किताबों, पोथियों, पुलिंदों से भरा कमरा,
मेज़ भी पूरी तरह से पृष्ठाच्छादित!
पेपर वेट की तरह इस्तेमाल होते कुछ टेढ़े-मेढ़े पत्थर,
चिड़ियों की चहचहाहट बातचीत के पीछे संगीत सा देती!
एक अतरंगी सी स्त्री, सूती साड़ी में, तेजस्वी, रूप-रंग से बेख़बर, शायद किसी जल्दी में एक साक्षात्कार दे रही है। किस जल्दी में हैं वे? नए संघर्ष की कहानियाँ लिखने की? ज़रूरतमंदों के लिए क्रांति रोपने की? अपने रूठे व्यक्तिगत जीवन को मनाने की? या अपने सूत्र वाक्य - "काम, काम और काम" को चरितार्थ करने की?
संवेदनशीलता इतनी, कि व्यक्तिगत बिंदुओं को याद करके आवाज़ कँपकँपा रही है, पर कर्मठता भी इतनी, कि फिर आशा और निश्चय से आगे बढ़ी जा रही हैं! क्या कह रही हैं वे? पूरा सत्य? यह भी भला कोई कहता है, आज के युग में! कोई छलावा नहीं, कोई राजनैतिक डर नहीं, कोई लोभ नहीं!
संवेदनशीलता इतनी, कि व्यक्तिगत बिंदुओं को याद करके आवाज़ कँपकँपा रही है, पर कर्मठता भी इतनी, कि फिर आशा और निश्चय से आगे बढ़ी जा रही हैं! क्या कह रही हैं वे? पूरा सत्य? यह भी भला कोई कहता है, आज के युग में! कोई छलावा नहीं, कोई राजनैतिक डर नहीं, कोई लोभ नहीं!
दूसरा साक्षात्कार -
प्रश्नकर्ता कहते हैं, "आपने आदिवासियों को मेनस्ट्रीम से जोड़ कर उन पर बड़ा उपकार किया है।"
वे कड़क कर बोलती हैं, "मेनस्ट्रीम के पास आदिवासियों को देने के लिए क्या है, जो मैं उनको इससे जोड़ूँगी! आदिवासी अनेक तरह से हमसे अधिक सभ्य और सुसंस्कृत हैं - वहाँ लड़का-लड़की में फ़र्क़ नहीं, दहेज प्रथा नहीं, विधवा-विवाह सर्वथा मान्य है, लोगों की बॉडी लैंग्वेज में आदर है।" इतना बेबाक कोई तभी हो सकता है, जब वह किसी पर निर्भर न हो और अपनी राह ख़ुद बनाता हो।
उन पर शोध करता मन मंत्रमुग्ध हो कर इस कथनी-करनी के सामंजस्य को, इस कर्मवीर महिला को देखता रह जाता है। उन पर लिखने से पहले ही कलम नेति-नेति कहने लगती है।
हम बात कर रहे हैं, मेग्सेसे, ज्ञानपीठ और पद्मविभूषण से सम्मानित बांग्ला लेखिका, एक्टिविस्ट, समाज सेविका, आदिवासियों की प्रखर आवाज़ महाश्वेता देवी की। सब पुरस्कारों के बावजूद जब महाश्वेता देवी आदिवासियों द्वारा भेंट की गई, तालाब की चिकनी मिट्टी, कोयले के दातून और पाँच गाँवों द्वारा मिल कर ख़रीदे एक गमछे को याद करके भावुक हो जाती हैं, तब समझ आता है, कि वे किस मिट्टी की बनी हैं। भारतीय साहित्यकारों में शायद ही किसी को समाज सेवा का ऐसा जुनून रहा!
