Saturday, January 8, 2022

भारतीय कथा साहित्य का जगमगाता नक्षत्र : आशापूर्णा देवी

 

बांग्ला लेखिका आशापूर्णा देवी की लोकप्रियता उनके प्रांत बंगाल की सीमाओं के बाहर एक महकते हुए केवड़े के ख़ुशबू की तरह पहुँची। वे एक ऐसी उपन्यासकार थीं, जिन्‍होंने अपने दायरों से बाहर जाकर लिखा। 
 
८ जनवरी को उनका जन्‍मदिन है, उनके लाखों बांग्ला और हिंदी तथा अन्य भाषाओं के पाठक उन्हें स्मरण करते हैं। मैंने तो कॉलेज के दिनों में उनकी पुस्तकों के हिंदी अनुवाद पढ़ रखे थे।  बकुल कथा, प्रथम प्रतिश्रुति और उनकी अनेक कहानियाँ। आप सभी को याद होगा, हिंदी में तपस्या फिल्म आई थी, जो आशापूर्णा देवी के उपन्यास 'तपस्या' पर ही आधारित थी। दूरदर्शन पर 'प्रथम प्रतिश्रुति' धारावाहिक भी आया, जिसे मेरी माँ बहुत चाव से देखा करती थीं। आशापूर्णा देवी के पास कहन की ज़बरदस्त शैली है, जो उन्हें कई पीढ़ियों का प्रिय बनाती है। ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित आशापूर्णा देवी आधुनिक बांग्ला की अग्रणी उपन्यासकार रही हैं। बंकिमचंद्र, रवींद्रनाथ और शरतचंद्र के बाद बांग्ला साहित्य-लोक में आशापूर्णा देवी का ही एक ऐसा सुपरिचित नाम है, जिनकी हर कृति पिछले सात दशकों से बंगाल और उसके बाहर भी खूब पढ़ी जाती रही है। 
 
आशापूर्णा देवी का जन्म ८ जनवरी, १९०९ को कलकत्ता में हुआ था। उनकी माँ सरोला सुंदरी और पिता हरेंद्रनाथ गुप्त थे। पिता स्वयं कलाकारमना थे, वे एक चित्रकार थे। परिवार उनका पारंपरिक और रूढ़िवादी था, जहाँ उनकी दादी का ही बोलबाला था।  उनकी दादी को बिलकुल पसंद नहीं था, कि उनके घर की लड़कियाँ  स्कूल का गेट तक देखने जाएँ। आशापूर्णा देवी ने अपनी प्रारंभि‍क शि‍क्षा घर पर ही ली। उनके भाइयों ने उन्हें अपनी किताबों से पढ़ने को प्रेरित किया। लेकिन कामकाज के सिलसिले में दादी का घर छूटा, तो उनके कलाकार पिता और जागरुक माँ  ने बेटियों को भी बेटों के बराबर स्कूल में पढ़ने का अवसर दिया। पिता के कारण जाने-माने साहित्यकार और कला शिल्पियों का परिवार में आना-जाना रहा। 
 
आशापूर्णा देवी को साहित्य पढ़ने की रुचि माँ से विरासत में मिली, तो कविताएँ लिखने का चाव अपनी बड़ी बहन को देख कर आया। वे साहित्यिक पत्रिकाओं में लोगों की छपी कविताएँ पढ़ती थीं। एक बार तेरह बरस की आयु में साहस करके चोरी से उन्होंने अपनी एक कविता  ‘शिशु साथी’ पत्रि‍का के संपादक को भेज दी और वह छप भी गई। संपादक ने इस युवा लेखिका में संभावना देखी और कहानियाँ भी लिख भेजने को कहा। यहीं से उनका साहित्यिक सफ़र शुरू हो गया। आजीवन कलम से उनका नाता बना रहा, उन्होंने लिखा भी और एक गृहस्थ महिला होने के नाते अपने समस्त दायित्व भी पूरे किए। उनकी युवावस्था  में बंगाल में सभी पारंपरिक निषेधों का बोलबाला था। दादी के कट्टर व्यवहार के चलते पिता और पति दोनों के घर में लड़कियों पर तरह-तरह के बंधन थे। लेकिन  लेखक मन की उड़ान ही कहिए, कि वे घर के खिड़कियों - गवाक्षों से मिली जीवन की छोटी-मोटी झलकों से ही समाज में घटित होने वाली घटनाओं की कल्पना कर लेती थीं। इसी कट्टर समाज  के बंधनों में रहकर उन्होंने इसकी विडंबनाओं पर खुल कर लिखा। 
 
