Tuesday, July 19, 2022

डॉ. मदन लाल ‘मधु’ - रूसी साहित्य के अनुवादक और अध्येता


जिस प्रकार कहानी लिखते-लिखते प्रेमचंद ख़ुद हिंदी कहानी का पर्याय बन गए उसी तरह रूसी साहित्य को अनुवाद के ज़रिए हिंदी पाठकों तक पहुँचाकर मदनलाल ‘मधु’ हिंदी में रूसी साहित्य का पर्याय बन गए। भीष्म साहनी, मुनीश सक्सेना, नरोत्तम नागर, वरयाम सिंह और अनिल जनविजय जैसे अनुवादकों ने भी रूसी साहित्य को हिंदी पाठकों तक पहुँचाकर जनहित का काम किया है, लेकिन इन सभी के अनुवाद कार्य को संयुक्त रूप से मिलाकर भी देखा जाए तो मदनलाल ‘मधु’ का अनुवाद कार्य विविधता और व्यापकता की दृष्टि से बहुत आगे है। २२ मई १९२५ को फिरोज़पुर (पंजाब) में जन्मे मदनलाल ‘मधु’ की शख़्सियत बहुआयामी थी। कवि के रूप में उन्होंने तीन कविता-संग्रह ‘उन्माद’, ‘शून्य’ तथा ‘गीत-अगीत’ रचकर कविता जगत में प्रतिष्ठा हासिल की। बच्चन, दिनकर, पंत और नीरज जैसे महान कवियों के साथ मंच साझा करके अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया। कविता के बीज बचपन में ही अंकुरित हो गए थे। संगीत में रुचि भी घर में मौजूद एचएमवी के रिकार्ड सुन-सुन कर हुई। अख़्तरी बाई फ़ैज़ाबादी (बेगम अख़्तर) की ग़ज़लों ने भी साहित्य और संगीत के प्रति रुचि बढ़ाने में अहम भूमिका अदा की। 

साल १९४३ में बंगाल-अकाल विषय पर लुधियाना के एक कॉलेज ने अंतर्ज़िला स्वरचित कविता-पाठ प्रतियोगिता का आयोजन किया, जिसमें 'मधु' जी को १०१ रुपए का पहला पुरस्कार मिला। पंजाब में हिंदी भाषा और साहित्य का माहौल कम था लेकिन 'मधु' जी की कविता में दिलचस्पी ने उन्हें प्रसाद, पंत, महादेवी और बच्चन के कविता संग्रहों को पढ़ने के लिए प्रेरित किया। मदनलाल से मदनलाल ‘मधु’ बनने के बारे में वे अपनी आत्मकथा में लिखते है- “वास्तव में ‘मधु’ उपनाम भी मैंने बच्चन जी के मधु-प्रेम से (बच्चन जी की ‘मधुशाला’, ‘मधुबाला’ और ‘मधु'कलश’ कविता संग्रह) प्रभावित होकर ही चुना था।” पंजाब के बाहर भी 'मधु' जी को कवि के रूप में आमंत्रित किया जाने लगा। फिरोज़पुर में स्नातक परीक्षा पास करने के बाद एमए लाहौर से ही करना चाहते थे। फ़ीस और हॉस्टल आदि ख़र्च का जुगाड़ करने के लिए तीन महीने अस्थायी नौकरी करके ढाई-तीन सौ रुपए कमाकर १९४५ में तत्कालीन  हिंदुस्तान की सांस्कृतिक, साहित्यिक, फ़ैशन और फ़िल्म की नगरी लाहौर पहुँचे। एमए हिंदी साहित्य में करने का ख़्वाब अधूरा रह गया क्योंकि उस समय लाहौर में हिंदी विषय के अध्ययन की सुविधा मौजूद नहीं थी, लिहाज़ा अर्थशास्त्र से एमए करने का मन बनाया। १३ अगस्त १९४७  को 'मधु' जी सैनिकों के संरक्षण में ट्रेन से फिरोज़पुर लौट आए; इस दौरान उन्होंने विभाजन की त्रासदी, विभीषिका और पीड़ा को देखा। एमए की फ़ाइनल परीक्षा भी विभाजन के कारण लाहौर में आयोजित न हो सकी । सभी शरणार्थियों के लिए परीक्षा की व्यवस्था वर्ष १९४७ में शिमला में की गई और 'मधु' जी अर्थशास्त्र में एमए की परीक्षा पास कर फिरोज़पुर के डिग्री कॉलेज में प्रोफ़ेसर बनने का सपना साकार कर पाए। 

