Friday, July 15, 2022

कवि वृन्द : नीतिकाव्य परम्परा के यशस्वी प्रणेता


करत करत अभ्यास के, जड़मति होत सुजान।
रसरी आवत जात ते, सिल पर परत निशान।।


इस दोहे को हम सभी ने अपने जीवन में न जाने कितनी बार सुना होगा और कई बार दूसरों को सुनाया भी होगा। इसके रचयिता, मधुर भाषा में कर्म और सतत साधना का महत्व बताने वाले, नीतिकाव्य परंपरा के यशस्वी प्रणेता कविवर वृन्द हैं। हिन्दी साहित्य मे रीतिकालीन युग यों तो शृंगारिक, अलंकारिक एवं आचार्यत्व के प्रदर्शन के लिये जाना जाता है। लेकिन इस युग में नैतिक काव्य सृजन की परंपरा भी महत्वपूर्ण रही है। लोक व्यवहार में नैतिक मूल्यों का महत्व काव्य रचनाओं के माध्यम से जन-जन तक पहुँचाने में रीतिकालीन कवियों में कवि वृन्द का नाम सर्वोपरि है। इनकी सूक्तियों से धर्म, राजनीति और जीवन मूल्यों को समझने में मदद मिलती है। ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ पुस्तक में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल कवि वृन्द के बारे में लिखते हैं – “खोज में शृंगार शिक्षा और भाव पंचाशिका नाम की दो रस संबंधी पुस्तकें मिली हैं पर इनकी ख्याति अधिकतर सूक्तिकार के रूप में ही है।‘

वृन्द के पूर्वज बीकानेर के रहने वाले थे। हालांकि अन्य प्राचीन कवियों की भाँति वृन्द के जीवन परिचय के भी प्रमाणिक तथ्य नहीं मिलते हैं। प. राम नरेश त्रिपाठी इनका जन्म सन् १६४३ में मथुरा (उ.प्र.) क्षेत्र के किसी गाँव का बताते हैं, जबकि डॉ. नागेंद्र ने मेड़ता गाँव को इनका जन्म स्थान माना है। वृन्द जाति के सेवक अथवा भोजक थे। इनके पिता रूप जी जोधपुर राज्यान्तर्गत मेड़ते में जा बसे थे। वहीं सन् १६४३ (संवत १७००) में पिता रूप जी और माता कौशल्या का घर-आँगन एक शिशु की किलकारी से गूँज उठा। इस शिशु का नाम उन्होंने 'वृन्दावन दास' रखा। जिन्हें साहित्य की दुनिया में कवि वृन्द के नाम से जाना गया। वृन्द की पत्नी का नाम नवरंगदे था। वृन्द की शिक्षा मेड़ता से प्रारंभ हुई। लगभग नौ-दस वर्ष की अवस्था में वे अध्ययन के लिये काशी आये और तारा जी नामक एक पंडित के पास रहकर उन्होंने साहित्य, दर्शन, व्याकरण, वेदान्त, गणित आदि का ज्ञान प्राप्त किया और काव्य रचना सीखी। लेकिन मूल रूप से कविता के संस्कार इन्हें परिवार से ही प्राप्त हुए थे। इनके पिता रूप जी भी एक प्रतिष्ठित कवि थे। जिनकी प्रसिद्धि ‘रसरूप’ नामक ग्रंथ के रचनाकार के रूप में थी। इसलिए वृंद को बचपन से ही साहित्यिक संस्कार मिलने लगे थे। पूर्ण शिक्षा प्राप्त कर, मेड़ते वापस लौटने पर वृन्द को इनके पिता, जोधपुर के महाराजा जसवंत सिंह के दरबार में लेकर गए, जो कवि वृन्द के पहले आश्रयदाता बने। वृन्द जी की कविता को सुनकर सभा में बैठे सभी लोग मंत्रमुग्ध हो जाते थे। वृन्द ने अपनी काव्य रचनाओं के सुमधुर पाठ के माध्यम से लोगों के दिल में अपना एक विशेष स्थान बनाया। जसवंत सिंह के लिए लिखी गयीं वृंद जी की पंक्तियाँ :

देह देहरान छोड़ दोऊ गए देबलोक, ताते ए गिराये यह तंत विरतंत को।
मानो जसबंत मांहि अंस हुतो देब को, देबान में अंस हुतो राजा जसवंत को।।

