Thursday, June 30, 2022

लाला लाजपत राय - आजीवन संघर्षरत योद्धा


घर में बड़े-बुज़ुर्गों से मिले विभिन्न धार्मिक और पारिवारिक संस्कारों में पला एक बालक जब समाज में फैली विषमताओं और अन्याय से रूबरू हुआ तो उसका रोम-रोम प्रतिरोध कर उठा। सोचने-समझने के अपने आरंभिक दिनों से लेकर आख़िरी साँस तक वह इस ऊहापोह में लगा रहा कि कैसे उसके देश के लोगों को भी अपनी ज़मीन पर वही सम्मान और स्थान मिले, जो दूसरे देशवासियों को उनके देशों में मिलता है। अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते हुए उसने कई बार अपनी राह में यथावश्यक परिवर्तन किए, विभिन्न पैंतरे आज़माए, पर स्वराज्य प्राप्ति के अपने ध्येय पर अंत तक टिका रहा। उसका कहना था, यदि स्वराज लेने के लिए हमारी आतुरता हमें धर्म बदलने की प्रेरणा दे और हम ईसाई बन जाएँ तो एक प्रकार की स्वतंत्रता अँग्रेज़ हमें दे देंगे परन्तु स्वराज तो सच्चे अर्थों में तभी होगा जब हम अपने स्वरुप में स्थिर रह कर राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्त करें। हमारा स्वरुप है हमारा धर्म, हमारी संस्कृति और हमारी देशगत-जातिगत भावनाएँ। उन्हें त्यागकर मिलने वाला स्वराज स्वराज्य नहीं है।”  ऐसे विचारों से ओतप्रोत व्यक्तित्व था लाला लाजपत राय का। उन्होंने सदैव लेखन, वकालत तथा राजनीतिक और सामजिक गतिविधियों द्वारा मुखर स्वरों में अपनी बात रखी।

बाल्यावस्था से ही लाजपत राय का स्वास्थ्य कमज़ोर रहा, प्रारम्भिक पाठशाला की शिक्षा अधिकांशतः पिता से पाई। उनके पिता का पसंदीदा शग़ल इतिहास तथा समसामयिक विषयों पर किताबें पढ़ना था, साथ ही उन्हें सभी धर्मों का अच्छा ज्ञान था। पिता ने न केवल बेटे को लिखना-पढ़ना या स्कूली विषय सिखाए, बल्कि धर्म और इतिहास में भी रुचि पैदा कर दी। बचपन में ही फ़ारसी की ‘सिकन्दरनामा’ और फ़िरदौसी का ‘शाहनामा तथा उर्दू की ‘रसूमे हिन्द’ और मौलवी मुहम्मद हुसैन की ‘क़सस-ए- हिन्द’ (भारत की गाथाएँ) लाजपत की सर्वाधिक प्रिय पुस्तकें बन गयीं। गुलिस्ताँ’ का यह शे’र सदा उसका प्रेरणास्रोत रहा-

आन न मन बाशम कि रोज़े जंग बीनी पुश्त-ए-मन
आन मनम गर दरमियाने ख़ाक-ओ-ख़ून बीनी सरी

(मैं वह नहीं हूँ कि लड़ाई के दिन तू मेरी पीठ देखे,
मैं वह हूँ कि मिट्टी और ख़ून के बीच तू मेरा सिर देखे।)

इतिहास गवाह है कि स्वाधीनता के इस योद्धा ने इस शे’र को अपने जीवन से जीवंत कर दिखाया, उसने मृत्यु बिलकुल इसी अंदाज़ में पाई।

मिडिल स्कूल पास करते ही १३ वर्ष की आयु में विवाह हो गया। इस मेधावी छात्र ने जब विश्वविद्यालय में दाख़िले के लिए कलकत्ता और लाहौर विश्वविद्यालय की प्रवेश परीक्षाएँ दीं, तो चयन दोनों जगह हो गया। पिता ने तमाम आर्थिक अभावों के बावजूद बेटे को उच्च शिक्षा देने का फ़ैसला किया और चयन लाहौर पर ठहरा। फरवरी १८८१ में वह लाहौर पहुँचा। यहाँ यह उल्लेख आवश्यक है कि लाजपत का स्वास्थ्य नाज़ुक ही रहा करता था और माता-पिता अपनी सभी व्यस्तताओं और बंदिशों के बावजूद दिन-रात बेटे की तीमारदारी में लगे रहते थे। सेवा-शुश्रूषा के ये पल बालक में कर्तव्य के प्रति आत्म-समर्पण और माता-पिता के लिए गहन श्रद्धाभाव जगा गए। माता-पिता द्वारा उच्च-शिक्षा के लिए उठाये कष्ट सदा उसके हृदय में रहे। इसीलिए लाजपत राय ने शिक्षा जल्दी समाप्त करके आजीविका कमाने को प्राथमिकता दी। कमज़ोर स्वास्थ्य तथा अन्य सार्वजानिक कार्यों में सक्रियता के चलते वकालत की कक्षा में स्थान प्राप्त करने के लिए इन्हें दो वर्ष इंतज़ार करना पड़ा; परन्तु इस दौरान मुख़्तारी की योग्यता प्राप्त कर ली। यही वे दिन थे जब वे महात्मा हंसराज, पंडित गुरुदत्त विद्यार्थी, राजा नरेन्द्रनाथ तथा प्रोफ़ेसर रुचिराम साहनी जैसे सहपाठियों के संपर्क में आए, जिनका  आधुनिक पंजाब के निर्माण एवं आर्य समाज तथा डीएवी कॉलेज के गठन एवं विकास में उल्लेखनीय योगदान रहा। गुरुदत्त, हंसराज और लाजपत राय के सार्वजनिक जीवन का श्रीगणेश हिंदी-उर्दू आंदोलन से हुआ, जिसमें वे हिंदी के पक्ष में थे। असल में लाजपत राय फ़ारसी, उर्दू, अँग्रेज़ी भाषाओं में तो दक्ष थे परन्तु हिंदी और संस्कृत में कच्चे थे। इससे ज़ाहिर होता है कि क़ौमी फायदों के मुक़ाबिले ज़ाती सहूलियतें उनके लिए कोई मायने न रखती थीं। सामजिक कार्यों की राह में पहला उल्लेखनीय पड़ाव आर्य समाज से संलग्नता बना। लाजपत राय को आर्य-समाज से जोड़ने का श्रेय लाहौर आर्यसमाज प्रधान साईंदास को जाता है। सन् १८८६ में लाजपत राय और उनकी मित्र-मंडली की दयानन्द एंग्लो-वैदिक कॉलेज खोलने और सञ्चालन में मुख्य भूमिका रही। महात्मा हंसराज इसके प्रिंसिपल बने। पंजाब में धार्मिक और सामाजिक परिवर्तन तथा जागरूकता जगाने में इन संस्थाओं की अहम भूमिका से कोई इनकार नहीं कर सकता। इन संस्थाओं से जुड़ने के दौरान ही लाजपत राय को इस बात की अनुभूति हुई कि प्रभावशाली भाषण भी एक बड़ी भारी शक्ति है।

