संपादकाचार्य ‘शिवजी’
सादगी, सरलता और विनम्रता की प्रतिमूर्ति आचार्य शिवपूजन सहाय एक कथाकार, व्यंग्यकार, भाषाशास्त्री, भाषा-परिमार्जक, निबंधकार और आलोचक से भी बढ़कर एक संपादक थे और उनकी संपादन-दक्षता साहित्यिक खेमों में विख्यात थी। तभी तो उस काल के लगभग हर छोटे-बड़े पत्र-पत्रिकाओं में उनके संपादकीय सहयोग की माँग होती थी। वे भी इन आग्रहों को सहर्ष स्वीकारते थे और कभी-कभी तो अपनी नौकरी से अवकाश लेकर दूर-दराज़ के शहरों में जाकर संपादन-कार्य को अंजाम देते थे। शायद इसीलिए उन्हें हिंदी साहित्य का अजातशत्रु कहा गया है।
साथी रचनाकार उन्हें प्रेम व श्रद्धा से 'शिवजी' बुलाते थे। अपने समकालीन साहित्यकारों के बीच उनकी साख का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जो रचनाएँ उनके संपादन से गुज़र गईं, उनकी पठनीयता निश्चित रूप से बढ़ जाती थी और कुछ तो साहित्य की कालजयी कृति होने का सुख भोग रही हैं। कथा-सम्राट प्रेमचंद की रंगभूमि समेत कई कहानियाँ, डॉ. राजेंद्र प्रसाद की आत्मकथा तथा जयशंकर प्रसाद की कामायनी तक को शिवजी की पारखी नज़रों से गुज़रने का सौभाग्य प्राप्त है। उन्होंने कामायनी के छंदों में कई बदलाव सुझाए थे, जिसे जयशंकर प्रसाद ने सहर्ष स्वीकार किया था।
शिवजी के बेहद नज़दीक रह चुके छविनाथ पांडेय लिखते हैं, "शिवजी ने लिखा बहुत कम है, क्योंकि बेगार करने से उन्हें फ़ुर्सत नहीं मिलती थी। जो कोई भी उनके यहाँ अपना पोथा लेकर पहुँचा, उसके हठाग्रह को वे टाल नहीं सके और उसी में अपने को खपाते रहे। उनके इस गुण का लोगों ने चरम सीमा तक दुरूपयोग किया। कितने ही लोग अपने ग्रंथ को प्रकाशित कर यशस्वी पत्रकार बन गए हैं। यदि उन ग्रंथों की हस्तलिपि देखी जाए, तो प्रकट होगा कि उनका अपना दस प्रतिशत भी उसमें नहीं है। पूरी की पूरी हस्तलिपि लाल स्याही से रँगी है। साहित्य की सेवा में उन्होंने दधीचि की तरह अपना सब कुछ न्योछावर कर दिया था।"
हम जैसे हिंदी प्रेमियों को यह पढ़कर चाहे कितना भी संताप हो, शिवजी को कभी इस बात का मलाल नहीं हुआ। हिंदी की सेवा उनका पहला धर्म था और इस धर्म की रक्षा हेतु उन्होंने कभी किसी फल की कामना नहीं की। हज़ारी प्रसाद द्विवेदी लिखते हैं, "आचार्य शिवपूजन सहाय विनय और शील के मूर्तिमान रूप थे। साहित्य सेवा उनका स्वभाव था। कालिदास ने जिसे "कांचन-पद्म-धर्मिता" कहा है, वह पूर्ण रूप से उनमें मिलती है - दृढ़, उज्ज्वल और कोमल!"
