पल्लवन और पाठ बोधन

  • संक्षिप्त हिंदी शब्दकोश

  • हिंदी साहित्य की रूपरेखा १९५५

  • शब्द सिद्धि १९५८

  • हिंदी शब्दार्थ विज्ञान १९५९

  • शिक्षार्थी हिंदी-अँग्रेजी शब्दकोश १९८९

  • इनके अतिरिक्त संस्कृति साहित्य और मुख्य रूप से भाषा पर शताधिक निबंध और लेख लिखे।

पुरस्कार व सम्मान

  • साहित्य वाचस्पति उपाधि (हिंदी साहित्य सम्मेलन प्रयाग)

  • सुब्रमण्यम भारती पुरस्कार


संदर्भ

  • हिंदी : उद्भव, विकास और रूप - डॉ० हरदेव बाहरी, किताब महल, इलाहाबाद १९६९।

  • हिंदी शब्दकोशों और संबंधित मामलों पर अमेरिकन ओरियंटल सोसाइटी का जर्नल (१९८३)।

लेखक परिचय


डॉ० राजकुमार सिंह

पूर्व विभागाध्यक्ष (हिंदी) एवं एसोसिएट प्रोफेसर, दुर्गा नारायण स्नातकोत्तर महाविद्यालय, फतेहगढ़ (उ०प्र०)।

संपर्क सूत्र - 

तिर्वा कोठी, सिविल लाइन्स, फतेहगढ़ (उ०प्र०)

दूरभाष : 9452436646

Wednesday, March 30, 2022

ग़ज़ब के किस्सागो : मनोहर श्याम जोशी

 
  • क्या आप जानते हैं कि हिंदी के पहले सोप ऑपेरा लेखक कौन हैं?
  • क्या आप जानते हैं कि भारतीय धारावाहिक का पितामह किसे कहा जाता है?
  • क्या आप जानते हैं कि जुलाई १९८४ को दूरदर्शन पर शुरू हुए प्रसिद्ध धारावाहिक 'हम लोग' के लेखक कौन हैं?
  • क्या आप जानते हैं कि विभाजन पर आधारित प्रसिद्ध धारावाहिक 'बुनियाद' किसने लिखा?
इन तमाम प्रश्नों का यदि एक उत्तर - बहुप्रतिष्ठित एवं सबके प्रिय साहित्यकार मनोहर श्याम जोशी जी कहें, तो यह ग़लत नहीं होगा। विलक्षण प्रतिभा के धनी, एक पत्रकार, व्यंग्यकार, कहानीकार, उपन्यासकार, धारावाहिक लेखक, फ़िल्म पटकथा लेखक, संपादक, स्तंभ लेखक रहे मनोहर श्याम जोशी पत्रकारिता, टेलीविज़न, सिनेमा और साहित्य, सभी जगह अपनी सहजता, सजगता और किस्सागो की वजह से ख़्याति प्राप्त रहे हैं। इन्होंने अपने लेखन को दृश्य-श्रव्य जैसे संप्रेषणीय माध्यमों से जोड़कर आम लोगों तक बड़ी कामयाबी से पहुँचाया है। अद्वितीय विद्वान साहित्यकार जोशी जी मीडिया माध्यमों के साथ-साथ साहित्यिक जगत के भी सिद्धहस्त रहे हैं। उनके लिए यह कहना कि, वे प्रयोगधर्मी रचनाकार थे, अतिश्योक्ति नहीं होगी, क्योंकि उन्होंने  जिस-जिस क्षेत्र में लिखा, उसमें सदैव नए-नए प्रयोग किए। 

