Tuesday, November 30, 2021

आभार

साहित्यकार तिथिवार, “हिन्दी से प्यार है” समूह की एक ऐसी परियोजना है जिसके तहत आप प्रतिदिन साहित्य जगत के एक अनूठे हस्ताक्षर से रूबरू होते हैं| आज इस महत्वाकांक्षी परियोजना का पहला माह पूरा हो गया है| इस पुनीत अवसर पर हम सभी पाठकों और लेखकों का ह्रदय से आभार व्यक्त करते हैं| आशा है गत माह आपके लिए ज्ञानवर्धक और प्रेरणादायी रहा होगा| आपका स्नेह और सहयोग ही हमारा पाथेय है। हम पूरे ३६५ दिन आप के लिए साहित्य जगत के जगमगाते सितारे प्रस्तुत करने के लिए कटिबद्ध हैं।

यह परियोजना से जुड़े सभी लोगों के अथक परिश्रम का परिणाम है कि प्रतिदिन भारतीय समयानुसार प्रातः ६ बजे एक नया आलेख प्रेषित होता है| प्रत्येक आलेख तीन-चरणों की गुणवत्ता की कसौटी से होकर आपके समक्ष प्रस्तुत किया जाता है| फिर भी यदि कोई भूल-चूक हो जाये तो आपके सुझाव और प्रतिक्रियाओं का स्वागत है|  संपादक-मंडल के सदस्यों को एक बार पुन: हृदय से धन्यवाद करते हुए उनके सामूहिक चित्र को आज पहली बार हम यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं। 



अब तक मिले आपके स्नेह से हम अभिभूत हैं। यदि आप इस परियोजना से बतौर लेखक जुड़ना चाहते हैं तो हमें संपर्क कर सकते हैं| हमारा पता है: vishwahindi.global@gmail.com

मैत्रेयी पुष्पा: नारी के लोकतांत्रिक मूल्यों की सशक्त आवाज़

                                          


       

ज्यों शीतल मंद बयार ज्येष्ठ के आतप से व्यथित सभी के शरीर को अह्लादित करती हुई बहती है, त्यों ही मैत्रेयी जी की रचनाधर्मिता साहित्य प्रेमियों को प्रफुल्लित करती हुई बढ़ती है। उनके शब्द पुष्प अपनी सुगंध बिखेरते हुए, हिंदी साहित्य को सुगंधित करते हुए एक अलग ही आभा बिखेरते हैं। वर्तमान में मैत्रेयी जी मूर्धन्य साहित्यकारों में सुशोभित हैं।

३० नवम्बर १९४४, के दिन अलीगढ़ के सिकुर्रा गाँव की गोदी में एक अबोध बालिका ने जन्म लिया, जिसे आज दुनिया मैत्रेयी पुष्पा के नाम से जानती है। उनकी माता कस्तूरी तथा पिता श्री हीरा लाल पांडेय थे। पिता की मृत्यु के बाद माता की देख-रेख में उनका बचपन बीता। माँ ने उनकी शिक्षा के लिए अथक परिश्रम किया। आरंभिक शिक्षा गाँव से होने के उपरांत बुंदेलखंड कॉलेज से हिंदी में परास्नातक की शिक्षा प्राप्त की। माँ की इच्छा अनुसार उनका विवाह डॉ. रमेश चन्द्र शर्मा से हुआ। कुछ समय अलीगढ़ में रहने के बाद उन्हें गाँव से निकल कर दिल्ली में रहने का अवसर मिला।

लेखन के लिए उनके बच्चों ने उन्हें प्रेरित किया। जिसके फलस्वरूप उनकी पहली कृति १९९० में ‘स्मृति दंस’ के नाम से प्रकाशित हुई। उनके साहित्य को गति राजेंद्र यादव और हंस पत्रिका के द्वारा मिली।

दलित और स्त्री विमर्श, ग्रामीण अंचल, बुंदेली ताना-बाना उनकी रचनाओं का आधार है। स्त्री को पग-पग पर उपेक्षित और प्रताड़ित होने की दास्ताँ ही उनकी रचनाओं का मूल स्रोत है। उनकी रचनाओं में विचारों की विविधता है।

'इदन्नमम’ जैसी कालजयी रचना उनके रचनात्मक कार्य का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण है। 'मंदा’ के बहाने वो एक नया कैनवास तैयार करती हैं। मंदा नारी शक्ति का प्रतिबिंब बनकर उभरी है। एक साधारण सी स्त्री भी जीवन के हर क्षेत्र में क्रांति ला सकती है।

मैत्रेयी जी ने जिस बेबाकी से अपने शब्दों को धार दी है, वो बिरले ही मिलती है। यथार्थ को ज्यों का त्यों काग़ज पर उतार देना बड़े साहस का कार्य होता है, जिसे उन्होंने बड़ी कुशलता से किया है। गाँव की स्त्री कब, किस तरह और किन-किन पड़ावों से गुजरती है, उसका बड़ा विशद चित्रण अपनी रचनाओं के माध्यम से किया है। नारी शोषण, दासता और लाचारी से उपर उठ कर उनके पात्र अपना विद्रोह दर्ज कराते हुए दृष्टिगोचर हुए हैं।