उनका पहला कहानी-संकलन “जल और जामुन” १९४०  में प्रकाशित हुआ था। उस समय न केवल भारत में, बल्कि पश्चिम बंगाल में कोई नहीं जानता था कि बांग्ला कथा साहित्य के क्षितिज पर ऐसा सितारा उदय हुआ है, जो न केवल बांग्ला साहित्य बल्कि भारतीय साहित्य के आकाश में सूर्य बनकर चमकेगा। आशापूर्णा देवी ने बच्‍चों के लिए भी लिखा। उनकी पहली बालोपयोगी पुस्तक ‘छोटे ठाकुरदास की काशी यात्रा’ थी, जो १९३८  में प्रकाशित हुई। साल १९३७ में पहली बार वयस्कों के लिए ‘पत्नी और प्रेयसी’ कहानी लिखी, जो शारदीया, आनन्द बाजार पत्रिका में प्रकाशित हुई। उनका पहला उपन्यास ‘प्रेम और प्रयोजन’ था, जो साल १९४४ में प्रकाशित हुआ।
 
हम सभी ने चाव से उनके साहित्य के हिंदी अनुवाद पढ़े हैं, उनका लिखा साधारणीकृत होता है। सबके मन को छूकर भिगोता है। उनके साहित्य में आज भी वह संप्रेषणीयता है, कि कोई भी सहज ही कह उठे, यह तो मेरे ही आस-पास की कहानी है।  उनके उपन्यास 'तपस्या' की थीम पर साठोत्तरी कहानीकारों ने भी खूब कलम चलाई है। आशापूर्णा जी की छोटी-बड़ी कहानियों में जीवन के सामान्य एवं विशिष्ट क्षणों की ज्ञात-अज्ञात पीड़ाएँ मुखरित हुई हैं। सच पूछिए तो उन्होंने कथा संसार को वाणी से कहीं अधिक दृष्टि दी है। जैसा कि मैं कहती हूँ, अच्छा कथाकार कहानी लिखता नहीं दिखाता है। यही वजह है, कि वे जीवन तल के अनकहे को व्यंजित करने में सफल रही हैं। 
 
आशापूर्णा देवी ने मध्यमवर्गीय समाज की नब्ज़ बखूबी पकड़ी थी, जिसके हिस्से समाज की नैतिकता का निर्वहन आया था। उनके कथा-साहित्य में टिपिकल भारतीय परिवार की इकाई और भारतीय समाज के समुच्चय के पारस्परिक संबंध और टकराव को केंद्र बनाया, उस पर खूब लिखा गया। यही वजह रही, कि उनको पढ़ते हुए सदा यही लगा, कि उनकी कथाएँ हमारे ही घर संसार का विस्तार हैं। उनके अनगिनत स्त्री पात्रों माँ, बहन दादी, मौसी दीदी, बुआ, अन्य नाते-रिश्तेदार यहाँ तक के नौकर-चाकरों की मनोदशा का सहज और प्रामाणिक चित्रण उनकी कहानियों के प्राण है।
 
उस समय में स्त्री होकर उन्होंने समाज से ऐसे विषय उठाए, जिन पर बात भी करना उस समय निषेध था। मगर उन्होंने नारेबाज़ी नहीं की, बस सच उधेड़ कर लिख दिया। उनकी कहानियाँ महज़ पात्रों, संवादों या घटनाओं का एकांगी समूह नहीं होती थीं, वे जीवन का हहराता पाट होती थीं, जिनमें स्पंदित लहरें आप स्वयं देख लें। निश्चित ही उनकी अपनी एक विशिष्ट शैली थी। चरित्रों का भीतरी और बाहरी रेखांकन करते समय वे यथार्थ का छोर नहीं छोड़ती थीं।  एक तटस्थ लेखकीय भंगिमा के तहत उनकी कलम में कहीं भावुक लिजलिजापन या जजमेंटल अप्रोच नहीं आती थी। सच को सामने लाना उनका मूल उद्देश्य था। 
 
