प्रगतिशील शायरी और समाजवादी विचारधारा को अपनी नज़्मों, ग़ज़लों और गीतों के माध्यम से ख़ास-ओ-आम तक पहुँचाने वाले कैफ़ी आज़मी को जहाँ 'शायरी का सुर्ख़ फूल' कहा जाता है, वहीं भारत की जंगे आज़ादी में 'कलम की तलवार' से लड़ने वाले इंक़लाबियों में उन्हें एक विशेष दर्जा प्राप्त है। उनकी रचनाएँ स्वांतः सुखाय न होकर सर्वजन हिताय का सच्चा आईना हैं।
शोषण और उत्पीड़न के ख़िलाफ़ निर्भीकता से आवाज़ उठाने वाले, समाजी और सियासी मसलों पर बेबाक और बेख़ौफ़ टिप्पणी करने वाले, वंचितों, मजदूरों, कामगारों और किसानों के रहनुमा कैफ़ी आज़मी (वास्तविक नाम- अतहर हुसैन रिज़वी) का जन्म आज़मगढ़ ज़िले के मिजवाँ गाँव में १९१९ में एक शिया ज़मींदार परिवार में हुआ। जन्म की सही तारीख़ न तो कैफ़ी को मालूम थी, न उनके परिवार वालों को। तक़रीबन पाँच दशक पहले उनके मित्र और डाक्यूमेंट्री फ़िल्म निर्माता सुखदेव ने १४ जनवरी को पहली बार उनका जन्मदिन उनके घर पर मनाया, तभी से हर वर्ष १४ जनवरी को उनके घर वाले और चाहने वाले उनका जन्मदिन मनाने लगे। समाजवाद के पुजारी कैफ़ी साहब ने अपने बारे में एक बात अनेक अवसरों पर कही - "मैं ग़ुलाम हिंदुस्तान में पैदा हुआ, आज़ाद हिंदुस्तान में बूढ़ा हुआ और सोशलिस्ट हिंदुस्तान में मरूँगा।" फैज़, अली सरदार जाफ़री, प्रेम धवन, शैलेंद्र और ख़्वाज़ा अहमद अब्बास के साथ-साथ कैफ़ी को भी तत्कालीन सोवियत संघ जाने का कई बार मौक़ा मिला और कैफ़ी के साथ-साथ इन सभी कवियों-लेखकों की आर्थिक-सामाजिक समानता के लिए समाजवाद रास्ता भी था और मंज़िल भी।
कैफ़ी द्वारा रचित अधिकांश नज़्में, ग़ज़लें और नग़्में कालजयी इसलिए हैं, क्योंकि वे ज़िंदगी की हक़ीक़त से रूबरू कराते हैं, उनकी रचनाओं में लोक जीवन धड़कता है। आम आदमी उनकी कविताओं को पढ़कर या सुनकर दुःख के दलदल से, निराशा के घने कोहरे से बाहर निकलकर अपने जीवन को बेहतर बनाने की कोशिश करता है। कैफ़ी की शायरी ना-उम्मीदी की स्याह रात को आशा के सुनहरे प्रभात में बदलने की हिम्मत और ताक़त देती है। एक उदाहरण क़ाबिले ग़ौर है -
इस नज़्म को शाहिद लतीफ़ ने अपनी फिल्म 'सोने की चिड़िया' में कैफ़ी की आवाज़ में बलराज साहनी पर फिल्माया था।
कैफ़ी साहब ने सपनों की महिमा को रेखांकित करते हुए लिखा है -
जहाँ एक ओर उनकी शायरी से प्रभावित राजनेता ए.बी.बर्धन उनको क़ाज़ी नज़रुल इस्लाम, पाब्लो नेरुदा तथा मयकोव्स्की जैसे महान क्रांतिकारी कवियों के समकक्ष रखते हैं, वहीं प्रख्यात कथाकार असग़र वजाहत 'अभिनव क़दम' के कैफ़ी आज़मी विशेषांक में उनकी प्रसिद्ध कविता - "जब भी चूम लेता हूँ उन हसीन आँखों को, सौ चराग़ अँधेरे में झिलमिलाने लगते हैं", को अंतर्राष्ट्रीय स्तर की कविता घोषित करते हैं। हिंदी-उर्दू के साझे शायर निदा फ़ाज़ली के अनुसार - "कैफ़ी आज़मी की शायरी सामाजिक सरोकारों की ज़िंदा मिसाल है।"