महाश्वेता देवी स्वयंसिद्धा थीं। अपने समय से दशकों आगे की सोच और दसियों लोगों की कर्मठता उनमें समाई थी। पचास वर्षों में सौ के ऊपर उपन्यास, असंख्य कॉलम, पर्चे, कितने ही आंदोलन, सम्मेलन, एन.जी.ओ., यहाँ तक कि कई मुक़दमे भी। भला एक इंसान एक जीवन में इतना कुछ कैसे कर सकता है! पर महाश्वेता देवी ने यह सब किया और ऐसी अलख जगाई, कि आने वालों के लिए एक सुदृढ़ पथ आलोकित हुआ।
महाश्वेता उन विरल लेखकों में से थीं, जो साक्षात्कर्ताओं से साफ़ तक़ाज़ा करतीं, "यह समय देने का भुगतान क्या है?" वे कहतीं - कॉलम तो लिखना ही है, वहाँ से घर चलाने को पैसे चाहिए। चाहे सत्तारूढ़ शक्तियों से उनकी पटे न पटे, उन्होंने सहज हर पुरस्कार के पैसे लिए और हाथों-हाथ किसी संस्था को दे दिए।
उनके लेखन और आंदोलन ने आदिवासियों की संघर्ष गाथाओं को पूरे देश और दुनिया के सामने रखा तथा उनकी स्थिति बदलने में बड़ी भूमिका निभाई। एक बार २-३ नक्सल लड़के महाश्वेता देवी जी से बोले - आप ग्रामीण क्षेत्रों में नक्सलवाद के बारे में लिखती हैं, पर कोलकाता में जो हम सड़कों पर मर-कट रहे हैं उस पर नहीं! इसी कथन से नक्सलबाड़ी के महान विप्लव पर आधारित उनके सबसे लोकप्रिय उपन्यास '१०८४ वें की माँ' का जन्म हुआ। इस किताब ने जैसे भारत में आग लगा दी। जेलयाफ़्ता नक्सल लड़कों और क़ैदियों तक यह किताब पहुँची और जब वे बाहर निकले, तो उन्होंने महाश्वेता को अपनी दीदी मान लिया। उपन्यास पर जया बच्चन को ले कर गोविंद निहलानी ने इसी नाम की एक फ़िल्म बनाई, जो बेहद सफल हुई।
आइये, इस अदम्य चेतनापुंज को समझने के लिए, हम उनकी अनूठी जीवन-यात्रा की हरित पगडंडियों पर चलें। महाश्वेता देवी का जन्म ढाका के एक संभ्रात परिवार में हुआ। बांग्ला कल्लोल कविता युग के प्रख्यात कवि, पिता मनीष घटक और माँ धरित्री देवी के अनन्य साहित्यप्रेम से उनका बचपन सुवासित रहा। सुप्रसिद्ध फ़िल्मकार ऋत्विक घटक उनके चाचा थे। ढाका के जिंदाबहार लेन में महाश्वेता का ननिहाल और नतून भोरेंगा गाँव में ददिहाल था। पूजा-उत्सव पर सारा गाँव किताबें ख़रीदता, सो विद्या का संस्कार उन्हें बचपन से ही मिला। बाद में एक बार महाश्वेता जी ने कहा, "मैंने जितना खाना खाया है, उससे अधिक किताबें पढ़ी हैं, लेखन ही मेरी समाज सेवा है।"
मनीष जी १९३५ में मेदिनीपुर आए और महाश्वेता का दाख़िला वहाँ के मिशन स्कूल में करवाया। मेदिनीपुर शानदार था। नटखट और साहसी महाश्वेता हर जगह साईकिल से चली जाती। घर के पास शाल के जंगल में संथाल रहते थे, वहीं उनके मन में आदिवासी सरोकार के पहले बीज पड़े। १९३६ में दस वर्षीया महाश्वेता देवी को शांतिनिकेतन जाने का मौक़ा मिला। वहाँ के सुरुचिपूर्ण माहौल, रवींद्रनाथ टैगोर के सामीप्य और कला-साहित्य में पगी जीवन शैली से उन्हें आगामी जीवन की दिशा मिली। जैसे एक तलवार सान पर चढ़ गई हो। महाश्वेता शांतिनिकेतन में तीन साल रहीं, और आगे की पढ़ाई उन्होंने कोलकाता के 'बेलतला बालिका विद्यालय' से ज़ारी रखी। वहाँ उन्हें अपर्णा सेन शिक्षिका के रूप में मिलीं। उनके बड़े भाई खेगेंद्रनाथ सेन 'रंगमशाल' निकालते थे। उनके कहने पर महाश्वेता ने रवींद्रनाथ की पुस्तक 'छेलेबेला' पर समीक्षा लिखी, जो 'रंगमशाल' में छपी। यहाँ से महाश्वेता की लेखकीय यात्रा आरंभ हुई थी।
