Friday, September 30, 2022

नलिन विलोचन शर्मा : साहित्यिक इतिहास के पुरोधा

किसी कार्य की आधारशिला रखने वाला व्यक्ति इतिहास के पन्नों पर चिरकाल के लिए अंकित हो जाता है। वक्त की आँधी उसे धूमिल भले ही कर दे, उसके कर्मों का मान कम करने की हैसियत समय में भी नहीं होती। आचार्य नलिन विलोचन शर्मा एक ऐसे ही साहित्यकार हैं जिन्हें मुख पृष्ठ से हटाकर संदर्भों तक सीमित कर दिया गया। किंतु हिंदी साहित्य में उनके योगदान को न तो नाकारा जा सकता है, न ही विस्मृत किया जा सकता है। साहित्येतिहास के पुरोधा, प्रपद्यवादी कविताओं के प्रणेता, समालोचना के अविचल आलोचक, बेख़ौफ़ संपादक और भारतीय वांग्मय में प्राणधारा का संचार करने वाले एक विपुल सृजक के रूप में हिंदी साहित्य जगत उन्हें सदैव याद रखेगा। अपने लघु जीवनकाल में ही इस महान विभूति ने हिंदी साहित्य को अविस्मरणीय विशालता प्रदान की है। उनके जीवन और लेखन की एक छोटी सी झलक आपके समक्ष प्रस्तुत है,

अणु-बम से पहले का

अणु-भाष्य है।

स्फोट से बहुत पहले

स्फोटवाद था।

व्यक्तिगत जीवन

दर्शन और संस्कृत के ख्यातिलब्ध विद्वान महामहोपाध्याय पंडित रामावतार शर्मा और माता रत्नावती के ज्येष्ठ पुत्र के रूप में नलिन विलोचन शर्मा का जन्म १८ फरवरी १९१६ को पटना में हुआ था। पिता स्वयं एक प्रकांड पंडित थे और संस्कृत के अतिरिक्त हिंदी, अंग्रेज़ी, लैटिन, फ़्रेंच और जर्मन भाषाओं पर अधिकार रखते थे। नलिन को पिता की यह धरोहर विरासत में मिली। हिंदी, अंग्रेज़ी व संस्कृत पर पूर्ण अधिकार के साथ वे भी जर्मन और फ़्रेंच का आंशिक ज्ञान रखते थे। जब वे तेरह वर्ष के थे, सिर से पिता का साया उठ गया। घर पर पढ़ाने वाला कोई न था। पटना कॉलेजियट नामक विद्यालय से उन्होंने १९३१ में मैट्रिक की परीक्षा पास की। उच्च शिक्षा के लिए पटना विश्वविद्यालय गए। १९३८ में यहाँ से संस्कृत में एमए किया और फिर आई०सी०एस० की परीक्षा में भी शामिल हुए। अध्ययन का जो बीज पिता ने बालपन में बोया था, उम्र के साथ-साथ उसकी जड़ें और गहराती गई थीं। अपने एक संस्मरण में डॉ० नगेंद्र लिखते हैं, "आई०सी०एस० के योग्य व्यक्तित्व संपत्ति उन्हें सहज ही प्राप्त थी। किंतु उनके पास कुछ ऐसा भी था जो आई०सी०एस० के लिए अपेक्षित योग्यता की परिधि में नहीं समा पाता था -  पांडित्य का आत्मगौरव और स्वाधीन चेतना कलाकार के मन की मस्ती... परीक्षा केवल व्यापक अध्ययन के लिए ब्याज-मात्र थी।"

नलिन विलोचन शर्मा ने अपने व्यावसायिक जीवन की शुरुआत उम्र के छब्बीसवें पड़ाव पर ही कर दी थी जब उनकी नियुक्ति हरप्रसाद जैन कॉलेज (आरा, बिहार) में संस्कृत के अध्यापक के रूप में हुई। यहाँ पढ़ाते हुए भी उनका स्वाध्याय चलता रहा और उन्होंने हिंदी में एमए कर लिया। शोध-अनुसंधान में भी उन्हें विशेष रूचि थी। 'कौटिल्य के अर्थशास्त्र में दंड-विधान' और 'रंगमंच तथा नाटक' विषयों पर उन्होंने गहन शोध किया किंतु अपरिहार्य कारणों से ये-दोनों शोध-प्रबंध अधूरे रह गए। बहरहाल, अपने शहर पटना लौटने की इच्छा उन्हें २४ सितंबर १९४८ को वापस ले आई। यहाँ उनकी नियुक्ति बतौर प्राध्यापक पटना कॉलेज के हिंदी विभाग में हुई। कुछ ही वर्षों में वे पटना विश्वविद्यालय के अध्यक्ष नियुक्त हुए और आजीवन इस पद की गरिमा बढ़ाते रहे।

नलिन ने अपने समय की एक नवोदित चित्रकार कुमुद से १९४१ में प्रेम विवाह किया था। रूप-गुण से संपन्न कुमुद ने नलिन की विकास यात्रा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। वे नलिन के लिए कभी 'गृहणी' थीं, कभी 'सचिव' तो कभी 'सखी'। यह उन्हीं की सूझ-बुझ और सजगता का परिणाम है कि नलिन जी की अकस्मात मृत्यु के पश्चात उनका बिखरा साहित्य संग्रहित हो सका और 'नलिन रचनावली' के रूप में साहित्यिक समाज के सामने आ सका (हालाँकि यह भी पूर्ण नहीं है)।

नलिन विलोचन का रचना-संसार

अधुना हमारे पास विशाल योजनाएँ हैं--

शीतापंत्रित प्रशालाएँ हैं,

जहाँ आविष्कारों के बदले, दर्शन और शायरी है,

भारतीय संस्कृति और बुशर्ट है, अनन्त उपसमितियाँ हैं,

और पैसों को पानी समझने का

निष्काम कर्म है।


हमारे महर्षियों के विदेशी शिष्य होते हैं,

नहीं तो बिचारे बाबा ही रह जाते हैं।

हमारी नारियाँ सौंदर्य--प्रतियोगिताओं में भाग

नहीं लेती हैं, भागती हैं।


हम विदेशी जासूसों से अपने रहस्य

छिपा सकते या नहीं सकते

(हिंदी में जासूसी उपन्यास ही नहीं)*,

लेकिन अपने भिक्षुओं और वेश्याओं का

हम विदेशी अतिथियों के सामने प्रदर्शन नहीं करते।

(सामसिक संस्कृति के प्रतीक)

