पं. प्रतापनारायण मिश्र का जन्म २४ सितम्बर १८५६ ई.में बेजेगाँव जिला-उन्नाव (उत्तर प्रदेश) में हुआ था। इनके पिता का नाम पं. संकटा प्रसाद था जो ज्योतिषाचार्य थे। इसी विद्या से वे उन्नाव से यहाँ आकर बसे थे। वे अपने पुत्र प्रताप नारायण को भी ज्योतिष पढ़ाना चाहते थे पर इनका मन उसमें नहीं लगा। बाद में अंग्रेजी शिक्षा के लिए भी इनका प्रवेश एक ब्रिटिश स्कूल में कराया गया किन्तु अंग्रेजी माध्यम से पढ़ने को मना कर दिया। उनके ऊर्जात्मक विचारों को देखकर उनके पिता समझ गए थे कि पुत्र प्रताप में 'प्रताप' की भाँति ऊष्मा और उत्क्रान्त गुण हैं। सो उन्होंने उनके बाल-जीवन को स्वतंत्र रखने के विचार से स्कूली शिक्षा से मुक्त करते हुए अपनी देख-रेख में अध्ययन का केन्द्र घर को ही बना दिया। उन्होंने मन लगाकर किसी भी भाषा का अध्ययन नहीं किया, तथापि इन्हें हिन्दी, उर्दू, फारसी, संस्कृत और बांग्ला का अच्छा ज्ञान हो गया।
अपने समय के एक क्रान्तिकारी कवि के रूप में हिन्दी-जगत में अवतरित हुए पर शीघ्र ही कविता से मुँह मोड़कर ये गद्य- लेखन की ओर उन्मुख हुए। मूलतः मिश्र जी बालकृष्ण भट्ट की धारा और कोटि के निबन्धकार थे। इन्होंने नाटक, कविताओं के द्वारा राष्ट्रप्रेम की भावना का प्रचार-प्रसार किया। उनकी इस साहित्य सेवा का साधन "ब्राह्मण" नामक पत्र था जिसमें साप्ताहिक विषयों के अतिरिक्त सामाजिक-राजनीतिक विषयों से सम्बन्धित अनेक लेख लिखकर जन-मन को जागरूक किया तथा उन्हें वाणी दी। भारतीय और विदेशों की विशेष पहचान उनके विरल व्यक्तित्व की प्रमुख पहचान थी जो उनके अनेक निबन्धों में प्रभावी मुद्रा में व्यक्त हुई है।
अपने आरम्भिक दिनों में लावनीबाजों के सम्पर्क में आकर लावनियाँ लिखनी शुरू कीं और यहीं से इनकी कविता का श्रीगणेश हुआ किन्तु शीघ्र ही कविता से मोहभंग हुआ और गद्य की ओर उन्मुख हुए। कानपुर के सामाजिक-राजनीतिक जीवन से भी इनका गहरा सम्बन्ध था। वे यहाँ के अनेक सामाजिक-सांस्कृतिक संस्थाओं से सम्बद्ध थे। अपनी हाजिरजवाबी और हास्यप्रियता के कारण वे कानपुर में काफी लोकप्रिय थे। आचार्य चतुरसेन शास्त्री ने लिखा है-' वे बहुत मनमौजी थे, बड़े हास्य प्रिय और मस्तमौला। इनके लेख भी चुटीले और तीखे व्यंग्यों से परिपूर्ण होते थे। वे ग्राम्य शब्दों का बेधड़क प्रयोग करते थे। इन्होंने साहित्य और भाषा को व्यावहारिक रूप दिया। 'मिश्र जी बड़े विनोदी स्वभाव के थे। हास्यप्रियता इनके व्यक्तित्व का एक विशिष्ट गुण था। एक बार ईश्वरचन्द्र विद्यासागर इनसे मिलने आए तो इन्होंने उनके साथ पूरी बातचीत बांग्ला भाषा में ही की।
साहित्यिक योगदान: प्रतिभा एवं परिश्रम के बल पर अपनी अल्पायु में ही पं. प्रतापनारायण मिश्र ने हिन्दी के निर्माताओं ( भारतेन्दु, बालकृष्ण भट्ट आदि) में अपना विशिष्ट स्थान बना लिया। वे कविता के क्षेत्र में पुरानी धारा के अनुयायी थे। ब्रजभाषा की समस्या की पूर्णियाँ ये खूब किया करते थे। इन्होंने ही "हिन्दी-हिन्दुस्तान" का नारा दिया था। प्रारम्भ में लेखन कार्य लावण्यता से किया क्योंकि आरम्भिक दिनों में रुचि लोक-साहित्य के सृजन की ओर थी। कुछ वर्षों के उपरान्त ये गद्य के क्षेत्र में पदार्पण किए। गद्य में निबन्ध विधा को इन्होंने विशेष प्रश्रय दिया। यद्यपि काव्य,नाटक, रूपक, प्रहसन आदि विधाओं में भी उत्कृष्ट सृजन किया।
