Tuesday, January 11, 2022

आधुनिक खड़ीबोली के प्रथम कवि और प्रवर्तक : पं० श्रीधर पाठक

 

देश-गीत - श्रीधर पाठक | Shridhar Pathak

कविता में स्वच्छंदतावादी प्रवृत्ति का सूत्रपात करने वाले कवियों में श्रीधर पाठक की महत्वपूर्ण भूमिका से शायद ही किसी को असहमति हो। उन्होंने विषय-वस्तु में सूक्ष्म मनोभावों के प्रस्तुतीकरण द्वारा काव्य को नूतन विधान देकर न केवल सजाया-संवारा, बल्कि कुछ ऐसे मौलिक भाषिक प्रयोग भी किए, जो भविष्य में ऐतिहासिक सिद्ध हुए। वह ऐसे कवि थे, जिन्होंने समकालीन ब्रजभाषा के स्थान पर खड़ीबोली का प्रयोग करके, उसे सुदृढ़ आधार प्रदान किया। साथ ही साहित्य की ओर कदम बढ़ा रहे नवागतों को भी खड़ीबोली में रचने को प्रेरित किया। सही मायने में कहा जाए, तो आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी एक आंदोलन की तरह ‘सरस्वती’ के माध्यम से जिस खड़ीबोली को स्थापित करने का सजगता से प्रयत्न कर रहे थे, उसकी पूर्व-पीठिका श्रीधर पाठक द्वारा सहजता से तैयार की जा चुकी थी।

श्रीधर पाठक की काव्यमय यात्रा भारतेंदु से प्रारंभ होकर छायावाद तक अबाध जारी रही। वह उस समय साहित्य-रचना में प्रवृत्त हुए, जब विश्व में अंग्रेज़ों का प्रभुत्व तेजी से बढ़ रहा था। अंग्रेज़ों की दमनकारी नीतियों के कारण देश में सामाजिक-सांस्कृतिक उथल-पुथल का वातावरण बना हुआ था, जिस कारण अंग्रेज़़ी सत्ता के विरोध में लोगों के आक्रोश का तापमान बढ़ना और उनमें राष्ट्रीयता का संचार होना स्वाभाविक ही था। ऐसे परिदृश्य में परंपरागत रूढ़ियों के धुर-विरोधी और राष्ट्र-प्रेम से ओत-प्रोत श्रीधर पाठक का साहित्यिक पदावतरण एक ऐतिहासिक महत्त्व की घटना रही। अपने इन नैसर्गिक गुणों के कारण ही वे समाज में राष्ट्रीय-सांस्कृतिक भावना का संचार करने और मातृभूमि-मातृभाषा के सम्मान के प्रति जागरुकता उत्पन्न करने में सफल हो सके।

आचार्य शुक्ल जी ने अपने ‘हिंदी साहित्य के इतिहास’ में श्रीधर पाठक को सच्चे स्वच्छंदतावाद का प्रवर्तक कहते हुए लिखा है, "हरिश्चंद्र के सहयोगियों में काव्यधारा को नए-नए विषयों की ओर मोड़ने की प्रवृत्ति दिखाई पड़ी, पर भाषा ब्रज ही रहने दी गई और पद्य में ढांचों, अभिव्यंजना के ढंग तथा प्रकृति के स्वरूप निरीक्षण आदि में स्वच्छंदता के दर्शन न हुए। इस प्रकार की स्वच्छंदता का आभास पहले-पहल श्रीधर पाठक ने ही दिया। उन्होंने प्रकृति के रूढ़िबद्ध रूपों तक ही न रहकर अपनी आँखों से ही उसके रूप को देखा। ...उन्होंने खड़ीबोली पद्य के लिए सुंदर लय और चढ़ाव-उतार के कई नए ढांचे भी निकाले और इस बात का ध्यान रखा, कि छंदों को सुंदर लय से पढ़ना एक बात है, राग-रागिनी गाना दूसरी बात। ...इन सब बातों का विचार करने पर पंडित श्रीधर पाठक ही सच्चे स्वच्छंदतावाद (रोमांटिसिज्म) के प्रवर्तक ठहरते हैं।" वहीं अज्ञेय का मानना है, “बाद की ‘नई कविता’ की प्रवृत्तियों के अंकुर श्रीधर पाठक में पाए जा सकते हैं। ...यह कहना कदाचित इस युग के कवि-समुदाय के साथ अन्याय न होगा, कि श्रीधर पाठक इसके सर्वाधिक कवित्व संपन्न कवि थे। भारतेंदु को खड़ीबोली युग का प्रवर्तक मानकर भी कहा जा सकता है, कि श्रीधर पाठक ही उसके वास्तविक आदिकवि थे। 