हम निषेधों के कर्मकांड की नई संस्कृति

बना रहे हैं।

[*यह बात १९५० के दशक की है, इसे आज की तारीख से न जोड़ा जाए]

१९ वीं और २० वीं सदी के उतरार्ध में सक्रिय श्यामसुंदर दास और आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने हिंदी साहित्य जगत में अपनी जो पहचान बनाई, कुछ वैसी ही साख सदी के पाँचवे और छठे दशक में सक्रिय रहे आचार्य शिवपूजन सहाय और आचार्य नलिन विलोचन शर्मा की है। नलिन की कलम की धार तो आरंभ से ही पैनी थी, उस पर प्रगतिशील सोच और वैज्ञानिक दृष्टिकोण ने उनकी लेखनी को विलक्षण और उत्कृष्ट बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। कद-काठी से निराला को भी मात देने वाले नलिन ने हिंदी साहित्य के कुछ ऐसे पहलुओं को छुआ जिसे उनसे पहले किसी ने सोचा नहीं था। एक तरफ गद्य और पद्य की सभी विधाओं में विपुल सृजन कर वे अपनी सर्वोन्मुखी प्रतिभा का परिचय देते हैं तो दूसरी तरफ साहित्यालोचन और सृजनात्मक साहित्य के नए मानदंड स्थापित कर अपने ज्ञान की गहराइयों से भी अवगत कराते हैं। उनकी अनेक विशेषताओं में सबसे उल्लेखनीय यह है कि अन्य साहित्यकार जिन बातों को कहने में तीन-चार पृष्ठों का सहारा लेते थे, वहीं आचार्य नलिन तीन-चार पंक्तियों में अपनी बात संपूर्णता से प्रकट करना जानते थे। शायद यही कारण है कि उनके कार्यों का उचित मूल्यांकन आज तक नहीं हो सका है। पटना विश्वविद्यालय में पहले अध्यापक और फिर अध्यक्ष रहते हुए उन्होंने कई नवोदित लेखकों और लेखन में रुचि रखने वाले प्रत्येक विद्यार्थी का उत्साहवर्धन किया। उनके साहित्य कर्मों का संपूर्ण लेखा-जोखा उनके परम शिष्य निशांतकेतु ने सहेज रखा है। उनकी सर्वाधिक लोकप्रिय और सर्वमान्य पुस्तक 'साहित्य का इतिहास दर्शन' को हिंदी में साहित्य इतिहास संबंधी प्रथम पुस्तक होने का गौरव प्राप्त है। इस पुस्तक में आचार्य नलिन ने इतिहास संबंधी मुलभूत समस्याओं पर गंभीरता से विचार किया और साहित्यिक इतिहास का एक व्यापक दृष्टिकोण प्रस्तुत किया। साहित्य इतिहास में मुख्य रचनाकार के साथ-साथ गौण रचनाकारों का भी बहुत महत्त्व होता है – यह इस पुस्तक में सुस्पष्टता के साथ उद्धरित है।

अनेक भाषाओं के ज्ञान ने उनके पठन को मात्र हिंदी तक सीमित नहीं रखा। उन्होंने हिंदीतर भारतीय भाषाओं, अंग्रेज़ी, जर्मन और फ़्रेंच साहित्य भी खूब पढ़ा था। एक घटना का ज़िक्र करते हुए उनके शिष्य समान लेखक शिवमंगल सिद्धांतकर कहते हैं, "एक बार अमेरिकी आंचलिक उपन्यास के विशेषज्ञ, जो अमेरिका से आए थे, उनका भाषण नलिन जी ने पटना विश्वविद्यालय के 'दरभंगा हाउस' में रखा था। अमेरिकी आंचलिक उपन्यासों पर उनके लंबे भाषण के बाद धन्यवाद ज्ञापन के लिए नलिन जी ने अपनी बात शुरू की और बहुत से अमेरिकी आंचलिक उपन्यासों के माध्यम से अपनी बात रखी। उन्हें सुनकर वह विशेषज्ञ नलिन जी के आगे झुक कर बोले कि मैं यह सोच भी नहीं सकता था कि अमेरिकी आंचलिक उपन्यासों का इतना बड़ा जानकार भी भारत में कोई है। आपने बहुत से ऐसे उपन्यासों का हवाला दिया जिन्हें मैं भी नहीं जानता, जिनका संबंध बहुत बड़े लेखकों से है।"

उन्हें उपन्यासों का शौक़ था और एक बार जिसे पढ़ने की ठान लेते उसे हासिल कर पढ़ने के लिए कोई भी जतन करने से नहीं चुकते थे। पसंद आने पर उसकी आलोचना करना अपना कर्तव्य समझते थे। वे अक्सर अपने शिष्यों को हिंदी से इतर साहित्य पढ़ने की प्रेरणा देते थे ताकि उनकी समझ व्यापक हो सके। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि नलिन को पढ़ना जितना प्रिय था, लिखने से वे उतना ही कतराते थे। वे अपने लेखन का श्रेय संपादकों, प्रकाशकों, तथा विभिन्न संस्थाओं के संचालकों को देते हैं जिनके आग्रहों ने उन्हें लिखने के लिए मजबूर किया। वे सदैव अध्ययन, अनुसंधान, अनुसंधान-निर्देश, और दूसरों की पांडुलिपियों को जाँचने और सहमती देने के दबाव में रहते थे, किंतु यह उनके मन का कार्य ही होता था। उनके लेखन के ऐवज में उन्हें कई प्रकार के प्रलोभन मिलते रहे किंतु वे आजीवन पद और पैसों से बचते रहे और अपने श्रमसाध्य कार्यों को अंजाम देते रहे।

एक ब्राह्मण होते हुए भी उन्होंने छुआछूत और आडंबरों को अपने घर से दूर रखा। शास्त्रों का सम्मान करते थे किंदु धर्म के नाम पर चल रहे पाखंड और पोंगापंथी का डटकर विरोध करते थे। मानवीय मूल्यों से ओत-प्रोत उनका व्यक्तित्व अपने समकालीन शिक्षाविदों और साहित्यकारों के बीच सदा सम्मानित होता था। वे अपने विद्यार्थियों के साथ-साथ साहित्यकारों की डटकर आलोचना करते थे किंतु कभी पक्षपात नहीं किया। फणीश्वरनाथ रेणु की 'मैला आँचल' को जब 'ढोड़ाय चरितमानस' की नक़ल करार देकर उपेक्षित कर दिया गया था, तब इस पुस्तक को आँचलिक उपन्यास के रूप में उपलब्धि बताते हुए नलिन ने कई पत्र-पत्रिकाओं में इसकी समीक्षा लिखी। आचार्य नलिन के अनुरोध पर राधाकृष्ण प्रकाशन के मालिक ओम प्रकाश ने इसे प्रकाशित किया जिससे इस उपन्यास को पुनर्जीवन मिला। आज भी इसके संस्करण प्रकाशित हो रहे हैं।

