भारत के इतिहास में भाषा आंदोलन का अपना विशिष्ट स्थान है। इस आंदोलन के ही परिणामस्वरूप संविधान-निर्माताओं को हिंदी को राजभाषा का स्थान देने के लिए बाध्य होना पड़ा। इस राष्ट्रभाषा आंदोलन के महानायक, आचार्य चंद्रबली पांडेय वह शख्सियत थे, जिन्हें हिंदी के अतिरिक्त कुछ स्वीकार नहीं था। उन्होंने हिंदी भाषा को साध्य मानकर अपना सर्वस्व उस पर अर्पित कर दिया। वह एक ऐसी दिव्य विभूति थे, जिनका जीवन ऋषि और संत का जीवन था, जिसमें सादा जीवन उच्च विचार की भावना अनुस्यूत थी। आचार्य चंद्रबली पांडेय किसी सम्मेलन में भाँति-भाँति के व्यंजनों और मनुहारों के बावजूद वहाँ से इसलिए भूखे लौट आते कि मेजबान ने हिंदी के विरोध में कुछ कह दिया था। भिगोए हुए कच्चे अन्न को अलोना खाने और नंगे पैर रहने के व्रत को उनसा विरला ही कोई निभा सकता था।
जन्म व शिक्षा
श्रीमान गोकुल पांडेय के घर जन्मे चंद्रबलि जी शैशवावस्था में ही माता सहदेयी देवी की छाया से वंचित हो गए। जब वह एक वर्ष के भी न थे, माता की जीवन-लीला एक विषधर डस गया। बड़े भाई संग उनका जीवन भी अभावपूर्ण रहा, किंतु सीधे-सरल निस्पृह प्रकृति के पिता ने उन पर पूरा ध्यान केंद्रित कर दिया। वर्ष १९२५ में आजमगढ़ के वेस्ली स्कूल से हाईस्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद, उन्होंने काशी हिंदू विश्वविद्यालय से १९२७ में इंटर और १९३१ में एम.ए किया। उनके व्यक्तित्व निर्माण व शिक्षा-दीक्षा में बड़े भाई रामबलि पांडेय का सर्वाधिक योगदान रहा और उन्हीं के कारण वह हिंदी में एम.ए कर सके।
हिंदी के लिए संघर्ष
उस समय काशी हिंदू विश्वविद्यालय के नियमों के अनुसार हिंदी विषय पर शोधपत्र भी अंग्रेज़ी भाषा में प्रस्तुत करना होता था। चंद्रबली पांडेय अंग्रेज़ी में शोधपत्र लिखने की क्षमता रखते थे, किंतु वह सिद्धांततः उसके विरोधी थे। उन्होंने हिंदी में शोधपत्र लिखने की अनुमति माँगी और न मिलने पर इस नियम के विरोध में उपाधि न लेने का निर्णय करते हुए सिर्फ़ प्रथम खंड लिखकर अपना शोध कार्य छोड़ दिया। यह खंड बाद में "तसव्वुफ अथवा सूफीमत" के नाम से प्रकाशित हुआ। इसका परिणाम यह हुआ कि बाद में विश्वविद्यालय ने हिंदी भाषा में लिखकर डॉक्टरेट करने की अनुमति दे दी। किंतु उस समय तक उनके हृदय में राष्ट्रभाषा हिंदी की अवमानना को समाप्त करने के लिए बड़े संघर्ष की भूमिका बन चुकी थी और वह उपाधि की निस्सारता को समझ गए थे।
प्राध्यापक होने की आकांक्षा से वह वर्ष १९३५ तक काशी हिंदू विश्वविद्यालय में कार्यरत रहे। किंतु वहाँ नियुक्ति न होने पर आचार्य रामचंद्र शुक्ल के साथ साहित्य के अध्ययन और अनुशीलन के लिए उनके सहयोगी के रूप में कार्य करते रहे। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के शिष्यों में आपका मूर्धन्य स्थान था। ऐसे योग्य शिष्य की प्राप्ति पर शुक्ल जी को भी गर्व था। काशी के साहित्यिक वातावरण व विद्वानों के संपर्क से ही उनमें समीक्षा तथा आलोचना की सहज प्रवृत्ति विकसित हुई।
सन १९३८ में आप नागरी प्रचारिणी सभा से जुड़े और हिंदी के पक्ष को प्रमाणपुष्ट ढंग से प्रस्तुत करने के निमित्त अवैतनिक पूर्णकालिक कार्यकर्ता के रूप में जुड़े रहे और नागरी प्रचारिणी सभा की पत्रिका 'हिंदी' का संपादन भी किया। उनकी प्रेरणा से देश के कई भागों में नागरी प्रचारिणी सभा की शाखाएँ स्थापित हुईं। वर्ष १९४९ में अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन के हैदराबाद विशेषाधिवेशन में वह सभापति थे। उस समय कतिपय राजनीतिज्ञ हिंदी के स्थान पर 'हिंदुस्तानी' नाम से एक नई भाषा को प्रतिष्ठित करने का अथक प्रयास