श्रीधर पाठक के साहित्य का गंभीरता से अनुशीलन करने पर ऐसे एक नहीं, अनेक कारण मिलते हैं, जो शुक्ल जी और अज्ञेय के इस आशय की पुष्टि करते हैं, कि पाठक में परंपराओं को आधुनिक रूप देकर उसे समयानुसार प्रासंगिक रूप में प्रस्तुत करने का अद्भुत कौशल था। श्रीधर पाठक ने भारतेंदु तथा द्विवेदी युग के संधि-काल में अपनी जो पहचान सुनिश्चित की, वह निश्चित ही आगे चल कर छायावादी काव्य का आधार सिद्ध हुई। स्वच्छंद प्रेम का चित्रण, राष्ट्र भावना, प्रकृति के मनोरम रूपों की अनूठे बिंबों के माध्यम से अभिव्यंजना, शिल्पगत मौलिक प्रयोग तथा इससे भी बढ़कर विषयों को संवेदनात्मक ढंग से देखने और बर्ताव करने का उनका नज़रिया; साहित्य-जगत में उनको एक अलग मुकाम देता है। पाश्चात्य कथा-काव्यों के जो भारतीय संस्करण उन्होंने पाठकों के सामने प्रस्तुत किये; वे उस समय के लिए पूर्णतया नवीन और मौलिक कहे जा सकते हैं। वैश्विक कृतियों के काव्यानुवाद के माध्यम से पाठक जी ने हिंदी पाठकों के लिए नवीन परिदृश्य और दृष्टि प्रदान करने के साथ विविध साहित्यिक गवाक्षों का उन्मोचन भी किया। बनारसी लाल चतुर्वेदी का मानना था, "पाठक जी सच्चे अर्थों में प्रगतिशील कवि तथा प्रतिभाशाली लेखक थे। परंपरागत तत्वों का समूल उच्छेदन न कर, उन्हें अधिक विकसित करने का उनका प्रयास रहता था। प्रतिभा इतनी प्रखर थी, कि वह नया से नया मार्ग निकाल लेती थी।”

खड़ी बोली को स्थापित करने में श्रीधर पाठक की अहम भूमिका रही। यह सत्य है, कि रीतिकाल के समाप्त होते-होते साहित्य में भाषा के परंपरागत नियमों से मुक्त होने की छटपटाहट के संकेत मिलने शुरू हो गए थे, लेकिन कवियों में एक हिचक थी, जो उन्हें इन बाध्यताओं से निकलने नहीं दे रही थी। श्रीधर पाठक ने खड़ी बोली में काव्य रच कर दीर्घ समय से चली आ रही, उस परंरागत लीक को तोड़ा, जिसमें गद्य और पद्य के लिए अलग-अलग भाषाओं के पंथ निर्धारित किए गए थे। इसे श्रीधर पाठक का ब्रजभाषा के प्रति दुराग्रह या विरोध कदापि नहीं कहा जा सकता! और उनका ये विरोध भला क्यों करके होगा? वे खुद ही उस ब्रजभाषा की पावन मिट्टी की उपज थे, जिसने सूरदास जैसे महाकवि भारत को दिए हैं। सही मायने में यह श्रीधर पाठक का साहस या फिर अनेक भाषाओं के ज्ञान से उत्पन्न उनका सामर्थ्य ही कहा जाएगा, जिसके बल पर उन्होंने ब्रजभाषा के प्रभुत्व के बावजूद खड़ी बोली की न केवल पक्षधरता की, बल्कि उसे प्रतिष्ठित करने के लिए एक मजबूत भूमि भी तैयार की। खड़ी बोली में देश की दुर्दशा का गान और राष्ट्रवादी कविता रचकर पाठकजी ने हिंद और हिंदी, दोनों को साधने का सफल प्रयास किया। खड़ी बोली में लिखी उनकी ‘हिंद वंदना’ नामक कविता की कुछ पंक्तियाँ यहाँ दृष्टव्य हैं -