नलिन पहले आलोचक हैं जिन्होंने हिंदी में तात्विक शोध के प्रति लोगों का ध्यान आकर्षित कराया। सूफ़ी कवि किफ़ायत की रचना, लालचंद्र कृत 'हरिचरित्र गोस्वामी', लोककथा-कोश (१९५९), लोककथा-परिचय (१९५९), प्राचीन हस्तलिखित पोथियों का विवरण (छह खंडों में, १९५९), सदल मिश्र ग्रंथावली (१९६०), तुलसीदास (१९६१), संत परंपरा और साहित्य (१९६०), अयोध्या प्रसाद खत्री स्मारक ग्रंथ(१९६०), भारतीय साहित्य परिचालन तथा अन्वेषण सरीखे ग्रंथों का संपादन उनके तात्विक शोध के ही कार्य हैं जो स्वयं में एक उपलब्धि है। उनके इस अद्भुत कार्य के परिणामस्वरूप बिहार के कई प्राचीन और गुमनाम साहित्यकार प्रकाश में आए।  

उनकी रचनाएँ तत्कालीन पत्र-पत्रिकाओं में बिखरी हुई हैं। पत्नी और प्रियजनों के प्रयासों से उनके कार्यों को छह खंडों की रचनावली के रूप में तैयार किया था,  किंतु प्रकाशक की लापरवाही से वह पांडुलिपि ग़ायब हो गई और एक समृद्ध रचनाकार अपनी संपूर्णता के साथ कभी हिंदी जगत के समक्ष प्रस्तुत नहीं हो सका। उनके परम प्रशंसक गोपेश्वर सिंह लिखते हैं, "हिंदी साहित्य को उनकी सबसे बड़ी देन आलोचना के क्षेत्र में है। मौलिक दृष्टि, दुर्लभ वैदुष्य और चिंतनपूर्ण लेखन के द्वारा उन्होंने आलोचना का नया मानदंड निर्मित किया। अपने चिंतनपूर्ण और बहसतलब आलोचनात्मक लेखों, साहित्यिक टिप्पणियों और पुस्तक समीक्षाओं के द्वारा वे हिंदी संसार को नए ढंग से आंदोलित करते रहे। वे नए-पुराने सभी लेखकों के बीच आलोचक-रूप में समान रूप से प्रतिष्ठित थे।"

आलोचना के बाद उनकी पहचान एक कहानीकार और कवि के रूप में भी सर्वमान्य है। प्रपद्यवाद या 'नकेनवाद' का प्रथम कवि इन्हें ही कहा गया है। तीन कवियों की इस तिकड़ी में अन्य दो नाम केसरी कुमार और नरेश हैं जिनका पहला काव्य संकलन 'नकेन के प्रपद्य' १९५६ में प्रकाशित हुआ। 'नकेन' इन तीनों कवियों के नामों के प्रथमाक्षरों को मिलाने से बना था। इसी नकेन के केसरी कुमार कहते हैं, "उन्होंने कुल ४५ वर्ष और छह माह खर्च करके विपुल साहित्य लिखा है। उनके व्यक्तित्व पर यदि ध्यान दें तो आश्चर्य होता है कि एक व्यक्ति जो सफल अध्यापक हो, बिहार साहित्य सम्मेलन का प्रधानमंत्री हो, बिहार राष्ट्र-भाषा परिषद् का शोध-प्रबंधक हो, 'साहित्य दृष्टिकोण' और 'कविता' का यशस्वी संपादक भी हो – वह एक साथ इतना काम कैसे करता था।"

आचार्य नलिन द्वारा लिखित कहानियाँ भी पचास के आस-पास हैं जिनमें सामाजिकता, मनोवैज्ञानिकता और आधुनिकता का पुट मिलता है। 'विष के दांत तथा अन्य कहानियाँ' एवं 'सत्रह असंग्राहित पूर्व छोटी कहानियाँ' संग्रहों में ३० कहानियाँ हैं जबकि शेष कहानियों के लिए तत्कालीन पत्र-पत्रिकाओं की ख़ाक छानना पड़ेगा। कविता-कहानियों के आलावा निबंधों पर भी उन्होंने कलम चलाई। दरअसल, साहित्य की ऐसी कोई विधा नहीं है, जिसे उनकी कलम ने न छुआ हो। उनके जीवन की गति हृदयाघात के कारण अकस्मात ही रुक गई किंतु उनका विपुल साहित्य अपनी उत्कृष्टता के साथ आज भी हम सबके बीच विद्यमान है।  

 

आचार्य नलिन विलोचन शर्मा : जीवन परिचय

नाम

आचार्य नलिन विलोचन शर्मा

जन्म

१८ फ़रवरी १९१६ (विक्रम संवत् १९७२ माघ शुक्ल चतुर्दशी), पटना

निधन

१२ सितंबर १९६१, पटना (हृदय गति रुकने से)

पिता

महामहोपाध्याय पंडित रामावतार शर्मा

माता

श्रीमती रत्नावती देवी

पत्नी

श्रीमती कुमुद शर्मा

पुत्र

राजीव शर्मा

शिक्षा

मैट्रिक

पटना कॉलेजियट, १९३१

उच्च शिक्षा

पटना विश्वविद्यालय (एमए – संस्कृत) १९३८

हरप्रसाद जैन कॉलेज, आरा (एमए – हिंदी)

शोध-कार्य

'कौटिल्य के अर्थशास्त्र में दंड-विधान' तथा 'रंगमंच तथा नाटक' (अपूर्ण)

व्यवसाय

प्रथम नियुक्ति

प्रोफ़ेसर, संस्कृत-विभाग,  हरप्रसाद जैन कॉलेज, आरा [१९४२]

द्वितीय नियुक्ति

प्रोफ़ेसर, हिंदी विभाग, पटना विश्वविद्यालय [२४ सितंबर, १९४८]

पदोन्नत्ति

अध्यक्ष, हिंदी विभाग, पटना विश्वविद्यालय [१९५९ – जीवन पर्यंत]