जून १९५५ में भारत के प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू जी ने तत्कालीन सोवियत संघ की यात्रा की और १९५५ के अंत में तत्कालीन सोवियत संघ के राष्ट्रपति निकिता खुश्चेव तथा प्रधानमंत्री बुल्गानिन ने भारत की यात्रा की। फलस्वरूप दोनों देशों के बीच अनेक सांस्कृतिक समझौते हुए। इसी का सार्थक परिणाम यह हुआ कि सोवियत संघ में हिंदी, तमिल, बँगला और उर्दू भाषाओं के विद्वानों को अनुवादकों के रूप में चयनित किया गया। मार्च १९५७ में हिंदी अनुवादक के पदों के लिए चुने गए विद्वानों में कथाकार भीष्म साहनी, हिंदी के कवि मदनलाल ‘मधु’ और इलाहाबाद के हिंदी के प्रोफ़ेसर गोपीकृष्ण गोपेश के नाम थे। बँगला भाषा में अनुवादक के रूप में राधा मोहन भट्टाचार्य को चयनित किया गया था।  

डॉ० मदनलाल 'मधु' और भीष्म साहनी मार्च १९५७ में मॉस्को पहुँचे। कवि और प्राध्यापक मदनलाल ‘मधु’ के जीवन की यह नई शुरूआत थी। सोवियत साहित्य को अनुवाद के माध्यम से हिंदी पाठकों तक पहुँचाना था। प्रारंभ में भीष्म जी और 'मधु' जी ने अँग्रेज़ी भाषा में उपलब्ध सोवियत साहित्य का हिंदी में अनुवाद किया। धीरे-धीरे दोनों ने रूसी भाषा सीखी। भीष्म साहनी लगभग ७ साल बाद मॉस्को से दिल्ली लौट गए लेकिन 'मधु' जी आजीवन, लगभग ५७ साल मॉस्को, रूस में रहकर रूसी साहित्य को हिंदुस्तानी पाठकों तक पहुँचाने में एड़ी चोटी का ज़ोर लगाते रहे। 

डॉक्टर मदनलाल ‘मधु’ से मिलने का सौभाग्य मुझे सन २००३ से २००६ के बीच  मॉस्को में मिला। मेरी नियुक्ति मॉस्को स्थित केंद्रीय विद्यालय में तीन साल के लिए हुई थी। पिल्यूगिना, मॉस्को में  मेरे सरकारी आवास पर त्रैमासिक आधार पर साहित्यिक गोष्ठियों का आयोजन होता था और अक्सर गोष्ठियों की अध्यक्षता मदनलाल ‘मधु’ करते थे। इस दौरान 'मधु' जी के व्यक्तित्व और कृतित्व को क़रीब से जानने और समझने का सुअवसर प्राप्त हुआ। समय-समय पर वह मॉस्को में बिताए पाँच दशकों की खट्टी-मीठी यादों को साझा करते। उन्होंने ही बताया कि शुरू के दो वर्ष हम लोगों को केवल अँग्रेज़ी से हिंदी अनुवाद का काम देखना पड़ता था। सन १९५८ तक ८-१० शब्दों के अलावा न हमें रूसी बोलनी आती थी और न पढ़नी, हमारी स्थिति पढ़े लिखे गूँगे-बहरों जैसी थी। अनुवाद का भुगतान मासिक वेतन या ‘जितना काम, उतने दाम’ सिद्धांत के आधार पर होता था। मासिक वेतन कम मिलता था इसलिए हम अधिकांश भारतीय ‘जितना काम, उतने दाम’ वाले विकल्प को चुनते थे। सबसे बड़ा सुख यह था कि हम सभी अनुवादकों और उनके परिवार के सदस्यों के लिए स्वास्थ्य सुविधा मुफ़्त थी। बच्चों की शिक्षा निशुल्क थी। फ़्लैट का किराया, बिजली, पानी और टेलीफ़ोन का बिल सब मिलाकर हमारी आमदनी के १० प्रतिशत खर्च में उपलब्ध था और रूसी लोग हम सभी भारतीयों को बहुत प्यार और सम्मान करते थे। महँगाई भी नहीं थी। इन सुविधाओं और प्यार का नतीजा यह होता था कि तीन साल का कांट्रेक्ट समाप्त होने पर अधिकांश भारतीय अनुवादक अगले तीन साल के कांट्रेक्ट के लिए लालायित रहते थे। भीष्म साहनी सात साल बाद अपनी पत्नी के दबाव में वापस लौट गए अन्यथा वह भी और रहना चाहते थे। 'मधु' जी ने अपनी आत्मकथा में कविता अनुवाद की सावधानियों के बारे में लिखा है, “मेरा मानना है कि मूल काव्य के अनुरूप ही अनुवाद भी होना चाहिए। मतलब यह कि यदि मूल काव्य अतुकांत है, मुक्त छंद में है तो अनुवाद भी ऐसे किया जाना चाहिए और यदि वह तुकांत और छंदबद्ध है तो अनुवाद भी इसी ढंग से करना चाहिए तथा जहाँ तक संभव हो, छंद भी मूल के अधिकतम सामान्य और निकटतम ढूँढ़ना चाहिए।" मॉस्को आगमन के दो साल बाद 'मधु' जी ने रूसी भाषा सीखने का मन बनाया और परस्पर संवाद और अध्ययन के ज़रिए शीघ्र ही रूसी भाषा के प्रसिद्ध विद्वान बन गए। डॉक्टर 'मधु' ने लगभग ३० से अधिक  सोवियत कवियों, लेखकों और नाटककारों की लगभग १०० महत्त्वपूर्ण रचनाओं का अनुवाद करके कीर्तिमान स्थापित किया है।        

