Thursday, July 7, 2022

हिंदी कहानी के वामन अवतार चंद्रधर शर्मा ‘गुलेरी’

 


‘‘बड़े-बड़े शहरों के इक्के गाड़ी वालों की जबान के कोड़ों से जिनकी पीठ छिल गई है और कान पक गए हैं, उनसे हमारी प्रार्थना है के अमृतसर के बंबूकार्ट वालों की बोली का मरहम लगावें।....ऐसे बंबूकार्ट वालों के बीच में होकर एक लड़का और लड़की चौक की एक दूकान पर जा मिले। उसके बालों और ढीले सुथने से जान पड़ता था कि दोनों सिख हैं। वह अपने मामा के केश धोने के लिए दही लेने आया था और यह रसोई के लिए बड़ियाँ। दूकानदार एक परदेशी से गुँथ रहा था जो सेर भर गीले पापड़ों की गड्डी को गिने बिना हटता न था। 

‘‘तेरे घर कहाँ हैं?’’

‘‘मगरे में, और तेरे?’’

‘‘माँशे में, वहाँ कहाँ रहती है?’’

‘‘अतरसिंह की बैठक में, मेरे मामा होते हैं।’’

‘‘मैं मामा के घर आया हूँ, उनका घर गुरूबाजार में है।’’ 

सौदा लेकर दोनों साथ-साथ चले। कुछ दूर जाकर लड़के ने मुस्कराकर पूछा, ‘‘तेरी कुड़माई होगई?’’ इस पर लड़की कुछ आँखे चढ़ाकर ‘‘धत’’ कहकर दौड़ गई और लड़का मुँह देखता रह गया।

दूसरे-तीसरे दिन सब्जी वाले के यहाँ या दूध वाले के यहाँ अकस्मात दोनों मिल जाते हैं। महीना भर यही हाल रहा। दो तीन बार लड़के ने फिर पूछा, ‘‘तेरी कुड़माई हो गई?’’ और उत्तर में वही ‘‘धत’’ मिला। एक दिन जब फिर लड़के ने वैसे ही हँसी में चिढ़ाने के लिए पूछा तो लड़के की संभावना के विरुद्ध बोली-‘‘हाँ’’

‘‘कब?’’

‘‘कल, देखते नहीं यह रेशम का कढ़ा हुआ सालू।’’ लड़की भाग गई। लड़के ने घर की राह ली। रास्ते में एक लड़की को मोरी में धकेल दिया, एक छबड़ी वाले की दिनभर की कमाई खोई, एक कुत्ते पर पत्थर मारा और एक गोभी वाले के ठेले में दूध उड़ेल दिया। सामने नहाकर आती हुई किसी वैष्णवी से टकराकर अंधे की उपाधि पाई। तब कहीं घर पहुँचा।     


यह है हिंदी की प्रथम प्रेम कहानी! (ऐसा कुछ समालोचकों का मानना है)। एक संक्षिप्त घटना पर बुना गया एक आठ साल की लड़की से बारह साल के लड़के का निश्छल प्रेम प्रसंग जिसका अंत प्रथम विश्वयुद्ध में सूबेदारनी के पति और पुत्र की रक्षा करते हुए लहनासिंह के निस्वार्थ प्राणोत्सर्ग से हुआ । 


पुराणों के अनुसार भगवान विष्णु ने वामन अवतार में तीन पग में तीनों लोकों को नाप लिया था। हिंदी कथा साहित्य के वामन अवतार, चंद्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ ने तीन कहानियाँ, ‘उसने कहा था’, ‘सुखमय जीवन’ और बुद्धू का काँटा’, लिख कर कथा सहित्य में नये कीर्तिमान स्थापित करके एक अविस्मरणीय स्थान बना लिया जो सौ वर्ष बाद भी अक्षुण्ण है। 'उसने कहा था' हिंदी कथा साहित्य की एक विशेष उपलब्धि मानी जाती है। सौ वर्ष से भी पहले लिखी गई इस कहानी की गणना आज भी हिंदी की दस बेमिसाल कहानियों में की जाती है। सन १९१५ में प्रकाशित यह कहानी अपनी समसामयिक रचनाओं के कथ्य और शिल्प दोनों दृष्टियों में भिन्न थी। जिस समय प्रेमचंद अपनी कहानियों में ग्रामीण जीवन की सामाजिक और आर्थिक समस्याओं के यथार्थ का चित्रण कर रहे थे, प्रसाद भावजगत के अंतर्द्वंद्व को दर्शा रहे थे, उस बीच निस्वार्थ प्रेम के लिए जीवन का बलिदान करने की संवेदना पर लिखी इस कहानी ने गुलेरी जी को साहित्य जगत में एक विशिष्ट स्थान पर आसीन कर दिया। कहानी की संवेदना वर्षों बाद आज भी मर्मस्पर्शी और प्रभावशाली है।