रचना-संसार

कहानी संग्रह

  • विष के दांत (१९५१)
  • सत्रह असंग्राहित पूर्व छोटी कहानियाँ (१९६०)

कविता संग्रह

  • नकेन के प्रपद्य (१९५६)
  • नकेन २ (१९८१)

आलोचना

  • दृष्टिकोण (१९४७)
  • साहित्य का इतिहास दर्शन (१९६०)
  • मानदंड (१९६३)
  • हिंदी उपन्यास : विशेषतः प्रेमचंद (१९६८)
  • साहित्य तत्व और आलोचना (१९९५)

संपादन

  • कविता
  • सूफ़ी कवि किफ़ायत की रचना,
  • लालचंद्र कृत ‘हरिचरित्र गोस्वामी
  • लोककथा-कोश (१९५९)
  • लोककथा-परिचय (१९५९)
  • प्राचीन हस्तलिखित पोथियों का विवरण (छह खंडों में, १९५९)
  • सदल मिश्र ग्रंथावली (१९६०)
  • तुलसीदास (१९६१)
  • संत परंपरा और साहित्य (१९६०)
  • अयोध्या प्रसाद खत्री स्मारक ग्रंथ(१९६०)
  • भारतीय साहित्य परिचालन तथा अन्वेषण

अन्य

तत्कालीन पत्र-पत्रिकाओं में अनेकों निबंध, लेख, कहानियाँ एवं कविताएँ प्रकाशित

विशेष

  • विज्ञान और दर्शन के मिलन-बिंदु के विरल कवि
  • साहित्य इतिहास को वैज्ञानिक और वैविध्य दृष्टिकोण देनेवाले रचनाकार
  • आलोचनात्मक और सृजनात्मक लेखन को नवीनता और नए मानदण्ड स्थापित करने वाले उन्नायक

संदर्भ

  • प्रज्ञ पुरुष आचार्य नलिन विलोचन शर्मा – डॉ० कल्याणी कुसुम सिंह
  • नलिन विलोचन शर्मा : साहित्यिक योगदान – अजय कुमार (शोध पत्र)
  • नलिन विलोचन शर्मा : संकलित निबंध - गोपेश्वर सिंह
  • आचार्य श्री नलिन विलोचन शर्मा की आलोचना साधना - सं० डॉ० विश्वनाथ प्रसाद
  • नलिन विलोचन शर्मा (संस्मरण) : शिवमंगल सिद्धांतकर
  • https://www.youtube.com/watch?v=MFTnYFYWswE

लेखक परिचय 

दीपा लाभ 

पत्रकारिता और शिक्षण 

विभिन्न मीडिया संस्थानों के अनुभवों के साथ पिछले १२ वर्षों से अध्यापन कार्य से जुड़ी हैं। आप हिंदी व अंग्रेज़ी दोनों भाषाओं में समान रूप से सहज हैं तथा दोनों भाषाओं में लेख व संवाद प्रकाशित करती रहती हैं। इन दिनों ‘हिंदी से प्यार है’ की सक्रिय सदस्या हैं और ‘साहित्यकार तिथिवार’ का परिचालन कर रही हैं।

ईमेल - journalistdeepa@gmail.com

व्हाट्सऐप - +91 8095809095

Thursday, September 29, 2022

लाला श्रीनिवास दास : हिंदी गद्य के पथ प्रदर्शक


 हिंदी साहित्य में काव्य की एक लंबी परंपरा रहने के बाद गद्य की परिपाटी आई और एक नया युग अपने आरंभिक स्वरूप को गढ़ने लगा, जिसे आधुनिक काल कहा गया। कुछ विद्वानों ने इसे गद्यकाल भी कहा है। इस काल में नाटक, उपन्यास, कहानी और निबंध जैसी आधुनिक विधाएँ आकार ले रहीं थी और भारतेंदु जैसी प्रतिभा उन्हें निखार रही थी। उस दौर में एक ऐसी ही प्रतिभा और दिखाई देती है, जिसने अल्प समय में ही न केवल हिंदी उपन्यास, नाटक और निबंध को विस्तृत आयाम दिए बल्कि आलोचना के क्षेत्र में भी अपनी रचनाओं से एक मार्ग प्रशस्त किया, ये साहित्यकार थे, लाला श्रीनिवास दास। इनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि अच्छी थी और इनके पिता लाला मंगलीलाल दिल्ली में एक सेठ के यहाँ मुनीम थे। लाला श्रीनिवास दास जी ने पिता से प्राप्त अपने व्यवसाय में भी अल्पायु में ही दक्षता प्राप्त की, जिससे तात्कालिक पंजाब प्रांत की सरकार इतनी प्रभावित हुई कि इनको पहले म्युनिसिपल कमिश्नर बनाया और फिर ऑनरेरी मजिस्ट्रेट की पदवी प्रदान की। शुक्ल जी के अनुसार श्रीनिवास दास का जन्म १८५१ ई० में दिल्ली में हुआ था और इनकी मृत्यु १८८७ ई० में हुई। ३६ वर्ष के लघु जीवन में भी इन्होंने हिंदी साहित्य में अपना अद्वितीय स्थान बनाया।

'हिंदी साहित्य संवर्धिनी सभा' कलकत्ता द्वारा प्रकाशित इनके नाटक 'रणधीर प्रेममोहिनी' में इनका एक छोटा सा परिचय दिया है, जिसमें हिंदी के प्रति इनके प्रेम का वर्णन है। इसमें इनका एक छोटा सा रोचक संस्मरण है जो इस प्रकार है, "एक बार आप पंडित प्रतापनारायण मिश्र के यहाँ मिलने गए और बड़ी नम्रतापूर्वक इन्होंने उन्हें एक मोहर नज़र करनी चाही। इस पर पंडित प्रतापनारायण बेतरह बिगड़े और बोले आप हमारे पास अपने धन की गरूरी बतलाने आए हो। इसके उत्तर में इन्होंने नम्रतापूर्वक हाथ जोड़कर उत्तर दिया कि नहीं महाराज मैं तो मातृभाषा के मंदिर पर अक्षत चढ़ाता हूँ।" यह थे लाला श्रीनिवास दास जो केवल निस्वार्थ भाव से हिंदी भाषा की सेवा में लगे थे, जब भी कोई हिंदी प्रेमी या साहित्यकर्मी इनसे मिलने आता तो ये बड़े मन से सारे काम छोड़कर उनकी सेवा में लग जाते।