कॉलेज के पहले साल में सुरेंद्र बैनर्जी की अँग्रेज़ी की क्लास में इटली के जोसेप्पे मैज़िनी पर व्याख्यान सुनकर उनके युवा हृदय पर जाति और राष्ट्र सेवा के ऐसे भाव जगे कि मैज़िनी अंत तक उनके राजनीतिक गुरु बने रहे; इसी सन्दर्भ में इतालवी गैरीबाल्डी ने भी अमिट छाप छोड़ी। लाजपत राय के शब्दों में, “मुझ पर मैज़िनी की पुस्तक ‘जीवनी तथा उपदेश’ का अपेक्षाधिक प्रभाव पड़ा। उस महान इटालियन की गहरी राष्ट्रीयता, उनके दुःख तथा संकट, उनकी उच्च नैतिकता तथा उनकी विशाल सहानुभूति ने मुझे मुग्ध कर दिया।” इस बेचैन युवक को आर्य समाज और कॉंग्रेस से जुड़ने से पहले ही अपनी विषयवस्तु तथा लक्ष्य और उसकी राह मैज़िनी के सिद्धांतों में मिल गयी थी; सभी संस्थाएँ उस उद्देश्य पूर्ति की साधन मात्र थीं। लाजपत राय फ़ौरन ही मैज़िनी की पुस्तक ‘मनुष्य के कर्तव्य’ का उर्दू अनुवाद करने में जुट गए, ताकि राष्ट्रीयता, स्वतंत्रता, देश में एकता आदि पर उनके भाव अधिकाधिक देशवासियों तक पहुँचे, उन्हें प्रेरित करें।

उन्होंने देशवासियों में जागरूकता लाने के उद्देश्य से १८९६ में ‘संसार के महापुरुष’ नाम से एक पुस्तकमाला शुरू की। इस पुस्तकमाला के अंतर्गत उन्होंने मैज़िनी, गैरीबाल्डी के अलावा शिवाजी, दयानन्द एवं श्रीकृष्ण के जीवन-चरित्र लिखे। मैज़िनी के प्रखर विचारों को मूर्तरूप देने का काम गैरीबाल्डी के हाथों हुआ था। इन पुस्तकों ने सरकारी महकमों में ख़ासी खलबली मचा दी थी किन्तु उनमें लेखक पर राजद्रोह का मुक़दमा चलाने योग्य कोई सुराग़ ढूँढ़ा न जा सका। शिवाजी की छवि उन दिनों तक मुग़ल शासकों के फ़ारसी इतिहासकारों द्वारा लिखित ग्रंथों के कारण धूमिल तथा नकारात्मक-सी थी; उस महान योद्धा के चरित्र से धूल पोंछने और उसे यथोचित सम्मान दिलाने में इस पुस्तक का बड़ा योगदान रहा। इस कृति के लिए प्रेरणा उन्हें बाल गंगाधर तिलक द्वारा गणपति त्योहार को प्रचलित करने के कार्यों से मिली और ठोस सामग्री रानाडे महोदय के मराठा इतिहास ग्रन्थ से प्राप्त हुई। महानुभवों को समर्पित पुष्पमाला का चौथा फूल दयानन्द सरस्वती की सुगंध बिखेरता है। यह जीवनी १८९७ के अकाल में सहायता-अभियानों में लालाजी की सक्रिय भूमिका और पुनः हुईं स्वास्थ्य-सम्बन्धी गंभीर समस्याओं के कारण सितम्बर १८९८ में ही प्रकाशित हो सकी। इस पुस्तक की उपयोगिता यह है कि इसमें स्वामीजी के जीवन की मुख्य घटनाएँ और उनके बचपन के कुछ दिलचस्प क़िस्से संग्रहित हैं। यह स्वामीजी के व्यक्तित्व, स्वभाव तथा आचरण आदि पर महत्त्वपूर्ण प्रकाश डालती है। इस पुस्तकमाला का अंतिम मोती श्रीकृष्ण हैं। लाजपतराय का श्रीकृष्ण मुख्यतः महाभारत का श्रीकृष्ण है। उनका श्रीकृष्ण लोक-प्रचलित छवियों में बँधे श्रीकृष्ण से कोई नाता नहीं रखता; वह ग्वालिनों के पीछे लगे रहने वाला माखन-चोर नहीं है।

लाला लाजपत राय ने १८८५ से १८९० तक हिसार में वकालत का काम किया और इस क्षेत्र में ख़ूब चमके। उनकी औसत मासिक आय उन दिनों डेढ़ हज़ार रुपये थी। अच्छी आमदनी प्राप्त होते ही सबसे पहले उन्होंने अपने पिता से नौकरी छोड़ने का अनुरोध किया और फिर सम्पूर्ण परिवार के गुज़ारे तथा भाई-बहनों की शिक्षा और ब्याह आदि के लिए धनराशि अलग से रख दी। वकालत की यह भारी सफलता उन्हें धनिकों की सूची में रख सकती थी, पर इस नौजवान के मन में वकालत छोड़ कर पूरी तरह से देश के कामों में कूद पड़ने की धुन लगी थी। उनके जीवन में धन-संपत्ति का स्थान बस इतना था कि परिवार ग़रीबी के दिन न देखे। उनके हृदय में हिसार छोड़कर लाहौर उड़ जाने की प्रबल इच्छा रहती थी।

लाहौर की कायापलट तेज़ी से हो रही थी, वह अँग्रेज़ी हुकूमत के पैर जमाने की ज़मीन बन रहा था। वहाँ नए कारख़ाने या मिलें तो नहीं खुल रही थीं, लेकिन बाबू तैयार करने के कारख़ाने- स्कूल और कॉलेज - तेज़ी से काम कर रहे थे। ये परिवर्तन मात्र भौतिक नहीं थे, शहर की मानसिकता भी बदल रही थी। सोते हुए पंजाब में राजनीतिक सरगर्मियों ने सिर उठाना शुरू कर दिया था। इन सब का नतीजा यह हुआ कि लाहौर पंजाब की यथार्थ राजनीतिक-राजधानी बनने लगा। सन् १८८१ में सरदार दयाल सिंह की उदारता से साप्ताहिक ट्रिब्यून का जन्म भी हो गया था; जो बाद में हफ़्ते में दो दिन निकलने लगा। लाजपत राय को लाहौर में वह माहौल मिल गया जिसकी उन्हें तलाश थी।

