स्कूली दिनों में हिंदी बाल भारती की पुस्तक से कोई पद पढ़ाया जा रहा था और शिक्षिका ने एक प्रसिद्ध दोहा कहा:
सूर सूर तुलसी ससी, उडुगन केशवदास। अब के कवि खद्योत सम, जहँ-तहँ करत प्रकास॥
इसे समझाते हुए उन्होंने बताया था कि सूरदास की तुलना हिंदी साहित्य में सूर्य से की गई है। उस किशोरवय में मन में बहुत सहज प्रश्न उमड़ा कि अपनी पृथ्वी का सूर्य तो एक ही है फिर ऐसी क्या बात है भक्तिकालीन इस कवि में कि वे सूरज कहलाते हैं।
सूरदास के विषय में यह प्रसिद्ध है कि वे वे जन्मांध थे। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के अनुसार, “वह इस असार संसार को न देखने के वास्ते आँखें बन्द किये थे।” एक अन्य प्रसंग के अनुसार महाभारतकालीन उद्धव ही पुनर्जन्म लेकर सूरदास हुए थे और उन्होंने जन्म लेने से पूर्व ही श्रीकृष्ण से अंधत्व माँग लिया था। सूरसागर के कुछ पदों में सूर स्वयं को जन्म से अंधा और कर्म से अभागा कहते हैं। एक कथा के अनुसार एक बार वे कुएँ में गिर गए थे और श्रीकृष्ण स्वयं उन्हें निकालने आए थे और सूरदास ने उन्हें देखने की इच्छा प्रकट की थी, क्षणार्थ में श्रीकृष्ण को उन्होंने देखा और फिर अपने लिए अंधत्व माँग लिया। एक अन्य कहानी है कि सूरदास ने एक बार नदी किनारे एक सुंदर युवती को देखा और उसे देखते-देखते वे लिखना भूल गए, यह सिलसिला लंबा चलता रहा। एक बार सूरदास एक विवाहिता के पीछे-पीछे उसके घर तक पहुँच गए, तब उन्हें अपराध बोध हुआ और उन्होंने दो जलती हुई सिलाई माँग ली और आँखों में डाल ली तब से वे सूरदास हो गए। हालाँकि उनकी माँ उन्हें बचपन में सूरा कहा करती थीं। उनके दृष्टिहीन होने को लेकर संभ्रम इसलिए भी रहा है क्योंकि जिस तरह उन्होंने ब्रजभाषा में श्रीकृष्ण की लीलाओं का गान किया है उसे सुनकर यह सोच पाना कठिन है कि बिना देखे कोई इतना सुंदर वर्णन कैसे कर सकता है। कहा तो यह भी जाता है कि सूरदास से एक बार मथुरा में तुलसीदास की भेंट हुई थी और दोनों में मैत्री-भाव हो गया था। सूर से प्रभावित होकर ही तुलसीदास ने ‘श्रीकृष्ण–गीतावली’ की रचना की थी। एक किंवदंति यह भी है कि तानसेन से सूरदास का यश सुनकर अकबर उनसे मिलने आए और उनके भक्ति-पदों को सुनकर बहुत प्रभावित हुए थे।
सूरदास की जन्मतिथि एवं जन्मस्थान के विषय में विद्वानों में मतभेद है। इनके जन्म-स्थान को एक पद में समेटा गया है –
रामदास सुत सूरदास ने, जन्म रुनकता में पाया।
गुरु बल्लभ उपदेश ग्रहण कर, कृष्णभक्ति सागर लहराया।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने सूरदास का जन्म विक्रम संवत १५४० (सन १४८३) के लगभग माना है, क्योंकि वल्लभ संप्रदाय में ऐसी मान्यता है कि बल्लभाचार्य सूरदास से दस दिन बड़े थे और बल्लभाचार्य का जन्म उक्त संवत् की वैशाख कृष्ण एकादशी को हुआ। अनेक प्रमाणों के आधार पर उनकी मृत्यु विक्रम संवत् १६२० (सन १५६३) से १६४८ (सन १५९१) के मध्य स्वीकार की जाती है। सूरसारावली की रचना करते समय सूरदास की आयु सूरसारावली के अनुसार ६७ वर्ष थी। आइने अकबरी में (संवत् १६५३) तथा "मुतखबुत-तवारीख" के अनुसार सूरदास को अकबर के दरबारी संगीतज्ञों में माना गया है। पर कुछ लोगों का कहना है कि वे सूरदास और ये सूरदास दो अलग थे। साहित्यलहरी के अंतिम पद में सूरदास का वंशवृक्ष दिया है, जिसके अनुसार उनका नाम ‘सूरजदास’ है और वे चन्दबरदायी के वंशज सिद्ध होते हैं। सूरदास जी का विवाह भी हुआ था तथा विरक्त होने से पहले वे अपने परिवार के साथ रहा करते थे। सूरदास को ब्रजभाषा के साथ अवधी, संस्कृत और फारसी का भी ज्ञान था।