उनका ज़्यादातर निशाना परंपरागत हिंदू समाज में गहरी जड़ें जमाए बैठी लिंग-आधारित भेदभाव की भावना, असमानता और अन्याय की तरफ़ होता था। स्त्री जीवन के अनिवार्य ध्रुवांतों, स्वयं और परिवार के बीच उठने वाले सवाल को पारिवारिक मर्यादा और बदलते सामाजिक संदर्भों में जितना आशापूर्णा देवी ने रखा है, उतना संभवतः किसी अन्य ने नहीं। भले ही उनके कथा-संसार के केंद्र में हमेशा स्त्रियाँ और उनका जीवन संघर्ष और उन पर विजय रहे हैं; मगर जानबूझ कर पुरुष को गाली देनेवाले अतिवाद की वे शिकार नहीं हुईं। उनके उपन्यासों में जहाँ स्त्री मनोविज्ञान की सूक्ष्म अभिव्यक्ति आई, उन्होंने स्त्री मन का प्रेम, संवेदनशीलता, भय और ममत्व तो चित्रित किया ही, परंतु स्त्री मन की कुंठाएँ, दंभ, द्वंद्व और उसकी दासता का भी बखूबी रेखांकन किया। उनकी कहानियों में स्त्रियों पर किए गए उत्पीड़न का रेशा-रेशा उधड़ा, मगर उनकी कहानियों ने कभी पाश्चात्य शैली के सैद्धांतिक नारीवाद का समर्थन नहीं किया। ठीक वैसे ही जैसे एलिस वॉकर कहती हैं, आयातित नारीवाद उनके समाज की स्त्रियों पर फिट नहीं बैठता, आशापूर्णा देवी की नायिकाएँ भी इसी विचार के तहत गढ़ी गई हैं। भारतीय समाज, उसकी अपनी समस्याएँ, भारतीय स्त्रियाँ, उनके अपने मोह, शृंगारप्रियता, पारिवारिकता.... इसी सब के बीच रूढ़ियों से संघर्ष भी। 
 
उनकी तीन प्रमुख कृतियाँप्रथम प्रतिश्रुति’, ‘सुवर्णलता’ और ‘बकुल-कथा’ समान अधिकार प्राप्त करने के लिए ऐसी ही भारतीय स्त्रियों के अनंत संघर्ष की गाथाएँ ही तो हैं। प्रथम प्रतिश्रुति, सुवर्णलता और बकुल कथा ट्रायलॉजी हैं या कह सकते हैं वे सीक्वल हैं। “प्रथम प्रतिश्रुति” पर बात करने पर बाकि दो उपन्यासों को नहीं छोड़ा जा सकता। 'प्रथम प्रतिश्रुति' उस दौर की कथा है, जब  बरतानवी उपनिवेशवाद भारत में जड़ें जमा रहा था। मूलभूत भारतीय  रवायतें बदल रहीं थीं। इस्लामिक शासन के दौर में जो भारतीय मानक बदले थे, उनमें फिर से नया बदलाव आ रहा था। आश्रमों और गुरुकुलों में मिलने वाली शिक्षा सीमित हो चुकी थी। लड़कियों की शिक्षा के लिए घर की चारदीवारी के बाहर कोई जगह नहीं थी। ऐसे में सत्यवती के पिता ही उसे सिखाना-पढ़ाना शुरू करने की जिम्मेदारी अपने सर लेते हैं। एक शताब्दी से भी पहले के कालखंड पर लिखी गई इस किताब की नायिका है, सत्यवती। एक ज़मींदार पिता की संतान, सत्यवती को उसके पिता ही पढ़ाई और दूसरी कई चीज़ें सिखाते हैं। बाल विवाह उस दौर में सामान्य सी बात थी, और सत्यवती का भी बाल विवाह ही होता है। आगे कैसे उसका जीवन चलता है, उसी के साथ ये कहानी भी आगे बढ़ती है। 'प्रथम प्रतिश्रुति' विरोध के स्वर की पहली पीढ़ी है। सत्यवती अपनी बेटी को वो बातें सिखा जाती है, जिन्हें वो पूरा नहीं कर पाई। आगे सुवर्णलता और बकुलकथा में सत्यवती की बेटी, और फिर उसकी बेटी की बेटी की कहानी को लेखिका ने आगे बढ़ाया है।
 