आचार्य शिवपूजन सहाय को उनके जीवन के उत्तरार्द्ध में भारत सरकार ने पद्मभूषण से नवाज़ा था, किंतु इससे पूर्व ही वे हिंदी साहित्य जगत के संपादकाचार्य, साहित्यभूषण, विनयमूर्ति, हिंदी-भूषण, बिहार-विभूति आदि कई संबोधनों से सुशोभित हो चुके थे।
जीवन यात्रा
९ अगस्त १८९३ को बिहार के एक छोटे से गाँव में जन्मे इस बालक को जैसे बचपन से ही पता था कि वह हिंदी भाषा के उत्थान के लिए बना है। उन्होंने १९१२ में आरा (बिहार) के एक हाई स्कूल से मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की किंतु अर्थाभाव के कारण आगे पढ़ न सके। भाषा और साहित्यानुराग के बलबूते पर उन्होंने 'हिंदी-भूषण' की उपाधि प्राप्त की और अपने ही विद्यालय में हिंदी शिक्षण में लग गए। महात्मा गाँधी के असहयोग आंदोलन के आह्वान पर १९२० में शिक्षक के उस सरकारी पद से त्यागपत्र देकर राष्ट्रीय आंदोलन में शामिल हो गए। इस आंदोलन में उनका हथियार बनी उनकी कलम और ज़रिया बनी पत्रकारिता। उन दिनों आरा की नागरी प्रचारिणी सभा हिंदी के विद्वानों एवं समर्पित सेवकों का एक महत्वपूर्ण केंद्र थी। आरा से निकलने वाली एक साप्ताहिक पत्रिका 'मनोरंजन' के प्रथमांक में किशोर शिवपूजन सहाय का एक लेख छपा, 'परोपकार', जो आरा के साहित्यिक मंचों पर छा गया। शीघ्र ही उन्हें वहाँ के एक रईस देवेंद्र कुमार जैन द्वारा प्रकाशित त्रिवेणी, प्रेमकली, प्रेम-पुष्पांजलि, तथा सेवाधर्म पत्रिकाओं में संपादन का कार्य मिल गया। इसी बीच आरा से ही प्रकाशित एक अन्य सचित्र मासिक पत्रिका 'मारवाड़ी-सुधार' में संपादन के लिए उन्हें बुलावा आया। संयोग से, इस पत्रिका के मुद्रण हेतु वे कलकत्ता भेजे गए, और यहीं से आरंभ हुआ पत्रकारिता का नया अध्याय, जिसमें साहित्य की लगभग सभी विधाओं के पन्ने जुड़ते गए।
१९२३ में कलकत्ता में ही अपने साहित्यिक गुरु पं. ईश्वरी प्रसाद शर्मा के आग्रह पर मासिक पत्र 'मतवाला' के 'संपादक-मंडल' में शामिल हो गए। मंडल में पांडेय बेचन शर्मा 'उग्र' व सूर्यकांत त्रिपाठी निराला सरीखे प्रतिष्ठित नाम जुड़े हुए थे। मतवाला का प्रथम अंक २६ अगस्त १९२३ को निकला और बाज़ार में आते ही इसकी धूम मच गयी। अपने कलकत्ता प्रवास की अल्पावधि में ही उन्होंने 'आदर्श', 'मौजी', 'उपन्यास तरंग', 'समन्वय' आदि कई पत्रों में संपादकीय सहयोग दिया। इस दौरान, कुछ समय के लिए, साल १९२४ में उन्हें कानपुर से प्रकाशित 'माधुरी' पत्रिका में भी संपादन का आग्रह आया, जहाँ उन्हें प्रख्यात कहानीकार प्रेमचंद के साथ कार्य करने का अवसर मिला। वर्ष १९३१ में कुछ अवधि के लिए बिहार के भागलपुर के समीप सुल्तानगंज से निकलने वाली 'गंगा' का संपादन करने वहाँ गए, किंतु शीघ्र ही, १९३२ में, जयशंकर प्रसाद की पाक्षिक पत्रिका 'जागरण' का संपादन करने हेतु उन्हें वापस वाराणसी बुला लिया गया। यहाँ, एक बार फिर वे प्रेमचंद से जुड़े। साथ ही वे नागरी प्रचारिणी सभा के महत्वपूर्ण सदस्य बनकर उभरे और वाराणसी के साहित्यिक मंचों पर उनकी पहचान बन गई।