सूरदास जी वल्लभाचार्य के शिष्य थे, ‘श्री गुरूवल्लभ तत्व सुनायो, लीला भेद बतायो’, और उनके साथ ही मथुरा के गऊघाट पर श्रीनाथ जी के मंदिर में रहते थे। वल्लभाचार्य से दीक्षा लेने से पहले सूरदास विनय और दैन्यभाव के पद लिखते थे:
'प्रभु मैं पतितन को टीकौ।
और पतित सब दिवस चारि के हौँ तो जनमत ही कौ।'
वल्लभाचार्य के कथन, 'सूर होके घिघियात क्यों हौ?' के पश्चात कृष्ण के प्रति उनकी अनन्य भक्ति इन पंक्तियों द्वारा व्यक्त हुई।
'मेरौ मन अनत कहाँ सुख पावै।
जैसे उड़ि जहाज कौ पंछी फिर जहाज पै आवे।'
वल्लाभाचार्य से प्रेरणा और भागवत का आधार लेकर सूरदास ने बालकृष्ण की लीला का अत्यंत मनोहारी चित्रण किया। बाललीला के प्रसंग में सूर का बालमनोविज्ञान का ज्ञान देखने को मिलता है। बालक कृष्ण के रूप का वर्णन करते समय सूर ने नवीन उपमा और उत्प्रेक्षा का सुंदर प्रयोग किया है। उनके सुंदर श्यामल स्वरूप को देखकर माता यशोदा के हृदय में सुख का सागर हिलोरे भरता है| इसमें माँ के वात्सल्य-गदगद हृदय की छवि है।
'हौं बलि जाऊँ छबीले लाल की
धूसर धूरि घुटुरुवन रेंगनि, बोलनि वचन रसाल की’
इसी प्रकार:
'यशोदा हरि पालने झुलावै
हलरावै, दुलरावै,मल्हावै,जोइ सोइ कछु गावै
मेरे लाल को आउ निंदरिया काहे न आनि सुलावै’
बालकृष्ण को सोता जानकर जब माँ यशोदा लोरी गाना बंद कर देती हैं तो –
'इहि अंतर अकुलाय उठै हरि जसुमति मधुरै गावै’ में बालक की प्रकृति का अत्यंत स्वाभाविक वर्णन है।
माखन चोरी करते समय पकड़े जाने पर कृष्ण का सफाई देना:
'ख्याल परै ये सखा सबै मिले मेरे मुख लपटायौ’, '
मैया मोहि दाऊ बहुत खिझायौ, मोसौं कहत मोल कौ लीन्हौ, तू जसुमति कब जायौ’
आदि पदों में पुष्टिमार्गीय साधना करते हुए उन्होंने श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं के साथ बाल मनोविज्ञान को बहुत कुशलता से उकेरा है। वात्सल्य रस के अनूठे प्रसंगों के कारण ही आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने लिखा था, 'वात्सल्य के क्षेत्र में जितना अधिक उद्घाटन सूर ने अपनी बंद आँखों से किया, उतना और किसी कवि ने नहीं, वे इसका कोना-कोना झाँक आए हैं।’
सूर ने भक्ति के साथ श्रृंगार को जोड़कर उसके संयोग और वियोग पक्ष का अद्वितीय चित्रण किया है। राधा और कृष्ण के प्रेम की तन्मयता का उदाहरण :
सूर स्याम देखत ही रीझे नैन-नैन मिले परी ठगोरी’ में ब्रजभाषा का माधुर्य और श्याम का रीझना एक साथ छलकता है।
कृष्ण के मथुरा चले जाने पर गोपियों के साथ ब्रज की प्रकृति भी विरहाकुल है। सूर का भ्रमरगीत वियोग श्रृंगार का श्रेष्ठ काव्य ही नहीं निर्गुण भक्ति पर सगुण भक्ति की सुलभता का दार्शनिक आख्यान भी है। उद्धव-गोपी-संवाद में सूर की वचन-पटुता अपने चरम रूप में है:
वे कभी 'लरिकाई कौ प्रेम कहो सखि कैसे छूटे' कहकर कृष्ण को भुलाने में अपनी विवशता व्यक्त करती हैं और कभी ''ऊधौ मन नाहीं दस बीस/ एक हुतौ जो गयो स्याम संग को आराधै ईस?’ कह कर निर्ग़ुण की आराधना पर अपनी असमर्थता प्रकट करती हैं।
साथ ही वे ज्ञान-मार्ग का उपहास भी करती हैं: 'अंग भस्म करी सीस जटा धरि, सिखवत निरगुन फीकौ।' गोपियों की सहृदयता, भावुकता, चतुरता और वाग्वैदग्ध्य के सामने उद्धव का शुष्क ज्ञान लुप्त हो गया और वे योग का बेड़ा डुबाकर मधुपुरी के लिए प्रस्थान करते हैं, 'सूर मधुप उठि चल्यो मधुपुरी बोरि जोग को बेरो।‘