आर्य-समाज और डीएवी कॉलेज में अहम दायित्व निभाने के साथ-साथ लाहौर में १८९३ में उनकी गतिविधियों में कॉलेज पत्रिका का संपादन, ‘भारत सुधार’ तथा ‘आर्य मैसेंजर’ पत्रों के लिए लेखन, रोज़ी-रोटी के लिए वकालत आदि शामिल थे। साथ ही वे कॉलेज के लिए धन-संग्रह हेतु दौरा भी किया करते थे। कांग्रेस के पंजाब में १८९३ में हुए अधिवेशन में स्वागत-समिति का कार्यभार और सार्वजनिक सभाओं में वे अपनी उपस्थिति दर्ज कराते रहे। आर्यसमाज के आन्तरिक कलह को सुलझाने की ज़िम्मेदारी भी वही उठाते थे।

लाजपत राय का कांग्रेस पार्टी के प्रति उत्साह शुरूआती सालों में कभी सर्द तो कभी गर्म रहा। लाहौर में हुए अधिवेशन के समय भी कई बातों पर मतभेद रहे, मुख्य मुद्दा कांग्रेस के लिए विधान स्वीकार करने का था। बहरहाल, इसी सम्मलेन में उनकी मुलाक़ात गोपाल कृष्ण गोखले और बाल गंगाधर तिलक से हुई, जो आगे चलकर महत्त्वपूर्ण दोस्ती में बदल गयी।

लाजपत राय ने १८९७ में मध्यप्रदेश में आये महा-अकाल में अनाथ बच्चो के संरक्षण के लिए लाहौर तथा मेरठ में अनाथ-आश्रम खुलवाने और बच्चों की पोषण-व्यवस्था आदि के लिए दिन-रात एक कर दिए। इसके लिए उन्होंने अपनी वक्तृत्व कला, तर्क-शक्ति, सञ्चालन, संगठन तथा नियंत्रण प्रतिभा का उत्तम परिचय दिया। इस कार्य के लिए उनके साथ बहुत स्वयंसेवक जुड़े। इस अकाल के दौरान लगभग दो हज़ार बच्चों को आसरा मिला और सैकड़ों कार्यकर्ताओं को विशेषतः विद्यार्थियों को देशानुराग के कार्य तथा नागरिकता की व्यावहारिक शिक्षा प्राप्त हुई। साथ ही लोगों के मन से यह भ्रम टूटा कि केवल सरकार और मिशनरी संस्थाएँ ही घोर-संकट के समय उबारने के काम कर सकती हैं।

दूरदर्शी और ठोस क़दमों से उनकी छवि एक कारगर और कर्मठ नेता की बनने लगी। सोया हुआ पंजाब भी उनके आह्वान से जागने लगा, राजनैतिक पटल पर उभरने लगा। लेकिन अकाल के कठिन श्रम और स्वास्थ्य पर ध्यान न देने के कारण वे मौत के मुँह तक पहुँच गए थे।

एक और समस्या जिससे देश १९वीं सदी के अंत में जूझ रहा था, वह थी देशवासियों के अपने बैंक के न होने की। व्यापारिक स्वतंत्रता के लिए बैंक का होना बहुत ज़रूरी था। अंततः उनकी सक्रियता, लाला हरकिशन लाल और लाला मूलराज के उद्योग से १८९४ पंजाब नेशनल बैंक की स्थापना हुई

वकालत और सार्वजानिक काम अब एक दूसरे के रास्ते का रोड़ा बनते जा रहे थे। वे वकालत छोड़कर पूरी तरह से देश सेवा में जुटना चाहते थे, परन्तु परिवार को पहुँचने वाली आर्थिक सहायता के कारण निर्णय नहीं ले पा रहे थे। अंततः १८९८ से वकालत का समय घटाना शुरू कर दिया।

ट्रिब्यून उन दिनों पंजाब का एकमात्र समाचार-पत्र हुआ करता था, जिसने बाद में अंदरूनी-राजनीति के चलते अपनी प्रासंगिकता खो दी। आवाज़ न उठा सकने की मजबूरी ने पंजाब-वासियों को राजनैतिक रूप से सुस्त बना दिया था। लोगों में सक्रियता बढ़ाने और सरकारी अफ़सरों पर सार्वजनिक मत का प्रभाव बढ़ाने के उद्देश्य से उर्दू में समाचार पत्र ‘पंजाबी’ की शुरुआत की गयी। अक्टूबर १९०४ के पहले हफ़्ते में ‘पंजाबी’ का पहला अंक छपा और अपनी बेबाकी तथा तटस्थता के चलते फ़ौरन मक़बूल हो गया।

यह कर्मवीर पूरी तन्मयता से देश-विदेश में भारत की बात और उसके परिप्रेक्ष्य को व्याख्यानों और अपनी किताबों के ज़रिये रखता रहा। देश और कांग्रेस पार्टी में जो भी बात उसे स्वराज की प्राप्ति की राह में खटकी उसका उसने खुलकर विरोध किया। स्वदेशी, बहिष्कार और स्वराज्य आंदोलनों का ध्वजवाहक बना रहा। न्याय के पक्ष में खड़े रहने के लिए देश-निकाले में माण्डले जाना पड़ा, लेकिन फिर भी उसने अँग्रेज़ों के हर अत्याचार का विरोध किया। सन् १९२४ में अछूतोद्धार समिति का गठन कर पूरे देश में दलितों के उद्धार का भारी रचनात्मक कार्य किया। अक्टूबर १९२८ में साइमन कमीशन जब लाहौर पहुँचा, तलाजपत राय के नेतृत्व में उसका रास्ता रोका गया। पुलिस ने लाठीचार्ज किया, जिसकी चोटों के कारण १७ नवम्बर १९२८ को इस योद्धा के शरीर का तो अंत हो गया परन्तु वह अपनी लौ से अनेक युवा हृदयों में आज़ादी के क्रांति-दीप जला गया और उनके ज़िम्मे अपने अधूरे काम छोड़ गया। उसकी विदाई में पूरा लाहौर ‘क़ौम दा गुज़र गया सरदार’ की ध्वनि में गरज उठा था, लाहौर क्या पूरा देश जाग उठा था, मचल उठा था। 