कर रहे थे, जो प्रकारांतर से उर्दू थी। उसके विरोध में पांडेय जी ने अपनी दृढ़ता, अटूट लगन, निर्भीकता और प्रगाढ़ पांडित्य से राजनीतिज्ञों की कूटबुद्धि को हतप्रभ कर दिया था। १९५१ में हरिद्वार में पूर्ण कुंभ के अवसर का लाभ उठाते हुए, आपने हिंदी के प्रचार में महत्वपूर्ण योगदान दिया और उसे अभूतपूर्व सफलता मिली। १९५२ में नागरी प्रचारिणी की हीरक जयंती पर अपने ऐतिहासिक भाषण में स्पष्ट शब्दों में उल्लेख किया कि स्वतंत्रता के पश्चात हिंदी राजभाषा तो मानी गई, लेकिन सरकार हिंदी के प्रति अपने दायित्वों का निर्वहन नहीं कर रही है।
स्वर्गीय लक्ष्मण नारायण गर्दे जी के अनुसार, संत स्वभाव के, अखंड बाल ब्रह्मचारी, तपस्वी, त्यागी, निस्पृह और परहित साधन में तत्पर, ध्येयनिष्ठ महान पुरुष आचार्य चंद्रबली पांडेय को प्राप्त कर हिंदी साहित्य क्षेत्र धन्य है। डॉक्टर गोपीनाथ तिवारी ने उल्लेख किया है कि किस प्रकार हिंदी साहित्य सम्मेलन के दौरान आचार्य चंद्रबली पांडेय जी ने अन्य प्रतिभागियों के प्रति भेदभाव का विरोध करते हुए, उन्हें अपने कक्ष में स्थान दिया। इसी घटना का मार्मिक चित्रण वरिष्ठ साहित्यकार विष्णु प्रभाकर जी ने भी अपने संस्मरण में किया है।
वह जीवन भर समाज के लिए भाषा के प्रश्न को लेकर लड़ते रहे। इसकी पुष्टि डॉक्टर गोपीनाथ तिवारी ने की है। उनका कहना था कि आचार्य चंद्रबली पांडेय ने पूरा जीवन हिंदी की साधना में लीन कर दिया। जो महान कार्य राजनीति के क्षेत्र में स्वर्गीय पटेल जी ने किया, वही भगीरथ प्रयास आचार्य जी ने हिंदी के क्षेत्र में कर दिखाया। वह शत्रु की ओर घूसा और लेखनी ताने रहते थे। हिंदी उनसे सिंचन पाकर विकसित हुई है और फूली-फली है।
आचार्य चंद्रबली पांडेय जी देश के विकास को अनिवार्य मानते थे और इसके लिए सतत प्रयत्नशील रहते थे। उनका विश्वास था, कि भाषा के विकास के बिना राष्ट्र का विकास नहीं हो सकता। उन्होंने हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए जीवन पर्यंत संघर्ष किया। उनका विश्वास था कि आत्मा अमर है, वह कभी पराजित नहीं होती और यही दर्शन उन्हें जीवन पर्यंत लड़ने के लिए तैयार रखता था। विभिन्न परिस्थितियों में भी उनका यह विचार अपरिवर्तित रहा और उन्हें जीवन का कोई भी प्रलोभन नहीं खींच सका।
व्यक्तित्व
उनकी वेशभूषा इतनी सामान्य थी कि वे एक ठेठ देहाती व्यक्ति की तरह लगते थे। आधुनिक सभ्यता के बीच जन्में, पले-बढ़े, किंतु उनका रूप स्वरूप और आचरण प्राचीन ऋषियों जैसा था। वह गाढ़े का मोटा कुर्ता और घुटने तक की देहाती धोती पहनते। कुर्ते में बटन भी कपड़े के ही लगवाते और अपने कपड़े अपने हाथों से धोकर बिना इस्त्री कराए पहनते। एक मोटा अंगोछा रहता और बाहर जाते तो भेड़ के बालों का कंबल, चादर तथा पहनने-ओढ़ने के कुछ वस्त्रों को संन्यासी की तरह पोटली में बांधकर बगल में दबा लेते और सदैव नंगे पैर रहते। बाल और दाढ़ी के प्रति भी उन्हें कोई आसक्त्ति नहीं थी, जब चाहा तब साफ कर दिया और जब बढ़ने लगी तब बढ़ने दिया। इन सभी बातों से स्पष्ट है कि आचार्य पांडेय जी निष्कपट, निर्द्वंद्व स्वभाव के व्यक्ति थे। डॉ भोलानाथ तिवारी ने कहा है कि पांडेय जी सच्चे अर्थों में एक महान व्यक्ति और पुरानी पीढ़ी के उन खास लोगों की तरह थे, जो एक ओर स्नेह की वर्षा करके, तो दूसरी ओर सैद्धांतिक प्रश्नों पर विरोधियों का मुख भी उसी गति से मोड़ देते थे। सैद्धांतिक प्रश्नों पर उनकी भिड़ंत बड़े-बड़े विद्वानों से हुई। राष्ट्रभाषा के प्रश्न पर महात्मा गाँधी से भी उनका मतभेद रहा। निर्भीकता और सत्यप्रेम इनके नैसर्गिक गुण थे। इन्होंने जीवन में कभी पराजय स्वीकार नहीं की।