सूरसागर’ में श्रीकृष्ण की बाल-लीलाओं, गोपी-प्रेम, उद्धव-गोपी संवाद और गोपी-विरह का बड़ा सरस वर्णन है। इसके दो प्रसंग ‘कृष्ण की बाल-लीला’ और ‘भ्रमर-गीतसार’ अत्यधिक महत्त्वपूर्ण हैं। संपूर्ण ‘सूरसागर’ एक गीतिकाव्य है। इसमें कृष्ण की अनंत महिमा का गान है और सूर सारावली को उसका ही सारभाग कहा जाता है। यह वृहद् होली के गीत रूप में आता है, जिसकी टेक है- खेलत यह विधि हरि होरी हो, हरि होरी हो वेद विदित यह बात और उसका सार सारावली में मिलता है। इसमें रस, अलंकार और नायिका-भेद का प्रतिपादन किया गया है। इस कृति का रचना-काल स्वयं कवि ने दे दिया है जिससे यह विक्रम संवत १६०७ में रचित सिद्ध होती है। रस की दृष्टि से यह ग्रंथ विशुद्ध श्रृंगार की कोटि में आता है।
दास्य-भाव, सख्य-भाव, वात्सल्य-भाव एवं माधुर्य-भाव की भक्ति द्वारा निर्गुण पर सगुण भक्ति की प्रतिष्ठा से सूरदास का भावपक्ष जितना समृद्ध है कलापक्ष भी उतना ही महत्वपूर्ण है। ब्रजभाषा में गीत शैली में भावों की अभिव्यंजना करने आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के शब्दों में 'सूरदास जब अपने प्रिय विषय का वर्णन शुरू करते हैं तो मानो अलंकार-शास्त्र हाथ जोड़कर उनके पीछे-पीछे दौड़ा करता है। उपमाओं की बाढ़ आ जाती है, रूपकों की वर्षा होने लगती है।’ उदाहरणस्वरूप कोमलकांत पदावली, 'हलरावै, दुलरावै,मल्हावै, जोइ सोइ कछु गावै’, भावानुकूल शब्द-चयन, 'लरिकाई कौ प्रेम कहो सखि कैसे छूटे?’, सार्थक अलंकार योजना, ‘सूर बिरह की कौन चलावै, बूड़ति मनु बिनु पानी’, अलंकारों का समुचित प्रयोग, ‘कनक बेलि कामिनी ब्रजबाला’, ‘देन आए ऊधौ मत नीकौ’-में वक्रोक्ति आदि अलंकारों से समृद्ध करके सूरदास ने ब्रजभाषा को साहित्यिक रूप दिया।
स्वरांगी साने कविता, कथा, अनुवाद, संचालन, स्तंभ-लेखन, पत्रकारिता, अभिनय, नृत्य, साहित्य-संस्कृति-कला समीक्षा, आकाशवाणी और दूरदर्शन पर वार्ता और काव्यपाठ आदि क्षेत्रों में सक्रिय हैं।
इनका काव्य संग्रह “शहर की छोटी-सी छत पर” 2002 में मध्य प्रदेश साहित्य परिषद, भोपाल द्वारा स्वीकृत अनुदान से प्रकाशित हुआ और “वह हँसती बहुत है” महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी, मुंबई द्वारा द्वारा स्वीकृत अनुदान से वर्ष 2019 में प्रकाशित हुआ।
डॉ अरुणा अजितसरिया एम बी ई , पेशे से अध्यापन और देश-विदेश के हिंदी, अंग्रेज़ी और फ्रेंच साहित्य के अध्ययन और समीक्षा में रुचि, सम्प्रति केम्ब्रिज विश्वविद्यालय की अंतरराष्ट्रीय शाखा में हिंदी की मुख्य परीक्षक और प्रशिक्षक के रूप में कार्यरत।
सूर ने भक्ति के साथ श्रृंगार को जोड़कर उसके संयोग और वियोग पक्ष का अद्वितीय चित्रण किया है। राधा और कृष्ण के प्रेम की तन्मयता का उदाहरण :
'खेलत हरि निकसे ब्रज खोरी
औचक ही देखी तहँ राधा नयन विसाल भाल दिए रोरी
सूर स्याम देखत ही रीझे नैन-नैन मिले परी ठगोरी’ में ब्रजभाषा का माधुर्य और श्याम का रीझना एक साथ छलकता है।
कृष्ण के मथुरा चले जाने पर गोपियों के साथ ब्रज की प्रकृति भी विरहाकुल है। सूर का भ्रमरगीत वियोग श्रृंगार का श्रेष्ठ काव्य ही नहीं निर्गुण भक्ति पर सगुण भक्ति की सुलभता का दार्शनिक आख्यान भी है। उद्धव-गोपी-संवाद में सूर की वचन-पटुता अपने चरम रूप में है:
गोपियाँ उद्धव से पूछती हैं,
'निर्गुण कौन देस को बासी?