कहानी का कथा-विन्यास अत्यंत विराट फलक पर किया गया है। बारह वर्ष की उम्र से लेकर सैंतीस वर्ष और लहनासिंह की मृत्यु तक के आख्यान को परम्परागत कथा-शिल्प को चुनौती देकर अत्यंत कुशलता और कसावट से बुना गया है। 'उसने कहा था' निस्वार्थ प्रेम एवं बलिदान की मार्मिक कहानी है। कहानी प्रथम विश्वयुद्ध की पृष्ठभूमि पर लिखी गई है। बारह वर्षीय लहनासिह के प्रेम के सूत्रपात के सांकेतिक वर्णन के बाद लेखक बीच की घटनाओं को लाँघकर सीधे २५ वर्ष आगे प्रथम विश्वयुद्ध के मैदान में ले चलता है।

युद्ध-कला, सैन्य-विज्ञान और खंदकों में सिपाहियों के रहन-सहन के जीवंत चित्रण इस खंड को अविस्मरणीय बनाते हैं। शिल्प की दृष्टि से उस काल की कहानियों में ऐसे प्रयोग दुर्लभ हैं। यह प्रसंग कहानी के फलक को विस्तार देने के साथ उसके दूसरे कोण – युद्ध की भयावहता, कड़ाके की सर्दी में ठिठुरने के विवरण और घर-परिवार से दूर जान को ज़ोख़िम में डालने को सन्नद्ध सिपाहियों के मन बहलाने के प्रयास युद्ध के वातावरण को सजीव करते हैं। वातावरण का अत्यंत गहरे रंगों में सृजन गुलेरी जी की विशेषता है।

बीच की घटनाओं को लेखक ने कथा-शिल्प की कुशलता से 'फ्लैश बैक' द्वारा वर्णित किया है। 'मृत्यु के कुछ समय पहले स्मृति बहुत साफ़ हो जाती है।’ हजारासिंह और अन्य लोगों के चले जाने के बाद घायल लहनासिंह वजीरासिंह की गोद में सिर रखकर लेट गया। उसे बचपन की बातें याद आने लगीं। 

बचपन की घटना के कई वर्षों बाद आठ साल की लड़की, जो अब सूबेदार की पत्नी है, से मिलने और लड़ाई पर जाते समय सूबेदारनी का बचपन की संक्षिप्त भेंट याद दिला कर कहना, ‘‘तुम्हें याद है एक दिन  ताँगेवाले का घोड़ा दही वाले की दूकान के पास बिगड़ गया था। तुमने उस दिन मेरे प्राण बचाए थे। आप घोड़ों की लातों में चले गए थे और मुझे उठाकर दूकान के तख्ते पर खड़ा कर दिया था। ऐसे ही इन दोनों को बचाना; यह मेरी भिक्षा है’’, लहनासिंह का युद्ध के मोर्चे पर अपने प्राणों की बाजी लगाकर सूबेदारनी के अनुरोध के पालन के लिए उसके पति और पुत्र के प्राणों की रक्षा के लिए जान देने की घटना का प्रसंग और सूबेदार और बोधासिंह को गाड़ी में बिठाते समय लहनासिंह का कथन, ‘‘सूबेदारनी को मेरा मत्था टेकना लिख देना और जब घर जाओ तो कह देना कि मुझसे जो उन्होंने कहा था वह मैंने कर दिया’' तथा मरणासन्न लहनासिंह के बार-बार   'उसने कहा था' दोहराने में  प्रेम के उदात्त रूप के दर्शन होते हैं| युद्ध के यथार्थपूर्ण वातावरण की पृष्ठभूमि में प्रेम के इस उदात्त रूप की मार्मिक व्यंजना एवं शिल्प विधि के विकास की दृष्टि से यह कहानी मील का पत्थर मानी जाती है|

कॉलेज के दिनों में पहली बार कहानी पढ़कर सहपाठियों से अपनी नम आँखें छिपाई थीं, तबसे अबतक न जाने कितनी बार पढ़ने के बाद भी अभी भी लहनासिंह का त्याग भावुक कर जाता है। 