मनोहर श्याम जोशी का जन्म अगस्त, सन १९३३ को राजस्थान के अजमेर शहर में हुआ था। इनके पिता शिक्षाविद एवं संगीत-पारखी थे, परिवार के लगभग सभी सदस्य साहित्य एवं कला प्रेमी थेबचपन में ही पिता तथा बड़े भाई की असमय मृत्यु के कारण इन्हें आर्थिक एवं सामाजिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। सात वर्ष की अवस्था में ही पिता तो नहीं रहे, लेकिन पिता का प्रभाव निरंतर बना रहा। इनके पिता का कला और विज्ञान से गहरा लगाव था, जो जोशी जी को भी मिला। इनकी माता श्रीमती रुक्मिणी देवी कुमाऊँनी ब्राह्मण परिवार से ताल्लुक रखती थीं, जहाँ भी लगभग सभी साहित्य प्रेमी थेवे दूसरों की नकल करने तथा किस्सागो में निपुण थीं, जोशी जी में भी ये गुण अनायास ही आ गए थे। कुमाऊँनी परिवेश से परिपूर्ण परिवार में पीढ़ी दर पीढ़ी शास्त्र साधना एवं पठन-पाठन व विद्या-ग्रहण का क्रम पहले से चला आ रहा था, अतः विद्याध्ययन तथा संचार साधनों के प्रति जिज्ञासु भाव उन्हें बचपन से ही संस्कार स्वरूप प्राप्त थाकालांतर में आजीविका एवं संपूर्ण व्यक्तित्व के विकास का आधार यही संस्कार बना; लखनऊ विश्वविद्यालय से स्नातक की परीक्षा उत्तीर्ण कीसबसे पहले स्कूल में अध्यापन किया, फिर एक ऑफिस में कलर्क बने, वहाँ भी मन न लगने के कारण दिल्ली आ गए और पत्रकारिता लेखन से जुड़ गए। कुछ समय वहाँ कार्य करने के पश्चात जब टीवी दूरदर्शन का दौर शुरू हुआ तो दूरदर्शन में कार्य करने लगे। 

जब दूरदर्शन भारत में अपनी शैशवास्था में था, तब जोशी जी ने उसके लिए लिखना प्रारंभ किया था। 'बुनियाद' और 'हम लोग' जैसे चर्चित धारावाहिकों के लेखन से उन्हें देश के हर घर में ख़्याति मिली थीइन धारावाहिकों ने लोगों के बीच मेल-जोल बढ़ाने का काम किया। अगर याद किया जाए तो बाद के "सास-बहू" और "तरह-तरह के मसाला" धारावाहिकों का कद इन धारावाहिकों के सामने निश्चित ही बौना लगता है। 'बुनियाद' देश के बँटवारे की पीड़ा के दर्द और 'हम लोग' सामाजिक सरोकारों का जीवंत वर्णन है। 'बुनियाद' में लाहौर से आए एक परिवार की चार पीढ़ियों की महागाथा है। कहा जाता है इसके प्रसारण के समय भारत और पाकिस्तान में रास्ते खाली रहते थे, क्योंकि लोग टेलीविजन देखने में व्यस्त रहते थे। जिनके घरों में टीवी नहीं होता था वे दूसरों के यहाँ जाकर देखते थे। यह वह दौर था जब संयुक्त परिवारों के टूटने का चलन कस्बों और छोटे शहरों में भी शुरू हो चुका थातब जोशी जी ने अपने धारावाहिकों के ज़रिए मध्यवर्गीय समाज को संस्कारों से जोड़ने की कोशिश की थी। 'कक्काजी कहिन' और 'मुंगेरी लाल के हसीन सपने'  धारावाहिकों के लेखन से उन्होंने अपने अंदाज़ और नए रंग में हास्य-व्यंग्य को प्रमुख स्थान दिया। इनके धारावाहिकों ने लोगों का ख़ूब मनोरंजन भी किया। 

