सूँड हिलाते कहाँ चले?
पूँछ हिलाते कहाँ चले?
मेरे घर आ जाओ ना!
हलुआ-पूरी खाओ ना!
आओ, बैठो कुर्सी पर,
कुर्सी बोली चर-चर-चर!..."
या इस सुंदर-सी रंग-बिरंगी तितली वाले गीत को कभी अकेले और कभी कोरस में गाया है?
"दूर देश से आई तितली
चंचल पंख हिलाती
फूल-फूल पर, कली-कली पर
इतराती, इठलाती
यह सुंदर फूलों की रानी
धुन की मस्त दीवानी
हरे-भरे उपवन में आई
करने को मनमानी
कितने सुंदर हैं पर इसके
जगमग रंग-रँगीले
लाल, हरे, बैंजनी, वसंती,
काले, नीले, पीले
बच्चों ने जब देखी इसकी
ख़ुशियाँ, खेल निराले
छोड़छाड़ कर खेल-खिलौने
दौड़ पड़े मतवाले......"
उपर्युक्त प्रश्नों के उत्तर ८० प्रतिशत 'हाँ' ही होंगे। यह विडंबना ही है, कि जिन बालगीतों और बालकविताओं के साथ-साथ हमारा बचपन बड़ा होता है, हम उन्हें तो हमेशा याद रखते हैं तथा गाते-गुनगुनाते रहते हैं; लेकिन कभी ये नहीं सोचते हैं, कि इन्हें किसने लिखा है? बच्चों की कई पीढ़ियों के साथ-साथ खेलती और उनका मनोरंजन करने वाली इन बाल कविताओं के रचनाकार हैं, 'निरंकार देव सेवक'। निरंकार देव सेवक जी का लेखकीय कद कितना बड़ा है, इसका अनुमान सुप्रसिद्ध बाल साहित्यकार प्रकाश मनु द्वारा लिखे गए 'हिंदी बाल साहित्य का इतिहास' में समर्पण-स्वरूप लिखे इस वाक्य से कर सकते हैं, वे लिखते हैं - "हिंदी बाल कविता के श्लाका पुरुष और सहृदय व्याख्याकार निरंकार देव सेवक को, जिनसे यह इतिहास लिखने की प्रेरणा मिली।"
हिंदी बाल-साहित्य के महत्वपूर्ण रचनाकारों में स्व. निरंकार देव सेवक जी का बड़ा और सम्मानजनक स्थान है। इसका कारण है, कि बाल-साहित्य के प्रति उनमें एक अलग तरह की गंभीरता दिखाई देती है। वे बाल मनोविज्ञान के विशेषज्ञ हैं। उनकी दृष्टि में बाल कविता लिखने के लिए रचनाकार को बालक के स्तर तक पहुँचने का कठिन अभ्यास करना होता है। इसके साथ ही बाल कविता के कथ्य और उसकी भाषा पर बहुत मेहनत करनी होती है, लय और प्रवाह का विशेष ध्यान रखकर उसे साधना होता है, तब कहीं जाकर कोई अच्छी बाल कविता लिख पाता है। बाल कविता के संबंध में उनकी यही गंभीरता, उन्हें अन्य बाल साहित्य के रचनाकारों की तुलना में थोड़ा अलग खड़ा कर देती है। उनकी दृष्टि में बाल साहित्य, बाल मनोविज्ञान के अधिक निकट है। वर्ष १९५४ में 'वीणा' पत्रिका में प्रकाशित अपने एक लेख, "बाल साहित्य क्या है?" में वे लिखते हैं -