जय देश हिंद, देशेश  हिंद। जय सुखमा-सुख नि:शेष हिंद

जय धन-वैभव-गुण-खान हिंद। विद्या-बल-बुद्धि-निधान हिंद

रसखान हिंद, जस-खान हिंद। गुण-गण-मंडित विद्वान हिंद।


कविता लेखन में श्रीधर पाठक को सर्वाधिक प्रतिष्ठा ‘कश्मीर सुषमा’ से मिली, जिसमें उन्होंने कश्मीर के स्थल-स्थल पर बिखरी अद्वितीय प्राकृतिक सुषमा का नवीन बिंबों और प्रतीकों के माध्यम से मनोहारी और अभिव्यंजनापरक वर्णन किया है। कश्मीर के नैसर्गिक सौंदर्य पर मुग्ध होकर कविमन कह उठता है कि - 


यही स्वर्ग सुरलोक, यही सुर-कानन सुंदर।

यहि अमरन को ओक, यही कहु बसत पुरंदर॥

इस ग्रंथ के कारण ही उन्हें प्रकृति के उपासक कवि के रूप में जाना गया। 


श्रीधर पाठक ने जहाँ ‘कश्मीर सुषमा’, ‘देहरादूनवा’ तथा ‘भारत-गीत’ जैसे मौलिक ग्रंथ रचे, वहीं लिवर गोल्डस्मिथ (सन १७२८-७४) की तीन महत्वपूर्ण कृतियों The Hermit’ (एकांतवासी योगी), The Deserted Village’ (ऊजड़ ग्राम) और The Traveller’ (श्रांत पथिक) के काव्यानुवाद करके वैश्विक स्तर पर समालोचकों की प्रशंसा बटोरी। 


‘एकांतवासी योगी’ के मूल ग्रंथ में चालीस छंद हैं, लेकिन पाठक जी ने ५९ लावनी छंदों में इसका अनुवाद किया है; जिससे पता चलता है, कि कथा को उन्होंने भारतीय परिवेश से जोड़कर पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया है, ताकि वे उससे भावनात्मक तौर पर जुड़ सकें। पाठक जी के द्वारा अनूदित इस कृति ने उन्हें बहुत ख्याति दिलवाई। आचार्य शुक्ल ने इसे आधुनिक खड़ी बोली पद्य की पहली पुस्तक माना है। इस कृति की प्रशंसा २२ मई १९८८ को लंदन के ‘The Homeward Mail’ में प्रकाशित हुई - This translation of Gold smith’s Hermit is valuable addition to Hindi Literature, for it will tend to divert the Indian mind from the extravagances of oriental imaginary and fix it upon the sympathetic and affections of the human heart. Shri Pathak has done justice to a famous English poem and his translation will give to the people of India an accurate idea of what deemed beautiful on this side of the world.


