कुछ लोगों की मुलाक़ात का असर थोड़े समय रहता है और वक़्त की राह पर एक धूमिल सी याद बन कर रह जाता है| वहीं कुछ व्यक्तित्व जीवन में इतना प्रभावित करते हैं कि गुज़रते समय के साथ उनका प्रभाव प्रगाढ़ होता जाता है और वे जीवन का एक अभिन्न हिस्सा बन जाते हैं। कबीर के साथ मेरा सम्बन्ध कुछ ऐसा ही रहा है। उनसे मेरा पहला परिचय सात-आठ वर्ष की आयु में तब हुआ जब पहली बार मेरा ध्यान अज़ान की तरफ गया। जब मैंने यह जानना चाहा कि क्या सुबह होने वाले इस शोर से लोगों को परेशानी नहीं होती, क्या अज़ान करने वाले इसके बारे में नहीं सोचते तो किसी ने जवाब में यह दोहा पढ़ दिया-
कांकर पाथर जोरि कै मस्जिद लिओ बनाय।
ता चढ़ी मुल्ला बांग दे क्या बहरा हुआ खुदाय।।
और साथ ही निम्नलिखित दोहा पढ़कर यह भी बताया कि कबीर ने हर धर्म से जुड़े आडम्बरों पर प्रहार किया है-
पाहन पूजै हरी मिले, तो मैं पूजूँ पहार,
तातै यह चाकी भली, पीस खाए संसार।
गुरु गोबिंद दोऊ खड़े, काके लागुं पाय,
बलिहारी गुरु आपनै, गोबिंद दियो बताय।
समय के साथ उनके हर शब्द, दोहे, और साखी बहुत सच्चे और अपने-से लगने लगे। यह समझ में आने लगा कि किसी भी बुराई को हटाने के लिए सबसे पहले खुद को टटोलना और माँझना होगा -
बुरा जो देखन मैं चल्या, बुरा न मिलिया कोय।
जो दिल खोजै आपनो, मुझसे बुरा न कोय।।
आपसी बैर और वैमनस्य के भाव अक्सर शब्दों से शुरू होते हैं; अगर उन्हें ह्रदय के तराज़ू में तौल कर बोला जाए तो दुनिया का अलग ही रूप हो| अपने सरल शब्दों में कबीर ने लोगों को जोड़ने, मानवता को सर्वोपरि रखने और अपने ह्रदय में बैठे हरि को तलाशने की बातें की हैं| वहीं कुरीतियों और बाह्य आडम्बरों पर जमकर प्रहार भी किए हैं। उनके शब्द आपसी भेदभाव और झूठी शान की अग्नि में जलते हृदयों पर सावन की फुहार या पुरवाई का काम करते हैं।
हर प्रकार के अंधकार से समाज को मुक्त करने वाले साहित्य के इस सूरज को बीसवीं सदी के मध्य तक महज़ मामूली सितारा ही समझा गया। “सूर सूर तुलसी ससी” दोहा इसका सशक्त प्रमाण है। उन्हें साहित्य के यथोचित सोपान पर प्रतिष्ठित करने का सराहनीय काम क्षितिजमोहन सेन द्वारा सम्पादित ‘कबीर के पद’ से प्रारम्भ हुआ। क्षितिमोहन सेन द्वारा संपादित ‘कबीर के पद’ एक नए ढंग का प्रयास है जो ‘भक्तों के मुख से’ सुनकर संग्रहित हैं। इसकी प्रामाणिकता के लिए उन्होंने किसी पोथी की मुखापेक्षिता नहीं रखी।
इससे पहले, सन १९१४ में, रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने गीतांजलि का अनुवाद करते समय ही कबीर के पद से सौ रचनाओं का भी अंग्रेजी में अनुवाद किया था। वर्ष १९१२-१३ में रवीन्द्रनाथ टैगोर के लंदन दौरे के दो नतीजे निकले। पहला, उन्होंने अपनी ही बांग्ला कविता संग्रह - गीतांजलि- का अंग्रेजी अनुवाद कर साहित्य का नोबेल पुरस्कार अपने नाम किया था| और दूसरा, ‘वन हंड्रेड पोयम्स ऑफ कबीर’ के नाम से मध्यकालीन भारतीय संत कबीर के दोहों का अंग्रेजी अनुवाद किया था| गीतांजलि से उन्हें मिले सम्मान के बावजूद, इसे भारत से बाहर अब कम ही पढ़ा जाता है और ‘वन हंड्रेड पोयम्स ऑफ कबीर’ अपने पहले संस्करण से ही लोकप्रियता के नए आयाम गढ़ रही है और आज भी लगातार छप रही है।