"बच्चों का संसार बड़ों के संसार से सर्वथा भिन्न होता है। उनके विचार, उनका रहन-सहन, उनकी भावनाएँ, आकांक्षाएँ, इच्छाएँ तथा किसी चीज़ को देखने की उनकी दृष्टि बड़ों से भिन्न होती है। जिस प्रकार का कौतूहल बालमन में किसी चीज को देखकर पैदा होता है, वैसा बड़ों में नहीं होता। बच्चों की भावनाओं पर राष्ट्रीयता और नैतिकता के नाम पर भी कोई आरोपण नहीं होना चाहिए। बच्चों को अबोध या कमजोर समझकर, उन पर बड़ों द्वारा अपनी भावनाएँ आरोपित करना अनुचित है।"
निरंकार देव सेवक जी का जन्म १८ जनवरी १९१९ को बरेली (उ.प्र.) में हुआ। १९४३-४४ में जब सेवक जी बनारस टीचर्स ट्रेनिंग कॉलेज में बी.टी. (बैचलर ऑफ टीचिंग) का कोर्स कर रहे थे, उसी समय उन्हें हिंदी में बाल साहित्य के अभाव का भान हुआ। उनके कॉलेज के दो प्राध्यापकों पं० सीताराम चतुर्वेदी और पं० लालजी राम शुक्ल ने उनकी लेखनी को बाल साहित्य की ओर मेाड़ दिया। इसके बाद तो सेवक जी बाल सहित्य के ही होकर रह गए। वे प्रारंभिक वर्षों की बाल कविताओं के संग्रह - "स्वस्तिका", "कलरव" एवं "चिंगारी" नाम से प्रकाशित हुए हैं। उनकी प्रकाशित कृतियों में - "हिंदी बालगीत साहित्य : इतिहास एवं समीक्षा", "अगर-मगर", "मुन्ना के गीत", "धूप-छाया", "चाचा नेहरू के गीत", "दूध जलेबी", "माखन मिसरी", "रिमझिम", "फूलों के गीत", "मटर के दाने", "महापुरुषों के गीत", "शेखर के बालगीत", "पप्पू के बालगीत", "आज़ादी के गीत", "टेसू के गीत", "बीन बजाती बिल्लो रानी", "चिड़िया रानी" आदि प्रमुख हैं।
पेशे से वकील सेवक जी बाद में 'अमर उजाला' अख़बार से जुड़ गए और लंबे समय तक अमर उजाला के लिए संपादकीय-लेखन कार्य किया। वे मूल रूप से बाल साहित्यकार ही बने रहे। १९४३-४४ में लिखा गया उनका एक बालगीत बहुत चर्चित रहा। 'किताबों के कीड़े' उनका यह बालगीत कुछ अलग तरह का संदेश शिक्षा-जगत को देता है। इस बालगीत में एक ऐसे बालक के मन की अभिव्यक्ति है, जो दिन-रात किताबों को ही पढ़ना नहीं चाहता है, बल्कि खुले मैदानों में, बागों में, खेतों में, खलिहानों में, धमाचौकड़ी मचाना चाहता है और खुली प्रकृति के साथ उछलना-कूदना चाहता है। बच्चों के मन का यह भाव सौ प्रतिशत सच भी है। बाल मन के इस छोर को पकड़ कर लिखी गई, ऐसी अद्भुत बाल कविता शायद ही और कहीं मिले। इसीलिए निरंकार देव सेवक अपनी तरह के एक अलग और अनोखे बाल साहित्यकार हैं। कितने आत्मविश्वास से भरकर एक खिलंदड़ और बाल मस्ती में जीने वाले बच्चे की मनोभावनाओं को सेवक जी ने इस बाल कविता में प्रस्तुत किया है -
" तुम बनो किताबों के कीड़े,
हम खेल रहे मैदानों में
तुम घुसे रहो घर के अंदर,
तुमको है पंडित जी का डर
हम सखा तितलियों के बनकर
उड़ते-फिरते उद्यानों में!
तुम बनो किताबों के कीड़े
तुम रटो रात-दिन अंगरेजी
कह ए बी सी डी ई एफ जी,
हम तान मिलाते हैं कू-कू,
करती कोयल की तानों में!
