नीलाभ 'अश्क' का जन्म १६ अगस्त १९४५ को मुंबई में उनकी माँ को लीलावती अस्पताल ले जाते वक्त उस ज़माने की मशहूर अभिनेत्री नलिनी जयवंत की कार में हुआ था। उनका नाम 'नीलाभ' प्रख्यात कवि सुमित्रानंदन पंत ने रखा था, जिन्होंने डॉक्टर हरिवंश राय बच्चन के पहले पुत्र का नाम अमिताभ रखा था। नीलाभ ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से कॉमर्स में स्नातक की उपाधि प्राप्त की थी, तत्पश्चात आगे चलकर उन्होंने हिंदी साहित्य में एम० ए० किया। उनके जीवन का सफ़र २३ जुलाई २०१६ को खत्म हुआ।
अब आइए फ्लैशबैक में चलते है,
हाल ही में भारतीय मूल की लेखिका गीतांजलि श्री के उपन्यास 'रेत समाधि' (टोम्ब ऑफ सेन्ड) के अनुवाद को 'बुकर सम्मान' प्राप्त हुआ है। ऐसा लगा श्रेष्ठ अनुवाद और अनुवादकों की प्राण-प्रतिष्ठा हो गई हो। भले ही अपनी भाषा का दोयम दर्जा और पक्षपात खल सा गया। अच्छा लेखन भी भाषागत मान्यताओं के चलते अनुवाद पर आश्रित रहेगा! फिर कैसे कहेंगे लेखन श्रेष्ठ था या उसका अनुवाद? लेखक श्रेष्ठ था या अनुवादक?
बहरहाल इस विषय पर लंबी बहस हो सकती है। पर ये विषय हमारा नहीं है। हम तो आपको बताना चाहते है कि अनुवाद को मिले इस सम्मान ने अनुवादकों के कार्य को श्रेष्ठता ही प्रदान की है। आलोचकों की तरह अनुवादकों से भी हमारा साहित्य काफी समृद्ध रहा है। पर श्रेष्ठ अनुवादकों की हमें हमेशा दरकार रही है - ऐसे में नीलाभ 'अश्क' अकस्मात याद आते है।
कवि, आलोचक, पत्रकार और अनुवादक की चार भूमिकाओं में नीलाभ जी के व्यक्तित्व को समेटा जा सकता है। पर उनका श्रेष्ठ रचना कर्म उनके अनुवादों में दिखाई पड़ता है। यशस्वी लेखक उपेंद्रनाथ अश्क के सबसे छोटे पुत्र नीलाभ को शब्दार्थ, भावार्थ और गूढ़ार्थ विरासत में मिला था। नीलाभ अंग्रेज़ी, हिंदी, उर्दू और पंजाबी के गहरे ज्ञाता थे।
नीलाभ जी का बचपन बेहद शाहाना अंदाज में बीता, लेकिन युवावस्था से जो तल्खियाँ उनके जीवन से जुड़ीं, उन्होंने ताउम्र उनका पीछा न छोड़ा। पिता और माँ की व्यस्तताओं के चलते एकाकीपन उनके स्वभाव में रच-बस गया था। एक ओर उन्हें बचपन से ही साहित्यिक परिवेश मिला, और यही बात उनके जीवन में साकारात्मक पहलू बनकर उभरी। अपने जन्मदिन पर उन्हें किताबों का उपहार बेहद पसंद था। फादर कामिल बुल्के, फ़िराख गोरखपुरी, सुमित्रानंदन पंत, राजेंद्र सिंह बेदी, बच्चन जी, महादेवी वर्मा जैसे महान शब्द शिल्पियों के सान्निध्य ने नीलाभ को आरंभ में ही शब्दों की दुनिया से परिचित करवा दिया। वहीं दूसरी ओर संघर्ष के दौर में नीलाभ ने ज़िंदगी के मदरसे में भी पढ़ाई की। अपने जीवन को उन्होंने अपने ही अनुभवों से गढ़ा था। स्वाध्याय उनका नशा था। अंग्रेज़ी, फ्रांसीसी, अरबी, फारसी, स्पेनिश का ज्ञान इसी स्वाध्याय की उपलब्धि रहा।