मनीष जी १९३५ में मेदिनीपुर आए और महाश्वेता का दाख़िला वहाँ के मिशन स्कूल में करवाया। मेदिनीपुर शानदार था। नटखट और साहसी महाश्वेता हर जगह साईकिल से चली जाती। घर के पास शाल के जंगल में संथाल रहते थे, वहीं उनके मन में आदिवासी सरोकार के पहले बीज पड़े। १९३६ में दस वर्षीया महाश्वेता देवी को शांतिनिकेतन जाने का मौक़ा मिला। वहाँ के सुरुचिपूर्ण माहौल, रवींद्रनाथ टैगोर के सामीप्य और कला-साहित्य में पगी जीवन शैली से उन्हें आगामी जीवन की दिशा मिली। जैसे एक तलवार सान पर चढ़ गई हो। महाश्वेता शांतिनिकेतन में तीन साल रहीं, और आगे की पढ़ाई उन्होंने कोलकाता के 'बेलतला बालिका विद्यालय' से ज़ारी रखी। वहाँ उन्हें अपर्णा सेन शिक्षिका के रूप में मिलीं। उनके बड़े भाई खेगेंद्रनाथ सेन 'रंगमशाल' निकालते थे। उनके कहने पर महाश्वेता ने रवींद्रनाथ की पुस्तक 'छेलेबेला' पर समीक्षा लिखी, जो 'रंगमशाल' में छपी। यहाँ से महाश्वेता की लेखकीय यात्रा आरंभ हुई थी।
घर की ज़िम्मेदारियाँ निभाते हुए, महाश्वेता ने १९४२ में मैट्रिक पास किया। उसी वर्ष 'भारत छोड़ो आंदोलन' ने महाश्वेता के किशोर मन पर गहरा प्रभाव डाला। १९४३ में बंगाल में अकाल पड़ा। तब 'महिला आत्मरक्षा समिति' के मार्फ़त उन्होंने राहतकार्य किए। उच्च शिक्षा के दौरान उन्होंने 'देश' पत्रिका के लिए तीन कहानियाँ लिखीं। कहानी पर दस रुपये पारिश्रमिक पाकर उन्हें लगा, कि लेखन से भी गुज़ारा संभव है। अँग्रेज़ी साहित्य में मास्टर की डिग्री लेकर, वे एक शिक्षिका और पत्रकार के रूप में काम करने लगीं।
साल १९४७ में वे इप्टा से जुड़े प्रख्यात रंगकर्मी बिजोन भट्टाचार्य संग विवाह-बंधन में बँध गईं। १९४९ में महाश्वेता को केंद्र सरकार में अपर डिवीज़न क्लर्क की नौकरी मिली, लेकिन पति के कम्युनिस्ट होने के कारण साल भर में नौकरी से हाथ धोना पड़ा। यह जीवन-संग्राम १९५७ में रमेश मित्र बालिका विद्यालय में काम मिलने तक चला। संघर्ष के इन दिनों ने लेखिका महाश्वेता का निर्माण किया। उस दौरान उन्होंने विश्व के मशहूर लेखकों-चिंतकों, मार्क्सवादियों को ख़ूब पढ़ा। उसी समय उन्होंने विनायक दामोदर सावरकर रचित '१८५७ का स्वातंत्र्य समर' भी पढ़ा। उससे अभिभूत हो कर महाश्वेता ने तय किया, कि 'झाँसी की रानी' पर वे किताब लिखेंगी। महाश्वेता ने झाँसी की रानी के भतीजे गोविंद चिंतामणि से पत्र व्यवहार शुरू किया और शीघ्र ही ४०० पृष्ठ लिख डाले। परंतु इतना लिखने के बाद, उन्होंने सब कुछ फाड़ डाला और कहानी को स्वयं अनुभव करने के लिए, वे अपने छह वर्षीय बेटे नवारुण और पति को कोलकाता में छोड़कर स्वयं झाँसी चली गईं। उन्होंने अकेले ही बुंदेलखंड का चप्पा-चप्पा छाना, रानी को समझा, लोकगीतों में उनकी वीरता के दर्शन किए। उन्होंने झाँसी की रानी की जीवनी लिखने वाले वृंदावनलाल वर्मा से मिलकर मार्गदर्शन पाया और नए सिरे से 'झाँसी की रानी' लिखी। 'देश' में यह रचना धारावाहिक के रूप में छपने लगी। न्यू एज ने इसे पुस्तक के रूप में छापने के लिए महाश्वेता को ५०० रुपये दिए। १९५६ में महाश्वेता की पहली किताब 'झाँसी की रानी' के बाद, १८५७ के महासंग्राम पर केंद्रित 'नटी' और 'जली थी अग्निशिखा' आईं और फिर किताबों का ताँता ही लग गया। ऐसा न समझिए, कि महाश्वेता को विरोध का सामना नहीं करना पड़ा, बांग्ला लेखकों ने कहा, कि पिता के कारण उनका लेखन चल पड़ा है, अधिक दिनों तक नहीं टिकेगा।
साठ के दशक की शुरूआत में वैवाहिक जीवन से मोहभंग और बिजोन व पुत्र नवारुण को छोड़ने के बाद भी महाश्वेता ने उनके प्रति अपने कर्तव्य निभाने की पूरी कोशिश की। उन्होंने १९६२ में असित गुप्त से शादी की और नए वातावरण का सामना करने के लिए लेखन को ढाल बना लिया। असित स्वयं लेखक थे और यही मानते रहे, कि महाश्वेता बहुत अधिक नहीं जानतीं और साधारण ही लिखती हैं। लेकिन ख़ूब पढ़ने और घूमने से महाश्वेता का दृष्टिकोण और समृद्ध होता गया। १९७५ में उन्होंने असित को छोड़ा और अपनी मर्ज़ी की मालिक बन गईं।