डॉक्टर मदनलाल ‘मधु’ को सर्वाधिक प्रसिद्धि मिली महान उपन्यासकार तलस्तोय के  विश्वप्रसिद्ध उपन्यास ‘युद्ध और शांति’ और ‘आन्ना करेनिना’ के रूसी से हिंदी अनुवाद के चलते। तुर्गेंयेव ने ‘युद्ध और शांति’ को वीर महाकाव्य कहा है। लगभग २००० पेज और चार खंडों में लिखा यह उपन्यास विश्व-क्लासिक की एक उत्कृष्ट कृति माना जाता है। रूसी भाषा से हिंदी में इसका अनुवाद करने में 'मधु' जी को लगभग तीन साल लगे, इतने समय में एक विद्यार्थी किसी विषय पर पीएचडी की उपाधि प्राप्त कर लेता है। तलस्तोय के उपन्यास ‘आन्ना करेनिना’ के अनुवाद के लिए प्रगति-प्रकाशन की एक संपादिका ने ‘सोवियत लैंड नेहरू अवॉर्ड’ से ‘मधु’ जी को अलंकृत करने का प्रस्ताव अवॉर्ड समिति को दिया। सन १९६५ में शुरू किया गया सोवियत लैंड नेहरू अवॉर्ड भारत में रहनेवाले प्रगतिशील विचारधारा वाले साहित्यकारों और कलाकारों को अथवा उन अनुवादकों को दिया जाता था जिन्होंने रूसी साहित्य का हिंदुस्तानी भाषा में अनुवाद किया हो। हिंदी कवि सुमित्रानंदन पंत इससे सम्मानित होने वाले पहले साहित्यकार थे। ‘आन्ना करेनिना’ जैसी महान रचना का सुंदर हिंदी अनुवाद करने के किए आख़िरकार मदनलाल 'मधु' के नाम के प्रस्ताव को मंज़ूरी तो मिली, लेकिन उन्हें द्वितीय पुरस्कार के लिए चयनित किया गया। डॉक्टर 'मधु' ने नाराज़गी में इस पुरस्कार को स्वीकार नहीं किया क्योंकि वे मानते थे कि वे प्रथम पुरस्कार के हक़दार हैं। 

मई १९५७ तक अनुवादकों, संपादकों और मॉस्को रेडियो में काम करने वाले परिवारों की संख्या बढ़कर ३८-४० के आसपास हो गई थी। इसलिए मॉस्को में एक साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्था बनाने का विचार सामने आया, ताकि भारतीय तीज-त्योहारों को मनाने और आपसी विचार-विमर्श का एक मंच बन सके। मई १९५७ के आख़िर में सर्वसम्मति से ‘हिंदुस्तानी समाज’ की स्थापना हुई। भीष्म साहनी को महासचिव और बँगला अभिनेता और अनुवादक राधा मोहन भट्टाचार्य को अध्यक्ष चुना गया। मदनलाल 'मधु' संस्थापक सदस्यों में थे। वर्ष १९७७ से २००७ तक तीस वर्ष 'मधु' जी हिंदुस्तानी समाज को अध्यक्ष के रूप में अपनी सेवाएँ देते रहे। 'मधु' जी यह बताते हुए बड़ा गर्व और गौरव का अनुभव करते थे कि हिंदुस्तानी समाज के तत्वावधान में दिनकर, बच्चन, फ़ैज़ अहमद ‘फ़ैज़’, अली सरदार जाफरी, इस्मत चुगताई, कैफ़ी आज़मी, यशपाल, कमलेश्वर, मोहन राकेश, प्रेमधवन, शिव मंगल सिंह ‘सुमन’, नागार्जुन, राजेंद्र अवस्थी, अशोक चक्रधर, लीलाधार मंडलोई, डॉक्टर बुद्धिनाथ मिश्र, नवाज़ देवबंदी जैसे कवियों और लेखकों के सम्मान में भारतीय राजदूतावास के सहयोग से मानीख़ेज़ कार्यक्रमों का आयोजन किया गया। हिंदुस्तानी समाज आज भी साहित्यिक-सांस्कृतिक कार्यक्रमों के आयोजन की स्वस्थ परंपरा को निर्बाध गति से आगे बढ़ा रहा है। 