बड़ा साहित्यकार अपनी रचनाओं की संख्या से नहीं बल्कि उनकी गुणवत्ता से जाना जाता है, लाला जी इस बात का प्रमाण हैं। उन्होंने केवल पाँच रचनाओं का सृजन किया, जिसमें चार नाटक तथा एक विख्यात उपन्यास 'परीक्षागुरु' शामिल है। अधिकांश विद्वानों ने इसे हिंदी का पहला मौलिक उपन्यास स्वीकार किया है। यह उपन्यास १८८१ ई० में प्रकाशित हुआ। इसकी भाषा परिनिष्ठित हिंदी नहीं है, जो हो भी नहीं सकती थी। क्योंकि यह वह समय था जब मानक हिंदी के निर्माण की प्रक्रिया चल रही थी और उस प्रक्रिया में इस उपन्यास की भाषा की भी बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका रही। पश्चिमी आधुनिकता का दिखावा उस समय के उच्च घरानों में देखने को मिलता था, जिसका विरोध भी इस उपन्यास में खुल कर हुआ है। लाला श्रीनिवास दास जिस पृष्ठभूमि से आते हैं, उनका मेल मिलाप भी इस तरह के परिवारों से अवश्य रहा होगा, जिससे उन्हें इस उपन्यास को लिखने की प्रेरणा मिली होगी। लाला ब्रजकिशोर के प्रयासों से एक साहूकार लाला मदनलाल को सही मार्ग में लाने की कथा इस उपन्यास में है। यद्यपि आज पाठक को यह उपन्यास अत्यधिक प्रेरक और शिक्षाप्रद लग सकता है पर इसकी बुनावट उस दौर में की गई जब इस विधा का बहुत अधिक प्रचलन नहीं था। उस समय में लोग प्रेरक प्रसंग और पौराणिक कहानियाँ पढ़ना ही अधिक रुचिकर मानते थे। नया प्रयोग होते हुए भी यह जनता के मन के अनुरूप ही था। लाला जी इसकी भूमिका में लिखते हैं, "अपनी भाषा मै यह नई चाल की पुस्तक होगी,.......यह सच है कि नई चाल की चीज देखने को सबका जी ललचाता है परंतु पुरानी रीति के मन मै समाए रहने और नई रीति को मन लगाकर समझने में थोड़ी मेहनत होने सै पहले पहल पढ़ने वाले का जी कुछ उलझने लगता है और मन उछट जाता है।" यह भाषा कुछ व्याकरणिक रूप से अशुद्ध लग सकती है पर यह दिल्ली और आसपास के क्षेत्र की बोली से प्रभावित भाषा है इसलिए 'में' के स्थान पर 'मै' अथवा 'से' के स्थान पर 'सै' आदि सहायक क्रिया पूरे उपन्यास में इसी प्रकार है।  

इसके अतिरिक्त उनकी एक और रचना बहुत अधिक विख्यात और चर्चित हुई, जिसने आरंभिक हिंदी में एक नई विधा आलोचना का मार्ग भी प्रशस्त किया। यद्यपि उनकी इस रचना को उस समय बहुत कटु टिप्पणियों का सामना करना पड़ा। यह कृति थी, 'संयोगिता स्वयंवर' नाटक। यह नाटक पृथ्वीराज चौहान द्वारा संयोगिता के हरण पर आधारित घटना से प्रेरित था जिसे लाला जी ने नाटक के स्वरूप में परिवर्तित कर दिया। बदरीनारायण चौधरी 'प्रेमघन' जी ने इस नाटक की आलोचना सबसे पहले अपने पत्र आनंद कादंबिनी में की। यह आलोचना से अधिक अन्य लोगों द्वारा इस नाटक पर की गई टिप्पणी का प्रत्युत्तर है जिसके संबंध में विख्यात आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी जी लिखते हैं, "ऐसा प्रतीत होता है कि कुछ लोगों ने इस नाटक की आवश्यकता से अधिक प्रशंसा कर दी थी।" यद्यपि इस नाटक में कई खामियाँ निकाली गई और इसकी आलोचना भी खूब हुई। लेकिन इसकी ख्याति से पता चलता है कि लोगों ने इसे बहुत अधिक रुचि से पढ़ा, जिसे एक रचना की सफलता कहा जा सकता है। जैसे चंद्रकांता उपन्यास साहित्य की कसौटी में भले ही ना उतरता हो पर उसने लोगों को हिंदी सीखने पर मजबूर कर दिया। इसके अतिरिक्त बालकृष्ण भट्ट ने अपने प्रख्यात पत्र 'हिंदी प्रदीप' में भी इस नाटक की आलोचना 'सच्ची समालोचना' के नाम से प्रकाशित की। इस आलोचना में उन्होंने नाटक के साथ लाला जी को भी खूब खरी-खरी सुनाई। विश्वनाथ त्रिपाठी जी इस संबंध में लिखते है, "पं० बालकृष्ण भट्ट ने संयोगिता स्वयंवर की आलोचना करते समय इस बात पर बल दिया है कि किसी समय के लोगों के हृदय की क्या दशा थी और spirit of the time क्या थे, इनका पता लगाए बगैर ऐतिहासिक कथानकों का उपयोग साहित्य रचना में नहीं किया जा सकता।" इस प्रकार भारतेंदु युग के नाटकों में यह नाटक भी अपनी एक गहरी छाप छोड़ता है। 

इस नाटक के अलावा उनके नाटक हैं, 'तप्तासंवरण', 'प्रह्लाद चरित्र' और 'रणधीर और प्रेममोहिनी।' तप्तासंवरण नाटक (१८७४ ई०) उस समय हरिश्चंद्र मैगज़ीन में छपा था। बाद में सन १८८३ में यह पुस्तक रूप में प्रकाशित हुआ। यह तप्ता और संवरण की पौराणिक कहानी का नाट्य रूपांतरण है। इसमें तप्ता के संवरण के ध्यान में लीन रहने और गौतम ऋषि द्वारा उसे शाप देने की घटना का वर्णन है जिसका बाद में ऋषि द्वारा निवारण किया गया, यह घटना शकुंतला नाटक की घटना से कुछ कुछ मिलती हुई दिखती है। इसी तरह प्रह्लाद चरित्र ग्यारह दृश्यों में विभाजित एक बड़ा नाटक है। रणधीर और प्रेममोहिनी नाटक को शेक्सपियर के रोमियो एंड जूलियट का छायानुवाद भी माना जाता है। इस नाटक ने भी उस समय लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया। दुखांत नाटक होने के कारण भारतीय साहित्य में इसका इतना चलन नहीं हुआ परंतु फिर भी यह कई लोगों तक पहुँचा, क्योंकि शेक्सपियर को उस समय का शिक्षित मध्यवर्ग काफी पढ़ता था और यह उनके ही नाटक का अनुवाद माना गया। इस नाटक की भाषा परीक्षागुरु की भाषा से अधिक परिमार्जित और व्याकरणिक रूप से शुद्ध दिखती है। उदाहरणार्थ इसका प्रारंभ इस प्रकार है, 