महाश्वेता और नवारुण माँ-बेटे का ऐसा विरल जोड़ा है, जिसमें १८ साल के अंतराल में दोनों को साहित्य अकादमी मिला है। परंतु नवारुण अपनी माँ के लेखन और राजनैतिक विचारधारा के प्रशंसक कभी न रहे। उनके पोते तथागत अपनी दादी को स्नेह से याद करते हुए बताते हैं, कि वे अक्सर बातें किया करते थे, कि कैसे 'श्री श्री गणेश महिमा', '१०८४ वें की माँ' से बहुत बेहतर, पर कम लोकप्रिय पुस्तक है।
साठ के दशक की शुरूआत में वैवाहिक जीवन से मोहभंग और बिजोन व पुत्र नवारुण को छोड़ने के बाद भी महाश्वेता ने उनके प्रति अपने कर्तव्य निभाने की पूरी कोशिश की। उन्होंने १९६२ में असित गुप्त से शादी की और नए वातावरण का सामना करने के लिए लेखन को ढाल बना लिया। असित स्वयं लेखक थे और यही मानते रहे, कि महाश्वेता बहुत अधिक नहीं जानतीं और साधारण ही लिखती हैं। लेकिन ख़ूब पढ़ने और घूमने से महाश्वेता का दृष्टिकोण और समृद्ध होता गया। १९७५ में उन्होंने असित को छोड़ा और अपनी मर्ज़ी की मालिक बन गईं।
महाश्वेता और नवारुण माँ-बेटे का ऐसा विरल जोड़ा है, जिसमें १८ साल के अंतराल में दोनों को साहित्य अकादमी मिला है। परंतु नवारुण अपनी माँ के लेखन और राजनैतिक विचारधारा के प्रशंसक कभी न रहे। उनके पोते तथागत अपनी दादी को स्नेह से याद करते हुए बताते हैं, कि वे अक्सर बातें किया करते थे, कि कैसे 'श्री श्री गणेश महिमा', '१०८४ वें की माँ' से बहुत बेहतर, पर कम लोकप्रिय पुस्तक है।
महाश्वेता देवी आदिवासी, दलित और हाशिये पर पड़े प्रताड़ित तबक़ों के बारे में सोचतीं, महिलाओं की दुर्गति और जिजीविषा पर उनका ध्यान केंद्रित रहता। १९७७ में उन्होंने बिरसा मुंडा पर आदिवासी जीवन के मानवीय मूल्यों से भरा एक उपन्यास लिखा - 'अरण्येर अधिकार'। यह ब्रिटिश साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ आदिवासियों के सशक्त विद्रोह की महागाथा है। इस उपन्यास के साथ आदिवासियों को अपना खोया स्वाभिमान और मुंडा नाम का गौरव-बोध मिला और महाश्वेता देवी को मिला १९७९ का साहित्य अकादमी पुरस्कार। आदिवासियों ने जगह-जगह ढाक बजाकर गाया - 'हमें साहित्य अकादमी मिला है।' यह है सफल लेखन - कलम, कर्म और जीवन का अद्भुत संगम।
१९८० में उन्होंने 'वर्तिका' पत्रिका का संपादन शुरू किया। उनकी गहरी संपादकीय दृष्टि और विवेक के चलते वर्तिका बांग्ला में वैकल्पिक साहित्यिक पत्रकारिता का मंच बनी।
१९८० में उन्होंने 'वर्तिका' पत्रिका का संपादन शुरू किया। उनकी गहरी संपादकीय दृष्टि और विवेक के चलते वर्तिका बांग्ला में वैकल्पिक साहित्यिक पत्रकारिता का मंच बनी।
महाश्वेता ने सौ से अधिक उपन्यास और २० से अधिक कहानी संग्रह लिखे। घर चलाने के लिए लगातार अख़बारों में कॉलम लिखे। एक बार जो लिख दिया, उसे दुबारा नहीं सुधारा। कभी-कभी अपनी किताबें खुद यह देखने के लिए पढ़ीं, कि इनमें ऐसा क्या है, जो लोगों को दीवाना बना रहा है। उनका मूल लेखन बांग्ला और अँग्रेज़ी में रहा। उनकी किताबें अन्य भारतीय और विदेशी भाषाओं में अनूदित होती रहीं। उनकी कई कृतियों पर सफलतम फिल्में भी बनीं।
१९९९ में उन्होंने ६ करोड़ ग़ैर-अधिसूचित जनजाति के लिए कड़ा संघर्ष कर, उन्हें न्याय दिलाने की मुहिम चलाई। उन्होंने 'ऑल इंडिया डी-नोटिफाइड ट्राइब्स एंड कम्युनिटी राइट एक्शन ग्रुप' की स्थापना की। उनके आंदोलन पर टिप्पणी करते हुए, नामवर सिंह ने दिल्ली विश्वविद्यालय के एक समारोह में कहा था, "इतने वर्षों मैं दिल्ली में रहा हूँ, मैंने कंजरों, बावरियों, पारधी, सासियों पर कभी भी विचार नहीं किया .."