जीवन परिचय : लाला लाजपत राय (पंजाब केसरी)

जन्म

२८ जनवरी, १८६५, गाँव ढूडिके, तहसील मोगा, ज़िला फ़िरोज़पुर (ननिहाल), अविभाजित भारत  

मृत्यु

१७ नवम्बर, १९२८, लाहौर, अविभाजित भारत

पिता

मुंशी राधा कृष्ण आज़ाद 

माँ

गुलाब देवी

पत्नी

राधा देवी

भाई

मेलाराम, गणपतराय, धनपतराय, नन्दलाल जो बाद में दलपतराय कहलाए

बहन

नाम अज्ञात

बच्चे

अमृत राय, प्यारेलाल, पार्वती

शिक्षा

स्कूल - गवर्नमेंट मिडिल स्कूल, रोपड़, अम्बाला 

कॉलेज - यूनिवर्सिटी गवर्नमेंट कॉलेज, लाहौर

कर्मभूमि

हिसार, लाहौर (मुख्यतः), सम्पूर्ण भारत, विदेश  

कार्यक्षेत्र

वकालत, संपादन, लेखन, सामाजिक कार्यकर्ता, स्वतंत्रता सेनानी 

साहित्यिक रचनाएँ

उर्दू किताबें 

     आर्य समाज की तारीख

     मैज़िनी

     गैरीबाल्डी

     शिवाजी

     दयानन्द सरस्वती

     ग़ुलामी की अलामतें और ग़ुलामी के नताइज  

     महाराज श्रीकृष्ण और उनकी तालीम

     स्वराज्य का रास्ता

अँग्रेज़ी किताबें

     The Story of My Deportation, 1908

     Arya Samaj, 1915

     The United States of America:A Hindu’s Impression, 1916

     England’s Debt to India: A Historical Narrative of Britain’s Fiscal Policy in India, 1917

     Unhappy India, 1928

राजनीतिक गतिविधियाँ एक नज़र में (कांग्रेस के गर्म दल का नेतृत्व - बाल,पाल, लाल तिकड़ी)

     १९०५ में पहली विदेश यात्रा पर इंग्लैंड प्रस्थान; गोखले के साथ कई स्थानों पर एक ही मंच से व्याख्यान

     १९०६ में स्वदेशी, बहिष्कार और स्वाराज आन्दोलनों में अग्रणी हिस्सेदारी

     १९०७ में देशनिकाला

     १९१४ में पुनः ब्रिटेन की यात्रा; इण्डिया बिल की धाराओं के लिए बतौर कांग्रेस प्रतिनिधि 

     १९१७-१९२० तक संयुक्त राज्य अमरीका में वास; १९१७ में वहाँ होम रूल लीग का गठन

     १९२० में कांग्रेस के कलकत्ता में हुए विशेष सत्र में अध्यक्षता करने का न्योता

     जालियाँवाला बाग़ हत्याकाण्ड के खिलाफ पूरे पंजाब में ब्रिटिश सरकार के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन

     १९२० में महात्मा गाँधी के असहयोग आंदोलन में पंजाब से नेतृत्व

     १९२० में उर्दू दैनिक ‘बन्दे मातरम’ का श्रीगणेश; साहसपूर्ण नीति और शिक्षापूर्ण सामग्री के कारण प्रसिद्धि

     गाँधी जी द्वारा असहयोग आंदोलन वापिस लेने की मुख़ालिफ़त 

     दिसंबर १९२० में तिलक राजनीति विद्यालय का गठन,

     २६ मई १९२० से जेनेवा के अंतर्राष्ट्रीय मज़दूर सम्मलेन में शिरकत;२ जून को भाषण 

     अक्टूबर १९२१ में महात्मा गाँधी के करकमलों से लोक सेवक मंडल का लोकार्पण कराया 

     १९२५ में साप्ताहिक अँग्रेज़ी पत्र ‘People’ की शुरुआत; पूरे भारत की जनता के जागरण के लिए

     फरवरी १९२८ में पंजाब विधान सभा में साइमन कमीशन के ख़िलाफ़ प्रस्ताव पेश

     ३० अक्टूबर १९२८ को साइमन कमीशन के विरोध में घातक लाठीचार्ज झेला

     ३,४ नवम्बर, १९२८ को भारतीय कांग्रेस कमेटी के अधिवेशन में शिरकत

     १७ नवम्बर, १९२८ को लाठीचार्ज के कारण स्वास्थ्य बिगड़ने से मृत्यु

     लाठीचार्ज होने पर निकले उद्गार, “आज मेरे ऊपर बरसी हर लाठी की चोट अँग्रेज़ों के ताबूत की कील बनेगी। 

सन्दर्भ:

१. जीवनी लाला लाजपतराय, संकलनकर्ता अलगूराय शास्त्री

२. लाला लाजपतराय की आत्म-कथा, संपादक भीमसेन विद्यालंकार 

३. https://www.jagranjosh.com/general-knowledge/lala-lajpat-rai-biography-1580207229-1

४. विकीपीडिया

लेखक परिचय :

प्रगति टिपणीस पिछले तीन दशकों से मास्को, रूस में रह रही हैं। शिक्षा इन्होंने अभियांत्रिकी में प्राप्त की है। ये रूसी भाषा से हिंदी और अंग्रेज़ी में अनुवाद करती हैं। आजकल एक पाँच-सदस्यीय दल के साथ हिंदी-रूसी मुहावरा कोश और हिंदी मुहावरा कोश पर काम कर रही हैं। हिंदी से प्यार करती हैं और मास्को में यथा संभव हिंदी के प्रचार-प्रसार का काम करती हैं।

 

Wednesday, June 29, 2022

शैल चतुर्वेदी: हास्य फुहारों से मंच पर गुदगुदी पैदा करने वाले

 



वैसे तो एक शरीफ इंसान हूँ,
आप ही की तरह श्रीमान हूँ,
मगर अपनी बाईं आँख से,
बहुत परेशान हूँ,

अपने आप चलती है,
लोग यूँ समझते हैं कि चलाई गई है,
जान-बूझ कर मिलाई गई है।


एक बार बचपन में,
शायद सन पचपन में,
क्लास में,
एक लड़की बैठी थी पास में,
नाम था सुरेखा,
उसने हमें देखा,
और हमारी आँख बाईं चल गई,
लड़की क्लास छोड़कर