उनकी विद्वता और ख्याति से प्रभावित होकर राजेंद्र कॉलेज के प्रबंधक-मंडल
ने उन्हें बिना एम. ए. डिग्री के ही महाविद्यालय में हिंदी प्राध्यापक के पद पर नियुक्त
कर लिया, जहाँ वे १९३८ से १९४९ तक कार्यरत थे। पटना पुस्तक भंडार ने १९४६ में अपनी
मासिक पत्रिका 'हिमालय' के संपादन के लिए एक बार फिर शिवजी का मुँह ताका, तो वे स्वेच्छा
से अवकाश लेकर पटना चल दिए। नामालूम उनके पैरों
में कर्म के कौन से पहिए लगे थे कि कलकत्ता, वाराणसी, लखनऊ, कानपुर, भागलपुर, दरभंगा, छपरा इत्यादि में वे ज्यादा देर तक नहीं रह सके! अंततः पटना को उन्होंने अपना स्थायी आशियाना बनाया। पटना में १९४९ में बिहार
राष्ट्रभाषा परिषद की स्थापना हुई और आचार्य जी को इसका प्रथम निदेशक (मंत्री) नियुक्त किया गया। नेतृत्व की इस नई भूमिका में भी शिवजी
एक सेवक के समान अंतिम क्षणों तक कार्य करते रहे।
‘शिवजी’ के दिए साहित्यिक वरदान
हिंदी नवजागरण के तीसरे चरण के अग्रदूत, राष्ट्रवादी पत्रकारिता
के सजग शोधक, भाषा उन्नायक, मानवतावादी मूल्यों के पोषक आचार्य शिवपूजन सहाय ने कहानी
लेखन उस दौर में आरंभ किया था, जब हिंदी कहानी अपनी शैशवावस्था में थी। अपनी पहली कहानी 'हठभगत' उन्होंने १९११ में ही लिखी थी। कालांतर में उनकी कहानियाँ तत्कालीन
पत्र-पत्रिकाओं यथा - साहित्य-समालोचक, उपन्यास-तरंग, सरोज, मारवाड़ी-सुधार, मनोरमा,
पाक्षिक जागरण आदि में प्रकाशित होती रहीं।
वर्ष १९२५ में प्रथम कहानी-संग्रह 'महिला-महत्त्व' प्रकाशित हुआ, जिसे बाद में 'विभूति' के नाम से प्रकाशित किया गया। इसमें तेरह कहानियाँ संकलित हैं।
आचार्य जी ने मात्र सोलह कहानियाँ लिखी थीं, जिनमें अधिकतर में प्रधान-पात्र महिलाएँ
थीं। उनका मानना था कि स्त्री का मातृत्व प्रेम, उदारता, क्षमाशीलता, दयाभाव, उसके
स्त्री होने के गुण हैं। इन्हीं गुणों के आधार पर उन्होंने अपनी महिला-पात्रों का चित्रण
किया था। उनकी कहानियों में एक ओर इतिहास की वीरांगनाएँ देश की शान के लिए सर्वस्व
समर्पित कर आत्म-गौरव और देश-गौरव का परिचय देती हैं, तो दूसरी ओर समाज की साधारण स्त्रियाँ
विविध सामाजिक विडंबनाओं की शिकार होती दिखाई गई हैं। मुण्डमाल
की हाड़ा रानी, कहानी का प्लॉट की भगजोगनी, विषपान की कृष्णाकुमारी, सतीत्व की उज्ज्वल
प्रभा की प्रभावती - ये सभी पात्र इसका
प्रमाण हैं। उनके एकमात्र उपन्यास देहाती दुनिया
को प्रथम आंचलिक उपन्यास कहा जाता है। उनकी कहानियों में आडंबर या बनावटीपन नहीं है। शिवजी मिट्टी से पटकथा उठाते हैं, मिट्टी में डुबोकर ऐसा दृश्य उपस्थित करते हैं कि पाठक