तुम बनो किताबों के कीड़े
तुम लिए किताबों का बोझा,
हम उछल-कूद खाते गोझा,
तुममें-हममें है भेद वही,
जो मूर्खों में, विद्वानों में
तुम बनो किताबों के कीड़े "
सेवक जी का एक और बाल गीत बिलकुल अलग अंदाज़ का है, जिसमें एक बच्चा पूरी मस्ती के साथ अपनी कल्पना को गाता गुनगुनाता है। एक मस्तमौला बच्चे की सहज कल्पना के जिस ताने बाने को इस बालगीत में बुनकर, उसे विशेष लय और अंदाज़ की जिस मस्ती में प्रस्तुत किया गया है, उसे केवल और केवल महसूस किया जा सकता है। ऐसे बालगीत का सृजन करने के लिए रचनाकार को कितनी कठिन साधना करनी पड़ी होगी, इसका अनुमान लगाया जा सकता है। बच्चे के पास पैसे नहीं हैं, लेकिन वह पैसा होने की कल्पना कर लेता है और पैसे से वह क्या-क्या खरीद कर लाना चाहता है? उसकी बाल कल्पना का पूरा परिदृश्य सेवक जी उपस्थित कर देते हैं -
पैसा पास होता तो चार चने लाते,
चार में से एक चना तोते को खिलाते।
तोते को खिलाते तो टाँव-टाँव गाता,
टाँव-टाँव गाता तो बड़ा मजा आता।
पैसा पास होता तो चार चने लाते।
चार में से एक चना घोड़े को खिलाते।
घोड़े को खिलाते तो पीठ पर बिठाता,
पीठ पर बिठाता तो बड़ा मजा आता।
पैसा पास होता तो चार चने लाते,
चार में से एक चना चूहे को खिलाते
चूहे को खिलाते तो दाँत टूट जाता,
दाँत टूट जाता तो बड़ा मजा आता।
सेवक जी ने बालमन के किन-किन छोरों का छुआ है, इसे उनकी बाल रचनाओं में देखा जा सकता है। एक चींटी रास्ता भूल जाती है, तो एक बच्चा उसकी हर तरह से सहायता करने की बात कहते-कहते अंत में बड़े प्यारे अंदाज़ में उसके साथ खेलने का प्रस्ताव रख देता है -
चींटी भूल गई रस्ता,
आ जा तू मेरे घर आ
खाने को दूँगा रोटी,
बेसन की मोटी-मोटी
पानी दूँगा पीने को,
फिर खेलेंगे हम दोनों
उनका एक और शिशुगीत है, जो बच्चे-बच्चे की ज़ुबान पर चढ़ा हुआ है, बच्चा बनकर इसका आनंद लिया जा सकता है -
एक शहर है टिंबक-टू,
लोग वहाँ के हैं बुद्धू!
बिना बात के ही-ही-ही,
बिना बात के हू-हू-हू!
सेवक जी का एक बहुत प्यारा और मोहक बालगीत है, 'चिड़िया का गीत'। इसमें चिड़िया के माध्यम से संसार के विस्तार को उन्होंने तर्कपूर्ण ढंग से एक बच्चे को समझाने का प्रयास किया है, वह अनूठा है -
सबसे पहले मेरे घर का
अंडे जैसा था आकार,
तब मैं यही समझती थी बस
इतना सा ही है संसार!
फिर मेरा घर बना घोंसला
सूखे तिनकों से तैयार,
तब मैं यही समझती थी बस
इतना सा ही है संसार !
फिर मैं निकल गई शाखों पर
हरी भरी थीं जो सुकुमार,
तब मैं यही समझती थी बस
इतना सा ही है संसार!
आखिर में जब आसमान में
उड़ी दूर तक पंख पसार,
तभी समझ में मेरी आया
बहुत बड़ा है यह संसार!
