किसी कार्य की आधारशिला
रखने वाला व्यक्ति इतिहास के पन्नों पर चिरकाल के लिए अंकित हो जाता है। वक्त की
आँधी उसे धूमिल भले ही कर दे, उसके कर्मों का मान कम करने की हैसियत समय में भी नहीं होती। आचार्य नलिन विलोचन शर्मा
एक ऐसे ही साहित्यकार हैं जिन्हें मुख पृष्ठ से हटाकर संदर्भों तक सीमित कर दिया
गया। किंतु हिंदी साहित्य में उनके योगदान को न तो नाकारा जा सकता है, न ही विस्मृत किया जा सकता है। साहित्येतिहास के पुरोधा, प्रपद्यवादी कविताओं के प्रणेता, समालोचना के अविचल
आलोचक, बेख़ौफ़ संपादक और भारतीय वांग्मय में प्राणधारा का
संचार करने वाले एक विपुल सृजक के रूप में हिंदी साहित्य जगत उन्हें सदैव याद
रखेगा। अपने लघु जीवनकाल में ही इस महान विभूति ने हिंदी साहित्य को अविस्मरणीय विशालता प्रदान की है। उनके जीवन और लेखन की एक छोटी सी झलक
आपके समक्ष प्रस्तुत है,
अणु-बम से पहले का
अणु-भाष्य है।
स्फोट से बहुत पहले
स्फोटवाद था।
व्यक्तिगत जीवन
दर्शन और संस्कृत के ख्यातिलब्ध विद्वान महामहोपाध्याय पंडित रामावतार शर्मा और माता रत्नावती के ज्येष्ठ पुत्र के रूप में नलिन विलोचन शर्मा का जन्म १८ फरवरी १९१६ को पटना में हुआ था। पिता स्वयं एक प्रकांड पंडित थे और संस्कृत के अतिरिक्त हिंदी, अंग्रेज़ी, लैटिन, फ़्रेंच और जर्मन भाषाओं पर अधिकार रखते थे। नलिन को पिता की यह धरोहर विरासत में मिली। हिंदी, अंग्रेज़ी व संस्कृत पर पूर्ण अधिकार के साथ वे भी जर्मन और फ़्रेंच का आंशिक ज्ञान रखते थे। जब वे तेरह वर्ष के थे, सिर से पिता का साया उठ गया। घर पर पढ़ाने वाला कोई न था। पटना कॉलेजियट नामक विद्यालय से उन्होंने १९३१ में मैट्रिक की परीक्षा पास की। उच्च शिक्षा के लिए पटना विश्वविद्यालय गए। १९३८ में यहाँ से संस्कृत में एमए किया और फिर आई०सी०एस० की परीक्षा में भी शामिल हुए। अध्ययन का जो बीज पिता ने बालपन में बोया था, उम्र के साथ-साथ उसकी जड़ें और गहराती गई थीं। अपने एक संस्मरण में डॉ० नगेंद्र लिखते हैं, "आई०सी०एस० के योग्य व्यक्तित्व संपत्ति उन्हें सहज ही प्राप्त थी। किंतु उनके पास कुछ ऐसा भी था जो आई०सी०एस० के लिए अपेक्षित योग्यता की परिधि में नहीं समा पाता था - पांडित्य का आत्मगौरव और स्वाधीन चेतना कलाकार के मन की मस्ती... परीक्षा केवल व्यापक अध्ययन के लिए ब्याज-मात्र थी।"
नलिन विलोचन शर्मा ने
अपने व्यावसायिक जीवन की शुरुआत उम्र के छब्बीसवें पड़ाव पर ही कर दी थी जब उनकी
नियुक्ति हरप्रसाद जैन कॉलेज (आरा, बिहार) में संस्कृत के अध्यापक के रूप में हुई। यहाँ पढ़ाते हुए भी उनका
स्वाध्याय चलता रहा और उन्होंने हिंदी में एमए कर लिया। शोध-अनुसंधान में भी
उन्हें विशेष रूचि थी। 'कौटिल्य के अर्थशास्त्र में दंड-विधान' और 'रंगमंच तथा नाटक' विषयों पर उन्होंने गहन शोध किया किंतु अपरिहार्य
कारणों से ये-दोनों शोध-प्रबंध अधूरे रह गए। बहरहाल, अपने
शहर पटना लौटने की इच्छा उन्हें २४ सितंबर १९४८ को वापस ले आई। यहाँ उनकी नियुक्ति