परिवार वाले कैफ़ी को दीनी तालीम दिलवाना चाहते थे, ताकि वे मौलवी बन सकें। लेकिन बचपन से ही शायराना तबियत, समाजवादी ख़यालात रखने के सबब ने उन्हें सामाजिक सरोकारों का संवेदनशील शायर बना दिया। उनके घर में शायरी का माहौल वैसे ही मौजूद था, जैसे हिंदी फिल्मों में गीत-संगीत।
ग्यारह साल की उम्र में उन्होंने पहली ग़ज़ल कही। हुआ यूँ, कि उनके रिश्तेदारों एवं ज़िले के शायरों ने नई पीढ़ी के किशोरों और नौजवानों को ग़ज़ल का एक मिसरा देकर उसे पूरी कहने की परंपरा शुरू की। इस बार 'आँसू निकल पड़े' मिसरे को मुकम्मल करके ग़ज़ल कहने की दौड़ में कैफ़ी भी शामिल थे। ग्यारह साल का कोई और बच्चा होता तो उसके आँसू निकल पड़ते, लेकिन कैफ़ी ने थोड़ी देर में ही ग़ज़ल यूँ कह डाली -
पिता और रिश्तेदारों को कैफ़ी की शायराना प्रतिभा पर यक़ीन नहीं हो पा रहा था। जनाब कैफ़ी साहब की हमसफ़र शौकत जी के शब्दों में - "लेकिन ग़ज़ल कहने के अंदाज़ से ख़ुश उनके पिता ने इनाम में पार्कर पेन, शेरवानी के साथ-साथ ‘कैफ़ी’ तख़ल्लुस भी दिया।" इस तरह से आज़मगढ़ ज़िले के अतहर हुसैन रिज़वी अदब की दुनिया में कैफ़ी आज़मी के रूप में जाने-पहचाने और माने गए। इस ग़ज़ल को लंबे समय बाद सुप्रसिद्ध गायिका बेगम अख़्तर ने भी गाया। यह ग़ज़ल देश की सीमाओं से परे अनेक मुल्कों में गाई-गुनगुनाई और सराही गई।
कैफ़ी साहब का पहला काव्य संग्रह - "झंकार" १९४३ में प्रकाशित हुआ। उन्होंने हिंदुस्तान के दबे-कुचले, वंचितों- शोषितों, ग़रीब किसानों, मज़दूरों, बेसहारा-बेघर दलितों एवं असहाय और ज़ुल्म की शिकार औरतों के हक़ और बेहतरी के लिए शायरी के ज़रिए सार्थक और क़ाबिले तारीफ़ कोशिश की। उनके द्वारा रचित 'औरत' नज़्म की फ़रमाइश सभी मुशायरों में होती रही -
लंबी क़द-काठी, जोशीली-रोबीली आवाज़ और प्रगतिवादी-जनवादी शायरी के कारण, वे मुशायरों की शान बन गए। ऐसे ही एक मुशायरे में मौजूद श्रोताओं में इक नवयुवती शौकत पर 'औरत' नज़्म का जादू ऐसा चला, कि वह कैफ़ी में अपने सपनों का राजकुमार तलाशने लगी। कैफ़ी भी उनसे मिलने के बाद उनके सपने देखने लगे। शिया-सुन्नी की दीवार बीच आ गई। 'औरत' नज़्म ने शौकत को हौसला दिया, लंबी जिद्द-ओ-जहद के बाद सारी दीवारों को तोड़ते हुए, देश की आज़ादी से कुछ हफ़्ते पहले वह शौकत से शौकत आज़मी बन गई। शौकत आज़मी ने अपनी आत्मकथा - 'याद की रहगुज़र' में लिखा है - "कैफ़ी की नज़्म सुनने के बाद मैंने सोचा, औरत के बारे में इस तरह सोचनेवाला शख़्स ही मेरा शौहर हो सकता है। पुराने ख़याल के आदमी के साथ मेरा गुज़ारा नहीं हो सकता।"
कैफ़ी कम्युनिस्ट पार्टी के उर्दू साप्ताहिक 'क़ौमी जंग' से जुड़कर समाजवादी फ़लसफ़े और भाईचारे के पैग़ाम को हर दिल से जोड़ रहे थे।