जोशी जी की पहली कहानी अठ्ठारह वर्ष की उम्र में 'प्रतीक' और 'संगम' पत्रिकाओं में छप चुकी थी, लेकिन पहला उपन्यास 'कुरु कुरु स्वाहा' सैंतालिस साल की उम्र में बंबइया शैली में प्रकाशित हुआ। इन्होंने अपने पहले ही उपन्यास में भाषा के विविध रंग दिखलाए। इस उपन्यास की भाषा और संवाद शैली को हिंदी साहित्य में एक नया प्रयोग माना जाता है। कथ्य में नवीनता और भाषा की ज़िंदादिली इनके उपन्यासों को ख़ास बनाती हैमनोहर श्याम जोशी उन किस्सागो में शामिल थे, जिन्होंने अपने कथा साहित्य में किस्सागोई की परंपरा को ज़िंदा रखा। बतकही के ज़रिए मुश्किल से मुश्किल कथ्य को कुछ इस तरह से कहते हैं कि पाठक तृप्त हो जाता है। उनकी कल्पनाशीलता में वाग्विदग्धता देखने को मिलती है। 'कसप' उपन्यास उनका लोकप्रिय उपन्यास हैयह १७ वर्षीय बेबी और गंभीर लेखक देवी दत्त के पहली नज़र से प्यार की कहानी है। नायिका बेबी को देवी दत्त बहुत गंभीर और साहित्यिक पत्र लिखते हैं, जो मासूम बेबी की समझ में नहीं आते हैं। बेबी अपने प्रेम पत्र अपने पिता से पढ़वाती और समझती है। पिता पुत्री को न केवल पत्र का अर्थ समझाते हैं, बल्कि लड़के के बारे में भी गंभीरता से सोचते हैं। यह प्रेम कहानी लंबी है, इसमें कई मोड़ आते हैं। उपन्यास अंत में मीठा-मीठा दर्द, उत्सुकता और एक सवाल - "क्या जाने?" छोड़कर जाता है। इसमें कुमाऊँनी भाषा के साथ-साथ वहाँ के रीति-रिवाज़ों का भी मनोहारी चित्रण है। 'कसप' उपन्यास का नामकरण ही कुमाऊँनी भाषा पर आधारित है, जिसका अर्थ है - क्या जाने या राम जाने। यह जानकर हैरानी होती है कि, जोशी जी कभी भी पहाड़ों पर नहीं रहे, फिर भी उनके उपन्यासों और कहानियों में कुमाऊँनी रीति-रिवाज़ , खान-पान और संस्कृति का विराट स्वरूप बड़ी सरलता से देखने को मिलता है। शायद यह परिवार के वातावरण का प्रभाव होगा कि उनके कथ्य का हिस्सा उत्तराखंड के कुमाऊँ का जीवंत चित्रण पाठकों को एक अलग ही दृष्टिकोण से जोड़ने की अनूठी पहल करता है। इस उपन्यास में जोशी जी ने कुमाऊँ भाषा के शब्दों के हिंदी अर्थ भी दिए हैं। 

इनके उपन्यासों में आंचलिकता के अलावा भाषा के विविध रंग मिलते हैं। कहीं कन्नड़, कहीं अवधी, तो कहीं बंबइया हिंदी के बहुतायत रूप दिखाई देते हैं। भाषाई कला उनकी रचनाओं में बार-बार दिखलाई देती है। 
वे एक कुशल प्रवक्ता के रूप में भी प्रसिद्ध हैं। एक श्रेष्ठ वार्ताकार का हर गुण उनमें मौज़ूद था। उनकी ख़ूबी थी कि वे साक्षात्कार लेते समय टेपरिकॉर्डर या लिखने के लिए कॉपी आदि का इस्तेमाल किए बिना बाद में बातचीत याद करके आराम से लिख लेते थे। बातों-बातों में सामने वाले का पूरा व्यक्तित्व दिखा देते थे। बातचीत के दौरान सामने वाले को उकसाने, फुसलाने और उससे जानकारी निकलवाने में वे माहिर थे। ज़रूरत पड़ने पर उससे अनकहे सवाल भी पूछ लेते थे और सामने वाले को उसका आभास भी नहीं हो पाता था। उनकी एक किताब 'बातों-बातों में' में पत्र-पत्रिकाओं के सिलसिले में विभिन्न लोगों से की गई भेंटवार्ताएँ संकलित हैं। 