सोवियत समाज में सोवियत नारियों के योगदान, उनके जीवन और उनकी गतिविधियों को भारतीय जनता, विशेष रूप से भारतीय नारियाँ जान सकें, इस मक़सद से रूसी भाषा में छपने वाली सोवियत-नारी पत्रिका को हिंदी में छापने की योजना बनी। इस संबंध में प्रकाशन-विभाग ने भीष्म साहनी और 'मधु' जी से संपर्क किया और उनसे ‘सोवियत नारी’ को हिंदी भाषा में प्रकाशित करने में सहयोग करने का अनुरोध किया। दोनों साहित्यकारों ने अपनी सहमति दे दी। सन १९५८ के  शुरूआती दौर में ‘सोवियत नारी’ की तीन हज़ार प्रतियाँ छपती थीं, यह संख्या १९९० में बढ़कर साढ़े तीन लाख हो गई थी। धर्मयुग और साप्ताहिक हिंदुस्तान भी संभवतया यह आँकड़ा कभी पार नहीं कर पाए।  

सन १९६३ में भीष्म साहनी के भारत लौट जाने पर सोवियत नारी की बड़ी ज़िम्मेदारी मदनलाल 'मधु' ने संभाली। पत्रिका को रोचक बनाने के लिए 'मधु' जी ने भारतीय साहित्यकारों से लेख लिखवाए, जिसके कारण पत्रिका उत्तरोत्तर लोकप्रिय होती गई। 

मदनलाल 'मधु' जी को १९९१ में भारत सरकार ने रूसी और हिंदी में सशक्त सेतु तैयार करने के लिए ‘पद्मश्री’ से अलंकृत किया। रूसी सरकार ने वर्ष २००१ में उन्हें विदेशियों को दिए जाने वाले सबसे बड़े सम्मान ‘मैत्री पदक’ से सम्मानित किया। अनुवाद के क्षेत्र में असाधारण योगदान देने के लिए भारतीय अनुवाद परिषद दिल्ली ने उन्हें “द्विवागीश” पुरस्कार से सम्मानित किया। वर्ष १९९९ में पूश्किन  की दूसरी जन्मशती मनाई गई और अंतर्राष्ट्रीय समारोह समिति द्वारा 'मधु' जी को ‘पूश्किन पदक’ से नवाज़ा गया। 'मधु' जी कहते थे कि मेरा एक बड़ा सम्मान यह भी है कि एक लोकप्रिय रूसी गीत के उनके द्वारा किए गए हिंदी अनुवाद को मॉस्को में लता मंगेशकर ने गाया और उस गीत की प्रस्तुति में उनकी लता जी के साथ सहभागिता रही।  

डॉक्टर मदनलाल 'मधु' का महत्त्वपूर्ण शोधकार्य ‘गोर्की और प्रेमचंद – दो अमर प्रतिभाएँ’ है। गोर्की के उपन्यास ‘माँ’ का अनुवाद दुनिया की तमाम भाषाओं में गोर्की के ज़िंदा रहते हो गया था। प्रेमचंद के साहित्य का अनुवाद बहुत धीरे-धीरे हुआ। रूसी भाषा में पहली बार इन दोनों महान कथाकारों के साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन करके प्रेमचंद के साहित्य के मर्म को रूसी पाठकों तक पहुँचाने का काम 'मधु' जी ने किया। प्रेमचंद जन्मशताब्दी १९८० पर प्रगति प्रकाशन, मॉस्को से 'मधु' जी की प्रकाशित इस पुस्तक का लोकार्पण मॉस्को में तत्कालीन सूचना और प्रसारण राज्यमंत्री राम दुलारी सिन्हा और राजदूत इंद्रकुमार गुजराल जी ने किया। वर्ष १९८७ में रादुगा प्रकाशन से इसका पुनः प्रकाशन हुआ। कन्नड़ भाषा में इस पुस्तक को प्रकाशित किया गया। गोर्की और प्रेमचंद के चाहने वालों के लिए यह पुस्तक अनमोल उपहार है। गोर्की और प्रेमचंद की दृष्टि में काफ़ी समानता के कारण ही प्रेमचंद को हिंदुस्तान का गोर्की कहा जाता है। यह पुस्तक डॉक्टर 'मधु' को एक आलोचक के रूप में स्थापित करने के लिए पर्याप्त है । 