निरंकार देव सेवक के बाल रचना संसार में बहुत विविधता है या यूँ कहिए, कि सेवक जी ने बाल मन के कोने-कोने में अपनी सहज बाल कल्पनाओं के माध्यम से पहुँचने की कोशिश की है। उन्होंने न केवल बाल रचनाओं का सृजन किया है, अपितु हिंदी बाल कविता को एक आदर्श दिशा भी दी है। आज हिंदी का बाल-साहित्य एक सम्मानजनक स्थिति में पहुँच सका है, तो इसकी नींव में सेवक जी की कठोर साधना का ईंट-गारा लगा हुआ है। सेवक जी आज हमारे बीच शरीर से भले ही नहीं हैं, परंतु अपनी बाल रचनाओं के रूप में वे करोड़ों बच्चों के मन में और करोड़ों लोगों के मन में एक मस्तमौला बच्चे के रूप में जीवित हैं और इस धरती पर जब तक बचपन है, तब तक वे बच्चों की मुस्कराहट बनकर ज़िंदा रहेंगे।
संदर्भ
- बचपन एक समंदर, ६६६ (प्रतिनिधि बाल कविताएँ), संपादक - कृष्ण शलभ।
- २४५, नया आवास विकास, सहारनपुर (उ०प्र०) २४७००१ - नीरजा स्मृति बाल साहित्य न्यास।
- हिंदी बाल साहित्य का इतिहास, प्रकाश मनु, संस्करण २००३, मेधा बुक्स, दिल्ली, पृ० २२३।
- साक्षात्कार (पत्रिका), मध्य प्रदेश साहित्य अकादमी, अंक ४८७, जनवरी २०२१।
लेखक परिचय
ईप्सा यादव 'मालती बसंत नव लेखिका सम्मान, २००२' और 'पं० हरप्रसाद पाठक स्मृति पुरस्कार' से सम्मानित ईप्सा यादव की कई बाल कहानियाँ सी.बी.एस.ई. तथा आई.सी.एस.ई. के पाठ्यक्रमों में शामिल हैं। वे चंपक, चकमक, बच्चों का देश, सुधार संग्राम, प्रतिबिंब आदि पत्रिकाओं में लिखती रहीं और उनका बाल कहानी संग्रह "किट्टी की साड़ी" २००१ में प्रकाशित हुआ। वे बाल प्रतिबिंब वेब जाल पत्रिका की संपादिका हैं और आजकल सेन्फ्रांसिस्को से स्वतंत्र लेखन करती हैं। फतेहगढ़ में जन्मी ईप्सा ने के.जे. सोमैया मुंबई से एम.बी.ए किया है।
www.balpratibimb.blogspot.com
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निरंकार देव सेवक को बचपन से पढ़ता आ रहा हूं, पर उनके बारे में विस्तार से जानने का यह पहला मौक़ा है.इस लेखनी के लिए आपको बधाई.
ReplyDelete. डॉ.जियाउर रहमान जाफरी
अप्रत्याशित सार्थक जानकारी।सृजन को नमन।लेखिका का अभिनंदन।
ReplyDeleteवाह! बहुत ही बढ़िया! मजा आ गया
ReplyDeleteईप्सा जी ने इस लेख के माध्यम से सभी को अपने बचपन मे पहुँचा दिया। लगभग सभी ने ये बाल कविताएँ जरुर पढ़ी होंगी परंतु कई लोग इन सुंदर रचनाओं के लेखक के बारे नहीं जानते होंगे, मैं भी उन्हीं लोगों में शामिल हूँ। निरंकार देव सेवक जी के जीवन एवं साहित्य से परिचित कराता यह बहुत ही भावनात्मक लेख है। इन कविताओं से सुंदर स्मृतियाँ जुड़ीं हैं। ईप्सा जी को इस लेख के लिए हार्दिक बधाई एवं साधुवाद।
ReplyDeleteहमारे देश में बाल साहित्य को उतना महत्व नहीं दिया जाता। बाल साहित्य की चर्चा भी नहीं होती। ईप्सा जी ने निरंकार देव सेवक जी और उनके बाल साहित्य की जानकारी के साथ साथ बाल साहित्यिक विशेषताओं पर भी प्रकाश डाला है। बाल साहित्य लिखना बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी का काम है। इस छोटे से लेख में आपने बाल साहित्य की कई परतें खोली हैं।बधाई और साधुवाद ईप्सा जी।
ReplyDeleteनमस्ते जी