सत्यवती जहाँ अपनी बेटी को शिक्षित करने का प्रयास कर रही थी, वहीं उसकी सास धोखे से उसकी बेटी को अपने साथ ले जाती है और इससे पहले की सत्यवती आकर शादी रुकवा पाए, उसका विवाह कर देती है। सत्यवती हताश होकर संन्यासिनी हो जाती है। यहाँ से सुवर्णलता की कहानी भी शुरू हो जाती है। बाल विवाह की शिकार हुई सुवर्णलता को समाज के कई ताने झेलने पड़ते हैं, क्योंकि उसकी माँ का व्यवहार उस काल के हिसाब से अजीब था। तब महिलाऐं सब छोड़कर संन्यासी नहीं बनती थीं। सुवर्णलता के पास शिक्षा भी नाम मात्र की थी। इसके वाबजूद सुवर्णलता अपनी माँ के सपने को एक कदम और आगे बढ़ाने में जुट जाती है। उसके अपने बेटों के अलावा, वह अपनी बेटी पर भी ध्यान देना शुरू करती है। उसकी बेटी बकुल की कहानी इस शृंखला का तीसरा उपन्यास बकुलकथा है।
 
कई पीढ़ियाँ पार करने के कारण विरोध और सामाजिक पाबंदियों का कम होना भी नज़र आता है। संघर्ष जितना सत्यवती के लिए था, उससे काफ़ी कम ही बकुलकथा में नजर आएगा। इसके बावजूद अगर स्त्रियों की समस्या और बदलते परिवेश पर कुछ अच्छा पढ़ना हो, तो “प्रथम प्रतिश्रुति” एक अद्भुत रचना है, उसके बाद आप सुवर्णलता और बकुलकथा कैसे छोड़ सकेंगे? 
 
साल १९७६ में उन्‍हें ‘प्रथम प्रतिश्रुति’ के लिए भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया। भुवन मोहिनी स्मृति पदक और रवीन्द्र पुरस्कार से सम्मानित तथा पद्मश्री से विभूषित आशापूर्णा जी अपनी एक सौ सत्तर से भी अधिक कृतियों द्वारा सर्वभारतीय स्वरूप को गौरवांवित करती हुई आजीवन संलग्र रहीं। उन्हें जबलपुर, रवीन्द्र भारती, बर्दवान और जादवपुर विश्वविद्यालयों द्वारा डी लिट की उपाधि दी गई। उपन्यासकार और लघु कथाकार के रूप में योगदान के लिए, उन्‍हें साहित्य अकादमी द्वारा १९९४ में सर्वोच्च सम्मान 'साहित्य अकादमी फैलोशिप' से सम्मानित किया गया था।
 
आशापूर्णा देवी का निधन १३ जुलाई, १९९५ में हुआ, अपने पीछे वह अपनी २०० के लगभग औपन्यासिक कृतियाँ और ८०० के लगभग कहानियों का वृहत संसार छोड़ गई थीं, जिनके माध्यम से उन्होंने समाज के विभिन्न पक्षों को उजागर किया... और जिनसे आज भी भारतीय कथा साहित्य आलोकित है।

आशापूर्णा देवी : जीवन परिचय

जन्म

८ जनवरी, १९०९

निधन

१३ जुलाई, १९९५

जन्मभूमि

कलकत्ता

पिता

हरेंद्रनाथ गुप्त

माता

सरोला सुंदरी

साहित्यिक रचनाएँ


कहानी संग्रह

  • “जल और जामुन” १९४०

  •  किर्चियाँ 

  • ये जीवन है

श्रेष्ठ कहानियाँ


  • सब कुछ व्यवस्थित रखने के लिए

  • एक मृत्यु एवं और एक

  • रिहाई रद्द 

  • अहमक 

  • मकान का नाम  

  • ‘शुभदृष्टि’ 