'मधु' जी के मित्र, रूसी-हिंदी के विद्वान और पद्मभूषण से सम्मानित साहित्यकार चेलिश्येव ने मदनलाल 'मधु' जी के निधन पर अपनी श्रद्धांजलि देते हुए लिखा था –“मॉस्को में रहते हुए 'मधु' जी ने रूसी क्लासिक और आधुनिक साहित्य की सौ से ज़्यादा कृतियों का संपादन और अनुवाद किया। 'मधु' जी द्वारा किए गए शानदार अनुवाद और उनका साहित्यिक-श्रम चमकते कलशों की तरह आज भी हमारे बीच सुरक्षित है।

विद्वता और विनम्रता की प्रतिमूर्ति डॉक्टर मदनलाल 'मधु' ७ जुलाई २०१४ को इस जहां से रुख़सत हो गए। उनका काम आज भी साहित्यिक-स्तर पर भारत और रूस के बीच का सबसे मज़बूत पुल है, जिस पर चलकर दोनों देशों के नागरिक सतत नए अनुभव अर्जित करते हैं। 


जीवन परिचय : मदनलाल ‘मधु’

जन्म

२२ मई, १९२५, फिरोज़पुर, पंजाब 

मृत्यु 

७ जुलाई, २०१४, मॉस्को, रूस 

पिता 

श्री बुद्धराम 

माता 

श्रीमती कस्तूरी देवी 

पहली पत्नी 

मंजु मधु 

बेटा 

राजन मधु (उद्योगपति)

बेटी 

लवलीन मधु (सिने, दूरदर्शन एवं पत्रकारिता जगत से संलग्न)

जीवन संगिनी 

तान्या मधु 

शिक्षा

स्कूल एवं स्नातक शिक्षा: फिरोज़पुर, पंजाब 

स्नातकोत्तर अर्थशास्त्र, लाहौर विश्वविद्यालय, १९४७ 

व्यवसाय

प्राध्यापक, कवि, लेखक, अनुवादक 


रचनाएँ 

कविता संग्रह

  • उन्माद 

  • शून्य तथा 

  • गीत-अगीत

आत्मकथा 

  •  यादों के धुँधले उजले चेहरे (दो भागों में)