कैफ़ी-शौकत के यहाँ २६ अप्रैल १९४८ को पहली संतान पैदा हुई, जिसका नाम रखा गया - ख़ैयाम। आर्थिक स्थिति अच्छी न होने के कारण टीबी से ग्रसित बच्चे ख़ैयाम की १९ अप्रैल १९४९ में मौत हो गई। बच्चे की मौत से शौकत आज़मी को गहरा सदमा लगा।
१८ सितंबर १९५१ को शबाना आज़मी का जन्म हुआ। घर ख़ुशियों से आबाद हो गया। 'उद्भावना' पत्रिका में प्रकाशित शबाना आज़मी ने अपने संस्मरण - 'अब्बा' में दिल को गुदगुदाने वाला क़िस्सा बयाँ किया हैं - "क्वीन मेरी हाई स्कूल में बच्चे का दाख़िला तभी हो सकता था जब बच्चे के माँ-बाप भी अँग्रेज़ी जानते हों, क्योंकि मेरे माँ-बाप अँग्रेज़ी नहीं जानते थे इसलिए मेरे दाख़िले के लिए मशहूर शायर सरदार जाफरी की बीबी सुल्ताना जाफरी मेरी माँ बनी और अब्बा के एक दोस्त मुनीश नारायण सक्सेना ने मेरे अब्बा का रोल किया।"
कैफ़ी कम्युनिस्ट पार्टी के कार्ड होल्डर थे। पार्टी हेतु काम करने के लिए उन्हें केवल ४५ रुपये महीना अपना घर चलाने के लिए मिलता था। शादी के बाद १९४८ से मुंबई जैसे शहर में घर चलाना मुश्किल हो गया। लिहाज़ा कैफ़ी साहब ने फ़िल्मों में गीत लिखकर आमदनी का अतिरिक्त ज़रिया खोजने की कोशिश की। शौकत आज़मी भी फ़िल्मों में कोरस गीत में हिस्सा लेकर घर चलाने में मदद करने लगीं। कैफ़ी आज़मी को उनके दोस्त शाहिद लतीफ़ ने अपनी फिल्म "बुज़दिल" में गीत लिखने का मौक़ा १९५१ में दिया। उन्होंने प्रसिद्ध गीतकार शैलेंद्र के साथ मिलकर अपने जीवन का पहला फ़िल्मी गीत - 'रोते रोते गुज़र गई रात रे' लिखा। कैफ़ी साहब ने तक़रीबन ८५ फिल्मों में लगभग २५० गीत लिखे। यह बात दीगर है, कि कैफ़ी बतौर गीतकार शैलेंद्र, मजरूह और साहिर की तरह ज़्यादा गीत नहीं लिख सके, लेकिन जितने लिखे, सभी क़ाबिले तारीफ़ हैं। गुरुदत्त की फ़िल्म 'प्यासा' के कैफ़ी आज़मी के दो गीत बेहद मक़बूल हुए - 'वक़्त ने किया क्या हँसी सितम' और 'देखी ज़माने की यारी, बिछड़े सभी बारी-बारी' ; ये दोनों गीत आज भी 'ऑल टाइम क्लासिक' की श्रेणी में शुमार है। इसके बाद उन्होंने एक के बाद एक ऐसे शानदार गीत लिखे, जो आज भी लोगों की ज़बान पर रहते हैं।
कैफ़ी साहब से मैं तीन बार मिला हूँ और उनसे मिलना हर बार यादगार रहा।
सन २००० में, मैं फ़ोन पर समय लेकर उनके गाँव मिजवाँ पहुँचा। दोपहर एक बजे मिलने का वक़्त तय हुआ था और मैं दो घंटे लेट लगभग तीन बजे पहुँचा। उन्होंने बड़ी गर्मजोशी से मेरा स्वागत किया और बोले, कि खाने के बाद बातें करेंगे। भोजन के बाद मैंने गीतकार शैलेंद्र को लेकर काफ़ी बातचीत की और उन्होंने शैलेंद्र को एक महान गीतकार और मज़दूरों-कामगारों का सच्चा दोस्त बताया। बातचीत के दौरान कैफ़ी साहब ने बताया, कि नज़्मों के मुक़ाबले फ़िल्मों के लिए नग़्में लिखना अधिक चुनौती भरा काम होता है। फ़िल्मों के गाने 'ट्यून' पर लिखने होते हैं। एक कामयाब गीतकार वही है, जो ट्यून और सिचुएशन के मुताबिक़ अच्छा, दिल छूने वाला ऐसा नग़्मा लिखे, जो सबके कानों में रस घोले और सुनने वाले की रूह तक पहुँचे। कैफ़ी साहब के नाम ऐसे कई रूहानी नग़्में हैं।