{चंपा पान लगाकर पानदान में रखती है और मालती प्रेममोहिनी की रत्नजड़ित प्रतिमा ले कर आती है}

चंपा : (देखकर) प्यारी ये क्या लायी है? क्या प्रेममोहिनी की प्रतिमा है? अहा! ये तो बड़ी सुन्दर! ........ 

मालती : बस बहन क्षमा करो तुम्हारी परख मैंने देख ली। ....... 

ऐसी भाषा देखकर यह नहीं लगता कि ये हिंदी का बहुत आरंभिक रूप है।

इससे यह भी पता चलता है कि लाला जी पाश्चात्य साहित्य को लेकर भी सजग थे। अपने व्यवसाय में व्यस्त रहते हुए भी वे साहित्य सेवा के लिए समय निकाल ही लेते थे। एक सजग साहित्यकार वही होता है, जिसका अध्ययन विशद हो, जिससे प्रयासों से उसके साहित्य का परिमार्जन होता रहे। लाला श्रीनिवासदास के नाटकों में विविधता है, उस काल के अनुसार ही उनका मूल्यांकन किया जाना चाहिए। आज की कसौटी पर हम आरंभिक गद्य को नहीं तौल सकते। निष्कर्षतः कहा जा सकता है वर्तमान गद्य की नींव भारतेंदु युग के ऐसे विद्वान साहित्यकारों की रचनाओं में देखी जा सकती है।

लाला श्रीनिवास दास : जीवन परिचय

जन्म

१८५१ ई०, दिल्ली

निधन

१८८७ ई०

व्यवसाय

तात्कालिक समय में पिता के ही व्यवसाय को आगे बढ़ाया।

साहित्यिक रचनाएँ

उपन्यास

परीक्षागुरु

नाटक

  • तप्तासंवरण

  • प्रह्लाद चरित्र

  • रणधीर और प्रेममोहिनी

  • संयोगिता स्वयंवर


संदर्भ 

  • हिंदी साहित्य का इतिहास : आचार्य रामचंद्र शुक्ल 
  • हिंदी आलोचना : विश्वनाथ त्रिपाठी 
  • रणधीर और प्रेममोहिनी : लाला श्रीनिवास दास

लेखक परिचय

विनीत काण्डपाल
स्नातक (प्रतिष्ठा) हिंदी, हिंदू कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय 
स्नातकोत्तर हिंदी, किरोड़ीमल कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय 
अनुवाद डिप्लोमा, हिंदी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय
जेआरएफ हिंदी, शोधार्थी, सोबन सिंह जीना विश्वविद्यालय अल्मोड़ा (उत्तराखंड)
मोबाइल - 8954940795 
ईमेल - vineetkandpal1998@gmail.com

Wednesday, September 28, 2022

शिवप्रसाद सिंह : नई कहानी के प्रवर्तक कथाकार

शिवप्रसाद सिंह - भारतकोश, ज्ञान का हिन्दी महासागर


कहानी आधुनिक युग में गद्य-साहित्य का विकास है, किंतु इसके प्रमाण इससे पूर्वकाल में भी प्राप्त होते हैं। यूँ तो नई कहानी यानी समकालीन कहानी की शुरुआत सन ६० के बाद से मानी जाती है, जिसके प्रवर्तक कथाकार थे, डॉ० शिवप्रसाद सिंह। उनका जन्म १९ अगस्त १९२८ को बनारस के जलालपुर गाँव (उत्तर प्रदेश) में एक जमींदार परिवार में हुआ था। इनका जन्म कहीं-कहीं १९२९ भी दर्ज़ है। पर यह अप्रामाणिक है। उनकी प्रारंभिक शिक्षा स्थानीय पाठशाला में हुई। उनके व्यक्तित्व के विकास में उनकी दादी, पिता और माँ का विशेष योगदान रहा। उन्होंने १९४९ ई० में उदयप्रताप कॉलेज से इंटरमीडिएट की परीक्षा उत्तीर्ण कर १९५१ में काशी हिंदू विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया। वहीं से एमए (हिंदी) करने के उपरांत आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के निर्देशन में 'सूर पूर्व ब्रजभाषा और उसका साहित्य' विषय पर पीएचडी की उपाधि प्राप्त की। १९५६ से वे वहीं प्राध्यापक रहे। १९८८ में अध्यक्ष पद से सेवानिवृत्त होने के बाद डॉ० सिंह 'प्रोफेसर एमेरिटस' भी रहे। वे छठे दशक के उन विशिष्ट रचनाकारों में थे जिनकी रचनाओं में भारतीय चित्र तथा गहरी संवेदना और समकालीन यथार्थ के द्वंद्व का सूक्ष्म एवं कलात्मक रूपांकन हुआ है।


उन्होंने साहित्य की विविध विधाओं - उपन्यास, कहानी, निबंध, नाटक, रिपोर्ताज़, आलोचना आदि में महत्वपूर्ण सृजन किया। किंतु उनकी प्रतिभा एक कथाशिल्पी के रूप में विशिष्ट कही जा सकती है। उन्होंने अपनी कहानियों में आंचलिकता के जो प्रयोग किए, वे प्रेमचंद और फणीश्वरनाथ रेणु से पृथक थे। पृथक्करण की यह अद्वितीयता उन्हें हिंदी कथा-साहित्य में एक नए, उर्वर 'प्लेटफार्म' पर प्रतिष्ठित करती है। वे एक बौद्धिक साहित्यकार थे। उनकी अद्भुत बौद्धिकता, तार्किकता और विलक्षण प्रज्ञा-प्रतिभा ने हिंदी साहित्य को आंदोलित किया। उनके जीवन में अनेक उतार-चढ़ाव आए। परिस्थितियाँ विद्रूप हुईं पर वे अपने अप्रतिम धैर्य और हिम्मत से उनका मुकाबला करते रहे। लेकिन बेटी की आकस्मिक मौत ने साहित्य के महाबली को तोड़ दिया। 