कुछ मुख्य अनूदित कृतियाँ 

  • युद्ध और शांति (तलस्तोय), रादुगा प्रकशन, मॉस्को, १९८७, चार खंडों में

  • आन्ना कारेनिना (तलस्तोय) प्रगति प्रकाशन, मॉस्को 

  • रजत रातें (फ़्योदर दस्तायेव्स्की, रादुगा, मॉस्को, १९८४    

  • गोर्की –चुनी हुई कहानियाँ, रादुगा प्रकशन, मॉस्को 

  • चेखव के नाटक, रादुगा प्रकशन, मॉस्को 

  • फ़्योदर दस्तायेव्स्की की कहानियाँ, रादुगा प्रकाशन  

  • रुदिन (उपन्यास) - तुर्गेंयेव, रादुगा प्रकाशन, मॉस्को, १९८६ 

  • पिता और पुत्र (उपन्यास) –तुर्गेंयेव, रादुगा प्रकाशन, ताशकंद , १९९०  

  • मेरा दागिस्तान –रसूल हमज़ातव, रादुगा प्रकाशन, १९९० 

  • बूढ़ा - गोर्की (नाटक), प्रगति प्रकाशन, मॉस्को 

  • दुश्मन- गोर्की (नाटक), विदेशी भाषा प्रकशनगृह, मॉस्को 

  • गोर्की –तीन नाटक, रादुगा प्रकाशन, मॉस्को, १९८५ 

  • अमर है दयालु देवता - अलेग बेन्युख़, मेधा, २००९ 

  • वैज्ञानिक काल्पनिक कहानियाँ –येफ़्रेमव, प्रगति प्रकाशन 

  • तीन नाटक, अस्त्रोव्स्की, रादुगा प्रकाशन, मॉस्को, १९८६ 

  • जमीला –चंगेज़ आइत्मातव, रादुगा प्रकाशन, मॉस्को, १९८४  

  • कविताएँ - मिख़ाइल लेरमंतफ़, प्रगति प्रकाशन, मॉस्को, १९८९  

  • तीन मोटे –यूरी अलेशा, रादुगा प्रकाशन, मॉस्को, १९८६  

  • रूपवती वसीलिसा, अद्भुत रूसी लोककथाएँ, रादुगा प्रकाशन, १९८६  

  • आएगा मन का मीत, अलेक्सांदर ग्रीन, रादुगा प्रकाशन, मॉस्को, १९८४ 

  • किरण की ओर - मुख़्तार ओज़व, प्रगति प्रकाशन, मॉस्को 

  • व्लादिमीर इलिच लेनिन –जीवन झाँकी, प्रगति प्रकशन, १९७१  

  • काँसे का पक्षी (उपन्यास) –अनातोली  रिबाकव, प्रगति प्रकाशन, १९७९  

  • उसका नाम है .. (उपन्यास) वेरा पनोवा, विदेशी भाषा प्रकाशनगृह 

  • काव्यांजलि - पूश्किन, जवाहर लाल नेहरू सांस्कृतिक केंद्र, मॉस्को, १९९९ 

  • टोकरी - वलेन्तीन बेरेस्तव, बाल लोक प्रकाशन, मॉस्को, १९८१  

  • सूरज ने कुर्ता सिया - लिथुआनियाई लोकगीत, प्रगति प्रकाशन 

  • मेरा भालू - ज़िनाईदा अलेकसांद्रवा, प्रगति प्रकाशन 

  • लोमड़ी और चिड़िया - रादुगा  प्रकाशन, मॉस्को 

  • रूसी लोकगीत - विदेशीभाषा प्रकाशन गृह, मॉस्को 

  • चींटा और अंतरिक्ष नाविक –अ० मित्यायेव  

  • अजूबे ही अजूबे (कविताएँ) -चुकोव्स्की, रादुगा प्रकाशन, १९८३ 

  • गोर्की और प्रेमचंद दो अमर प्रतिभाएँ - मदनलाल 'मधु', प्रगति प्र. १९८०  

  • अलेक्सांदर पूश्किन - चुनी हुई रचनाएँ, दो खंडों में, प्रगति प्रकाशन, १९८२ 

                         

पुरस्कार

  •   पद्मश्री सम्मान, १९९१  

  •    मैत्री पदक, रूसी सरकार, २००१  

  •    द्विवागीश पुरस्कार, भारतीय अनुवाद परिषद दिल्ली 

  •    पूश्किन पदक, १९९९ (पूश्किन की दूसरी जन्मशती के अवसर पर)    


संदर्भ 
  • गोर्की और प्रेमचंद दो अमर प्रतिभाएं - मदनलाल मधु              
  • यादों के धुंधले- उजले चेहरे भाग एक और दो - मदन लाल मधु    
  • मधु जी से व्यक्तिगत बातचीत वर्ष २००३, २००४, २००५ तथा २००९

लेखक परिचय

डॉ० इंद्रजीत सिंह 

संस्थापक – शैलेन्द्र सम्मान 

केन्द्रीय विद्यालय – देहरादून से प्राचार्य  के पद से हाल ही में सेवा-निवृत। साहित्य और शिक्षा के क्षेत्र में वाणी सम्मान, आरंभ सम्मान,  केन्द्रीय विद्यालय संगठन द्वारा राष्ट्रीय प्रोत्साहन पुरस्कार से पुरस्कृत। सामानांतर साहित्य उत्सव, जयपुर, विश्व पुस्तक मेला नई दिल्ली में व्याख्यान के लिए आमंत्रित। 

जनकवि शैलेन्द्र, धरती कहे पुकार के, तू प्यार का सागर है - पुस्तकों का सम्पादनसंपर्क – केन्द्रीय विद्यालय, भारतीय राजदूतावास, मॉस्को (रूस),  Mob- 9536445544;  email- indrajeetrita61@gmail.com

9 comments:

  1. सारगर्भित,प्रामाणिक और शोधपरक लेखन।अभिनंदन।

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  2. नमस्ते इंद्रजीत जी, पद्मश्री मदनलाल मधु जी को कई बार मंच से सुना था। वे मंद स्वर में, लेकिन एकदम स्पष्ट अपनी बात श्रोताओं तक पहुँचाते थे। उन्हें सुनना हमेशा आनंददायक और ज्ञानवर्धक होता था। आपके इन पर आलेख से इनके जीवन और कार्यों के बारे में विस्तृत जानकारी प्राप्त हुई। आपने मधुजी के साथ-साथ उस समय के सोवियत-समाज का भी अच्छा चित्र प्रस्तुत किया है। इस महत्त्वपूर्ण आलेख के लिए आपको बधाई और धन्यवाद।