जब मैंने उन से देश की बढ़ती आबादी के कारण आर्थिक तरक़्क़ी में पड़ती बाधा के संदर्भ में पूछा, तो वे बोले - तक़रीबन ४० साल पहले 'एक के बाद एक' फ़िल्म में एक गीत के ज़रिए मैंने इस समस्या और उसके हल को अवाम तक पहुँचाने की कोशिश की थी -
उनका कविता संग्रह 'आवारा सज़्दे' साहित्य जगत में मील का पत्थर है। वे इप्टा के सक्रिय सदस्य रहे और निधन (१० मई २००२) से पूर्व कई सालों तक इप्टा के अध्यक्ष के रूप में मार्गदर्शन करते रहे। शिया-सुन्नी झगड़े पर 'अज़ा में बहते थे आँसू, यहाँ लहू तो नहीं; ये कोई और जगह है, ये लखनऊ तो नहीं ', बाबरी मस्जिद विध्वंस पर 'दूसरा बनवास', हिंदू-मुस्लिम झगड़े पर 'साँप' आदि नज़्में उनके सामाजिक सरोकारों के जीवंत दस्तावेज़ हैं। नई कविता के पुरोधा अज्ञेय जी ने 'साँप' के माध्यम से जैसे नगरीय मानव के दोहरे, दोगले और दिखावे वाले चेहरे और चरित्र को बख़ूबी बेनक़ाब किया है, उसी तरह कैफ़ी आज़मी ने 'साँप' नज़्म के ज़रिए सांप्रदायिकता पर करारा तंज़ कसा है, कैफ़ी साहब लिखते हैं -
सांप्रदायिकता का खुलकर विरोध करने वाले शायर कैफ़ी के गीत ख़ास-ओ-आम के मीत थे। कैफ़ी आज़मी को उर्दू साहित्य के विकास और विस्तार के लिये 'पद्मश्री' से नवाज़ा गया, जिसे उन्होंने यह कहकर लेने से इंकार कर दिया, कि ज़मीनी धरातल पर उर्दू का विकास और विस्तार नहीं हो रहा है, जिसके लिए सरकारी उदासीनता ज़िम्मेदार है। उनकी निर्भीकता के बारे में प्रखर आलोचक राम विलास शर्मा लिखते हैं, "बंबई में प्रगतिशील लेखक संघ पर जब सरकार ने पाबंदी लगाई तो कैफ़ी ने भिवंडी में गुप्त रूप से यह अधिवेशन कराया।" उत्तर प्रदेश सरकार ने उनके नाम पर सड़क का नामकरण कर तथा उनके साहित्यिक योगदान के लिए उनकी याद में लखनऊ में कैफ़ी आज़मी अकादमी का निर्माण कराकर क़ाबिले तारीफ़ काम किया है। भारत सरकार ने 'कैफ़ियत एक्सप्रेस' ट्रेन चलाकर जो कार्य किया है, वह वंदनीय और अभिनंदनीय है। एनसीईआरटी नई दिल्ली ने कैफ़ी आज़मी के देशप्रेम पर आधारित कालजयी गीत - 'कर चले हम फ़िदा जान-ओ-तन साथियों' पाठ्यक्रम में शामिल करके न केवल कैफ़ी आज़मी का सम्मान किया है, बल्कि इस गीत के द्वारा युवा पीढ़ी में राष्ट्र-प्रेम और देश-भक्ति का जज़्बा पैदा करने का प्रशंसनीय कार्य किया है।
जाने माने कवि शमशेर बहादुर सिंह ने आवारा सज़्दे की भूमिका में कैफ़ी आज़मी के बारे में लिखा है, "कैफ़ी का अंदाज़े बयाँ कुछ और है ...वह भावनाओं की पवित्रता, मुहावरे की शुद्धता और भाषा के स्वाभाविक सौंदर्य और सौष्ठव और इनकी परंपरा की ख़ूबसूरती को बरक़रार रखते हुए, एक आम दर्दमंद इंसान से एक आम दर्दमंद इंसान की तरह मिलता है ...अपनी कविताओं में।" मशहूर शायर और लेखक जावेद अख़्तर ने कैफ़ी साहब के इंतक़ाल पर बहुत मार्मिक नज़्म लिखी, जो कैफ़ी साहब की शख़्सियत को बख़ूबी बयान करती है -