आश्चर्यचकित हो जाता है।
आचार्य जी का साहित्य संसार जीवन के उच्च विचारों, राष्ट्रीय चेतना,
तीक्ष्ण व्यंग्य दृष्टि तथा सहज मानवीय संवेदनाओं से युक्त है। उनकी भाषा विषय अनुरूप ढल जाती थी। उदाहरणस्वरुप -
"दिग-दिगंत में ऋतु कंत बसंत
की अनंत छवि छा गयी। मानमर्दिनी, मनोविनोदनी, प्राणोन्मादिनी ऋतु आ गयी। दिशाएँ दीप्तिमती
हो गयीं। चतुर्दिक नयन मन रंजनी छा गयी। कोयल
कुहुक-कुहुक कर कमनीय कलकंठ से मधु बरसाने लगी। सरसों की सुहावनी सरसता में वसुन्धरा
सरसाने लगी। मधुक की मधुर सुगन्ध तबीयत तरसाने लगी।"
और दूसरी तरफ, गाँवों के यथार्थ कुछ इस तरह बतलाते हैं -
भाषा में ऐसी विविधता एक सच्चा भाषाविद् ही ला सकता है। वे व्याकरण
सम्मत सरल भाषा का प्रयोग कर हिंदी के शाब्दिक आडंबरों से बाहर निकलकर आम आदमी के
लिए लिखते थे। उनकी लेखनी कहानी व उपन्यास तक ही सीमित नहीं रही बल्कि निबंध, जीवनी,
संस्मरण, बाल-साहित्य, व्यंग्य-विनोद, समीक्षा, आलोचना, और अनगिनत संपादकीय से समृद्ध
है। उनके निबंधों में भी विषय की विविधता विस्मय करने वाली है। साहित्य, संस्कृति,
कला, इतिहास, सामाजिक सरोकार जैसे विषयों पर तार्किक और सारगर्भित प्रस्तुति।
वे भाषा और संस्कृति के कई मोर्चों पर एक साथ सक्रिय थे। वे पुस्तक
संस्कृति के पक्षधर थे और जीवनपर्यंत पुस्तकालयों व संग्रहालयों की स्थापना एवं संरक्षण
पर बल देते रहे। स्वयं शिवपूजन सहाय के शब्दों में, "आजतक जितनी छोटी-बड़ी पुस्तकें और पत्र-पत्रिकाएँ प्रकाशित हो चुकी हैं, या
आजकल प्रकाशित हो रही हैं, और आगे होंगी, उन सबका सिलसिलेवार संग्रह किसी एक स्थान
पर सुनिश्चित होना चाहिए। यदि हिंदी को राष्ट्रभाषा मानने वाले हम लोग यत्नवान न होंगे, तो किसी समय ऐसे संग्रहालय का अभाव बहुत खलेगा।"
उनका हिंदी से अथाह प्रेम उन्हीं की लिखी इन पंक्तियों से साफ़
झलकता है - "हम सब हिंदी भक्तों को मिलकर ऐसा
प्रयत्न करना चाहिए कि साहित्य के अविकसित अंगों की भली-भाँति पुष्टि हो और अहिंदी भाषियों की मनोवृत्ति हिंदी के अनुकूल हो जाए।"
अपने निबंध 'हिंदी और हिंदुस्तानी' में हिंदी की ग्राह्यता-शक्ति
पर वे लिखते हैं - "अब तक हिंदी भाषा अरबी, फ़ारसी, तुर्की, अंग्रेज़ी, पोर्तुगीज़ आदि
विदेशी भाषाओं के हज़ारों शब्दों को पचाकर पर्याप्त शक्ति अर्जित कर चुकी है।"
हिंदी की दीर्घकालिक सेवा के लिए भारत सरकार ने १९६० में उन्हें
पद्मभूषण से अलंकृत किया। पटना नगर निगम ने १९६१ में नागरिक अभिनंदन से सम्मानित किया।
भागलपुर विश्वविद्यालय ने १९६२ में डी. लिट की मानद उपाधि दी। किंतु एक दीर्घकालिक
बीमारी से जूझते हुए बड़ी दयनीय स्थिति में २१ जनवरी १९६३ को हिंदी का यह नायाब हीरा