ये भारतेन्दु हरिश्चंद्र के व्यक्तित्व से विशेष प्रभावित होने के कारण उन्हें अपना गुरु मानते थे। उनकी जैसी ही व्यावहारिक भाषा-शैली अपनाकर मिश्रजी ने भी मौलिक और अनूदित रचनाएँ लिखीं तथा 'ब्राह्मण' और हिन्दुस्तान' नामक पत्रों का सफल सम्पादन किया। भारतेन्दु के ही 'कवि-वचन-सुधा' से प्रेरित- प्रभावित होकर मिश्र जी ने कविताएँ भी लिखीं। निबन्धकार के रूप में कदाचित औरों की अपेक्षा व्यक्ति व्यंजक निबन्ध की प्रकृति के अधिक निकट थे। उनके निबन्धों के विषय अत्यन्त सामान्य होते थे। जैसे,आँख, कान,दाँत,बात, भौं,तिल,धोखा, छल, बेगम आदि को लेकर रम्य शैली में अपने समय की जातीय संवेदनाओं को मुक्त अभिव्यक्ति देने की असाधारण क्षमता-प्रतिभा मिश्रजी में थी। कूप-मंडूक और अन्धविश्वास पर अपने समय के जागरूक लेखकों की तरह तीव्र कटाक्ष करने में वे संकोच नहीं करते थे। उन्होंने विचारात्मक, भावात्मक,वर्णनात्मक तथा विवरणात्मक निबन्धों की सृष्टि की है। हिन्दी निबन्ध के क्षेत्र में आज भी उनके जैसे लालित्यपूर्ण निबन्धकार की कमी महसूस होती है। उनके निबन्धों में पर्याप्त विविधता है। उनके निबन्ध 'प्रताप निबन्धावली' नाम से प्रकाशित हैं। उन्होंने कानपुर में 'नाटक सभा' की स्थापना भी की थी जिसके माध्यम से पारसी थियेटर के समानांतर हिन्दी का अपना रंगमंच खड़ा करना चाहते थे। ये स्वयं भारतेन्दु की तरह एक कुशल अभिनेता थे। बांग्ला के अनेक ग्रन्थों का अनुवाद करके हिन्दी साहित्य की श्रीवृद्धि की है।
भाषा-शैलीगत वैशिष्ट्य: मिश्र जी की भाषा मुहावरेदार और कहावतों से सजी हुई अत्यन्त ही लच्छेदार थी। जिसमें उर्दू,फारसी,संस्कृत के शब्दों के साथ-साथ उन्होंने वैसवाड़ी के देशज शब्दों के भी प्रयोग किए हैं।सर्वसाधारण के लिए अपनी रचनाओं को ग्राह्य बनाने के उद्देश्य से उन्होंने सर्वसाधारण की बोलचाल की भाषा का इस्तेमाल किया है। या यह कहें कि कहावतें, मुहावरों और ग्रामीण शब्दों को रत्न की भाँति उसमें जड़ दिया है। भाषा प्रवाहयुक्त, सरल, सुबोध है। उसमें उर्दू तथा अंग्रेजी के शब्दों का भी प्रयोग हुआ है जैसे,कला, मुल्ला, वर्ड ऑफ गॉड आदि। उनकी भाषा दो प्रकार की है-
1.व्यावहारिक
2.खड़ीबोली
इनके निबन्धों की शैली में एक अद्भुत प्रवाह एवं आकर्षण है। इनकी शैली भी मुख्यतः दो प्रकार की है- विनोदपूर्ण तथा गम्भीर शैली।
विनोदपूर्ण शैली को उत्कृष्ट कहना 'समझदार की मौत' है। गम्भीर शैली में इन्होंने बहुत कम लिखा है। यह उनके स्वभाव के अनुकूल नहीं था। 'मनोयोग' नामक निबन्ध इनकी गम्भीर शैली का एक उम्दा उदाहरण है।
विनोदपूर्ण शैली: 'इसके अतिरिक्त बात बनती है, बात बिगड़ती है, बात जाती है, बात खुलती है, बात छिपती है, बात अड़ती है, बात जमती है, बात उड़ती है, हमारे तुम्हारे भी सभी काम बात पर ही निर्भर हैं।'