मधुकर हँसि समुझाव, सौँह दै, बूझति साँच न हाँसी।'
वे कभी 'लरिकाई कौ प्रेम कहो सखि कैसे छूटे' कहकर कृष्ण को भुलाने में अपनी विवशता व्यक्त करती हैं और कभी ''ऊधौ मन नाहीं दस बीस/ एक हुतौ जो गयो स्याम संग को आराधै ईस?’ कह कर निर्ग़ुण की आराधना पर अपनी असमर्थता प्रकट करती हैं।
साथ ही वे ज्ञान-मार्ग का उपहास भी करती हैं: 'अंग भस्म करी सीस जटा धरि, सिखवत निरगुन फीकौ।' गोपियों की सहृदयता, भावुकता, चतुरता और वाग्वैदग्ध्य के सामने उद्धव का शुष्क ज्ञान लुप्त हो गया और वे योग का बेड़ा डुबाकर मधुपुरी के लिए प्रस्थान करते हैं, 'सूर मधुप उठि चल्यो मधुपुरी बोरि जोग को बेरो।‘
सूरसागर’ में श्रीकृष्ण की बाल-लीलाओं, गोपी-प्रेम, उद्धव-गोपी संवाद और गोपी-विरह का बड़ा सरस वर्णन है। इसके दो प्रसंग ‘कृष्ण की बाल-लीला’ और ‘भ्रमर-गीतसार’ अत्यधिक महत्त्वपूर्ण हैं। संपूर्ण ‘सूरसागर’ एक गीतिकाव्य है। इसमें कृष्ण की अनंत महिमा का गान है और सूर सारावली को उसका ही सारभाग कहा जाता है। यह वृहद् होली के गीत रूप में आता है, जिसकी टेक है- खेलत यह विधि हरि होरी हो, हरि होरी हो वेद विदित यह बात और उसका सार सारावली में मिलता है। इसमें रस, अलंकार और नायिका-भेद का प्रतिपादन किया गया है। इस कृति का रचना-काल स्वयं कवि ने दे दिया है जिससे यह विक्रम संवत १६०७ में रचित सिद्ध होती है। रस की दृष्टि से यह ग्रंथ विशुद्ध श्रृंगार की कोटि में आता है।
दास्य-भाव, सख्य-भाव, वात्सल्य-भाव एवं माधुर्य-भाव की भक्ति द्वारा निर्गुण पर सगुण भक्ति की प्रतिष्ठा से सूरदास का भावपक्ष जितना समृद्ध है कलापक्ष भी उतना ही महत्वपूर्ण है। ब्रजभाषा में गीत शैली में भावों की अभिव्यंजना करने आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के शब्दों में 'सूरदास जब अपने प्रिय विषय का वर्णन शुरू करते हैं तो मानो अलंकार-शास्त्र हाथ जोड़कर उनके पीछे-पीछे दौड़ा करता है। उपमाओं की बाढ़ आ जाती है, रूपकों की वर्षा होने लगती है।’ उदाहरणस्वरूप कोमलकांत पदावली, 'हलरावै, दुलरावै,मल्हावै, जोइ सोइ कछु गावै’, भावानुकूल शब्द-चयन, 'लरिकाई कौ प्रेम कहो सखि कैसे छूटे?’, सार्थक अलंकार योजना, ‘सूर बिरह की कौन चलावै, बूड़ति मनु बिनु पानी’, अलंकारों का समुचित प्रयोग, ‘कनक बेलि कामिनी ब्रजबाला’, ‘देन आए ऊधौ मत नीकौ’-में वक्रोक्ति आदि अलंकारों से समृद्ध करके सूरदास ने ब्रजभाषा को साहित्यिक रूप दिया।
सूरदास का जीवन परिचय (संक्षिप्त परिचय)
लेखक परिचय:
इनका काव्य संग्रह “शहर की छोटी-सी छत पर” 2002 में मध्य प्रदेश साहित्य परिषद, भोपाल द्वारा स्वीकृत अनुदान से प्रकाशित हुआ और “वह हँसती बहुत है” महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी, मुंबई द्वारा द्वारा स्वीकृत अनुदान से वर्ष 2019 में प्रकाशित हुआ।