अपनी रचनाओं में मैत्रेयी पुष्पा एक ओर परंपरागत रीति-रिवाजों और शोषण से उबरने की बात करती हैं, वहीं दूसरी ओर आत्मनिर्भरता और स्वावलंबी चेतना का प्रबल समर्थन भी करती हैं। आत्मकथा के माध्यम से मैत्रेयी पुष्पा विवाह संबंधी परंपरागत रूढ़ियों को तोड़ने की पुरज़ोर कोशिश करती हैं। पति-पत्नी के बीच असमानता की खाई को समाप्त कर समान अधिकार और समान कर्तव्यों के हक़ के लिए लेखिका समाज की पुरुषवादी मानसिकता से लड़ने का साहस भी करती है।

बिंदास लेखन शैली के कारण उन्होंने साहित्य में एक अलग स्थान प्राप्त कर लिया है। अपनी रचनाओं में मैत्रेयी जातिव्यवस्था के प्रश्न को भी उठाती हैं। शिक्षा, विवाह और कविता लेखन संबंधी प्रसंग समाज में व्याप्त असमानता, छुआछूत संबंधी प्रश्नों को उभारते हैं।  मैत्रेयी पुष्पा की आत्मकथा में जो महत्वपूर्ण बात देखने को मिलती है, वह यह है कि लेखिका पुरानी परंपराओं को तोड़कर निर्माण की आकांक्षा नहीं करती। उनकी नज़र में तो परंपरा पुरानी भी हो सकती है और नई भी; बशर्ते पुरानी परंपरा में नई बातें, नई विधियाँ - प्रविधियाँ शामिल हों। परंपरा में नया रूप जोड़कर उसे सर्वथा नूतन और नवीन रूप प्रदान करना ही लेखिका का उद्देश्य रहा है।

साहित्य के उत्थान हेतु वो सतत् प्रयास कर रही हैं। अकादमी की पत्रिका ‘इंद्रप्रस्थ भारती’ में सुधार उनकी दूरदर्शिता का प्रतीक है। 'भाषा दर्पण’ जैसी प्रतियोगिता का आयोजन भावी पीढ़ियों को साहित्य में लाने का एक अदभुत प्रयास है।

वे बुंदेली मिट्टी की विद्रोही लेखिका के तौर पर विख्यात हैं। वर्षोँ से साहित्य सेवा में जुटी मैत्रेयी जी आज भी उसी जीवटता के साथ साहित्य सेवा में अनवरत लगी हैं। नारी समस्या को आधार बनाकर उन्होंने खुली खिड़कियाँ, सुनो मालिक सुनो, चर्चा हमारी, आवाज़ और तब्दील निगाहें जैसी अनुपम कृतियाँ हिन्दी साहित्य को दी हैं। साहित्य बिना संवेदना के शून्य हो जाता है। यही दुःख दर्द साहित्य के कई सोपानों को समेटे उनकी रचनाओं में दृष्टिगोचर होता है। लोकतांत्रिक मूल्यों की भाँति वो स्त्री स्वाभिमान की चर्चा अपनी कृतियों में करती हैं।

कई उपन्यास, कहानियाँ, आलेख, नाटक, कविताओं का विपुल साहित्य, हिंदी की समृद्ध धरोहर है। अनेकानेक सम्मान उनकी उपलब्धि में चार चाँद लगाते हैं। स्त्री विमर्श, दलित साहित्य, ग्रामीण पृष्ठभूमि, सहज- सरल भाषा शैली और खुले विचारों की शानदार अभिव्यक्ति मैत्रेयी पुष्पा जी की एक विलक्षण प्रतिभा है, जिसके दम पर वे आज हिंदी साहित्य के आसमान में एक दैदीप्यमान नक्षत्र के रूप में सुशोभित हैं।


मैत्रेयी पुष्पा: जीवन परिचय

जन्म 

३० नवंम्बर १९४४, अलीगढ़ , उत्तर प्रदेश 

पिता 

श्री हीरालाल पाण्डेय 

माता 

श्रीमती कस्तूरी 

पति 

डॉ. रमेश चन्द्र शर्मा 

शिक्षा 

हिन्दी साहित्य में एम.ए.


साहित्यिक रचनाएँ 

उपन्यास 

स्मृति दंस, चाक, इदन्नमम, बेतवा बहती रही, झूला नट, अल्मा कबूतरी, गोमा हंसती है, कही ईसुरी फ़ाग, फ़रिश्ते निकले, विज़न

कहानी 

चिन्हार, त्रिय हठ, फै़सला, सिस्टर, लालमनियाँ तथा अन्य कहानियाँ, सेंध, अब फूल नहीं खिलते, बोझ, छाँह,

तुम किसकी हो बिन्नी


आत्मकथा 

गुड़िया भीतर गुड़िया,

कस्तूरी कुंडल बसैं


कविता साहित्य 

लकीरें

यात्रा संस्मरण


अगन पाखी


संस्मरण

वह सफर था कि मुकाम था

आलेख 

खुली खिड़कियाँ, सुनो मालिक सुनो, चर्चा हमारी, आवाज

और तब्दील निगाहें (स्त्री विमर्श संग्रह) 