भारत में कबीर की गरिमा और प्रतिष्ठा पुनर्स्थापित करने में आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी की पुस्तक “कबीर” की भी अकल्पनीय भूमिका रही है। नामवर सिंह जी ने अपनी आलोचनाओं के माध्यम से कबीर के विभिन्न पहलुओं को उजागर किया है| वे लिखते हैं कि अक्सर अकेले दिखने वाले कबीर उदास हैं और उनका दुःख विस्फोटक और विध्वंसक है। वस्तुतः वह आत्मा की धधकती हुई आग है जिसमें इस भ्रष्ट संसार को ख़ाक कर देने की अकूत ताक़त है। नामवर सिंह जी ने लिखा है- “कबीर ने आडम्बरों से दबे समाज में सभी चीज़ों को नकारा और इस प्रक्रिया में सभी धर्मों के ईश्वर को भी नकार दिया। लेकिन वह सर्वनिषेधवादी नहीं हैं, वह उस तत्व को स्वीकारते हैं जो घट-घट में बसा हुआ है, जो निर्गुण है|”
इस शृंखला में एक और महत्वपूर्ण नाम हिंदी के प्रमुख आलोचक, कवि, चिंतक और कथाकार पुरुषोत्तम अग्रवाल का है। उनकी कबीर पर पुस्तक ‘अकथ कहानी प्रेम की- कबीर की कविता और उनका समय’ को नामवर सिंह ने हज़ारी प्रसाद द्विवेदी की किताब ‘कबीर’ के बाद कबीर पर सबसे महत्वपूर्ण विमर्श माना तो अशोक बाजपेयी ने इसे कबीर का पुनराविष्कार कहा है।
अभी इक्कीसवीं सदी का इक्कीसवाँ साल चल रहा है और अफगानिस्तान की वर्तमान स्थिति मन विचलित करने वाली है। दुनिया का इतिहास ऐसी कहानियों से भरा पड़ा है जब धर्म, संप्रदाय, जाति, वर्ग आदि के आधार पर लोगों को बाँटा गया है, लड़ाया गया है। अब तक कहा जाता था कि बँटवारे का सबसे बड़ा कारण धर्म है। अफगानिस्तान में तो एक ही मज़हब के लोग रहते हैं; फिर भी इतना वैर-भाव कैसे? क्यों होती हैं ऐसी वारदातें? क्यों पहुँच जाते हैं हम इन चरम स्थितियों तक? इन सवालों से विचलित होने पर कबीर के दोहे अनायास ही मन को सुकून दे जाते हैं:
मोको कहाँ ढूँढ़े बन्दे, मैं तो तेरे पास में
न मैं देवल न मैं मस्जिद, न काबे कैलास में
कबीर अपने युग की जनसाधारण की भाषा बोलते थे| उनकी भाषा सरल और भाव गूढ़ है - इसीलिए सहजता से हमारे अंतर्मन में उतर आती है| भाषा पर कबीरदास का ज़बरदस्त अधिकार था। वे वाणी के डिक्टेटर थे। भाषा कुछ कबीर के सामने लाचार सी नज़र आती है।
कबीर का आविर्भाव १४ वीं सदी में हुआ, जब धर्म के क्षेत्र में बड़ी अस्तव्यस्तता आ गयी थी। सिद्धजन और योगीजन विभिन्न प्रकार के अन्धविश्वास फैला रहे थे, शास्त्रों का ज्ञान रखने वाले भी रूढ़ियों और आडम्बरों में बंध गए थे। ऐसे परिवेश में कबीर इन विषमताओं पर प्रहार करते रहे, कहते रहे इंसानियत ही परम धर्म है। सच्चे मनुष्य के ह्रदय में ही भगवान वास करता है।
रहना नहिं देस बिराना है।
यह संसार कागद की पुड़िया, बूँद पड़े घुल जाना है।
उनके जन्म की कोई आधारभूत जानकारी नहीं है। कबीर के धर्म को लेकर भी स्पष्ट मत नहीं है| मुसलमान उन्हें मुसलमान जुलाहा बताते हैं तो हिन्दू उन्हें काशी का निवासी| उनके जीवन का मुख्य भाग वाराणसी में ही बीता। कबीर का जन्म सन् १३९८ में काशी में और मृत्यु सन् १५१८ में मगहर में मानी जाती है। बीजक कबीर वाणी का प्राथमिक ग्रन्थ माना जाता है।
कबीर पढ़े -लिखे नहीं थे| उन्होंने स्वयं कहा है -
मसि कागद छूओ नहीं कलम गहौं नहि हाथ
चारों जुग कै महातम कबिरा मुखहिं जनाई बात।