इसी प्रकार जब The Deserted Village’ का ब्रजभाषा और रोला छंद में किया गया, श्रीधर पाठक का काव्यानुवाद प्रकाशित हुआ, उस समय प्रो.जे.एफ. निकल ने टिप्पणी दी, जिसका सार कुछ यों था - पंडित जी ने अपनी पोथी का नाम ‘ऊजड़ ग्राम’ रखा, परंतु उन्हें उसका नाम ‘जड़ाऊ नग’ रखना चाहिए था; क्योंकि उस पोथी की बांटें मणि-माणिक्य से जडी हुई हैं। 


पद्य-लेखन के साथ ही श्रीधर पाठक गद्य-लेखन में भी अपने भाषापरक व्याख्यानों, किशोरों के लिए लिखी गयी उपन्यासिका ‘तिलिस्माती मुंदरी’ (कश्मीर के राजा की लड़की) १९२७ और ‘पोलेमिक्स’ के लिए जाने जाते हैं। 


‘निज-भाषा निज-देश में जिनहिं न कहु अभिमान,

सो जन मानव–जोनि में जन्मे व्यर्थ जहान’

कहकर राष्ट्र और राष्ट्रभाषा का जय-घोष करने वाले श्रीधर पाठक अपनी कृतियों से सदैव स्मरणीय रहेंगे।


पंडित श्रीधर पाठक : जीवन परिचय

जन्म

११ जनवरी १८५८, जौंधरी ग्राम, आगरा, उत्तर प्रदेश

कर्मभूमि

कोलकाता, लखनऊ, प्रयागराज

मृत्यु

१३ सितंबर १९२९,  मसूरी,  उत्तर प्रदेश

पिता

पंडित लीलाधर पाठक

पत्नी

श्रीमती लाडली देवी

बेटी

ललिता पाठक

साहित्यिक रचनाएँ

मौलिक 

  • मनोविनोद (१८८२)

  • जगत सचाई सार (१८८७)

  • धन विनय (१९००)

  • गुनवंत हेमंत (१९००)

  • कश्मीर सुषमा (१९०४)

  • आराध्य-शोकांजलि (१९०६)

  • जार्ज-वंदना (१९१२)

  • वनाष्टक (१९१२)

  • भक्तिविभा (१९१३)

  • श्री गोखले गुणाष्टक (१९१५)

  • देहरादूनवा (१९१५)

  • गोपिका गीत (१९१६)

  • तिलिस्माती मुंदरी (१९२७)

  • भारत गीत (१९२८)

  • भारत प्रशंसा, बाल विधवा, बाल भूगोल आदि

अनूदित

  • एकांतवासी योगी (१८८६)

  • ऊजड़ ग्राम (१८८९)

  • श्रांत पथिक (१९०२)

  • ऋतु संहार (कालिदास)

  • श्री गोपिका गीत (श्रीमद्भागवत गीता)

सम्मान/ उपाधि

कवि-भूषण, भारत-धर्म-महा-मंडल, द्वारा


संदर्भ

  • पाठक, पद्मधर- श्रीधर पाठक ग्रंथावली (१,२,३)
  • शुक्ल, आचार्य रामचंद्र- ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ (२०१३), लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद
  • मिश्र, कृष्ण कुमार- हिंदी साहित्य : काव्यभाषा और श्रीधर पाठकहिंदी समय’ (महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय का अभिक्रम) में प्रकाशित आलेख
  • मिश्र, डॉ. रामचंद्र- श्रीधर पाठक और पूर्व स्वच्छंदतावादी काव्य, ‘आकाशवाणी’ पाक्षिक पत्र वर्ष-३८, अंक-४, ७ फ़रवरी १९७१
  • वत्स, राकेश- प्रेम-पथिक परंपरा में चंद्रकुंवर बर्त्वाल की ‘मेघनंदिनी’, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली

लेखक परिचय

डॉ. नूतन पाण्डेय 

सहायक-निदेशक, केंद्रीय हिंदी निदेशालय, भारत सरकार का शिक्षा मंत्रालय

पूर्व अनुभव- द्वितीय सचिव, भाषा और संस्कृति, भारतीय उच्चायोग, मॉरिशस

प्रकाशन- प्रवासी साहित्य पर अनेक पुस्तकें और लेख प्रकाशित

सम्मान- विभिन्न संस्थाओं द्वारा राष्ट्रीय/अंतर्राष्ट्रीय सम्मान प्राप्त


संपर्क- +९१ ७३०३१ १२६०७

4 comments:

  1. पं श्रीधर पाठक जी का हिंदी साहित्य में महत्वपूर्ण योगदान एवं विशेष स्थान है।उनको जितना भी पढ़ा उनका लेखन बहुत सरस लगा तथा और पढ़ने की इच्छा बनी रही। उस महान साहित्यकार पर डॉ नूतन जी का यह लेख भी बहुत सरस बना है। पढ़ना शुरू किया तो कब खत्म हुआ पता नहीं चला। इस रोचक लेख के लिए डॉ. नूतन जी को हार्दिक बधाई।

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  2. हिंदी साहित्य में क्रांति लाकर उसे नयी दिशा, परिदृश्य और दृष्टि देने वाले पंडित श्रीधर पाठक को उनकी जयंती पर सादर नमन। नूतन जी, आपने उनकी साहित्यिक यात्रा और महत्वपूर्ण प्रयोगों पर अनुपम लेख सरस और रोचक तरीके से लिखा है। आपको इस लेखन के लिए बहुत-बहुत बधाई और आभार।

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  3. नूतन जी , अभी श्रीधर पाठक जी पर लिखा आपका प्रबुद्ध आलेख पढ़ा। सबसे पहले तो मैं आपको इस बात की बधाई देना चाहता हूँ कि आप पर प्रभु की विशिष्ट कृपा है। ऐसे बहुत कम लेखक होते हैं जो विस्तृत , गहन ज्ञान को इतने सरल एवं सरस रूप में प्रस्तुत कर सकें। यह आसान काम नहीं है। गद्य एवं पद्य की गहरी समझ एवं प्रस्तुतीकरण की विशिष्ट प्रतिभा चाहिए। आपको बहुत साधुवाद एवं बधाई!

    हम लोग आज हिंदी में जो काव्य- रचना कर रहे हैं , हमारे लिए तो पाठक जी भीष्म पितामह हैं। जो कार्य उन्होंने प्रारम्भ किया , हम सब उसी शृंखला की आगे जाती कड़ियाँ हैं। उन्नीसवीं- बीसवीं शताब्दी में उन्होंने जो नींव रखी , वह कितना भव्य महल बन जाएगी , इसका अनुमान उन्हें भी नहीं होगा। उनके अनुवाद के सृजन के बारे में आपने कुछ ऐसे तथ्य प्रस्तुत किए जो पहले मेरी जानकारी में तो नहीं थे; आपके शोध की मेहनत स्पष्ट झलकती है ।
    यह आलेख निश्चित रूप से स्मरणीय एवं संग्रहणीय है। 💐🙏

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  4. द्विवेदी युग के कवि और भारतेंदु मंडल के विशेष कवियों में आद.श्रीधर पाठक जी का महत्वपूर्ण स्थान रहा हैं। खड़ी भाषा में ब्रजभाषा की मिठास भरने वाले, स्वछंदता की धारा कहने वाले वह पहले कवि हैं। उन्होंने हिंदी साहित्य में अपने काव्य रचना से स्वच्छंदतावादी प्रकृति के कारण नए मार्ग का प्रवर्तन किया हैं। आद. नूतन जी के आलेख ने स्वतंत्र प्रकृति के सूत्रपात श्रीधार पाठक जी का विस्तृत चित्रण किया हैं। आपने उनके काव्य की समीक्षा बड़ी खूबसूरत और मौलिक तरीके से प्रस्तुत की है। आपने उनके गद्य और पद्य दोनों भावो को एकत्रित कर विशष्ट रूप से मनोदित किया। इस जानकारी और भावपूर्ण आलेख के लिए आपका आभार और शुभकामनाएं।

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