नाटक 

मंदाक्रांता


पुरस्कार एवं सम्मान 


  • मंगला प्रसाद पारितोषक

  • हिंदी अकादमी का साहित्य सम्मान

  • कथा पुरस्कार १९९३,उनकी कहानी ‘फैसला’ के लिए 

  • उ.प्र.साहित्य संस्थान का प्रेमचंद सम्मान १९९५  'बेतवा बहती रही’ के लिए

  • नंजनागुड्डू तिरूमालम्बा पुरस्कार 1996 उनकी प्रसिद्ध कृति 'इदन्नमम' हेतु

  • सरोजिनी नायडू सम्मान

  • सार्क लिट्रेरी अवार्ड

  • वीर सिंह जू देव सम्मान, मध्य प्रदेश साहित्य परिषद् द्वारा

  • सुधा साहित्य सम्मान २००८

  • वनमाली सम्मान

  • कबीर सम्मान२०२१ आखर आखर, अंतर्राष्ट्रीय हिंदी वेब पत्रिका


संदर्भ:-

  • इदन्नमम

  • www.wikipedia.org

  • www.livehindustan.com

  • www.aajtak.in

  • गुनाह-बेगुनाह

  • विज़न

  • चाक

  • हंस पत्रिका

  • www.shabadankan.com                                  

परिचय: मनीष कुमार श्रीवास्तव 


अध्यापक और साहित्यकार, भिटारी, रायबरेली प्रकाशित कृतियां:- एकल संग्रह :-प्रकाश एक द्युति (हाइकु क्षितिज) २०२० में प्रकाशित। अनेक साझा संग्रह व कई पत्र पत्रिकाओं में तथा सोशल मीडिया पर हाइकु कविता, कहानी और आलेख प्रकाशित।   

            

Monday, November 29, 2021

अली सरदार जाफ़री: एक संवेदनशील साहित्यकार

 

अली सरदार जाफ़री, अपनी धुन के पक्के व्यक्ति थे| उनके साहित्य ने ज़िंदगी भर कमज़ोर और ग़रीबों केआँसू पोंछे और उनके चेहरों पर मुस्कान लाने की कोशिश की। प्रगतिशील लेखकआंदोलन के संस्थापकों में से एक, सरदार जाफ़री ने शायरी के ज़रिये नए शब्दों और नए विचारों को लोगों के सामने रखा। अपने इन्क़िलाबी विचारों की वजह से बार-बार जेल गए, बहुत मुश्किलों का सामना किया, लेकिन सदा अपने मन की सुनी। अली सरदार जाफ़री संवेदनशील कवि, नाटककार, कहानीकार, फिल्म निर्माता, क्रांतिकारी, चिंतक और सामाजिक कार्यकर्ता होने के साथ-साथ बेहतरीन आलोचक और अनुवादक भी थे।


अली सरदार जाफ़री ने बलरामपुर में स्कूली शिक्षा प्राप्त की और फिर आगे की पढ़ाई के लिए १९३३ में अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी गए । यहाँ रहते हुए उनपर कम्युनिस्ट विचारधारा का प्रभाव पड़ा और उसी के चलते १९३६ में उन्हें यूनिवर्सिटी से निष्कासित कर दिया गया। उन्होंने १९३८ में दिल्ली विश्वविद्यालय के ज़ाकिर हुसैन कॉलेज में दाख़िला लिया और स्नातक की उपाधि प्राप्त की । फिर इंग्लिश लिटरेचर में स्नातकोत्तर पढ़ाई के लिए लखनऊ विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया। यहीं १९३९ में उनकी मुलाक़ात राजनीति विज्ञान से एम ए कर रहीं सुल्ताना से हुई, जिनसे उन्हें प्रेम हुआ और बाद में १९४८ में शादी हुई। वर्ष १९४०-४१ के दौरान युद्ध-विरोधी कविताएँ लिखने और राजनीतिक गतिविधियों में भाग लेने के लिए उन्हें गिरफ़्तार भी किया गया। उन्होंने इंडियन नेशनल कांग्रेस की सियासी सरगर्मियों में भी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया । एम ए फाइनल की परीक्षा में बैठने की अनुमति नहीं मिल सकी और गिरफ़्तार करके जेल भेज दिए गए । चाहे आज़ादी का आंदोलन हो, कामगार-मज़दूरों के धरने-प्रदर्शन, स्टूडेंट्स मूवमेंट हो या फिर अदीबों का आंदोलन- अली सरदार जाफरी इन सभी आंदोलनों में हमेशा उपस्थित रहते थे। उनका मानना था कि हर अच्छी कविता में कवि के दिल का लहू घुल-मिल जाता है। मुंबई में १ अगस्त सन २००० में, ८६ वर्ष की आयु में उनका स्वर्गवास हो गया।