नीलाभ अश्क अच्छे कवि थे या अनुवादक, ये हमेशा विमर्श का विषय रहा है। वहीं नीलाभ जी ने मन की भ्रांतियों को कविता में और दुनिया की वास्तविकताओं को अंतर्राष्ट्रीय लेखकों के अनुवाद में तलाश किया। शायद इसे ही 'थिंक ग्लोबल एक्ट लोकल' कहते हैं। इसी में उन्होंने अपनी आजीविका भी ढूँढी और अपना शौक भी पूरा किया। हालांकि उनका पहला प्यार कविता थी, किशोरवय से ही उन्होंने कविता लिखना प्रारंभ कर दिया था। उनके पास थी अपने पिता से विरासत में मिली नफ़ासत भरी हिंदी और उर्दू, जिसे नीलाभ ने अपनी रचनात्मकता से जोड़ लिया।
नीलाभ जी का संपूर्ण जीवन अनिश्चय की ऊहा-पोह और कथित मृगतृष्णाओं के बीच गुज़रा। पिछली सदी का सातवाँ दशक नक्सलवादी आंदोलन से अनुप्राणित हो रहा था। युवा वाम-पंथ से प्रेरित हो रहे थे। एक अनिश्चय में पली-बढ़ी पीढ़ी कड़वाहट और विद्रोह को ही अपनी पहचान समझ रही थी। नीलाभ भी उसी दौर की उपज थे। शायद यही वजह है कि उनकी कविताओं में वामपंथी विचार मुखर होकर सामने आते है।
उपेंद्रनाथ 'अश्क' जैसे प्रख्यात लेखक के पुत्र होने के नाते संपन्नता और शब्द-प्रेम उन्हें विरासत में मिला था। लेकिन जीवनयापन का संघर्ष तो हर किसी को स्वयं ही करना पड़ता है। अतः 'नीलाभ प्रकाशन' के जरिए इसकी शुरुआत हुई। माँ कौशल्या 'अश्क' ने इसमें उनका सहयोग भी किया। नीलाभ प्रकाशन के माध्यम से उत्तराधिकार में प्राप्त हुई कलम की परंपरा को साथ मिला साहित्य से जुड़ी समकालीन लेखकीय पीढ़ी का। प्रकाशन व्यवसाय से मिली अध्ययन और स्वाध्याय की मूल्यवान संगति, यही शुरुआत थी नीलाभ के आभामय व्यक्तित्व की। पंजाबी लहज़ा, किताबी चेहरा, जुबां में बिना लाग-लपेट की स्पष्टता उनकी पहचान बनी। और फिर नीलाभ पहले कुछ उच्छृंखल, फिर उन्मुक्त जीवन शैली के पैरोकार बनते चले गए। सिर्फ उपदेशक बनकर नहीं बल्कि उदाहरण बनकर। वे सामाजिक उपेक्षाओं को सामाजिक दृष्टिकोण की विषमता मानकर आगे बढ़ते रहे।
सातवें दशक में उभरे नीलाभ हिंदी के उन प्रतिभाशाली और दुर्भाग्यशाली कवियों में रहे हैं, जो ताउम्र अपने अवदान के अवमूल्यन का दंश झेलते रहे। नीलाभ की कविता का व्यक्तित्व और चरित्र उनके समय की मुख्यधारा से चूंकि मेल नहीं खाता था, अतः उनका उचित और सम्यक मूल्यांकन नहीं हो पाया। उनकी कविता अपने समय के मनुष्य के आंतरिक संकट के विविध आयामों को अत्यंत तीव्र ऐंद्रिकता के साथ व्यंजित कर रही थी। जिसका अपेक्षित रेखांकन हिंदी काव्यालोचना द्वारा नहीं किया जा सका। हिंदी कविता का यह वह दौर था जो अ-कविता से आक्रांत था ही और जो उग्र-वर्ग चेतना की रूढ़ि से भी आबद्ध था। चूँकि नीलाभ की कविताएँ इन दो ध्रुवीय अतिरंजनाओं से मुक्त थीं, वे तत्कालीन कवियों और आलोचकों का पर्याप्त ध्यानाकर्षण करने में समर्थ नहीं हो पाईं। फलस्वरूप नीलाभ कई काव्य संकलनों के प्रकाशन के बावजूद मुख्यधारा के कवियों में स्थान नहीं बना सके। यही वजह है नीलाभ जी का लेखन कोई असाधारण लेखन नहीं कहा जा सका और ना ही उनका लेखन हिंदी साहित्य का अतुलनीय योगदान बन सका। वैसे इसकी एक वजह उनकी वैयक्तिक जीवनशैली भी रही। गंभीरता उनके जीवन का हिस्सा कभी नहीं रही। कभी उन्हें फ़्लर्टी होने की पहचान मिली, तो कभी वे घुमक्कड़ जीवनशैली के पर्याय कहलाए। अपने समाज में वे लेखकीय गंभीरता के लिए कम, व अपनी शम्मी कपूर जैसी जीवन शैली तथा सामाजिक वर्जनाओं पर प्रहार करती अपनी सोच के लिए अधिक जाने गए।