तत्पश्चात जसवंत सिंह के यत्नों से औरंगज़ेब के कृपापात्र नवाब मोहम्मद खाँ के माध्यम से वृन्द का प्रवेश शाही दरबार में हुआ। दरबार में "पयोनिधि परयो चाहे मिसरी की पुतरी" नामक समस्या की पूर्ति करके इन्होंने औरंगज़ेब को प्रसन्न कर दिया था। औरंगजेब ने वृन्द को अपने पौत्र अजी मुश्शान का अध्यापक नियुक्त कर दिया। जब अजी मुश्शान बंगाल का शाशक हुआ तो वृंद उसके साथ चले गए। अपने जीवन में वे विभिन्न आश्रयदाताओं के आश्रय में रहे। इनमें महाराज जसवन्त सिंह, औरंगजेब, मिरजा कादरी, अजी मुश्शान प्रमुख हैं। इन्हीं आश्रयदाताओं के साथ रहते हुए कवि ने काशी, जोधपुर, दिल्ली, औरंगाबाद, अजमेर, ढाका और अन्त में किशनगढ़ आदि स्थानों की यात्राएँ की। सन् १७०७ (संवत १७६४) में किशनगढ़ के राजा राजसिंह ने अजी मुशशान से वृंद को माँग लिया। किशनगढ़ महाराज राजसिंह ने इनको किशनगढ़ में कई सौ गाँव की जागीर दी। जहाँ इनके वंशज आज भी मौजूद हैं। वृन्द कवि का व्यक्तित्व बहुत प्रभावशाली था। वे अपने जिस भी आश्रयदाता के पास रहे वहाँ वे काव्य गुरु, या शिक्षक गुरु बनकर सम्मान प्राप्त करते रहे। सन् १७२३ (संवत १७८०) में किशनगढ़ में ही वृन्द का देहावसान हो गया।

कवि वृन्द का रचना-संसार :

वृन्द कवि ने घुम्मकड़ी स्वभाव के चलते, अपनी ८० वर्षों की लम्बी जीवन यात्रा में तरह–तरह के अनुभव अर्जित किए। उन्हीं अनुभवों को वृंद ने अपनी प्रतिभा के माध्यम से अलग–अलग विषयों के रूप में संजोया है। आज उनकी अनेक रचनाएँ प्रकाश में आ चुकी हैं। इनकी रचनाओं में सम्मेत शिखर छंद, बारहमासा, हितोपदेश संधि, नैन बत्तीसी, भाव पंचाशिका, श्रृंगार शिक्षा, पवन पच्चीसी, हितोपदेशाष्टक, पुष्काराष्टक, नीति सतसई अथवा वृन्द विनोद सतसई, वचनिका, यमक सतसई, सत्य स्वरूप रूपक, भारत कथा, अक्षरादि छंद और स्फुट छंद आदि रचनाएँ आती हैं। वृंद ग्रंथावली नाम से वृंद की समस्त रचनाओं का एक संग्रह डॉ. जनार्दन राव चेलेर द्वारा संपादित होकर १९७१ ई. में प्रकाश में आया। इस ग्रंथावली की भूमिका में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के हिन्दी-विभाग के अध्यक्ष डॉ. विजयपाल सिंह जी ने लिखा है- “वृन्द की रचनाओं में नीति कवि वृन्द के साथ शृंगारी कवि वृन्द की मैत्री भी दिखायी देती है। भाव पंचाशिका, यमक सतसई आदि कृतियों में यद्यपि रूढ़ वस्तु ही समाविष्ट है, तथापि उक्ति-चमत्कार अपने ढंग का है। अनुभूति का पक्ष शिथिल है, किन्तु उक्ति-वैभव में वृन्द की देन निश्चित रूप से उत्कृष्ट है।