लेखन

जाफ़री ने केवल पंद्रह वर्ष की उम्र में लिखना शुरू कर दिया था। उन्होंने लघु कथाएँ लिखनी १७ साल की उम्र में शुरू की थीं। १९३८ में जाफ़री की लघु कहानियों की पहली किताब ‘मंज़िल' प्रकाशित हुई। उनका पहला कविता संग्रह परवाज़ (उड़ान) १९४४ में प्रकाशित हुआ था। वर्ष १९३९ में वे प्रगतिशील लेखक के आंदोलन को समर्पित साहित्यिक पत्रिका, नया अदब, के सह-संपादक बने, जो १९४९ तक प्रकाशित होती रही। उन्होंने शेक्सपियर की कुछ रचनाओं का सफलतापूर्वक अनुवाद भी किया। उन्होंने एक ही किताब में एक साथ दोनों भाषाओं के चार शास्त्रीय कवियों, यानी, ‘ग़ालिब’, ‘मीर, कबीर और मीरा’ की रचनाओं को प्रकाशित करके उर्दू और हिंदी के बीच की खाई को कम करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। वह ९९ शायरी के संकलनों के शायर भी थे। इप्‍टा के लिए जाफ़री ने दो नाटक लिखने के अलावा एक डॉक्यूमेंट्री फिल्‍म 'कबीर, इक़बाल और आज़ादी' बनाई। उनकी रचनाओं में कई काव्य-विधाएँ जैसे मसनवी, ग़ज़ल, नज़्म, कविताएँ आदि शामिल हैं। 'पैकर' उनवान से नाटक भी लिखा। 'लखनऊ की पाँच रातें' नाम से एक 'यात्रा वृतांत' की किताब भी मंज़र-ए-आम पर आई, उनकी किताबों में १९४४ में आई 'परवाज़' के आलावा 'जम्हूर' (१९४६), 'नई दुनिया को सलाम' (१९४७), 'ख़ून की लकीर' (१९४९), 'अम्न का सितारा' (१९५०), 'एशिया जाग उठा' (१९५०), 'पत्थर की दीवार' (१९५३), 'एक ख़्वाब और' (१९६५), 'पैराहने शरर' (१९६६), 'लहू पुकारता है' (१९७८), 'मेरा सफ़र' (१९९९) आदि मुख्य हैं। इसके अलावा 'अवध की ख़ाक-ए-हसीन', 'सुब्हे फ़र्दा' और आख़िरी कृति 'सरहद' (१९९९) भी बहुत अहमियत रखती हैं।

सम्मान और पुरस्कार

सरदार अली जाफ़री को कई पुरस्कारों से नवाज़ा गया| इनमें १९६५ में सोवियत लैंड नेहरु अवार्ड, १९६७ में पद्मश्री, १९७८ में पाकिस्तान सरकार द्वारा इक़बाल गोल्ड मैडल सम्मान, १९७९ में उत्तरप्रदेश उर्दू अकादमी अवार्ड, १९८३ में 'एशिया जाग उठा' के लिए कुमारन आसन अवार्ड, १९८६ में अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी द्वारा डी.लिट., १९८६ में अंतर्राष्ट्रीय उर्दू अवार्ड और इक़बाल सम्मान, १९९७ में ज्ञानपीठ अवार्ड, १९९९ में हॉवर्ड यूनिवर्सिटी अमेरिका द्वारा अंतर्राष्ट्रीय शांति पुरस्कार आदि प्रमुख हैं।

कुछ रोचक किस्से

इस्मत चुगताई और सरदार अली जाफ़री –

३० जनवरी १९४८ को सरदार और सुल्ताना अपनी शादी का रजिस्ट्रेशन करवाने लोकल बस से रजिस्ट्रार ऑफिस पहुँचे। दूल्हा बने सरदार की जेब में उस वक़्त महज़ ३ रुपए थे। कृशन चंदर, के ए अब्बास और इस्मत चुगताई इसके गवाह बने ।

सरदार की कैफ़ी और शौकत से मित्रता

शादी के बाद ये जोड़ा अंधेरी कम्यून में रहने चला गया, जहाँ कैफ़ी और शौकत आज़मी पहले से रहते थे। दोनों युगलों के बीच घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित हुए, जो जीवन पर्यन्त चलते रहे।

जेल से पत्नी सुल्ताना के नाम पत्र

सरदार जी ने १९४९ में नासिक जेल से पत्नी सुल्ताना के नाम अनेक पत्र लिखे। इन ख़तों में मुहब्बत, जज़्बात, तन्हाई और उम्मीद के कई अलग-अलग रंग देखने को मिलते हैं ।

तुर्की कवि नाज़िम हिकमत पर रखे बेटों के नाम

हैदराबाद में सरदार जाफ़री के बड़े बेटे अली नाज़िम जाफ़री ने भी पिता के बारे में बात करते हुए कहा कि पिताजी तुर्क कवि नाज़िम हिकमत की रचनाओं से भी प्रभावित थे। साथ ही उनके अच्छे दोस्त भी। लिहाज़ा, इसी दीवानगी में उन्होंने मेरा नाम 'नाज़िम' और अपने छोटे भाई का नाम 'हिकमत' रख दिया था।

सरदार अनेक विदेशी लेखकों से भी मिले

उन्होंने अमरीका, कनाड़ा, रूस, फ्रांस, तुर्की आदि देशों का भ्रमण किया तथा इस दौरान वहाँ के क्रांतिकारी कवियों से भी मुलाक़ात की। इन कवियों में पाब्लो नेरुदा, तुर्की के नाज़िम हिकमत, फ्रांस के लुई अरागाँ, एल्या एहरान, रूस के शलाखोव प्रमुख हैं।

प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के साथ सरदार अली जाफ़री

तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के साथ जाफ़री भी पकिस्तान गए थे। तब उन्होंने सरहद पर एक ऑडियो एल्बम भी बनाया। एल्बम का निर्माण स्क्वाड्रन लीडर अनिल सहगल ने किया था और आवाज़ दी थी ‘बुलबुल-ए-कश्मीर’ सीमा सहगल ने।

शबाना आज़मी और अली सरदार जाफ़री

अभिनेत्री शबाना आज़मी ने किसी इंटरव्यू में अली सरदार जाफ़री के बारे में बताते हुए कहा - 'सरदार साहब के बड़े बेटे 'नाज़िम' उन्हें 'डैडी' कहने की कोशिश में 'दोदा' कहते थे। फिर हम भी उन्हें दोदा कह कर बुलाने लगे, जबकि उनकी पत्नी सुल्ताना जी को हम अम्मा कहते थे।