महाश्वेता ने कई कहानियों में आदिवासियों को केंद्र बिंदु बनाकर, उनको लोककथाओं और पुराकथाओं के कलेवर में गढ़ा है। महाश्वेता देवी के ही शब्दों में- "मैं पुराकथा, पौराणिक चरित्र और घटनाओं को वर्तमान परिप्रेक्ष्य में फिर से यह बताने के लिए लिखती हूँ, कि वास्तव में लोककथाओं में अतीत और वर्तमान एक अविच्छिन्न धारा के रूप में प्रवाहित होते हैं...।" १९८४ में अपने 'श्रेष्ठ गल्प' की भूमिका में उन्होंने लिखा, "साहित्य को केवल भाषा शैली और शिल्प की कसौटी पर रखकर देखने के मापदंड ग़लत हैं। साहित्य का मूल्यांकन इतिहास के परिप्रेक्ष्य में होना चाहिए।"
लेखन के साथ-साथ उनकी अथक समाज सेवा चलती रही। बिहार, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ जैसे आदिवासी बाहुल्य राज्यों में भी उनके अधिकारों के संरक्षण और हक़ के लिए आवाज़ उठाई। वे खुले शब्दों में कहती थीं, "मैंने देखा है, लोग कितने भी शोषित किए जाते हैं, और उनपर अत्याचार किया जाता है, पर वे कभी हार नहीं मानते हैं। यही मेरे लेखन के लिए प्रेरणास्रोत का काम करता है।"
उनका मानना था, कि हमारी दुनिया ज़रूरी और ग़ैरज़रूरी चीज़ों में बँटी है। उनके लिए ग़ैरज़रूरी चीज़ों की कोई अहमियत नहीं थी। यात्राएँ उन्हें इसलिए पसंद थीं, कि घर लौटना पसंद था। उन्होंने राजनीति से बहुत फ़ासला नहीं रखा और २००६ में ममता बनर्जी की पार्टी की सलाहकार बन गईं। वे वामपंथ की कटु आलोचक थीं, पर शुरूआत में उनका झुकाव वाम की तरफ साफ़ था। उपन्यास 'बशाई टुडू' उनका ख़ालिस राजनैतिक उपन्यास है। एक बार उन्होंने कहा, "एक लंबे अरसे से मेरे भीतर जनजातीय समाज के लिए पीड़ा की जो ज्वाला धधक रही है, वह मेरी चिता के साथ ही शांत होगी...।" फ़्रैंकफ़ोर्ट पुस्तक मेले में उन्होंने कहा - "जब तक सपने नहीं देख सकेंगे, जीवन नहीं जी सकेंगे।" उनका कहना था, "मध्य्वर्गीय नैतिकता से मुझे घृणा है। यह कितना बड़ा पाखंड है! सब कुछ दबा रहता है। सपने देखने का अधिकार पहला मौलिक अधिकार होना चाहिए।"
महाश्वेता जी ने बाल जगत के लिए भी कलम चलाई और 'मौचाका' तथा 'संदेश' नामक बाल पत्रिकाओं में नियमित लिखा। अरण्य उनके सृजन और जीवन का एक महत्वपूर्ण मिलाप बिंदु था।
कोलकाता में, २८ जुलाई २०१६ को ९० वर्ष की आयु में महाश्वेता देवी ने इस संसाररुपी अरण्य से अंतिम विदा ली। कलम को तीर की तरह इस्तेमाल करने वाली एक योद्धा, जागृति की एक लहर, दलितों के हित के लिए चट्टान की तरह खड़ी रहने वाली चेतना अपने सृजन और कर्म से सदा अमर रहेगी।
संदर्भ
- https://creativeyatra.com/culture/rest-in-revolution-devi-for-draupadi-will-continue-to-survive-and-fight/
- https://timesofindia.indiatimes.com/life-style/books/features/memorable-works-of-mahasweta-devi/photostory/80251487.cms?picid=80251507
- महाश्वेता देवी
- https://www.aajtak.in/literature/profile/story/mahashweta-devi-jayanti-special-unknown-facts-about-her-life-and-work-637805-2019-01-14
- https://www.thelallantop.com/jhamajham/ten-important-things-on-birthday-of-mahashweta-devi/
- https://www.hindisamay.com/content/कृपाशंकर-चौबे-आलोचना-महाश्वेता-देवी-का-जीवन-और-साहित्य.cspx
- https://tinyurl.com/KRIPASHANKAR-MAHASHWETADEVI
- https://www.youtube.com/watch?v=T6bH9B9CMxY
- https://www.janchowk.com/zaruri-khabar/writers-organisation-issued-statement-against-the-dropping-of-write-ups-of-mahashweta-andrest1/
- https://shikshabhartinetwork.com/dayinhistory.php?eventId=4483
- https://www.youtube.com/watch?v=JGtLEIPgp84
- https://www.livemint.com/Leisure/hVBrf6IjV1TGHigZRNj7GP/Nabarun-Bhattacharya--Offence-given-and-taken.html
- https://www.apnimaati.com/2015/09/blog-post_79.html
लेखक परिचय
शार्दुला नोगजा
सुपरिचित हिंदी कवयित्री हैं और हिंदी के प्रचार-प्रसार में संलग्न हैं। वे तेल एवं ऊर्जा सलाहकार के रूप में २००५ से सिंगापुर में कार्यरत हैं। उनकी संस्था 'कविताई-सिंगापुर', भारत और सिंगापुर के काव्य स्वरों को जोड़ती है। शार्दुला 'हिंदी से प्यार है' की कोर टीम से 'साहित्यकार-तिथिवार' परियोजना का नेतृत्व और प्रबंधन कर रही हैं। shardula.nogaja@gmail.com
वाह! बहुत ही प्रेरणादायक आलेख!