बाहर निकल गई।

जब-जब उपर्युक्त पंक्तियाँ पढ़ी जाती हैं या कानों पर पड़ती हैं, तो चेहरा अपने आप हँसी के द्वार खोल देता है, मुस्कराहट की फुहार से मन भीग जाता है, यादों की गलियों में बालक सा लोट-पोट हो जाता है। आाँखों के सामने, मस्तिष्क में एक गोल-मटोल, हँसमुख व्यक्ति की छवि बन जाती है; जिसको देखते ही हास्य की बौछार शुरू हो जाती है, और मुँह से तारीफ़ के बोल निकल पड़ते हैं- वाह! वाह, शैल जी क्या बात है! उनकी ठहाकों भरी गगन-भेदी हास्य रचनाएँ स्वयं उन्हें भी अपने मसखरा स्वभाव से अलग नहीं कर पाती थी। मंचीय जादू और अनूठे अंदाज़ से वह हर सम्मेलन के छोटे-बड़े स्त्री-पुरुष का मन मोह लेते तथा सम्मेलन ख़त्म होने तक बस्स हँसी के फौव्वारे लुटाते रहते!

हिंदी साहित्य में कविता के अनेक रूप पढ़ने और सुनने को मिलते हैं। कविता कभी प्रेम और श्रृंगार का वर्षाव-छिड़काव करती हैं, तो कभी वेदना और विरह से विकल होकर हृदय के सम्बल को सम्भालती हैं। प्रकृति की नयनाभिराम छवि का वर्णन करती मस्तिष्क को स्फूर्ति और मोहित कर ऊर्जा से भी भर देती हैं। वीरों की गाथा और बलिदान से समूचे इतिहास को अजर-अमर करने की क्षमता भी रखती हैं, परंतु हास्य कविता वह साहित्यिक रचना है जो ‘क्षणिक मनोविनोद’ से निकल कर स्वयं में गहन मर्म समेटे हुए सभी के चेहरों पर मुस्कान लाती हैं। ऐसे ही हिन्दी साहित्य के इतिहास में एक महान बहुमुखी प्रतिभा के धनी शैलेंद्र कुमार चौबे (शैल चतुर्वेदी) हास्य कवि और उत्कृष्ट अभिनेता हुए जिनके बारे में आज हम कुछ और जानने की कोशिश करेंगे।

 

‘शैलेंद्र कुमार चतुर्वेदी’ का जन्म २९ जून १९३६ को महाराष्ट्र के अमरावती जिले में हुआ था। उनके पिता का नाम श्री प्रेमनारायण चतुर्वेदी और माता का नाम श्रीमती शकुंतला चतुर्वेदी था। आप भाई-बहनों में सबसे बड़े और लाडले थे। परिजन उन्हें घर में लाड से बाबू बुलाया करते थे, परंतु जान-पहचान और आस-पड़ोस के लोग उन्हें भैया कहकर पुकारते थे। उनमें बचपन से ही नाटकीयता और हास्यप्रियता का स्वाभाविक गुण था। फूल से कोमल, पर धारदार विचारधारा के और लड्डू जैसे गोल-मटोल शक्ल वाले शैलजी ज्ञानवान, ईमानदार, बेबाक, समय के पाबंद, उदार एवं मित्रवत व्यवहार रखने वाले मनमौजी बालक हुआ करते थे। उन्हें संगीत में रुचि थी, जिसके चलते वह बांसुरी और हारमोनियम भी ख़ूब अच्छा बजाते थे। अपने खाली समय में वह फाइन आर्ट भी करते और उन्होंने कुछ ख़ूबसूरत तस्वीरें भी बनायी थी। फुटबॉल उनका पसंदीदा खेल था। कॉलेज के दिनों में कई मैच भी खेल चुके थे। जिस तरह हर माँ-बाप का सपना होता है कि उनका बेटा डॉक्टर या इंजीनियर बने, वैसा ही कुछ माहौल इनके घर में भी था। परन्तु अपने भीतर पल रहे एक कलाकार को वे कभी मार न सके और उसके चलते किसी तरह उन्होंने स्नातक स्तर की पढ़ाई पूरी की। संयुक्त परिवार के ज़ोर पर उनके चाचा-ताऊ ने उन्हें मध्यप्रदेश, बैतूल में पंचायत पर्यवेक्षक की नौकरी दिला दी और S.E.O के रूप में तृतीय श्रेणी के अधिकारी के हवाले कर दिया। पंचायत विभाग में कला-संस्कृति के माध्यम से 'कला पथक' नाम का एक संस्थान था, जो गाँव-गाँव जाकर कला के माध्यम से लोगों को सरकारी योजनाओं की जानकारी देता था; जो शैलजी के लिए एक वरदान साबित हुआ। अपनी कला को और अपने अंदर दबे हुए कलाकार को जागृत करने का यह बहुत अच्छा मौका था, अतः उन्होंने इस कला पथक में अपनी कला को प्रदर्शित करना शुरू किया। उनके कला की नाँव जीवन-रूपी समुद्र में तैरने लगी और छोटी तनख्वाह होने के बावजूद भी बेहद संतुष्ट और कलात्मक जीवन जीने का उन्हें अवसर प्राप्त हुआ। उसी कला पथक के दौरान उन्हें नर्तन का भी ज्ञान प्राप्त हुआ और उन्होंने कई नवयुवक-युवतियों को नृत्य का अभ्यास कराया। वह एक अच्छे नर्तक भी साबित हुए। गाँव-गाँव जाकर खेले नाटक-नौटंकियों से उन्हें प्रसिद्धि और कीर्ति प्राप्त होने लगी। एक उत्कृष्ट कलाकार के रूप में वह पहचाने जाने लगे। कलाकार की भूमिका निभाने के पश्चात उन्होंने अपना रुख़ निर्देशन की तरफ़ मोड़ लिया, जहाँ उन्हें और उपलब्धियाँ प्राप्त हुईं। वह ख़ुद के नाटक और खेलों के लिए हास्य पंक्तियाँ लिखने लगे। उनके जीवन में हास्य कविता का रंग अकस्मात ही उमड़ पड़ा था।