कबीर ने जहाँ जो देखा, उसी को अपना अनुभव मानकर ज्ञान दिया। अहं को भक्ति का सबसे बड़ा शत्रु बताया। उनके अनुसार अहंकार त्यागने पर ही मनुष्य ईश्वर का सच्चा भक्त बनता है और उसके शुद्ध अन्तःकरण से संसार का कल्याण हो सकता है। परोपकार पर जोर देते हुए उन्होंने कहा कि नदियाँ और वृक्ष सभी परमार्थ के लिए ही जन्म लेते हैं और वे ही साधु हैं - परमार्थ के कारन ही साधुन धरा शरीर।
कबीर का कहना था कि जीव-ब्रह्म के मिलन में माया ही बाधा डालती है, ज्ञानी वही है जो माया को दुत्कारता है-
माया महा ठगनी हम जानी
तिरगुन फांस लिए कर डोले बोले मधुरे बानी
कबीर एक ऐसे मानव समाज की स्थापना के लिए प्रयत्नशील थे जिसमें जाति-धर्म का भेदभाव न हो। वे एक ऐसी बिरादरी के लिए कार्यरत रहे, जो सत्य पर आधारित था, जिसमें सब सम्मलित हों, जो आर्थिक सम्पन्नता, सामाजिक सुख और सांस्कृतिक मूल्यों पर आधारित हो। वे हिन्दू-मुस्लिम एकता के हिमायती थे और यह चाहते थे कि यह एकता मैत्री भाव से हो। उस समय समाज दिग्-भ्रमित था| उन्होंने दोनों समाजों को न केवल समन्वय के पथ पर चलने का आदेश दिया था, अपितु आर्थिक संकट दूर करने का भी प्रयास किया। उनका यह प्रयास आज समाजवाद के नाम से विख्यात है। कबीर सत्कर्म के पक्षपाती थे। उन्होंने स्वयं जीवन भर चरखा कात कर श्रम किया और लोगों को भी सदैव श्रम करने के लिए प्रेरित किया। साधना को परिश्रम के संस्कारों से बाँधना कोई कबीर से सीखे। डॉ. हज़ारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है कि साधना के क्षेत्र में वे युग-युग के गुरु थे, उन्होंने संत काव्य का पथ प्रदर्शन कर साहित्य क्षेत्र में नव निर्माण किया था।
समाज में कबीर को जागरण युग का अग्रदूत कहा जाता है। बचपन में उनसे हुई मुलाक़ात आज गहरी होती जा रही है और मुझे पूरा विश्वास है कि आने वाले कल में भी किसी भी द्वंद्वात्मक स्थिति से निकलने में वही मेरी लाठी होगी।
संदर्भ:
- ५,७, - कबीर, आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी
- https://www.india-seminar.com/2011/623/623_peter_friedlander.htm
- कबीर का दुःख, नामवर सिंह
- कबीर का सच, नामवर सिंह
- कबीरदास परिचय, श्री अनंतदास
लेखक परिचय
मैं तो शीर्षक पर ही मुग्ध हो गई! बधाई हो प्रगति जी!
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद, शार्दुला।
Deleteबहुत उत्तम
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद, नूतन जी।
Deleteबहुत बढ़िया लेख। तथ्यात्मक एवं सहज पठनीय लेख। प्रगति जी बधाई स्वीकार करें।
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद। आप लोगों की प्रशंसा से मनोबल बढ़ता है, लिखने का हौसला मिलता है।
Deleteकबीर वास्तव में 'कल , आज और कल' के कवि हैं - आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं जितने कल थे |
ReplyDeleteबहुत रोचक आलेख बन पड़ा है |
बहुत बहुत धन्यवाद, अनूप जी। इस शुरू करने के लिए आप बधाई स्वीकार करें।
Deleteशानदार लेखन 👌👌
ReplyDeleteबहुत-बहुत आभार, मनीष जी।
Deleteप्रगति जी ने सुंदर लेख लिखा है । बधाई! कबीर पर सबसे पहले ,सबसे बड़ा संकलन , श्री गुरु ग्रंथ साहब में है ।बाक़ी लेखकों, कवियों का समीक्षात्मक अध्ययन काफ़ी बाद में किया गया। 💐
ReplyDeleteहार्दिक आभार, हरप्रीत जी। श्री गुरु ग्रन्थ साहब में कबीर की कृतियों के संकलन के बारे में बताने के लिए बहुत शुक्रिया। मैं अपने आलेख में इस तथ्य को जोड़कर उसे परिपूर्ण कर लूँगी।
Deleteसुन्दर भाषा में लिखा गया रोचक लेख। बधाई!