 चंद्रधर शर्मा गुलेरी का जन्म राजस्थान की वर्तमान राजधानी जयपुर में हुआ था। उनके पिता पंडित शिवराम शास्त्री मूलतः हिमाचल प्रदेश के गुलेर गाँव के निवासी थे। ज्योतिर्विद महामहोपाध्याय पंडित शिवराम शास्त्री राजसम्मान पाकर जयपुर में बस गए थे। उनकी तीसरी पत्नी लक्ष्मीदेवी ने ७ जुलाई सन १८८३ में चन्द्रधर को जन्म दिया।

चंद्रधर को घर में ही संस्कृत भाषा, वेद पुराण आदि के अध्ययन, पूजा-पाठ, संध्या-वंदन तथा धार्मिक कर्मकाण्ड का वातावरण मिला। आगे चलकर उन्होंने अंग्रेज़ी शिक्षा भी प्राप्त की। आगे की पढ़ाई के लिए वे इलाहाबाद आ गए जहाँ प्रयाग विश्वविद्यालय से बी ए और कलकत्ता विश्वविद्यालय से दर्शन शास्त्र में एम ए किया। चाहते हुए भी वे आगे की पढ़ाई परिस्थितिवश जारी न रख पाए, हालाँकि उनके स्वाध्याय और लेखन का क्रम अबाध रूप से चलता रहा। बीस वर्ष की उम्र के पहले ही उन्हें जयपुर की वेधशाला के जीर्णोद्धार तथा उससे सम्बन्धित शोधकार्य के लिए गठित मण्डल में चुन लिया गया था और कैप्टन गैरेट के साथ मिलकर उन्होंने "द जयपुर ऑब्ज़रवेटरी एण्ड इट्स बिल्डर्स" शीर्षक अंग्रेज़ी ग्रन्थ की रचना की।

अपने अध्ययन काल में ही उन्होंने सन १९०० में जयपुर में नागरी मंच की स्थापना में योग दिया और सन १९०२ से मासिक पत्र ‘समालोचक’ के सम्पादन का भार भी सँभाला। कुछ वर्षों के लिए काशी की नागरी प्रचारिणी सभा के सम्पादक मंडल में भी उन्हें सम्मिलित किया गया। उन्होंने देवी प्रसाद ऐतिहासिक पुस्तकमाला और सूर्य कुमारी पुस्तकमाला का सम्पादन किया और नागरी प्रचारिणी सभा के सभापति भी रहे।

जयपुर के राजपण्डित के कुल में जन्म लेनेवाले गुलेरी जी का राजवंशों से घनिष्ठ सम्बन्ध रहा। वे पहले खेतड़ी नरेश जयसिंह के और फिर जयपुर राज्य के सामन्त-पुत्रों के अजमेर के मेयो कॉलेज में अध्ययन के दौरान उनके अभिभावक रहे। सन् १९१६ में उन्होंने मेयो कॉलेज में ही संस्कृत विभाग के अध्यक्ष का पद सँभाला। सन १९२० में पण्डित मदन मोहन मालवीय के आग्रह पर उन्होंने बनारस आकर काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के प्राच्यविद्या विभाग के प्राचार्य और फिर १९२२ में प्राचीन इतिहास और धर्म से सम्बद्ध मणीन्द्र चन्द्र नन्दी पीठ के प्रोफेसर का कार्यभार ग्रहण किया।

इस बीच परिवार में अनेक दुखद घटनाओं के आघात भी उन्हें झेलने पड़े। सन् १९२२ में १२ सितम्बर को पीलिया के बाद तेज ज्वर से मात्र ३९ वर्ष की अल्पायु में उनका देहावसान हो गया।

इस छोटी सी आयु में ही गुलेरी जी ने अध्ययन और स्वाध्याय के द्वारा हिन्दी और अंग्रेज़ी के अतिरिक्त संस्कृत, प्राकृत, बांग्ला, मराठी आदि का ही नहीं लैटिन, जर्मन तथा फ्रेंच भाषाओं का ज्ञान भी हासिल किया था। उनकी रुचि का क्षेत्र भी बहुत विस्तृत था और धर्म, ज्योतिष इतिहास, पुरातत्त्व, दर्शन, भाषाविज्ञान, शिक्षाशास्त्र और साहित्य से लेकर संगीत, चित्रकला, लोककला, विज्ञान और राजनीति तथा समसामयिक सामाजिक स्थिति तथा रीति-नीति तक फैला हुआ था। उनकी अभिरुचि और सोच को गढ़ने में स्पष्ट ही इस विस्तृत पटभूमि का प्रमुख हाथ था और इसका परिचय उनके लेखन की विषयवस्तु और उनके दृष्टिकोण में बराबर मिलता रहता है।