संदर्भ
- याद की रहगुज़र - शौकत आज़मी, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली
- अपनी धरती अपने लोग - रामविलास शर्मा, किताबघर, नई दिल्ली
- नई गुलिस्ताँ - कैफ़ी आज़मी, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
लेखक परिचय
संस्थापक - शैलेंद्र सम्मान
जनकवि शैलेंद्र, धरती कहे पुकार के, तू प्यार का सागर है - पुस्तकों का संपादन। साप्ताहिक हिंदुस्तान, कादम्बिनी, परिकथा, नया ज्ञानोदय, प्रतियोगिता दर्पण, वसुधा, सरिता, आजकल, पुरवाई, अमर उजाला, दैनिक जागरण, हिंदुस्तान और राष्ट्रीय सहारा में अनेक लेख प्रकाशित।
संपर्क - केंद्रीय विद्यालय, भारतीय राजदूतावास, मॉस्को (रूस)
फोन - 9536445544 ; ईमेल - indrajeetrita61@gmail.com
शानदार प्रस्तुति।
ReplyDeleteहार्दिक आभार
Deleteइंद्रजीत जी, देश के विलक्षण शायर और गीतकार कैफ़ी आज़मी पर आपका आलेख पढ़कर मज़ा आ गया। आपको इसके लिए लिए बहुत-बहुत बधाई! आगे भी ऐसे आलेख हमें पढ़ाते रहिएगा। एक साँस में पढ़ लिया। आज कुछ नई बातें भी मालूम चली कैफ़ी आज़मी जी के बारे में। सच में, इन्होंने कितनी कम उम्र में अपनी शायरी के ज़रिये संदेशों से लोगों को प्रभावित करना शुरू कर दिया था। दो साल पहले इनके जन्मदिन पर गूगल ने भी डूडल बनाकर इन्हें याद किया था।
ReplyDeleteसरोज जी नमस्कार और हार्दिक आभार
Delete[4:14 pm, 15/01/2022] Harpreet Singh Puri: मुझे याद आती है वह खुशनसीब शाम जब कैफ़ी साहब की ज़िंदगी के आख़िरी दौर में हमने उन्हें व्हीलचेयर पर बैठे हुए दुशाला ओढ़े हुए मुशायरे की निज़ामत करते देखा और उनकी बुलंद आवाज़ में उनकी नज़्म भी सुनी। मेरा उनसे पहला परिचय लड़कपन में तब हुआ जब यह सुना : “ मैं यह सोचकर उसके दर से उठा था , कि वह रोक लेगी, मना लेगी मुझको।” पता किया कि किसने लिखा है। उसके बाद तो उनकी नज़्में छा गईं। बहुत गहरी सोच के शायर थे कैफी साहब ।
ReplyDeleteइंद्रजीत सिंह जी , यह समूह बहुत सौभाग्यशाली है कि आप जैसे अनमोल हीरे इस समूह को शोभायमान कर रहे हैं। आपके आलेख के बारे में क्या बयान करें ; इसकी गहनता , शोध-परकता, भाषा-कौशल खुद-ब-खुद आपके अनुभव, ज्ञान एवं साहित्यिक प्रतिभा की गवाही देते हैं।आपका बहुत आभार कि आप हमें इतना सुंदर , प्रभावशाली लेखन भेंट कर रहे हैं। हिंदी और उर्दू , दोनों में आप सहज रवानी से लिखते हैं। वाहेगुरु के आगे यही अरदास है कि आप इसी प्रकार अनवरत लिखते रहें और साहित्यिक जगत को लाभान्वित करते रहें। 💐🙏
प्रिय वीर हरप्रीत जी आपके स्नेह और प्रोत्साहन भरे शब्दों के लिए शुक्रिया l