साहित्य और दर्शन के विशिष्ट विद्यार्थी डॉ० शिवप्रसाद सिंह ने शीर्षस्थ कथाशिल्पी होने के साथ ही अनुशीलन, संपादन, चिंतन और निबंध लेखन के क्षेत्र में अपनी पृथक पहचान बनाई। उपन्यास सृजन की कलात्मकता ने उन्हें अतिरिक्त सम्मान दिया। उनकी कहानियों और उपन्यासों में समकालीन समाज का यथार्थ बिंब दिखाई देता है। 'आर-पार की माला', 'कर्मनाशा की हार', 'शाखामृग', 'इन्हें भी इंतजार है', 'मुर्दा सराय' उनके बहुचर्चित कहानी-संग्रह हैं, तो 'अलग-अलग वैतरणी', 'गली आगे मुड़ती है', 'नीला चाँद' और 'वैश्वानर' प्रसिद्ध कथात्मक कृतियाँ हैं। डॉ० नामवर सिंह का यह कहना है कि "शिवप्रसाद सिंह को उपन्यास लिखने की प्रेरणा आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के 'चारुचन्द्र' से मिली", पर इससे सहमत नहीं हुआ जा सकता। इन कृतियों ने उनके विरल व्यक्तित्व को विशेष ऊँचाई दी। उनकी 'कर्मनाशा की हार' और 'गली आगे मुड़ती है' और 'नीला चाँद' कृतियाँ प्रकाशित हो आलोचना से रूबरू हुईं थी। 'गली आगे मुड़ती है' उपन्यास भी स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद के टूटते हुए गाँव की कहानी है। टूटते गाँव में अभी भी कुछ टूटने को बाकी है। वास्तव में यह टूटना जड़ता और अज्ञानता का टूटना नहीं है, मूल्यों और संबंधों का टूटना है, विवेक और संवेदनाओं का टूटना है। साथ ही साथ ज़मींदारी और जाति-पाँति का भी टूटना है। किंतु यह कितनी बड़ी विडंबना है कि बुरी चीजें टूटकर भी नहीं टूटी और अच्छी चीजें टूटने लगीं तो फिर टूटती ही गईं। गाँव में वही जड़ता, अंधविश्वास, विवेकहीन, स्वार्थांध, सामान्य लोगों की अधकचरी सोच बरकरार है। 


'कर्मनाशा की हार' कहानी का कथ्य कुछ इस प्रकार है, "काले सांप का काटा आदमी बच सकता है, हलाहल पीने वाले की मौत रुक सकती है, किंतु जिस पौधे को एकबार कर्मनाशा का पानी छू ले, वह फिर हरा नहीं हो सकता। कर्मनाशा के बारे में किनारे के लोगों में एक और विश्वास प्रचलित था कि यदि एकबार नदी बढ़ आए तो बिना मानुस की बलि लिए लौटती नहीं। हालाँकि थोड़ी ऊँचाई पर बसे वालों को इसका कोई खौफ़ न था, इसी से बाढ़ के दिनों में, गेरू की फैले हुए अपार जल को देखकर खुशियाँ मनाते, दो-चार दिन की यह बाढ़ उनके लिए तब्दीली बनकर आती।" उन्होंने अपनी कहानियों को ग्रामोन्मुखी बनाकर सामाजिक विसंगतियों पर तीखा व्यंग्य करते हुए अनेक अंतर्विरोधों को उकेरा है और अंधविश्वासों पर गहरी चोट की है। दरअसल नई कहानी की चेतना परिवेश से जुड़े हुए व्यक्ति-मन की चेतना है। इसीलिए न तो वह बाह्य यथार्थ की अनुभूतिहीन फार्मूला कथा कहती है न बाहरी परिवेश से विच्छिन्न होकर या बाहरी परिवेश को केवल अचेतन की दुनिया से संदर्भित कर मात्र व्यक्ति-मन का चित्रण करती है। गाँव के संबंध में शिवप्रसाद सिंह की बहुत महत्त्वपूर्ण और जटिल संवेदना वाली मार्मिक कहानी है, 'नन्हों'। यह कहानी ग्राम-परिवेश के अनेक रंगों और गंधों को अपने में समेटे हुए है। इसी तरह 'राग गूजरी' और 'भेदिए' कहानियाँ भी गँवई जन-संवेदना की उत्कृष्ट कहानियाँ हैं। उनकी पहली कहानी 'दादी माँ' थी, जिससे हिंदी कहानी को एक नया आयाम मिला। इसका प्रकाशन १९५१ में 'पहल' प्रत्रिका में हुआ था। उनके उपन्यास में भी अंचलीय संस्पर्श और रंग साफ दिखाई देता है। 


काशी के सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन के दर्शन उनके 'गली आगे मुड़ती है' और 'नीला चाँद' और 'वैश्वानर' में बिंबित होता है। 'नीला चाँद' इतिहास का जीवंत दस्तावेज है। इसमें मध्यकालीन काशी का विस्तृत फलक है। यह न धर्मोपदेश है, न अख़बार का पन्ना। यह नई सदी की दहलीज़ पर पैर रखने वाले मानव जीवन का सच है। बड़े विस्तृत फलक पर कथा का सृजन नएपन के साथ औपन्यासिक नई दृष्टि लिए है। इनमें जन-चेतना उन्हें प्रेमचंद से जोड़ते हुए भी कथ्य और शिल्प के संबद्ध में नवीनता पृथक करती है। वे परंपरा से पृथक दिखते हैं। अपने स्वरूप और दृष्टि में भिन्न हैं। उनकी रचनाओं में उनके व्यक्तित्व की झलक मिलती है। कहते हैं, 'वैश्वानर' उपन्यास पर कार्य करने से पूर्व उन्होंने संपूर्ण वैदिक वांग्मय को खंगाला डाला।