बतौर प्राध्यापक पटना कॉलेज के हिंदी विभाग में हुई। कुछ ही वर्षों में वे पटना
विश्वविद्यालय के अध्यक्ष नियुक्त हुए और आजीवन इस पद की गरिमा बढ़ाते रहे।
नलिन ने अपने समय की एक नवोदित चित्रकार कुमुद से १९४१ में प्रेम विवाह किया था। रूप-गुण से संपन्न कुमुद ने नलिन की विकास यात्रा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। वे नलिन के लिए कभी 'गृहणी' थीं, कभी 'सचिव' तो कभी 'सखी'। यह उन्हीं की सूझ-बुझ और सजगता का परिणाम है कि नलिन जी की अकस्मात मृत्यु के पश्चात उनका बिखरा साहित्य संग्रहित हो सका और 'नलिन रचनावली' के रूप में साहित्यिक समाज के सामने आ सका (हालाँकि यह भी पूर्ण नहीं है)।
नलिन विलोचन का रचना-संसार
अधुना हमारे पास विशाल योजनाएँ हैं--
शीतापंत्रित प्रशालाएँ हैं,
जहाँ आविष्कारों के बदले, दर्शन और शायरी है,
भारतीय संस्कृति और बुशर्ट है, अनन्त उपसमितियाँ हैं,
और पैसों को पानी समझने का
निष्काम कर्म है।
हमारे महर्षियों के विदेशी शिष्य होते हैं,
नहीं तो बिचारे बाबा ही रह जाते हैं।
हमारी नारियाँ सौंदर्य--प्रतियोगिताओं में भाग
नहीं लेती हैं, भागती
हैं।
हम विदेशी जासूसों से अपने रहस्य
छिपा सकते या नहीं सकते
(हिंदी में जासूसी उपन्यास ही नहीं)*,
लेकिन अपने भिक्षुओं और वेश्याओं का
हम विदेशी अतिथियों के सामने प्रदर्शन नहीं करते।
(सामसिक संस्कृति के प्रतीक)
हम निषेधों के कर्मकांड की नई संस्कृति
बना रहे हैं।
[*यह बात १९५० के दशक की है, इसे आज की तारीख से न जोड़ा जाए]
१९ वीं और २० वीं सदी के उतरार्ध में सक्रिय श्यामसुंदर दास और आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने हिंदी साहित्य जगत में अपनी जो पहचान बनाई, कुछ वैसी ही साख सदी के पाँचवे और छठे दशक में सक्रिय रहे आचार्य शिवपूजन सहाय और आचार्य नलिन विलोचन शर्मा की है। नलिन की कलम की धार तो आरंभ से ही पैनी थी, उस पर प्रगतिशील सोच और वैज्ञानिक दृष्टिकोण ने उनकी लेखनी को विलक्षण और उत्कृष्ट बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। कद-काठी से निराला को भी मात देने वाले नलिन ने हिंदी साहित्य के कुछ ऐसे पहलुओं को छुआ जिसे उनसे पहले किसी ने सोचा नहीं था। एक तरफ गद्य और पद्य की सभी विधाओं में विपुल सृजन कर वे अपनी सर्वोन्मुखी प्रतिभा का परिचय देते हैं तो दूसरी तरफ साहित्यालोचन और सृजनात्मक साहित्य के नए मानदंड स्थापित कर अपने ज्ञान की गहराइयों से भी अवगत कराते हैं। उनकी अनेक विशेषताओं में सबसे उल्लेखनीय यह है कि अन्य साहित्यकार जिन बातों को कहने में तीन-चार पृष्ठों का सहारा लेते थे, वहीं आचार्य नलिन तीन-चार पंक्तियों में अपनी बात संपूर्णता से प्रकट करना जानते थे। शायद यही कारण है कि उनके कार्यों का उचित मूल्यांकन आज तक नहीं हो सका है। पटना विश्वविद्यालय में पहले अध्यापक और फिर अध्यक्ष रहते हुए उन्होंने कई नवोदित लेखकों और लेखन में रुचि रखने वाले प्रत्येक विद्यार्थी का उत्साहवर्धन किया। उनके साहित्य