गम्भीर शैली : 'संसार में संसारी जीव प्रत्येक एक-दूसरे की परीक्षा न करें तो काम न चले, पर उनके काम चलने में कठिनाई यह है कि मनुष्य की बुद्धि अल्प है अतः प्रत्येक विषय पर पूर्ण निश्चय संभव नहीं है।'
परन्तु प्रतापनारायण मिश्र के निबन्ध अपना विशेष महत्व रखते हैं। इनके निबन्धों में इनके मन की सहज तरंग का परिचय मिलता है।भावों की व्यंजना उनके निबन्धों का विशिष्ट गुण है। तत्वतः इनके निबन्धों ने उस काल में नई चेतना के स्फुरण में बड़ा महत्वपूर्ण योगदान दिया| इनकी भाषा में नैसर्गिकता है। अतः कथ्य-कथन-क्राफ्ट के साथ भाषा-शैली प्रभृति सभी स्तरों पर उनके निबन्धों में चुम्बकीय शक्ति है।
सन्दर्भ :
1- बीसवीं सदी: हिन्दी के मानक निबन्ध/ डॉ.राहुल,
भावना प्रकाशन,109-ए,पटपड़ गंज, दिल्ली-91
2- हिन्दी साहित्य का परिचय/ आचार्य चतुरसेन
शास्त्री, राजपाल एण्ड संस्कृत, दिल्ली
3- हिन्दी साहित्य का इतिहास/ रामचंद्र शुक्ल, काशी
नागरी प्रचारिणी सभा, बनारस
4- https//sarkuri guider.com.pratap.n
5- https//hi.m.wikipedia-org.wiki..
6- हिन्दी उपन्यास और समाज/ ओमप्रकाश शर्मा,
अरावली बुक इंटरनेशनल (प्रा) लि.,ओखला,दिल्ली
7- 'दि मॉरल' विशिष्ट (साहित्य) विशेषांक/ सम्पा.शिव
शरण त्रिपाठी, कानपुर (उ. प्र.)
लेखक परिचय:
डॉ. राहुल का जन्म २ अक्टूबर १९५२ को ग्राम-खेवली, ज़िला वाराणसी, (उत्तर प्रदेश) में एक कायस्थ परिवार
में हुआ है। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान, लखनऊ एवं हिंदी अकादमी दिल्ली द्वारा पुरस्कृत-सम्मानित।
अंतर्राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त यशस्वी कवि-आलोचक डॉ० राहुल की अब तक ७० से अधिक कृतियाँ प्रकाशित
हो चुकी हैं। उत्तर रामकथा पर आधारित "युगांक" (प्रबंधकाव्य) का लोकार्पिण करते हुए तत्कालीन
राष्ट्रपति डॉ० शंकरदयाल शर्मा ने कहा था- “यह बीसवीं सदी की एक महत्वपूर्ण काव्य-कृति है।
इससे भारतीय संस्कृति की पुनर्प्रतिष्ठा होती है और सामाजिक-राष्ट्रीय एकता को बल मिलेगा।”
कविता, कहानी, उपन्यास, निबंध, आलोचना आदि विधाओं में इन्होंने महत्वपूर्ण सृजन किया है।
जिसकी भूरि-भूरि प्रशंसा हिंदी के महान साहित्यकारों ने की है।
डॉ. राहुल जी नमस्ते। आपने पं. प्रतापनारायण मिश्र जी पर बहुत अच्छा एवं जानकारी भरा लेख लिखा है। लेख से उनके साहित्य की विशेषता एवं साहित्यिक योगदान को बहुत रोचक रूप में हम सभी तक पहुँचाया। मेरे लिए तो लेख बहुत सारी नई जानकारी भरा है। आपको इस महत्वपूर्ण लेख के लिए हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteराहुल जी आपने पं. प्रतापनारायण मिश्र जी पर बहुत प्रभावी और जानकारियों से भरा लेख लिखा है। इस लेख के माध्यम से हमें उनके साहित्यिक योगदान, रचना- संसार और जीवन से जुड़ी गतिविधियों को समग्रता के साथ जानने का अवसर मिला। आपको इस सुगठित और सुरूचिपूर्ण लेख के लिए बहुत बधाई।
ReplyDeleteमिश्र जी के जीवन वृतांत और उनके साहित्यिक उपलब्धियों के बारे में इतनी जानकारी मिली, उसके लिए डॉ. राहुल सर का आभार। धारा प्रवाह और शोध परक लेखन के लिए हार्दिक बधाई। नमस्कार
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