सन १९६४ में मध्यप्रदेश के जबलपुर में एक कवि सम्मेलन होने जा रहा था। उस समय के कविता संसार के धूमकेतु नीरजजी और काका हाथरसी इस सम्मेलन के मुख्य आकर्षण थे, और उस कवि सम्मेलन को एक और हास्य कवि की ज़रूरत थी; परंतु इस योजना के अंतर्गत कोई कवि उपलब्ध नहीं हो पा रहे थे। उस सम्मेलन के संयोजक शैलजी की कला और हास्य कविता के प्रशंसक थे, इसलिए उन्होंने ज़बरदस्ती शैलजी को उन दिग्गजों के सामने इस सम्मेलन में खड़ा कर दिया। यह शैलजी का पहला काव्य-सम्मेलन था, जिसमें इन्हें उन महान ठहाकों के बादशाहों के सामने अपनी कुशलता का प्रमाण देना था। यहीं से उनकी भाग्य-रेखा का उदय हुआ। मंच पर खड़े रहने के पश्चात उन महारथियों के सामने अति उत्साहित जनता को देखकर तो पहले उन्हें कुछ समझ ही नहीं आया कि कहाँ से शुरुआत की जाए; परंतु अपने अंदर के कलाकार और हास्य कवि को जागृत कर उन्होने अपनी ही काया पर एक हास्य-ग़ज़ल (जिसे वे ग़ज़ला कहते थे) पेश की जिसे सुनकर लोग हँस-हँस कर लोट-पोट हो गये। उनकी इस अभिनयपूर्ण प्रस्तुति से श्रोता मंत्रमुग्ध थे और समूचा सभागार तालियों कि गड़गड़ाहट के साथ-साथ ‘वन्स मोर! वन्स मोर!!’ की आवाज़ से गूंज उठा। काफ़ी देर तक यह सिलसिला चलता रहा और वहीं से शैलेंद्र का जन्म शैल के नाम से हुआ । अगले तीन सालों में शैलजी हास्य रस के नए अवतार में विराट रूप लेकर उभरते रहे और वे जग प्रसिद्ध हो गए

अद्भुत एवं सम्पूर्ण कलाकार और अनगिनत गुणों से भरपूर शैलजी हास्य रस के उन कवियों में से थे, जिनकी प्रतिभा बहुआयामी थी। बहुत अच्छे कवि के साथ-साथ वह कुशल व्यंग्यकार भी साबित हुए।

क्या कहा-चुनाव आ रहा है?

तो खड़े हो जाइए

देश थोड़ा बहुत बचा है

उसे आप खाइए।

देखिये न,

लोग किस तरह खा रहे हैं

सड़कें, पुल और फैक्ट्रियों तक को पचा रहे हैं

जब भी डकार लेते हैं

चुनाव हो जाता है

और बेचारा आदमी

नेताओ की भीड़ में खो जाता है।

 

अपनी जुबानी राजनीतिक टिप्पणियों के साथ शैल जी १९७० से १९८० तक काका हाथरसी, ओमप्रकाश आदित्य, गोपालदास व्यास, निर्भय हाथरसी, माणिक वर्मा, हुल्लड़ मुरादाबादी के समकालीन रहे; सुरेन्द्र शर्मा, प्रदीप चौबे और अशोक चक्रधर जैसे शीर्ष नामों के बीच उन्होंने अपनी उत्तम और प्रतिष्ठित जगह बनायी।

 

अब बारी थी अपने अंदर पनप रहे रंगमंच के कलाकार को फिर से जागृत करने की, तो उन्होंने होली के वार्षिक कवि-सम्मेलन के दौरान दूरदर्शन पर राज्य सरकार द्वारा संचालित टी.वी. चैनल पर अपना हास्य रंग बिखेरना शुरू किया। जैसे-जैसे टी.वी. चैनल पर लोकप्रियता बढ़ने लगी, उन्हें हिन्दी फ़िल्मों में भी अपना अभिनय प्रस्तुत करने का अवसर मिला। सन १९७१ में उन्होंने फ़िल्म उपहार में एक बुज़ुर्ग शंकरलाल के रूप में अपनी भूमिका निभायी। १९७२ में फ़िल्म भैया में प्रकाशक के रूप में दिखायी दिए। सन १९७६ में चितचोर नामक फ़िल्म में उनका पसंदीदा किरदार श्री चौबेजी के रूप में ख़ूब ख्याति बटोर रहा था। फ़िल्म पायल की झंकार १९८० में प्रदर्शित होने के पश्चात सन १९८५ में फ़िल्म जज़्बात में हवलदार पांडे की भूमिका निभाकर ख़ूबसूरत अभिनय प्रस्तुत किया। इसी वर्ष फ़िल्म हम दो हमारे दो में भी वह नज़र आये। बहुचर्चित फ़िल्म चमेली की शादी जो १९८६ में परदे पर आयी, उसमें लच्छूराम कपाची (माखन के पिता) का किरदार निभाकर अपने अभिनय का जोरदार प्रदर्शन किया, जो काफ़ी सराहनीय रहा। उसके पश्चात १९९१ में नरसिम्हा और १९९३ में धनवान, १९९८ में करीब तथा तिरछी टोपीवाले जैसे नामांकित फ़िल्मों में भी उन्होंने अपनी अदाकारी की अच्छी छाप छोड़ी।


देखते कहीं हो

और चलते कहीं हो

कई बार कहा

इधर-उधर मत ताको

बुढ़ापे की खिड़की से

जवानी को मत झाँको

कोई मुझ जैसी मिल गई

तो सब भूल जाओगे

वैसे ही फूले हो

और फूल जाओगे


शैलजी की योग्यता पर कोई भी प्रश्न चिह्न नहीं लगा सकता, वह व्यावहारिक और क्षमतावान व्यक्ति में पहचाने जाते थे। अपनी कुशल प्रतिभा के चलते उन्होने टी.वी. शृंखला में भी महत्त्वपूर्ण किरदार निभाकर कला संस्कृति में योगदान दिया है। उन्होने ज़बान सम्भाल के धारावाहिक (सन १९९३) में स्कूल इंस्पेक्टर के अभिनय द्वारा लोगों को बहुत प्रभावित किया। उनका यह अति लोकप्रिय किरदार घर-घर में पारिवारिक रूप से देखा जाने वाला पसंदीदा किरदार बना। सन १९९५ में टी.वी. धारावाहिक श्रीमान श्रीमती में धर्मेद्र शर्मा के रूप में एक हास्य रूपी बॉस की भूमिका निभायी थी। १९९६ में भोंडी बाबा के नाटकीय कला को प्रस्तुत कर कुछ भी हो सकता है जैसे धारावाहिक में दिखायी दिए। हास्य के साथ-साथ कुछ संदिग्ध किरदार भी रामेश्वर रॉय के अंदाज़ में व्योमकेश बख्शी जैसे मियादी धारावाहिक में निभाया। अति विख्यात नाटकीय धारावाहिक कक्काजी कहिन में तो नेता बन कर उन्होने देश की राजनीतिज्ञ संदर्भो को हास्य में प्रस्तुत कर अपने अच्छे कलाकार होने का प्रमाण भी दिया है।