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  3. इंद्रजीत जी, नमस्ते। मधु जी के जीवन का ख़ाका आपने उनके साथ साझा किए गए पलों की ज़बानी बहुत बढ़िया खींचा है। मधु जी ने अपने अथक श्रम से रूसी साहित्य का बड़ा भंडार हिंदी-भाषियों के समस्त खोला और अपने शोध के ज़रिये प्रेमचंद तथा आयोजित कवि सम्मेलनों के ज़रिए अनेक भारतीय साहित्यकारों का रूसवासियों से परिचय कराया। उनके सम्मान में हिंदुस्तानी समाज द्वारा प्रतिवर्ष अनुवाद प्रतियोगिता आयोजित करना और दूतावास द्वारा उनके लिए अपने पुस्तकालय का एक कोना समर्पित करना, मधु जी के काम के महत्त्व को रेखांकित करते हैं। मधु जी निश्चित ही भारत और रूस के बीच का सबसे मज़बूत और अहम सेतु हैं। आपको इस अनुपम लेख के लिए आभार और बधाई।

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  4. सत् श्री अकाल, इंद्रजीत सिंह जी। मुझे आपके आलेख इसलिए इतने अच्छे लगते हैं क्योंकि उनमें विषय-व्यक्ति के चारों ओर का परिवेश और समय- स्थान के समीकरण खुल कर पाठक के सामने आ जाते हैं। आपने मधु जी के कृतित्व का तो सुंदर वर्णन किया ही है, हमें भारत से रूस गए अनुवादकों और रूस में भारतीयों के तत्कालीन जीवन पर बहुत जानकारी मिली।आपको धन्यवाद, बधाई। 💐
    सत्तर और अस्सी के दशकों में भारत के शहरों में रूसी पुस्तक मेले लगा करते थे। बड़े से तंबू में किताबों के ढेर लगे होते थे। वहाँ से हम चार रुपए- छः रुपए में टॉल्सटॉय, गोर्की, चेखव, तुर्गनेव आदि के अमर उपन्यास ख़रीद लाते थे। मोटी-मोटी किताबें पढ़ते और रूस के बारे में, वहाँ के मौसम, क्रांति, संस्कृति, आदि के बारे में बड़ी रोचक सामग्री हासिल करते। आपका आलेख पढ़ने के बाद लगता है कि अधिकांश पुस्तकें मधु जी ने ही अनुवाद कर भेजी होंगी। उनका आभार कि उन्होंने हमारी किशोरावस्था को ऐसे अनमोल साहित्य से समृद्ध किया।💐💐

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  5. डॉ. इंद्रजीत जी नमस्ते। आपने एक और बढ़िया लेख हम पाठकों के लिए उपलब्ध कराया। आपके लेख के माध्यम से डॉ. मदन लाल जी के बारे में जानने का अवसर मिला। आपको इस जानकारी भरे लेख के लिए हार्दिक बधाई।

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  6. बहुत ही बढ़िया प्रवाह पूर्ण लेख । मदन लाल जी के बारे में जानकारी देने के साथ साथ आपने अनुवादकों के जीवन से संबंधित अनेक विषयों की जानकारी दी । प्रतिष्ठित भाषा का प्रयोग हमारे लिए अनुकरणीय है । बहुत - बहुत बधाई ।

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  7. नमस्ते इंद्रजीत जी, मदन लाल जी पर बहुत बढ़िया शोधपरक, तथ्यपरक और जानकारीपूर्ण आलेख प्रस्तुत किया है आपने। इस लेख को पढ़ते हुए, मदन लाल जी के व्यक्तित्व और कृतित्व को जानने का अवसर मिला। आपको बहुत बहुत बधाई ।

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  8. नमस्ते इंद्रजीत जी, अत्यंत रोचक, सामाजिक, राजनैतिक पृष्ठभूमि की महत्ता स्थापित करता हुआ, अनुवाद के इन महत्वपूर्ण सेतुबंध आदरणीय मधु जी पर आपका आलेख सिलसिलेवार, और लेखकीय समझ से परिपूर्ण है। चूँकि आप उन्हें व्यक्तिगत रूप से जानते थे तो आपके पास अगाध कहानियाँ होंगी, उन सब में से सबसे ज़रूरी बातों को चुन कर इतना कहानी नुमा, बिना clutter के आलेख लिखना आपके ही बस का था!
    साधुवाद 🙏🏻 सलाम!
    हम सच में भाग्यशाली हैं कि हमें इस परियोजना में रूस से प्रभावशाली लेखक, पाठक और संपादक मिले हैं।
    —-
    मेरा स्वयं का बचपन कोटा राजस्थान में बीता। बाबूजी इन्सट्रूमेंटेशन लिमिटेड में काम करते थे। मैं केन्द्रीय विद्यालय में पढ़ती थी। तो हर प्रतियोगिता पुरस्कार में रूसी किताबों के अनुवाद मिलते। प्रदर्शनियों में हम अनुवाद ख़रीदने, रूसी पत्रिका सोवियत ?(something) घर आती रहती। इसलिए जब से साहित्य पढ़ने की उम्र हुई शरतचंद्र, प्रेमचंद, तोलस्तॉय और चेखव साथ पढ़े। ‘रकाबी’ और ‘खुमैनी’, ‘बबुश्का’ और ‘ईवान’ जैसे हज़ारों शब्द मानस में रचे बसे रहे। शायद इसीलिए कभी मन में विदेश का कोई डर न रहा। आज इस करामात के पीछे का नाम, श्रम और चेहरे से रूबरू होकर कृतज्ञता से नतमस्तक हूँ!
    सलाम क़ुबूल कीजिए