‘वृंद के काव्य में जीवन’ पुस्तक में डॉ. विकास कुमार लिखते हैं- “वृंद, हिन्दी के एकमात्र कवि हैं जिन्होंने दो सतसई- ‘यमक सतसई’ और ‘नीति सतसई’ की रचना की है।‘ इन रचनाओं में नीति सतसई का बहुत महत्त्व है। इन सब दोहों में लोकोक्तियों, मुहावरों और कहावतों का सुंदर प्रयोग किया है। नीति सतसई कविवर वृन्द की सर्वाधिक प्रसिद्ध और चर्चित रचना है। यह कवि की प्रसिद्धि की वास्तविक आधारशिला है। विद्वानों ने इस एक ही रचना को अलग–अलग नाम दिए हैं। गार्सा–द–तासी और आचार्य चतुरसेन शास्त्री ने इसे केवल ‘सतसई‘ कहा। मिश्रबन्धु, आचार्य शुक्ल और पं० अयोध्यासिंह उपाध्याय हरिऔध ने इसे ‘वृन्द सतसई‘ नाम दिया। डॉ० भगीरथ मिश्र ने इसको ‘वृन्द विनोद सतसई‘ की संज्ञा दी। डॉ० धीरेन्द्र वर्मा ने इसे ‘दृष्टान्त सतसई‘ नाम दिया। डॉ० मोतीलाल मेनारिया और डॉ० किशोरी लाल गुप्ता ने इसे ‘वृन्द सतसई‘ तथा ‘दृष्टान्त सतसई‘ दोनों नाम दिए। इन सभी नामों में ‘वृन्द विनोद सतसई‘ नाम अधिक सटीक प्रतीत होता है। कृति के अंतिम दोहे को पढ़ने से ऐसा आभास होता है कि कवि ने इस ग्रन्थ की रचना औरंगजेब के पौत्र शाह अजी मुश्शान के विनोदार्थ की थी। दूसरे, स्वयं कवि ने भी प्रस्तुत रचना में इस नाम का संकेत दिया है:

समै सार दोहानि कौं सुनत होय मन मोद।
प्रगत भई यह सतसई भाषा वृन्द विनोद।।


नीति सतसई में नैतिक आदर्श

वृन्द ने मध्यमवर्गीय और उच्चवर्गीय दोनों समाजों में व्याप्त अनेक कटुताओं को करीब से देखा था। उन्होंने अपने अनुभवों को अपने काव्य और वाणी द्वारा व्यक्त किया। वृन्द ने उस समय के समाज के लिए जो सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक, राजनैतिक आदर्श प्रस्तुत किए थे, उन्हें ही आज ‘नैतिक आदर्श‘ का नाम दिया जाता है।

सबै सहायक सबल के, कोउ न निबल सहाय।
पवन जगावत आग कौं, दीपहिं देत बुझाय।।
जो जाको गुण जानही, सो तिहि आदर देत।
कोकिल अंबहि लेत है, काग निबौरी लेत।।

वृन्द ने नम्रता, दया, क्षमा आदि सात्विक गुणों सहित धन से गुणों का महत्त्व, गुण से मान, गुण और वेश, एक ही गुण से यश की प्राप्ति, तेजस्विता, साहस, पराक्रम के साथ-साथ निस्तेज की अवज्ञा, अनेक निकम्मों से एक कर्मठ की श्रेष्ठता जैसे विषयों को अपने काव्य में स्थान दिया है।

धन अरु गेंद जु खेल को, दोऊ एक सुभाय।
कर में आवट छिन में, छिन में कर ते जाय।।
सरसुति के भंडार की, बड़ी अपूरब बात।
ज्यौं खरचै त्यौं-त्यौं बढै, बिन खरचे घटि जात।।

वृन्द ने उच्च और निम्न वर्ग के परिवारों की अच्छाइयों और बुराइयों को बहुत नजदीक से देखा था। अपने उसी अनुभव के आधार पर उन्होंने परिवार से जुड़ी हुई कुछ नीतिपरक व्यवहारिक बातें बताई हैं। वे मानते रहे कि हर परिवार का एक मुखिया होना चाहिए जो पूरे परिवार को एक सूत्र में बाँधने का कार्य करे।

सबही कुल में होत है, एक एक सरहार।
गज ऐराबत सुर सुरिन्द तरुवर में मंदार।।

पारिवारिक नीति के अंतर्गत उन्होंने सुपुत्र कुपुत्र की स्थिति पर भी प्रकाश डाला है। उनकी मान्यता है कि अपने दुखदायक कुपुत्र से दूसरे का सुखदायक सुपुत्र अच्छा है। उनका विचार है कि चाहे एक ही पुत्र हो। यदि वह योग्य है तो वह भी कुल की प्रतिष्ठा को बढ़ा देगा।