जहाँ तक उनके काव्यात्मक व्यक्तित्व की बात है, ऐसा लगता है जैसे वे अपनी रचनाओं के आश्रय से अपने उलझे हुए जीवन को सुलझा रहे हैं या फिर सामाजिक विसंगतियों से भरी दुनिया को एक चुनौती दे रहे हैं। वहीं, कभी लगता है स्वांतः सुखाय कविताएँ ही उन्हें व्याख्यायित कर रही हैं। वैसे भी कविता चाहे किसी की भी हो, उसके विश्लेषण का ढंग सबका अपना अलग सा होता है। इसलिए नीलाभ की कविताएँ बिखरे खयालों और अनमनेपन की रचनाएँ लगती हैं। जो उन्हें रुचिकर नहीं लगता था, उसे असंगत मानकर वे कविता रचा करते थे। वे कभी भी तर्कों से समझौता नहीं करते थे। उन्होंने जीवन भर ज़िंदगी को कृत्रिम आँखों से ही देखा। उनके कुछ काव्य संग्रहों के शीर्षक ही उनके सूक्ष्म दृष्टिकोण का परिचय सरीखा देते है। नीलाभ अश्क की रचना 'शब्दों से नाता अटूट है' उनकी इसी संवेदना को दर्शाती है।
शब्दों से मेरा नाता अटूट है
मैं उन्हें प्यार करता हूं
लगातार लड़ता हूं
झगड़ता हूं उनसे
अपनी समझ से उन्हें
धमकी देता रहता हूं
यहां तक कई बार
खीझ उठता हूं
उन पर मैं
बहुत बार मैंने कहा है उनसे
क्यूं तंग करते हो मुझे
भई अब तुम जाओ
कहीं और जाकर डेरा जमाओ
मेरे दिमाग को घोंसला मत बनाओ
पर ये शब्द हैं कि
लगातार मेरा पीछा करते है
मेरे दिमाग पर दस्तक देते रहते है
मैं जानता हूं मैं उन्हें कई बार
व्यक्त नहीं कर पाता
उनकी दस्तक के बावजूद
कई बार मेरे दिमाग का
कोई दरवाजा नहीं खुल पाता
मैं कुछ और कहना चाहता हूं
वे कुछ और सुझाते हैं
मैं तराशना चाहता हूं उन्हें
वे बार-बार मेरे हाथों को चुभ जाते है।
कभी मैं आगे बढ़ जाता हूं
कभी वे पीछे छूट जाते है
लेकिन, न वे मुझे छोड़ते है
न मैं उनसे पीछा छुड़ा पाता हूं।
नीलाभ को आजीविका के लिए बहुत कुछ करना पड़ा। ब्रॉडकास्टिंग के रूप में बीबीसी के चार साल हों या अनुवादक संपादक की बिंदास भूमिका हो, कुछ विरोधाभास सा ही लगता है। पर शायद यही विरोधाभास नीलाभ के जीवन का हिस्सा बन चुके थे। यायावर जीवन शैली एक जगह ठहरी हुई ज़िंदगी से बेहतर होती है पर ज्यादातर लोगों को यह बहुत देर से समझ में आता है।
कालांतर में नीलाभ ने काव्य सृजन से विरक्त होकर अनुवाद कार्य को बतौर अभियान अपने हाथ लिया। कुछ संपादन भी किए। मंटो, अज्ञेय, गालिब यहाँ तक की राहत इंदौरी को भी संकलित और संपादित करना शुरू किया। कुछ संस्मरण भी लिखे, अच्छा खासा १५२ किताबों का जमावड़ा भी उनके नाम था, जिनमें शामिल है बिजनेस आईकून रोनी स्क्रूवाला, मेरीकॉम इत्यादि। पर आर्थिक उपार्जन का मुद्दा लगभग नगण्य ही रहा।
