सन १७६३-६४ में बक्सर के पास हुई लड़ाई में नवाब शुज़ा उद दौला ईस्ट इंडिया कंपनी से हार गया था और उसने अंग्रेज़ों को अवध का शासन नियंत्रित करने का अधिकार दे दिया था। उसके बाद सन १८५६ तक का अवध का इतिहास ब्रिटिशों के कुटिल षड़यंत्रों, अत्याचार और लालच के अंधे युग का इतिहास है। ब्रिटिश पार्लियामेंट के सामने अवध की जनता की दरख़्वास्त को The Dacoitee in Excelsis or The Spoliation of Oude, Faithfully Recounted किताब के ज़रिए अंग्रेज जनता को उस वक्त उपलब्ध करा दिया गया था। महारानी विक्टोरिया ने १ नवंबर १८५८ को हिंदुस्तान को अपने हाथ में ले लिया था, लेकिन अवध को बाग़ियों से खाली कराने में ७ जनवरी १८५९ तक का समय लगा।
इंग्लैंड की रानी को अपना परिचय देते वक्त अवध के इस नवाब ने रामायण और राम से प्रारंभ किया था। अवध की राजमाता ज़ैनबी औलिया ताज़रा बेगम लंदन में अपने अधिकार और स्वतंत्रता की गुहार लगा रही थी, उसी समय भारत में आज़ादी की सन १८५७ की लड़ाई में अवध की एक और बेगम नवाब वाज़िद अली की दूसरी पत्नी बेगम हज़रत महल नानासाहेब पेशवा, तात्या टोपे के साथ कंधे से कंधे मिला लड़ रही थीं। वाज़िद अली शाह की गैर मौजूदगी में बेगम हज़रत महल मौलवी अहमद शाह और तमाम 'नाचने-गाने वालों' ने फिरंगी फौजों को शहर में घुसने नहीं दिया।
लखनऊ की जिस इमारत में आज भातखंडे संगीत विश्वविद्यालय है, उसे वाज़िद अली शाह के समय परीखाना कहते थे। उस इमारत में शाह की परियाँ रहती थीं। परी मतलब वह, जो नवाब को पसंद आ जाती थी। इनमें से अगर कोई बाँदी नवाब के बच्चे की माँ बन जाती तो उसे महल कहा जाता। बेग़म हज़रत महल के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने बाँदी से बेगम होने का सफ़र महल के रास्ते ही तय किया था।
वैसे तो वाज़िद अली शाह ने कुल ६० किताबें लिखी थीं लेकिन उनमें से अधिकांश इतिहास की गर्द में खो गई हैं। अवध के नवाबख़ाने के भी बड़े शौकीन कहलाते थे, तो वाज़िद अली शाह उससे अछूते कैसे रह सकते थे। वे रसोई के जानकार भर नहीं थे। तो नए प्रयोग करने का भी हुनर रखते थे, जैसे कलकत्ता बिरयानी में आलू का इस्तेमाल उन्होंने ही शुरू किया था। उन्हें उनके तरीकों की वजह से याद रखा जाए इसलिए वे अपने कुर्ते का बायाँ हिस्सा अधखुला छोड़ा करते थे और ऐसी उनकी कई तस्वीरें भी दिख जाएँगी।
ऊपरी तौर पर देखने पर नवाब वाज़िद अली को विलासी और शान-शौकत से जीने वाला माना जा सकता है, लेकिन गहरे पैठने पर वे बहुत संवेदनशील और भावुक हृदय के कलानुरागी शासक नज़र आते हैं। उनकी संवेदनशीलता को दिखाता यह शे'र देखिए,
कथक शैली के तीनों नटन भेदों - नाट्य, नृत्त व नृत्य को फिर से समृद्ध करने के लिए उन्होंने गायक-वादक एवं नर्तक-नर्तकियों के बड़े समूह को अपने यहाँ ऊँचा वेतन देकर रखा था, लेकिन देखने वालों ने इसमें भी स्याह रंग ही देखा कि उन्होंने अरब व्यापारियों की अफ्रीकी गुलाम औरतों से शादी की थी। नवाब ने लगभग ११२ मुताह किए थे मतलब कुछ समय के लिए की जाने वाली शादी, तो कई निकाह किए थे और उतने ही तलाक भी दिए थे। तलाक की वजह बढ़ते खर्चे बताए जाते हैं, लेकिन एक बात और थी वह थी उनका कला के प्रति समर्पण। कथक के प्रयोगों में गतिरोध पैदा करने वाली किसी भी बेगम को वे तुरंत छोड़ देते थे। उनके ही शब्दों में,