ReplyDeleteहार्दिक आभार, अल्पना।
Deleteकबीर के व्यक्तित्व और कृतित्व को समेटे हुए समग्र जीवन को रेखांकित करता हुआ सार्थक आलेख...... बधाई हो प्रगति जी ।
ReplyDeleteबहुत शुक्रिया, संजय जी।
Deleteप्रगति जी आपने दुरूह कार्य किया है। आपको वन्दन
ReplyDeleteसुरेश सर, मेरे लिए बहुत ख़ुशी की बात है कि आपने आलेख पढ़ा और पसंद किया, आपका बहुत-बहुत आभार।
Deleteप्रगति, बहुत बढ़िया आलेख, रोचक जानकारी के लिए धन्यवाद, कबीर के दोहे पढ़कर स्कूल के दिनों की याद आ गई।
ReplyDeleteधन्यवाद, सरोज। चलो इसी बहाने तुम्हारी बचपन की सैर भी हो गयी।
Deleteपूरा लेख प्रवाहमान, ह्रदयग्राही और आत्मीय दृष्टि से लिखा हुआ! प्रगति हार्दिक बधाई! कई तथ्यों और विवेचनाओं का बढ़िया संकलन भी।
ReplyDeleteबहुत बधाई हो प्रगति! शुक्रिया 🙏🏻
शार्दुला, तहे दिल से शुक्रिया।
Deleteबहुत बहुत बधाई प्रगति जी, बहुत ही उत्तम लेख
ReplyDeleteहार्दिक आभार आपका, रमा जी।
Deleteबहुत उम्दा लेख है. आपने बहुत मन से लिखा है. बधाई!
ReplyDeleteहार्दिक आभार आपका, दुर्गाप्रसाद जी। आपके शब्द मनोबल बढ़ाते हैं।
Deleteअत्यन्त सारगर्भित सहज आलेख बधाई! जानकर हर्ष हुआ कि आप रुसी हिन्दी मुहावरा कोश पर कार्य कर रही हैं। मैनें भी रूसी सीख चुकी हूँ। अत: कोश निर्माण के महत्वपूर्ण कार्य हेतु भी शुभाशंसा
ReplyDeleteप्रो ऋचा मिश्र
श्री वेकटेश्वर कॉलेज
दिल्ली विश्वविधालय
बहुत बहुत धन्यवाद, ऋचा जी। आपका परिचय पाकर बहुत ख़ुशी हुई।
Deleteउत्तम लेख..बधाई प्रगतिजी
ReplyDeleteहार्दिक आभार, रश्मि जी।
Deleteहार्दिक बधाई प्रगतिजी...उत्तम लेख
ReplyDeleteहार्दिक आभार, रश्मि जी।
Deleteएक सुन्दर और सार्थक प्रस्तुति।
ReplyDeleteआपका बहुत-बहुत आभार, राकेश जी।
Deleteइस सुन्दर व अत्यंत प्रभावशाली आलेख पर हार्दिक बधाई, प्रगति जी। शीर्षक में ही आपने, कबीर की रचनाओं की तरह, गागर में सागर भर दिया! कबीर हमारे जीवन का अंग होते हुए भी उनके बारे में रोचक व नयी जानकारी मिली, विशेषकर विभिन्न लेखकों द्वारा कबीर-विमर्श पर। साधुवाद!
ReplyDelete- राय कूकणा, ऑस्ट्रेलिया
राय कूकणा जी, इतने सुन्दर शब्दों में प्रतिक्रिया देने के लिए आपका बहुत बहुत आभार।
ReplyDeleteसार गर्भित शोध परक आलेखन के लिए बधाई हो मेम।
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