कर्मों का संपूर्ण लेखा-जोखा उनके परम शिष्य निशांतकेतु ने सहेज रखा है। उनकी सर्वाधिक लोकप्रिय और सर्वमान्य पुस्तक 'साहित्य का इतिहास दर्शन' को हिंदी में साहित्य इतिहास संबंधी प्रथम पुस्तक होने का गौरव प्राप्त है। इस पुस्तक में आचार्य नलिन ने इतिहास संबंधी मुलभूत समस्याओं पर गंभीरता से विचार किया और साहित्यिक इतिहास का एक व्यापक दृष्टिकोण प्रस्तुत किया। साहित्य इतिहास में मुख्य रचनाकार के साथ-साथ गौण रचनाकारों का भी बहुत महत्त्व होता है – यह इस पुस्तक में सुस्पष्टता के साथ उद्धरित है।
अनेक भाषाओं के ज्ञान ने उनके पठन को मात्र हिंदी तक सीमित नहीं रखा। उन्होंने हिंदीतर भारतीय भाषाओं, अंग्रेज़ी, जर्मन और फ़्रेंच साहित्य भी खूब पढ़ा था। एक घटना का ज़िक्र करते हुए उनके शिष्य समान लेखक शिवमंगल सिद्धांतकर कहते हैं, "एक बार अमेरिकी आंचलिक उपन्यास के विशेषज्ञ, जो अमेरिका से आए थे, उनका भाषण नलिन जी ने पटना विश्वविद्यालय के 'दरभंगा हाउस' में रखा था। अमेरिकी आंचलिक उपन्यासों पर उनके लंबे भाषण के बाद धन्यवाद ज्ञापन के लिए नलिन जी ने अपनी बात शुरू की और बहुत से अमेरिकी आंचलिक उपन्यासों के माध्यम से अपनी बात रखी। उन्हें सुनकर वह विशेषज्ञ नलिन जी के आगे झुक कर बोले कि मैं यह सोच भी नहीं सकता था कि अमेरिकी आंचलिक उपन्यासों का इतना बड़ा जानकार भी भारत में कोई है। आपने बहुत से ऐसे उपन्यासों का हवाला दिया जिन्हें मैं भी नहीं जानता, जिनका संबंध बहुत बड़े लेखकों से है।"
उन्हें उपन्यासों का शौक़ था और एक बार जिसे पढ़ने की ठान लेते उसे हासिल कर पढ़ने के लिए कोई भी जतन करने से नहीं चुकते थे। पसंद आने पर उसकी आलोचना करना अपना कर्तव्य समझते थे। वे अक्सर अपने शिष्यों को हिंदी से इतर साहित्य पढ़ने की प्रेरणा देते थे ताकि उनकी समझ व्यापक हो सके। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि नलिन को पढ़ना जितना प्रिय था, लिखने से वे उतना ही कतराते थे। वे अपने लेखन का श्रेय संपादकों, प्रकाशकों, तथा विभिन्न संस्थाओं के संचालकों को देते हैं जिनके आग्रहों ने उन्हें लिखने के लिए मजबूर किया। वे सदैव अध्ययन, अनुसंधान, अनुसंधान-निर्देश, और दूसरों की पांडुलिपियों को जाँचने और सहमती देने के दबाव में रहते थे, किंतु यह उनके मन का कार्य ही होता था। उनके लेखन के ऐवज में उन्हें कई प्रकार के प्रलोभन मिलते रहे किंतु वे आजीवन पद और पैसों से बचते रहे और अपने श्रमसाध्य कार्यों को अंजाम देते रहे।
एक ब्राह्मण होते हुए भी उन्होंने छुआछूत और आडंबरों को अपने घर से दूर रखा। शास्त्रों का सम्मान करते थे किंदु धर्म के नाम पर चल रहे पाखंड और पोंगापंथी का डटकर विरोध करते थे। मानवीय मूल्यों से ओत-प्रोत उनका व्यक्तित्व अपने समकालीन शिक्षाविदों और साहित्यकारों के बीच सदा सम्मानित होता था। वे अपने विद्यार्थियों के साथ-साथ साहित्यकारों की डटकर आलोचना करते थे किंतु कभी पक्षपात नहीं किया। फणीश्वरनाथ रेणु की 'मैला आँचल' को जब 'ढोड़ाय चरितमानस' की नक़ल करार देकर उपेक्षित कर दिया गया था, तब इस पुस्तक को आँचलिक उपन्यास के रूप में उपलब्धि बताते हुए नलिन ने कई पत्र-पत्रिकाओं में इसकी समीक्षा लिखी। आचार्य नलिन के अनुरोध पर राधाकृष्ण प्रकाशन के मालिक ओम प्रकाश ने इसे प्रकाशित किया जिससे इस उपन्यास को पुनर्जीवन मिला। आज भी इसके संस्करण प्रकाशित हो रहे हैं।