कला के प्रति इतनी निष्ठा कितने लोग निभा पाते हैं? नवाब वाज़िद अली शाह अपने कलाकारों को खुद प्रशिक्षण देते थे। कथक शैली के नाट्य तत्व की सर्वोत्कृष्ट प्रस्तुति वाज़िद अली शाह के भव्य रंग प्रयोग 'रहस' में दिखती है, जो रासलीला से प्रेरित था। तब तक कथक को दरबारी नृत्य कहा जाने लगा था, लेकिन उन्होंने रहस की रंग योजना, मंच, दृश्य सज्जा, पात्रों का मंच प्रवेश, कथावस्तु आदि के साथ नृत्य में नाट्य सम्मिलित किया था। लाखों रुपए खर्च कर रहस निर्मित होता था, जिसे कैसरबाग रहस मंज़िल में प्रदर्शित किया जाता था। नवाब साहब ने 'अख़्तर' उपनाम से कई ठुमरियाँ रची हैं और 'कैसर' नाम से भी। 'अख़्तर' से एक कलाम देखिए,
'रहस' केवल शाही परिवारों के सामने मंचित किया जाता था और आम लोगों के लिए सैयद आगा हसन 'अमानत' लिखित 'इन्दर सभा' को प्रस्तुत किया। कई बंदिशों जैसे 'दरिया-ए-ताशक़', 'अफ़साने-ए-इस्बाक़' और 'बहार-ए-उल्फ़त' को उन्होंने नाट्य रूप दिया।
नवाब ने अपनी बन्नी पुस्तक में कथक के नृत्य अंग की २१ गतों का वर्णन किया है। गीतों का विकास करने के साथ उन्होंने ठुमरी भाव के विकास में भी बहुत योगदान दिया। ठुमरी भाव को नवाब वाज़िद अली शाह और महाराज बिन्दादीन ने नई पैहरन दी। तमाम बादशाहों और नवाबों की परंपरा में सबसे बड़े गुणग्राही और कला के कद्रदान के रूप में उनकी पहचान को ठुकराया नहीं जा सकता। ठुमरी और कथक के प्रति लखनऊ का झुकाव वाज़िद अली शाह के प्रोत्साहन से और भी बढ़ गया। उनके अंतर्पुर से लेकर राजदरबार तक कथक नृत्य और ठुमरी गान को प्रधानता दी जाने लगी थी। तत्कालीन लखनऊ का सारा वातावरण ठुमरी और कथक रंग में रंग गया था। उन्होंने शास्त्रीय संगीत के कई रागों की रचना की जैसे जोगी, जूही, शाह पसंद। सत्यजीत रे की फ़िल्म 'शतरंज के खिलाड़ी' में वाज़िद अली शाह का नृत्य और संगीत के संरक्षक के रूप को ही दर्शाया गया है।
संदर्भ
विकिपीडिया
अयोध्या (मूल मराठी पुस्तक) - लेखक माधव भंडारी, हिंदी संपादन (लेखिका स्वयं)।
कथक नृत्य शिक्षा, द्वितीय भाग - लेखक डॉ० पुरु दाधीच।
लेखक परिचय
स्वरांगी साने
पूर्व वरिष्ठ उप संपादक, लोकमत समाचार, पुणे। भारतीय कौंसलावास, न्यूयॉर्क की वेबसाइट पर पत्रिका अनन्य के लिए संपादन सहयोग।
जनसत्ता, नई दिल्ली तथा वेब दुनिया हेतु नियमित स्तंभ लेखन, स्वतंत्र अनुवादक-लेखक, कवयित्री।
भारत सरकार द्वारा विकसित वेब इंटरफ़ेस के लिए लगातार अनुवाद।
एम. ए. (कथक) (स्वर्णपदक), कथक विशारद (Distinction), अखिल भारतीय गंधर्व महाविद्यालय मंडल, मिरज (मुंबई)
काव्य संग्रह "शहर की छोटी-सी छत पर" और "वह हँसती बहुत है" यू-ट्यूब पर चैनल : #AMelodiousLyricalJourney
कार्यक्षेत्र : कविता, कथा, अनुवाद, संचालन, स्तंभ लेखन, पत्रकारिता, अभिनय, नृत्य, साहित्य-संस्कृति-कला समीक्षा, आकाशवाणी और दूरदर्शन पर वार्ता और काव्यपाठ।
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अभिनंदनीय।
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद आपका डॉ. जयशंकर जी
DeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteस्वरांगी, तुमने भातखंडे के बग़ल से गुज़रते हुए सुनी घुँघरू की थापें याद करा दीं। कैसरबाग हमारा मुहल्ला है और उसका इतना कुछ वाजिदअली शाह से जुड़ा है कि वे सब मंजर नज़र के सामने घूम गए। वहाँ बचपन बिताने के बावजूद जिन बातों को तुमने आलेख में सामने लाया है, उनमें से अधिकांश से मैं नावाक़िफ़ थी। कत्थक को आज प्राप्त स्थान दिलाने में इस अज़ीम नवाब की कितनी अहम भूमिका थी, वह आज पता चली। तुम्हारा कत्थक प्रेम भी सर्वविदित है इसमें। बहुत बधाई और शुभकामनाएँ।
ReplyDeleteभातखंडे के बगल से गुजरना वाह मतलब लय-ताल में डूबना। आपका स्नेह बना रहे, बहुत बहुत धन्यवाद आपका
Deleteआदरणीया स्वरांगी जी,
ReplyDeleteनवाब साहब पर बहुत ही बढ़िया आलेख गढ़ा गया है। बहुत सारी बारीकियों को ध्यान में रखकर उनके कत्थक और साहित्यिक रूप को विस्तारपूर्वक समेटने की कहानीयुक्त कोशिश की गयी है। इस लेख के द्वारा नवाब साहब का साहित्य और कत्थक के प्रति अपार प्रेम पहली बार जानने मिला इसलिए आपका आभार। इस खुबसुन्दर और रोचक लेख की रचयिता होने के नाते आपका धन्यवाद और ढ़ेर सारी शुभकामनाएं।
अंग्रेजों ने अनेक भारतीय महानायकों को बदनाम करने के लिए उनके विषय में मनगढंत बातें फैलाने का कार्य किया... जैसे कन्नौज के राजा जयचंद को गद्दार कहकर प्रचारित किया जबकि जयचंद गद्दार नहीं थे... वाजिद अलीशाह वीर पराक्रमी और बहादुर थे उनका व्यक्तित्व बहुत प्रभावशाली था... उन्हें विलासी, आलसी कहकर उन्हें बदनाम किया... तरह तरह के झूठे किस्से बना डाले गए... अंग्रेजों ने जो कह दिया हम भारतीयों ने उसमें न जाने क्या क्या और जोड़ लिया और ये हाल हो गया कि नवाब वाजिद अली का नाम लेते ही उनकी विलासिता के, उनके आलस के सैकड़ों झूठे चुटकुले सुनने को मिल जाते हैं... जिनका वास्तविकता से कोई संबंध नहीं है... स्वरांगी साने ने वाजिद अली शाह के साथ न्याय किया है... लेख संतुलित है... उनके कला प्रेम, संस्कृति प्रेम, लोककला के प्रति प्रेम औकात उनके वीरतापूर्ण व्यक्तित्व को लेख में उभारा है... वाजिद अली शाह पर अभी और गहन शोध की आवश्यकता है इस लेख से शोधकर्ताओं को प्रेरणा मिलेगी...
ReplyDeleteस्वरांगी साने को लेख के लिए बधाई.
-डा० जगदीश व्योम
स्वरांगी जी नमस्ते। आपने वाजिद अली शाह पर बहुत अच्छा लेख लिखा। उनकी लिखी बंदिशें लगभग हर फनकार ने गाई हैं। उनका साहित्यिक योगदान अद्भत है। साथ ही जैसा आपने भी उल्लेख किया कि भारतीय संगीत एवं नृत्य के संवर्द्धन में उनका महत्वपूर्ण योगदान है। जैसा कि डॉ. व्योम सर ने भी लिखा कि हम लोगों को के सामने अंग्रेजों ने इतिहास को तोड़मरोड़ कर प्रस्तुत कर अनेक महान लोगों के योगदान को या तो गायब कर दिया या विकृत रूप में प्रस्तुत किया। आ. अनूप जी ने 'शतरंज के खिलाड़ी' से अद्भुत नृत्य का वीडियो साझा किया। लेख पर आई सभी टिप्पणियों ने लेख को और रोचक बना दिया है। स्वरांगी जी आपको इस जानकारी भरे रोचक लेख के लिए हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteहार्दिक बधाई, स्वरांगी जी, आपने वाजिद अली शाह का अद्भुत परिचय प्रदान किया है।आप स्वयं नृत्य,संगीत,साहित्य में अपना स्थान प्राप्त किया है।इस लेख में आपका यह अंदाज दिख रहा है।हार्दिक बधाई 💐👏
ReplyDeleteबहुत बढ़िया आलेख। इतिहास के अभी तक नावाक़िफ़ पन्नों से रू ब रू करवाने के लिए बहुत शुक्रिया स्वरांगी जी
ReplyDeleteस्वरांगी जी बहुत बढ़िया बहुत अच्छा आलेख 🌹
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