आज यह आलेख लिखने के लिए शोध करते समय लगा कि कॉलेज के दिनों में जिन गुलेरी जी से परिचय हुआ था, कहानी लेखन तो उनकी सर्जनात्मक प्रतिभा के हिमशैल की नोक भर (टिप ऑफ दि आइसबर्ग) था, जिसके अंदर ज्ञान का ऐसा अथाह भंडार है जिसके तलपट का अंदाज़ा तक मुझे इससे पहले नहीं था। उनका सर्जक व्यक्तित्व तो जैसे हिमशैल के नीचे छिपा विशाल हिमखण्ड है जहाँ ज्ञान और विद्वत्ता के अथाह रत्न छिपे हुए थे। ३९ वर्ष के संक्षिप्त जीवन काल में उन्होंने कहानियाँ, लघु-कथाएँ, आख्यान, ललित निबन्ध, गम्भीर विषयों पर विवेचनात्मक निबन्ध, शोधपत्र, समीक्षाएँ, सम्पादकीय टिप्पणियाँ, पत्र विधा में लिखी टिप्पणियाँ, समकालीन साहित्य, समाज, राजनीति, धर्म, विज्ञान, कला आदि पर लेख तथा वक्तव्य, वैदिक/पौराणिक साहित्य, पुरातत्त्व, भाषा आदि पर प्रबन्ध तथा टिप्पणियाँ लिखीं। उन्होंने ‘कछुआ धरम’ और ‘मारेसि मोहि कुठाऊँ’ नामक निबंध और पुरानी हिन्दी नामक लेखमाला भी लिखी। ‘महर्षि च्यवन का रामायण’ उनकी शोधपरक पुस्तक है। उनके लेखन की विशिष्टता रोचकता और प्रासंगिकता के साथ प्रस्तुति की अनोखी भंगिमा में निहित है। उनके निबंधों में गंभीर विषय-वस्तु के निर्वाह के साथ-साथ मस्ती तथा विनोद भाव की एक अंतर्धारा प्रवाहित होती रहती है। धर्म-सिद्धांत, आध्यात्म आदि जैसे गंभीर विषयों को छोड़कर लगभग बाकी के विषयों में यह विनोद भाव प्रसंगों के चुनाव में, भाषा के मुहावरों में, उद्धरणों और उक्तियों में बराबर झंकृत होता है। शिक्षा, सामाजिक रूढ़ियों तथा राजनीतिक लेखों में उनकी रचनाएँ कभी गुदगुदाकर और कभी झकझोरकर पाठक को बाँधे रखती हैं। 

उनकी भाषा युग-संधि पर खड़े एक विवेकी मानस का और उस युग की मानसिकता का प्रामाणिक दस्तावेज़ है। डॉ नामवर सिंह के शब्दों में, ‘गुलेरी जी हिंदी में सिर्फ एक नया गद्य या नयी शैली नहीं गढ़ रहे थे, बल्कि वे वस्तुत: एक नयी चेतना का निर्माण कर रहे थे और यह नया गद्य नयी चेतना का सर्जनात्मक साधन है।’

अपने निबंध ‘कछुआ धर्म’ में वे लिखते हैं, ‘मनुस्मृति में कहा गया है कि जहाँ गुरु की निंदा या असत्कथा हो रही हो वहाँ पर भले आदमी को चाहिए कि कान बंद कर ले या कहीं उठकर चला जाए। यह हिंदुओं के या हिंदुस्तानी सभ्यता के कछुआ धरम का आदर्श है। ध्यान रहे कि मनु महाराज ने न सुनने जोग गुरु की कलंक कथा के सुनने के पाप से बचने के दो उपाय बताए हैं। या तो कान ढककर बैठ जाओ या दुम दबाकर चल दो। तीसरा उपाय, जो और देशों के सौ में नब्बे आदमियों को ऐसे अवसर पर पहले सूझेगा, वह मनु ने नहीं बताया कि जूता लेकर,या मुक्का तानकर सामने खड़े हो जाओ और निंदा करने वाले का जबड़ा तोड़ दो या मुँह पिचका दो कि फिर ऐसी हरकत न करे। यह हमारी सभ्यता के भाव के विरुद्ध है। कछुआ ढाल में घुस जाता है, आगे बढ़कर मार नहीं सकता। उसका कछुआपन कछुआ भगवान की तरह पीठ पर मंदराचल की मथनी चलाकर समुद्र से नये-नये रत्न निकालने के लिए नहीं है। उसका कछुआपन ढाल के भीतर और भी सिकुड़कर घुस जाने के लिए है।