'मॉन्ट ब्लांक' का पेन

शबाना आज़मी ने बताया कि सरदार अली जाफ़री सरल व्यक्ति थे। उनकी कोई बड़ी ख़्वाहिश नहीं थी। लेकिन एक बार उन्होंने इच्छा ज़ाहिर की कि काश मेरे पास 'मॉन्ट ब्लांक' पेन हो। यह बात जब अदाकार फ़ारुख़ शेख़ तक पहुँची, तो उन्होंने 'दोदा' को एक 'मॉन्ट ब्लांक' पेन तोहफे में दे दिया।

निदा फाजली और अली सरदार जाफ़री

निदा फाजली ने अपने एक लेख में अली सरदार जाफ़री के बारे में कहा -

‘जाफ़री नाम से मुसलमान थे, लेकिन अपने काम से सेक्युलर हिंदुस्तानी थे’। जाफ़री का संघर्ष देश की आज़ादी तक ही सीमित नहीं रहा, आज़ादी के बाद उन्होंने एक अलग लड़ाई लड़ी। जो देश में लोकतांत्रिक मूल्यों, धर्मनिरपेक्षता, समाजवाद, राष्ट्रीय एकता और अखंडता के लिए थी। अली सरदार जाफ़री अब हमारे बीच नहीं हैं पर उनका साहित्य उन्हें सदा अमर रखेगा।


अली सरदार जाफ़री: जीवन परिचय

जन्म

२९ नवम्बर, १९१३

जन्मभूमि 

बलरामपुर, गोंडा (उ.प्र)

शिक्षा 

स्नातक, दिल्ली  विश्वविद्यालय


अंग्रेजी साहित्य में स्नातकोत्तर, लखनऊ  विश्वविद्यालय

 

सन्दर्भ : यह लेख विभिन्न वेबसाइटों पर अली सरदार जाफ़री के विषय में उपलब्ध सूचना पर आधारित है।



रेखा राजवंशी का परिचय 

 

कवयित्री और लेखिका रेखा राजवंशी ऑस्ट्रेलिया में हिंदी साहित्य के प्रति समर्पित हैं।  उनकी सात पुस्तकें प्रकशित हैं और तीन संपादित हैं।  उन्हें अनेक पुरस्कारों से सम्मानित किया  गया है, जिनमें २०२१ का उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान का पुरस्कार भी सम्मिलित है। 


Sunday, November 28, 2021

भुवनेश्वर: सवालों से घिरा व्यक्तित्व और जटिल जवाब


भुवनेश्वर ने एक ऐसे काल में साहित्य का कलेवर बदलने का काम किया, जिस समय साहित्य और खासकर नाटक आदर्शवाद के चरम पर था। साहित्य एक तरफ अतीत के गौरव में लिप्त यूटोपियन समाज का चित्रण कर रहा था, दूसरी ओर बुद्धिवाद के नाम पर ऐसे समस्या नाटक लिखे जा रहे थे, जिनमें स्त्री-पुरुष के संबंध ही केंद्र में थे। नाटक बहुत वैचारिक हो गए थे, और उनका जीवंत मंचन दूभर हो चला था। एकांकी विधा में तत्कालीन प्रश्नों से टकराने का साहस किसी में न था। उस समय भुवनेश्वर की क़लम अपने तीखे तेवर के साथ
  कटु यथार्थ का सामना करती खड़ी हो गई।  भुवनेश्वर की रचनाओं ने पूरी शिद्दत के साथ उस कड़वाहट को बयाँ किया, जिसे समाज जानता तो है, पर व्यक्त करने से बचता है। इसी बेबाकी के फलस्वरूप भुवनेश्वर आधुनिक एकांकी के जनक बने।

तिक्तता और संघर्ष, तनाव और बौद्धिकता, उपेक्षा और भर्त्सना के बीच अपनी पठनीयता का लोहा मनवाने वाले भुवनेश्वर प्रसाद के परिचय के साथ अनेक किवदंतियाँ जुड़ी हैं। जन्म से लेकर मृत्यु तक के वर्ष का निर्धारण सहज नहीं। १९१२ में जन्मे भुवनेश्वर का रचनाकाल १९३३ से आरंभ हुआ और १९५७ में हुई उनकी मृत्यु से लगभग १० वर्ष पूर्व तक चला। भुवनेश्वर का जन्म शाहजहाँपुर के मध्यवर्गीय परिवार में हुआ और माँ की मृत्यु के बाद उनका जीवन उपेक्षा और संघर्ष में गुजरा। ‘माँ की स्मृति में’ नामक कविता में एक जीर्ण-शीर्ण अंगीठी को माँ की पहचान बना भुवनेश्वर लिखते हैं –‘आज न तेरे उर में अगनी, आज न मेरे उर में आशा’।