डॉ अरुणा अजितसरिया एम बी ई , पेशे से अध्यापन और देश-विदेश के हिंदी, अंग्रेज़ी और फ्रेंच साहित्य के अध्ययन और समीक्षा में रुचि, सम्प्रति केम्ब्रिज विश्वविद्यालय की अंतरराष्ट्रीय शाखा में हिंदी की मुख्य परीक्षक और प्रशिक्षक के रूप में कार्यरत।
बचपन में पढ़े हुए साहित्य में से वह जो कभी नहीं भूलता , उसमें सूर के पद भी हैं । “ यह ले तेरी लकुटि कमरिया “ तो मेरे भीतर ही चला गया और फिर कभी परेशानी नहीं हुई। कोई तनाव का कारण बने तो अपने राम सामने वाले से सीधे कह देते : यह ले तेरी लकुटि कमरिया। 😊 “ मैं नहीं माखन खायो “ और “ दाऊ बहुत खिजायो” तो मधुरता और बाल्य- सुलभता के प्रतीक हैं ही।
ReplyDeleteअरुणा जी और स्वरांगी जी ने सूर-संसार की सुंदर प्रस्तुति की है। बधाई । 💐💐
बचपन में सूरदास जी को जितना पढ़ा वो अभी तक भी सरस लगता है। उसी सरस कवि के साहित्य के बारे में इस रोचक लेख के माध्यम से पुनः नई जानकारी के साथ पढ़ने को मिला तो मन आनन्दित हो उठा। स्वरांगी जी एवं अरुणा जी को इस महत्वपूर्ण लेख के लिए हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteसूरदास जी के बारे में यह लेख पढ़कर उनके प्रति श्रद्धा भाव एक बार फिर और बढ़ गया। उनके द्वारा किया गया वात्सल्य वर्णन निश्चित ही अद्भुत है। इस लेख में अन्य रसों और भावों से ओत-प्रोत उनकी रचनओं के अद्भुत उदाहरण हैं। भक्तिकाल के इस सूर्य से सुन्दर परिचय के लिए अरुणा जी और स्वरांगी का बहुत बहुत आभार और उन्हें ढेरों बधाइयाँ।
ReplyDeleteवात्सल्य रस के सम्राट महाकवि सूरदासजी श्री कृष्ण की बाल मनोवृत्तियों और मानव स्वभाव का वर्णन करने वाले महान रचनाकार थे। उनकी भक्तिरस की रचनाओं ने श्रृंगार रस से जोड़ कर काव्य को एक नई और अद्भभुत दिशा की ओर मोड़ दिया था। आद. स्वरांगी जी और आद. अरुणा जी का परिश्रम और शोध दोनों इस लेख से पाठक मन को तृप्त करता हैं। पूरा लेख भरपूर जानकारी से साथ लिखा गया हैं। महाकवि सूरदास जी के जीवनकाल से एक बार पुनः परिचित कराने के लिए आप दोनों का बहुत आभार एवं अग्रिम लेख के लिए ढ़ेर सारी शुभकामनाएं।
ReplyDeleteकृष्ण के प्रति सख्य भाव की भक्ति रखने वाले सगुण भक्तिधारा के प्रमुख कृष्णमार्गी कवि सूरदास पर इतना समृद्ध और सारगर्भित लेख लिखने के लिए स्वरांगी जी व अरुणा जी का आभार।
ReplyDeleteकहते हैं कि अकबर के दरबार से न्यौता आने पर सूर ने कहा था "मोको कहाँ सीकरी सो काम"!
ऐसे स्वाभिमानी कवि थे सूरदास जिन्होंने कृष्ण आराधना में जीवन अर्पित कर के काव्य माधुर्य को नई उपमाएँ दीं।
अत्यंत सुंदर प्रस्तुतीकरण।