जोशी जी को पत्रकारिता का भी खासा अनुभव थालंबे समय तक पत्रकारिता से जुड़े रहने के कारण उन्हें कई पत्रिकाओं के संपादन के अवसर मिले। आपने ऑल इंडिया रेडियो में नौकरी के बाद 'दिनमान' और 'साप्ताहिक हिंदुस्तान' जैसी बहुप्रतिष्ठित पत्रिकाओं का संपादन किया। लेखन में रोचकता और गंभीर बात, उन्हें दूसरे मीडियाकर्मियों से अलग करती थी। उन्होंने खेलकूद एवं दर्शनशास्त्र, विज्ञान और राजनीति पर भी बख़ूबी लिखा। 
जोशी जी की रचनाओं में उत्तर आधुनिकतावाद तथा यथार्थवाद का प्रतिबिंबन भी देखा जा सकता है। समय के दबाव में आधुनिक व्यक्ति के विघटन को उन्होंने बहुत बारीकी से व्यक्त किया हैयही नहीं, उनकी रचनाओं में यातना की निरंतरता में सामंती संस्कार टूटते हैं और मनुष्य नाना संघर्षों से गुजरता हुआ प्रकट होता है। इन्होंने जिस भी क्षेत्र में कार्य किया, वहीं उन्हें ख़्याति मिलीइससे अंदाज़ा लगा सकते हैं कि वे अपने कार्य के प्रति कितने सजग एवं एकाग्र थे। 

जोशी जी राष्ट्रीय स्तर पर कई पुरस्कारों और सम्मानों से नवाज़े गए। इनके उपन्यास 'ट टा-प्रोफेसर' के अँग्रेज़ी अनुवाद को मिले ब्रिटेन के 'क्रोस्वर्ड पुरस्कार' से  इनकी अंतर्राष्ट्रीय ख़्याति के दर्शन होते हैं। २००५ में 'क्याप' उपन्यास के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। इसके अलावा शरद जोशी सम्मान, शिखर सम्मान, दिल्ली अकादमी पुरस्कार, टेलीविजन के लिए 'ऑनिडा' और 'अपट्रान' पुरस्कार से सम्मानित किए गएइन पुरस्कारों से इतर लाखों प्रशंसकों और पाठकों का प्यार-सम्मान इन्हें अन्य साहित्यकारों से विलग करता है। जनता का यह प्यार किसी प्रतिष्ठित पुरस्कार से कमतर नहीं है

मनोहर श्याम जोशी : जीवन परिचय

जन्म

९ अगस्त १९३३, अजमेर, राजस्थान  

निधन

३० मार्च २००६, नई दिल्ली 

पिता 

श्री प्रेम बल्लभ जोशी 

माता

श्रीमती रुक्मिणी देवी 

पत्नी 

डॉ० भगवती जोशी 

पुत्र 

अनुपम जोशी, अनुराग जोशी, आशीष जोशी 

व्यवसाय 

लेखक, दूरदर्शन धारावाहिक  

भाषा 

हिंदी

कर्मभूमि 

अजमेर, दिल्ली 

शिक्षा एवं शोध

स्नातक 

लखनऊ विश्वविद्यालय   

साहित्यिक रचनाएँ

उपन्यास

  • कुरु कुरु स्वाहा

  • कसप

  • हरिया हर क्युलिस की हैरानी

  • हमजाद

  • ट-टा प्रोफ़ेसर

  • क्याप

  • कपीश जी

  • वध स्थल

  • उत्तराधिकारिणी

कहानी संग्रह 

  • कैसे किस्सागो

  • दस प्रतिनिधि कहानियाँ

  • मंदिर के घाट की पौड़ियाँ 

व्यंग्य संग्रह 

  • नेताजी कहिन

  • उस देश का यारों क्या कहना

  • हिंदी साहित्य में वीर बालकवाद

संपादन 

  • दिनमान

  • साप्ताहिक हिंदुस्तान (हिंदी)