 

विकसित तथा अनुशासित व्यवस्था पसंद करने वाले शैलजी जीवन में बहुत-सी उपलब्धियाँ प्राप्त नहीं कर पाये; परंतु संवेदनशील और सहृदय शैलजी के सामने अगर कोई अत्यंत पीड़ा या दु:खवाला किस्सा लेकर आ जाए तो शैलजी तुरंत उसकी सहायता हेतु तत्पर रहते थे। उनमें इतनी ऊर्जा भरी होती थी कि बिना किसी हिचकिचाहट के अपने लक्ष्य पर पहुँचने में सारा ज़ोर लगा देते, पर कई बार अपनी काल्पनिक सीमाओं के बारे में सोचकर सफलता हाथ से निकल जाती थी। शैलजी की वास्तविक और व्यावहारिक सोच के कारण वस्तु और व्यक्ति के आर-पार देखने की अद्भुत दृष्टि रखते थे, उनसे कुछ भी छुपा पाना असम्भव था। उनमें अंदर की परिस्थितियों को तुरंत समझने एवं समस्याओं के त्वरित निराकरण करने की विशिष्ट क्षमता थी, जो किसी के दबाव में न आकर अपने लक्ष्य पर नियंत्रित रहती थी।

हास्य व्यंग्य के लिए पहचाने जाने वाले शैलजी प्रतिष्ठित लोगों के द्वारा मार्गदर्शन प्राप्त करते थे तथा अपनी शिक्षा, ज्ञान और साहित्य में परिणाम स्वरूप उन्नत बनाने की कोशिश में लगे रहते थे। कभी-कभी अति स्वतंत्रता के शिकार शैलजी ज्ञान और साहित्य के प्रति अजीब भूख रखते थे। हास्य रंग में हर रंग की कविताओं के लेखन के साथ उन्होने गजलें भी लिखी हैं। उनका व्यक्तित्त्व ऐसा था कि वह कभी किसी चीज से हार नहीं मानते थे। वह मधुमेह के मरीज़ थे और उनके पैर में जख़्म भी हो गये थे, जिसकी वज़ह से उन्हें बहुत पीड़ा होती थी; ठीक से चल भी नहीं पाते थे, परंतु पीड़ा को अपने हृदय तक रखते और श्रोताओं एवं पाठको मन में मुस्कान भरते थे। उन्होंने हमेशा अपने लिए सारे दु:ख रखे और बाक़ी सभी में खुशियाँ बाँटी हैं। जब कोई पीड़ा या दर्द असहनीय होता और कोई उनसे पूछ लेता कि क्या परेशानी है? तो बड़ी हास्य मुद्रा में कहते- “इस जन्म में तो मैंने सबको हँसाया है; पिछले जन्म की ही कोई कमी रही होगी, लेकिन इस बार मैं इस पीड़ा को भी हँसी में बदल दूँगा।”

दोस्ती या यारबाजी में शैलजी हमेशा अव्वल रहे। दोस्ती करके उसे निभाने में उन्हें तो जैसे महारत हासिल हुई हो। कई बार तो कलकत्ता में मित्र-गण के लिए कवि सम्मेलन में बिना पारिश्रमिक ही पहुँच जाते और अपनी कविता पाठ से दोस्तों के साथ-साथ श्रोताओं का मन भी आनंदित और उल्लासित कर देते थे। कई जगह पर तो आठ-आठ दिन रुक कर कविताएँ सुनाते रहते। उनकी एक बात हमेशा याद रहेगी। वह कहते थे कि- “कविता के जरिए अपने पाँव पर खड़े होने में उन्हें अगर २० साल लगे हैं, तो उस सफ़र को ख़त्म होने में ४० साल लगेंगेइसका संदर्भ यह था कि जो अपने पैरो पर ख़ुद खड़ा हो वह लम्बे समय तक याद रखा जायेगा, सराहा जायेगा; जैसे अनुभवीय लोग बच्चों से कहते हैं, किसी भी स्थिति में नम्बर वन की दौड़ में शामिल न हो, वरना तनावग्रस्त हो जाओगे। हमेशा काम पर ध्यान दो और पूरी लगन और शिद्दत के साथ उस काम को पूरा करो, तुम्हारे लिए दूसरे लोग अपने आप नम्बर लगाना शुरू कर देंगे और एक दिन वही एक नम्बर आपको समर्पित होगा।”

 

एक महान साहित्यकार, कवि और चरित्र अभिनेता शैलजी ने अपनी और आने वाली पीढ़ी को प्रभावित कर अपने कला के द्वारा एक अमिट छाप छोड़ी है। उतरती उमर के साथ वह अनेक बीमारियों से जूझ रहे थे। रंगीन टी.वी. युग की शुरुआत में व्यंग्य हास्य कविता के माध्यम से हर वर्ष दूरदर्शन के कार्यक्रमों में नज़र आने वाले शैलजी ने मंचों और फ़िल्मों से सन्यास ले लिया था; परंतु उनकी क़लम चलती रही। अपने गुर्दे की बीमारी के चलते वह एकांत में रहने लगे थे और जीवन की सक्रियता भी कम होने लगी थी। अपने आखिरी दिनों में मुंबई के मलाड स्थित आवास में कुछ गजलें भी लिखी। आखिरकार उनके जीवन-चक्र की गति धीमी होती गयी और बीमारियों का संवेग बढ़ता ही चला गया। अंतत: ७१ वर्ष की आयु में २९ अक्टूबर २००७ में सभी में खुशियाँ बाँटने वाला एक महान कवि और रंगमंच का किरदार अपनी खिलखिलाती हँसी के साथ गुम हो गया और वह अनंत में विलीन हो गये। जहाँ उनके बारे में सुनकर हँसी के ठाहके लगते थे, वही उनकी मृत्यु की ख़बर सुनकर दु:ख का सन्नाटा छा गया था।

आज भी यही कहा जा सकता है- “जब भी 'शैल' रूपी पर्वत का नाम मंच पर लिया जायेगा, अपने आप चेहरे पर हँसी का रंग चढ़ता जाएगा। जब कभी हास्य कवि सम्मेलन का इतिहास लिखा जाएगा; कोई हास्य रस-कथा काव्य सुनाया जाएगा, तो वहाँ शैलजी का ज़िक्र ख़ासतौर पर किया जाएगा।”

 

  