नलिन पहले आलोचक हैं जिन्होंने हिंदी में तात्विक शोध के प्रति लोगों का ध्यान आकर्षित कराया। सूफ़ी कवि किफ़ायत की रचना, लालचंद्र कृत 'हरिचरित्र गोस्वामी', लोककथा-कोश (१९५९), लोककथा-परिचय (१९५९), प्राचीन हस्तलिखित पोथियों का विवरण (छह खंडों में, १९५९), सदल मिश्र ग्रंथावली (१९६०), तुलसीदास (१९६१), संत परंपरा और साहित्य (१९६०), अयोध्या प्रसाद खत्री स्मारक ग्रंथ(१९६०), भारतीय साहित्य परिचालन तथा अन्वेषण सरीखे ग्रंथों का संपादन उनके तात्विक शोध के ही कार्य हैं जो स्वयं में एक उपलब्धि है। उनके इस अद्भुत कार्य के परिणामस्वरूप बिहार के कई प्राचीन और गुमनाम साहित्यकार प्रकाश में आए।
उनकी रचनाएँ तत्कालीन पत्र-पत्रिकाओं में बिखरी हुई हैं। पत्नी और प्रियजनों के प्रयासों से उनके कार्यों को छह खंडों की रचनावली के रूप में तैयार किया था, किंतु प्रकाशक की लापरवाही से वह पांडुलिपि ग़ायब हो गई और एक समृद्ध रचनाकार अपनी संपूर्णता के साथ कभी हिंदी जगत के समक्ष प्रस्तुत नहीं हो सका। उनके परम प्रशंसक गोपेश्वर सिंह लिखते हैं, "हिंदी साहित्य को उनकी सबसे बड़ी देन आलोचना के क्षेत्र में है। मौलिक दृष्टि, दुर्लभ वैदुष्य और चिंतनपूर्ण लेखन के द्वारा उन्होंने आलोचना का नया मानदंड निर्मित किया। अपने चिंतनपूर्ण और बहसतलब आलोचनात्मक लेखों, साहित्यिक टिप्पणियों और पुस्तक समीक्षाओं के द्वारा वे हिंदी संसार को नए ढंग से आंदोलित करते रहे। वे नए-पुराने सभी लेखकों के बीच आलोचक-रूप में समान रूप से प्रतिष्ठित थे।"
आलोचना के बाद उनकी पहचान एक कहानीकार और कवि के रूप में भी सर्वमान्य है। प्रपद्यवाद या 'नकेनवाद' का प्रथम कवि इन्हें ही कहा गया है। तीन कवियों की इस तिकड़ी में अन्य दो नाम केसरी कुमार और नरेश हैं जिनका पहला काव्य संकलन 'नकेन के प्रपद्य' १९५६ में प्रकाशित हुआ। 'नकेन' इन तीनों कवियों के नामों के प्रथमाक्षरों को मिलाने से बना था। इसी नकेन के केसरी कुमार कहते हैं, "उन्होंने कुल ४५ वर्ष और छह माह खर्च करके विपुल साहित्य लिखा है। उनके व्यक्तित्व पर यदि ध्यान दें तो आश्चर्य होता है कि एक व्यक्ति जो सफल अध्यापक हो, बिहार साहित्य सम्मेलन का प्रधानमंत्री हो, बिहार राष्ट्र-भाषा परिषद् का शोध-प्रबंधक हो, 'साहित्य दृष्टिकोण' और 'कविता' का यशस्वी संपादक भी हो – वह एक साथ इतना काम कैसे करता था।"