८० के दशक में नीलाभ ने बीबीसी की राह पकड़ी और चमत्कार ये कि वे एक सफल ब्रॉडकास्टर के रूप में उभरे। बीबीसी में कुछ वर्षों की सेवाओं ने उन्हें श्रव्य पत्रकारिता में दक्ष बनाया। उन्होंने इस तत्कालीन महत्वपूर्ण प्रसारण संस्था को एक नई पहचान भी दी। चौबीस कविताओं का संग्रह 'लंदन-डायरी' यहीं प्रकाशित भी हुआ।
रेडियो, टेलीविज़न, रंगमंच, पत्रकारिता, फिल्म संपादन, नृत्य नाटिकाएँ, पटकथा लेखन और आलेखों ने उन्हें एक अलहदा सी पहचान दी। रेडियो के लिए उन्होंने शेक्सपियर-ब्रेख्त, शुद्रक और र्लोका के नाटकों का अभिनव रूपांतरण भी किया। बीबीसी के प्रख्यात प्रसारक कैलाश बधवार नीलाभ की प्रसारण प्रतिभा के कायल थे। वे चाहते थे नीलाभ रेडियो के लिए कुछ और काम करें पर शायद नियति को यह मंजूर नहीं था। हिंदी और इलाहाबाद का मोह उन्हें मात्र चार साल में ही भारत खींच लाया।
भारत आने पर वे महात्मा गाँधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय की परियोजना 'आधुनिक हिंदी साहित्य का मौखिक इतिहास' के लिए मुख्य अन्वेषक बनाए गए, जिसके लिए उन्होंने अनेक यात्राएँ भी कीं और संग्रहालय के लिए अनेक नामचीन लेखकों के साक्षात्कार भी लिए, जो लिप्यांतरण के साथ चार खंडों में प्रकाशित किए गए। उन्होंने जवाहर लाल नेहरू स्मारक निधि में नेहरू जी के पत्रों का संपादन भी किया और शोध कार्यों से जुड़कर अपना रचनात्मक योगदान भी दिया।
आगे चलकर उन्होंने 'महाभारत' का स्व-अनूभूत प्रकाशन दो खंडों में किया। नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा की पत्रिका 'रंगप्रसंग' और 'नटरंग' का संपादन भी उनके खाते में दर्ज़ है। उनका प्रिय कार्य कविता लेखन, ब्रॉडकास्टिंग शौक, आलोचना एक कोशिश, संपादन और शेष सब कुछ अर्थोपार्जन हो सकता है पर अनुवाद उनकी मौलिक और स्थाई पहचान है। कह सकते हैं कि लेखन उनका पेशा था और अनुवाद उनकी आजीविका।
समय के साथ नीलाभ ने अनुवाद कार्य को एक अभियान के रूप में अपने हाथ में लिया और अनेक विश्व प्रसिद्ध कृतियों का स्तरीय अनुवाद हिंदी पाठक समाज को उपलब्ध कराया। महान रूसी लेखक मिखाईल लेर्मेन्टोव के विख्यात उपन्यास 'द हीरो ऑफ अवर टाइम' (अनुवाद-हमारे समय का नायक) अरुंधति राय के बुकर सम्मान प्राप्त उपन्यास गॉड आफ स्माल थिंग (अनुवाद-मामूली चीजों का देवता) के अनुवादों की भूरि-भूरि प्रशंसा भी हुई और पुरस्कृत भी की गईं।
विलियम शेक्सपियर्स के 'किंग लीयर' का हिंदी अनुवाद 'पगला राजा' के रूप में किया। जर्मन कवि बर्त्तोल्त ब्रेख्त के 'मदर करेज एण्ड हर चिल्ड्रन' का अनुवाद 'हिम्मत माई' के नाम से किया। सलमान रश्दी के उपन्यास 'द एंचेट्रेस ऑफ फ्लोरेंस' को भी अनुदित किया। व्ही० एस० नायपॉल, अगाथा क्रिस्टी, ब्लादमीर नवोकोव के उपन्यासों को अपनी अंतर्दृष्टि से नए शब्द विन्यास दिए। अर्नेस्ट्रो कार्डिनेल, निकोलोव पायो, एजरा पाउंड की कविताएँ, वहीं बंगला कवि जीवनानंद दास, सुकांत