भुवनेश्वर को आलोचकों से प्रेम और सह्रदयता नहीं मिली। फिर भी कुछ समकालीन आलोचकों, कवियों ने उनको सम्मान ही नहीं दिया, बल्कि उनकी प्रतिभा को पहचान उनकी रचनाओं के प्रकाशन की व्यवस्था भी की। प्रेमचंद उनमें अग्रणी थे। भुवनेश्वर से स्वर और ज़मीन में पूरी तरह अलग होने के बावजूद प्रेमचंद उन्हें ‘हंस’ में छापते ही नहीं, बल्कि उनके नाज़-नखरे भी उठाते थे। प्रेमचंद स्वयं छायावादी शब्दावली से भिन्न नई भाषा तलाश रहे थे और धीरे-धीरे आदर्श की ज़मीन से यथार्थ की ओर आ रहे थे। पर भुवनेश्वर तो आदर्श की धज्जियाँ उड़ाने के लिए आए थे, वे यथार्थ की निर्मिति इतनी निर्ममता से करते थे, कि उनको छापने वाले प्रेमचंद भी कहने के लिए विवश हो जाते थे; "भुवनेश्वर प्रसाद जी में प्रतिभा है, गहराई है, दर्द है, पते की बात कहने की शक्ति है, मर्म को हिला देने की वाक् चातुरी है। काश! वह इसका प्रयोग ‘एक साम्यहीन साम्यवादी’ जैसी रचनाओं में कर पाते! ऑस्कर वाइल्ड के गुणों को लेकर क्या वे उनके दुर्गुणों को नहीं छोड़ सकते?” 

भुवनेश्वर की पहली एकांकी ‘श्यामा: एक वैवाहिक विडम्बना’ १९३३ में प्रेमचंद ने प्रकाशित की। ‘एक साम्यहीन साम्यवादी’ तथा ‘शैतान’ का प्रकाशन भी प्रेमचंद ने ही किया। यहीं से भुवनेश्वर को साहित्य जगत में स्थान मिला। भुवनेश्वर की किताब 'कारवाँ' की समीक्षा में प्रेमचंद लिखते हैं, " 'कारवाँ' हिंदी साहित्य के इतिहास में एक नई प्रगति का प्रवर्तक है, जिसमें शॉ और ऑस्कर वाइल्ड का सुंदर समन्वय हुआ है। अभी तक हमारा हिन्दी ड्रामा घटनाओं, चरित्रों और कथाओं के आधार पर ही रखा गया  है। कुछ समस्या नाटक भी लिखे गए हैं। जिनमें रूढ़ियों या नए-पुराने विचारों का खाका खींचा गया है, पर सब कुछ स्थूल, घटनात्मक दृष्टि से हुआ है, जीवन और उसकी भिन्न-भिन्न समस्याओं पर सूक्ष्म, पैनी, तात्त्विक, बौद्धिक दृष्टि डालने की चेष्टा नहीं की गई, जो नए ड्रामा का आधार है। "

भुवनेश्वर प्रगतिशील लेखक संघ के आरंभिक युवा सदस्यों में से थे। इलाहाबाद में ही उनकी मुलाक़ात राम विलास शर्मा जी और शमशेर बहादुर सिंह से हुई। दोनों ही भुवनेश्वर से प्रभावित थे। रामविलास जी से तीखी बहसों का उल्लेख करते हुए ‘पुरखों के कोठार’ में भारत यायावर ने लिखा है ‘अपने निरंकुश स्वभाव के बावजूद भुवनेश्वर में कुछ ऐसी बातें थी, कि रामविलास जी के मन में उनके प्रति सह्रदयता थी ...अनैतिकता का उन्होंने ऐसा चरित्र बनाया था, कि लोग उसे पचा नहीं पाते थे। वे बदनाम बनकर जीना चाहते थे। 

 शमशेर बहादुर सिंह भी भुवनेश्वर को बहुत मानते थे। वसुधा के १९५८ अंक में छपी शमशेर की कविता भुवनेश्वर के जीवन की असली झाँकी दिखाती है –

“ओ बदनसीब शायर, एकांकीकार, प्रथम
वाइल्डियन हिंदी विट्, नव्वाब 

फ़कीरों में, गिरहकट, अपनी बोसीदा

जंजीरों में लिपटे, आज़ाद,
भ्रष्ट अघोरी साधक!”


शमशेर बहादुर सिंह भुवनेश्वर को याद करते हुए एजरा पाउंड और इलियट का उल्लेख भी करते हैं, जिनका ज़िक्र अक्सर भुवनेश्वर आपनी बात में किया करते थे। भुवनेश्वर की डिग्री के संदर्भ में कोई प्रामाणिक तथ्य नहीं मिलते, इसलिए उन्होंने इतना अध्ययन कैसे किया यह तो पता नहीं, पर युग परिवेश को देखने की उनकी दृष्टि अनूठी थी, जो उनके लेखन में साफ़ ज़ाहिर होती है। भुवनेश्वर ने पहली बार अपनी रचनाओं के माध्यम से मनुष्य की आदिम प्रवृत्तियों को ललकारा। वे ब्रेख्त के समान पूरी इमारत को पलटकर खड़ा कर देते हैं, जिससे एक क्षण के लिए ही सही, पर आदमी रुक कर विचार तो करे। विचार की यह यात्रा भुवनेश्वर के साहित्य में इतनी सघन है, कि बेचैनी पैदा करने लगती है और बगलें झांकते हुए हम उसके उत्स पश्चिमी साहित्य में ढूँढने लगते हैं। भुवनेश्वर अपने साहित्य में पश्चिम की छाप से इंकार नहीं करते। अक्सर भुवनेश्वर को पश्चिम की छाप का रचनाकार मानकर ख़ारिज कर दिया जाता है, पर भुवनेश्वर ने सजग पाठक के रूप में जितना अध्ययन किया था, उस पठन की छाप उनके साहित्य में आना स्वाभाविक ही था। क्या इससे उनकी कही बातों का असर कम हो जाता है? 