किसी बात का टोटा होने पर उसे पूरा करने की इच्छा होती है, दुख होने पर उसे मिटाना चाहते हैं। अपनी-अपनी समझ है। संसार में त्रिविध दुख दिखाई पड़ने लगे। उन्हें मिटाने के लिए उपाय भी किए जाने लगे। सांख्यों ने काठ कड़ी गिन-गिनकर उपाय निकाला, बुद्ध ने योग में पककर उपाय खोजा, किसी ने कहा कि बहस, बकझक, वाक्छल, बोली की चूक पकड़ने और कच्ची दलीलों की सीवन उधेड़ने में ही परम पुरुषार्थ है। यही शगल सही। कछुओं ने सोचा, चोर को क्यों मारें चोर की माँ को ही न मारें। न रहे बाँस न बजे बाँसुरी। यह जीवन ही तो सारे दुख की जड़ है। लगीं प्रार्थनाएँ होने – ‘मा देहि राम! जननी जठरे निवासं ज्ञात्वेत्थं न पुन: स्पृशंति जननी-गर्भेर्भकत्वं जना:’ और यह उस देश में जहाँ कि सूर्य का उदय होना इतना मनोहर था कि ऋषियों का यह कहते तालू सूखता था कि सौ बरस इसे हम उगता देखें, सौ बरस सुनें, सौ बरस से भी अधिक। भला जिस देश में बरस में दो ही महीने घूम-फिर सकते हो और समुद्र की मछलियाँ मारकर नमक लगाकर रखना पड़े कि दस महीने के शीत और अँधियारे में क्या खाएँगे, वहाँ जीवन में इतनी ग्लानि हो तो समझ में आ सकती है पर जहाँ राम के राज में अकृष्टपच्या पृथिवी पुटके-पूटके मधु बिना खेती के फसलें पक जाएँ और पत्ते-पत्ते में शहद मिले, वहाँ इतना वैराग्य क्यों?   

गुलेरी जी खेल को शिक्षा का सशक्त माध्यम मानते थे। बाल-विवाह के विरोध और स्त्री-शिक्षा के समर्थन के साथ ही आज से सौ साल पहले उन्होंने बालक-बालिकाओं के स्वस्थ चारित्रिक विकास के लिए सहशिक्षा को आवश्यक माना था। ये सब आज इतिहास के रोचक प्रसंग लग सकते हैं, किन्तु पूरे देश के सन्दर्भ में, यहाँ फैले अशिक्षा और अन्धविश्वास के माहौल में गुलेरी जी की बातें आज भी संगत और विचारणीय हैं। भारतवासियों की कमज़ोरियों का वे लगातार ज़िक्र करते थे विशेषकर सामाजिक राजनीतिक सन्दर्भों में। 


हमारे अधःपतन का एक कारण आपसी फूट है-‘‘यह महाद्वीप एक दूसरे को काटने को दौड़ती हुई बिल्लियों का पिटारा है’’ (डिनामिनेशन कॉलेज: १९०४) जाति-व्यवस्था भी हमारी बहुत बड़ी कमज़ोरी है। 

गुलेरी जी मन की संकीर्णता त्यागकर उस भव्य कर्मक्षेत्र में आने का आह्वान करते हैं जहाँ सामाजिक जाति भेद नहीं, मानसिक जाति भेद नहीं और जहाँ जाति भेद है तो कार्य व्यवस्था के हित (वर्ण विषयक कतिपय विचार: १९२०)। छुआछूत को वे सनातन धर्म के विरुद्ध मानते थे। अर्थहीन कर्मकाण्डों और ज्योतिष से जुड़े अन्धविश्वासों का वे जगह-जगह ज़ोरदार खण्डन करते थे। केवल शास्त्रमूलक धर्म को वे बाह्यधर्म मानते हुए धर्मको कर्मकाण्ड से न जोड़कर इतिहास और समाजशास्त्र से जोड़ते थे। धर्म का अर्थ उनके लिए ‘सार्वजनिक प्रीतिभाव’ था जो साम्प्रदायिक ईर्ष्या-द्वेष को बुरा मानता है (श्री भारतवर्ष महामण्डल रहस्य: १९०६)। 