आचार्य नलिन द्वारा लिखित कहानियाँ भी पचास के आस-पास हैं जिनमें सामाजिकता, मनोवैज्ञानिकता और आधुनिकता का पुट मिलता है। 'विष के दांत तथा अन्य कहानियाँ' एवं 'सत्रह असंग्राहित पूर्व छोटी कहानियाँ' संग्रहों में ३० कहानियाँ हैं जबकि शेष कहानियों के लिए तत्कालीन पत्र-पत्रिकाओं की ख़ाक छानना पड़ेगा। कविता-कहानियों के आलावा निबंधों पर भी उन्होंने कलम चलाई। दरअसल, साहित्य की ऐसी कोई विधा नहीं है, जिसे उनकी कलम ने न छुआ हो। उनके जीवन की गति हृदयाघात के कारण अकस्मात ही रुक गई किंतु उनका विपुल साहित्य अपनी उत्कृष्टता के साथ आज भी हम सबके बीच विद्यमान है।
आचार्य नलिन विलोचन शर्मा : जीवन परिचय |
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नाम |
आचार्य नलिन विलोचन शर्मा |
जन्म |
१८ फ़रवरी १९१६ (विक्रम संवत् १९७२ माघ शुक्ल चतुर्दशी), पटना |
निधन |
१२ सितंबर १९६१, पटना (हृदय गति रुकने से) |
पिता |
महामहोपाध्याय पंडित रामावतार शर्मा |
माता |
श्रीमती रत्नावती देवी |
पत्नी |
श्रीमती कुमुद शर्मा |
पुत्र |
राजीव शर्मा |
शिक्षा |
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मैट्रिक |
पटना कॉलेजियट, १९३१ |
उच्च शिक्षा |
पटना विश्वविद्यालय (एमए – संस्कृत) १९३८ हरप्रसाद जैन कॉलेज, आरा (एमए – हिंदी) |
शोध-कार्य |
'कौटिल्य के अर्थशास्त्र में दंड-विधान' तथा 'रंगमंच
तथा नाटक' (अपूर्ण) |
व्यवसाय |
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प्रथम नियुक्ति |
प्रोफ़ेसर, संस्कृत-विभाग, हरप्रसाद जैन कॉलेज, आरा
[१९४२] |
द्वितीय नियुक्ति |
प्रोफ़ेसर, हिंदी विभाग, पटना
विश्वविद्यालय [२४ सितंबर, १९४८] |
पदोन्नत्ति |
अध्यक्ष, हिंदी विभाग, पटना
विश्वविद्यालय [१९५९ – जीवन पर्यंत] |
रचना-संसार |
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कहानी संग्रह |
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कविता संग्रह |
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आलोचना |
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संपादन |
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अन्य |
तत्कालीन पत्र-पत्रिकाओं में अनेकों निबंध, लेख, कहानियाँ एवं कविताएँ प्रकाशित |
विशेष |
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संदर्भ
- प्रज्ञ पुरुष आचार्य नलिन विलोचन शर्मा – डॉ० कल्याणी कुसुम सिंह
- नलिन विलोचन शर्मा : साहित्यिक योगदान – अजय कुमार (शोध पत्र)
- नलिन विलोचन शर्मा : संकलित निबंध - गोपेश्वर सिंह
- आचार्य श्री नलिन विलोचन शर्मा की आलोचना साधना - सं० डॉ० विश्वनाथ प्रसाद
- नलिन विलोचन शर्मा (संस्मरण) : शिवमंगल सिद्धांतकर
- https://www.youtube.com/watch?v=MFTnYFYWswE
लेखक परिचय
दीपा लाभपत्रकारिता और शिक्षण
विभिन्न मीडिया संस्थानों के अनुभवों के साथ पिछले १२ वर्षों से अध्यापन कार्य से जुड़ी हैं। आप हिंदी व अंग्रेज़ी दोनों भाषाओं में समान रूप से सहज हैं तथा दोनों भाषाओं में लेख व संवाद प्रकाशित करती रहती हैं। इन दिनों ‘हिंदी से प्यार है’ की सक्रिय सदस्या हैं और ‘साहित्यकार तिथिवार’ का परिचालन कर रही हैं।
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