Deleteकैफ़ी साहब अदब और इंसानियत की मिसाल थे। उनकी नज्में इस बात का यक़ीनी सबूत हैं कि आदमी की पहचान उसके मजहब से नहीं इल्म से होनी चाहिए। आपने बहुत बारीकी से काफी साहब के जीवन को उकेरा है। बधाई
ReplyDeleteआपका बहुत शुक्रिया l
Deleteझुकी झुकी सी नजर बे-करार हैं कि नहीं
ReplyDeleteदबा दबा ही सही दिल में प्यार हैं कि नहीं
तुम इतना जो मुस्कुराह रहे हो
क्या ग़म हैं जिसको छुपा रहे हो
इतनी खूबसूरत शायरी / गजल के रचनाकार कैफ़ी साहब प्रगतिशील साहित्यकार के साथ-साथ इंकलाबी शायर भी थे। उनकी कलम/ रचना जिंदगी के उतार-चढ़ाव और हकीकत से मुलाकात कराती थी। अपने वैयक्तिक मुलाकात का जिक्र करके आद. डॉ इंद्रजीत सिंह द्वारा लिखा गया यह आलेख इतना रोचक और जानकारीपूर्ण हैं कि एक सांस में पढ़कर ही दम लेने की इच्छा हुई। कैफ़ी साहब के कुछ व्यक्तिगत पहलुओं पर प्रकाश डालकर इंद्रजीत जी ने हमें उनके जीवन का आत्मसात कराया हैं। अतिसुन्दर लेख के लिए आपका आभार और अग्रिम सारे लेख के लिए हार्दिक अभिवादन और शुभकामनाएं।
सूर्या जी नमस्कार l लेख को सराहने के लिए हार्दिक आभार
DeleteGood article
ReplyDeleteशुक्रिया
DeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteइंद्रजीत जी, मक़बूल शायर कैफ़ी आज़मी के बारे में आपकी क़लम से यह निकला आलेख बेहतरीन है। कैफ़ी साहब ने लखनऊ में दीनी तालीम न लेकर प्रगतिशील विचारकों से जुड़कर हम हिंदी प्रेमियों के लिए निश्चित बड़ा काम किया। बड़े ज़मींदार के बेटे ने पीड़ितों और समाज के कमज़ोर हल्क़ों के लोगों के लिए कुछ कर गुज़रने की तमन्ना से कॉम्युनिस्ट पार्टी के लिए बतौर होल टाइमर काम किया। आपके लेख से कई नई और रोचक बातें पता चलीं, इस आलेख ने ज़हनी और रूहानी दोनों तौर से मुझे समृद्ध किया। इस लेख के लिए आपका बहुत बहुत शुक्रिया और बधाई।
ReplyDeleteप्रिय प्रगति जी नमस्ते l आपने इस लेख को अपने संपादन से और भी खूबसूरत और रोचक बना दिया है l आपके सहयोग के लिए हार्दिक आभार l
Deleteकैफ़ी साहब के बारे में बहुत सुंदर व रोचक तऱीके से लिखा गया आलेख। नवीन जानकारी भी मिली। आपको इसके लिए बहुत बधाई।
ReplyDeleteडॉ. इंद्रजीत सिंह जी, आपने कैफ़ी आज़मी साहब पर बेहद उम्दा लेख लिखा है। लेख को पढ़ने में आंनद आया साथ में नई जानकारी भी मिली। आपको हार्दिक बधाई एवं साधुवाद।
ReplyDeleteडॉक्टर दीपक जी नमस्कार l हार्दिक आभार l
Deleteकैफी आज़म पर बहुत ही अच्छा आलेख। कैफी आज़मी शायर ही नहीं बल्कि एक वामपंथी सामाजिक और राजनीतिक कार्यकर्ता भी रहे। उनकी ' औरत' तथा आजादी की पच्चीसवां वर्षगांठ पर लिखी नज्म़' एक एक कर पच्चीस दिए जलाए मैने', ६ दिसम्बर,१९९२ में बाबरी मस्जिद ध्वंस पर राम पर लिखी उनकी कविता'दूसरा वनवास' साम्प्रदायिकता के खिलाफ़ प्रतिरोध के लिएएक मील का पत्थर है।-सुनील
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