साहित्य साधना
पांडेय जी की साहित्य साधना को चार भागों में विभाजित करके देखा जा सकता है। आपकी रचनाएँ भाषा संघर्ष, आलोचना व शोध विषयक रही। भाषा विषयक रचनाओं में आपका उद्देश्य हिंदी के पक्ष का समर्थन करना था। उनके छोटे से छोटे निबंध में भी उनकी शोधदृष्टि स्पष्टतः देखी जा सकती है। डॉ० सुनीतिकुमार चटर्जी के अनुसार पांडेय जी के एक-एक पैंफ़्लेट पर डॉक्टरेट की उपाधि दी जा सकती है।
आचार्य जी की छोटी-बड़ी सभी कृतियों की संख्या ४३ के लगभग है, जिनमें से २० हिंदी भाषा के विषय में हिंदी में और ८ अँग्रेज़ी में व १ उर्दू में है। ११ रचनाएँ शोध विषयक तथा ४ अन्य ग्रंथ हैं, जिनमें एक अप्रकाशित है। कालिदास, केशवदास, तुलसीदास, राष्ट्रभाषा पर विचार, हिंदी कवि चर्चा, शूद्रक और हिंदी गद्य का निर्माण इनके प्रमुख ग्रंथ हैं। 'केशवदास' और 'कालिदास' नामक इनकी कृतियों पर इन्हें क्रमशः राजकीय पुरस्कार प्राप्त हुए थे। 'तसव्वुफ अथवा सूफीमत' उनकी प्रसिद्ध रचना है। राष्ट्रभाषा के संग्राम में १९३२ से लेकर १९४९ तक हिंदी-अंग्रेज़ी और उर्दू में लगभग दो दर्जन पैंफ़्लेटों की रचना की।
संदर्भ
- आचार्य चंद्रबलि पांडेय - जीवन और साहित्य, शोध - मिश्रा धर्मेंद्र http://hdl.handle.net/10603/244554
- राष्ट्रभाषा आंदोलन और आचार्य चंद्रबलि पांडेय - भाषाई एवं साहित्यिक उपलब्धियाँ http://hdl.handle.net/10603/182368
- https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9A%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%AC%E0%A4%B2%E0%A5%80_%E0%A4%AA%E0%A4%BE%E0%A4%A3%E0%A5%8D%E0%A4%A1%E0%A5%87%E0%A4%AF
लेखक परिचय
भावना सक्सैना
ईमेल – bhawnasaxena@hotmail.com
बहुत-बहुत साधुवाद, भावना जी!
ReplyDeleteहिन्दी व्रती आचार्य चन्द्रवली पाण्डेय पर आपका भावनात्मक आलेख पढ़ कर अवर्णनीय आनंद की अनुभूति हुई।
व्रत समझौता नहीं, दृढ़ता है महसूस कर अति प्रसन्नता हुई।
बहुत धन्यवाद आपका।
Deleteदेव स्वरूप साहित्यकार पांडेय जी की साहित्य साधना को नमन।लेखिका का प्रयास सचमुच सराहनीय।
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद आपका।
Deleteबहुत सराहनीय कार्य है, बधाईयाँ एवं साधुवाद
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद आपका।
Deleteराष्ट्रभाषा आंदोलन के महानायक, आचार्य चंद्रबली पांडेय जी ने हिंदी के लिए जो त्याग और संघर्ष किये हैं वो अविस्मरणीय हैं। ऐसे महानायक की साहित्य यात्रा को भावना जी ने इस शोधपरख लेख में बहुत सुंदर वर्णित किया है। भावना जी को इस महत्वपूर्ण लेख के लिए बहुत बहुत बधाई।
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद आपका।
Deleteआचार्य चन्द्रबलि पाण्डेय जी जैसी स्पष्ट दृष्टि प्राप्त करना और अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए किन्हीं भी परिस्थितियों में सतत प्रयासरत रहना, प्रायः ये दोनों की असाध्य कार्य हैं। राष्ट्रभाषा के कर्मयोगी पर लिखा यह आलेख निश्चित ही आशाप्रद करता है कि हिंदी की ज्योति ऐसी विभूतियों की साधना के चलते जलती रहेगी। भावना जी, आपको इस लेखन के लिए बधाई और हार्दिक आभार।
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद प्रगति जी।
Deleteभावना जी, सीमित शब्दों और स्पष्ट भाषा में रोचक, पाठक को बाँधकर रखने वाले आलेख के लिए आपको बधाई और शुभकामनाएँ। आचार्य चन्द्रबली पाण्डेय के हिन्दी के प्रति प्रेम और दृढ़ संकल्प को नमन।
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद आपका।
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