  • वीकेंड रिव्यू (अँग्रेज़ी)

संस्मरण 

  • लखनऊ मेरा लखनऊ

  • रघुवीर सहाय : रचनाओं के बहाने एक संस्मरण

  • क्या हाल हैं चीन के 

धारावाहिक   

  • हम लोग

  • बुनियाद

  • कक्काजी कहिन

  • मुंगेरी लाल के हसीन  सपने

  • हमराही

  • ज़मीन आसमान

  • गाथा 

फ़िल्म 

  • हे राम

  • पापा कहते हैं

  • अप्पू राजा

  • भ्रष्टाचार 

पुरस्कार व सम्मान 

  • सांसद साहित्य परिषद सम्मान

  • शरद जोशी सम्मान

  • शिखर सम्मान

  • दिल्ली हिंदी अकादमी पुरस्कार

  • साहित्य अकादमी पुरस्कार

  • ब्रिटेन का क्रोस्वर्ड पुरस्कार  


संदर्भ

लेखक परिचय


डॉ० रेखा सिंह 

बीएड, पीएचडी,नेट, यूसेट
असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, 
हिंदी विभाग, रा० महा० विद्यालय, 
पावकी देवी टिहरी गढ़वाल, उत्तराखंड, भारत 
शोधपत्र - २० राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय

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कलेंडर जनवरी

Sun Mon Tue Wed Thu Fri Sat
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9ऐतिहासिक कथाओं के चितेरे लेखक - श्री वृंदावनलाल वर्मा 10आलोचना के लोचन – मधुरेश 11आधुनिक खड़ीबोली के प्रथम कवि और प्रवर्तक : पं० श्रीधर पाठक 12यथार्थवाद के अविस्मरणीय हस्ताक्षर : दूधनाथ सिंह 13बहुत नाम हैं, एक शमशेर भी है 14एक लहर, एक चट्टान, एक आंदोलन : महाश्वेता देवी 15सामाजिक सरोकारों का शायर - कैफ़ी आज़मी
16अभी मृत्यु से दाँव लगाकर समय जीत जाने का क्षण है - अशोक वाजपेयी 17लेखन सम्राट : रांगेय राघव 18हिंदी बालसाहित्य के लोकप्रिय कवि निरंकार देव सेवक 19कोश कला के आचार्य - रामचंद्र वर्मा 20अल्फ़ाज़ के तानों-बानों से ख़्वाब बुनने वाला फ़नकार: जावेद अख़्तर 21हिंदी साहित्य के पितामह - आचार्य शिवपूजन सहाय 22आदि गुरु शंकराचार्य - केरल की कलाड़ी से केदार तक
23हिंदी साहित्य के गौरव स्तंभ : पं० लोचन प्रसाद पांडेय 24हिंदी के देवव्रत - आचार्य चंद्रबलि पांडेय 25काल चिंतन के चिंतक - राजेंद्र अवस्थी 26डाकू से कविवर बनने की अद्भुत गाथा : आदिकवि वाल्मीकि 27कमलेश्वर : हिंदी  साहित्य के दमकते सितारे  28डॉ० विद्यानिवास मिश्र-एक साहित्यिक युग पुरुष 29ममता कालिया : एक साँस में लिखने की आदत!
30साहित्य के अमर दीपस्तंभ : श्री जयशंकर प्रसाद 31ग्रामीण संस्कृति के चितेरे अद्भुत कहानीकार : मिथिलेश्वर          

आचार्य नरेंद्रदेव : भारत में समाजवाद के पितामह

"समाजवाद का सवाल केवल रोटी का सवाल नहीं है। समाजवाद मानव स्वतंत्रता की कुंजी है। समाजवाद ही एक सुखी समाज में संपूर्ण स्वतंत्र मनुष्यत्व...