उनके अनुसार उदारता सौहार्द और मानवतावाद ही धर्म के प्राणतत्त्व होते हैं और इस तथ्य की पहचान बेहद ज़रूरी है-‘‘आजकल वह उदार धर्म चाहिए जो हिन्दू, सिक्ख, जैन, पारसी, मुसलमान, कृस्तान सबको एक भाव से चलावै और इनमें बिरादरी का भाव पैदा करे, किन्तु संकीर्ण धर्मशिक्षा...(आदि) हमारी बीच की खाई को और भी चौड़ी बनाएँगे।’’ (डिनामिनेशनल कॉलेज: १९०४1)। 


धर्म को गुलेरी जी बराबर कर्मकाण्ड नहीं बल्कि आचार-विचार, लोक-कल्याण और जन-सेवा से जोड़ते रहे। उनका सरोकार अपने समय के केवल भाषिक और साहित्यिक आन्दोलनों से ही नहीं, उस युग के जीवन के हर पक्ष से था। किसी भी प्रसंग में जो स्थिति उनके मानस को आकर्षित या उत्तेजित करती थी, उस पर टिप्पणी किए बगैर वे रह नहीं पाते थे। ये टिप्पणियाँ उनके सरोकारों, कुशाग्रता और नज़रिये के खुलेपन की गवाही देती हैं। अनेक प्रसंगों में गुलेरी जी अपने समय से इतना आगे थे कि उनकी टिप्पणियाँ आज भी हमें अपने चारों ओर देखने और सोचने को मज़बूर करती हैं। एक शताब्दी पहले जीवन के अहम मसलों पर व्यक्त गंभीर विचार आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं जितने उनके समय में थे और यही कालजयी साहित्यकार की परिभाषा है। 

 

चंद्रधर शर्मा ‘गुलेरी’: संक्षिप्त परिचय

पूरा नाम

चंद्रधर शर्मा ‘गुलेरी’

जन्म

७ जुलाई १८८३

मृत्यु

१२ सितंबर १९२२

शिक्षा

एम ए दर्शन शास्त्र 

भाषा 

संस्कृत, हिंदी, अंग्रेज़ी, इसके अतिरिक्त फ्रेंच और लैटिन भाषा का ज्ञान, भाषा वैज्ञानिक

विधाएँ 

कहानी, निबंध, व्यंग्य, कविता, आलोचना और संस्मरण  

व्यवसाय 

शिक्षण और लेखन 


मासिक पत्र ‘समालोचक’ और, सूर्यकुमारी पुस्तकमालाके सम्पादक 


मेयो कॉलेज के संस्कृत विभाग के अध्यक्ष 


मनींद्र चंद्र नंदी पीठ के प्रोफेसर


काशी विश्वविद्यालय के प्राचार्य 

रचना संसार

कहानी-

उसने कहा था, बुद्धू का काँटा और सुखमय जीवन 

कविता 

झुकी कमान, भारत की जय 

पुरातत्व संबंधी रचना 

दि जयपुर ऑब्ज़रवेटरी ऐण्ड इट्स बिल्डर्स (कैप्टेन गैरेट के साथ अंग्रेज़ी में)

निबंध / आलोचना 

कछुआ धर्म , मारेसि मोहिं कुठाऊँ,  महर्षि च्यवन का रामायण, पुरानी हिंदी, दो खण्डों में संकलित पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित अनेक आलेख और वक्तव्य 

  

संदर्भ:

  • उसने कहा था, बुद्धू का काँटा और सुखमय जीवन कहानियाँ 
  • कछुआ धर्म, 
  • मारेसि मोहिं कुठाउँ 
  • चंद्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ विशेषांक (भारत दर्शन, जुलाई-अगस्त २०१४
  • विकिपीडिया

लेखक परिचय


डॉ अरुणा अजितसरिया एम बी ई , 

पेशे से अध्यापन और देश-विदेश के हिंदी, अंग्रेज़ी और फ्रेंच साहित्य के अध्ययन और समीक्षा में रुचि, 