ReplyDeleteशुक्रिया जयंती! मुझे भी शोध करते समय बहुत प्रेरणा मिली!
DeleteBahut bahut dhanyawad madam MAHASHWETAJI ko punah hamare samaksh jivit Karne hetu..fir se unka sahity padhne hetu mann machal utha hai.
ReplyDeleteHardik dhanywad evam aapki sahitya yatra ke liye shubhkamnayen.
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आपने पढ़ा, प्रेरणा ग्रहण की, यही हमारे लिखने का ध्येय था। शुक्रिया!
Deleteशार्दुला! सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता और लेखिका महाश्वेता देवी जी पर आपने बहुत मन और आदर से आलेख लिखा है। उनका जीवन और साहित्यिक लेखन खोलकर रख दिया है। मेरी आँखों के सामने महाश्वेता जी के पलामू में, जो उनका दूसरा घर माना जाता है, आदिवासियों के साथ उनकी बातचीत के चित्र सजीव हो उठे हैं। उन्होंने अपनी लेखनी से आदिवासियों को वाणी प्रदान की। पूरी तरह से महाश्वेता जी पर चरितार्थ होने वाला आलेख का शीर्षक - ‘एक लहार, एक चट्टान, एक आंदोलन: महाश्वेता देवी’ बहुत पसंद आया। आलेख शुरू से अंत तक बहुत रोचक और प्रवाहमय है। आपको इतनी बढ़िया प्रस्तुति के लिए बहुत-बहुत बधाई और धन्यवाद।
ReplyDeleteसरोज जी आपके सशक्त और त्वरित संपादन और स्नेह का हार्दिक धन्यवाद 🙏🏻
Deleteशार्दुला जी ! लेखिका महाश्वेता देवी जी पर आपने अत्यंत विस्तार से और आदर से आलेख लिखा है। उनका जीवन और साहित्यिक लेखन बहुत रोचक और प्रवाहमय है। । १०८४ वें की माँ पढ़कर मैं अत्यंत प्रभावित हुई थी। आपको इतनी बढ़िया प्रस्तुति के लिए बहुत-बहुत बधाई !
ReplyDelete-आशा बर्मन
नमस्ते आशा जी, इस प्यारे से उत्साह वर्धन के लिए बहुत शुक्रिया 🙏🏻 मैंने लेख लिखते समय बहुत सीखा महाश्वेता जी से!
Deleteशार्दुला जी नमस्कार l बांग्ला भाषा की महान साहित्यकार महाश्वेता देवी जी पर बहुत सुंदर, सारगर्भित , प्रेरक , पठनीय , शोधपरक, अर्थपूर्ण और स्तरीय लेख के लिए आपको हार्दिक बधाई और साधुवाद l कविता , कहानियों और उपन्यास की यात्रा के साथ साथ एक्टिविस्ट के रूप में उनकी भूमिका काबिले तारीफ है l महान फिल्म निर्देशक सत्यजित राय ने अपनी पत्रिका "संदेश " के लिए उनसे अनेक लेख लिखवाए l सत्यजित राय , महाश्वेता देवी की कहानी" बीज" पर फिल्म बनाना चाहते थे लेकिन अपने स्वास्थ्य के ठीक न होने के कारण उनका यह सपना पूरा नहीं हो सका l सामाजिक सरोकारों की अप्रतिम कहानीकार ने औरतों की आज़ादी , नक्सलवाद , दलितों और आदिवासियों की पीड़ा व्यथा कथा को अपने साहित्य का आधार बनाया l उन्होंने पाठकों की संवेदना का विस्तार और परिष्कार किया l 1997 में आज़ादी के लिए अपना सारा जीवन खपा देने वाले दुनिया के महान नेता नेल्सन मंडेला के हाथों उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त हुआ l आदिवासियों के बीच वह सचमुच देवी के रूप में आदरणीय और लोकप्रिय थी l अनेक पुरस्कार , विपुल साहित्य और अधिकांश भाषाओं में उनका अनुवाद उनकी लोकप्रिय शख्सियत का प्रमाण है l आपकी लेखनी को सलाम और संवेदना, सरोकार और मनुष्यता की कालजई कथाकार महाश्वेता देवी जी को सादर नमन l
ReplyDeleteडॉ इंद्रजीत सिंह जी आप जैसे दाना का साहित्यकार तिथिवार से जुड़ना हमारा सौभाग्य है! आपकी टिप्पणी संग्रहणीय है! आपके स्नेह का शुक्रिया और ज्ञानवर्धक बातों के लिए आभार 🙏🏻 🌼
DeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteवाह, वाह और वाह, शार्दुला जी। आपने बहुत अच्छा किया कि महाश्वेता देवी वाला आलेख स्वयं लिखा।एक छोटी जीवनी-पुस्तक जितनी जानकारी है इस लेख में । और ऐसी हिलाने-जगाने वाली भाषा में लिखा गया है कि कोई भी व्यक्ति दीन-हीन लोगों की सहायता के लिए प्रेरित हो जाए। ज़रूरी नहीं कि हम किसी विशिष्ट राजनैतिक विचारधारा का अनुसरण करें मगर असहाय लोगों के प्रति प्रेम , न्यायप्रियता और करुणा का भाव इस संसार को और अधिक सुंदर बना सकता है । 💐💐
ReplyDeleteहरप्रीत जी, शुक्रिया 🙏🏻 शुक्रिया 🙏🏻 शुक्रिया 🙏🏻
Deleteआप से स्नेही पाठकों और उम्दा लेखकों के दम पर यह परियोजना चल रही है। मैं लिखूँगी महाश्वेता जी पर और भी!
शार्दुला जी, महाश्वेता देवी पर यह लेख 'गागर में सागर' जैसा है। इस लेख में आपने विस्तृत जानकारी समेटे कर हम सभी को उपलब्ध करवाने का महत्वपूर्ण कार्य किया है। मुझ जैसे अल्पज्ञ के लिए तो यह बहुत ज्ञानवर्धक है। इस शोधपूर्ण एवं रोचक लेख के लिए शार्दुला जी को हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteदीपक जी आप हर लेख पढ़ते हैं, उसमें बढ़िया प्रतिक्रिया देते हैं, ऐसा लगता है कि हर लेख आपसे पढ़े जाने के इंतज़ार में रहता है। बहुत शुक्रिया 🙏🏻
Deleteमहाश्वेता नई से मिलने का मौका मुझेमिल जब 2014मे मेरी पत्रिकाके लोकार्पण केलियेन्यौता देने गया था। चूंकि।मैं बिरसा मुंडा की धरती से हु और बिरसामुंडाएवं मेरे नाना जी मित्र थे उनके बारे में बहुत जनताहूँ जब बताया तो उन्हें आश्चर्य हुआ था।
ReplyDeleteवाह सुरेश जी, यह कितनी बढ़िया बात कि आप महाश्वेता जी से साक्षात मिले हैं। साधुवाद 🙏🏻
Delete*आ गए तुम*
ReplyDelete*द्वार खुला है, अंदर आओ*
*पर तनिक ठहरो*
*ड्योढ़ी पर पड़े पायदान पर*
*अपना अहं झाड़ आना .........*
साहित्य जगत में योगदान के अलावा जनजातीय एवं वंचित समुदायों की प्रेरणास्रोत आदरणीया महाश्वेता देवी एक सशक्त साक्षात्कार थी। वह अपने नाम जैसी उजली और सफ्फाक धारणाओं की मजबूत और प्रख्यात साहित्यकार तथा समाजसेविका थी। उनके कहानी और उपन्यास जगत से रूबरू कराता हुआ आद. शार्दूला जी का यह लेख बहुत ही जानकारीपूर्ण तथा रोचक हैं। आपके आलेख ने उनकी जीवन यात्रा के कठिन प्रसंगो से पूरी तरह परिचित करा दिया। अधिसूचित जनजाति, आदिवासी, शोषित, वंचित समुदाय के स्वर आपके लेख में बहुत ही प्रभावी ढंग से उभरे है। अत्यंत साफ सुथरे शब्दो मे गढ़ा हुआ यह आलेख हैं जो आपकी लेखनी से उभरकर पाठकमन को संतुष्टि की भावना प्रदान कर रहा हैं। बहुत बहुत आभार शार्दूला जी और अनगिनत शुभकामनाएं।
सूर्या जी साहित्यकार तिथिवार को जो स्नेह आप दे रहे हैं, हम उसके आभारी हैं! आप पूरा लेख पढ़ कर उत्साह वर्धक ही नहीं, ज्ञान वर्धक टिप्पणियाँ भी देते हैं! महाश्वेता देवी पर लेख आपको रुचा यह मेरे लिए हार्दिक प्रसन्नता की बात है! बहुत शुक्रिया आपका 🙏🏻🌼
Deleteअनूठी जीवन-यात्रा की हरित पगडंडियों पर शार्दुला जी आपके साथ चलते हुए महाश्वेता देवी जी की प्रेरणा को जीवन में उतारने का प्रण सा कर पाए...यह आशा..."मैंने जितना खाना खाया है, उससे अधिक किताबें पढ़ी हैं, लेखन ही मेरी समाज सेवा है।" काश हम भी ऐसा जी पाएँ...बहुत सुंदर, सरल, तरल लिखा है आपने...उसी तरह जैसी आप स्वयं हैं...साधुवाद
ReplyDeleteतुम्हारे स्नेह के लिए तुम्हें स्नेह!हाँ यूँ तो शब्द सीमा थी पर महाश्वेता देवी का विराट व्यक्तित्व शब्दों में लेखन के परे है!