शैल चतुर्वेदी – जीवन परिचय

पूरा नाम

  शैलेंद्र कुमार चौबे

जन्म

  २९ जून १९३६, अमरावती, महाराष्ट्र, भारत

मृत्यु

  २९ अक्टूबर २००७ मलाड, मुंबई, भारत

पिता

  श्री प्रेमनारायण चतुर्वेदी

माता

  श्रीमती शकुंतला चतुर्वेदी 

पत्नि

  श्रीमती दया चतुर्वेदी

सन्तान

विशाल चतुर्वेदी, विहान चतुर्वेदी, विवेक चतुर्वेदी

शिक्षा व कार्य-क्षेत्र

स्नातक

सागर विश्वविद्यालय, सागर

कार्य-क्षेत्र

कवि, व्यंग्यकार, हास्यकार, गीतकार और अभिनेता

साहित्यिक लेखन


काव्य 

  • बाजार का ये हाल है

  • चल गई

  • लेन देन

  • तुम वाकई गधे हो

  • सौदागर ईमान के

  • कब मर रहें हैं

  • भीख माँगते शर्म नहीं आती

  • आँख और लड़की

  • पेट का सवाल है

  • हे वोटर महाराज

  • मूल अधिकार

  • दफ़्तरीय कविताएँ

  • देश के लिये नेता

  • पुराना पेटीकोट

  • औरत पालने को कलेजा चाहिये

  • उल्लू बनाती हो?

  • तू-तू, मैं-मैं

  • एक से एक बढ़ के

  • अप्रेल फूल

  • यहाँ कौन सुखी है

  • गांधी की गीता

  • मजनूं का बाप

  • शायरी का इंक़लाब

  • दागो, भागो

  • कवि सम्मेलन, टुकड़े-टुकड़े हूटिंग

  • फ़िल्मी निर्माताओं से


चयनित फिल्में

  • उपहार (१९७१) 

  • मेरे भैया (१९७२) 

  • चितचोर (१९७६) 

  • पायल की झंकार (१९८०)

  • जज़्बात (१९८०) 

  • हम दो हमारे दो (१९८५)

टीवी श्रृंखला (दूरदर्शन) 


  • रजनी

  • कबीर

  • ऑल राउंडर

  • सबेरे सबेरे 

  • चाचा चौधरी

  • रिश्तेदारियाँ

  • कक्काजी कहिन

  • गुल गुलशन गुलफाम

  • ये दुनिया गजब की

  • मिलन महल

  • माया जाल

  • अमृत मंथन

  • उजाले की ओर

  • नोकझोंक

  • सपने अपने अपने

  • तारा

  • हमारे अपने इंद्र धनुष

  • जबान सम्भाल के (सन १९९३)

ऑडियो कैसेट 

  • शैल चतुर्वेदी की कविताएँ

  • चल गई

  • हँसे कि फँसे

  • अनूप जलोटा के द्वारा गाये भजन 

सम्मान

  • काका हाथरसी सम्मान (१९७७)

  • ठिठोली पुरस्कार (१९७८)

  • ठहाका (१९८६)

  • टेपा (१९८७)

  • साहित्य कलामंच (१९८८)

  • समानांतर १९८९)

  • रोटरी (१९९०)

  • श्री बाल पांडेय (१९९१)

विशेष ख्याति

  • हास्य सम्राट काका हाथरसी– 

"शैल मंच पर चढ़े तब,

मच जाता है शोर,

हस्य व्यंग्य के शैल यह

जमते हैं घनघोर,

जमते हैं घनघोर

हँसे बीबी संग बाबू,

मंत्री, संतरी, लाला, लाली हो बेकाबू।

काका का आशीष,

विश्व मे ख्याति मिलेगी

बिना चरण चल गई

‘हजारों वर्ष चलेगी’!" 

  • डॉ श्रीधर मिश्र-  ऐसे कई उदाहरण मिल जायेंगे जो बताते हैं कि ‘शैलजी ने अपने हास्य को हास्यापद होने से कैसे बचाये रखा’।

  • व्यंग्यशिल्पी अशोक चक्रधर– हास्य व्यंग्य के क्षेत्र में शैलजी ने संवाद की नई शैली से धाक जमायी।

  • युगश्री (१९८९)– ‘कक्काजी कहिन’ में शैल चतुर्वेदी को दर्शकों ने बेहद पसंद किया।

  • रवींद्र श्रीवास्तव– आम-दर्शक शैल चतुर्वेदी को ‘कक्काजी कहिन’ में उनके सशक्त अभिनय के लिए याद रख सकता है। 


संदर्भ:-

  1. https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B6%E0%A5%88%E0%A4%B2_%E0%A4%9A%E0%A4%A4%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%A6%E0%A5%80

  2. https://books-google-co-tz.translate.goog/books?

  3. http://myhindiforum.com/archive/index.php/t-9034-p-2.html

  4. https://www.amarujala.com/kavya/hasya/hasya-kavi-shail-chaturvedi-best-hasya-poetry

  5. https://legendnews.in/today-came-to-the-world-comedy-poet-and-songwriter-shail-chaturvedi/

  6. https://www.hmoob.in/wiki/Shail_Chaturvedi

  7. श्री शैल चतुर्वेदी जी के सुपुत्र विशाल चतुर्वेदी से सम्वाद 

लेखक परिचय :

सूर्यकांत सुतार 'सूर्या'

दार-ए-सलाम, तंजानिया  

साहित्य से बरसों से जुड़े होने के साथ-साथ कई समाचार पत्रों, पत्रिकाओं एवं पुस्तकों में लेख, कविताएँ, गजलें व कहानियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं।

चलभाष: +२५५ ७१२ ४९१ ७७७

ईमेल: surya.४६७५@gmail.com


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कलेंडर जनवरी

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9ऐतिहासिक कथाओं के चितेरे लेखक - श्री वृंदावनलाल वर्मा 10आलोचना के लोचन – मधुरेश 11आधुनिक खड़ीबोली के प्रथम कवि और प्रवर्तक : पं० श्रीधर पाठक 12यथार्थवाद के अविस्मरणीय हस्ताक्षर : दूधनाथ सिंह 13बहुत नाम हैं, एक शमशेर भी है 14एक लहर, एक चट्टान, एक आंदोलन : महाश्वेता देवी 15सामाजिक सरोकारों का शायर - कैफ़ी आज़मी
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आचार्य नरेंद्रदेव : भारत में समाजवाद के पितामह

"समाजवाद का सवाल केवल रोटी का सवाल नहीं है। समाजवाद मानव स्वतंत्रता की कुंजी है। समाजवाद ही एक सुखी समाज में संपूर्ण स्वतंत्र मनुष्यत्व...