शिवप्रसाद जी ने विचार-प्रधान निबंधों के साथ ही रम्य-मुद्रा में व्यक्ति-व्यंजक निबंध लिखे हैं। उनके निबंधों में धरती-राग और वैदुष्य की आभा सहज रूप से दृष्टिगत होती है। अपने गाँव और अपने नगर काशी से संपृक्त निबंधकार डॉ० सिंह ने हल्के-फुल्के प्रसंगों के माध्यम से भारतीय संस्कृति के ज्वलंत सवालों को स्पर्श किया है। उनके निबंधों में जो उत्कृष्टता के गुण से परिपूर्ण लालित्य हैं, वह प्रभावपूर्ण हैं। 'आधुनिक परिवेश और अस्तित्ववाद' निबंध स्थायी महत्व लिए पुनः पुनः पठनीय है। जिसमें उन्होंने अस्तित्ववाद के संदर्भ में पश्चिमी प्रभाववाद और यांत्रिक भौतिकवाद के अन्योन्याश्रित संबंधों को उद्घाटित तो किया ही है, अस्तित्ववाद के सिद्धांतों पर भी गहन प्रकाश डाला है जो नए चिंतन को जन्म देता है।


शिवप्रसाद सिंह ने यात्रा-वृत्तांत, संस्मरण और डायरी आदि विधाओं में भी लिखा है। उनके संस्मरण रेखाचित्र से अति रोचक हैं, जिनमें उन्होंने अपनी अतीत और समसामयिक स्मृतियों को संजोया है। डायरी के माध्यम से लेखक ने स्फूर्त भावों और विचारों को अभिव्यक्त किया है, तो जीवनी में अपनी माँ और पारिवारिक स्थितियों-परिस्थितियों और उनके मनोभावों को मनोवैज्ञानिक ढंग से प्रस्तुत किया है। उसके अंश देखें, "किशन भैया की शादी ठीक हुई, दादी माँ के उत्साह पड़ोसिनें आतीं, हुक्का चढ़ता। बहुत बुलाने पर दादी माँ आतीं, बहिन बुरा न मानना। कार-परोजन का घर ठहरा। एक काम अपने हाथ से न करूँ, तो होने वाला नहीं।"


अस्तित्ववादी दर्शन और अरविंद-दर्शन पर केंद्रित उनकी पुस्तकें हिंदी में अद्वितीय अवदान के रूप में समादृत हैं। प्रत्येक विधा में उनका सृजक व्यक्तित्व प्रधान रहा है। अतः डॉ० शिवप्रसाद सिंह आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की सारस्वत परंपरा के वारिस सिद्ध होते हैं। उनकी भाषिक संरचना सरल-सहज किंतु प्रगल्भ है। नई अनुभूति और नए विचारों का अन्वेषण उनका अतिरिक्त वैशिष्ट्य है। चूँकि वे एक ख्याति प्राप्त आलोचक भी रहें हैं, अतः उनकी कथात्मक कृतियों और आलोचना की भाषा में बारीक अंतर है। पश्चिम की मान्यता से पृथक उन्होंने कुछ अनुभवजन्य आलोचनाएँ भी लिखी हैं। उसमें बौद्धिकता, तर्क और वैज्ञानिकता ही नहीं, अपितु शिल्प और भाषा के स्तर पर कलात्मकता भी हैं। उनके सृजन में कहीं वस्तु-तत्त्व का प्राधान्य है, तो कहीं कला-पक्ष का। परंतु संपूर्ण सृजन भाषिक संरचना की दृष्टि से सरल- सुगम मौलिक प्रतिभादर्श लिए है। उनकी भाषा परिशिष्ट खड़ीबोली है। यत्र-तत्र भोजपुरी के साथ देशज शब्द की प्रयोगधर्मिता और कहावतों-मुहावरों का छौंक जायकेदार लगता है। अतः उनके साहित्य का वाचन करना गंगा में अवगाहन करने जैसी अनुभूति कराता है।


शिवप्रसाद सिंह : जीवन परिचय

जन्म

१९ अगस्त १९२८, जलालपुर, बनारस, उत्तर प्रदेश

निधन

२८ सितंबर १९९८

शिक्षा

एमए (हिंदी), पीएचडी (हिंदी) 

कार्यक्षेत्र 

प्राध्यापक एवं विभागाध्यक्ष, काशी हिंदू विश्वविद्यालय

साहित्यिक रचनाएँ

कहानी संग्रह

  • आर-पार की माला

  • कर्मनाशा की हार

  • शाखामृग

  • इन्हें भी इंतजार है

  • मुर्दा सराय

  • धतुरे का फूल

  • कोहरे में युद्ध

  • राग गुजरी

  • भेदिए

  • एक यात्रा सतह के नीचे

  • नन्हों

उपन्यास

  • अलग-अलग वैतरणी

  • गली आगे मुड़ती है

  • नीला चाँद 

  • शैलूष

  • हनोज

  • दिल्ली दूर है

  • औरत 

  • वैश्वानर

  • मंजुषिमा

निबंध संग्रह

  • शिखरों के सेतु

  • कस्तूरी मृग

  • चतुर्दिक

रिपोर्ताज़

  • अन्तरिक्ष के मेहमान

नाटक

  • घाटियाँ गूंजती हैं

आलोचना

  • विद्यापति

  • कीर्तिलता और अवश्य भाषा 

  • आधुनिक परिवेश और नवलेखन

  • आधुनिक परिवेश और अस्तित्ववाद

जीवनी

  • उत्तरयोगी श्री अरविंद

संपादन

  • शांतिनिकेतन से शिवालिक तक

सम्मान

  • उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान, लखनऊ द्वारा संस्थान सम्मान

  • साहित्य अकादमी पुरस्कार

  • के० के० बिरला फाउंडेशन द्वारा 'व्यास सम्मान'

  • शारदा सम्मान


संदर्भ

  • विकिपीडिया 

  • भारतकोश/भारत डिस्कवरी

  • रामदरश मिश्र रचनावली (आलोचना) खंड-१४, प्रथम संस्करण २०००

  • बीसवीं सदी : हिंदी के मानक निबंध (खंड २) संपादक डॉ० राहुल, भावना प्रकाशन दिल्ली।

  • साहित्यकार निर्देशिका, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान, लखनऊ (१९९१)।

  • हिंदी साहित्य : युग और प्रवृत्तियाँ, डॉ० शिवकुमार शर्मा, अशोक प्रकाशन, दिल्ली - ०६।

लेखक परिचय

डॉ० राहुल 

ग्राम - खेवली, ज़िला - वाराणसी (उत्तर प्रदेश) 
आकाशवाणी दिल्ली केंद्र से इनकी वार्ताएँ प्रसारित हैं। 
कैंब्रिज विश्वविद्यालय, लंदन के इनसाइक्लोपीडिया में इनका साहित्यिक संदर्भ प्रकाशित।
संपर्क : 9289440642
ईमेल : rahul.sri1952@gmail.com

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