कुल कपूत जान्यो परै, लखि-सुभ लच्छन गात।
होनहार बिरवान के, होत चीकने पात।।
मधुर बचन ते जात मिट, उत्तम जन अभिमान।
तनिक सीत जल सों मिटे, जैसे दूध उफान।।

वृन्द यद्यपि दरबार में रहते थे परन्तु वे समाज के सामान्य लोकज्ञान से कदापि अपरिचित नहीं थे। उन्हें सामाजिक रीति-नीति का पूर्ण ज्ञान था। वे एक ओर राजा, नवाबों के बच्चों को शिक्षा देते हैं तो दूसरी ओर बनिया, गंधी लुहार की भी चर्चा करते है। सामान्य लोक समाज में ही वे जन्मे और पले थे। इसलिए उन्होंने इस समाज के अनेक विषयों पर विस्तार से वर्णन किया है।

दान-दिन को दीजै, मिटै दरिद्र की पीर।
औषध ताको दीजै, जाके रोग शरीर।।
अपनी पहुँच बिचारी कै, करतब करिये दौर।
तेते पाँव पसारिये, जेती लांबी सौर।।

कुल मिला कर, कवि वृन्द ने बहुत अधिक लिखा था। उनकी हस्तलिखित रचनाओं को सुरक्षित रखने का बहुत कुछ श्रेय उनके वंशजो को भी है। वर्तमान वंशजों के पूर्वज वृन्द के समस्त साहित्य को प्रकाशित कराने की योजना बना रहे थे, किन्तु अकाल मे ही कालकवलित हो गये। अतः उन्हें ‘शाकद्वीपीय ब्राह्मण बन्धु' पत्रिका का वृन्द विशेषांक निकालकर ही संतोष करना पड़ा।

कवि वृन्द : संक्षिप्त परिचय

पूरा नाम

वृन्द / 'वृन्दावनदास' 

जन्म

१६४३ (संवत १७००) मेड़ता (जोधपुर) राजस्थान। 

मृत्यु

१७२३ (संवत १७८०) किशनगढ़ 

पिता 

रूप जी 

माता 

कौशल्या 

पत्नी

नवरंगदे 

शिक्षा

साहित्य, दर्शन, व्याकरण, साहित्य, वेदान्त, गणित की शिक्षा 


रचना-संसार

समेत शिखर


८ छप्पय छंदों के अंतर्गत जैन सम्प्रदाय के प्रसिद्ध तीर्थ ‘समेत सिखर’ के माहात्य वर्णित। 

भाव पंचाशिका 


औरंगजेब के दरबार में मात्र एक रात्रि में रचे गये इस ग्रंथ में २२ दोहे और २५ सवैये के द्वारा शृंगार-रस विवेचित। 

माधोरम कृत ‘शक्ति भक्ति प्रकाश’ से 

शृंगार शिक्षा

एक नायिका-भेद विषयक ग्रंथ। मिर्जा कादरी के आश्रय के दौरान वृंद ने, मिर्जा कादरी की पुत्री को पतिव्रत-धर्म की शिक्षा देने के प्रयोजन से इस ग्रंथ की रचना की। 

पवन पचीसी 

शृंगार-रस प्रधान रचना में ऋतु संबंधित २५ छप्पय छंद वर्णित।

हितोपदेश संधि 

संस्कृत ग्रंथ ‘हितोपदेश’ की चौथी कथा का पद्यानुवाद। 

वृंद सतसई 


ढाका में अजी मुश्शान की प्रेरणा से रचा गया नीति-साहित्य का शृंगार, ७१३ दोहों में वर्णित। 

वचनिका 

किशनगढ़ के राजा रूपसिंह की युद्ध वीरता विवेचित। 

सत्य स्वरूप 

औरंगजेब के पुत्रों का राज्य सिंहासन के लिये किये गये युद्ध की वीरता वर्णित। 

यमक सतसई 

शृंगार विषयक ७०० दोहे वर्णित।

हितोपदेशाष्टक

८ घनाक्षरियों की शांत-रसप्रधान रचना। 

भारत कथा 


महाभारत के प्रसंग से सम्बंधित रचना। 

यक्ष के प्रश्न और युधिष्ठिर के उत्तर वर्णित। 

वृंद ग्रंथावली 

डॉ. जनार्दन राव चेलेर द्वारा संपादित, वृंद की समस्त रचनाओं का एक संग्रह।

सम्मान

अपने सभी आश्रयदाता से वे काव्य गुरु या शिक्षक गुरु का सम्मान प्राप्त करते रहे। 

 