अपनी सारी चमक न्योछावर कर उसी मिट्टी में विलीन हो गया, जिसकी सेवा में वह निःस्वार्थ
भाव से निरंतर लगा रहा। एक साहित्यिक महात्मा के साथ अन्याय की कई गाथाएँ हैं, जो
फिर कभी सुनाई जाएँगी।
आचार्य शिवपूजन सहाय को जीवनकाल में जो सम्मान प्राप्त नहीं हुआ,
उसकी भरपाई उनके निधन के बाद राष्ट्रकवि दिनकर कुछ इस तरह करते हैं, "सहाय जी की सोने की प्रतिमा लगाई जाये और उस पर
हीरे-मोती जड़े जाएँ, तब भी हिन्दी साहित्य में उनके योगदान की भरपाई नहीं की जा सकती
है।"
देश के प्रथम राष्ट्रपति देशरत्न डॉ. राजेंद्र प्रसाद लिखते हैं, "मूक हिंदी सेवा ही व्रत था आचार्य शिवजी का। इस प्रकार के हिंदी सेवक देश में और अधिक पैदा
हों। हिंदी सेवा देश-सेवा का अभिन्न अंग है।" फ़ादर कामिल बुल्के उन्हें विनयमूर्ति,
सौजन्यावतार, परमपूज्य एवं परमप्रिय बताते हैं, वही विष्णु प्रभाकर उन्हें हिंदी साहित्य
का स्वर्ण-स्तंभ मानते हैं। नामवर सिंह उनके विषय में लिखते हैं, "हिंदी साहित्य में शिवपूजन सहाय की छवि वही है, जो भारतीय राजनीति में लाल बहादुर शास्त्री की। विनयशीलता की साक्षात् मूर्ति! तपे हुए कंचन सा खरा। तीक्ष्ण तन-पीन मन"
साहित्य के इस अनमोल हीरे के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि यही होगी
कि हम उनके सुझावों को साहित्य एवं पत्रकारिता जगत में आत्मसात कर उसके उत्थान में
प्रयत्नशील रहें।
आचार्य शिवपूजन सहाय |
|
नाम |
आचार्य शिवपूजन सहाय, भोलानाथ (पिताजी द्वारा दुलार से दिया नाम),
शिवजी (मित्रों व् सहकर्मियों द्वारा पुकारा जाने वाला नाम) |
प्रचलित संबोधन |
आचार्य जी, हिन्दी-भूषण, संपादकाचार्य, विनयमूर्ति, साहित्यभूषण,
अजातशत्रु, बिहार-विभूति |
जन्म |
९ अगस्त, १८९३; उनवास गाँव, ज़िला: बक्सर (अब), भोजपुर (तब) |
मृत्यु |
२१ जनवरी, १९६३; पटना, बिहार |
माता-पिता |
राजकुमारी देवी - वागेश्वरी सहाय |
शिक्षा |
मैट्रिक पास, आरा |
साहित्य का वृहद और समृद्ध संसार |
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कहानी/ उपन्यास/ निबन्ध |
मुण्डमाल, कहानी का प्लाट, माता का आँचल (दसवीं कक्षा की हिन्दी
टेक्स्ट बुक में शामिल), दो पड़ी (व्यंग्य), माँ के सपूत (बालोपयोगी), अर्जुन, भीष्म
(जीवन-चरित), बिहार का विहार, देहाती दुनिया (१९२६ - प्रथम आंचलिक उपन्यास), विभूति
(१९३५), शिवपूजन रचनावली (४ खण्डों में) (१९५६-५९), वे दिन वे लोग (१९६५), बिम्ब-प्रतिबिम्ब (१९६७),
मेरा जीवन (१९८५), स्मृतिशेष (१९९४), हिन्दी भाषा और साहित्य (१९९६), ग्राम-सुधार
(२००७), शिवपूजन सहाय साहित्य समग्र (१० खण्डों में - २०११) |
सम्पादित पत्र-पत्रिकाएँ |
मारवाड़ी सुधार (१९२१), मतवाला (१९२३), माधुरी (१९२४), समन्वय
(१९२५), मौजी (१९२५), गोलमाल (१९२५), गंगा (१९३१), जागरण (१९३२), बालक (१९३४), हिमालय