सम्प्रति  केम्ब्रिज विश्वविद्यालय की अंतरराष्ट्रीय शाखा में हिंदी की मुख्य परीक्षक और प्रशिक्षक के रूप में कार्यरत

8 comments:

  1. अहा, आज सुबह चित्त की प्रसन्नता को बढ़ा दिया आपने, अरुणा जी। “उसने कहा था” का तो बहुत बड़ा प्रशंसक रहा हूँ। कोई पूछे कि सम्पूर्ण कहानी किसे कहते हैं तो कहूँगा इसे कहते हैं। सच्चा, निर्मल प्रेम कैसे दिव्य बनकर स्वार्गिक शिखर तक पहुँचता है , इसका उत्कृष्ट चित्रण है। और इतने विषम घटना चक्र में विविध मनोभावों को ऐसी सरलता से कह जाना किसी विलक्षण कहानीकार का ही कमाल हो सकता है। आपने गहन शोध कर गुलेरी जी की प्रतिभा के अनेक पक्षों को उजागर किया है। धर्म और समाज पर उनके विचार श्रेष्ठ हैं और समझ में आता है कि वह उच्च कोटि के साहित्यकार क्यों हैं। उनका निबंध लेखन भी बड़ा प्रभावशाली है।
    आपका यह आलेख निश्चित रूप से स्मरणीय एवं संग्रहणीय है। आपको धन्यवाद। शुभकामनाएँ। 🙏💐

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  2. संग्रहणीय लेख।अभिनंदन।

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  3. वाह अरुणा जी, चंद्रधर शर्मा गुलेरी जी के व्यक्तित्व और अतुलनीय कृतित्व का क्या समृद्ध खाका खींचा है आपने! स्कूल में पढ़ी उनकी कहानी ‘उसने कहा था’ का वाक्य - तेरी कुड़माई हो गई! तभी हमेशा के लिए याद रह गया था। ३९ साल की छोटी-सी ज़िंदगी में किये इनके कार्यो की व्यापकता से चकित हूँ मैं। उम्दा आलेख के लिए आपको बधाई और धन्यवाद।

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  4. अरुणा जी, अपनी तीन प्रमुख कहानियों, ख़ासतौर से हस्ताक्षर कहानी ‘उसने कहा था’ से लगभग एक सदी से पाठकों के दिल पर राज करने वाले गुलेरी जी का परिचय आपकी क़लम से प्राप्त कर बहुत अच्छा लगा। आपने ठीक ही कहा, कहानियाँ तो उनके कृतित्व के आइस्बर्ग की चोटी मात्र हैं, इतने सुरचिपूर्ण ढंग से उन्हें प्रस्तुत करने के लिए आपका बहुत-बहुत आभार और बधाई। ‘उसने कहा था’ अब फ़ौरन पढ़ूँगी।

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  5. नमस्कार अरुणा मेम ...चंद्रधर शर्मा 'गुलेरी' की कहानियाँ जरूर पढ़ी थी । उनके बारे में और जानने की उत्सुकता रही । आज उनके बहु आयामी व्यक्तित्व के बारे में इतनी सूक्ष्म जानकारी आपके आलेख से मिली।उसके लिए आपका आभार । सुगठित लेखन और सुंदर आलेख के लिए बधाई।

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  6. डॉ. अरुणा जी नमस्ते। श्री चन्द्रधर शर्मा 'गुलेरी' जी पर आपका लेख बहुत रोचक है। आपने उनके जीवन एवं सृजन को बहुत सुंदर ढँग से प्रस्तुत किया है। लेख की निर्धारित सीमा में भी बहुत सारी जानकारी मिली। लेख पर आई टिप्पणियों ने लेख को और विस्तार दे दिया। आपको लेख के लिए हार्दिक बधाई।

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  7. अरुणादी नमस्ते,
    गुलेरी जी के सम्बंध में आपका आलेख अत्यंत सुंदर, रोचक तथा ज्ञानवर्धक है , पढ़कर बहुत ही अच्छा लगा ।बधाई !

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  8. अरुणा जी अत्युत्तम और शोधपरक लेख लिखा है आपने। पढ़कर आनंद आया। इस लेख के माध्यम से गुलेरी जी के जीवन वृतांत और रचना संसार को विस्तार से जानने को मिला। इस संग्रहणीय लेख के लिए आपको बहुत बहुत बधाई व आभार। 🙏🏻🙏🏻

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