भट्टाचार्य, टर्किश-पोलिश कवि नाजिम हिकमत की कविताएँ भी बेहद सहजता और सरलता से किए गए उनके अनुवाद है, जो हिंदी के पाठकों के बीच अपनी ग्राह्यता के कारण काफी चर्चित रहे हैं। मुख्तरन बाई की आपबीती 'इज्जत के नाम' और मंटो की बीस कहानियों का संपादन भी उनकी रचनात्मकता का परिचय देता है। देवदत्त पटनायक के आलेखों का अनुवाद भी नीलाभ ने बड़ी कुशलता के साथ किया जो बेहद सारगर्भित कहे जा सकते हैं। चिली के महान कवि पाब्लो नेरूदा की १९४६ में प्रकाशित बारह भाग की लंबी स्पेनिश कविता (अल्टूरस डी माचू-पिच्चू) द हाईट्स ऑफ माचू-पिच्चू का अस्सी पृष्ठ की पुस्तक के रूप में अनुवाद उनकी उल्लेखनीय उपलब्धि मानी जाती है।
नीलाभ ब्लॉगर की भूमिका में भी नजर आए। उनका ब्लॉग 'नीलाभ का मोर्चा' भी विशेष पाठक वर्ग में खासा चर्चित रहा। अपने अंतिम समय में वे पेटिंग्स, जैज़ संगीत और दक्षिण भारतीय शास्त्रीय संगीत को अपना ज्यादा वक्त दे रहे थे।
उनकी जीवन संगिनी डॉ० भूमिका द्विवेदी की पंक्ति 'दोस्त बन-बन के मिले मुझको मिटाने वाले' के माध्यम से नीलाभ का अपने मित्रों के साथ महफ़िलों में खोकर अपने स्वास्थ्य के प्रति लापरवाह होना झलकता है। लेकिन अपने कहे गए शब्दों पर कायम रहने वाले व्यक्ति के रूप में उनकी पहचान आजीवन बनी रही।
प्रख्यात कथाकार ज्ञानरंजन ने नीलाभ के लिए लिखा –
"नीलाभ पिछले छह वर्षों में जितने जाँचे, परखे और पढ़े गए उतने प्रयास तो उनके रहते हुए भी नहीं किए गए। यह लेखन के प्रति एक सुखद और साकारात्मक संकेत ही माना जाएगा। व्यावसायिक जीवन का दुभाषिया और साहत्यिक परिवेश का दुभाषिया दोनों बिल्कुल अलग तरह की पहचान होती हैं। एक समय में दो भाषाओं की पड़ताल प्रक्रिया का वैशिष्ट्य नीलाभ के पास था, जो उनके जीवन की नाकारात्मकताओं के बीच पाठकों के लिए कुछ न कुछ अच्छा रचता रहा। मैं उनसे तकरीबन नौ वर्ष बड़ा था, दोस्तों में वे एंग्री यंग मैन के रूप में जाने जाते थे। उनका विद्रोही चेहरा उनकी भाषा हमेशा घरे-बाहरे आंकी और परखी जाऐगी। वैचारिक दुनिया में पिता और पुत्र दोनों फाइटर थे तभी उनके विरोधी हर जगह बेअसर रहे।
वह दौर घर पर शानदार लाइब्रेरियों का दौर था। घर पर हिंदी और उर्दू के अफ़साना निगारों और शायरों, कवियों का आना-जाना हुआ करता था। ऐसे माहौल में नीलाभ की परवरिश हुई थी।"
उनके जीवन से यह तो तय किया जाना चाहिए कि निजी जीवन और रचनात्मकता का घाल-मेल नहीं किया जाना चाहिए। लेखन और अनुवाद के बीच के समय ने नीलाभ की रचनात्मकता से जुड़े उनके बहुआयामी व्यक्तित्व का शानदार परिचय दिया। संस्कृति और साहित्य के सार्थक संवाहक थे नीलाभ।
जीवनयापन की मुश्किलों ने उनके अनुभव को गहराई दी। शोहरत और पैसे की जगह नया सीखने और करने की ललक उनमें बहुत ज्यादा थी। चाहते तो वे भी थे कि उन्हें उनके समय में समझा जाए पर जब ऐसा नहीं हो पाया तो नीलाभ बेफिक्र, बेलौस और बिंदास तरीके से जीने लगे। न तो समझौता किया, न ही रीढ़ को झुकने दिया और न अपने जीने का अंदाज़ बदला। आखिर में उन्हीं की पंक्तियों से अपनी बात खत्म करता हूँ।