भुवनेश्वर की त्रासदी थी, कि वे भीतर और बाहर से एक ही थे और समय से आगे की सोच रखते थे। जिसका सामना करने का साहस कम से कम साहित्यिक बिरादरी के पास तो नहीं था। राजनीतिक दृष्टि से यह काल गाँधीयुग कहा जा सकता है। गाँधी जिस अहिंसा के समर्थक थे, भुवनेश्वर अपनी रचनाओं में उसका खुलेआम तिरस्कार करते थे। हालाँकि भुवनेश्वर ने गाँधी को मानते हुए खुद ख़ादी भी पहनी, परंतु राजनीतिक दृष्टि से वे मार्क्सवाद के समर्थक थे और प्रगतिशील लेखक संघ के सदस्य भी। पर अपनी रचनाओं जैसे ‘एक साम्यहीन साम्यवादी’ में उन्होंने साम्यवादियों के झूठे खोल को भी उधेड़ा है। 

भारत यायावर भुवनेश्वर को ‘फ़क्रीरों  में नवाब, गिरहकट, अघोरी’ कहकर याद करते हैं। भुवनेश्वर के बारे में लगभग सभी लेखकों और परिचितों ने यह कहा है, कि भुवनेश्वर ने उन्हें ठगा, पर इस ठगाई के लिए किसी ने उन्हें अपशब्द नहीं कहे। 

भुवनेश्वर अपनी रचनाओं में झूठे आदर्श की ज़मीन को तोड़ देते और एक ऐसा समाज सामने लाते, जिसकी कोई नैतिकता नहीं, कोई आदर्श नहीं और अगर हैं भी तो केवल ऊपरी खोल की तरह। इसी युग में निराला अपने ढाँचे और खोल को स्वयं तोड़ते हैं और भाषा, शिल्प और कथ्य की नई बानगी रच देते हैं। भुवनेश्वर तो निराला को भी चुनौती देते हैं – राम विलास शर्मा जी ने ‘निराला की साहित्य साधना’ में इस प्रसंग का विस्तार से उल्लेख किया है, जिसे पढ़ा जाना चाहिए।

भुवनेश्वर के नाटकों को असंगत नाटक की पृष्ठभूमि का निर्माता माना गया, पर वास्तव में उनके नाटकों को विसंगत मात्र कह देना उनसे टकराने के साहस का अभाव ही है। सवाल यह होना चाहिए कि आखिर ऐसा क्या था, कि भुवनेश्वर विसंगति को ही कथ्य रूप में चुनने के लिए विवश हुए? भुवनेश्वर की किताब ‘कारवाँ’ की भूमिका और अंत में दी गई उनकी सूक्तियों का अध्ययन करना चाहिए, जिससे उनकी विसंगति को चयनित करने की दृष्टि का विश्लेषण किया जा सकता है -जैसे ‘संदेह बुद्धि के लिए एक विश्राम है’ या ‘भावुकता कलाकार के लिए विष है और हिन्दी नाटककारों का भोजन’ अथवा ‘विवेक और तर्क तीसरी श्रेणी के कलाकारों के चोर दरवाजे हैं’ ये सभी वाक्य विश्लेषण के लिए उपलब्ध हैं, जिसमें  सीधे अर्थ न होकर व्यंजित अर्थ निहित हैं।

भुवनेश्वर अपने परिवार से दूर जिस समाज के बीच अपनी गति तलाश रहे थे, उसके खोखले आदर्शों  से भी वे त्रस्त थे। गिरीश रस्तोगी उनके जीवन का उल्लेख विस्तार से करती हैं ... " शाहजहाँपुर के बाद उनका लखनऊ  रुकना हुआ। आर्थिक थपेड़ों से वे बहुत दुबले हो गए थे। कहते हैं कि चारबाग स्टेशन पर ही बेंच पर रात गुज़ार देते थे। अब तक उनकी आदतें, जीवनशैली, शराब पीने की लत ऐसी बढ़ चुकी थी, कि पारिवारिक माहौल में वे रह नहीं पाते थे। १९५३-५४ में वे शमशेर बहादुर के यहाँ थे, रिश्तेदारों के आने पर वे प्राय: गायब हो जाते थे। "

शायद ऐसी ही एक रात, बनारस के घाटों पर भुवनेश्वर के जीवन के रंगमंच का पर्दा गिर गया। योग्यता और निस्सारता, क्षमता और क्रूरता का अद्भुत संगम थे भुवनेश्वर। क्या विडंबना है, कि जिस लेखक को अपने जीवन काल में रहने की ठीक जगह मिली, उसके लिए आज  ‘भुवनेश्वर प्रसाद शोध संस्थानस्थापित किया गया है, जो साहित्य, रंगमंच, कला और संस्कृति के सर्वेक्षण, अध्ययन और अनुसंधान के लिए प्रतिबद्ध है।

भुवनेश्वर प्रसाद श्रीवास्तव : जीवन परिचय

जन्म

१९१०,  (२० जून १९१२ भी कहा गया ) शाहजहाँपुर

पुण्यतिथि

२८ नवम्बर १९५७,  बनारस  

कर्मभूमि

इलाहाबाद, लखनऊ 

पिता

ओंकार बख़्श 


साहित्यिक रचनाएँ

प्रमुख रचनाएँ

(एकांकी 

और नाटक) 

  • एक साम्यहीन साम्यवादी (हंस, १९३४)