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  9. Vijay Prabhakar NagarkarJuly 20, 2022 at 9:08 PM

    इंद्रजीत जी, आपने डॉ मदन लाल ' मधु ' जी के अनुवाद कार्य और हिंदी सेवा की अद्भुत जानकारी प्रदान की है। हिंदीतर लेखक शिविर में रसूल हमजातोव की रचना 'मेरा दागिस्तान ' पढ़ने का सौभाग्य मिला था। बहुत दिनों के बाद पता चला की पुस्तक का अनुवाद डॉ मदन लाल ' मधु ' जी ने किया है। अनुवादकों के लिए उनका अनुवाद कार्य हमेशा प्रेरणास्पद और मार्गदर्शक रहेगा। साधुवाद।🙏🙏🙏

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            1वह आदमी उतर गया हृदय में मनुष्य की तरह - विनोद कुमार शुक्ल
2अंतः जगत के शब्द-शिल्पी : जैनेंद्र कुमार 3हिंदी साहित्य के सूर्य - सूरदास 4“कल जिस राह चलेगा जग मैं उसका पहला प्रात हूँ” - गोपालदास नीरज 5काशीनाथ सिंह : काशी का अस्सी या अस्सी का काशी 6पौराणिकता के आधुनिक चितेरे : नरेंद्र कोहली 7समाज की विडंबनाओं का साहित्यकार : उदय प्रकाश 8भारतीय कथा साहित्य का जगमगाता नक्षत्र : आशापूर्णा देवी
9ऐतिहासिक कथाओं के चितेरे लेखक - श्री वृंदावनलाल वर्मा 10आलोचना के लोचन – मधुरेश 11आधुनिक खड़ीबोली के प्रथम कवि और प्रवर्तक : पं० श्रीधर पाठक 12यथार्थवाद के अविस्मरणीय हस्ताक्षर : दूधनाथ सिंह 13बहुत नाम हैं, एक शमशेर भी है 14एक लहर, एक चट्टान, एक आंदोलन : महाश्वेता देवी 15सामाजिक सरोकारों का शायर - कैफ़ी आज़मी
16अभी मृत्यु से दाँव लगाकर समय जीत जाने का क्षण है - अशोक वाजपेयी 17लेखन सम्राट : रांगेय राघव 18हिंदी बालसाहित्य के लोकप्रिय कवि निरंकार देव सेवक 19कोश कला के आचार्य - रामचंद्र वर्मा 20अल्फ़ाज़ के तानों-बानों से ख़्वाब बुनने वाला फ़नकार: जावेद अख़्तर 21हिंदी साहित्य के पितामह - आचार्य शिवपूजन सहाय 22आदि गुरु शंकराचार्य - केरल की कलाड़ी से केदार तक
23हिंदी साहित्य के गौरव स्तंभ : पं० लोचन प्रसाद पांडेय 24हिंदी के देवव्रत - आचार्य चंद्रबलि पांडेय 25काल चिंतन के चिंतक - राजेंद्र अवस्थी 26डाकू से कविवर बनने की अद्भुत गाथा : आदिकवि वाल्मीकि 27कमलेश्वर : हिंदी  साहित्य के दमकते सितारे  28डॉ० विद्यानिवास मिश्र-एक साहित्यिक युग पुरुष 29ममता कालिया : एक साँस में लिखने की आदत!
30साहित्य के अमर दीपस्तंभ : श्री जयशंकर प्रसाद 31ग्रामीण संस्कृति के चितेरे अद्भुत कहानीकार : मिथिलेश्वर          

आचार्य नरेंद्रदेव : भारत में समाजवाद के पितामह

"समाजवाद का सवाल केवल रोटी का सवाल नहीं है। समाजवाद मानव स्वतंत्रता की कुंजी है। समाजवाद ही एक सुखी समाज में संपूर्ण स्वतंत्र मनुष्यत्व...