  • राजपथ को छोड़कर 

  • जगन्नाथ की जमीन 

  • स्वर्ग का टिकट 

  • सांकट लगा देने के बाद 

  • बेआबरू 

  • पराजित हृदय 

  • स्टील की आलमारी 

  • हथिया 

  • भय 

  • छिन्नमस्ता घूर्णमान पृथ्वी 

  • वंचक 

  • कार्बन कापी 

  • आयोजन 

  • मुक्तिदाता

उपन्यास


  • प्रेम और प्रयोजन

  • प्रथम प्रति श्रुति

  • सुवर्णलता

  • बकुल कथा

  • कल्याणी

  • नेपथ्य नायिका

  • छाया सूर्य

  • उन्मोचन

  • नवजन्म

  • निर्जन पृथ्वी 

  • कसौटी

  • उज्ज्वल उन्मोचन

  • अनोखा प्रेम 

  • अपने-अपने दर्पण में 

  • अमर प्रेम

  • अविनश्वर

  • आन्नंद धाम

  • उदास मन

  • कभी पास कभी दूर 

  • काल का प्रहार

  • खरीदा हुआ दुःख

  • गलत ट्रेन में

  • चश्मे बदल जाते हैं 

  • पंछी उड़ा आकाश में

  • प्यार का चेहरा

  • प्रारब्ध

  • मंजरी

  • मन की आवाज

  • मन की उड़ान

  • मुखर रात्रि

  • राजकन्या

  • लीला चिरन्तर

  • विजयी बसंत

  • विश्वास अविश्वास

  • वे बड़े हो गये

  • शायद सब ठीक है

  • श्रावणी

  • सर्पदंश

  • चाबीबन्द सन्दूक

  • चैत की दोपहर में

  • तपस्या

  • तुसली

  • त्रिपदी

  • दृश्य से दृश्यान्तर

  • दोलना

  • न जाने कहाँ-कहाँ

बालोपयोगी पुस्तक

‘छोटे ठाकुरदास की काशी यात्रा’

पुरस्कार व सम्मान

  • भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार - १९७६ - प्रथम प्रतिश्रुति

  • भुवन मोहिनी स्मृति पदक 

  • रवीन्द्र पुरस्कार 

  • पद्मश्री  

  • जबलपुर, रवीन्द्र भारती, बर्दवान और जादवपुर विश्वविद्यालयों द्वारा डी लिट की उपाधि 

  • साहित्य अकादमी द्वारा १९९४ में सर्वोच्च सम्मान ‘साहित्य अकादमी फैलोशिप


लेखक परिचय

मनीषा कुलश्रेष्ठ

एक लोकप्रिय, प्रख्यात और बहुपुरस्कृत कहानीकार हैं। हाल ही में उनके उपन्यास मल्लिका को अभूतपूर्व सफलता मिली है। रज़ा फाउंडेशन फैलोशिप, वनमाली कथा सम्मान और के. के. बिरला फाउंडेशन के  प्रतिष्ठित बिहारी सम्मान से उन्हें नवाज़ा गया है। ८  कहानी संग्रह, ६  उपन्यास, १ यात्रावृत्तांत, कविता संकलन समेत कई अनमोल कृतियाँ उन्होंने हिंदी जगत को सौंपी हैं। मनीषा स्वतंत्र लेखन करती हैं और इंटरनेट की पहली हिंदी वेबपत्रिका ‘हिन्दीनेस्ट’ का २० वर्षों से संपादन कर रही हैं। 
ई – पता – manishakuls@gmail.com

13 comments:

  1. बहुत सुंदर जानकारी उपलब्ध हो रही हैं। इसके लिए मनीषा कुलश्रेष्ठ तो बधाई की पात्र हैही अनूप भार्गव जी बहुत बहुत बधाई के पात्र हैं जिन्होंने पटल प्रारंभ किया। बहुत बहुत धन्यवाद।
    सत्येंद्र सिंह, पुणे, महाराष्ट्र

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  2. सादर नमन महान लेखिकाओं को

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  3. आशापूर्णा देवी को मनीषा जी ने जिस दृष्टि से देखा, समझा और decode किया वह उन जैसी कथाकार के लिए ही संभव है। आशापूर्णा देवी के लिए एक संकीर्ण समाज में रहना, परिवार की परतें समझना और उन्हें subtle तरीके से कहानियों में उतार देना उस समय आसान तो न रहा होगा! उन्होंने बाल साहित्य भी विपुल लिखा, कविताएँ भी!
    मनीषा दी को एक रोचक आलेख के लिए शुक्रिया 🙏🏻

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  4. आदरणीय आशापूर्णा देवी के विराट साहित्य पर सारगर्भित टिप्पणी के लिए सुपरिचित हस्ताक्षर मनीषा कुलश्रेष्ठ जी को साधुवाद ! उन्होंने जिस सूक्ष्मता से आशापूर्णा देवी के कृतित्व और व्यक्तित्व का विश्लेषण किया है वह आने वाली पीढ़ी के लिए उदाहरण प्रस्तुत करता है।
    ब्लॉग को इस सुंदर उपक्रम के लिए बधाई व शुभकामनाएं !