ReplyDeleteएक पुराने पर हमारे लिए नए रचनाकर से भेंट करवाने के लिए साधुवाद स्वीकारें l धन्यवाद l
Alka Dunputh
Mauritius
बाल गीत और रचनाएँ पढ़ी हैं पर उसके सृजन कर्ता से आपने ही परिचित करवाया। बाल कवि के विषय में जान कर आनंद आया।
ReplyDeleteबहुत बहुत बधाई
स्व. निरंकार देव ‘सेवक’ पर बहुत दिलचस्प, मज़ेदार और प्रेरक लेख लिखा है ईप्सा जी ने। पहली कविता से पढ़ने का सिलसिला शुरू हुआ तो पढ़ता ही चला गया। इनमें से कितनी ही कविताएँ हमने बचपन में गाईं हैं, गुनगुनाईं हैं- बिना उनके लेखक के बारे में जाने। रचयिता की पहेली भी हल कर दी आपने। सेवक जी की भाषा शैली के क्या कहने! छोटे से छोटे बच्चे तक बात पहुँचाने का हुनर इसे कहते हैं। बाल साहित्य के लेखकों को याद करना बहुत ज़रूरी है; बाल साहित्य सिकुड़ रहा है। एक ज़रूरी लेख के लिए बधाई।
ReplyDeleteवाह इप्सा जी...क्या खूबसूरती से उकेरा है आपने निरंकार देव जी की रचनाओं को...बचपन की सुनहरी यादों को...मज़ा आ गया पढ़कर...हार्दिक आभार व शुभकामनाएं।
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteईप्सा जी, बचपन में लौटाने, ह्रदय में मुस्कान लाने और बाल-कविता को पूर्णतः समर्पित महान व्यक्तित्व निरंकार देव जी से मधुर परिचय कराने के लिए आपका बहुत बहुत आभार। ऐसी कविताएँ लिखना जिसे हर बच्चा अपनी मस्ती में डूब कर गाए-गुनगुनाए निश्चित ही दुर्गम राह चलना है, निरंकार देव जी की रचनाओं से लगता है कि उनके लिए यह सुगम काम था। क्या विलक्षण मानस के धनी होंगे वे! निरंकार जी को सादर नमन और आपको इस लेख के लिए बधाई।
ReplyDeleteवाकई में कभी नहीं सोचा की इन कविताओं के रचनाकार कौन है ? लेख के माध्यम से ईप्सा ने सभी के मन में यह एहसास करा दिया कि बचपन में बाल सुलभ कविताएं प्रस्तुत करने वाले, बाल गीत लिखने वाले कवि भी साहित्य सृजन क्षेत्र में अपना अनूठा स्थान रखते हैं । कवि निरंकार देव सेवक जी के जीवन और कृतित्व को परिभाषित करता हुआ एवं उनके मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण को बाल कविताओं में स्पष्ट करता हुआ सुंदर आलेख । बहुत-बहुत बधाई और शुभकामनाएं ईप्सा को ।
ReplyDeleteआनंद आ गया, आपकी मोहक तस्वीर की तरह ही आपकी मोहक लेखनी ने बचपन में पहुँचा दिया...
ReplyDeleteईप्सा जी, आलेख के माध्यम से निरंकार देव सेवक जी से परिचय के लिए आपको धन्यवाद। इन बाल कविताओं में कितना रस है, थोड़ी देर के लिए मन बच्चा हो गया। दरअसल, साहित्य की इस विधा में कुछ लिखना बेहद मुश्किल और चुनौती भरा काम है। यह बच्चों की उत्सुकता, कल्पनाशक्ति को बढ़ावा देने वाला काम है। इस महत्त्वपूर्ण आलेख के लिए आपको बधाई।
ReplyDeleteईप्सा जी, आपका निरंकार देव सेवक जी पर लिखा आलेख पढ़ा। आपने उनकी बाल कविताओं की बहुत रोचक प्रस्तुति की है। बहुत मज़ा आया पढ़ने में । हम उनकी कविताओं का उपयोग अपनी मासिक पत्रिका में करेंगे। आपको सुंदर लेखन के लिए बधाई एवं शुभकामनाएँ । 💐💐
ReplyDeleteबहुत बहुत शुभकामनाएं इप्सा जी इतने सुन्दर आलेख में आपने निरंकार देव सेवक जी के बाल गीतों को पढ़वाने के लिए और बच्चों के सुंदर मनोभावों तक पहुंचाने के लिए
ReplyDeleteपुनः शुभकामनाएं खूब खूब आशीर्वाद।