(१९४६-४७), साहित्य (१९५० – ६२) |
संपादन कार्य |
रंगभूमि (१९२५), द्विवेदी अभिनन्दन ग्रन्थ (१९३३), जयन्ती स्मारक
ग्रन्थ (१९४२), अनुग्रह अभिनन्दन ग्रन्थ (१९४६), आत्मकथा (डॉ. राजेन्द्र प्रसाद की
जीवनी) (१९४७), राजेन्द्र अभिनंदन ग्रन्थ (१९५०), अयोध्या प्रसाद खत्री स्मारक ग्रन्थ
(१९६०), हिन्दी साहित्य और बिहार (खण्ड १-२, १९६०, १९६३), बिहार की महिलाएँ (१९६२) |
विशेष योगदान |
१९१० से १९६० तक विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में तत्कालीन सामाजिक-सांस्कृतिक
विषयों पर सारगर्भित लेख प्रकाशित होते रहे।
हिन्दी पत्रों और पत्रकारिता की स्थिति पर इनकी गम्भीर व चुटीली टिप्पणियाँ
इन पत्रों का मुख्य आकर्षण होती थीं। |
अन्य जानकारी |
अन्नपूर्णा के मंदिर में (ग्रामोद्धार सम्बन्धी लेखों का संग्रह);
‘देहाती दुनिया’ की पहली पाण्डुलिपि लखनऊ के हिन्दू-मुस्लिम दंगे में नष्ट हो गयी
थी। |
पुरस्कार एवं सम्मान |
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१९६० |
पद्मभूषण, भारत सरकार |
१९६२ |
डी. लिट् की मानद उपाधि, भागलपुर विश्वविद्यालय |
संदर्भ
https://web.archive.org/web/20180731153556/http://vagishwari.blogspot.com/?m=1
https://www.hindisamay.com पर कृपा शंकर चौबे का शिवपूजन सहाय पर लेख
साहित्य यात्रा – साहित्यिक-सांस्कृतिक यात्रा का साक्षी, अंक २३, जुलाई-सितम्बर २०२०
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B6%E0%A4%BF%E0%A4%B5%E0%A4%AA%E0%A5%82%E0%A4%9C%E0%A4%A8_%E0%A4%B8%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%AF (स्टाम्प चित्र)
लेखक परिचय
बिहार की माटी में जन्मी दीपा लाभ हिंदी से प्यार करती हैं और हिंदी के प्रति समर्पित साहित्यकारों के प्रति असीम श्रद्धा रखती हैं। आचार्य शिवपूजन सहाय जी के विभिन्न सुझावों में से किसी एक का भी हिस्सा बन सकीं तो उसे अपना सौभाग्य मानेंगी। लगभग १३ वर्षों से अध्यापन कार्य से जुड़ी दीपा लाभ भाषा का महत्व समझती हैं और इसे समृद्ध बनाने के लिए सदा प्रयासरत हैं। आप 'हिंदी से प्यार है' समूह की सक्रिय सदस्या हैं तथा 'साहित्यकार तिथिवार' परियोजना की प्रबंधक-संपादक हैं।
आदरणीया दीपा लाभ जी, सादर प्रणाम।
ReplyDeleteसाहित्यकार तिथिवार के अंतर्गत आज साहित्य शिल्पी आचार्य शिवपूजन सहाय जी के विषय में आपने जो वैदुष्य पूर्ण लेख प्रस्तुत किया वह अनेक रोचक तथ्यों से भरा हुआ है। शोधार्थियों और साहित्यिक रुचि के अध्येताओं के लिए अत्यंत उपयोगी है। सार्थक और रोचक सृजन हेतु आपको बधाई एवं अनन्त शुभकामनाएँ।
डॉ. अनिरुद्ध कुमार अवस्थी
प्रवक्ता - हिन्दी
किशोरी रमण इण्टर कालेज, मथुरा
आचार्य जी के बारे में इतना पता नही था। बहुत बहुत शुक्रिया!