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  5. मनीषा जी , आपकी आशपूर्णा देवी पर लिखी रोचक कहानी पढ़ी। ना केवल उन्हें और अधिक पढ़ने की इच्छा हो गई अपितु आपकी कहानियाँ पढ़ने की भी उत्सुकता हुई।आपने जो समीक्षात्मक विवरण लिखा है , वह भी इतना कथात्मक है कि लगता है कहानी आगे बढ़ती जाए और मैं पढ़ता जाऊँ।इतने रोचक लेखन पर बधाई !
    वर्षों पहले मैंने अपनी पत्नी से पूछा था : नारी सशक्तीकरण के सही माने क्या हैं ? एक स्त्री क्या चाहती है ? उत्तर था : वही जो तुम चाहते हो। जीना।अपनी इच्छा से, अपनी ख़ुशी से। बिना किसी के दबाव के कि यह करो , यह ना करो। कितनी सरल सी बात है। आशपूर्णा जी का लेखन यही सरल बात कहता है। सब समझ लें तो यह संसार बहुत ज़्यादा खूबसूरत हो जाएगा।💐

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    1. मेरे “कथात्मक” कहने का तात्पर्य रोचकता की प्रशंसा करना है , मनीषा जी।(लेख की कोई सीमाबद्धता ना समझ लीजिएगा)🙏🙏

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    2. वर्तनी सुधार : आशापूर्णा जी । 🙏

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  6. हिंदी जगत की सुपरिचित कथाकार मनीषा कुलश्रेष्ठ जी द्वारा बांग्ला भाषा की सर्वाधिक चर्चित और सम्मानित लेखिका आशापूर्णा देवी जी पर बेहतरीन ज्ञानवर्धक , शोधपरक ,मानीखेज और दिलचस्प ,कलात्मक लेख में उनकी कहानियों का गहराई और गंभीरता से विश्लेषण काबिले तारीफ है l स्त्रियों की पीड़ा को जितनी गंभीरता और ईमानदारी से आशापूर्णा जी ने चित्रित किया है उतनी ही शिद्दत से मनीषा जी ने उनके कथा साहित्य के मर्म को पाठकों तक पहुंचाने की कामयाब कोशिश की है l प्रिय कथाकार मनीषा कुलश्रेष्ठ जी को साधुवाद l इंद्रजीत सिंह मॉस्को (रूस)

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  7. मनीषा जी, उपन्यासकार और कवयित्री आशापूर्णा देवी जी के व्यक्तित्व और साहित्यिक लेखन पर रोचक और सारगर्भित आलेख के लिए आपका शुक्रिया और बधाई। आलेख इतना प्रवाहमय था कि एक साँस में पढ़ा गया।

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  8. मनीषा जी ने आशापूर्णा जी पर बहुत उत्तम लेख लिखा है। पढ़ते हुए लेख कहानी की तरह बढ़ता चला गया। इस रोचक लेख के लिए मनीषा जी को हार्दिक बधाई।

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  9. बहुत सुंदर लेख है मनीषा जी।
    आशापूर्णा देवी का जीवन संघर्ष और चुनौतियाँ किस तरह उनके रचना कर्म में बाधक नहीं, साधक बनीं आपने अपने लेख में बड़े प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया है।
    बधाई!

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  10. आशापूर्णा देवी जी के व्यक्तित्व और साहित्यिक लेखन पर रोचक और प्रभावशाली आलेख के लिए आपको बधाइयाँ

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  11. बांग्ला भाषा की चर्चित और सम्मानित लेखिका आशापूर्णा देवी जी की जीवन और साहित्यिक यात्रा , उनके संघर्षों की समग्र जानकारियां उपलब्ध कराता हुआ एक सारगर्भित और प्रभावशाली लेख। मनीषा जी को बहुत बहुत बधाई।

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