Deleteशार्दुला, महाश्वेता देवी को अनुपम श्रद्धासुमन अर्पित करता है यह आलेख। उनकी व्यक्तिगत ज़िन्दगी के उतर चढाव से लेकर लेखन के क्षेत्र की सभी चुनौतियों और उनके द्वारा प्राप्त किये गए आयामों पर अच्छा प्रकाश डालता है। तथाकथित बिछड़े समाज के प्रति उनकी संवेदनाओं और प्रतिबद्धता से भी अवगत कराता है। लेखन ह्रदय से किया गया है, यह पूर्णतः विदित है। इस जानकारीपूर्ण लेख के लिए बहुत बहुत बधाई और आभार।
ReplyDeleteप्रगति आप इस स्तंभ की एक मज़बूत स्तम्भ हैं! आपकी दृष्टि पैनी और समझ गहरी है। आपसे स्नेह पा लेख सार्थक हुआ!
Delete"मैंने जितना खाना खाया है, उससे अधिक किताबें पढ़ी हैं, लेखन ही मेरी समाज सेवा है।" ...महाश्वेता जी के व्यक्तित्व पर कृतित्व पर जानकारीपूर्ण आलेख। शार्दूला जी को बधाई।
ReplyDeleteशुक्रिया संजय जी, है न यह चौंकाने वाली बात!
Deleteबेहतरीन लेख। पढ़ते हुए महाश्वेता देवी के संघर्ष और ऊर्जा दोनों ही साकार हो उठते है। बहाकर ले जाने वाला सशक्त लेख
ReplyDeleteहर्षा आप को लेख पसंद आया बहुत ख़ुशी हुई!
Deleteआज सुबह यह आलेख पढ़ा. अपने स्कूल के दिनों में महाश्वेता देवी की कुछ कहानियाँ पढ़ी थी और आज उनके विषय में ज्ञानवर्धक जानकारी इतने सुंदर तरीके से उपलब्ध कराने के लिए शार्दूलय को विशेष धन्यवाद ।
ReplyDeleteप्रणाम गुरुजी 🙏🏻🌼आपने लेख पढ़ा और आपको अच्छा लगा यह मेरा सौभाग्य है और महाश्वेता जी के ओजस्वी जीवन का प्रतिबिंब भी! शुक्रिया 🙏🏻
Deleteबहुत उत्कृष्ट लेख
ReplyDeleteशुक्रिया 🙏🏻 इस ब्लॉग पर आते रहें! यहाँ हिन्दी की अलख जगी है!
Deleteबहुत अच्छा लिखा है।
ReplyDeleteWah wah
ReplyDeleteशार्दुला जी मैंनें आपका 3.29 am
ReplyDeleteसे लेकर ४'26 am तक पढ़ा । आपने अथक परिश्रम से एक महान लेखिका सै विस्तार पूर्वक परिचय कराया । मैंने अपने वाम पंथी साथियों से नाम तो सुना था एक क्रान्तिकारी लेखिका के रूप में लेकिन उनकी कोई पुस्तक पढ़ने का सौभाग्य नहींं मिला।
आपने बहुत सुन्दर सरल भाषा में विस्तृत परिचय दिया है धन्यवाद एवं आपके mission के लिए अनन्त शुभ कामनाएँ ।
सादर
श्री
महान सामाजिक कार्यकर्त्ता, कवियित्री, लेखिका और क्रान्तिकारी भाव रखने वाली चिन्तक महाश्वेता देवी के बारे में शार्दूला के लेखन से उनके विषय में विस्तृत जानकारी पढ़कर ज्ञानवर्द्धन हुआ।
ReplyDeleteअपने साहित्मयिक यात्रा में अनेको विरल ऊंचाईयों की उपलब्धि हासिल की। आदिवासियों और वंचितों का कल्याण का सम्वल लेकर चलने वाली, महाश्वेता देवी स्वभाव से ही विद्रोही थी और समाज के स्थापित मानदंडों को मानने की प्रतिबद्धिता के साथ भी उनका विद्रोह, उनके असफल दो वैवाहिक जीवन में परिलक्षित होता है।
उनकी साहित्यिक यात्रा सफलतम थी और इसके लिये वे सतत् जनमानस को जागृत करती रहेंगी।