ReplyDeleteदीपा जी, आचार्य शिवपूजन सहाय जी के बारे में आपने बहुत बढ़िया लेख लिखा है। आपके हर लेख की भाँति यह लेख भी शोधपूर्ण एवं रोचक है। जिस तरह अथक परिश्रम से आप एक के बाद एक बेहतरीन लेख पटल में उपलब्ध करा रही हैं इसके लिए आप विशेष प्रशंसा की पात्र हैं। आपको बहुत बहुत बधाई एवं साधुवाद।
ReplyDeleteदीपा, सबसे पहले तो हिंदी साहित्य के पितामाह शिवपूजन सहाय के सम्मुख नतमस्तक हूँ। हिंदी सेवा के उद्देश्य को मन में साध कर आजीवन उसकी पूर्ति के लिए सहज-असहज कार्यों में रत रहे सहाय जी का विस्तृत परिचय प्राप्त करके अभिभूत हूँ। जैसा कि तुमने लिखा, उनके सुझावों की राह पर चलकर ही हम उन्हें अपनी श्रद्धांजलि दे सकते हैं। इस आलेख से ऐसा करने की प्रेरणा जागृत होती है। सादर और सस्नेह लिखे इस आलेख के लिए बहुत-बहुत बधाई और आभार।
ReplyDeleteदीपा जी, आपका आज का आलेख पढ़ा। शिव पूजन सहाय जी की गरिमा में तो लेख में उद्धृत बड़े बड़े विद्वान इतना कुछ कह चुके हैं , कि हमें कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है। मैं आपकी हर आलेख पर मेहनत से बहुत प्रभावित हूँ। आप शोध पर बहुत काम करती हैं और साहित्यकार की जीवन यात्रा को इतने विस्तार से बताती हैं कि लगता ही नहीं, कोई शब्द सीमा है । एक छोटी पुस्तक जितनी जानकारी तो होती है। आपको बधाई एवं इसी प्रकार अनवरत लिखते रहने के लिए शुभकामनाएँ । 💐
ReplyDeleteहिंदी नवजागरण के जनोन्मुखता आचार्य शिवपूजन सहाय स्त्री शिक्षा, हिंदी भाषा तथा ग्राम्य जीवन में सुधार पर अनगिनत साहित्य निबंध लिखने वाले वैचारिक साहित्यकार थे। आपने नवजागरण कालीन में भारतीय परम्परवादी स्त्री के मूल्य तथा उनके अस्तित्व को मूल रूप से गढ़ा है। आदरणीया दीपा जी ने उनके जीवन के कुछ अनछुए पहलुओं को छू कर हमें कृतार्थ किया है। आपका आलेख तो ज्ञानवर्धक और प्रभावशाली तो है ही पर साथ साथ आचार्य सहाय जी के साहित्य का वरदान भी प्राप्त कराता है। आपके सुंदर,सरल और सहज शब्दरचना वाले आलेख से सच्ची श्रंद्धाजलि अर्पित की गई है। आचार्य शिवपूजन सहाय जी के व्यक्तित्व से परिचित कराने हेतु आपका आभार। अनन्त बधाई और शुभकामनाएं।
ReplyDeleteआप सभी का हृदय से आभार!
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