संदर्भ:

  • विकिपीडिया 

  • कविता कोश

  • कविवर वृंद की जीवनी- निबंध भारती 

  • राजस्थानी भाषा और साहित्य- डॉ. मोतीलाल मेनारिया 

  • वृंद ग्रंथावली- डॉ. जनार्दन राव चेलेर / ई-पुस्तकालय 

  • सूक्तिकार कवि वृंद पाठ- डॉ. बी.पी.एस यादव 


लेखक परिचय:  

आभा खरे ने जीव विज्ञान में स्नातक किया है और हिंदी भाषा के प्रति समर्पित हैं। एक गृहिणी एवं हिंदी सेविका के रूप में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं। पिछले दो साल से 'कविता की पाठशाला' से जुड़ी हैं और स्वतंत्र लेखन कर रही हैं।   

इमेल : khareabha05@gmail.com

6 comments:

  1. कवि वृन्द के बारे में अच्छी विस्तृत जानकारी मिली, आभा जी नमन। वृन्द रीति काल के कवि थे पर भक्तिकाल का असर उनपर रहा यह सत्य गई। इन्होंने जिन छंदों का प्रयोग किया वे तो अब लुप्त प्रायः हैं। वुद्धिजीवी वर्ग छंद से क्यों चिढ़ते हैं समझ नहीं आता।

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  2. आभा, बहुत अच्छी जानकारी दी है तुमने कवि वृन्दावनदास पर। इनके सामाजिक, रीति-नीति और लोक ज्ञान की व्यापकता से चकित हूँ मैं। मुझे नहीं मालुम था कि, करत करत अभ्यास ...... वाले दोहे के लेखक ये ही हैं। उम्दा आलेख के लिए तुम्हें बधाई और धन्यवाद।

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  3. आभा जी नमस्ते। आपने कवि वृन्द पर बहुत अच्छा लेख लिखा है। कवि वृन्द की लिखी पंक्तियों को हम लोग कई बार प्रयोग करते हैं, लेकिन रचयिता को नहीं जानते। आपके लेख के माध्यम से कवि वृन्द के सृजन को विस्तार से जानने का अवसर मिला। आपको इस शोधपरक लेख के लिए हार्दिक बधाई।

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  4. कवि वृंद की सूक्तियाँ , कबीर , रहीम के दोहे , हिंदी साहित्य का अनमोल ख़ज़ाना हैं। हमारे जीवन में जाने-अनजाने कितने महत्वपूर्ण निर्णय हमने इन दिशा निर्देशों के आधार पर लिये हैं, यह हम भी नहीं जानते । धन्य हैं यह महापुरुष जो सैंकड़ों वर्ष पूर्व हमारा जीवन संवारने का काम कर गए, हमें ग़लतियाँ करने से बचा गए।
    आभा जी, आपने कवि वृंद की जीवन-कहानी बड़े रोचक प्रवाह में प्रस्तुत की है।सूक्तियों के उद्धरण सुंदर हैं। इन्हें सुन-सुन कर बड़े हुए, सो मनभावन लगते हैं ।आपने एक आलेख में इतना सब समेट कर कौशल का परिचय दिया है। आपको बधाई। शुभकामनाएँ। 💐💐

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  5. आभा, कवि वृन्द के व्यक्तित्व और कृतित्व से तुमने साहित्यकार तिथिवार को ख़ूब सुशोभित किया है। कवि वृन्द के लिए यह तथ्य पूरी तरह से खरा उतरता है कि नाम अक्सर याद नहीं रह जाते पर काम के दीपक जलते रहते हैं। उनकी तमाम सूक्तियों को सुन और समझ हम सब बड़े हुए, पर लेखक कौन इससे अनभिज्ञ रहे। इस सुंदर भेंट के लिए आभार और लेखन की बधाई।

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  6. नमस्कार आभा दी। कवि वृन्द के जीवन और साहित्य के बारे में इतनी सूक्ष्म जानकारी आज ही मिली, उसके लिए हम आभारी है।रीति काल के समृद्ध साहित्य निधि रहे वृंद पर आपकी लेखनी की अलग ही आभा झलक रही। धारा प्रवाह, रोचक और सुदृढ़ आलेख लेखन के लिए आपको बहुत बधाई।

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