ताना-बाना हुड्डी करघा
जीवन एक बुनाई हो रामा
झीना-झीना चाहे बुन लो
चाहे घनी चटाई हो रामा
रोजी-रोटी, प्यार-मोहब्बत
या फिर कठिन लड़ाई हो रामा
जो इन सब में चले बराबर
उसकी रहे बड़ाई हो रामा
नीलाभ अश्क : जीवन परिचय |
जन्म | १६ अगस्त १९४५, मुंबई |
निधन | २३ जुलाई २०१६ |
पिता | उपेंद्रनाथ अश्क |
माता | कौशल्या अश्क |
शिक्षा | इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर |
कार्यक्षेत्र | - बीबीसी लंदन हिंदी के विदेशी प्रसारण विभाग निर्माता
- कवि, लेखक और अनुवादक के रूप में स्वतंत्र लेखन
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प्रकाशन | नीलाभ प्रकाशन |
साहित्यिक रचनाएँ |
कविता-संग्रह | |
काव्य समग्र | |
उपन्यास | |
साहित्येतिहास | |
आलोचना | प्रतिमानों की पुरोहिती पूरा घर है कविता
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संस्मरण | |
अनुवाद
| पगला राजा (शेक्सपियर कृत किंग लीयर) हिम्मत माई (ब्रेख्त कृत मदर करेज एंड हर चिल्ड्रन) मि० बिस्वास का मकान (वी एस नायपाल कृत) इज्जत के नाम पर (मुख्तारन माई की आपबीती) हमारे युग का एक नायक (मिखाइल लर्मोन्टोव कृत ए हीरो ऑफ आवर टाइम) मामूली चीज़ों का देवता (अरुंधति रायकृत द गॉड ऑफ स्माल थिंग्स) फ़्लोरेन्स की जादूगरनी (सलमान रुश्दी कृत द एन्चान्ट्रेस ऑफ फ्लोरेंस)
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पुरस्कार व सम्मान |
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संदर्भ
- ज्ञानरंजन के बहाने - नीलाभ अश्क।
- विकिपिडिया
- अतरंग अभिन्न ज्ञानरंजन की स्मृतियों से।
लेखक परिचय
रविकांत वर्मा
एम० ए० (सोशियोलॉजी)
एल० एल० बी०, बैचलर ऑफ़ जर्नलिज़्म एंड मास कम्युनिकेशन में उपाधि
आकाशवाणी छिंदवाड़ा से सेवानिवृत्त।
मोबाइल - ९५८९९७२३५५
जबलपुर (मध्यप्रदेश)
इतना अच्छा आलेख !
ReplyDeleteबधाई !
कोरियन उपन्यास प्लीज़ लुक ऑफ्टर मॉम का अनुवाद मां का ध्यान रखना इन्हीं की देन !
आभार 🙏
Deleteरवि जी, बेहतरीन आलेख। नीलाभ अश्क जी के सतत बदलते जीवन और जीवन के प्रति उनकी ख़ुद की शर्तें, विरासत में मिले भावों और शब्दों के ख़ज़ाने, और स्वभाव के कारण यायावर बने रहने की ज़िद ने उनकी ज़िंदगी को चुनौतियों से भरा रखा, पर हम सबके लिए वे रंग-बिरंगा साहित्यिक ख़ज़ाना छोड़ गए हैं। आपके आलेख से ही उनके बारे में जाना यह सब और बहुत कुछ भी। आपको इस अनुपम लेख के लिए बधाई और आभार।
ReplyDeleteसुन्दर अभिव्यक्ति-----
ReplyDeleteआभार 🙏
सुंदर विवेचना । बधाई।
ReplyDeleteरविकांत जी नमस्ते। आपने नीलाभ अश्क जी पर अच्छा लेख लिखा है। लेख में सम्मिलित उनकी कविता का चयन भी अच्छा है। आपको इस रोचक लेख के लिए हार्दिक बधाई।
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