  • श्यामाएक वैवाहिक विडम्बना (१९३३)

  • कारवाँ तथा अन्य एकांकी (किताब)

  • प्रतिभा का विवाह (हंस, १९३३

  • लाटरी (हंस, १९३५

  • ऊसर (१९३८)

  • स्ट्राइक (हंस, १९३८

  • तांबे के कीड़े (१९४६)

  • सिकन्दर (१९५०)

  • आदमखोर (रूपाभ, १९३८)

  • रोशनी और आग (विश्ववाणी, १९४१)

  • कठपुतलियाँ (१९४२) 

(कहानियाँ)


  • मौसी

  • भेड़िये (सर्वाधिक प्रसिद्ध कहानी) (हंस, १९३८) 

  • मास्टरनी 

English poems

  • Words of Passage (Poetry Collection)


संदर्भ:

  • भुवनेश्वर समग्र: दूधनाथ सिंह, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली 
  • कारवाँ तथा अन्य एकांकी: भुवनेश्वर, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद 
  • भुवनेश्वर: व्यक्तित्व एवं कृतित्व, राजकुमार शर्मा, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ 
  • भुवनेश्वर: साहित्य निर्माता: गिरीश रस्तोगी, साहित्य अकादमी 
  • वसुधा पत्रिका, अंक १९५८ 
  • पुरखों के कोठार: भारत यायावर, प्रेरणा पब्लिकेशन, भोपाल 
  • भुवनेश्वर: व्यक्तित्व और कृतित्व, संपादक: राजकुमार शर्मा, पृष्ठ :
  • भुवनेश्वर : साहित्य निर्माता, गिरीश रस्तोगी, पृष्ठ , १५ 
  • भुवनेश्वर समग्र: दूधनाथ सिंह, ‘कारवाँ: प्रेमचंद, पृष्ठ ४१२-४१५
  • पुरखों के कोठार, भारत यायावर, पृष्ठ १०९

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लेखक परिचय


डॉ. हर्षबाला शर्मा, इन्द्रप्रस्थ कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय में  प्रोफेसर हैं। अनुवाद, रंगमंच और भाषा विज्ञान विषय का विशेष रूप से अध्ययन-अध्यापन करती हैं कहानियाँ और आलोचना लिखने में रुचि है


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कलेंडर जनवरी

Sun Mon Tue Wed Thu Fri Sat
            1वह आदमी उतर गया हृदय में मनुष्य की तरह - विनोद कुमार शुक्ल
2अंतः जगत के शब्द-शिल्पी : जैनेंद्र कुमार 3हिंदी साहित्य के सूर्य - सूरदास 4“कल जिस राह चलेगा जग मैं उसका पहला प्रात हूँ” - गोपालदास नीरज 5काशीनाथ सिंह : काशी का अस्सी या अस्सी का काशी 6पौराणिकता के आधुनिक चितेरे : नरेंद्र कोहली 7समाज की विडंबनाओं का साहित्यकार : उदय प्रकाश 8भारतीय कथा साहित्य का जगमगाता नक्षत्र : आशापूर्णा देवी
9ऐतिहासिक कथाओं के चितेरे लेखक - श्री वृंदावनलाल वर्मा 10आलोचना के लोचन – मधुरेश 11आधुनिक खड़ीबोली के प्रथम कवि और प्रवर्तक : पं० श्रीधर पाठक 12यथार्थवाद के अविस्मरणीय हस्ताक्षर : दूधनाथ सिंह 13बहुत नाम हैं, एक शमशेर भी है 14एक लहर, एक चट्टान, एक आंदोलन : महाश्वेता देवी 15सामाजिक सरोकारों का शायर - कैफ़ी आज़मी
16अभी मृत्यु से दाँव लगाकर समय जीत जाने का क्षण है - अशोक वाजपेयी 17लेखन सम्राट : रांगेय राघव 18हिंदी बालसाहित्य के लोकप्रिय कवि निरंकार देव सेवक 19कोश कला के आचार्य - रामचंद्र वर्मा 20अल्फ़ाज़ के तानों-बानों से ख़्वाब बुनने वाला फ़नकार: जावेद अख़्तर 21हिंदी साहित्य के पितामह - आचार्य शिवपूजन सहाय 22आदि गुरु शंकराचार्य - केरल की कलाड़ी से केदार तक
23हिंदी साहित्य के गौरव स्तंभ : पं० लोचन प्रसाद पांडेय 24हिंदी के देवव्रत - आचार्य चंद्रबलि पांडेय 25काल चिंतन के चिंतक - राजेंद्र अवस्थी 26डाकू से कविवर बनने की अद्भुत गाथा : आदिकवि वाल्मीकि 27कमलेश्वर : हिंदी  साहित्य के दमकते सितारे  28डॉ० विद्यानिवास मिश्र-एक साहित्यिक युग पुरुष 29ममता कालिया : एक साँस में लिखने की आदत!
30साहित्य के अमर दीपस्तंभ : श्री जयशंकर प्रसाद 31ग्रामीण संस्कृति के चितेरे अद्भुत कहानीकार : मिथिलेश्वर          

आचार्य नरेंद्रदेव : भारत में समाजवाद के पितामह

"समाजवाद का सवाल केवल रोटी का सवाल नहीं है। समाजवाद मानव स्वतंत्रता की कुंजी है। समाजवाद ही एक सुखी समाज में संपूर्ण स्वतंत्र मनुष्यत्व...